विनोद कुमार शुक्ल की कविताएं रचनाएं Vinod Kumar Shukla Kavita
विनोद कुमार शुक्ल की कविता /कविताएं
अपने अकेले होने को विनोद कुमार शुक्ल कविता
अपने अकेले होने को
एक-एक अकेले के बीच रखने
अपने को हम लोग कहता हूँ।
कविता की अभिव्यक्ति के लिए
व्याकरण का अतिक्रमण करते
एक बिहारी की तरह कहता हूँ
कि हम लोग आता हूँ
इस कथन के साथ के लिए
छत्तीसगढ़ी में- हमन आवत हन।
तुम हम लोग हो
वह भी हम लोग हैं।
अब इस उम्र में हूँ विनोद कुमार शुक्ल कविता
अब इस उम्र में हूँ
कि कोई शिशु जन्म लेता है
तो वह मेरी नातिनों से भी छोटा होता है
संसार में कोलाहल है
किसी ने सबेरा हुआ कहा तो
लड़का हुआ लगता है
सुबह हुई ख़ुशी से चिल्लाकर कहा
तो लड़की हुई की ख़ुशी लगती है
मेरी बेटी की दो बेटियाँ हैं
सबसे छोटी नातिन जाग गई
जागते ही उसने सुबह को
गुड़िया की तरह उठाया
बड़ी नातिन जागेगी तो
दिन को उठा लेगी।
अब कभी मिलना नहीं होगा ऎसा था विनोद कुमार शुक्ल कविता
अब कभी मिलना नहीं होगा ऎसा था
और हम मिल गए
दो बार ऎसा हुआ
पहले पन्द्रह बरस बाद मिले
फिर उसके आठ बरस बाद
जीवन इसी तरह का
जैसे स्थगित मृत्यु है
जो उसी तरह बिछुड़ा देती है,
जैसे मृत्यु
पाँच बरस बाद तीसरी बार यह हुआ
अबकी पड़ोस में वह रहने आई
उसे तब न मेरा पता था
न मुझे उसका।
थोड़ा-सा शेष जीवन दोनों का
पड़ोस में साथ रहने को बचा था
पहले हम एक ही घर में रहते थे।
अभी तक बारिश नहीं हुई विनोद कुमार शुक्ल कविता
अभी तक बारिश नहीं हुई
ओह! घर के सामने का पेड़ कट गया
कहीं यही कारण तो नहीं ।
बगुले झुँड में लौटते हुए
संध्या के आकाश में
बहुत दिनों से नहीं दिखे
एक बगुला भी नहीं दिखा
बचे हुए समीप के तालाब का
थोड़ा सा जल भी सूख गया
यही कारण तो नहीं ।
जुलाई हो गई
पानी अभी तक नहीं गिरा
पिछली जुलाई में
जंगल जितने बचे थे
अब उतने नहीं बचे
यही कारण तो नहीं ।
आदिवासी! पेड़ तुम्हें छोड़कर नहीं गए
और तुम भी जंगल छोड़कर ख़ुद नहीं गए
शहर के फुटपाथों पर अधनंगे बच्चे-परिवार
के साथ जाते दिखे इस साल
कहीं यही कारण तो नहीं है ।
इस साल का भी अंत हो गया
परन्तु परिवार के झुंड में अबकी बार
छोटे-छोटे बच्चे नहीं दिखे
कहीं यह आदिवासियों के अंत होने का
सिलसिला तो नहीं ।
आकाश की तरफ़ विनोद कुमार शुक्ल कविता
आकाश की तरफ़
अपनी चाबियों का गुच्छा उछाला
तो देखा
आकाश खुल गया है
ज़रूर आकाश में
मेरी कोई चाबी लगती है!
शायद मेरी संदूक की चाबी!!
खुले आकाश में
बहुत ऊँचे
पाँच बममारक जहाज
दिखे और छुप गए
अपनी खाली संदूक में
दिख गए दो-चार तिलचट्टे
संदूक उलटाने से भी नहीं गिरते!
आकाश से उड़ता हुआ विनोद कुमार शुक्ल कविता
आकाश से उड़ता हुआ
एक छोटा सा हरा तोता
( गोया आकाश से
एक हरा अंकुर ही फूटा है. )
एक पेड़ में जाकर बैठ गया.
पेड़ भी ख़ूब हरा भरा था.
फ़िर तोता मुझे दिखाई नहीं दिया
वह हरा भरा पेड़ ही दिखता रहा.
उपन्यास में पहले एक कविता रहती थी विनोद कुमार शुक्ल कविता
अनगिन से निकलकर एक तारा था।
एक तारा अनगिन से बाहर कैसे निकला था?
अनगिन से अलग होकर
अकेला एक
पहला था कुछ देर।
हवा का झोंका जो आया था
वह भी था अनगिन हवा के झोंकों का
पहला झोंका कुछ देर।
अनगिन से निकलकर एक लहर भी
पहली, बस कुछ पल।
अनगिन का अकेला
अनगिन अकेले अनगिन।
अनगिन से अकेली एक-
संगिनी जीवन भर।
एक अजनबी पक्षी विनोद कुमार शुक्ल कविता
एक अजनबी पक्षी
एक पक्षी की प्रजाति की तरह दिखा
जो कड़ी युद्ध के
पहले बम विस्फोट की आवाज से
डरकर यहाँ आ गया हो।
हवा में एक अजनबी गंध थी
साँस लेने के लिए
कुछ कदम जल्दी-जल्दी चले
फ़िर साँस ली।
वायु जिसमें साँस ली जा सकती है
यह वायु की प्रजाति है
जिसमें साँस ली जा सकती है।
एक मनुष्य मनुष्य की प्रजाति की तरह
साइरन की आवाज सुनते हीं
जान बचाने गड्ढे में कूद जाता है।
गड्ढे किनारे टहलती हुई
एक गर्भवती स्त्री
एक मनुष्य जीव को जन्म देने
सम्भलकर गड्ढे में उतर जाती है
पर कोई मनुष्य मर जाता है।
इस मनुष्य होने के अकेलेपन में
मनुष्य की प्रजाति की तरह लोग थे।
कहीं जाने का मन होता है विनोद कुमार शुक्ल कविता
कहीं जाने का मन होता है
तो पक्षी की तरह
कि संध्या तक लौट आएँ।
एक पक्षी की तरह जाने की दूरी!
सांध्य दिनों में कहीं नहीं जाता
परन्तु प्राण-पखेरू?
कक्षा के काले तख़्ते पर सफ़ेद चाक से बना विनोद कुमार शुक्ल कविता
कक्षा के काले-तख़्ते पर सफ़ेद चाक से बना
फूलों का गमला है
वैसा ही फूलों का गमला
फ़र्श पर रखा है-
लगेगा कि गमले को देखकर
काले-तख़्ते का चित्र बनाया गया हो
जबकि चित्र को देखकर हूबहू वैसा ही हुआ गमला
फ़र्श पर रखा है
गहरी नदी के स्थिर जल में
उसका प्रतिबिम्ब है
वह नहीं है जबकि
जल में प्रतिबिम्ब देख रहा हूँ।
वह आई बाद में-
प्रतिबिम्ब के बाद में।
अपने प्रतिबिम्ब को देखकर
वह सजी सँवरी
प्रतिबिम्ब में उसके बालों में
एक फूल खुँसा है।
परन्तु उसके बालों में नहीं।
मैंने सोचा काले-तख़्ते के चित्र से
फूल तोड़कर उसके बालों में लगा दूँ
या गमले से तोड़कर
या प्रतिबिम्ब से।
प्रेम की कक्षा में जीवन-भर अटका रहा।
कोई अधूरा पूरा नहीं होता विनोद कुमार शुक्ल कविता
कोई अधूरा पूरा नहीं होता
और एक नया शुरू होकर
नया अधूरा छूट जाता
शुरू से इतने सारे
कि गिने जाने पर भी अधूरे छूट जाते
परंतु इस असमाप्त –
अधूरे से भरे जीवन को
पूरा माना जाए, अधूरा नहीं
कि जीवन को भरपूर जिया गया
इस भरपूर जीवन में
मृत्यु के ठीक पहले भी मैं
एक नई कविता शुरू कर सकता हूं
मृत्यु के बहुत पहले की कविता की तरह
जीवन की अपनी पहली कविता की तरह
किसी नए अधूरे को अंतिम न माना जाए ।
घर-बार छोड़कर संन्यास नहीं लूंगा विनोद कुमार शुक्ल कविता
घर-बार छोड़कर संन्यास नहीं लूंगा
अपने संन्यास में
मैं और भी घरेलू रहूंगा
घर में घरेलू
और पड़ोस में भी।
एक अनजान बस्ती में
एक बच्चे ने मुझे देखकर बाबा कहा
वह अपनी माँ की गोद में था
उसकी माँ की आँखों में
ख़ुशी की चमक थी
कि उसने मुझे बाबा कहा
एक नामालूम सगा।
चार पेड़ के विनोद कुमार शुक्ल कविता
चार पेड़ों के
एक-दूसरे के पड़ोस की अमराई
पेड़ों में घोंसलों के पड़ोस में घोंसले
सुबह-सुबह पक्षी चहचहा रहे थे
यह पड़ोसियों का सहगान है-
सरिया-सोहर की गवनई।
पक्षी,
पक्षी पड़ोसी के साथ
झुंड में उड़े।
परन्तु मेरी नींद
एक पड़ोसी के नवजात शिशु के रुदन से खुली।
यह नवजात भी दिन
सूर्य दिन को गोद में लिए है
सूर्य से मैंने दिन को गोद में लिया।
जगह-जगह रुक रही थी यह गाड़ी विनोद कुमार शुक्ल कविता
जगह-जगह रुक रही थी यह गाड़ी,
बिलासपुर में समाप्त होने वाली
छत्तीसगढ़ में सवार था।
अचानक गोदिया में
सभी यात्री उतर गए
और दूसरी कलकत्ता तक जाने वाली
आई गाड़ी में चढ़ गए।
एक मुझ से अधिक बूढ़े यात्री ने
उतरते हुए कहा
तुम भी उतर जाओ
अगले जनम पहुँचेगी यह गाड़ी'
मुझे जल्दी नहीं थी
मैं ख़ुशी से गाड़ी में बैठा रहा
मुझे राजनांदगाँव उतरना था
जहाँ मेरा जन्म हुआ था।
जब बाढ़ आती है विनोद कुमार शुक्ल कविता
जब बाढ़ आती है
तो टीले पर बसा घर भी
डूब जाने को होता है
पास, पड़ोस भी रह रहा है
मैं घर को इस समय धाम कहता हूं
और ईश्वर की प्रार्थना में नहीं
एक पड़ोसी की प्रार्थना में
अपनी बसावट में आस्तिक हो रहा हूं
कि किसी अंतिम पड़ोस से
एक पड़ोसी बहुत दूर से
सबको उबारने
एक डोंगी लेकर चल पड़ा है
घर के ऊपर चढाई पर
मंदिर की तरह एक और पड़ोसी का घर है
घर में दुख की बाढ़ आती है ।
जब मैं भीम बैठका देखने गया विनोद कुमार शुक्ल कविता
जब मैं भीम बैठका देखने गया
तब हम लोग साथ थे।
हमारे सामने एक लाश थी
एक खुली गाड़ी में.
हम लोग उससे आगे नहीं जा पा रहे थे.
जब मैं उससे आगे नहीं जा पा रहे थे.
तब हम सब आगे निकल गये.
जब मैं भीम बैठका पहुँचा
हम सब भीम बैठका पहुँच गये.
चट्टानों में आदिमानव के फुरसत का था समय
हिरण जैसा, घोड़े बंदरों, सामूहिक नृत्य जैसा समय.
ऊपर एक चट्टान की खोह से कबूतरों का झुंड
फड़फड़ाकर निकला
यह हमारा समय था पत्थरों के घोंसलों में -
उनके साथ
जब मैं लौटा
तब हम लोग साथ थे.
लौटते हुए मैंने कबूतरों को
चट्टानों के घोंसलों में लौटते देखा.
जितने सभ्य होते हैं विनोद कुमार शुक्ल कविता
जितने सभ्य होते हैं
उतने अस्वाभाविक ।
आदिवासी जो स्वाभाविक हैं
उन्हें हमारी तरह सभ्य होना है
हमारी तरह अस्वाभाविक ।
जंगल का चंद्रमा
असभ्य चंद्रमा है
इस बार पूर्णिमा के उजाले में
आदिवासी खुले में इकट्ठे होने से
डरे हुए हैं
और पेड़ों के अंधेरे में दुबके
विलाप कर रहे हैं
क्योंकि एक हत्यारा शहर
बिजली की रोशनी से
जगमगाता हुआ
सभ्यता के मंच पर बसा हुआ है ।
तीनों, और चौथा केन्द्र में विनोद कुमार शुक्ल कविता
तीनों, और चौथा केन्द्र में
उसी की घेरे-बन्दी का वृत्त
तीनों वृत्त के टुकड़े थे फरसे की तरह
धारदार तीन गोलाई के भाग
तीनों ने तीन बार मेरा गला काटना चाहा
उन्हें लगता था कि मेरा सिर तना है
इसलिए सीमा से अधिक ऊँचाई है
जबकि औसत दर्ज़े का मैं था।
वे कुछ बिगाड़ नहीं सके
मेरा सिर तीन गुना और तना
उनकी घेरेबन्दी से बाहर निकलकर।
फ़िल्म का एक दृश्य मुझे याद आया
एक सुनसान कबाड़ी गोदाम के
बड़े दरवाज़े को खोलकर
मैं लड़खड़ाता हुआ गुंडों से बचकर निकला हूँ
लोग बाहर खड़े मेरा इंतज़ार कर रहे हैं
पत्नी कुछ अलग रुआँसी खड़ी है
सबसे मिल कर मैं बाद में उससे मिला
वह रोते हुए मुझ से लिपट गई।
पहाड़ को बुलाने विनोद कुमार शुक्ल कविता
पहाड़ को बुलाने
आओ पहाड़' मैंने नहीं कहा
कहा 'पहाड़, मैं आ रहा हूँ।
पहाड़ मुझे देखे
इसलिए उसके सामने खड़ा
उसे देख रहा हूँ।
पहाड़ को घर लाने
पहाड़ पर एक घर बनाऊंगा
रहने के लिए एक गुफ़ा ढूँढूंगा
या पितामह के आशीर्वाद की तरह
चट्टान की छाया
कहूंगा यह हमारा पैतृक घर है।
विनोद कुमार शुक्ल जीवन परिचय
विनोद कुमार शुक्ल एक प्रमुख हिंदी कवि, उपन्यासकार, और कथाकार हैं, जिनका जन्म 1 जनवरी 1937 को छत्तीसगढ़ के राजनंदगांव में हुआ था। उन्होंने अपनी शिक्षा जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय से कृषि में एम.एससी. की डिग्री प्राप्त की। शुक्ल ने अपने करियर की शुरुआत एक शिक्षक के रूप में की और बाद में साहित्य सृजन में पूर्ण रूप से संलग्न हो गए।
साहित्यिक योगदान
विनोद कुमार शुक्ल की लेखन शैली अद्वितीय और मौलिक है, जो उन्हें समकालीन हिंदी साहित्य में एक विशेष स्थान प्रदान करती है। उनकी रचनाएँ अक्सर "जादुई-यथार्थ" के तत्वों के साथ जुड़ी होती हैं, जो पाठकों को गहराई से प्रभावित करती हैं। उनका पहला कविता संग्रह "लगभग जय हिंद" 1971 में प्रकाशित हुआ, जिसके बाद उन्होंने कई महत्वपूर्ण कृतियाँ लिखीं।
प्रमुख कृतियाँ
कविता संग्रह:
लगभग जय हिंद (1971)
वह आदमी चला गया नया गरम कोट पहनकर विचार की तरह (1981)
सब कुछ होना बचा रहेगा (1992)
अतिरिक्त नहीं (2000)
कविता से लंबी कविता (2001)
आकाश धरती को खटखटाता है (2006)
उपन्यास:
नौकर की कमीज़ (1979)
दीवार में एक खिड़की रहती थी (1997)
खिलेगा तो देखेंगे (1996)
पुरस्कार और सम्मान
विनोद कुमार शुक्ल को उनके साहित्यिक योगदान के लिए कई पुरस्कार प्राप्त हुए हैं, जिनमें साहित्य अकादमी पुरस्कार (1999) और PEN/नाबोकोव पुरस्कार (2023) शामिल हैं। इसके अलावा, उन्हें राष्ट्रीय मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, हिंदी गौरव सम्मान, और रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार जैसे अन्य प्रतिष्ठित पुरस्कार भी मिले हैं
व्यक्तिगत जीवन
विनोद कुमार शुक्ल के पिता का नाम शिवगोपाल शुक्ल और माता का नाम रुक्मणि देवी है। उन्होंने अपने जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा साहित्य के क्षेत्र में समर्पित किया है और आज भी उनकी रचनाएँ पाठकों के बीच लोकप्रिय हैं
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