अनामिका | Anamika

  अनामिका की कविताएं Poems of Anamika

जुएँ / अनामिका

किसी सोचते हुए आदमी की
आँखों-सा नम और सुंदर था दिन।

पंडुक बहुत ख़ुश थे
उनके पंखों के रोएँ
उतरते हुए जाड़े की
हल्की-सी सिहरन में
उत्फुल्ल थे।
सड़क पर निकल आए थे खटोले।
पिटे हुए दो बच्चे
गले-गले मिल सोए थे एक पर–
दोनों के गाल पर ढलक आए थे
एक-दूसरे के आँसू।

“औरतें इतना काटती क्यों हैं ?”
कूड़े के कैलाश के पार
गुड्डी चिपकाती हुई लड़की से
मंझा लगाते हुए लड़के ने पूछा–
“जब देखो, काट-कूट, छील-छाल, झाड़-झूड़
गोभी पर, कपड़ों पर, दीवार पर
किसका उतारती हैं गुस्सा?"

हम घर के आगे हैं कूड़ा–
फेंकी हुई चीज़ें भी
ख़ूब फोड़ देती हैं भांडा
घर की असल हैसियत का !

लड़की ने कुछ जवाब देने की ज़रूरत नहीं समझी
और झट से दौड़ कर, बैठ गई उधर
जहाँ जुएँ चुन रही थीं सखियाँ
एक-दूसरे के छितराए हुए केशों से
नारियल-तेल चपचपाकर।

दरअसल–
जो चुनी जा रही थीं–
सिर्फ़ जुएँ नहीं थीं
घर के वे सारे खटराग थे
जिनसे भन्नाया पड़ा था उनका माथा।

क्या जाने कितनी शताब्दियों से
चल रहा है यह सिलसिला
और एक आदि स्त्री
दूसरी उतनी ही पुरानी सखी के
छितराए हुए केशों से
चुन रही हैं जुएँ
सितारे और चमकुल!


अनब्याही औरतें / अनामिका

"माई री मैं कासे कहूँ पीर अपने जिया की, माई री!"
जब भी सुनती हूँ मैं गीत, आपका मीरा बाई,
सोच में पड़ जाती हूँ, वो क्या था
जो माँ से भी आपको कहते नहीं बनता था,

हालांकि संबोधन गीतों का
अकसर वह होती थीं!

वर्किंग विमेन्स हॉस्टल में पिछवाड़े का ढाबा!
दस बरस का छोटू प्यालियाँ धोता-चमकाता
क्या सोचकर अपने उस खटारा टेप पर
बार-बार ये ही वाला गीत आपका बजाता है!

लक्षण तो हैं उसमें
क्या वह भी मनमोहन पुरुष बनेगा,
किसी नन्ही-सी मीरा का मनचीता.
अड़ियल नहीं, ज़रा मीठा!

वर्किंग विमेन्स हॉस्टल की हम सब औरतें
ढूँढती ही रह गईं कोई ऐसा
जिन्हें देख मन में जगे प्रेम का हौसला!

लोग मिले - पर कैसे-कैसे -
ज्ञानी नहीं, पंडिताऊ,
वफ़ादार नहीं, दुमहिलाऊ,
साहसी नहीं, केवल झगड़ालू,
दृढ़ प्रतिज्ञ कहाँ, सिर्फ जिद्दी,
प्रभावी नहीं, सिर्फ हावी,
दोस्त नहीं, मालिक,
सामजिक नहीं, सिर्फ एकांत भीरु
धार्मिक नहीं, केवल कट्टर


कटकटाकर हरदम पड़ते रहे वे
अपने प्रतिपक्षियों पर -
प्रतिपक्षी जो आखिर पक्षी ही थे,
उनसे ही थे.
उनके नुचे हुए पंख
और चोंच घायल!

ऐसों से क्या खाकर हम करते हैं प्यार!
सो अपनी वरमाला
अपनी ही चोटी में गूंथी
और कहा खुद से -
"एकोहऽम बहुस्याम"

वो देखो वो -
प्याले धोता नन्हा घनश्याम!
आत्मा की कोख भी एक होती है, है न!
तो धारण करते हैं
इस नयी सृष्टि की हम कल्पना

जहाँ ज्ञान संज्ञान भी हुआ करे,
साहस सद्भावना!


मृत्यु / अनामिका

उसकी उमर ही क्या है !
मेरे ही सामने की
उसकी पैदाइश है !
पीछे लगी रहती है मेरे
कि टूअर-टापर वह
मुहल्ले के रिश्ते से मेरी बहन है !

चौके में रहती हूँ तो
सामने मार कर आलथी-पालथी
आटे की लोई से चिड़िया बनाती है !
आग की लपट जैसी उसकी जटाएँ
मुझ से सुलझती नहीं लेकिन
पेशानी पर उसकी
इधर-उधर बिखरी
दीखती हैं कितनी सुंदर !

एक बूंद चम-चम पसीने की
गुलियाती है धीरे-धीरे पर
टपके- इसके पहले
झट पोंछ लेती है उसको वह
आस्तीन से अपने ढोल-ढकर कुरते के !
कम से कम पच्चीस बार

इसी तरह
हमको बचाने की कोशिश करती है।
हमारे टपकने के पहले !
कभी कभी वह
लगा देती है झाड़ू घरों में!
जिनके कोई नहीं होता-
उन कातर वृद्धाओं की
कर देती है जम कर खूब तेल-मालिश।
दिन-दिन भर उनसे बतियाती है जो सो !

जब किसी को ओठ गोल किए
कुछ बोलते देखें गडमड-
समझ लें- वह खड़ी है वहीं
या ऊंघ रही है वहीं खटिया के नीचे-
छोटा-सा पिल्ला गोद में लिये !
बडे़ रोब से घूमती है वह
इस पूरे कायनात में।
लोग अनदेखा कर देते हैं उसको
पर उससे क्या?
वह तो है लोगों की परछाईं !
और इस बात से किसको होगा भला इनकार
आप लांघ सकते हैं सातों समुंदर
बस अपनी परछाईं नहीं लांघ सकते ।

मरने की फुर्सत / अनामिका

(एक रेड इण्डियन लोकगीत के आधार पर पल्लवित)

ईसा मसीह
औरत नहीं थे
वरना मासिक धर्म
ग्यारह बरस की उमर से
उनको ठिठकाए ही रखता
देवालय के बाहर!
वेथलेहम और यरूजलम के बीच
कठिन सफर में उनके
हो जाते कई तो बलात्कार
और उनके दुधमुँहे बच्चे
चालीस दिन और चालीस रातें
जब काटते सडक पर,
भूख से बिलबिलाकर मरते
एक-एक कर
ईसा को फुर्सत नहीं मिलती
सूली पर चढ जाने की भी।
मरने की फुर्सत भी
कहाँ मिली सीता को
लव-कुश के
तीरों के
लक्ष्य भेद तक?

पुस्तकालय में झपकी / अनामिका

गर्मी गज़ब है!
चैन से जरा ऊंघ पाने की
इससे ज़्यादा सुरिक्षत, ठंडी, शांत जगह
धरती पर दूसरी नहीं शायद ।

गैलिस की पतलून,
ढीले पैतावे पहने
रोज़ आते हैं जो
नियत समय पर यहां ऊंघने

वे वृद्ध गोरियो, किंग लियर,
भीष्म पितामह और विदुर वगैरह अपने साग-वाग
लिए-दिए आते हैं
छोटे टिफ़न में।

टायलेट में जाकर मांजते हैं देर तलक
अपना टिफन बाक्स खाने के बाद।
बहुत देर में चुनते हैं अपने-लायक
मोटे हर्फों वाली पतली किताब,
उत्साह से पढ़ते है पृष्ठ दो-चार
देखते हैं पढ़कर
ठीक बैठा कि नहीं बैठा
चश्मे का नंबर।

वे जिसके बारे में पढ़ते हैं-
वो ही हो जाते हैं अक्सर-
बारी-बारी से अशोक, बुद्ध, अकबर।
मधुबाला, नूतन की चाल-ढाल,
पृथ्वी कपूर और उनकी औलादों के तेवर
ढूंढा करते हैं वे इधर-उधर
और फिर थककर सो जाते हैं कुर्सी पर।

मुंह खोल सोए हुए बूढ़े
दुनिया की प्राचीनतम
पांडुलिपियों से झड़ी
धूल फांकते-फांकते
खुद ही हो जाते हैं जीर्ण-शीर्ण भूजर्पत्र!

कभी-कभी हवा छेड़ती है इन्हें,
गौरैया उड़ती-फुड़ती
इन पर कर जाती है
नन्हें पंजों से हस्ताक्षर।

क्या कोई राहुल सांस्कृतायन आएगा
और जिह्वार्ग किए इन्हें लिए जाएगा
तिब्बत की सीमा के पार?

निंदिया का एक द्वीप रच दूं / अनामिका

एक लोरी गीत: गर्भस्थ शिशु के लिए

एक महास्वप्न की तरह, मेरे चांद,
तू जागता है सारी रात,
भीतर के पानियों में
मारता केहुनी।
बतिया खीरे-जैसे
लोचदार पांवों से,
साइकिल चलाता हुआ
जाना कहां चाहता है?
क्या मेरी बांहों में आने की जल्दी है?
ये तेरी अम्मा तो पहले ही चल दी है-
पगलाई-सी तेरी ओर!
अपने से अपने तक की यात्रा बेटे,
होती है कैसी अछोर, जानता है न?
आ इस महाजागरण के समंदर में
निंदिया का एक द्वीप रच दूं मैं
तेरे लिए,
इंद्रधनुष का टांग दूं मैं चंदोवा।
धूप में झमकती हुई बूंदें
रचती चलें बंदनवार,
जोगी हरदम ही रहे तेरे द्वार
और लोकमंगल के झिलमिल स्पंदन सब
भरे रहें तेरा घर-बार!


उम्रक़ैद /अनामिका

किए-अनकिए सारे अपराधों की लय पर
झन-झन-झन
बजाते हुए अपनी ज़ँजीरें
गाते हैं खुसरो

रात के चौथे पहर
जब ओस झड़ती है
आसमान की आँखों से
और कटहली चम्पा
कसमसाकर फूल जाती है
भींगती मसों में सुबह की ।

अपनी ही गन्ध से मताकर
फूल-सा चटक जाने का
सिलसिला
एक सूफ़ी सिलसिला है,
किबला,
एक जेल है ये ख़ुदी,
ख़ुद से निकल जाना बाहर,
और देखना पीछे मुड़कर
एक सूफ़ी सिलसिला है यही !


कूड़ा बीनते बच्चे / अनामिका

उन्हें हमेशा जल्दी रहती है
उनके पेट में चूहे कूदते हैं
और खून में दौड़ती है गिलहरी!
बड़े-बड़े डग भरते
चलते हैं वे तो
उनका ढीला-ढाला कुर्ता
तन जाता है फूलकर उनके पीछे
जैसे कि हो पाल कश्ती का!
बोरियों में टनन-टनन गाती हुई
रम की बोतलें
उनकी झुकी पीठ की रीढ़ से
कभी-कभी कहती हैं-
"कैसी हो","कैसा है मंडी का हाल?"
बढ़ते-बढ़ते
चले जाते हैं वे
पाताल तक
और वहाँ लग्गी लगाकर
बैंगन तोड़ने वाले
बौनों के वास्ते
बना देते हैं
माचिस के खाली डिब्बों के
छोटे-छोटे कई घर
खुद तो वे कहीं नहीं रहते,
पर उन्हें पता है घर का मतलब!
वे देखते हैं कि अकसर
चींते भी कूड़े के ठोंगों से पेड़ा खुरचकर
ले जाते हैं अपने घर!
ईश्वर अपना चश्मा पोंछता है
सिगरेट की पन्नी उनसे ही लेकर।

ओढ़नी / अनामिका

मैट्रिक के इम्तिहान के बाद
सीखी थी दुल्हन ने फुलकारी !
दहेज की चादरों पर
माँ ने कढ़वाये थे
तरह-तरह के बेल-बूटे,
तकिए के खोलों पर 'गुडलक' कढ़वाया था !
कौन माँ नहीं जानती, जी, ज़रूरत
दुनिया में 'गुडलक' की !

और उसके बाद?
एक था राजा, एक थी रानी
और एक थी ओढ़नी-
लाल ओढ़नी फूलदार!

और उसके बाद?
एक था राजा, एक थी रानी
और एक ख़तम कहानी !
दुल्हन की कटी-फटी पेशानी
और ओढ़नी ख़ूनम-ख़ून !

अपने वजूद की माटी से
धोती थी रोज इसे दुल्हन
और गोदी में बिछा कर सुखाती थी
सोचती सी यह चुपचाप-
तार-तार इस ओढ़नी से
क्या वह कभी पोंछ पाएगी
खूंखार चेहरों की खूंखारिता
और मैल दिलों का?

घर का न घाट का-
उसका दुपट्टा
लहराता था आसमानों पर-
'गगन में गैब निसान उडै़' की धुन पर-
आहिस्ता-आहिस्ता !


रिश्ता /अनामिका

वह बिल्कुल अनजान थी!
मेरा उससे रिश्ता बस इतना था
कि हम एक पंसारी के गाहक थे
नए मुहल्ले में!
वह मेरे पहले से बैठी थी-
टॉफी के मर्तबान से टिककर
स्टूल के राजसिंहासन पर!
मुझसे भी ज़्यादा
थकी दिखती थी वह
फिर भी वह हंसी!
उस हँसी का न तर्क था,
न व्याकरण,
न सूत्र,
न अभिप्राय!
वह ब्रह्म की हँसी थी।
उसने फिर हाथ भी बढ़ाया,
और मेरी शॉल का सिरा उठाकर
उसके सूत किए सीधे
जो बस की किसी कील से लगकर
भृकुटि की तरह सिकुड़ गए थे।
पल भर को लगा-उसके उन झुके कंधों से
मेरे भन्नाये हुए सिर का
बेहद पुराना है बहनापा।

सत्रह बरस का प्रतियोगी परीक्षार्थी / अनामिका

दूध जब उतरता है पहले-पहले, बेटा,
छातियों में माँ की
झुरझुरी जगती है पूरे बदन में !
उस दूध का स्वाद अच्छा नहीं होता,
पर डॉक्टर कहते हैं उसको चुभलाकर पी जाए बच्चा
तो सात प्रकोपों में भी जी जाए बच्चा !
उस दूध की तरह होता है, बेटे
पहली विफलता का स्वाद !

भग्नमनोरथ भी तो रथ ही है
भागीरथी जानते थे, जानता था कर्ण,
जानते थे राजा ब्रूस मकड़जाले वाले
और तुम भी जान जाओगे
कुछ होने से कुछ नहीं होता,
कुछ खोने से कुछ नहीं खोता !
पूर्णविराम कल्पना है,
निष्काम होने की कामना
भी आखिर तो कामना है !

सिलसिले टूटते नहीं, रास्ते छूटते नहीं ।
पाँव से लिपटकर रह जाते हैं एक लतर की तरह
जूते उतारो घर आकर तो मोजे में तिनके मिलेंगे लतर के !
तुम्हें एक अजब तरह की दुनिया
दी है विरासत में
हो सके तो माफ कर देना !

फूल के चटकने की आवाज़ यहाँ किसी को भी
सुनाई नहीं देती,
कोई नहीं देखता कैसे श्रम, कैसे कौशल से
एक-एक पँखुड़ी खुली थी !

यह फल की मण्डी है, बेटा,
सफल-विफल लोग खड़े हैं क्यारियों में !
चाहती थी तुम्हें मिलती ऐसी दुनिया
जहाँ क्यारियों में अँटा-बँटा, फटा-चिटा
मिलता नहीं यों किसी का वजूद !

हर फूल अपनी तरह से सुन्दर है
प्रतियोगिता के परे जाती है
हरेक सुन्दरता !

और ‘भगवद्‍गीता’ का वह फल ?
वह तो भतृहरि के आम की तरह
राजा से रानी, रानी से मन्त्री,
मन्त्री से गणिका, गणिका से फिर राजा के पास
टहलता हुआ आ तो जाएगा
रोम-रोम की आँखें खोलता हुआ !
पसिनाई पीठ पर तुम्हारी
चकत्ते पड़े हैं
खटिया की रस्सियों के !
ऐसे ही पड़ते हैं शादी में
हल्दी के छापे,
पर शादी की सुनकर भड़कोगे तुम !

कल रात बिजली नहीं थी ।
मोमबत्ती की भी डूब गई लौ
तो किताब बन्द की तुमने
और अन्धेरे में
चीज़ों से टकराते
हड़बड़-दड़बड़ आकर बोले —
‘माँ, भूख लगी है !’

इस सनातन वाक्य में
एक स्प्रिंग है लगा,
कितनी भी हो आलसी माँ,
वह उठ बैठती है
और फिर कनस्तर खड़कते हैं
जैसे खड़कती है सुपली
दीवाली की रात
जब गाती हैं घर की औरतें
हर कमरे में सुपली खड़कातीं
‘लक्ष्मी पइसे, दरिद्दर भागे, दरिद्दर भागे, दरिद्दर भागे !’
दारिद्रय नहीं भागता, भाग जाती है नीन्द मगर ।
तरह-तरह के अपडर
निश्शँक फ़र्श पर टहलते मिल जाते हैं,
कैटवाक पर निकला मिलता है भूरा छुछून्दर !

छुछून्दर के सिर में चमेली का तेल
या भैंस के आगे बजती हुई बीन
या दुनिया की सारी चीज़ें बेतालमेल
ब्रह्ममुहर्त के कुछ देर पहले की झपकी के
एक दुःस्वप्न में टहल आती है,
और भला हो ईंटो की लॉरी का
कि उसकी हड़हड़-गड़गड़ से
दुःस्वप्न जाता है टूट,
खुल जाती हैं आँखें,
कहता है बेटा —
‘माँ, ये दुख क्यों होता है,
इसका करें क्या ?’
सूखी हुई छातियाँ मेरी
दूध से नहीं, लेकिन उसके पसीने से तर हैं !
मैं महामाया नहीं हूँ, ये बुद्ध नहीं है,
लेकिन यह प्रश्न तो है ही जहाँ का तहाँ, जस का तस !

एक पुरानी लोरी में
स्पैनिश की टेक थी
‘के सेरा-सेरा... वाटेवर विल बी, विल बी...
ये मत पूछो — कल क्या होगा, जो भी होगा, अच्छा होगा !’

मैं बेसुरा गाती हूँ, वह हंसने लगता है
‘बस, ममा, बस आगे याद है मुझे !’
रात के तीसरे पहर की ये मुक्त हंसी
झड़ रही है पत्तों पर
ओस की तरह !
आगे की चिन्ता से परेशान उसके पिता
नीन्द में ही मुस्का देते हैं धीरे से !
उत्सव है उनका ये मुस्काना
सुपरसीरियस घर में !


सो जा मेरी नन्ही सिहरन / अनामिका

सो जा मेरी नन्ही सिहरन
सो जा मेरी झिलमिल उलझन,
लाल पलंग पर सो जा!
चंदा मामा आएगा
नए खिलौने लाएगा,
तब तक तू निंदिया के जल में
छुपुर-छुपुरकर ताजा हो ले!
अंधियारे के कजरौटे से
एक डिठौना तेरे माथे!
दूध-बताशा लिए चांदनी
गुटुर-गुटुर तू पी ले, बेटी!
हवा झुनझुना बजा रही है,
लहरें स्वेटर बना रही हैं।
उठकर घुम्मू करने जाना,
बाबा की छाती सिरहाना!
सो जा मेरी झिलमिल उलझन!


छूटना / अनामिका

धीरे-धीरे जगहें छूट रही हैं,
बढ़ना सिमट आना है वापस — अपने भीतर !

पौधा पत्ती-पत्ती फैलता
बच जाता है बीज-भर,
और अचरज में फैली आँखें
बचती हैं, बस, बून्द-भर !

छूट रही है पकड़ से
अभिव्यक्ति भी धीरे-धीरे !
किसी कालका-मेल से धड़धड़ाकर
सामने से जाते हैं शब्द निकल !

एक पैर हवा में उठाए,
गठरी ताने
बिल्कुल अवाक खड़े रहते हैं
गन्तव्य !


चौका / अनामिका

मैं रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्वी।
ज्वालामुखी बेलते हैं पहाड़।
भूचाल बेलते हैं घर।
सन्नाटे शब्द बेलते हैं, भाटे समुंदर।

रोज़ सुबह सूरज में
एक नया उचकुन लगाकर,
एक नई धाह फेंककर
मैं रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्वी।
पृथ्वी–जो खुद एक लोई है
सूरज के हाथों में
रख दी गई है, पूरी-की-पूरी ही सामने
कि लो, इसे बेलो, पकाओ,
जैसे मधुमक्खियाँ अपने पंखों की छाँह में
पकाती हैं शहद।

सारा शहर चुप है,
धुल चुके हैं सारे चौकों के बर्तन।
बुझ चुकी है आख़िरी चूल्हे की राख भी,
और मैं
अपने ही वजूद की आँच के आगे
औचक हड़बड़ी में
खुद को ही सानती,
खुद को ही गूँधती हुई बार-बार
ख़ुश हूँ कि रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्वी।

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