क़तील शिफ़ाई की ग़ज़लें / Qateel Shifai Ghazals

गर्मी-ए-हसरत-ए-नाकाम से जल जाते हैं / क़तील शिफ़ाई

गर्मी-ए-हसरत-ए-नाकाम से जल जाते हैं

हम चराग़ों की तरह शाम से जल जाते हैं

शम्अ' जिस आग में जलती है नुमाइश के लिए

हम उसी आग में गुमनाम से जल जाते हैं

बच निकलते हैं अगर आतिश-ए-सय्याल से हम

शोला-ए-आरिज़-ए-गुलफ़ाम से जल जाते हैं

ख़ुद-नुमाई तो नहीं शेवा-ए-अरबाब-ए-वफ़ा

जिन को जलना हो वो आराम से जल जाते हैं

रब्त-ए-बाहम पे हमें क्या न कहेंगे दुश्मन

आश्ना जब तिरे पैग़ाम से जल जाते हैं

जब भी आता है मिरा नाम तिरे नाम के साथ

जाने क्यूँ लोग मिरे नाम से जल जाते हैं

अपने हाथों की लकीरों में सजा ले मुझ को / क़तील शिफ़ाई

अपने हाथों की लकीरों में सजा ले मुझ को

मैं हूँ तेरा तू नसीब अपना बना ले मुझ को

मैं जो काँटा हूँ तो चल मुझ से बचा कर दामन

मैं हूँ गर फूल तो जूड़े में सजा ले मुझ को

तर्क-ए-उल्फ़त की क़सम भी कोई होती है क़सम

तू कभी याद तो कर भूलने वाले मुझ को

मुझ से तू पूछने आया है वफ़ा के मा'नी

ये तिरी सादा-दिली मार न डाले मुझ को

मैं समुंदर भी हूँ मोती भी हूँ ग़ोता-ज़न भी

कोई भी नाम मिरा ले के बुला ले मुझ को

तू ने देखा नहीं आईने से आगे कुछ भी

ख़ुद-परस्ती में कहीं तू न गँवा ले मुझ को

बाँध कर संग-ए-वफ़ा कर दिया तू ने ग़र्क़ाब

कौन ऐसा है जो अब ढूँढ निकाले मुझ को

ख़ुद को मैं बाँट न डालूँ कहीं दामन दामन

कर दिया तू ने अगर मेरे हवाले मुझ को

मैं खुले दर के किसी घर का हूँ सामाँ प्यारे

तू दबे-पाँव कभी आ के चुरा ले मुझ को

कल की बात और है मैं अब सा रहूँ या न रहूँ

जितना जी चाहे तिरा आज सता ले मुझ को

बादा फिर बादा है मैं ज़हर भी पी जाऊँ 'क़तील'

शर्त ये है कोई बाँहों में सँभाले मुझ को

परेशाँ रात सारी है सितारो तुम तो सो जाओ / क़तील शिफ़ाई

परेशाँ रात सारी है सितारो तुम तो सो जाओ

सुकूत-ए-मर्ग तारी है सितारो तुम तो सो जाओ

हँसो और हँसते हँसते डूबते जाओ ख़लाओं में

हमीं पे रात भारी है सितारो तुम तो सो जाओ

हमें तो आज की शब पौ फटे तक जागना होगा

यही क़िस्मत हमारी है सितारो तुम तो सो जाओ

तुम्हें क्या आज भी कोई अगर मिलने नहीं आया

ये बाज़ी हम ने हारी है सितारो तुम तो सो जाओ

कहे जाते हो रो रो कर हमारा हाल दुनिया से

ये कैसी राज़दारी है सितारो तुम तो सो जाओ

हमें भी नींद आ जाएगी हम भी सो ही जाएँगे

अभी कुछ बे-क़रारी है सितारो तुम तो सो जाओ

वो दिल ही क्या तिरे मिलने की जो दुआ न करे / क़तील शिफ़ाई

वो दिल ही क्या तिरे मिलने की जो दुआ न करे

मैं तुझ को भूल के ज़िंदा रहूँ ख़ुदा न करे

रहेगा साथ तिरा प्यार ज़िंदगी बन कर

ये और बात मिरी ज़िंदगी वफ़ा न करे

ये ठीक है नहीं मरता कोई जुदाई में

ख़ुदा किसी को किसी से मगर जुदा न करे

सुना है उस को मोहब्बत दुआएँ देती है

जो दिल पे चोट तो खाए मगर गिला न करे

अगर वफ़ा पे भरोसा रहे न दुनिया को

तो कोई शख़्स मोहब्बत का हौसला न करे

बुझा दिया है नसीबों ने मेरे प्यार का चाँद

कोई दिया मिरी पलकों पे अब जला न करे

ज़माना देख चुका है परख चुका है इसे

'क़तील' जान से जाए पर इल्तिजा न करे

तुम पूछो और मैं न बताऊँ ऐसे तो हालात नहीं / क़तील शिफ़ाई

तुम पूछो और मैं न बताऊँ ऐसे तो हालात नहीं

एक ज़रा सा दिल टूटा है और तो कोई बात नहीं

किस को ख़बर थी साँवले बादल बिन बरसे उड़ जाते हैं

सावन आया लेकिन अपनी क़िस्मत में बरसात नहीं

टूट गया जब दिल तो फिर ये साँस का नग़्मा क्या मा'नी

गूँज रही है क्यूँ शहनाई जब कोई बारात नहीं

ग़म के अँधियारे में तुझ को अपना साथी क्यूँ समझूँ

तू फिर तू है मेरा तो साया भी मेरे साथ नहीं

माना जीवन में औरत इक बार मोहब्बत करती है

लेकिन मुझ को ये तो बता दे क्या तू औरत ज़ात नहीं

ख़त्म हुआ मेरा फ़साना अब ये आँसू पोंछ भी लो

जिस में कोई तारा चमके आज की रात वो रात नहीं

मेरे ग़मगीं होने पर अहबाब हैं यूँ हैरान 'क़तील'

जैसे मैं पत्थर हूँ मेरे सीने में जज़्बात नहीं

अपने होंटों पर सजाना चाहता हूँ / क़तील शिफ़ाई

अपने होंटों पर सजाना चाहता हूँ

आ तुझे मैं गुनगुनाना चाहता हूँ

कोई आँसू तेरे दामन पर गिरा कर

बूँद को मोती बनाना चाहता हूँ

थक गया मैं करते करते याद तुझ को

अब तुझे मैं याद आना चाहता हूँ

छा रहा है सारी बस्ती में अँधेरा

रौशनी को, घर जलाना चाहता हूँ

आख़री हिचकी तिरे ज़ानू पे आए

मौत भी मैं शाइ'राना चाहता हूँ

हालात के क़दमों पे क़लंदर नहीं गिरता  / क़तील शिफ़ाई

हालात के क़दमों पे क़लंदर नहीं गिरता

टूटे भी जो तारा तो ज़मीं पर नहीं गिरता

गिरते हैं समुंदर में बड़े शौक़ से दरिया

लेकिन किसी दरिया में समुंदर नहीं गिरता

समझो वहाँ फलदार शजर कोई नहीं है

वो सहन कि जिस में कोई पत्थर नहीं गिरता

इतना तो हुआ फ़ाएदा बारिश की कमी का

इस शहर में अब कोई फिसल कर नहीं गिरता

इनआ'म के लालच में लिखे मद्ह किसी की

इतना तो कभी कोई सुख़न-वर नहीं गिरता

हैराँ है कई रोज़ से ठहरा हुआ पानी

तालाब में अब क्यूँ कोई कंकर नहीं गिरता

उस बंदा-ए-ख़ुद्दार पे नबियों का है साया

जो भूक में भी लुक़्मा-ए-तर पर नहीं गिरता

करना है जो सर मा'रका-ए-ज़ीस्त तो सुन ले

बे-बाज़ू-ए-हैदर दर-ए-ख़ैबर नहीं गिरता

क़ाएम है 'क़तील' अब ये मिरे सर के सुतूँ पर

भौंचाल भी आए तो मिरा घर नहीं गिरता

किया है प्यार जिसे हम ने ज़िंदगी की तरह / क़तील शिफ़ाई

किया है प्यार जिसे हम ने ज़िंदगी की तरह

वो आश्ना भी मिला हम से अजनबी की तरह

किसे ख़बर थी बढ़ेगी कुछ और तारीकी

छुपेगा वो किसी बदली में चाँदनी की तरह

बढ़ा के प्यास मिरी उस ने हाथ छोड़ दिया

वो कर रहा था मुरव्वत भी दिल-लगी की तरह

सितम तो ये है कि वो भी न बन सका अपना

क़ुबूल हम ने किए जिस के ग़म ख़ुशी की तरह

कभी न सोचा था हम ने 'क़तील' उस के लिए

करेगा हम पे सितम वो भी हर किसी की तरह

सदमा तो है मुझे भी कि तुझ से जुदा हूँ मैं / क़तील शिफ़ाई

सदमा तो है मुझे भी कि तुझ से जुदा हूँ मैं

लेकिन ये सोचता हूँ कि अब तेरा क्या हूँ मैं

बिखरा पड़ा है तेरे ही घर में तिरा वजूद

बेकार महफ़िलों में तुझे ढूँडता हूँ मैं

मैं ख़ुद-कुशी के जुर्म का करता हूँ ए'तिराफ़

अपने बदन की क़ब्र में कब से गड़ा हूँ मैं

किस किस का नाम लाऊँ ज़बाँ पर कि तेरे साथ

हर रोज़ एक शख़्स नया देखता हूँ मैं

क्या जाने किस अदा से लिया तू ने मेरा नाम

दुनिया समझ रही है कि सच-मुच तिरा हूँ मैं

पहुँचा जो तेरे दर पे तो महसूस ये हुआ

लम्बी सी एक क़तार में जैसे खड़ा हूँ मैं

ले मेरे तजरबों से सबक़ ऐ मिरे रक़ीब

दो-चार साल उम्र में तुझ से बड़ा हूँ मैं

जागा हुआ ज़मीर वो आईना है 'क़तील'

सोने से पहले रोज़ जिसे देखता हूँ मैं

ये मो'जिज़ा भी मोहब्बत कभी दिखाए मुझे / क़तील शिफ़ाई

ये मो'जिज़ा भी मोहब्बत कभी दिखाए मुझे

कि संग तुझ पे गिरे और ज़ख़्म आए मुझे

मैं अपने पाँव तले रौंदता हूँ साए को

बदन मिरा ही सही दोपहर न भाए मुझे

ब-रंग-ए-ऊद मिलेगी उसे मिरी ख़ुश्बू

वो जब भी चाहे बड़े शौक़ से जलाए मुझे

मैं घर से तेरी तमन्ना पहन के जब निकलूँ

बरहना शहर में कोई नज़र न आए मुझे

वही तो सब से ज़ियादा है नुक्ता-चीं मेरा

जो मुस्कुरा के हमेशा गले लगाए मुझे

मैं अपने दिल से निकालूँ ख़याल किस किस का

जो तू नहीं तो कोई और याद आए मुझे

ज़माना दर्द के सहरा तक आज ले आया

गुज़ार कर तिरी ज़ुल्फ़ों के साए साए मुझे

वो मेरा दोस्त है सारे जहाँ को है मा'लूम

दग़ा करे वो किसी से तो शर्म आए मुझे

वो मेहरबाँ है तो इक़रार क्यूँ नहीं करता

वो बद-गुमाँ है तो सौ बार आज़माए मुझे

मैं अपनी ज़ात में नीलाम हो रहा हूँ 'क़तील'

ग़म-ए-हयात से कह दो ख़रीद लाए मुझे

हुस्न को चाँद जवानी को कँवल कहते हैं / क़तील शिफ़ाई

हुस्न को चाँद जवानी को कँवल कहते हैं

उन की सूरत नज़र आए तो ग़ज़ल कहते हैं

उफ़ वो मरमर से तराशा हुआ शफ़्फ़ाफ़ बदन

देखने वाले उसे ताज-महल कहते हैं

वो तिरे हुस्न की क़ीमत से नहीं हैं वाक़िफ़

पंखुड़ी को जो तिरे लब का बदल कहते हैं

पड़ गई पाँव में तक़दीर की ज़ंजीर तो क्या

हम तो उस को भी तिरी ज़ुल्फ़ का बल कहते हैं

वो शख़्स कि मैं जिस से मोहब्बत नहीं करता / क़तील शिफ़ाई

वो शख़्स कि मैं जिस से मोहब्बत नहीं करता

हँसता है मुझे देख के नफ़रत नहीं करता

पकड़ा ही गया हूँ तो मुझे दार पे खींचो

सच्चा हूँ मगर अपनी वकालत नहीं करता

क्यूँ बख़्श दिया मुझ से गुनहगार को मौला

मुंसिफ़ तो किसी से भी रिआ'यत नहीं करता

घर वालों को ग़फ़लत पे सभी कोस रहे हैं

चोरों को मगर कोई मलामत नहीं करता

किस क़ौम के दिल में नहीं जज़्बात-ए-बराहीम

किस मुल्क पे नमरूद हुकूमत नहीं करता

देते हैं उजाले मिरे सज्दों की गवाही

मैं छुप के अँधेरे में इबादत नहीं करता

भूला नहीं मैं आज भी आदाब-ए-जवानी

मैं आज भी औरों को नसीहत नहीं करता

इंसान ये समझें कि यहाँ दफ़्न ख़ुदा है

मैं ऐसे मज़ारों की ज़ियारत नहीं करता

दुनिया में 'क़तील' उस सा मुनाफ़िक़ नहीं कोई

जो ज़ुल्म तो सहता है बग़ावत नहीं करता

तुम्हारी अंजुमन से उठ के दीवाने कहाँ जाते / क़तील शिफ़ाई

तुम्हारी अंजुमन से उठ के दीवाने कहाँ जाते

जो वाबस्ता हुए तुम से वो अफ़्साने कहाँ जाते

निकल कर दैर-ओ-काबा से अगर मिलता न मय-ख़ाना

तो ठुकराए हुए इंसाँ ख़ुदा जाने कहाँ जाते

तुम्हारी बे-रुख़ी ने लाज रख ली बादा-ख़ाने की

तुम आँखों से पिला देते तो पैमाने कहाँ जाते

चलो अच्छा हुआ काम आ गई दीवानगी अपनी

वगर्ना हम ज़माने भर को समझाने कहाँ जाते

'क़तील' अपना मुक़द्दर ग़म से बेगाना अगर होता

तो फिर अपने पराए हम से पहचाने कहाँ जाते

लिख दिया अपने दर पे किसी ने इस जगह प्यार करना मना है / क़तील शिफ़ाई

लिख दिया अपने दर पे किसी ने इस जगह प्यार करना मना है

प्यार अगर हो भी जाए किसी को उस का इज़हार करना मना है

उन की महफ़िल में जब कोई जाए पहले नज़रें वो अपनी झुकाए

वो सनम जो ख़ुदा बन गए हैं उन का दीदार करना मना है

जाग उट्ठे तो आहें भरेंगे हुस्न वालों को रुस्वा करेंगे

सो गए हैं जो फ़ुर्क़त के मारे उन को बेदार करना मना है

हम ने की अर्ज़ ऐ बंदा-पर्वर क्यूँ सितम ढा रहे हो यूँ हम पर

बात सुन कर हमारी वो बोले हम से तकरार करना मना है

सामने जो खुला है झरोका खा न जाना 'क़तील' उन का धोका

अब भी अपने लिए उस गली में शौक़-ए-दीदार करना मना है

चाँदी जैसा रंग है तेरा सोने जैसे बाल / क़तील शिफ़ाई

चाँदी जैसा रंग है तेरा सोने जैसे बाल

इक तू ही धनवान है गोरी बाक़ी सब कंगाल

हर आँगन में आए तेरे उजले रूप की धूप

छैल-छबेली रानी थोड़ा घूँघट और निकाल

भर भर नज़रें देखें तुझ को आते-जाते लोग

देख तुझे बदनाम न कर दे ये हिरनी सी चाल

कितनी सुंदर नार हो कोई मैं आवाज़ न दूँ

तुझ सा जिस का नाम नहीं है वो जी का जंजाल

सामने तू आए तो धड़कें मिल कर लाखों दिल

अब जाना धरती पर कैसे आते हैं भौंचाल

बीच में रंग-महल है तेरा खाई चारों ओर

हम से मिलने की अब गोरी तू ही राह निकाल

कर सकते हैं चाह तिरी अब 'सरमद' या 'मंसूर'

मिले किसी को दार यहाँ और खिंचे किसी की खाल

ये दुनिया है ख़ुद-ग़रज़ों की लेकिन यार 'क़तील'

तू ने हमारा साथ दिया तो जिए हज़ारों साल

अंगड़ाई पर अंगड़ाई लेती है रात जुदाई की / क़तील शिफ़ाई

अंगड़ाई पर अंगड़ाई लेती है रात जुदाई की

तुम क्या समझो तुम क्या जानो बात मिरी तन्हाई की

कौन सियाही घोल रहा था वक़्त के बहते दरिया में

मैं ने आँख झुकी देखी है आज किसी हरजाई की

टूट गए सय्याल नगीने फूट बहे रुख़्सारों पर

देखो मेरा साथ न देना बात है ये रुस्वाई की

वस्ल की रात न जाने क्यूँ इसरार था उन को जाने पर

वक़्त से पहले डूब गए तारों ने बड़ी दानाई की

उड़ते उड़ते आस का पंछी दूर उफ़ुक़ में डूब गया

रोते रोते बैठ गई आवाज़ किसी सौदाई की

मिल कर जुदा हुए तो न सोया करेंगे हम / क़तील शिफ़ाई

मिल कर जुदा हुए तो न सोया करेंगे हम

इक दूसरे की याद में रोया करेंगे हम

आँसू झलक झलक के सताएँगे रात भर

मोती पलक पलक में पिरोया करेंगे हम

जब दूरियों की आग दिलों को जलाएगी

जिस्मों को चाँदनी में भिगोया करेंगे हम

बिन कर हर एक बज़्म का मौज़ू-ए-गुफ़्तुगू

शे'रों में तेरे ग़म को समोया करेंगे हम

मजबूरियों के ज़हर से कर लेंगे ख़ुद-कुशी

ये बुज़दिली का जुर्म भी गोया करेंगे हम

दिल जल रहा है ज़र्द शजर देख देख कर

अब चाहतों के बीज न बोया करेंगे हम

गर दे गया दग़ा हमें तूफ़ान भी 'क़तील'

साहिल पे कश्तियों को डुबोया करेंगे हम

खुला है झूट का बाज़ार आओ सच बोलें / क़तील शिफ़ाई

खुला है झूट का बाज़ार आओ सच बोलें

न हो बला से ख़रीदार आओ सच बोलें

सुकूत छाया है इंसानियत की क़द्रों पर

यही है मौक़ा-ए-इज़हार आओ सच बोलें

हमें गवाह बनाया है वक़्त ने अपना

ब-नाम-ए-अज़्मत-ए-किरदार आओ सच बोलें

सुना है वक़्त का हाकिम बड़ा ही मुंसिफ़ है

पुकार कर सर-ए-दरबार आओ सच बोलें

तमाम शहर में क्या एक भी नहीं मंसूर

कहेंगे क्या रसन-ओ-दार आओ सच बोलें

बजा कि ख़ू-ए-वफ़ा एक भी हसीं में नहीं

कहाँ के हम भी वफ़ादार आओ सच बोलें

जो वस्फ़ हम में नहीं क्यूँ करें किसी में तलाश

अगर ज़मीर है बेदार आओ सच बोलें

छुपाए से कहीं छुपते हैं दाग़ चेहरे के

नज़र है आइना-बरदार आओ सच बोलें

'क़तील' जिन पे सदा पत्थरों को प्यार आया

किधर गए वो गुनहगार आओ सच बोलें

दूर तक छाए थे बादल और कहीं साया न था / क़तील शिफ़ाई

दूर तक छाए थे बादल और कहीं साया न था

इस तरह बरसात का मौसम कभी आया न था

सुर्ख़ आहन पर टपकती बूँद है अब हर ख़ुशी

ज़िंदगी ने यूँ तो पहले हम को तरसाया न था

क्या मिला आख़िर तुझे सायों के पीछे भाग कर

ऐ दिल-ए-नादाँ तुझे क्या हम ने समझाया न था

उफ़ ये सन्नाटा कि आहट तक न हो जिस में मुख़िल

ज़िंदगी में इस क़दर हम ने सुकूँ पाया न था

ख़ूब रोए छुप के घर की चार-दीवारी में हम

हाल-ए-दिल कहने के क़ाबिल कोई हम-साया न था

हो गए क़ल्लाश जब से आस की दौलत लुटी

पास अपने और तो कोई भी सरमाया न था

वो पयम्बर हो कि आशिक़ क़त्ल-गाह-ए-शौक़ में

ताज काँटों का किसे दुनिया ने पहनाया न था

अब खुला झोंकों के पीछे चल रही थीं आँधियाँ

अब जो मंज़र है वो पहले तो नज़र आया न था

सिर्फ़ ख़ुश्बू की कमी थी ग़ौर के क़ाबिल 'क़तील'

वर्ना गुलशन में कोई भी फूल मुरझाया न था

ये किस ने कहा तुम कूच करो बातें न बनाओ इंशा-जी / क़तील शिफ़ाई

ये किस ने कहा तुम कूच करो बातें न बनाओ इंशा-जी

ये शहर तुम्हारा अपना है इसे छोड़ न जाओ इंशा-जी

जितने भी यहाँ के बासी हैं सब के सब तुम से प्यार करें

क्या उन से भी मुँह फेरोगे ये ज़ुल्म न ढाओ इंशा-जी

क्या सोच के तुम ने सींची थी ये केसर क्यारी चाहत की

तुम जिन को हँसाने आए थे उन को न रुलाओ इंशा-जी

तुम लाख सियाहत के हो धनी इक बात हमारी भी मानो

कोई जा के जहाँ से आता नहीं उस देस न जाओ इंशा-जी

बिखराते हो सोना हर्फ़ों का तुम चाँदी जैसे काग़ज़ पर

फिर इन में अपने ज़ख़्मों का मत ज़हर मिलाओ इंशा-जी

इक रात तो क्या वो हश्र तलक रक्खेगी खुला दरवाज़े को

कब लौट के तुम घर आओगे सजनी को बताओ इंशा-जी

नहीं सिर्फ़ 'क़तील' की बात यहाँ कहीं 'साहिर' है कहीं 'आली' है

तुम अपने पुराने यारों से दामन न छुड़ाओ इंशा-जी

मैं ने पूछा पहला पत्थर मुझ पर कौन उठाएगा / क़तील शिफ़ाई

मैं ने पूछा पहला पत्थर मुझ पर कौन उठाएगा

आई इक आवाज़ कि तू जिस का मोहसिन कहलाएगा

पूछ सके तो पूछे कोई रूठ के जाने वालों से

रौशनियों को मेरे घर का रस्ता कौन बताएगा

डाली है इस ख़ुश-फ़हमी ने आदत मुझ को सोने की

निकलेगा जब सूरज तो ख़ुद मुझ को आन जगाएगा

लोगो मेरे साथ चलो तुम जो कुछ है वो आगे है

पीछे मुड़ कर देखने वाला पत्थर का हो जाएगा

दिन में हँस कर मिलने वाले चेहरे साफ़ बताते हैं

एक भयानक सपना मुझ को सारी रात डराएगा

मेरे बा'द वफ़ा का धोका और किसी से मत करना

गाली देगी दुनिया तुझ को सर मेरा झुक जाएगा

सूख गई जब आँखों में प्यार की नीली झील 'क़तील'

तेरे दर्द का ज़र्द समुंदर काहे शोर मचाएगा

उल्फ़त की नई मंज़िल को चला तू बाँहें डाल के बाँहों में / क़तील शिफ़ाई

उल्फ़त की नई मंज़िल को चला तू बाँहें डाल के बाँहों में

दिल तोड़ने वाले देख के चल हम भी तो पड़े हैं राहों में

क्या क्या न जफ़ाएँ दिल पे सहीं पर तुम से कोई शिकवा न किया

इस जुर्म को भी शामिल कर लो मेरे मासूम गुनाहों में

जब चाँदनी रातों में तुम ने ख़ुद हम से किया इक़रार-ए-वफ़ा

फिर आज हैं हम क्यों बेगाने तेरी बे-रहम निगाहों में

हम भी हैं वही तुम भी हो वही ये अपनी अपनी क़िस्मत है

तुम खेल रहे हो ख़ुशियों से हम डूब गए हैं आहों में

उस अदा से भी हूँ मैं आश्ना तुझे इतना जिस पे ग़ुरूर है / क़तील शिफ़ाई

उस अदा से भी हूँ मैं आश्ना तुझे इतना जिस पे ग़ुरूर है

मैं जियूँगा तेरे बग़ैर भी मुझे ज़िंदगी का शुऊ'र है

न हवस मुझे मय-ए-नाब की न तलब सबा-ओ-सहाब की

तिरी चश्म-ए-नाज़ की ख़ैर हो मुझे बे-पिए ही सुरूर है

जो समझ लिया तुझे बा-वफ़ा तो फिर इस में तेरी भी क्या ख़ता

ये ख़लल है मेरे दिमाग़ का ये मिरी नज़र का क़ुसूर है

कोई बात दिल में वो ठान के न उलझ पड़े तिरी शान से

वो नियाज़-मंद जो सर-ब-ख़म कई दिन से तेरे हुज़ूर है

मुझे देंगी ख़ाक तसल्लियाँ तिरी जाँ-गुदाज़ तजल्लियाँ

मैं सवाल-ए-शौक़-ए-विसाल हूँ तो जलाल-ए-शो'ला-ए-तूर है

मैं निकल के भी तिरे दाम से न गिरूँगा अपने मक़ाम से

मैं 'क़तील'-ए-तेग़-ए-जफ़ा सही मुझे तुझ से इश्क़ ज़रूर है

यारो किसी क़ातिल से कभी प्यार न माँगो / क़तील शिफ़ाई

यारो किसी क़ातिल से कभी प्यार न माँगो

अपने ही गले के लिए तलवार न माँगो

गिर जाओगे तुम अपने मसीहा की नज़र से

मर कर भी इलाज-ए-दिल-ए-बीमार न माँगो

खुल जाएगा इस तरह निगाहों का भरम भी

काँटों से कभी फूल की महकार न माँगो

सच बात पे मिलता है सदा ज़हर का प्याला

जीना है तो फिर जीने का इज़हार न माँगो

उस चीज़ का क्या ज़िक्र जो मुमकिन ही नहीं है

हालात से ख़ौफ़ खा रहा हूँ / क़तील शिफ़ाई

हालात से ख़ौफ़ खा रहा हूँ

शीशे के महल बना रहा हूँ

सीने में मिरे है मोम का दिल

सूरज से बदन छुपा रहा हूँ

महरूम-ए-नज़र है जो ज़माना

आईना उसे दिखा रहा हूँ

अहबाब को दे रहा हूँ धोका

चेहरे पे ख़ुशी सजा रहा हूँ

दरिया-ए-फ़ुरात है ये दुनिया

प्यासा ही पलट के जा रहा हूँ

है शहर में क़हत पत्थरों का

जज़्बात के ज़ख़्म खा रहा हूँ

मुमकिन है जवाब दे उदासी

दर अपना ही खटखटा रहा हूँ

आया न 'क़तील' दोस्त कोई

सायों को गले लगा रहा हूँ

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