लाल लली ललि लाल की, लै लागी लखि लोल।
त्याय दे री लय लायकर, दुहु कहि सुनि चित डोल॥
लाल को लली से और लली को लाल से मिलने की इच्छा है। दोनों मुझे कहते हैं, अरी तू उससे मुझे मिलाकर विरहाग्नि को शांत कर। इनकी बातें सुनते-सुनते मेरा भी चित्त विचलित हो गया है।
चकमक सु परस्पर नयन, लगन प्रेम परि आगि।
सुलगि सोगठा रूप पुनि, गुन-दारू दूड जागि॥
चकमक के सदृश नेत्र जब आपस में टकराते हैं तो उनसे प्रेम की चिनगारियाँ निकलती हैं। फिर रूप रूपी सोगठे (रूई) पर इनके गिरने से आग सुलग जाती है, किंतु पूर्णतया प्रज्वलित तभी होती है जब उसका संयोग गुण रूपी शराब से होता है।
ऐसो मीठो नहिं पियुस, नहिं मिसरी नहिं दाख।
तनक प्रेम माधुर्य पें, नोंछावर अस लाख॥
प्रेम जितना मिठास न दाख में है, न मिसरी में और न अमृत में। प्रेम के तनिक माधुर्य पर ऐसी लाखों वस्तुएँ न्योछावर है।
गोकुल ब्रंदावन लिहू, मोपें जुगजीवन्न।
पलटें मोको देहु फिर, गोकुल ब्रंदाबन्न॥
कवि कहता है, मेरी इंद्रियो के समूह (गोकुल) को आप लीजिए, अपने वश में कर लीजिए। तुलसीदल (वृंदा) और जल (वन) अर्थात् वृंदावन से ही आपकी मैं मनुहार कर सकता हूँ, अतः कृपा करके इन्हें स्वीकार कीजिए और इनके बदले में आप मुझे अपने प्रिय धाम गोकुल और वृंदावन में रहने का सौभाग्य प्रदान कीजिए।
बिरहारति तें रति बढ़ै, पै रुचि बढन न कोय।
प्यासो ज़ख्मी जिए तहूँ, लह्यो न त्यागें तोय॥
विरह की पीड़ा से प्रेम बढ़ता है, पर इस तरह (विरह सहकर) प्रेम को बढ़ाने की रुचि किसी की भी नहीं होती। वैसे ही जैसे प्यासा घायल यह जानते हुए भी कि वह तभी जीवित रहेगा जब वह पानी न पिए, पर प्राप्त जल को वह नहीं त्याग पाता।
सहज संवारत सरस छब, अलि सो का सुच होत।
सुनि सुख तो लखि लाल मो, मुद मोहन चित पोत॥
हे सखि! तू अत्यंत सुंदर होने पर भी बारंबार शृंगार करती है। ऐसा करने में तुझे क्या सुख मिलता है? (उत्तर में नायिका कहती है) सुन! सुख तो मुझे लाल को देखकर होता है क्योंकि (शृंगार करने पर) वे मुदित होकर मुझे निहारते हैं।
रति बिन रस सो रसहिसों, रति बिन जान सुजान।
रति बिन मित्र सु मित्रसो, रति बिन सब शव मान॥
प्रेम के बिना रस ज़हर के समान, ज्ञान अज्ञान के समान, मित्र अग्नि के समान और वस्तुएँ शव के समान दुखदाई एवं निरर्थक हैं।
कटि सों मद रति बेनि अलि, चखसि बड़ाई धारि।
कुच से बच अखि ओठ भों, मग गति मतिहि बिसारि॥
हे सखी! यदि तू अपने प्रिय से मान करती है तो अपनी कटि के समान क्षीण (मान) कर, यदि प्रीति करती है तो अपनी चोटी के समान दीर्घ (प्रीति) कर, अगर बड़प्पन धारण करती है तो अपने नेत्रों-सा विशाल कर। पर अपने कुचों के समान कठोर (वचन), ओठों के समान नेत्रों की ललाई (क्रोध), भृकुटी के समान कुटिल (मार्ग पर गमन) और अपनी गति के समान (चंचल) मति को सदा के लिए त्याग दे।
दीठी दुरिजन की लगें, सब कहि मो न पत्याय।
एसी सज्जन की लगे, प्रानसंग निठ जाय॥
लोग कहते हैं कि दुर्जन की नज़र लगती है, पर मुझे इस पर विश्वास नहीं होता। क्योंकि प्रेमी की नज़र तो ऐसी लगती है कि प्राणों के संग ही उससे (नीठ) मुक्ति मिलती है।
प्यारे मोकौं तीर दिहु, पै जिन देहु कमान।
कमांन लागत तीर सैम, तीर लगत प्रियप्रांन॥
प्रिय देना ही है तो तुम मुझे तीर (निकटता) दो; कमान (अपमान) मुझे न दो। यदि आपने मुझे कमान (अपमान) दिया तो वह बाण के सदृश मुझे चुभेगा और यदि तुम मुझे तीर (निकट रहने का अवसर) दोगे तो वह मेरे प्राणों को अत्यंत प्रिय लगेगा।
कटाछ नोक चुभी कियों, गडे उरोज कठोर।
कें कटि छोटी में हितू, रुची न नंदकिशोर॥
हे सखी! प्रिय के कहीं मेरे कटाक्षों की नोक तो नहीं चुभ गई है? कहीं मेरे कठोर उरोज तो उनके नहीं गड़ गए हैं? अथवा मेरी कटि ही छोटी है जिसके कारण मैं नंदकिशोर को पसंद नहीं आई, बात क्या है?
मोहि मोह तुम मोह को, मोह न मो कहुँ धारि।
मोहन मोह न वारियें, मोहनि मोह निवारि॥
मुझे केवल आपके मोह का मोह है, मेरे मोह को आप अपने अतिरिक्त और कहीं केंद्रित न कीजिए। हे मोहन! आप इसका निवारण भी न कीजिए। यदि करना ही है तो मेरे प्राणों का अंत कीजिए।
असि माया मोपर करो, चलें न माया ज़ोर।
माया मायारहित दिहू, निज पद नंदकिशोर॥
हे नंदकिशोर! मुझ पर ऐसी ममता रखिये, जिससे माया का कुछ भी ज़ोर न चले। माया-रहित करके आप मुझे अपने चरण-कमलों का प्रेम दीजिए।
चूक जीव कों धरम है, छमा धरम प्रभु आप।
आयो शरन निवाजि निज, करि हरियें संताप॥
भूल करना जीव का धर्म है और हे प्रभु, क्षमा करना आपका धर्म है। मैं आपकी शरण में आ गया हूँ। संतापों को हर कर आप मुझे संतुष्ट कीजिए।
दीनबंधु अधमुद्धरन, नाम ग़रीब निवाज़।
यह सब में मैं कोन जो, सुधि न लेत ब्रजराज॥
हे ब्रजराज! आप दीनबंधु हैं तो क्या मैं दीन नहीं हूँ, आप अधमों का उद्धार करने वाले हैं तो क्या मैं अधम नहीं हूँ, आप ग़रीबनिवाज़ हैं, तो क्या मैं ग़रीब नहीं हूँ। इन सब में से क्या मैं कुछ भी नहीं हूँ जो आप अब तक मेरी सुध नहीं लेते!
सोई भाजन प्रेमरस, प्रकट कृष्ण के गात्र।
पय पुंडरिकनी को न जो, रहि बिन कंचन पात्र॥
वही प्रेम-रस का पात्र है जो श्रीकृष्ण के गात्र से उत्पन्न हो (अर्थात पुष्टिमार्गी हो)। सिंहनी का दूध कंचन के पात्र के अतिरिक्त अन्य पात्र में नहीं रह सकता।
प्रीत निभाई द्वे सकें, इकसु न निबहनहारि।
देखी सुनि न कहु बजी, एक हाथ सूं तारि॥
एक के निभाये प्रीत नहीं निभती, दोनों के निभाये ही वह निभती है। जैसे कि एक हाथ से कभी ताली बजी हो, ऐसा देखने सुनने में नहीं आया।
बीच अमल का समल बिच, दोहु कलेजों खाय।
दीठि असित तें सित बुरी, कछू न जाहि उपाय॥
दृष्टि उज्ज्वल हो चाहे मैली, दोनों में भेद ही क्या है? दोनों ही कलेजे को खाती है। लेकिन मैली दृष्टि से उज्ज्वल दृष्टि बहुत बुरी है क्योंकि (मैली दृष्टि 'नज़र' का तो इलाज भी है पर) उज्ज्वल दृष्टि (प्रेम) का कोई उपचार नहीं।
मो उर में निज प्रेम अस, परिदृढ़ अचलित देहू।
जैसे लोटन-दीप सों, सरक न ढुरक सनेहु॥
हे श्रीकृष्ण! जेसे लौटन दीप से उलटा करने पर भी उसका तेल नहीं गिरता, (उसी तरह विपरीत परिस्थितियों एव प्रलोभनों में भी आपके प्रति मेरा प्रेम सदैव एक-सा बना रहे) ऐसा एकनिष्ठ प्रेम आप मेरे हृदय में दीजिए।
समता सब बिधि नेह अति, तृप्ति न अचल मिलाप।
दुहु कों निर्भय यह त्हरें, पैयें दें हरिं आप॥
दानों में (गुण,कर्म और स्वभावादि) सब प्रकार की समता, परस्पर अत्यधिक स्नेह, मिलने की आतुरता (अतृप्ति) और निर्भय चिर-मिलन; ये (चार बातें) तो तभी संभव है जब हे हरि आप दें।
पीर न न्यारी मेन ए, नारी नारी में न।
अली अयानों भिषक ए, इशक-किशक समुझें न॥
यह पीड़ा और कुछ नहीं, काम-पीड़ा है। इसका निदान नारी की नाड़ी में कहाँ होगा? हे सखि, यह वैद्य भी अनाड़ी है। 'प्रेम की पीड़ा' को समझता ही नहीं।
नोंघा प्होंप सुगंधि ते, हरि हरि मन सुच पाय।
दसई पंकज प्रेम बिन, रुके कहूँ नहिं जाय॥
श्रीकृष्ण का भ्रमर रूपी मन नवधा भक्ति रूपी पुष्प की सुगंध से संतुष्ट होता है, किंतु कमल रूपी (दसई) प्रेमलक्षणा भक्ति के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं रुकता नहीं।
पीतांबर परिधान प्रभु, राधा नील निचोल।
अंग रंग सँग परस्पर, यों सब हारद तोल॥
प्रभु पीतांबर धारण करते हैं और राधा नीली ओढ़नी पहनती है। इसका हारद तोल (हार्दिक भाव का रहस्य मर्म) यह है कि ऐसा करने से दोनों को (प्रिय के) अंग रंग के संग होने की प्रतीति होती है।
मुकर मुकर सब वस्तु भई, नयन अयन किय लाल।
दृग पसारूँ जित-जित अली, तित-तित लखूँ गुपाल॥
जब से लाल नयनों में बसे हैं, सब वस्तुएँ जैसे दर्पण की हो गई हैं। क्योंकि मैं दृष्टि उठाकर जिधर देखती हूँ, उधर गोपाल ही गोपाल दिखाई देते हैं।
करें सहोदर ते सरस, दे बिसराई बेर।
प्रेमी पानी परस तें, सुधा सरस हुई झेर॥
प्रेम बैर को मिटाकर (शत्रु को) भाई से भी अधिक प्यारा बना देता है। प्रेम पात्र के हाथ के स्पर्श-मात्र से ज़हर भी अमृत हो जाता है।
हरि हरिवदनी सों लिख्यौं, हम ध्यावत तुम ध्याउ।
का चिंता हम तुम बनें, तुम हमसे ह्वै जाउ॥
हरि (श्रीकृष्ण) ने हरिवदनी (राधिका) को लिखा, मैं तुम्हारा ध्यान करता हूँ तो तुम भी मेरा ध्यान करो। चिंता की क्या बात है? यदि तुम्हारा ध्यान करने से मैं तुम-सा बन जाऊँगा तो तुम मेरा ध्यान करके मुझ-सी बन जाओ।
स्यामा स्याम पुकारती, स्यामा रटते स्याम।
अली अचंभो आज बड, जुगल जपत निज नाम॥
हे सखि पहले श्याम श्यामा को और श्यामा श्याम का नाम रटा करते थे, पर आज बड़ा अचंभा देखा, दोनों अपने-अपने नाम रट रहे थे।
प्यारी प्रीतम सों लिख्यौं, मत परियौ मौ ध्यान।
तुम मोसे ह्वै जाउगे, करिहों का पें मान॥
प्यारी ने अपने प्रियतम को लिखा कि तुम मेरा ध्यान न धरना अन्यथा तुम भी मुझ से हो जाओगे। फिर मैं मान किस पर करूँगी?
आगी ते बेली बढ़े, जल सींचत कुमलाय।
सिर के पलटें फल मिलें, मुख बिन खायो जाए॥
एक बेल ऐसी है कि जो आग से फलती-फूलती है और पानी से कुम्हला जाती है। उसका फल सिर के बदले में मिलता है और बिना मुँह के खाया जाता है। अर्थात् प्रेम रूपी बेल विरह रूपी आग से फलती-फूलती है और मिलन रूपी जल से कुम्हला जाती है। इस बेल पर आनंद रूपी फल लगता है, जिसका आस्वादन हृदय करता है। यह फल बड़ा महंगा है। लोकलाज और कुल की मर्यादा को त्यागकर और जान की बाज़ी लगाने से ही यह फल मिलता है।
सहि न परे रुझ बिबि दई, मिलन कठिन अति नेहु।
मिति मिलाप निति सुगम दें, नांतर प्रीती लेहु॥
(प्रियतम से) मिलन अत्यंत कठिन है और प्रेम अत्यधिक है। ये दो पीड़ाएँ (एक) साथ सही नहीं जाती। इसलिए हे विधाता, या तो नित्य ही सुगमतापूर्वक मित्र मिलाप दे, नहीं तो यह प्रेम (वापस) ले ले।
बड़ कौतिक इक ए दिख्यों, रति आरति ही रूप।
तामें होत प्रतीति सुख, निपुन रंक का भूप॥
प्रेम पीड़ा का ही दूसरा रूप है। (किंतु) आश्चर्य की बात यह देखी कि इसमें निपुण, रंक और भूप-सबको सुख की प्रतीति होती है।
कृपन होत क्यों कृपाकर, तनक देत नहिं खोट।
दीनपात्र हों दिहू दया, दान खांन इक कोट॥
हे कृपाकर, आप कृपण क्यों हो गए हैं? मुझे थोड़ा दे देने से आपके भंडार में कमी नहीं होगी। मैं दीन पात्र हूँ, आप मुझे दया का दान दीजिए। आप की एक खान की करोड़ खानें होंगी।
लह्यों प्रेम जब जानिये, विरह विकल तम दीन।
कुछ न कहूँ सुहाय छिनु, दुति पे होई अधीन॥
प्रेम हुआ है, यह तब समझना चाहिए जब विरह से व्याकुल होकर तन क्षीण हो जाए। कहीं क्षण भर के लिए भी किसी चीज़ में मन न लगे और प्रिय की द्युति के पूर्णतया अधीन हो जाए।
अनल भखे शशि रति हितू, चकोर गिनत न ताप।
भस्म होई भवभाल लगु, हुइ कबु मित्त मिलाप॥
चकोर ताप की परवाह न करके अंगारे खाता है। वह चाहता है कि भस्म होकर ही वह (अपने प्रिय के निकट) शिव के ललाट तक पहुँच जाए
और शायद इसी बहाने प्रिय से मिलाप हो जाए।
लही न अंत अकास कहूँ, चिंतामनी न मोल।
संख्या नाहीं जीउ की, तेसे प्रेम अतोल॥
जैसे आकाश का अंत नहीं मापा जा सकता और चिंतामणि का मोल नहीं आंका जा सकता, जिस प्रकार जीवों को संख्या की गणना नहीं की जा सकती उसी प्रकार प्रेम को भी नहीं तोला जा सकता।
प्रीती ह्वा नीति नहीं, नीती ह्वा नहिं प्रीत।
स्यानप अरु मदछाक जिमि, नहिं इकत्र कहु रीत॥
प्रीति होती है, वहाँ नीति नहीं ठहरती और जहाँ नीति होती है वहाँ प्रीति नहीं रहती। ये दोनों वस्तुएँ उसी प्रकार एकत्र नहीं हो सकती जिस प्रकार मदिरा की मस्ती और चतुराई।
झां मन बेली ह्वां न श्रम, ब्रिड प्रमाद अघ भीति।
धन तन जीवन सहज दे, भै चित प्रीति प्रतीति॥
जिस वस्तु पर चित्त में प्रीति और प्रतीति दृढ़ हो जाए, और मन बेली हो जाए उसके लिए प्रयत्न करने में शर्म, लज्जा, आलस्य और पाप का अनुभव नहीं होता। प्रेमपात्र के प्रति प्रेमी, वन, तन और जीवन भी सहज ही अर्पित करने के लिए तत्पर रहता है। ऐसा है प्रेम।
मिलतहु दुख बिछरतहु दुख, सुख प्रिय अचल मिलाप।
सुन पतंग सारिंग ज्यों, कहा जुड़ाव निति ताप॥
मिलने में भी दुख है और बिछुडने में भी; सुख तो केवल प्रिय से अचल मिलाप में है। देखिए, पतंग और सारंग का शांतिदायी मिलन कहाँ हो पाता है? उन्हें तो नित्य ताप ही सहन करना पड़ता है।
रति चहलें मातंग मन, फस्यो न निकसन पाय।
बल करि निकस्यो चहत है, त्यों-त्यों धसत ही जाय॥
प्रेम-रूपी गड्ढे में मन रूपी हाथी यदि फँस जाय तो निकल नहीं पाता। बल लगाकर वह ज्यों-ज्यों निकलने का प्रयत्न करता है, त्यों-त्यों वह (कीचड़ में) गहरा धँसता ही जाता है।
व्याध फंद मृग परतु है, बंध अहेरी ह्वे न।
प्रेम अजब बागूर में, पारनहार बचें न॥
शिकारी के फंदे में मृग फँसता है, स्वंय अहेरी नहीं फँसता। पर यह प्रेम का फंदा बड़ा अजीब है, इसमें जाल बिछाने वाला स्वयं भी फँसे बिना नहीं रहता।
व्रिड सुधि बुधि बल लखतही, माशुक आशुक जाय।
अलि कठोर ज्यों बस कट, मृदु सरोज मुरझाय॥
प्रिया को देखते ही प्रियतम की लज्जा, सुधि, बुद्धि और शक्ति वैसे ही तिरोहित हो जाती है जैसे कठोर बाँस को काटने वाले भौंरे की शक्ति कोमल कमल के सामने फीकी पड जाती है।
योग यज्ञ जप तप तिरिथ, ग्यांन धरम व्रत नेम।
बिहिन वल्लवी वल्लभा, करि हरि इक बल प्रेम॥
योग, यज्ञ, जप, तप, तीर्थ, ज्ञान, धर्म, व्रत और नियम विहीन होने पर भी श्रीकृष्ण ने गोपियों को केवल प्रेम के बल पर ही अपना प्रिय बना लिया।
प्रीती सो सहराइयें, असु अनन्य द्वे अंग।
गति इक की सों ओंर की, जिमि कारंड विहंग॥
प्रेम वही सराहनीय है जिसमें अंग दो होते हुए भी प्राण एक हो, एक की गति हो वही दूसरे की हो, कारड विहंग की भाँति।
सोइ नेह नदलाल में, प्रकटि न पावें जान।
जस असि सूराचित्र कों, एंच्यो होइ न म्यान॥
जिस प्रकार तलवार तानकर खड़े शूरवीर के चित्र में तलवार सदैव तनी ही रहती है और म्यान में वापस नहीं जाती, उसी प्रकार का प्रेम नंदलाल के प्रति होना चाहिए कि एक बार प्रकट होने पर पुनः कम न होने पावे।
देखि जिएँ परसि न छूटें, माशुक आशक धन्य।
जैसे लोह चमक लगी, टरे न लखि चैतन्य॥
जो देखकर जीयें, मिलकर अलग न हो, ऐसे आशिक-माशूक धन्य हैं। जैसे कि लोहा चकमक-स्पर्श होने पर वियुक्त नहीं होता और चैतन्य हो जाता है।
रसिक नैन नाराच की, अजब अनोखी रीत।
दुसमन को परसे नहीं, मारे अपनो मीत॥
रसिकों के नयन वाणों की भी अनोखी रीत है। दुश्मन का तो स्पर्श तक नहीं करते और अपने मित्र को मारते हैं।
रति सुख दुख जानें नको, बिन इक अनुभौंकारि।
विदित न पीर प्रसूति जिमि, बंध्या नागरि नारि॥
अनुभव किए बिना प्रेम के सुख-दुख को कोई नहीं जान सकता जैसे कि चतुर वंध्या स्त्री भी प्रसूति की पीड़ा को नहीं जान सकती।
फूलूँ हों लखि लाल को, पिघरें घेना गात।
सो हितु क्यों वे दूर जब, दुहुँ की उलटी बात॥
हे सखि, मैं प्रियतम को देखकर फूल जाती हूँ। पर मेरे इन गहनों का शरीर न जाने क्यों उस समय दुबला हो जाता है! और जब वे दूर रहते हैं तब उलटी ही बात होती है। मेरा शरीर दुबला हो जाता है और गहनों का शरीर फूल जाता है।
यार चामिकर मन मनी, मेनभाय तुछ लाख।
ता बिन जमत न स्वाद श्री, भूषन रति वे खाख॥
प्रिय स्वर्ण है, मन मणि है, कामभाव तुच्छ लाख है। किंतु इस लाख के बिना, जो बाद में जलकर भस्म हो जाती है, प्रेमाभूषणों में आनंद और शोभा की वृद्धि नहीं होती।
फिरि-फिरि के वे ही कहें, अरुच न न हुई रतिवात।
नां निबटें नूतन लगें, अनुभों जानी जात॥
बार-बार वही बातें करते हैं पर (प्रेमियों को) प्रेम की बात अरुचिकर नहीं होती। वह पूरी भी नहीं होती और सदा नई मालूम होती है। अनुभव से ही (इस कथन की) सचाई का पता लग सकता है।
और अरिस्या विरह दुख, हिलग अग बड़ दोई।
सिखी धूम्र औ ताप बिन, जिमि कहु कदा न होइ॥
औरों (अपने प्रेमपात्र से प्रेम करनेवालों) के प्रति ईर्ष्या और प्रिय के विरह की पीड़ा-ये प्रेम के दो प्रधान अंग है। जैसे अग्नि धुआँ और ताप विहीन नहीं हो सकती (उसी प्रकार ईर्ष्या और विरह विहीन प्रेम भी दुर्लभ है)।
मोहन मन द्वें हें अजित, सब कहि साँची बात।
सोऊ सदबस प्रेम के, सहज अती ह्वेँ जात॥
एक मोहन और दूसरा मन, ये दो ऐसे हैं कि जिन्हें जीता नहीं जा सकता, यह सच्च सब कहते हैं, पर ये भी सहज ही प्रेम के अत्यंत एंव तुरंत अधीन हो जाते हैं।
जद्यपि रवि आतप भयों, पीतल लगत सरोज।
सकुचें लखि सो सुधाकर, समुझ प्रेम की चोज॥
यद्यपि रवि ताप से भरपूर होता है, फिर भी वह कमल को शीतल लगता है। यही कमल सुधाकर को देख कर सकुचा जाता है। प्रेम का यह कैसा चमत्कार है!
होत प्रीति नीको लगें, फिरि अरि त्यौं ले प्राण।
कुंभिनि निगलत जख म दुख, पाछे ज्यों निय ज्यान॥
प्रीति होती है तब तो भली मालूम होती है पर फिर वह दुश्मन की तरह प्राण लेती है। जैसे कि कुंभिनी को निगलते समय मछली को दुख नहीं होता पर पीछे उसका जी जाने-जैसा हो जाता है।
राखि साखि गत लाख करि, बही न लहि को फीर।
कोटि जतन जिमि ना मिलें, गयो मुक्त को नीर॥
लाख को त्याग कर भी साख बचाइए। एक बार चले जाने पर फिर साख नहीं जमती। करोड़ों यत्न करने पर भी जैसे मोती की आब (चमक) वापस नहीं मिलती।
सुख कें दुख सनेह में, विद्वन देहु जुवाब।
जो दुख तो सब करत क्यों, क्यों सुख तों परिताप॥
हे विद्वज्जन, मुझे इसका जवाब दीजिए कि प्रेम में सुख है अथवा दुख? यदि दु:ख है तो फिर सब करते क्यों हैं? यदि सुख है तो करने वाले को परिताप क्यों होता है?
विषई विष भच्छन करत, बहुत बिगारत मुख।
पे मन हे रुच त्यों समझि, रति दुख में हू सुख॥
विषयी विषैला पदार्थ खाते हैं और खाते समय ख़ूब मुहँ बिगाड़ते हैं। पर वह उनके मन को ख़ूब रचता है। इसी प्रकार प्रेम के दुख में भी सुख को निहित समझना चाहिए।
हरि बिसरी मनि-मान तजि, जिन मति कुरु को नीच।
मिलिहें त्यों सुख संपदा, ज्यों अयाच दुखमीच॥
हरि को भूल कर मणिरूपी मान को तज कर कोई भी माँगने की नीच प्रवृत्ति न करे। जैसे समय आने पर बिना माँगे ही दुख और मृत्यु मिलती है, वैसे ही सुख और संपदा भी मिलेंगी।
सखि पिय सुरत सुरत मुरत, सुरत सूर तन पीर।
सुर तन हिन सुर तन नहीं, सुर तनया सरि नीर॥
जमुना के जल में चंद्र प्रतिबिंब के दर्शन से रति क्रीड़ा के दौरान देखी हुई प्रिय की सूरत और सहवास का स्मरण हो आया। वह मधुर स्मृति शूल बन कर तन में चुभने लगी। काम जागृत हो उठा जिससे नायिका का शरीर शिथिल हो गया जैसे उसमें प्राण ही न हो।
नहिं प्रमान हित होन को, रूप बरन गुन कोई।
कहाँ अमर ईंधन धुँआ, मृगमद सो मति पोइ॥
प्रेम होने के लिए रूप, जाति या गुण का कोई निश्चित आधार नहीं। देखिए! देवदारू धूम्र ने कस्तूरी से कहाँ जाकर प्रेम संबंध बाँधा।
ढपें दोष गुन फुट करें, पर हरिजन यह चाल।
लखि शिव दुहु दधि तें लहे, गरल गिल्यो शशिभाल॥
हरिजनों की तो यही रीति है, वे दूसरे के दोषों को ढाँपते हैं और गुणों को प्रकट करते हैं। देखिए, शिवजी को समुद्र से विष और शशि दोनों प्राप्त हुए, पर उन्होंने विष को निगल लिया और शशि को भाल पर धारण किया।
ग्रीष्मघाम-सी हो तुमे, शिशिरातप तुम मोहि।
दै छुटकार निभाव कित, यह प्रीती को होहि॥
मैं तुम्हें ग्रीष्म की धूप के समान (अप्रिय) लगती हूँ और तुम मुझे शिशिर की धूप के समान (प्रिय) लगते हो। इस प्रेम का छुटकारा या निर्वाह अब कैसे होगा?
मुरझें मन पछताय निति, अब न कहें सों खाय।
अहो प्रेम बल प्रज्ञहू, भोंरे लो भूल जाय॥
मन में मुरझाते हैं, नित्य पछताते हैं और सौगंध खाकर कहते हैं कि अब ऐसा नहीं करेंगे, पर प्रेमवश होकर बुद्धिमान भी भ्रमर की भाँति भूल कर बैठते हैं।
प्रेमामृत को स्वाद कस, को कबु कह्यों न जाइ।
अनभविकों हिय जान ही, मुक मिसरी की नाइ॥
प्रेमामृत का स्वाद कैसा है, यह किसी से बताया नहीं जा सकता। इसको तो अनुभवों का हृदय जानता है जैसे गूँगा मिसरी के स्वाद को भली-भाँति जानता है।
झा जाही कों मन मन्यों, सो ताकों सुखदाय।
जियें न गिरकिट सरकरा, दघि जखि सरि मरि जाय॥
जिससे जिसका दिल लग गया, वही उसके लिए सुखदाई है। जैसे कि विष के कीड़े (विष खाते हैं और) शक्कर में प्राण त्याग देते हैं और समुद्र की मछलियाँ (खारे पानी में जीती हैं और) सरिता जल में प्राण त्याग देती हैं।
शंकर समुझि सनेह पितु, तिल तातें लिय सीस।
त्यों ही निति नौनित धर्यो, कर किसोर ब्रज ईस॥
शंकर ने तिल को स्नेह (तेल) का पिता समझकर मस्तक पर धारण किया। इसी प्रकार ब्रजेश ने स्नेह (धूत) का पिता मानकर नवनीत को हाथ में धारण किया है।
औगुन बल्लभ को कबू, टिकें नहीं उर आय।
ज्यों सब सागर पेट में, रहै न निकसी जाय॥
अपने प्रिय के अवगुण या तो हदय में पहुँचते ही नहीं और अगर पहुँचते हैं तो टिकते नहीं। उसी प्रकार जैसे सागर के पेट में शव रह नहीं सकते, निकल जाते हैं।
प्यारो जैसो प्यार प्रिय, तस प्रिय नंदकुमार।
ता पद पंकज रज सदा, हुउँ मम प्रान अधार॥
प्रिया को प्रियतम जितना प्यारा होता है, उतना जिसे नंदकुमार प्रिय हो उसके पद-पंकजों की रज मेरे प्राणों का आधार बने।
मुकर-मुकर सब वस्तु भई, नयन अयन किय लाल।
दृग पसारूँ जित-जित अली, तित-तित लखूँ गुपाल॥
जब से लाल ने नयनो में निवास किया है, सब वस्तुएँ जैसे दर्पण की हो गई हैं। क्योंकि मै दृष्टि उठाकर जिधर देखती हूँ, उधर गोपाल ही गोपाल दिखाई देते हैं।
प्रेम प्रभू हू तें प्रथू, बिबुध बिचारी लेहु।
कपि सकंध रघुनाथ लिय, सीस चढ़ाय सनेहु॥
प्रेम प्रभु में भी बड़ा है, ज्ञानी यह स्वयं विचार देखें। हनुमान ने श्रीरामचंद्र को कंधे पर बिठाया पर स्नेह (तेल) को मस्तक पर चढाया।
मोहि मोह तुम मोह को, मोह न मो कहुं धारि।
मोहन मोह न वारियें, मोहनि मोह निवारि॥
मुझे केवल आपके मोह का मोह है, मेरे मोह को आप अपने अतिरिक्त और कही केंद्रित न करिये। हे मोहन, आप इसका निवारण भी न करिए। यदि
करना ही हो तो मेरे प्राणों का अंत कर के (मो+हनि) फिर ऐसा कीजिए।
ज्या बिन असु न रहे सु बड, और ऊँच तहु हीन।
पय पानी तें मधुर पें, व्हा परि जियें न मीन॥
जिसके बिना प्राण न रहे, वही (उसके लिए) बड़ा है। दूसरे बड़े होते हुए भी (उसके लिए) हीन है। दूध पानी से मधुर होता है पर उसमें मछली जीवित नहीं रह सकती।
दुग्ध नीर निंज सम कियों, आदि बर्यो बन लागि।
उछरी पय पावक परी, बुझ यों धनि अनुरागि॥
दूध ने पानी को अपने जैसा बना लिया। प्रारंभ में वह पानी के लिए छीजने लगा। फिर उफनकर आग पर गिर कर (उसने पावक को) बुझाया ऐसा अनुराग धन्य है।
सबै अति प्रिय लीउ निज, ताकों जिहा लगन्न।
को काकों एसान कर, वहा मन होइ मगन्न॥
सबको अपना जीव अतिशय प्यारा होता है। वह जहाँ लगना हो लग जाता है। ऐसा करके कोई (प्रेमी) किसी (प्रेमपात्र) पर एहसान नहीं करता वहाँ उसका मन मग्न होता है।
प्रिय प्रान सम सब बदें, मेरे मन अस नाहिं।
प्रिय की पीर न सहि परें, असु रुज सोसी जाहि॥
सब प्रिय को प्राणों के समान बताते हैं पर मैं अपने अनुभव के आधार पर कहती हूँ कि ऐसा नहीं है। क्योंकि प्राणों की पीड़ा तो सहन की जा सकती है पर प्रिय की पीड़ा सहन नहीं होती।
रूप द्रव्य गुन उदय रति, पोषक सेवा सत्य।
लय परलगन कितव कुवच, जद्यपि भै दृढ अत्य॥
रूप, द्रव्य और गुण से प्रेम का उदय होता है। सेवा और सत्य उसके पोषक हैं। पर-प्रेम, छल और अपशब्द ये प्रेम का नाश करने वाले हैं।
प्रेम नेम यह वह लहें, व्हें भाव निति देह।
बरें बिना दीपहु न ज्यों, पावत पिव न सनेह॥
प्रेम का यह नियम है कि जो तन-मन को नित्य प्रति जलाने को तैयार हो, वही प्रेम रस का पान कर सकता है। जैसे कि जले बिना दोपक स्नेह (तेल) का पान नहीं कर सकता है।
कछु न प्रीय प्रियप्रान सों, सो तुम सों नहि प्रान।
तुम प्यारे इक तुमहि से, नां पटतर सम आन॥
प्रिय प्राणों से बढ़कर कोई पदार्थ अधिक प्यारा नहीं होता। वह प्राण भी मुझे तुम-सा प्यारा नहीं। तुम मुझे तुम्हीं-से प्यारे हो। दूसरा कोई भी तुम्हारी बराबरी नहीं कर सकता।
पनघट पनघट जाय पन, घट पनघट कों ध्यान।
पनघट लाल चढ़ाय दें, अलि पनघट सुखखान॥
पनघट पर प्रतिष्ठा के घटने की संभावना है, किंतु मेरे घट में तो सदा पनघट का ही ध्यान बना रहता है; क्योंकि वहाँ प्रतिदिन प्रियतम पानी से भरा घट मुझे
ऊँचाते हैं। इसलिए हे सखी, पनघट मेरे लिए सुख-दाई है।
कित दुलावें हम किय कहा, जो तो लगी अनीति।
यातें दूनो याहि ढब करि, तुं हमें ठरि जीति॥
क्यों बुरा-भला कहती हो? हमने किया ही क्या है जो तुम्हें अनुचित प्रतीत हुआ? और यदि अनुचित प्रतीत हुआ है तो जैसा व्यवहार मैंने तुम्हारे साथ किया है वैसा ही उससे दुगुना तुम मेरे साथ करके विजयी हो जाओ।
शशि चकोर अरविंद मलि, विष पतंग मृग राग।
जिन बिन चल्यों न क्यों तजें, जदपि एक अनुराग॥
चकोर चंद्र,अलि अरविंद, पतंग-दीपक, मृग राग का प्रेम यद्यपि एकांगी है किंतु जिनके बिना चल ही नहीं सकता उन्हें कैसे छोड़ा जा सकता है?
जिहिं कंन्या प्रिय बसत बहिं, धसत खिसत नहिं नेंन।
प्राची ओर चकोर जिमि, तकियंतु हे दिन-रेंन॥
जिस दिशा में प्रिय बसता है उस दिशा की ओर प्रेमी के नेत्र टकटकी लगाकर देखा करते हैं। जैसे कि चकोर रात-दिन पूर्व दिशा की ओर ताका करता है।
गल बांही दुहु तहु रटें, कित प्यारी पिउ कीत।
मिलत परे न प्रतीत यह, प्रीति रीति विप्रीत॥
दोनो ने गले में बाँहें डाल रक्खी है फिर भी 'मेरी प्रिया कहाँ है? 'मेरा प्रियतम कहाँ है?' की रट लगाए हुए हैं। प्रेम की यह रीति विपरीत है कि मिलने पर भी प्रतीति नहीं होती।
रति आरति जानत न तुम, मेरी हे प्रिय प्रान।
जस मो तुम,तसि को तुमे, लगिहे हुइ तब ग्यान॥
हे प्राणप्रिय, तुम मेरे प्रेम की पीड़ा को नहीं जानते। जैसे तुम मुझे (प्रिय) लगते हो, वैसे तुम्हें भी कोई (प्रिय) लगने लगेगा तब तुमको (मेरी पीड़ा का) ज्ञान होगा।
मो मन को तुम मन प्रिये, मो तन तुम तन चाहि।
निरास कीजें ताहि कों, प्रीतम जो प्रिय नाहिं॥
मेरे मन को तुम्हारा मन प्रिय है और मेरे तन को तुम्हारा तन। इन दोनों में से आपको जो प्रिय न हो, उसे आप निराश कर दीजिए।
सुख पावें की दुख लहे, लगी डगें नहीं प्रीति।
लपटि यूक्ष जिमि बल्लरी, छुटी न कबु यह रीति॥
सुख मिले चाहे दुख, लगी प्रीति छूटती नहीं जैसे कि वृक्ष से लिपट जाने पर वल्लरी फिर कभी उससे अलग नहीं होती।
राज रूप रसपान सुख, समुझत हें मों नैन।
पें न बेंन हें नेन कों, नेन नहीं हैं बेंन॥
हे राज! आपकी रूप-माधुरी के रसपान का आनंद मेरे नेत्र अनुभव करते हैं पर (उसका बखान नहीं कर सकते क्योंकि) नेत्रों के वाणी नहीं है और वाणी के नेत्र नहीं हैं।
रसिक नैन नाराचकी अजब अनोंखी रीत।
दुसमन को परसे नहीं, मारे अपनों मीत॥
रसिकों के नयन-बाणों की अनोखी रीत है। दुश्मन का तो स्पर्श तक नहीं करते और अपने मीत को ही मारते हैं।
मेरे रति उलटीं भई, के रति आरति नाम।
माँगी रति में केलि लहिं, दै-वै रति रुझ धाम॥
मेरे लिए ही यह रति उलटी (तीर) हो गई है अथवा रति आरती का ही दूसरा नाम है! मैने खेल समझकर रति की याचना की थी किंतु विधाता ने रति देते पीड़ा का धाम दे दिया।
मन-रस रस गंधक मिल्यो, चपल अचलता पाय।
और जतन बहु बुट्टि तें, ज्यों कबु गह्यो न जाए॥
मन रूपी चंचल पारा जो अनेक प्रयत्नों और जड़ी-बूटियों से काबू में नहीं आता, प्रेम रूपी गंधक के संयोग से स्थिर हो जाता है।
सो हरि रूप समुद्र में, मिल्यो ललन चित लोन।
अब सों भिन्न न होहि कबु, जैसे आभा भोन॥
हरि-रूपी समुद्र में इन ललनाओं का चित्तरूपी नमक घुल गया है। अब वह कभी भिन्न नहीं हो सकता। वह सूर्य और प्रकाश की भाँति अभिन्न हो
गया है।
ज्ञानी तपसि अनंत ये, शुद्ध प्रेमि कहूँ एक।
जैसें करि हरि ज्यूह त्यों, सिंह न होहि अनेक॥
ज्ञानी और तपस्वी तो अनंत है पर सच्चा प्रेमी कोई बिरला ही होता है। जैसे हाथी घोड़ों के समूह तो अनेक होते हैं पर सिंह अनेक नहीं होते।
सब मीठो माशूक कों, विज्ञानी कहि साच।
सकल मनोहर लखि लगें, सस्त्रदस्त ज्यों काच॥
अनुभवी लोगों का यह कहना बिलकुल सच है कि प्रेमी को प्रेमिका की हर बात मीठी लगती है। उसी प्रकार जैसे 'सस्त्रदस्त' शीशे में प्रत्येक वस्तु मनोहर दीखने लगती है।
अटपटि पटि अति रति गति, यति सति मति हति जाय।
फसे न निकसे को चतुर, सब रागी मुख हाय॥
प्रेम की गति अत्यधिक अटपटी है। क्योंकि इसके वशीभूत होकर योगियों का योग और सतियों का सतीत्व भी डिग जाता है। चतुर भी एक बार इसमें फँसने पर नहीं निकल पाते। सभी प्रेमियों के मुँह से 'हाय' निकलती है।
सुखरासी सुधि ना रही, लखि के मुख सुख रासि।
रस लेते रस बीखयों, पनघट भइ उपहासि॥
सुख-राशि (नायक) का मुख़ देखकर नायिका को (सुखराशि-कुंभ) घड़े की सुधि नहीं रही। रस लेते समय घड़े का रस (जल) बिखर गया और पनघट पर उसका उपहास हुआ।
और प्रसंस लगें न रुचि, कीनी अति मनुहारि।
जेसि मनोहर माधुरी, लगें प्रेम की गारि॥
दूसरों की की हुई प्रशंसा और अत्यधिक मनुहार भी उतनी मीठी नहीं लगती, जितनी मीठी प्रेम(पात्र) की गाली लगती है।
रूप भूप के राज में, यह महान अन्याय।
नाम न लें कों मूढ कों, च्यातुर मारे जाय॥
सुंदरता के राजा के राज्य में यह महान अन्याय है कि मूर्ख का तो वहाँ कोई नाम भी नहीं लेता और चतुर आदमी मारे जाते हैं।
प्रीति जोरवी सरल पें, करियो कठिन निभाव।
जैयबों जलधी पार परि, पेंठी कागद नाव॥
प्रीति जोहना सरल है पर उसका निर्वाह करना (वैसा ही) कठिन है जैसा कि क़ाग़ज़ की नाव में बैठ कर समुद्र के पार जाना।
विवाद अर्थ समंधता, तिय रह जल्प परोक्ष।
बढ़ियों और सनेह कित, प्रथम होइ सब मोक्ष॥
वाद-विवाद, लेन-देन और परस्त्री से किया गया एकांत में वार्तालाप; (ये) तीनों ऐसे हैं (कि) जिनसे स्नेह के बढ़ने की तो बात ही क्या, प्रारंभ में ही (इनसे) सब कुछ समाप्त हो जाता है।
कारन कछू रति होन धर, चहि फिर रहु या जाव।
वेली जब मंडप छही, म्होंर न काम लगाव॥
प्रेम होने के लिए कोई-न-कोई कारण होना चाहिए। (प्रेम हो जाने के बाद) फिर वह आधार रहे चाहे जाए। जैसे कि मंडप पर छा जाने के बाद बैल को सहारे (लगाव) की आवश्यकता नहीं रहती।
रहें पलक ना प्रथक दुहु, जिमि सीतलता अंबु।
अलग अंग बातें करत, तहु मिलि रह प्रतिबिंबु॥
पल भर के लिए भी ये दोनों पृथक नहीं रह सकते जैसे कि जल और शीतलता। यद्यपि शारीरिक रूप से ये अलग रहकर बातें करते हैं फिर भी
इनके प्रतिबिंब मिले हुए से दिखाई पड़ते हैं।
दृगन लगन मन मग न परि, मगन गगन लों लागि।
भगन भगनफल, जगन सहि, हरि सो सो बड़ भागि॥
(हे मन, तू) दृग लगने (प्रेम) के मार्ग में न पड़। प्रेम की आग गगन तक पहुँचती है। इसमें भगनफल (यश) नष्ट होता है, जगनफल (कष्ट) सहना पड़ता है। हरि-प्राप्ति में संशय उत्पन्न हो जाता है और बड़प्पन जाता रहता है।
गारि मंत्र बूका सु रज, मोहनि मूठि हरी जु।
जुल्मि तहू घटि सार्ध त्रय, सो नहिं लगत मरी जु॥
गंगाबरार (वह भूमि जो नदी के हटने से निकल आती है) की रज को मंत्रों से अभिमंत्रित करके हरि ने मेरी ओर फेंका। घातक मूठ का प्रभाव साढ़े तीन घड़ी में होता है किंतु मैं तो इस मोहिनी मूठ लगते ही मर गई।
बानिक नटवरलाल कि न, लिखत तोष दिन रैन।
पान करें प्यासे मरें, बनचर त्यों मम नैंन॥
मेरे नेत्र दिन-रैन श्रीकृष्ण की शोभा का पान किया करते हैं फिर भी तृप्त नहीं होते। मछली की तरह वे पान करने पर भी सदा प्यासे रहते हैं।
ऐंचत तन आगार दिस, चित्त रावरी ओर।
ज्यों न सकें छुटि दंड तें, धुजा पवन के जोर॥
मुझे शरीर घर की ओर खींच रहा है ओर (मेरा) चित्त पाप में भटका हुआ है। (मेरी हालत इस समय उस पताका जैसी हो रही है) जो हवा के प्रबल वेग में (फहराते हुए) भी डंडे से छूट नहीं पाती और अटकी रहती है।
जगजीवन जन तापहर, चपला पियु बपु स्याम।
वैष्णोंवल्लभ नीलग्रिव, हरि माधो जस नाम॥
(१) हे संसार के जीवन (जल) रूपी मेघ, तू लोगों का ताप हरनेवाला है। तू चपला (बिजली) का स्वामी है और काले शरीरवाला है। तू वनस्पतियों और मयूरों का प्रिय है। हरि (इंद्र) और माधव (कृष्ण) आदि नामों से भी तुझे पुकारा जाता है।
सखि पिय सुरत, सुरत, सुरत, सुरत सुर तन पीर।
सुर तन हिन सुर तन नहीं, सुर तनया सरि नीर॥
जमुना के जल में चंद्र प्रतिबिंब के दर्शन से संभोग समय देखी हुई प्रिय की सूरत और सहवास का स्मरण हो आया। वह मधुर स्मृति शूल बन कर तन में चुभने लगी। काम जागृत हो उठा, जिससे गोपिका का शरीर शिथिल हो गया जैसे उसमें प्राण ही न हों।
प्यारी तेरों अधर रस, क्यों बिसरें गोपाल।
बेसर निरमल मुक्तहू, जिहिं परसत भों लाल॥
हे प्यारी! तेरे अधर-रस का स्वाद गोपाल कैसे भूल सकते हैं? देख बेसर का निर्मल मोती भी उन्हें स्पर्श करते ही लाल हो गया।
रतिरुझ में सुख समुझ मन, पें कहि सके न बाक।
कटुताई में मिष्टता, जैसि करेला साक॥
प्रेम-पीड़ा में सुख है; उस सुख का मन अनुभव करता है पर वाणी उसे कह नहीं सकती। प्रेम-पीड़ा में आनंद उसी प्रकार निहित रहता है जिस प्रकार करेले के शाक की कटुता में उसकी मिठास।
बंधि गुन भूज इत्सन हती, दिहु दुज सनसि लगाय।
के उर सुगड़ चढ़ाय मो, धिज हर सिर कर ल्याय॥
(बांधना चाहो तो) अपनी भुजाओं की डोरी से बांध लो, (मारना चाहो तो) नेत्रों के तीक्ष्ण बाणों से मारो, (जकड़ना चाहो तो) अपनी दाँत-रूपी सानसी (सँडसी) से मेरे होठों को जकड़ लो (क़ैद करना चाहो तो) हृदय रूपी गढ़ में क़ैद कर लो। (सत्य की प्रतीति करना चाहो तो) शिव पिंडो (कुचों) पर हाथ रखने दो।
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