Bharatendu Harishchandra Kavita भारतेंदु हरिश्चंद्र की कविताएँ- कविता


  भारतेंदु हरिश्चंद्र की कविताएँ- कविता

Bharatendu Harishchandra Kavita Poem Poetry 

 गंगा-वर्णन भारतेंदु हरिश्चंद्र की कविता 

नव उज्ज्वल जलधार हार हीरक सी सोहति।

बिच-बिच छहरति बूंद मध्य मुक्ता मनि पोहति॥


लोल लहर लहि पवन एक पै इक इम आवत ।

जिमि नर-गन मन बिबिध मनोरथ करत मिटावत॥


सुभग स्वर्ग-सोपान सरिस सबके मन भावत।

दरसन मज्जन पान त्रिविध भय दूर मिटावत॥


श्रीहरि-पद-नख-चंद्रकांत-मनि-द्रवित सुधारस।

ब्रह्म कमण्डल मण्डन भव खण्डन सुर सरबस॥


शिवसिर-मालति-माल भगीरथ नृपति-पुण्य-फल।

एरावत-गत गिरिपति-हिम-नग-कण्ठहार कल॥


सगर-सुवन सठ सहस परस जल मात्र उधारन।

अगनित धारा रूप धारि सागर संचारन॥

यमुना-वर्णन भारतेंदु हरिश्चंद्र कविता -रचना

तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाये।

झुके कूल सों जल-परसन हित मनहु सुहाये॥

किधौं मुकुर मैं लखत उझकि सब निज-निज सोभा।

कै प्रनवत जल जानि परम पावन फल लोभा॥

मनु आतप वारन तीर कौं, सिमिटि सबै छाये रहत।

कै हरि सेवा हित नै रहे, निरखि नैन मन सुख लहत॥१॥


तिन पै जेहि छिन चन्द जोति रक निसि आवति ।

जल मै मिलिकै नभ अवनी लौं तानि तनावति॥

होत मुकुरमय सबै तबै उज्जल इक ओभा ।

तन मन नैन जुदात देखि सुन्दर सो सोभा ॥

सो को कबि जो छबि कहि , सकै ता जमुन नीर की ।

मिलि अवनि और अम्बर रहत ,छबि इक - सी नभ तीर की ॥२॥


परत चन्र्द प्रतिबिम्ब कहूँ जल मधि चमकायो ।

लोल लहर लहि नचत कबहुँ सोइ मन भायो॥

मनु हरि दरसन हेत चन्र्द जल बसत सुहायो ।

कै तरंग कर मुकुर लिये सोभित छबि छायो ॥

कै रास रमन मैं हरि मुकुट आभा जल दिखरात है ।

कै जल उर हरि मूरति बसति ता प्रतिबिम्ब लखात है ॥३ ॥


कबहुँ होत सत चन्द कबहुँ प्रगटत दुरि भाजत ।

पवन गवन बस बिम्ब रूप जल मैं बहु साजत ।।

मनु ससि भरि अनुराग जामुन जल लोटत डोलै ।

कै तरंग की डोर हिंडोरनि करत कलोलैं ।।

कै बालगुड़ी नभ में उड़ी, सोहत इत उत धावती ।

कई अवगाहत डोलात कोऊ ब्रजरमनी जल आवती ।।४।।


मनु जुग पच्छ प्रतच्छ होत मिटी जात जामुन जल ।

कै तारागन ठगन लुकत प्रगटत ससि अबिकल ।।

कै कालिन्दी नीर तरंग जितौ उपजावत ।

तितनो ही धरि रूप मिलन हित तासों धावत ।।

कै बहुत रजत चकई चालत कै फुहार जल उच्छरत ।

कै निसिपति मल्ल अनेक बिधि उठि बैठत कसरत करत ।।५।।


कूजत कहुँ कलहंस कहूँ मज्जत पारावत ।

कहुँ काराणडव उडत कहूँ जल कुक्कुट धावत ।।

चक्रवाक कहुँ बसत कहूँ बक ध्यान लगावत ।

सुक पिक जल कहुँ पियत कहूँ भ्रम्रावलि गावत ।।

तट पर नाचत मोर बहु रोर बिधित पच्छी करत ।

जल पान न्हान करि सुख भरे तट सोभा सब धरत ।।६।।


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. ऊधो जो अनेक मन होते भारतेंदु हरिश्चंद्र की कविता

ऊधो जो अनेक मन होते

तो इक श्याम-सुन्दर को देते, इक लै जोग संजोते।


एक सों सब गृह कारज करते, एक सों धरते ध्यान।

एक सों श्याम रंग रंगते, तजि लोक लाज कुल कान।


को जप करै जोग को साधै, को पुनि मूँदे नैन।

हिए एक रस श्याम मनोहर, मोहन कोटिक मैन।


ह्याँ तो हुतो एक ही मन, सो हरि लै गये चुराई।

'हरिचंद' कौउ और खोजि कै, जोग सिखावहु जाई॥

. परदे में क़ैद औरत की गुहार भारतेंदु हरिश्चंद्र कविता

लिखाय नाहीं देत्यो पढ़ाय नाहीं देत्यो।

सैयाँ फिरंगिन बनाय नाहीं देत्यो॥

लहँगा दुपट्टा नीको न लागै।

मेमन का गाउन मँगाय नाहीं देत्यो।

वै गोरिन हम रंग सँवलिया।

नदिया प बँगला छवाय नाहीं देत्यो॥

सरसों का उबटन हम ना लगइबे।

साबुन से देहियाँ मलाय नाहीं देत्यो॥

डोली मियाना प कब लग डोलौं।

घोड़वा प काठी कसाय नाहीं देत्यो॥

कब लग बैठीं काढ़े घुँघटवा।

मेला तमासा जाये नाहीं देत्यो॥

लीक पुरानी कब लग पीटों।

नई रीत-रसम चलाय नाहीं देत्यो॥

गोबर से ना लीपब-पोतब।

चूना से भितिया पोताय नाहीं देत्यों।

खुसलिया छदमी ननकू हन काँ।

विलायत काँ काहे पठाय नाहीं देत्यो॥

धन दौलत के कारन बलमा।

समुंदर में बजरा छोड़ाय नाहीं देत्यो॥

बहुत दिनाँ लग खटिया तोड़िन।

हिंदुन काँ काहे जगाय नाहीं देत्यो॥

दरस बिना जिय तरसत हमरा।

कैसर का काहे देखाय नाहीं देत्यो॥

‘हिज्रप्रिया’ तोरे पैयाँ परत है।

‘पंचा’ में एहका छपाय नाहीं देत्यो॥

. बँसुरिआ मेरे बैर परीबँ भारतेंदु हरिश्चंद्र कविता

सुरिआ मेरे बैर परी।

छिनहूँ रहन देति नहिं घर में, मेरी बुद्धि हरी।

बेनु-बंस की यह प्रभुताई बिधि हर सुमति छरी।

’हरीचंद’ मोहन बस कीनो, बिरहिन ताप करी॥

. सखी री ठाढ़े नंदकिसोर भारतेंदु हरिश्चंद्र कविता

सखी री ठाढ़े नंदकिसोर।

वृंदाबन में मेहा बरसत, निसि बीती भयो भोर।

नील बसन हरि-तन राजत हैं, पीत स्वामिनी मोर।

’हरीचंद’ बलि-बलि ब्रज-नारी, सब ब्रजजन-मनचोर॥

. हरि-सिर बाँकी बिराजै भारतेंदु हरिश्चंद्र कविता -रचना 

हरि-सिर बाँकी बिराजै।

बाँको लाल जमुन तट ठाढ़ो बाँकी मुरली बाजै।

बाँकी चपला चमकि रही नभ बाँको बादल गाजै।

’हरीचंद’ राधा जू की छबि लखि रति मति गति भाजै॥

. धन्य ये मुनि वृन्दाबन बासी भारतेंदु हरिश्चंद्र कविता -रचना 

धन्य ये मुनि वृन्दाबन बासी।

दरसन हेतु बिहंगम ह्वै रहे, मूरति मधुर उपासी।

नव कोमल दल पल्लव द्रुम पै, मिलि बैठत हैं आई।

नैनन मूँदि त्यागि कोलाहल, सुनहिं बेनु धुनि माई।

प्राननाथ के मुख की बानी, करहिं अमृत रस-पान।

'हरिचंद' हमको सौउ दुरलभ, यह बिधि गति की आन॥

. इन दुखियन को न चैन सपनेहुं मिल्यौ भारतेंदु हरिश्चंद्र कविता -रचना 

 इन दुखियन को न चैन सपनेहुं मिल्यौ,

तासों सदा व्याकुल बिकल अकुलायँगी।


प्यारे 'हरिचंद जूं' की बीती जानि औध, प्रान

चाहते चले पै ये तो संग ना समायँगी।


देख्यो एक बारहू न नैन भरि तोहिं यातैं,

जौन जौन लोक जैहैं तहाँ पछतायँगी।


बिना प्रान प्यारे भए दरस तुम्हारे, हाय!

मरेहू पै आंखे ये खुली ही रहि जायँगी।

. बन्दर सभा

आना राजा बन्दर का बीच सभा के,

सभा में दोस्तो बन्दर की आमद आमद है।

गधे औ फूलों के अफसर जी आमद आमद है।

मरे जो घोड़े तो गदहा य बादशाह बना।

उसी मसीह के पैकर की आमद आमद है।

व मोटा तन व थुँदला थुँदला मू व कुच्ची आँख

व मोटे ओठ मुछन्दर की आमद आमद है ।।

हैं खर्च खर्च तो आमद नहीं खर-मुहरे की

उसी बिचारे नए खर की आमद आमद है ।।।।


बोले जवानी राजा बन्दर के बीच अहवाल अपने के,

पाजी हूँ मं कौम का बन्दर मेरा नाम।

बिन फुजूल कूदे फिरे मुझे नहीं आराम ।।

सुनो रे मेरे देव रे दिल को नहीं करार।

जल्दी मेरे वास्ते सभा करो तैयार ।।

लाओ जहाँ को मेरे जल्दी जाकर ह्याँ।

सिर मूड़ैं गारत करैं मुजरा करैं यहाँ ।।।।


आना शुतुरमुर्ग परी का बीच सभा में,

आज महफिल में शुतुरमुर्ग परी आती है।

गोया गहमिल से व लैली उतरी आती है ।।

तेल और पानी से पट्टी है सँवारी सिर पर।

मुँह पै मांझा दिये लल्लादो जरी आती है ।।

झूठे पट्ठे की है मुबाफ पड़ी चोटी में।

देखते ही जिसे आंखों में तरी आती है ।।

पान भी खाया है मिस्सी भी जमाई हैगी।

हाथ में पायँचा लेकर निखरी आती है ।।

मार सकते हैं परिन्दे भी नहीं पर जिस तक।

चिड़िया-वाले के यहाँ अब व परी आती है ।।

जाते ही लूट लूँ क्या चीज खसोटूँ क्या शै।

बस इसी फिक्र में यह सोच भरी आती है ।।।।


गजल जवानी शुतुरमुर्ग परी हसन हाल अपने के,

गाती हूँ मैं औ नाच सदा काम है मेरा।

ऐ लोगो शुतुरमुर्ग परी नाम है मेरा ।।

फन्दे से मेरे कोई निकले नहीं पाता।

इस गुलशने आलम में बिछा दाम है मेरा ।।

दो चार टके ही पै कभी रात गँवा दूँ।

कारूँ का खजाना कभी इनआम है मेरा ।।

पहले जो मिले कोई तो जी उसका लुभाना।

बस कार यही तो सहरो शाम है मेरा ।।

शुरफा व रुजला एक हैं दरबार में मेरे।

कुछ सास नहीं फैज तो इक आम है मेरा ।।

बन जाएँ जुगत् तब तौ उन्हें मूड़ हा लेना।

खली हों तो कर देना धता काम है मेरा ।।

जर मजहबो मिल्लत मेरा बन्दी हूँ मैं जर की।

जर ही मेरा अल्लाह है जर राम है मेरा ।।।।


(छन्द जबानी शुतुरमुर्ग परी)


राजा बन्दर देस मैं रहें इलाही शाद।

जो मुझ सी नाचीज को किया सभा में याद ।।

किया सभा में याद मुझे राजा ने आज।

दौलत माल खजाने की मैं हूँ मुँहताज ।।

रूपया मिलना चाहिये तख्त न मुझको ताज।

जग में बात उस्ताद की बनी रहे महराज ।।।।


ठुमरी जबानी शुतुरमुर्ग परी के,

आई हूँ मैं सभा में छोड़ के घर।

लेना है मुझे इनआम में जर ।।

दुनिया में है जो कुछ सब जर है।

बिन जर के आदमी बन्दर है ।।

बन्दर जर हो तो इन्दर है।

जर ही के लिये कसबो हुनर है ।।।।


गजल शुतुरमुर्ग परी की बहार के मौसिम में,

आमद से बसंतों के है गुलजार बसंती।

है फर्श बसंती दरो-दीवार बसंती ।।

आँखों में हिमाकत का कँवल जब से खिला है।

आते हैं नजर कूचओ बाजार बसंती ।।

अफयूँ मदक चरस के व चंडू के बदौलत।

यारों के सदा रहते हैं रुखसार बसंती ।।

दे जाम मये गुल के मये जाफरान के।

दो चार गुलाबी हां तो दो चार बसंती ।।

तहवील जो खाली हो तो कुछ कर्ज मँगा लो।

जोड़ा हो परी जान का तैयार बसंती ।।।।


होली जबानी शुतुरमुर्ग परी के,

पा लागों कर जोरी भली कीनी तुम होरी।

फाग खेलि बहुरंग उड़ायो ओर धूर भरि झोरी ।।

धूँधर करो भली हिलि मिलि कै अधाधुंध मचोरी।

न सूझत कहु चहुँ ओरी।

बने दीवारी के बबुआ पर लाइ भली विधि होरी।

लगी सलोनो हाथ चरहु अब दसमी चैन करो री ।।

सबै तेहवार भयो री ।।।।

दशरथ विलाप भारतेंदु हरिश्चंद्र कविता -रचना 

कहाँ हौ ऐ हमारे राम प्यारे ।

किधर तुम छोड़कर मुझको सिधारे ।।


बुढ़ापे में ये दु:ख भी देखना था।

इसी के देखने को मैं बचा था ।।


छिपाई है कहाँ सुन्दर वो मूरत ।

दिखा दो साँवली-सी मुझको सूरत ।।


छिपे हो कौन-से परदे में बेटा ।

निकल आवो कि अब मरता हु बुड्ढा ।।


बुढ़ापे पर दया जो मेरे करते ।

तो बन की ओर क्यों तुम पर धरते ।।


किधर वह बन है जिसमें राम प्यारा ।

अजुध्या छोड़कर सूना सिधारा ।।


गई संग में जनक की जो लली है

इसी में मुझको और बेकली है ।।


कहेंगे क्या जनक यह हाल सुनकर ।

कहाँ सीता कहाँ वह बन भयंकर ।।


गया लछमन भी उसके साथ-ही-साथ ।

तड़पता रह गया मैं मलते ही हाथ ।।


मेरी आँखों की पुतली कहाँ है ।

बुढ़ापे की मेरी लकड़ी कहाँ है ।।


कहाँ ढूँढ़ौं मुझे कोई बता दो ।

मेरे बच्चो को बस मुझसे मिला दो ।।


लगी है आग छाती में हमारे।

बुझाओ कोई उनका हाल कह के ।।


मुझे सूना दिखाता है ज़माना ।

कहीं भी अब नहीं मेरा ठिकाना ।।


अँधेरा हो गया घर हाय मेरा ।

हुआ क्या मेरे हाथों का खिलौना ।।


मेरा धन लूटकर के कौन भागा ।

भरे घर को मेरे किसने उजाड़ा ।।


हमारा बोलता तोता कहाँ है ।

अरे वह राम-सा बेटा कहाँ है ।।


कमर टूटी, न बस अब उठ सकेंगे ।

अरे बिन राम के रो-रो मरेंगे ।।


कोई कुछ हाल तो आकर के कहता ।

है किस बन में मेरा प्यारा कलेजा ।।


हवा और धूप में कुम्हका के थककर ।

कहीं साये में बैठे होंगे रघुवर ।।


जो डरती देखकर मट्टी का चीता ।

वो वन-वन फिर रही है आज सीता ।।


कभी उतरी न सेजों से जमीं पर ।

वो फिरती है पियोदे आज दर-दर ।।


न निकली जान अब तक बेहया हूँ ।

भला मैं राम-बिन क्यों जी रहा हूँ ।।


मेरा है वज्र का लोगो कलेजा ।

कि इस दु:ख पर नहीं अब भी य फटता ।।


मेरे जीने का दिन बस हाय बीता ।

कहाँ हैं राम लछमन और सीता ।।


कहीं मुखड़ा तो दिखला जायँ प्यारे ।

न रह जाये हविस जी में हमारे ।।


कहाँ हो राम मेरे राम-ए-राम ।

मेरे प्यारे मेरे बच्चे मेरे श्याम ।।


मेरे जीवन मेरे सरबस मेरे प्रान ।

हुए क्या हाय मेरे राम भगवान ।।


कहाँ हो राम हा प्रानों के प्यारे ।

यह कह दशरथ जी सुरपुर सिधारे ।।

बसंत होली भारतेंदु हरिश्चंद्र कविता -रचना 

जोर भयो तन काम को आयो प्रकट बसंत ।

बाढ़यो तन में अति बिरह भो सब सुख को अंत ।।।।


चैन मिटायो नारि को मैन सैन निज साज ।

याद परी सुख देन की रैन कठिन भई आज ।।।।


परम सुहावन से भए सबै बिरिछ बन बाग ।

तृबिध पवन लहरत चलत दहकावत उर आग ।।।।


कोहल अरु पपिहा गगन रटि रटि खायो प्रान ।

सोवन निसि नहिं देत है तलपत होत बिहान ।।।।


है न सरन तृभुवन कहूँ कहु बिरहिन कित जाय ।

साथी दुख को जगत में कोऊ नहीं लखाय ।।।।


रखे पथिक तुम कित विलम बेग आइ सुख देहु ।

हम तुम-बिन ब्याकुल भई धाइ भुवन भरि लेहु ।।।।


मारत मैन मरोरि कै दाहत हैं रितुराज ।

रहि न सकत बिन मिलौ कित गहरत बिन काज ।।।।


गमन कियो मोहि छोड़ि कै प्रान-पियारे हाय ।

दरकत छतिया नाह बिन कीजै कौन उपाय ।।।।


हा पिय प्यारे प्रानपति प्राननाथ पिय हाय ।

मूरति मोहन मैन के दूर बसे कित जाय ।।।।


रहत सदा रोवत परी फिर फिर लेत उसास ।

खरी जरी बिनु नाथ के मरी दरस के प्यास ।।।।


चूमि चूमि धीरज धरत तुव भूषन अरु चित्र ।

तिनहीं को गर लाइकै सोइ रहत निज मित्र ।।।।


यार तुम्हारे बिनु कुसुम भए बिष-बुझे बान ।

चौदिसि टेसू फूलि कै दाहत हैं मम प्रान ।।।।


परी सेज सफरी सरिस करवट लै पछतात ।

टप टप टपकत नैन जल मुरि मुरि पछरा खात ।।।।


निसि कारी साँपिन भई डसत उलटि फिरि जात ।

पटकि पटकि पाटी करन रोइ रोइ अकुलात ।।।।


टरै न छाती सौं दुसह दुख नहिं आयौ कंत ।

गमन कियो केहि देस कों बीती हाय बसंत ।।।।


वारों तन मन आपुनों दुहुँ कर लेहुँ बलाय ।

रति-रंजन ‘हरिचंद’ पिय जो मोहि देहु मिलाय ।।।।

उर्दू का स्यापा भारतेंदु हरिश्चंद्र कविता -रचना 

 है है उर्दू हाय हाय । कहाँ सिधारी हाय हाय ।

मेरी प्यारी हाय हाय । मुंशी मुल्ला हाय हाय ।

बल्ला बिल्ला हाय हाय । रोये पीटें हाय हाय ।

टाँग घसीटैं हाय हाय । सब छिन सोचैं हाय हाय ।

डाढ़ी नोचैं हाय हाय । दुनिया उल्टी हाय हाय ।

रोजी बिल्टी हाय हाय । सब मुखतारी हाय हाय ।

किसने मारी हाय हाय । खबर नवीसी हाय हाय ।

दाँत पीसी हाय हाय । एडिटर पोसी हाय हाय ।

बात फरोशी हाय हाय । वह लस्सानी हाय हाय ।

चरब-जुबानी हाय हाय । शोख बयानि हाय हाय ।

फिर नहीं आनी हाय हाय ।

. अब और प्रेम के फंद परे

अब और प्रेम के फंद परे

हमें पूछत- कौन, कहाँ तू रहै ।

अहै मेरेह भाग की बात अहो तुम

सों न कछु 'हरिचन्द' कहै ।

यह कौन सी रीति अहै हरिजू तेहि

भारत हौ तुमको जो चहै ।

चह भूलि गयो जो कही तुमने हम

तेरे अहै तू हमारी अहै ।

. होलीकैसी होरी खिलाई।

आग तन-मन में लगाई॥


पानी की बूँदी से पिंड प्रकट कियो सुंदर रूप बनाई।

पेट अधम के कारन मोहन घर-घर नाच नचाई॥

तबौ नहिं हबस बुझाई।


भूँजी भाँग नहीं घर भीतर, का पहिनी का खाई।

टिकस पिया मोरी लाज का रखल्यो, ऐसे बनो न कसाई॥

तुम्हें कैसर दोहाई।


कर जोरत हौं बिनती करत हूँ छाँड़ो टिकस कन्हाई।

आन लगी ऐसे फाग के ऊपर भूखन जान गँवाई॥

तुन्हें कछु लाज न आई।

. चूरन का लटका

चूरन अलमबेद का भारी, जिसको खाते कृष्ण मुरारी।।

मेरा पाचक है पचलोना, जिसको खाता श्याम सलोना।।

चूरन बना मसालेदार, जिसमें खट्टे की बहार।।

मेरा चूरन जो कोई खाए, मुझको छोड़ कहीं नहि जाए।।

हिंदू चूरन इसका नाम, विलायत पूरन इसका काम।।

चूरन जब से हिंद में आया, इसका धन-बल सभी घटाया।।

चूरन ऐसा हट्टा-कट्टा, कीन्हा दाँत सभी का खट्टा।।

चूरन चला डाल की मंडी, इसको खाएँगी सब रंडी।।

चूरन अमले सब जो खावैं, दूनी रिश्वत तुरत पचावैं।।

चूरन नाटकवाले खाते, उसकी नकल पचाकर लाते।।

चूरन सभी महाजन खाते, जिससे जमा हजम कर जाते।।

चूरन खाते लाला लोग, जिनको अकिल अजीरन रोग।।

चूरन खाएँ एडिटर जात, जिनके पेट पचै नहीं बात।।

चूरन साहेब लोग जो खाता, सारा हिंद हजम कर जाता।।

चूरन पुलिसवाले खाते, सब कानून हजम कर जाते।।

चने का लटका भारतेंदु हरिश्चंद्र कविता -रचना 

चना जोर गरम।

चना बनावैं घासी राम। जिनकी झोली में दूकान।।

चना चुरमुर-चुरमुर बोलै। बाबू खाने को मुँह खोलै।।

चना खावैं तोकी मैना। बोलैं अच्छा बना चबैना।।

चना खाएँ गफूरन, मुन्ना। बोलैं और नहिं कुछ सुन्ना।।

चना खाते सब बंगाली। जिनकी धोती ढीली-ढाली।।

चना खाते मियाँ जुलाहे। दाढ़ी हिलती गाहे-बगाहे।।

चना हाकिम सब खा जाते। सब पर दूना टैक्स लगाते।।

चना जोर गरम।।

. हरी हुई सब भूमि

बरषा सिर पर आ गई हरी हुई सब भूमि

बागों में झूले पड़े, रहे भ्रमण-गण झूमि

करके याद कुटुंब की फिरे विदेशी लोग

बिछड़े प्रीतमवालियों के सिर पर छाया सोग

खोल-खोल छाता चले लोग सड़क के बीच

कीचड़ में जूते फँसे जैसे अघ में नीच

 अंग्रेज स्तोत्र भारतेंदु हरिश्चंद्र कविता -रचना 

विद्यार्थी लभते विद्यां धनार्थी लभते धनम् ।

स्टारार्थी लभते स्टारम् मोक्षार्थी लभते गतिं ।।

एक कालं द्विकालं च त्रिकालं नित्यमुत्पठेत।

भव पाश विनिर्मुक्त: अंग्रेज लोकं संगच्छति ।।


(इससे विद्यार्थी को विद्या, धन चाहने वाले को धन,

स्टार-खिताब-पदवी चाहने वाले को स्टार और मोक्ष

की कामना करने वाले को परमगति की प्राप्ति होती

है । जो प्राणी रोजाना ,नियम से , तीनो समय इसका-

(अंग्रेज - स्तोत्र का) पाठ करता है वह अंग्रेज लोक

को गमन करने का पुण्य लाभ अर्जित करने का

अधिकारी होता है ।)

. अथ मदिरास्तवराज

निन्दतो बहुभिलोकैमुखस्वासपरागमुखै: ।

बल:हीना क्रियाहीनो मूत्रकृतलुण्ठतेक्षितौ ।।

पीत्वा पीत्वा पुन: पीत्वा यावल्लुंठतिभूतले ।

उत्थाय च पुन: पीत्वा नरोमुक्तिमवाप्नुयात् ।।


(भले ही कुछ लोग इसकी -मदिरा की- निन्दा

करते हों किन्तु बहुतों के मुख से निकलने

वाली सांस को यह सुवासित करने का कार्य

करती है । यह अलग बात है कि यह बल

और क्रिया से हीन कर मूत्र से सिंचित धरा

पर क्यों न धराशायी कर दे फिर भी मदिरा

का सेवनकर्ता पीता है , पीता है , बार-बार

पीता है और तब तक पीता है ,जब तक कि

धरती माता का चुम्बन न करने लगे । वह

फिर उठता है ,फिर पीता है और तब तक

पीता जाता है जब तक कि उसकी नर देह

को मुक्ति नहीं मिल जाती ।)

 मातृभाषा प्रेम-दोहे  भारतेंदु हरिश्चंद्र कविता -रचना दोहे  

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल

बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।


अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन

पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।


उन्नति पूरी है तबहिं जब घर उन्नति होय

निज शरीर उन्नति किये, रहत मूढ़ सब कोय।


निज भाषा उन्नति बिना, कबहुं न ह्यैहैं सोय

लाख उपाय अनेक यों भले करे किन कोय।


इक भाषा इक जीव इक मति सब घर के लोग

तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता सोग।


और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात

निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात।


तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात सुनै जो कोय

यह गुन भाषा और महं, कबहूं नाहीं होय।


विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार

सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार।


भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात

विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात।


सब मिल तासों छांड़ि कै, दूजे और उपाय

उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय।

 पद भारतेंदु हरिश्चंद्र रचना

हमहु सब जानति लोक की चालनि, क्यौं इतनौ बतरावति हौ।

हित जामै हमारो बनै सो करौ, सखियाँ तुम मेरी कहावती हौ॥

'हरिचंद जु' जामै न लाभ कछु, हमै बातनि क्यों बहरावति हौ।

सजनी मन हाथ हमारे नहीं, तुम कौन कों का समुझावति हौ॥



ऊधो जू सूधो गहो वह मारग, ज्ञान की तेरे जहाँ गुदरी है।

कोऊ नहीं सिख मानिहै ह्याँ, इक श्याम की प्रीति प्रतीति खरी है॥

ये ब्रजबाला सबै इक सी, 'हरिचंद जु' मण्डलि ही बिगरी है।

एक जो होय तो ज्ञान सिखाइये, कूप ही में इहाँ भाँग परी है॥



मन की कासों पीर सुनाऊं।

बकनो बृथा, और पत खोनी, सबै चबाई गाऊं॥

कठिन दरद कोऊ नहिं हरिहै, धरिहै उलटो नाऊं॥

यह तौ जो जानै सोइ जानै, क्यों करि प्रगट जनाऊं॥

रोम-रोम प्रति नैन स्रवन मन, केहिं धुनि रूप लखाऊं।

बिना सुजान सिरोमणि री, किहिं हियरो काढि दिखाऊं॥

मरिमनि सखिन बियोग दुखिन क्यों, कहि निज दसा रोवाऊं।

'हरीचंद पिय मिलैं तो पग परि, गहि पटुका समझाऊं॥



हम सब जानति लोक की चालनि, क्यौं इतनौ बतरावति हौ

हित जामैं हमारो बनै सो करौ, सखियां तुम मेरी कहावति हौ॥

'हरिचंद जू जामै न लाभ कछू, हमैं बातनि क्यों बहरावति हौ।

सजनी मन हाथ हमारे नहीं, तुम कौन कों का समुझावति हौ॥

क्यों इन कोमल गोल कपोलन, देखि गुलाब को फूल लजायो॥

त्यों 'हरिचंद जू पंकज के दल, सो सुकुमार सबै अंग भायो॥



अमृत से जुग ओठ लसैं, नव पल्लव सो कर क्यों है सुहायो।

पाहप सो मन हो तौ सबै अंग, कोमल क्यों करतार बनायो॥

आजु लौं जो न मिले तौ कहा, हम तो तुम्हरे सब भांति कहावैं।

मेरो उराहनो है कछु नाहिं, सबै फल आपुने भाग को पावैं॥

जो 'हरिचनद भई सो भई, अब प्रान चले चहैं तासों सुनावैं।

प्यारे जू है जग की यह रीति, बिदा के समै सब कंठ लगावैं॥



तेरी अँगिया में चोर बसैं गोरी !

इन चोरन मेरो सरबस लूट्यौ मन लीनो जोरा जोरी !

छोड़ि देई कि बंद चोलिया, पकरैं चोर हम अपनो री !

"हरीचन्द" इन दोउन मेरी, नाहक कीनी चितचोरी !

तेरी अँगिया में चोर बसैं गोरी !!

वह अपनी नाथ दयालुता

वह अपनी नाथ दयालुता तुम्हें याद हो कि न याद हो ।

वह जो कौल भक्तों से था किया तुम्हें याद हो कि न याद हो ।


व जो गीध था गनिका व थी व जो व्याध था व मलाह था

इन्हें तुमने ऊंचों की गति दिया तुम्हें याद हो कि न याद हो ।


जिन बानरों में न रूप था न तो गुन हि था न तो जात थी

उन्हें भाइयो का सा मानना तुम्हें याद हो कि न याद हो ।


खाना भील के वे जूठे फल, कहीं साग दास के घर पै चल

यूँही लाख किस्से कहूं मैं क्या तुम्हें याद हो कि न याद हो ।


कहो गोपियों से कहा था क्या, करो याद गीता की भी जरा

वानी वादा भक्त - उधार का तुम्हें याद हो कि न याद हो ।


या तुम्हारा ही `हरिचंद´ है गो फसाद में जग के बंद है

है दास जन्मों का आपका तुम्हें याद हो कि न याद हो ।।

जगत में घर की फूट बुरी भारतेंदु हरिश्चंद्र कविता -रचना

जगत में घर की फूट बुरी।

घर की फूटहिं सो बिनसाई, सुवरन लंकपुरी।

फूटहिं सो सब कौरव नासे, भारत युद्ध भयो।

जाको घाटो या भारत मैं, अबलौं नाहिं पुज्यो।

फूटहिं सो नवनंद बिनासे, गयो मगध को राज।

चंद्रगुप्त को नासन चाह्यौ, आपु नसे सहसाज।

जो जग में धनमान और बल, अपुनो राखन होय।

तो अपने घर में भूलेहु, फूट करो मति कोय॥

. सखी हम बंसी क्यों न भएसखी हम बंसी क्यों न भए।

अधर सुधा-रस निस-दिन पीवत प्रीतम रंग रए।

कबहुँक कर में, कबहुँक कटि में, कबहूँ अधर धरे।

सब ब्रज-जन-मन हरत रहति नित कुंजन माँझ खरे।

देहि बिधाता यह बर माँगों, कीजै ब्रज की धूर।

’हरीचंद’ नैनन में निबसै मोहन-रस भरपूर॥

. रोकहिं जौं तो अमंगल होयरोकहिं जौं तो अमंगल होय, औ प्रेम नसै जै कहैं पिय जाइए।

जौं कहैं जाहु न तौ प्रभुता, जौ कछु न तौ सनेह नसाइए।

जौं 'हरिचंद' कहै तुम्हरे बिन जीहै न, तौ यह क्यों पतिआईए।

तासौं पयान समै तुम्हरे, हम का कहैं आपै हमें समझाइए।

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र


भारतेन्दु

जन्म

9 सितम्‍बर, 1850
वाराणसीउत्तर प्रदेशभारत

मौत

6 जनवरी, 1885
वाराणसीउत्तर प्रदेशभारत

पेशा

कवि लेखक,रंगकर्मी, देशहितचिन्तक पत्रकार

राष्ट्रीयता

भारतीय

काल

आधुनिक काल

विधा

नाटक, काव्यकृतियाँ, अनुवाद, निबन्ध संग्रह

विषय

आधुनिक हिन्दी साहित्य

उल्लेखनीय काम

अन्धेर नगरीभारत दुर्दशा

आधुनिक हिन्दी साहित्य के पितामह


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