कुँवर नारायण (1927-2017) कुँवर नारायण आधुनिक समय के श्रेष्ठतम साहित्यकारों में हैं। वे कविता, कहानी, निबन्ध, आलोचना, विचार, अनुवाद आदि विधाओं में लिखते रहे हैं। उनकी कृतियाँ व्यापक रूप से राष्ट्र्रीय और अन्तरराष्ट्र्रीय स्तर पर अनूदित और सम्मानित हुई हैं। उनके जीवन और लेखन का अद्वैत उन्हें समकालीन परिदृश्य का एक अनूठा रचनाकार बनाता है।
कविता संग्रह / प्रबंध काव्य
चक्रव्यूह / कुंवर नारायण (1956)
कोई दूसरा नहीं / कुंवर नारायण
इन दिनों / कुंवर नारायण
वाजश्रवा के बहाने / कुंवर नारायण
आत्मजयी / कुंवर नारायण (1965)
अमेज़न पर कुंवर नारायण के रचना संग्रह -- देखे
कुछ प्रतिनिधि कविताएं / रचनाएँ
अंतिम ऊँचाई / कुँवर नारायण
रोचक तथ्य
इस कविता को The Viral Fever (TVF) की वेब-सीरीज़ Aspirants (2021) में बहुत सुंदर ढंग से प्रयोग किया गया है।
कितना स्पष्ट होता आगे बढ़ते जाने का मतलब
अगर दसों दिशाएँ हमारे सामने होतीं,
हमारे चारों ओर नहीं।
कितना आसान होता चलते चले जाना
यदि केवल हम चलते होते
बाक़ी सब रुका होता।
मैंने अक्सर इस ऊलजलूल दुनिया को
दस सिरों से सोचने और बीस हाथों से पाने की कोशिश में
अपने लिए बेहद मुश्किल बना लिया है।
शुरू-शुरू में सब यही चाहते हैं
कि सब कुछ शुरू से शुरू हो,
लेकिन अंत तक पहुँचते-पहुँचते हिम्मत हार जाते हैं।
हमें कोई दिलचस्पी नहीं रहती
कि वह सब कैसे समाप्त होता है
जो इतनी धूमधाम से शुरू हुआ था
हमारे चाहने पर।
दुर्गम वनों और ऊँचे पर्वतों को जीतते हुए
जब तुम अंतिम ऊँचाई को भी जीत लोगे—
जब तुम्हें लगेगा कि कोई अंतर नहीं बचा अब
तुममें और उन पत्थरों की कठोरता में
जिन्हें तुमने जीता है—
जब तुम अपने मस्तक पर बर्फ़ का पहला तूफ़ान झेलोगे
और काँपोगे नहीं—
तब तुम पाओगे कि कोई फ़र्क़ नहीं
सब कुछ जीत लेने में
और अंत तक हिम्मत न हारने में।
इतना कुछ था / कुँवर नारायण
इतना कुछ था दुनिया में
लड़ने-झगड़ने को
पर ऐसा मन मिला
कि ज़रा-से प्यार में डूबा रहा
और जीवन बीत गया...
एक वृक्ष की हत्या / कुँवर नारायण
अबकी घर लौटा तो देखा वह नहीं था—
वही बूढ़ा चौकीदार वृक्ष
जो हमेशा मिलता था घर के दरवाज़े पर तैनात।
पुराने चमड़े का बना उसका शरीर
वही सख़्त जान
झुर्रियोंदार खुरदुरा तना मैला-कुचैला,
राइफ़िल-सी एक सूखी डाल,
एक पगड़ी फूल पत्तीदार,
पाँवों में फटा-पुराना जूता
चरमराता लेकिन अक्खड़ बल-बूता
धूप में बारिश में
गर्मी में सर्दी में
हमेशा चौकन्ना
अपनी ख़ाकी वर्दी में
दूर से ही ललकारता, “कौन?”
मैं जवाब देता, “दोस्त!”
और पल भर को बैठ जाता
उसकी ठंडी छाँव में
दरअसल, शुरू से ही था हमारे अंदेशों में
कहीं एक जानी दुश्मन
कि घर को बचाना है लुटेरों से
शहर को बचाना है नादिरों से
देश को बचाना है देश के दुश्मनों से
बचाना है—
नदियों को नाला हो जाने से
हवा को धुआँ हो जाने से
खाने को ज़हर हो जाने से :
बचाना है—जंगल को मरुस्थल हो जाने से,
बचाना है—मनुष्य को जंगल हो जाने से।
संभावनाएँ / कुँवर नारायण
लगभग मान ही चुका था मैं
मृत्यु के अंतिम तर्क को
कि तुम आए
और कुछ इस तरह रखा
फैलाकर
जीवन के जादू का
भोला-सा इंद्रजाल
कि लगा यह प्रस्ताव
ज़रूर सफल होगा।
ग़लतियाँ ही ग़लतियाँ थी उसमें
हिसाब-किताब की,
फिर भी लगा
गलियाँ ही गलियाँ हैं उसमें
अनेक संभावनाओं की
बस, हाथ भर की दूरी पर है,
वह जिसे पाना है।
ग़लती उसी दूरी को समझने में थी।
एक अजीब-सी मुश्किल / कुँवर नारायण
रोचक तथ्य
यह कविता पहले 'प्रेम-रोग' शीर्षक से छपी थी।
एक अजीब-सी मुश्किल में हूँ इन दिनों—
मेरी भरपूर नफ़रत कर सकने की ताक़त
दिनोंदिन क्षीण पड़ती जा रही
अँग्रेज़ी से नफ़रत करना चाहता
जिन्होंने दो सदी हम पर राज किया
तो शेक्सपीयर आड़े आ जाते
जिनके मुझ पर न जाने कितने एहसान हैं
मुसलमानों से नफ़रत करने चलता
तो सामने ग़ालिब आकर खड़े हो जाते
अब आप ही बताइए किसी की कुछ चलती है
उनके सामने?
सिखों से नफ़रत करना चाहता
तो गुरु नानक आँखों में छा जाते
और सिर अपने आप झुक जाता
और ये कंबन, त्यागराज, मुत्तुस्वामी...
लाख समझाता अपने को
कि वे मेरे नहीं
दूर कहीं दक्षिण के हैं
पर मन है कि मानता ही नहीं
बिना उन्हें अपनाए
और वह प्रेमिका
जिससे मुझे पहला धोखा हुआ था
मिल जाए तो उसका ख़ून कर दूँ!
मिलती भी है, मगर
कभी मित्र
कभी माँ
कभी बहन की तरह
तो प्यार का घूँट पीकर रह जाता
हर समय
पागलों की तरह भटकता रहता
कि कहीं कोई ऐसा मिल जाए
जिससे भरपूर नफ़रत करके
अपना जी हल्का कर लूँ
पर होता है इसका ठीक उलटा
कोई-न-कोई, कहीं-न-कहीं, कभी-न-कभी
ऐसा मिल जाता
जिससे प्यार किए बिना रह ही नहीं पाता
दिनोंदिन मेरा यह प्रेम-रोग बढ़ता ही जा रहा
और इस वहम ने पक्की जड़ पकड़ ली है
कि वह किसी दिन मुझे
स्वर्ग दिखाकर ही रहेगा।
कोई दुःख / कुँवर नारायण
कोई दुख
मनुष्य के साहस से बड़ा नहीं
वही हारा
जो लड़ा नहीं
अबकी बार लौटा तो / कुँवर नारायण
अबकी बार लौटा तो
बृहत्तर लौटूँगा
चेहरे पर लगाए नोकदार मूँछें नहीं
कमर में बाँधे लोहे की पूँछे नहीं
जगह दूँगा साथ चल रहे लोगों को
तरेर कर न देखूँगा उन्हें
भूखी शेर-आँखों से
अबकी अगर लौटा तो
मनुष्यतर लौटूँगा
घर से निकलते
सड़कों पर चलते
बसों पर चढ़ते
ट्रेनें पकड़ते
जगह बेजगह कुचला पड़ा
पिद्दी-सा जानवर नहीं
अगर बचा रहा तो
कृतज्ञतर लौटूँगा
अबकी बार लौटा तो
हताहत नहीं
सबके हिताहित को सोचता
पूर्णतर लौटूँगा
एक अजीब दिन / कुँवर नारायण
आज सारे दिन बाहर घूमता रहा
और कोई दुर्घटना नहीं हुई।
आज सारे दिन लोगों से मिलता रहा
और कहीं अपमानित नहीं हुआ।
आज सारे दिन सच बोलता रहा
और किसी ने बुरा न माना।
आज सबका यक़ीन किया
और कहीं धोखा नहीं खाया।
और सबसे बड़ा चमत्कार तो यह
कि घर लौटकर मैंने किसी और को नहीं
अपने ही को लौटा हुआ पाया।
जब आदमी आदमी नहीं रह पाता / कुँवर नारायण
दरअसल मैं वह आदमी नहीं हूँ जिसे आपने
ज़मीन पर छटपटाते हुए देखा था।
आपने मुझे भागते हुए देखा होगा
दर्द से हमदर्द की ओर।
वक़्त बुरा हो तो आदमी आदमी नहीं रह पाता। वह भी
मेरी ही और आपकी तरह आदमी रहा होगा। लेकिन
आपको यक़ीन दिलाता हूँ
वह मेरा कोई नहीं था, जिसे आपने भी
अँधेरे में मदद के लिए चिल्ला-चिल्लाकर
दम तोड़ते सुना था।
शायद उसी मुश्किल वक़्त में
जब मैं एक डरे हुए जानवर की तरह
उसे अकेला छोड़कर बच निकला था ख़तरे से सुरक्षा की ओर,
वह एक फँसे हुए जानवर की तरह
ख़ूँख़ार हो गया था।
दुनिया को बड़ा रखने की कोशिश / कुँवर नारायण
असलियत यही है कहते हुए
जब भी मैंने मरना चाहा
ज़िंदगी ने मुझे रोका है।
असलियत यही है कहते हुए
जब भी मैंने जीना चाहा
ज़िंदगी ने मुझे निराश किया।
असलियत कुछ नहीं है कहते हुए
जब भी मैंने विरक्त होना चाहा
मुझे लगा मैं कुछ नहीं हूँ।
मै ही सब कुछ हूँ कहते हुए
जब भी मैंने व्यक्त होना चाहा
दुनिया छोटी पड़ती चली गई
एक बहुत बड़ी महत्त्वाकांक्षा के सामने।
असलियत कहीं और है कहते हुए
जब भी मैंने विश्वासों का सहारा लिया—
लगा यह ख़ाली जगहों और ख़ाली वक़्तों को
और अधिक ख़ाली करने—जैसी चेष्टा थी कि मैं उन्हें
एक ईश्वर-क़द उत्तरकांड से भर सकता हूँ।
मैं कुछ नहीं हूँ कहते हुए
जब भी मैंने छोटा होना चाहा
इस एक तथ्य से बार-बार लज्जित हुआ हूँ।
कि दुनिया में आदमी के छोटेपन से ज़्यादा छोटा
और कुछ नहीं हो सकता।
पराजय यही है कहते हुए
जब भी मैंने विद्रोह किया
और अपने छोटेपन से ऊपर उठना चाहा
मुझे लगा कि अपने को बड़ा रखने की
छोटी से छोटी कोशिश भी
दुनिया को बड़ा रखने की कोशिश है।
अटूट क्रम / कुँवर नारायण
क्या ज़रूरी है कि यह मालूम ही हो लक्ष्य क्या है?
अनवरत संघर्षरत इस ज़िंदगी का पक्ष क्या है?
क्या बुरा है मान लूँ यदि
चाल का संपूर्ण आकर्षण अनिश्चित मार्ग
जिसका अंत है शायद
कहीं भी,
या कहीं भी नहीं।
दृष्टि में आलोक इंगित, एक तारा,
ग़ैर राहों में भटकता एक बंजारा,
समझ लूँ शान से
हर क्षण हमारा घर
कहीं भी
या कहीं भी नहीं।
क्या बुरा है यदि किसी क्षण से अचानक
प्रस्फुटित हो एक प्रगल्भ बहार-सा मूर्छित वनों में
पुनः अपने बीज के भवितव्य ही तक लौट आऊँ...
और अगला क़दम हो मेरा उठाया क्रम
कहीं भी,
या कहीं भी नहीं।
घर रहेंगे / कुँवर नारायण
घर रहेंगे, हमीं उनमें रह न पाएँगे :
समय होगा, हम अचानक बीत जाएँगे :
अनर्गल ज़िंदगी ढोते किसी दिन हम
एक आशय तक पहुँच सहसा बहुत थक जाएँगे।
मृत्यु होगी खड़ी सम्मुख राह रोके,
हम जगेंगे यह विविधता, स्वप्न, खो के,
और चलते भीड़ में कंधे रगड़ कर हम
अचानक जा रहे होंगे कहीं सदियों अलग होके।
प्रकृति औ' पाखंड के ये घने लिपटे
बँटे, ऐंठे तार—
जिनसे कहीं गहरा, कहीं सच्चा,
मैं समझता—प्यार,
मेरी अमरता की नहीं देंगे ये दुहाई,
छीन लेगा इन्हें हमसे देह-सा संसार।
राख-सी साँझ, बुझे दिन की घिर जाएगी :
वही रोज़ संसृति का अपव्यय दुहराएगी।
बाज़ारों की तरफ़ भी / कुँवर नारायण
आजकल अपना ज़्यादा समय
अपने ही साथ बिताता हूँ।
ऐसा नहीं कि उस समय भी
दूसरे नहीं होते मेरे साथ
मेरी यादों में
या मेरी चिंताओं में
या मेरे सपनों में
वे आमंत्रित होते हैं
इसलिए अधिक प्रिय
और अत्यधिक अपने
वे जब तक मैं चाहूँ साथ रहते
और मुझे अनमना देखकर
चुपचाप कहीं और चले जाते।
कभी-कभी टहलते हुए निकल जाता हूँ
बाज़ारों की तरफ़ भी :
नहीं, कुछ ख़रीदने के लिए नहीं,
सिर्फ़ देखने के लिए कि इन दिनों
क्या बिक रहा है किस दाम
फ़ैशन में क्या है आजकल
वैसे सच तो यह है कि मेरे लिए
बाज़ार एक ऐसी जगह है।
जहाँ मैंने हमेशा पाया है।
एक ऐसा अकेलापन जैसा मुझे
बड़े-बड़े जंगलों में भी नहीं मिला,
और एक ख़ुशी
कुछ-कुछ सुकरात की तरह
कि इतनी ढेर-सी चीज़ें
जिनकी मुझे कोई ज़रूरत नहीं!
एक माँ की बेबसी / कुँवर नारायण
नोट
प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा पाँचवी के पाठ्यक्रम में शामिल है।
इस कविता को पढ़ते समय, आँखों के सामने कई चित्र बनते हैं। बचपन का चित्र, बचपन के ख़ास समय खेल और साथियों का चित्र, उन साथियों में एक ख़ास साथी रतन का और एक माँ का चित्र। इसे पढ़ो और महसूस करो।
कविता धीरे-धीरे पढ़ने की चीज़ है। उसे मन में उतरने में काफ़ी समय लगता है। कभी-कभी तो बरसों बाद हम बचपन की पढ़ी कविता पढ़ते हैं तो लगता है—पहली बार पढ़ा है इसे। कविता पढ़ने के बाद मन के किसी कोने में घर बना लेती हैं। किसी मौक़े पर वह उभर आती है।
कविता, कहानी, सबके साथ यह होता है। इसीलिए हमें इससे चिंतित होने की ज़रूरत नहीं कि कविता एक बार में पूरी तरह समझ में आ रही है या नहीं। अगर उससे सिर्फ़ एक चित्र ही उभरता है तो भी कविता कामयाब है।
न जाने किस अदृश्य पड़ोस से
निकल कर आता था वह
खेलने हमारे साथ—
रतन, जो बोल नहीं सकता था
खेलता था हमारे साथ
एक टूटे खिलौने की तरह
देखने में हम बच्चों की ही तरह
था वह भी एक बच्चा।
लेकिन हम बच्चों के लिए अजूबा था
क्योंकि हमसे भिन्न था।
थोड़ा घबराते भी थे हम उससे
क्योंकि समझ नहीं पाते थे
उसकी घबराहटों को,
न इशारों में कही उसकी बातों को,
न उसकी भयभीत आँखों में
हर समय दिखती
उसके अंदर की छटपटाहटों को।
जितनी देर वह रहता
पास बैठी उसक माँ
निहारती रहती उसका खेलना।
अब जैसे-जैसे
कुछ बेहतर समझने लगा हूँ
उनकी भाषा जो बोल नहीं पाते हैं
याद आती
रतन से अधिक
उसकी माँ की आँखों में
झलकती उसकी बेबसी।
उसे ख़ाली हाथ लौटाने से पहले / कुँवर नारायण
क्यों उसे लौटकर आना पड़ता है
बार-बार उसी दुनिया में
लिए वही ख़ाली पात्र?
क्यों उसे लौट जाना पड़ता है।
हर बार उसी तरह ख़ाली हाथ?
मुट्ठी भर अन्न डालते हुए
उसके कटोरे में देखें।
हमारा दिया
उसकी विनय से छोटा तो नहीं।
मिट्टी के ख़ाली पात्र को नहीं
करुणा से भरी उसकी आँखों को देखें
कि हमारे द्वार पर आया भिक्षुक
कहीं बुद्ध तो नहीं?

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