अदा ज़ाफ़री | Ada Jafri / Zafri

 अदा ज़ाफ़री की ग़ज़लें Ghazals by Ada Zafri

हाल खुलता नहीं जबीनों से / 'अदा' ज़ाफ़री

हाल खुलता नहीं जबीनों से
रंज उठाए हैं जिन क़रीनों से

रात आहिस्ता-गाम उतरी है
दर्द के माहताब ज़ीनों से

हम ने सोचा न उस ने जाना है
दिल भी होते हैं आब-गीनों से

कौन लेगा शरार-ए-जाँ का हिसाब
दस्त-ए-इमरोज़ के दफ़ीनों से

तू ने मिज़गाँ उठा के देखा भी
शहर ख़ाली न था मकीनों से

आश्ना आश्ना पयाम आए
अजनबी अजनबी ज़मीनों से

जी को आराम आ गया है 'अदा'
कभी तूफ़ान कभी सफ़ीनों से


गुलों सी गुफ़्तुगू करें / 'अदा' ज़ाफ़री

गुलों सी गुफ़्तुगू करें क़यामतों के दरमियाँ
हम ऐसे लोग अब मिलें हिकायतों के दरमियाँ

लहू-लुहान उँगलियाँ हैं और चुप खड़ी हूँ मैं
गुल ओ समन की बे-पनाह चाहतों के दरमियाँ

हथेलियों की ओट ही चराग़ ले चलूँ अभी
अभी सहर का ज़िक्र है रिवायतों के दरमियाँ

जो दिल में थी निगाह सी निगाह में किरन सी थी
वो दास्ताँ उलझ गई वज़ाहतों के दरमियाँ

सहिफ़ा-ए-हयात में जहाँ जहाँ लिखी गई
लिखी गई हदीस-ए-जाँ जराहतों के दरमियाँ

कोई नगर कोई गली शजर की छाँव ही सही
ये ज़िंदगी न कट सके मुसाफ़तों के दरमियाँ

अब उस के ख़ाल-ओ-ख़द का रंग मुझ से पूछना अबस
निगाह झपक झपक गई इरादतों के दरमियाँ

सबा का हाथ थाम कर 'अदा' न चल सकोगी तुम
तमाम उम्र ख़्वाब ख़्वाब साअतों के दरमियाँ

गुलों को छू के शमीम-ए-दुआ / 'अदा' ज़ाफ़री

गुलों को छू के शमीम-ए-दुआ नहीं आई
खुला हुआ था दरीचा सबा नहीं आई

हवा-ए-दश्त अभी तो जुनूँ का मौसम था
कहाँ थे हम तेरी आवाज़-ए-पा नहीं आई

अभी सहीफ़ा-ए-जाँ पर रक़म भी क्या होगा
अभी तो याद भी बे-साख़्ता नहीं आई

हम इतनी दूर कहाँ थे के फिर पलट न सकें
सवाद-ए-शहर से कोई सदा नहीं आई

सुना है दिल भी नगर था रसा बसा भी था
जला तो आँच भी अहल-ए-वफ़ा नहीं आई

न जाने क़ाफ़िले गुज़रे के है क़याम अभी
अभी चराग़ बुझाने हवा नहीं आई

बस एक बार मनाया था जश्न-ए-महरूमी
फिर उस के बाद कोई इब्तिला नहीं आई

हथेलियों के गुलाबों से ख़ून रिस्ता रहा
मगर वो शोख़ी-ए-रंग-ए-हिना नहीं आई

ग़ुयूर दिल से न माँगी गई मुराद 'अदा'
बरसने आप ही काली घटा नहीं आई


आलम ही और था / 'अदा' ज़ाफ़री

आलम ही और था जो शनासाइयों में था
जो दीप था निगाह की परछाइयों में था

वो बे-पनाह ख़ौफ़ जो तन्हाइयों में था
दिल की तमाम अंजुमन-आराइयों में था

इक लम्हा-ए-फ़ुसूँ ने जलाया था जो दिया
फिर उम्र भर ख़याल की रानाइयों में था

इक ख़्वाब-गूँ सी धूप थी ज़ख़्मों की आँच में
इक साए-बाँ सा दर्द की पुरवाइयों में था

दिल को भी इक जराहत-ए-दिल ने अता किया
ये हौसला के अपने तमाशाइयों में था

कटता कहाँ तवील था रातों का सिलसिला
सूरज मेरी निगाह की सच्चाइयों में था

अपनी गली में क्यूँ न किसी को वो मिल सका
जो एतमाद बादिया-पैमाइयों में था

इस अहद-ए-ख़ुद-सिपास का पूछो हो माजरा
मसरूफ़ आप अपनी पज़ीराइयों में था

उस के हुज़ूर शुक्र भी आसाँ नहीं 'अदा'
वो जो क़रीब-ए-जाँ मेरी तन्हाइयों में था


अचानक दिल-रुबा मौसम का / 'अदा' ज़ाफ़री

अचानक दिल-रुबा मौसम का दिल-आज़ार हो जाना
दुआ आसाँ नहीं रहना सुख़न दुश्वार हो जाना

तुम्हें देखें निगाहें और तुम को ही नहीं देखें
मोहब्बत के सभी रिश्तों का यूँ नादार हो जाना

अभी तो बे-नियाज़ी में तख़ातुब की सी ख़ुश-बू थी
हमें अच्छा लगा था दर्द का दिल-दार हो जाना

अगर सच इतना ज़ालिम है तो हम से झूट ही बोलो
हमें आता है पत-झड़ के दिनों गुल-बार हो जाना

अभी कुछ अन-कहे अल्फ़ाज़ भी हैं कुँज-ए-मिज़गाँ में
अगर तुम इस तरफ़ आओ सबा रफ़्तार हो जाना

हवा तो हम-सफ़र ठहरी समझ में किस तरह आए
हवाओं का हमारी राह में दीवार हो जाना

अभी तो सिलसिला अपना ज़मीं से आसमाँ तक था
अभी देखा था रातों का सहर आसार हो जाना

हमारे शहर के लोगों का अब अहवाल इतना है
कभी अख़बार पढ़ लेना कभी अख़बार हो जाना.

दीप था या तारा क्या जाने / 'अदा' ज़ाफ़री

दीप था या तारा क्या जाने
दिल में क्यूँ डूबा क्या जाने

गुल पर क्या कुछ बीत गई है
अलबेला झोंका क्या जाने

आस की मैली चादर ओढ़े
वो भी था मुझ सा क्या जाने

रीत भी अपनी रुत भी अपनी
दिल रस्म-ए-दुनिया क्या जाने

उँगली थाम के चलने वाला
नगरी का रस्ता क्या जाने

कितने मोड़ अभी बाक़ी हैं
तुम जानो साया क्या जाने

कौन खिलौना टूट गया है
बालक बे-परवा क्या जाने

ममता ओट दहकते सूरज
आँखों का तारा क्या जाने


जो चराग़ सारे बुझा चुके उन्हें इंतिज़ार कहाँ रहा / 'अदा' ज़ाफ़री

जो चराग़ सारे बुझा चुके उन्हें इंतिज़ार कहाँ रहा
ये सुकूँ का दौर-ए-शदीद है कोई बे-क़रार कहाँ रहा

जो दुआ को हाथ उठाए भी तो मुराद याद न आ सकी
किसी कारवाँ का जो ज़िक्र था वो पस-ए-ग़ुबार कहाँ रहा

ये तुलू-ए-रोज़-ए-मलाल है सो गिला भी किस से करेंगे हम
कोई दिल-रुबा कोई दिल-शिकन कोई दिल-फ़िगार कहाँ रहा

कोई बात ख़्वाब ओ ख़याल की जो करो तो वक़्त कटेगा अब
हमें मौसमों के मिज़ाज पर कोई ऐतबार कहाँ रहा

हमें कू-ब-कू जो लिए फिरी किसी नक़्श-ए-पा की तलाश थी
कोई आफ़ताब था ज़ौ-फ़गन सर-ए-रह-गुज़ार कहाँ रहा

मगर एक धुन तो लगी रही न ये दिल दुखा न गिला हुआ
के निगाह को रंग-ए-बहार पर कोई इख़्तियार कहाँ रहा

सर-ए-दश्त ही रहा तिश्ना-लब जिसे ज़िंदगी की तलाश थी
जिसे ज़िंदगी की तलाश थी लब-ए-जूएबार कहाँ रहा

हर गाम सँभल सँभल रही थी / 'अदा' ज़ाफ़री

हर गाम सँभल सँभल रही थी
यादों के भँवर में चल रही थी

साँचे में ख़बर के ढल रही थी
इक ख़्वाब की लौ से जल रही थी

शबनम सी लगी जो देखने मैं
पत्थर की तरह पिघल रही थी

रूदाद सफ़र की पूछते हो
मैं ख़्वाब में जैसे चल रही थी

कैफ़ियत-ए-इंतिज़ार-ए-पैहम
है आज वही जो कल रही थी

थी हर्फ़-ए-दुआ सी याद उस की
ज़ंजीर-ए-फ़िराक़ गल रही थी

कलियों को निशान-ए-रह दिखा कर
महकी हुई रात ढल रही थी

लोगों को पसंद लग़्ज़िश-ए-पा
ऐसे में 'अदा' सँभल रही थी


घर का रस्ता भी मिला था शायद / 'अदा' ज़ाफ़री

घर का रस्ता भी मिला था शायद
राह में संग-ए-वफ़ा था शायद

इस क़दर तेज़ हवा के झोंके
शाख़ पर फूल खिला था शायद

जिस की बातों के फ़साने लिक्खे
उस ने तो कुछ न कहा था शायद

लोग बे-मेहर न होते होंगे
वहम सा दिल को हुआ था शायद

तुझ को भूले तो दुआ तक भूले
और वही वक़्त-ए-दुआ था शायद

ख़ून-ए-दिल में तो डुबोया था क़लम
और फिर कुछ न लिक्खा था शायद

दिल का जो रंग है ये रंग-ए-'अदा'
पहले आँखों में रचा था शायद


कोई संग-ए-रह भी चमक उठा / 'अदा' ज़ाफ़री

कोई संग-ए-रह भी चमक उठा तो सितारा-ए-सहरी कहा
मेरी रात भी तेरे नाम थी उसे किस ने तीरा-शबी कहा

मेरे रोज़ ओ शब भी अजीब थे न शुमार था न हिसाब था
कभी उम्र भर की ख़बर न थी कभी एक पल को सदी कहा

मुझे जानता भी कोई न था मेरे बे-नियाज़ तेरे सिवा
न शिकस्त-ए-दिल न शिकस्त-ए-जाँ के तेरी ख़ुशी को ख़ुशी कहा

कोई याद आ भी गई तो क्या कोई ज़ख़्म खिल भी उठा तो क्या
जो सबा क़रीब से हो चली उसे मिन्नतों की घड़ी कहा

भरी दो-पहर में जो पास थी वो तेरे ख़याल की छाँव थी
कभी शाख़-ए-गुल से मिसाल दी कभी उस को सर्व-ए-समनी कहा

कहीं संग-ए-रह कहीं संग-ए-दर के मैं पत्थरों के नगर में हूँ
ये नहीं के दिल को ख़बर न थी ये बता के मुँह से कभी कहा

मेरे हर्फ़ हर्फ़ के हाथ में सभी आइनों की हैं किरचियाँ
जो ज़बाँ से हो न सका 'अदा' ब-हुदूद-ए-बे-सुख़नी कहा

शायद अभी है राख में कोई शरार भी / 'अदा' ज़ाफ़री

शायद अभी है राख में कोई शरार भी
क्यों वर्ना इन्तज़ार भी है इज़्तिरार भी

ध्यान आ गया है मर्ग-ए-दिल-ए-नामुराद का
मिलने को मिल गया है सुकूँ भी क़रार भी

अब ढूँढने चले हो मुसाफ़िर को दोस्तो
हद्द-ए-निगाह तक न रहा जब ग़ुबार भी

हर आस्ताँ पे नासियाफ़र्सा हैं आज वो
जो कल न कर सके थे तेरा इन्तज़ार भी

इक राह रुक गई तो ठिठक क्यों गई आद
आबाद बस्तियाँ हैं पहाड़ों के पार भी

Comments

Popular Posts

Ahmed Faraz Ghazal / अहमद फ़राज़ ग़ज़लें

अल्लामा इक़बाल ग़ज़ल /Allama Iqbal Ghazal

Ameer Minai Ghazal / अमीर मीनाई ग़ज़लें

मंगलेश डबराल की लोकप्रिय कविताएं Popular Poems of Manglesh Dabral

Ye Naina Ye Kajal / ये नैना, ये काजल, ये ज़ुल्फ़ें, ये आँचल

Akbar Allahabadi Ghazal / अकबर इलाहाबादी ग़ज़लें

Sant Surdas ji Bhajan lyrics संत श्री सूरदास जी के भजन लिरिक्स

Adil Mansuri Ghazal / आदिल मंसूरी ग़ज़लें

बुन्देली गारी गीत लोकगीत लिरिक्स Bundeli Gali Geet Lokgeet Lyrics

Mira Bai Ke Pad Arth Vyakhya मीराबाई के पद अर्थ सहित