दादू दयाल के दोहे (भक्तिकाल के निर्गुण संत) Dadu Dayal ke Dohe

 झूठे अंधे गुर घणें, भरंम दिखावै आइ।

दादू साचा गुर मिलै, जीव ब्रह्म ह्वै जाइ॥

इस संसार में मिथ्या-भाषी व अज्ञानी गुरु बहुत हैं। जो साधकों को मूढ़ आग्रहों में फँसा देते हैं। सच्चा सद्गुरु मिलने पर प्राणी ब्रह्म-तुल्य हो जाता है।

व्याख्या

हस्ती छूटा मन फिरै, क्यूँ ही बंध्या न जाइ।

बहुत महावत पचि गये, दादू कछू न बसाइ॥

विषय-वासनाओं और विकारों रूपी मद से मतवाला हुआ यह मन रूपी हस्ती निरंकुश होकर सांसारिक प्रपंचों के जंगल में विचर रहा है। आत्म-संयम और गुरु-उपदेशों रूपी साँकल के बिना बंध नहीं पा रहा है। ब्रह्म-ज्ञान रूपी अंकुश से रहित अनेक महावत पचकर हार गए, किंतु वे उसे वश में न कर सके।

व्याख्या

दादू प्रीतम के पग परसिये, मुझ देखण का चाव।

तहाँ ले सीस नवाइये, जहाँ धरे थे पाव॥

विरह के माध्यम से ईश्वर का स्वरूप बने संतों की चरण-वंदना करनी चाहिए। ऐसे ब्रह्म-स्वरूप संतों के दर्शन करने की मुझे लालसा रहती है। जहाँ-तहाँ उन्होंने अपने चरण रखे हैं, वहाँ की धूलि को अपने सिर से लगाना चाहिए।

व्याख्या

जहाँ आतम तहाँ रांम है, सकल रह्या भरपूर।

अंतर गति ल्यौ लाई रहु, दादू सेवग सूर॥

जहाँ आत्मा है, वहीं ब्रह्म है। वह सर्वत्र परिव्याप्त हैं। यदि साधक आंतरिक वृत्तियों को ब्रह्ममय बनाए रहे, तो ब्रह्म सूर्य के प्रकाश के समान दिखाई पड़ने लगता है।

व्याख्या

मीरां कीया मिहर सौं, परदे थैं लापरद।

राखि लीया, दीदार मैं, दादू भूला दरद॥

हमारे संतों ने अपनी अनुकंपा से माया और अहंकार के आवरण को उघाड़कर (मुक्त कर) हमें ब्रह्मोन्मुख कर दिया है। ब्रह्म-लीन रहने से हमें ब्रह्म-दर्शन हो गए हैं। ब्रह्म से अद्वैत की स्थिति में साधक अपने सारे कष्ट भूल जाते हैं।

व्याख्या

भरि भरि प्याला प्रेम रस, अपणैं हाथि पिलाइ।

सतगुर के सदकै कीया, दादू बलि बलि जाइ॥

सद्गुरु ने प्रेमा-भक्ति रस से परिपूर्ण प्याले अपने हाथ से भर-भरकर मुझे पिलाए। मैं ऐसे गुरु पर बार-बार बलिहारी जाता हूँ।

व्याख्या

मीठे मीठे करि लीये, मीठा माहें बाहि।

दादू मीठा ह्वै रह्या, मीठे मांहि समाइ॥

ब्रह्म-ज्ञान की मधुरता से युक्त संतों ने मधुर सत्संग का लाभ देकर साधकों को आत्म-ज्ञान और ब्रह्म-ज्ञान की मधुरता से युक्त कर दिया। जो साधक उस सत्संग का लाभ उठाकर मधुर हो जाता है, वह मधुर ब्रह्म में समा जाता है।

व्याख्या

केते पारिख जौंहरी, पंडित ग्याता ध्यांन।

जांण्यां जाइ न जांणियें, का कहि कथिये ग्यांन॥

कितने ही धर्म-शास्त्रज्ञ पंडित, दर्शनशास्त्र के ज्ञाता और योगी-ध्यानी रूपी जौहरी, ब्रह्मरूपी रत्न की परख करते हैं। लेकिन वे अज्ञेय ब्रह्म के स्वरूप को रंच-मात्र भी नहीं जान पाते। फिर वे ब्रह्म संबंधी ज्ञान को कैसे कह सकते हैं।

व्याख्या

दादू बिरहनि कुरलै कुंज ज्यूँ, निसदिन तलफत जाइ।

रांम सनेही कारनैं, रोवत रैंनि बिहाइ॥

विरहिणी कह रही है—जिस प्रकार क्रौंच-पक्षी अपने अंडो की याद में रात-दिन तड़पता है, उसी प्रकार ब्रह्म के वियोग में मैं रात-दिन तड़प रही हूँ। अपने प्रियतम का स्मरण करते और रोते-रोते मेरी रात बीतती है।

व्याख्या

आसिक मासूक ह्वै गया, इसक कहावै सोइ।

दादू उस मासूक का, अलह आसिक होइ॥

जब प्रेमी और प्रेमिका (प्रेम-पात्र) एक रूप हो जाते हैं, तो वह सच्चा इश्क़ कहलाता है। इस अद्वैत की स्थिति में स्वयं ईश्वर उसके प्रेमी और विरहिणी प्रेमिका (प्रेम-पात्र) बन जाते हैं।

व्याख्या

दादू रांम सँभालिये, जब लग सुखी सरीर।

फिर पीछैं पछिताहिगा, जब तन मन धरै न धीर॥

तू यौवन और स्वास्थ्य से संपन्न और सुखी है। ऐसी स्थिति में तुझे राम-नाम का स्मरण कर लेना चाहिए। जब शरीर जर्जर, वृद्ध और रोग-ग्रस्त हो जाएगा, तब तू कुछ भी करने योग्य नहीं रहेगा। ऐसी स्थिति में तुझे पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ नहीं बचेगा।

व्याख्या

इक लख चंदा आणि घर, सूरज कोटि मिलाइ।

दादू गुर गोबिंद बिन, तो भी तिमर न जाइ॥

भँवर कँवल रस बेधिया, सुख सरवर रस पीव।

तह हंसा मोती चुणैँ, पिउ देखे सुख जीव॥

दादू सिरजन हार के, केते नांव अनंत।

चिति आवै सो लीजिए, यूँ साधू सुमिरैं संत॥

ब्रह्म के अनंत नाम हैं। संतों-सिद्धों ने अपनी रुचि के अनुसार निष्काम भाव से उन नामों का स्मरण करके ब्रह्म-प्राप्ति का प्रयास किया है।

व्याख्या

दादू इस संसार में, मुझ सा दुखी न कोइ।

पीव मिलन के कारनैं, मैं जल भरिया रोइ॥

ना बहु मिलै न मैं सुखी, कहु क्यूँ जीवनि होइ।

जिनि मुझ कौं घाइल किया, मेरी दारू सोइ॥

इस संसार में मेरे जैसा कोई दु:खी नहीं है। प्रियतम की विरह-वेदना के कारण, रोते-रोते मेरे नेत्र हमेशा अश्रुओं से भरे रहते हैं। न वे (प्रियतम) मिलते हैं, न मैं सुखी होती हूँ। फिर मेरा जीना कैसे संभव हो सकेगा? जिन्होंने अपने विरह-बाण से मुझे घायल किया है, वही ब्रह्म (उनका साक्षात्कार) मेरी औषधि हैं। अर्थात् वही मेरी वेदना को दूर करने वाले हैं।

व्याख्या

दादू हरदम मांहि, दिवांन, सेज हमारी पीव है।

देखौं सो सुबहांन, ए इसक हमारा जीव है॥

हमारी प्रत्येक साँस रूपी दीवान (बैठक) पर प्रियतम की सेज बिछी हुई है (अर्थात् प्रत्येक साँस के साथ हम पवित्र प्रभु के विरह का अनुभव करते रहते हैं)। प्रभु का विरह-युक्त प्रेम ही हमारा प्राणाधार है।

व्याख्या

दादू इसक अलह की जाति है, इसक अलह का अंग।

इसक अलह औजूद है, इसक अलह का रंग॥

ईश्वर की जाति, रंग और शरीर प्रेम है। प्रेम ईश्वर का अस्तित्व है। प्रेम करो तो ईश्वर के साथ ही करो।

व्याख्या

पहली श्रवन दुती रसन, तृतीय हिरदै गाइ।

चतुरदसी चेतनि भया, तब रोम रोम ल्यौ लाइ॥

साधना की चार अवस्थाएँ हैं। पहली राम-नाम का महात्म्य सुनना, दूसरी जिह्वा से नाम-स्मरण करना, तीसरी हृदय में राम-नाम का अजपा-जाप करना और चौथी चेतनशील होकर रोम-रोम से नाम का निरंतर जाप करना। इनसे जीव का ब्रह्म से अद्वैत संबंध स्थापित हो जाता है।

व्याख्या

दादू नूरी दिल अरवाह का, तहाँ बसै माबूंद।

तहाँ बंदे की बंदिगी, जहाँ रहै मौजूंद॥

जीवात्माओं के शुद्ध अंत:करण में प्रभु निवास करते हैं, जिस अंत:करण में प्रभु निवास करते हैं, उसी में भक्त की सच्ची उपासना होती है।

व्याख्या

पीव पुकारै बिरहणीं निस दिन रहै उदास।

रांम रांम दादू कहै, तालाबेली प्यास॥

विरहिणी अत्यंत बेचैनी और दर्शनों की लालसा से अपने प्रियतम को पुकार रही है। दादू कहते हैं कि वह रात-दिन राम-राम रटती हुई दर्शन की प्यास में खिन्न बनी रहती है।

व्याख्या

दादू भँवर कँवल रस बेधिया, सुख सरवर सर पीव।

तहाँ हंसा मोती चुणैं, पीव देखें सुख जीव॥

जैसे कमल-पुष्प के मकरंद से आकृष्ट होकर भ्रमर उसका रस-पान करता है, वैसे ही हमारा मन रूपी भ्रमर सहस्त्रदल कमल में प्रविष्ट होकर परम ब्रह्मरूपी सुख-सरोवर का चिंतनानंद रूप रस-पान करता है और जैसे मानसरोवर में किल्लोल करते हुए हंस मोती चुनते हैं वैसे ही हमारा साधक-मन सहस्त्र दल कमलरूपी सरोवर में अवगाहन करके अद्वैत भावनारूपी मोतियों को चुनकर तृप्त होता रहता है। ऐसी स्थिति में जीवात्मा को परम ब्रह्म के दर्शनरूपी सुखों की अनुभूति होती रहती है।

व्याख्या

दादू दीवा है भला, दीवा करौ सब कोइ।

घर में धर्या न पाइये, जे कर दीवा न होइ॥

ज्ञान-दीप जलाना उत्तम है। सभी को यत्न करना चाहिए कि गुरु के ज्ञान-दीप से अपना आत्म-ज्ञान दीप जलाएँ। जब तक गुरु द्वारा प्रदत्त ज्ञान उसे प्रज्वलित नहीं करता, तब तक मात्र शास्त्र-ज्ञान से यह दीपक नहीं जलता।

व्याख्या

दादू नमो नमो निरंजन, निमसकार गुरुदेवतह।

बंदनं श्रब साधवा, प्रणामं पारंगतह॥

हे निरंजन देव! आपको मेरा नमन है। देवतुल्य गुरु को मैं नमस्कार करता हूँ। सभी संत जनों की वंदना करता हूँ। संसार की असत्यता से विमुख होकर सत्य-ब्रह्म के स्वरूप को जानने वाले पारंगतों को भी मेरा प्रणाम है।

व्याख्या

आसिकां रह कबज करदां, दिल वजां रफतंद।

अलह आले नूर दीदंम, दिलह दादू बंद॥

प्रेमियों का रास्ता अपनाते हुए, आसुरी प्रवृत्तियों को मन से बाहर निकालकर, देवतुल्य गुणों को अपनाया जाए। परम श्रेष्ठ परमात्मा के स्वरूप का दर्शन करने के लिए मन का निग्रह किया जाए। ये ही ईश-विरह के प्रमुख लक्षण हैं।

व्याख्या

दादू आसिक रबु दा, सिर भी डेवै लाहि।

अलह कारणि आप कौं, साड़ै अंदरि भाहि॥

जो प्रभु के सच्चे प्रेमी होते हैं, वे उनकी प्राप्ति के लिए अपना सिर भी उतारकर देने को तत्पर रहते हैं। वे प्रभु-प्राप्ति के लिए अपने अंदर के सभी प्रकार के विकार, अहंकार आदि को विरहाग्नि में जला देते हैं।

व्याख्या

दादू सतगुरु सौं सहजैं मिल्या, लीया कंठ लगाइ।

दया भई दयाल की, तब दीपक दीया जगाइ॥

मेरे सतगुरु मुझे सहज भाव से मिले। मुझे अपने गले से लगा लिया। उनकी दया से मेरे हृदय में ज्ञान रूपी दीपक प्रज्वलित हो गया अर्थात् उसके प्रकाश से मेरा अज्ञानरूपी अंधकार दूर हो गया।

व्याख्या

वदन सीतल चंद्रमां, जल सीतल सब कोइ।

दादू बिरही रांम का, इन सूं कदे न होइ॥

चंदन, चंद्रमा और जल की प्रकृति शीतल होती है। इनसे सर्प, चकोर और मीन को असीम तृप्ति (शांति) मिलती है। लेकिन जो ब्रह्म-वियोगी हैं, उन्हें इन पदार्थों से शांति (तृप्ति) नहीं मिल सकती है।

व्याख्या

दादू रांम तुम्हारे नांव बिनं जे मुख निकसै और।

तौ इस अपराधी जीव कूँ, तीनि लोक कत ठौर॥

हे राम! आपके नाम के बिना जो कोई शब्द मुख से निकलता है, तो वह महा अपराधी होता है। ऐसे अपराधी को तीनों लोकों में भटकने पर भी कोई सुख नहीं मिलता है।

व्याख्या

दादू सतगुरु मारे सबद सौं, निरखि निरखि निज ठौर।

रांम अकेला रहि गया, चीति न आवै और॥

सतगुरु ने अपने शब्द-बाणों से मेरे सभी पापों, दोषों और विकारों को चुन-चुनकर नष्ट कर दिया है। अब मेरे निर्मल चित्त में ब्रह्म ही शेष रह गए हैं, किसी और के लिए स्थान बचा ही नहीं है।

व्याख्या

साहिब जी के नांव मां, सब कुछ भरे भंडार।

नूर तेज अनंत है, दादू सिरजनहार॥

प्रभु के नाम-स्मरण करने पर किसी वस्तु का अभाव नहीं रहता। लौकिक, पारलौकिक सभी प्रकार के पदार्थ साधक को सुलभ रहते हैं तथा सृष्टिकर्ता प्रभु के असीम प्रकाश का उसे साक्षात्कार हो जाता है।

व्याख्या

सब सुख मेरे सांइयां, मंगल अति आनंद।

दादू सजन सब मिले, जब भेटे परमांनंद॥

ईश्वर ही हमारे लिए समस्त सुख हैं। वे ही मंगल करने वाले और आनंददायी हैं। परमानंदरूप प्रभु से मिलना ही संसार के समस्त सज्जनों से मिलना होता है।

व्याख्या

दादू देव दयाल की, गुरू दिखाई बाट।

ताला कूँची लाइ करि, खोले सबै कपाट॥


दीये का गुण तेल है, दीया मोटी बात।

दीया जग में चाँदना, दीया चालै साथ॥


जोग समाधि सुख सुरति सौं, सहजै-सहजै आव।

मुक्ता द्वारा महल का, इहै भगति का भाव॥


अनेक चंद उदय करै, असंख सूर परकास।

एक निरंजन नाँव बिन, दादू नहीं उजास॥


काया अंतर पाइया, त्रिकुटी के रे तीर।

सहजै आप लखाइया, व्यापा सकल सरीर॥


मथि करि दीपक कीजिये, सब घट भया प्रकास।

दादू दीया हाथ करि, गया निरंजन पास॥


सोधी दाता पलक में, तिरै तिरावन जोग।

दादू ऐसा परम गुर, पाया कहिं संजोग॥


परब्रह्म परापरं, सो मम देव निरंजनं।

निराकारं निर्मलं, तस्य दादू बंदनं॥


मुझ ही में मेरा धणी, पड़दा खोलि दिखाइ।

आतम सों परआत्मा, परगट आणि मिलाइ॥


सब ही ज्ञानी पंडिता, सुर नर रहे उरभाइ।

दादू गति गोबिंद की, क्यों ही लखी न जाइ॥


अति गति आतुर मिलन कौं, जैसे जल बिन मीन।

सो देखै दीदार कौं, दादू आतम लीन॥


राम नाम उपदेस करि, अगम गवन यहु सैन।

दादू सतगुर सब दिया, आप मिलाये ऐन॥


गैब माहिं गुरदेव मिल्या, पाया हम परसाद।

मस्तक मेरे कर धर्या, देख्या अगम अगाध॥


रतिवंती आरति करै, राम सनेही आव।

दादू अवसर अब मिलै, यह बिरहिनि का भाव॥


साचा सतगुर जे मिलै, सब साज सँवारै।

दादू नाव चढ़ाइ करि, ले पार उतारै॥


सबद दूध घृत राम रस, मथि करि काढ़े कोइ।

दादू गुर गोविंद बिन, घट-घट समझि न होइ॥


सतगुर पसु माणस करै, माणस थें सिध सोइ।

दादू सिध थें देवता, देव निरंजन होइ॥


देवै किरका दरद का, टूटा जोड़े तार।

दादू साधै सुरति को, सो गुर पीर हमार॥


दादू गुर गरुवा मिलै, ता थैँ सब गमि होइ।

लोहा पारस परसताँ, सहज समाना सोइ॥


मन फकीर माँह हुआ, भीतर लीया भेख।

सबद गहै गुरदेव का, माँगै भीख अलेख॥


दादू सतगुर सहज में, किया बहु उपगार।

निरधन धनवँत करि लिया, गुर मिलिया दातार॥


मानसरोवर माहिं जल, प्यासा पीवै आइ।

दादू दोस न दीजिये, घर-घर कहण न जाइ॥


दादू सबद बिचारि करि, लागि रहै मन लाइ।

ज्ञान गहै गुरदेव का, दादू सहजि समाइ॥


दीन गरीबी गहि रह्या, गरुवा गुर गंभीर।

सूषिम सीतल सुरति मति, सहज दया गुर धीर॥


बाहर सारा देखिये, भीतर कीया चूर।

सतगुर सबदौं मारिया, जाण न पावै दूर॥


दादू राम अगाध है, परिमित नाहीं पार।

अबरण बरण न जाणिये, दादू नाँई अधार॥


सब कौं सुखिया देखिये, दुखिया नाहीं कोइ।

दुखिया दादू दास है, ऐन परस नहीं होइ॥


वार पार को ना लहै, कीमति लेखा नाहिं।

दादू एकै नूर है, तेज पुंज सब माहिं॥


अति गति आतुर मिलन कौं, जैसे जल बिन मीन।

सो देखै दीदार कौं, दादू आतम लीन॥


राम नाम उपदेस करि, अगम गवन यहु सैन।

दादू सतगुर सब दिया, आप मिलाये ऐन॥


रतिवंती आरति करै, राम सनेही आव।

दादू अवसर अब मिलै, यह बिरहिनि का भाव॥


साचा सतगुर जे मिलै, सब साज सँवारै।

दादू नाव चढ़ाइ करि, ले पार उतारै॥


सबद दूध घृत राम रस, मथि करि काढ़े कोइ।

दादू गुर गोविंद बिन, घट-घट समझि न होइ॥


सतगुर पसु माणस करै, माणस थें सिध सोइ।

दादू सिध थें देवता, देव निरंजन होइ॥


देवै किरका दरद का, टूटा जोड़े तार।

दादू साधै सुरति को, सो गुर पीर हमार॥


राम तुम्हारे नाँव बिन, जे मुख निकसे और।

तौ इस अपराधी जीव कौं, तीन लोक कत ठौर॥


गैब माहिं गुरदेव मिल्या, पाया हम परसाद।

मस्तक मेरे कर धर्या, देख्या अगम अगाध॥


सबद बान गुर साधि के, दूरि दिसंतरि जाइ।

जेहि लागे सो ऊबरे, सूते लिये जगाइ॥


बिरहिनि रोवै रात दिन, झूरै मनहीं माहिं।

दादू औसर चलि गया, प्रीतम पाये नाहिं॥


सतगुर सबद मुख सौं कह्या, क्या नेड़े क्या दूर।

दादू सिष स्रवनहुँ सुण्या, सुमिरण लागा सूर॥


दादू हम कूँ सुख भया, साध सबद गुर ज्ञाण।

सुधि-बुधि सोधी समझि करि, पाया पद निरबाण॥


दादू गुर गरुवा मिलै, ता थैँ सब गमि होइ।

लोहा पारस परसताँ, सहज समाना सोइ॥


सबद तुम्हारा ऊजला, चिरिया क्यों कारी।

तुही-तुही निस दिन करौं, बिरहा की जारी॥


ज्ञान भगति मन मूल गहि, सहज प्रेम ल्यौ लाइ।

दादू सब आरंभ तजि, जिनि काहू सँग जाइ॥


सर्गुण निर्गुण है रहे, जैसा तैसा लीन।

हरि सुमिरण ल्यौ लाइये, का जाणों का कीन्ह॥


एक सगा संसार में, जिन हम सिरजे सोइ।

मनसा बाचा कर्मना, और न दूजा कोइ॥


लै बिचार लागा रहै, दादू जरता जाइ।

कबहूँ पेट न आफरै, भावै तेता खाइ॥


मन माला तहँ फेरिये, जहँ प्रीतम बैठे पास।

अगम गुरू थैं गम भया, पाया नूर निवास॥


घट-घट रामहिं रतन है. दादू लखै न कोइ।

सतगुर सबदों पाइये, सहजै ही गम होई॥


सतगुर अंजन बाहि करि, नैन पटल सब खोले।

बहरे कानौं सुणन लागे, गूँगे मुख सूँ बोले॥


घीव दूध में रमि रह्या, ब्यापक सबही ठौर।

दादू बकता बहुत हैं, मथि काढ़े ते और॥


हस्त पाँव नहिं सीस मुख, स्रवन नेत्र कहुँ कैसा।

दादू सब देखै सुणै, कहै गहै है ऐसा॥


मन माला तहँ फेरिये, जहँ आपै एक अनंत।

सहजै सो सतगुर मिल्या, जुग-जुग फाग बसंत॥


खोजि तहाँ पिउ पाइये, सबद उपन्नै पास।

तहाँ एक एकांत है, तहाँ जोति परकास॥


ज्यूँ चातक के चित्त जल बसै, ज्यूँ पानी बिन मीन।

जैसे चंद चकोर है, ऐसे हरि सौं कीन्ह॥


तन मन पवना पंच गहि, निरंजन ल्यौ लाइ।

जहँ आतम तहँ परआतमा, दादू सहजि समाइ॥


निर्मल गुर का ज्ञान गहि, निर्मल भगति विचार।

निर्मल पाया प्रेम रस, छूटे सकल बिकार॥


जरणा जोगी जुगि-जुगि जीवै, झरणा मरि-मरि जाइ।

दादू जोगी गुरमुखी, सहजै रहै समाइ॥


लय लागी तब जाणिये, जे कबहूँ छूटि न जाइ।

जीवत यों लागी रहै, मूवाँ मंझि समाइ॥


एक महूरत मन रहै, नाँव निरंजन पास।

दादू तब ही देखताँ, सकल करम का नास॥


बिरहिनि दुख कासनि कहै, कासनि देइ संदेस।

पंथ निहारत पीव का, विरहिनि पलटे केस॥


दादू नीका नाँव है, तीन लोक तत सार।

राति दिवस रटियो करी, रे मन इहै बिचार॥


मन चित चातक ज्यूँ रटै, पिव पिव लागी प्यास।

दादू दरसन कारने, पुरवहु मेरी आस॥


कदि यहु आपा जाइगा, कदि यह बिसरै और।

कदि यहु सूषिम होइगा, कदि यहु पावै ठौर॥


साईँ सन्मुख जीवताँ, मरताँ सन्मुख होइ।

दादू जीवण मरण का, सोच करै जिनि कोइ॥


कामधेनु घट घीव है, दिन-दिन दुरबल होइ।

गोरू ज्ञान न ऊपजै, मथि नहिं खाया सोइ॥


बिन पाइन का पंथ है, क्यौं करि पहुँचै प्राण।

बिकट घाट औघट खरे, माहिं सिखर असमान॥


एक तुम्हारै आसिरै, दादू इहि बेसास।

राम भरोसा तोर है, नहिं करणी की आस॥


हरि चिंतामणि चिंतताँ, चिंता चित्त की जाइ।

चिंतामणि चित्त में मिल्या, तहँ दादू रह्या लुभाइ॥


पहली स्रवन दुती रसन, तृतिये हिरदे गाइ।

चतुर्दसी चिंतन भया, तब रोम-रोम ल्यौ लाइ॥


जब हीं कर दीपक दिया, तब सब सूझन लाग।

यूँ दादू गुर ज्ञान थैं,राम कहत जन जाग॥


नैन न देखें नैन कुँ, अंतर भी कुछ नाहिं।

सतगुर दरपन करि दिया, अरस परस मिलि माहिं॥


अजर जरै रसना झरै, घटि माहिं समावै।

दादू सेवग सो भला, जे कहि न जणावै॥


एकै अल्लह राम है, समरथ साईँ सोइ।

मैदे के पकवान सब, खाताँ होइ से होइ॥


जिनि खोवै दादू राम धन, रिदै राखि जिनि जाइ।

रतन जतन करि राखिये, चिंतामणि चित लाइ॥


पार न देवै आपणा, गोप गूझ मन माहिं।

दादू कोई ना लहै, केते आवै जाहिं॥


को साधू राखै राम धन, गुर बाइक बचन बिचार।

गहिला दादू क्यौँ रहै, मरकत हाथ गँवार॥


जरै सु नाथ निरंजन बाबा, जरै सु अलख अभेव।

जरै सु जोगी सब की जीवनि, जरै सु जग में देव॥


सिद्धि हमारे साइयाँ, करामात करतार।

रिद्धि हमारे राम हैं, आगम अलख अपार॥


कुल हमारे केसवा, सगा त सिरजनहार।

जाति हमारी जगत-गुर, परमेसुर परिवार॥


मन अपणा लै लीन करि, करणी सब जंजाल।

दादू सहजै निर्मला, आपा मेटि सँभाल॥


राम भजन का सोच क्या, करताँ होइ सो होइ।

दादू राम सँभालिये, फिरि बूझिये न कोइ॥


राम कहूँ ते जोड़बा, राम कहूँ ते साखि।

राम कहूँ ते गाइबा, राम कहूँ ते राखि॥


पाया पाया सब कहैं ,केतक देहुँ दिखाइ।

कीमत किनहूँ ना कही, दादू रहु ल्यौ लाइ॥


जे नर प्राणी लय गता, सांई गत है जाइ।

जे नर प्राणी लय रता, सो सहजै रहै समाइ॥


सतगुर दाता जीव का, स्रवन सीस कर नैन।

तन मन सौँज सँवारि सब, मुख रसना अरु बैन॥


छिन-छिन राम सँभालताँ, जे जिव जाइ त जाउ।

आतम के आधार कौं, नाहीं आन उपाउ॥


मन हीं माहिं समझि करि, मन ही माहिं समाइ।

मन हीं माहैं राखिये, बाहरि कहि न जणाइ॥


जहँ तन मन का मूल है, उपजै ओअंकार।

अनहद सेझा सबद का, आतम करै बिचार॥


सतगुर किया फेरि करि, मन का औरै रूप।

दादू पंचौँ पलटि करि, कैसे भये अनूप॥


भाव भगति लै ऊपजै, सो ठाहर निज सार।

तहँ दादू निधि पाइये, निरंतर निरधार॥


साँसै साँस सँभालताँ, इक दिन मिलिहै आइ।

सुमिरण पैँड़ा सहज का, सतगुर दिया बताइ॥


अर्थ अनूपम आप है, और अनरथ भाई।

दादू ऐसी जानि करि, ता सौं ल्यौ लाई॥


सहज सुन्नि मन राखिये, इन दून्यूँ के माहिं।

लय समाधि रस पीजिये, तहाँ काल भय नाहिं॥


पहिली था सो अब भया, अब सो आगै होइ।

दादू तीनों ठौर की, बूझै बिरला कोइ॥


रँग भरि खेलौं पिउ सौं, तहँ बाजै बेन रसाल।

अकल पाट परि बैठा स्वामी, प्रेम पिलावै लाल॥


केते पारिख जौहरी, पंडित ज्ञाता ध्यान।

जाण्या जाइ न जाणिये, का कहि कथिये ज्ञान॥


जैसा है तैसा नाउँ तुम्हारा, ज्यौं है त्यौं कहि साईँ।

तूँ आपै जाणै आप कौं, तहँ मेरी गमि नाहिं॥


सतगुर माला मन दिया, पवन सुरति सूँ पोइ।

बिन हाथों निस दिन जपै, परम जाप यूँ होई॥


सोई सेवग सब जरै, जेती उपजै आइ।

कहि न जणावै और कौं, दादू माहिं समाइ॥


जीव ब्रह्म सेवा करै, ब्रह्म बराबरि होइ।

दादू जाणै ब्रह्म कौं, ब्रह्म सरीखा सोइ॥


अपना भंजन भरि लिया, उहाँ उता ही जाणि।

अपणी-अपणी सब कहैं, दादू बिड़द बखाणि॥


सब तजि गुण आकार के, निहचल मन ल्यौ लाइ।

आतम चेतन प्रेम रस, दादू रहै समाइ॥


रतन एक बहु पारिखू, सब मिलि करै बिचार।

गूँगे गहिले बावरे, दादू वार न पार॥


दादू समझि समाइ रहु, बाहरि कहि न जणाइ।

दादू अद्भुत देखिया, तहँ ना को आवै जाइ॥


दादू गाफिल छो वतै, मंझे रब्ब निहार।

मंझेई पिउ पाण जौ, मंझेई बीचार॥


कहि कहि क्या दिखलाइये, साईँ सब जाणै।

दादू परघट का कहै, समझि सयाणै॥


साँईं सनमुख जीवतां, मरतां सनमुख होइ।

दादू जीवण मरण का, सोच करै जिनि कोइ॥

जीते हुए प्रभु-भजन करना चाहिए। मरने पर भी ध्यान प्रभु की ओर हो, ऐसा यत्न करना चाहिए। प्रभु के सच्चे सेवक को जीने-मरने की चिंता नहीं करनी चाहिए।

व्याख्या

बिषम दुहेला जीव कूँ, सतगुर थैं आसान।

जब दरवै तब पाइये, नेड़ा ही अस्थान॥


गोव्यंद गोसाईँ तुम्हँ अम्हंचा गुरू,तुम्हें अम्हंचा ज्ञान।

तुम्हें अम्हंचा देव, तुम्हें अम्हंचा ध्यान॥


अपने नैनहुँ आप कौं, जब आतम देखै।

तहँ दादू परआत्मा, ताही कूँ पेखै॥


मन माला तहँ फेरिये, जहँ दिवस न परसै रात।

तहाँ गुरू बाना दिया, सहज जपिये तात॥


आतम माहिं ऊपजै, दादू पंगुल ज्ञान।

किरतिम जाइ उलंघि करि, जहाँ निरंजन थान॥


तूँ सति तूँ अवगति तूँ अपरंपार, तूँ निराकार तुम्हंचा नाम।

दादू चा बिस्राम, देहु-देहु अवलंबन राम॥


जिन हम सिरजे'सो कहाँ, सतगुर देहु दिखाइ।

दादू दिल अरवाह का, तहँ मालिक ल्यौ लाइ॥


पीव पुकारै बिरहिनी, निसदिन रहै उदास।

राम राम दादू कहै, तालाबेली प्यास॥


आतम बोध बंझ का बेटा, गुरमुख उपजै आइ।

दादू पंगुल पंच बिन, जहाँ राम तहँ जाइ॥


निरंतर पिउ पाइया, तहँ पंखी उनमन जाइ।

सप्तौ मंडल भेदिया, अष्ट रह्या समाइ॥


पासै बैठा सब सुनै, हम कौं ज्वाब न देइ।

दादू तेरे सिर चढ़ै, जीव हमारा लेइ॥




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