आगगाडी आणि जमीन / कुसुमाग्रज कविता
नको ग !नको ग!!
आक्रंदे जमीन
पायाशी लोळत
विनवी नमून
धावसी मजेत
वेगात वरून
आणिक खाली मी
चालले चुरून !
छातीत पाडसी
कितीक खिंडारे
कितीक ढाळसी
वरून निखारे !
नको ग !नको ग!!
आक्रंदे जमीन
जाळीत जाऊ तू
बेभान होऊन !
ढगात धुराचा
फवारा सोडून
गर्जत गाडी ती
बोलली माजून -
दुर्बळ! अशीच
खुशाल ओरड
जगावे जगात
कशाला भेकड
पोलादी टाचा या
छातीत रोवून
अशीच चेंदत
धावेन !धावेन !
चला रे चक्रानो ,
फिरत गरारा
गर्जत पुकारा
आपुला दरारा !
शीळ अन कर्कश
गर्वात फुंकून
पोटात जळते
इंधन घालून
शिरली घाटात
अफाट वेगात
मैलाचे अंतर
घोटात गिळीत !
उद्दाम गाडीचे
ऐकून वचन
क्रोधात इकडे
थरारे जमीन
"दुर्बळ भेकड !
त्वेषाने पुकारी
घुमले पहाड
घुमल्या कपारी!
हवेत पेटला
सूडाचा घुमारा
कोसळे दरीत
पुलाचा डोलारा
उठला क्षणार्ध
भयाण आक्रोश
हादरे जंगल
कापले आकाश !
उलटी पालटी
होऊन गाडी ती
हजार शकले
पडली खालती !
क्रांति का जयजयकार / कुसुमाग्रज कविता
भारत में १९४२ की क्रान्ति के समय मरठी में यह गीत बहुत प्रसिद्ध हुआ था। उस का हिंदी रूपांतरण करने के इस प्रयास में जहाँ तक हो सके, कवि के मूल शब्दों का ही उपयोग किया है।
गरजो जय-जयकार क्रान्ति का, गरजो जय-जयकार
और छाती पर झेलो वज्रों के प्रहार
खलखल करने दो शृंखलाएँ हाथों-पावों में
फ़ौलाद की क्या गिनती, मृत्यु के दरवाज़ों में
सर्पो! कस लो, कस लो, तुम्हारे भरसक पाश
टूटे प्रकोष्ठ, फिर भी टूटेगा नहीं कभी आवेश
तड़िघात से क्या टूटता है तारों का संभार?
कभी यह तारों का संभार? गरजो जय-जयकार
क्रुद्ध भूख भले मचाए पेट में तूफ़ान
कुतरने दो ताँतों को, करने रक्त का पान
संहारक कलि! तुझे बलि हैं देते आव्हान
बलशाली मरण से बलवान हमारा अभिमान
मृत्युंजय हम, हमें क्या हैं कारागार?
अजी, क्या हैं कारागार? गरजो जय-जयकार
क़दम क़दम पे फैल अंगारे अपने हाथों से
हो के बेख़ुद दौड़ते हैं हम अपने ध्येयपथ पे
रुके नहीं विश्रांति को, देखा नहीं कभी पीछे
बांध सके नहीं हमें प्रीति या कीर्ति के धागे
एक ही तारा सन्मुख और पाँव तले अँगार
हाँ था पाँव तले अँगार! गरजो जय-जयकार
हे साँसो! तुम जाओ वायु संग लांघ यह दीवार
कह दो माँ से हृदय में हैं जो जज़्बात
कहो कि पागल तेरे बच्चे इस अंधियारे से
बद्ध करों से करते हैं तुम्हें अंतिम प्रणिपात
मुक्ति की तेरी उन को थी दीवानगी अनिवार
उन को थी दीवानगी अनिवार, गरजो जय-जयकार
फहराते तेरे ध्वज बंध गए हाथ शृंखला में
यश के तेरे पवाड़े गाते आए फन्दे गले में
देते जो जीवन अर्घ्य तो कहलाए दीवाने
माँ दीवानों को दोगी न तेरी गोद का आधार?
माँ तेरी गोद का आधार? गरजो जय-जयकार
क्यों भिगोती हो आँखें, उज्ज्वल है तेरा भाल
रात्रि के गर्भ में नहीं क्या कल का उषःकाल?
चिता में जब जल जाएंगे कलेवर ये हमारे
ज्वालाओं से उपजेंगे नेता भावी क्रांति के
लोहदण्ड तेरे पावों टूटेंगे खन-खनकर
हाँ माँ! टूटेंगे खन-खनकर, गरजो जय-जयकार
ओंकार! अब करो ताण्डव लेने को ग्रास
नर्तन करते पहन लिए हैं गले में पाश
आने दो लूटने रक्त और माँस गिद्धों को क्रूर
देखो-देखो खुला कर दिया है हम ने अपना उर
शरीरों का इन करो अब तुम सुखेनैव संहार
मृत्यो! करो सुखेनैव संहार! गरजो जय-जयकार
गरजो जय-जयकार क्रान्ति का गरजो जय-जयकार
मूल मराठी से अनुवाद : सीताराम चंदावरकर
रीढ़ / कुसुमाग्रज कविता
"सर, मुझे पहचाना क्या?"
बारिश में कोई आ गया
कपड़े थे मुचड़े हुए और बाल सब भीगे हुए
पल को बैठा, फिर हँसा, और बोला ऊपर देखकर
"गंगा मैया आई थीं, मेहमान होकर
कुटिया में रह कर गईं!
माइके आई हुई लड़की की मानिन्द
चारों दीवारों पर नाची
खाली हाथ अब जाती कैसे?
खैर से, पत्नी बची है
दीवार चूरा हो गई, चूल्हा बुझा,
जो था, नहीं था, सब गया!
"’प्रसाद में पलकों के नीचे चार क़तरे रख गई है पानी के!
मेरी औरत और मैं, सर, लड़ रहे हैं
मिट्टी कीचड़ फेंक कर,
दीवार उठा कर आ रहा हूं!"
जेब की जानिब गया था हाथ, कि हँस कर उठा वो...
’न न’, न पैसे नहीं सर,
यूँ ही अकेला लग रहा था
घर तो टूटा, रीढ़ की हड्डी नहीं टूटी मेरी...
हाथ रखिए पीठ पर और इतना कहिए कि लड़ो... बस!"
मूल मराठी से अनुवाद : गुलज़ार
आगगाड़ी और ज़मीन / कुसुमाग्रज कविता
इस कविता में कवि की कल्पना और प्रेरणा में जबरदस्त होड़ लगी हुई है। समाज का पिछड़ा वर्ग युगों से अत्याचार सहता आ रहा है। इस कविता के माध्यम से कवि नवयुग का बिगुल बजा रहा है। तानाशाही, साम्राज्यवाद, पूंजीवाद, पुरोहिताई ने ग़रीबों का पूरा-पूरा शोषण किया है। लेकिन हर अत्याचार सहने की एक हद होती है। कुसुमाग्रज इस कविता के माध्यम से शोषकों को चेतावनी देते है, अगर यह पिछड़ा वर्ग संगठित होकर विद्रोह पर उतर आएगा तो तुम ध्वस्त हो जाओगे! इस कविता से क्राँति की प्रेरणा मिलती है! आगगाड़ी और ज़मीन शोषक और शोषितों के प्रतीक हैं!
मत रौंदो ..! मत रौंदो
चीख़ती ज़मीन थी!
आँखों में बिनती थी
पैरों पर लीन थी!!
बदन पर हो दौड़ती
मस्ती रफ़्तार में !
दब रही हूँ मैं नीचे
मिट रही हूँ कण-कण में !!
फ़ौलादी सीने में
बना दिए है सौ छर्रे !
फेंक रही हो ऊपर से
अनगिनत अंगारे !!
मत रौंदो मत रौंदो
चीख़ती ज़मीन थी!
मत जलाओ यूँ मुझे
मस्ती में झूमती !!
छोड़ कर फव्वारा
धुएँ का बादल में
आगगाड़ी गुर्राई
मस्ती थी हलचल में
कायर ! लाचार !! तुम !!!
चीख़ती रहो हरदम !
रहती क्यूँ इस जग में ,
गर नहीं है तुझ में दम ?
छाती पर रखूँगी
फ़ौलादी ये पग !
रौंदती मैं दौडूँगी
देखता रहे जग!!
फिरो फिरो चक्कों तुम
तेज़ रफ़्तार से
गरज़ते रहो हरदम
शोर और पुकार से
कर्कश थी सीटियाँ
गर्वोन्नत गाड़ी थी!
पेट में थे अंगारे
बेख़ौफ़ दौड़ी थी!!
धड़म-धड़ाम दौड़ती
पहाड़ चट्टान में
मीलों का फ़ासला
लाँघती थी वो पल में
सुन कर उस गाड़ी का
उद्दंड सा वचन !
गुस्से में उबलती
हिल रही थी अब ज़मीन !!
कायर ! लाचार !!मैं !
क्रोध और त्वेष था !
डर गए पहाड़ खाई
मही का आवेश था !!
बदले की आग का
नारा बुलंद था !
लंबा सा पुल पल में
खाई में ढेर था !!
पल में धुआँ-धुआँ
डरावना आक्रोश !
हिल रहा था जंगल
काँप उठा आकाश !
उलटी-पल्टी आगगाड़ी
गिर गई थी नीचे !
टुकड़ों में चूर-चूर
कुछ न बचा पीछे !!
मूल मराठी से अनुवाद : स्वाती ठकार
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