रहीम के दोहे अर्थ सहित दोहा Raheem Rahim ke Dohe Hindi arth Meaning


समय पाय फल होत है, समय पाय झरि जाय।
सदा रहे नहिं एक सी, का रहीम पछिताए॥
सब समय का खेल है। समय आने पर फल पकते हैं और समय आने पर झड़ भी जाते हैं। रहीम कहते हैं कि समय ही परिस्थितियों को बदलता है अर्थात् समय सदा एक-सा नहीं रहता। इसलिए पछतावा करने का कोई तुक नहीं है।

व्याख्या
रहिमन पानी राखिये, बिनु पानी सब सून।
पानी गए न ऊबरै, मोती, मानुष, चून॥
रहीम ने पानी को तीन अर्थों में प्रयुक्त किया है। पानी का पहला अर्थ मनुष्य के संदर्भ में 'विनम्रता' से है। मनुष्य में हमेशा विनम्रता (पानी) होना चाहिए। पानी का दूसरा अर्थ आभा, तेज या चमक से है जिसके बिना मोती का कोई मूल्य नहीं। तीसरा अर्थ जल से है जिसे आटे (चून) से जोड़कर दर्शाया गया है। रहीम का कहना है कि जिस तरह आटे के बिना संसार का अस्तित्व नहीं हो सकता, मोती का मूल्य उसकी आभा के बिना नहीं हो सकता है उसी तरह विनम्रता के बिना व्यक्ति का कोई मूल्य नहीं हो सकता। मनुष्य को अपने व्यवहार में हमेशा विनम्रता रखनी चाहिए।

व्याख्या
आप न काहू काम के, डार पात फल फूल।
औरन को रोकत फिरै, रहिमन पेड़ बबूल।।
रहीम कहते हैं कि कुछ व्यक्ति दूसरों का कोई उपकार तो करते नहीं हैं, उलटे उनके मार्ग में बाधाएँ ही खड़ी करते हैं। यह बात कवि ने बबूल के माध्यम से स्पष्ट की है। बबूल की डालें, पत्ते, फल-फूल तो किसी काम के होते नहीं हैं, वह अपने काँटों द्वारा दूसरों के मार्ग को और बाधित किया करता है।

व्याख्या
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो छिटकाय।
टूटे से फिर न मिले, मिले गाँठ परिजाय॥
रहीम कहते हैं कि प्रेम का रिश्ता बहुत नाज़ुक होता है। इसे झटका देकर तोड़ना यानी ख़त्म करना उचित नहीं होता। यदि यह प्रेम का धागा (बंधन) एक बार टूट जाता है तो फिर इसे जोड़ना कठिन होता है और यदि जुड़ भी जाए तो टूटे हुए धागों (संबंधों) के बीच में गाँठ पड़ जाती है।

व्याख्या
कहि रहीम इक दीप तें, प्रगट सबै दुति होय।
तन सनेह कैसे दुरै, दृग दीपक जरु दोय॥
रहीम कहते हैं कि जब एक ही दीपक के प्रकाश से घर में रखी सारी वस्तुएँ स्पष्ट दीखने लगती हैं, तो फिर नेत्र रूपी दो-दो दीपकों के होते तन-मन में बसे स्नेह-भाव को कोई कैसे भीतर छिपाकर रख सकता है! अर्थात मन में छिपे प्रेम-भाव को नेत्रों के द्वारा व्यक्त किया जाता है और नेत्रों से ही उसकी अभिव्यक्ति हो जाती है।

व्याख्या
बड़े बड़ाई ना करैं, बड़ो न बोलैं बोल।
रहिमन हीरा कब कहै, लाख टका मेरो मोल॥
रहीम कहते हैं कि जिनमें बड़प्पन होता है, वो अपनी बड़ाई कभी नहीं करते। जैसे हीरा कितना भी अमूल्य क्यों न हो, कभी अपने मुँह से अपनी बड़ाई नहीं करता।

व्याख्या
रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिये डारि।
जहाँ काम आवे सुई, कहा करे तलवारि॥
रहीम कहते हैं कि बड़ी या मँहगी वस्तु हाथ लगने पर छोटी या सस्ती वस्तु का मूल्य कम नहीं हो जाता। हर वस्तु का अपना महत्त्व होता है। जहाँ सूई काम आती है, वहाँ सूई से ही काम सधेगा; तलवार से नहीं।

व्याख्या
एकै साधे सब सधै, सब साधै सब जाय।
रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलै फलै अघाय॥
रहीम कहते हैं कि पहले एक काम पूरा करने की ओर ध्यान देना चाहिए। बहुत से काम एक साथ शुरू करने से कोई भी काम ढंग से नहीं हो पता, वे सब अधूरे से रह जाते हैं। एक ही काम एक बार में किया जाना ठीक है। जैसे एक ही पेड़ की जड़ को अच्छी तरह सींचा जाए तो उसका तना, शाख़ाएँ, पत्ते, फल-फूल सब हरे-भरे रहते हैं।

व्याख्या
रहिमन गली है साँकरी, दूजो ना ठहराहिं।
आपु अहै तो हरि नहीं, हरि तो आपुन नाहिं॥
रहीम कहते हैं कि (मन की) गली संकरी है, उसमें एक साथ दो जने नहीं गुज़र सकते? यदि वहाँ तुम यानी तुम्हारा अहंकार है तो परमात्मा के लिए वहाँ कोई ठौर नहीं और अगर वहाँ परमात्मा का निवास है तो अहंकार का क्या काम! यानी मन ही वह प्रेम की गली है, जहां अहंकार और भगवान एक साथ नहीं गुज़र सकते, एक साथ नहीं रह सकते।

व्याख्या
समय परे ओछे बचन, सब के सहै रहीम।
सभा दुसासन पट गहे, गदा लिए रहे भीम॥
रहीम कहते हैं कि जब समय उल्टा चल रहा हो तो समर्थ इंसान को भी ओछे वचन सुनने पड़ते हैं। यह समय का ही खेल है कि गदाधारी बलवान भीम के सामने दुश्शासन द्रोपदी का चीर हरण करता रहा और भीम हाथ में गदा होते हुए भी नीची आँख किए बैठे रहे।

व्याख्या
रूप, कथा, पद, चारु पट, कंचन, दोहा, लाल।
ज्यों ज्यों निरखत सूक्ष्मगति, मोल रहीम बिसाल॥
रहीम कहते हैं कि किसी की रूप-माधुरी, कथा का कथानक, कविता, चारु पट, सोना, छंद और मोती-माणिक्य का ज्यों-ज्यों सूक्ष्म अवलोकन करते हैं तो इनकी ख़ूबियाँ बढ़ती जाती है। यानी इन सब की परख के लिए पारखी नज़र चाहिए।

व्याख्या
रहिमन निज मन की बिथा, मन ही राखो गोय।
सुनि अठिलैहैं लोग सब, बाँटि न लैहैं कोय॥
रहीम कहते हैं कि अपने मन के दुःख को मन के भीतर छिपा कर ही रखना चाहिए। दूसरे का दुःख सुनकर लोग इठला भले ही लें, उसे बाँट कर कम करने वाला कोई नहीं होता।

व्याख्या
बिगरी बात बनै नहीं, लाख करौ किन कोय।
रहिमन फाटे दूध को, मथे न माखन होय॥
रहीम कहते हैं कि मनुष्य को सोच-समझ कर व्यवहार करना चाहिए। क्योंकि जैसे एक बार दूध फट गया तो लाख कोशिश करने पर भी उसे मथ कर मक्खन नहीं निकाला जा सकता उसी प्रकार किसी नासमझी से बात के बिगड़ने पर उसे दुबारा बनाना बड़ा मुश्किल होता है।

व्याख्या
चाह गई चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह।
जिनको कछु न चाहिए, वे साहन के साह॥
रहीम कहते हैं कि किसी चीज़ को पाने की लालसा जिसे नहीं है, उसे किसी प्रकार की चिंता नहीं हो सकती। जिसका मन इन तमाम चिंताओं से ऊपर उठ गया, किसी इच्छा के प्रति बेपरवाह हो गए, वही राजाओं के राजा हैं।

व्याख्या
सीत हरत, तम हरत नित, भुवन भरत नहिं चूक।
रहिमन तेहि रबि को कहा, जो घटि लखै उलूक॥
जो शीत हरता है, अंधकार का हरण करता है अर्थात अँधेरा दूर भगाता है और संसार का भरण करता है। रहीम कहते हैं कि उस सूर्य को अगर उल्लू कमतर आँकता है तो उस सूर्य को क्या फ़र्क पड़ता है! यानी महान लोगों की महानता पर ओछे इंसान के कहने से आँच नहीं आती।

व्याख्या
आदर घटे नरेस ढिंग, बसे रहे कछु नाहिं।
जो रहीम कोटिन मिले, धिग जीवन जग माहिं॥
रहीम कहते हैं कि आदर न मिलने या सम्मान घट जाने पर राजा के पास रहना भी व्यर्थ है। आदर बिना यदि राजा करोड़ों रुपए भी दे तो उन रुपयों को प्राप्त करना धिक्कार है। आदर-विहीन जीवन व्यर्थ है।

व्याख्या
अमर बेलि बिनु मूल की, प्रतिपालत है ताहि।
रहिमन ऐसे प्रभुहिं तजि, खोजत फिरिए काहि॥
अमरबेल की जड़ नहीं होती, वह बिना जड़ के फलती-फूलती है। प्रभु बिना जड़ वाली उस लता का पालन-पोषण करते हैं। ऐसे प्रभु को छोड़कर अपनी रक्षा के लिए किसी और को खोजने की क्या आवश्यकता है! उस पर ही विश्वास रखना चाहिए।

व्याख्या
करम हीन रहिमन लखो, धँसो बड़े घर चोर।
चिंतत ही बड़ लाभ के, जागत ह्वै गो भोर॥
कवि रहीम कहते हैं कि कर्महीन व्यक्ति सपने में एक बड़े घर में चोरी करने जाता है। वह सोचता है कि उस संपन्न घर से काफ़ी धन-दौलत पर हाथ साफ़ कर लेगा। वह मन-ही-मन इस बात पर अत्यंत प्रसन्न होने लगा, परंतु सपना देखते-देखते सुबह हो गई, अर्थात जाग जाने से उसका सपना टूट गया। इस तरह उसकी सारी ख़ुशी काफ़ूर हो गई। कोरे सपने देखने से नहीं, बल्कि कर्म करने से ही मनचाहा फल मिलता है।

व्याख्या
असमय परे रहीम कहि, माँगि जात तजि लाज।
ज्यों लछमन माँगन गए, पारासर के नाज॥
रहीम कहते हैं कि बुरा समय आने पर, कठिनाई आने पर, मजबूरी में व्यक्ति लज्जा छोड़कर माँग ही लेता है। लक्ष्मण भी विवशता में पाराशर मुनि के पास अनाज माँगने गए थे।

व्याख्या
कहि रहीम संपत्ति सगे, बनत बहुत बहु रीत।
बिपति कसौटी जे कसे, तेई साँचे मीत॥
जो बड़ेन को लघु कहें, नहिं रहीम घटि जाँहि।
गिरधर मुरलीधर कहे, कछु दुख मानत नाहिं॥
रहीम कहते हैं कि बड़े लोगों को अगर छोटा भी कह दिया जाए तो भी वे बुरा नहीं मानते। जैसे गिरधर (गिरि को धारण करने वाले कृष्ण) को मुरलीधर भी कहा जाता है लेकिन कृष्ण की महानता पर इसका कोई फ़र्क नहीं पड़ता।

व्याख्या
जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग।
चंदन विष व्यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग॥
रहीम कहते हैं कि जो व्यक्ति अच्छे स्वभाव का होता है,उसे बुरी संगति भी बिगाड़ नहीं पाती। जैसे ज़हरीले साँप चन्दन के वृक्ष से लिपटे रहने पर भी उस पर कोई ज़हरीला प्रभाव नहीं डाल पाते।

व्याख्या
अंड न बौड़ रहीम कहि, देखि सचिक्कन पान।
हस्ती-ढक्का, कुल्हड़िन, सहैं ते तरुवर आन॥
रहीम कहते हैं कि अच्छे वृक्ष की जड़, तना, डालियाँ या सुंदर पत्तों का ही महत्त्व नहीं होता है बल्कि वह हाथी के प्रहार तथा कुल्हाड़ियों की चोट को कितना सहन करता है, यह भी देखना चाहिए। क्योंकि इसी से उसकी श्रेष्ठता सिद्ध होती है।

व्याख्या
रहिमन निज संपति बिना, कोउ न बिपति सहाय।
बिनु पानी ज्यों जलज को, नहिं रवि सके बचाय॥
अमृत ऐसे वचन में, रहिमन रिस की गाँस।
जैसे मिसिरिहु में मिली, निरस बाँस की फाँस॥
अमृत जैसे मधुर वचनों में क्रोध गाँठ या बाधा का काम करता है। वह उसी प्रकार बुरा लगता है जिस प्रकार मिश्री में मिली हुई नीरस बाँस की फाँस बुरी लगती है।

व्याख्या
नाद रीझि तन देत मृग, नर धन हेत समेत।
ते रहीम पशु से अधिक, रीझेहु कछू न देत॥
रहिमन बिपदाहू भली, जो थोरे दिन होय।
हित अनहित या जगत में, जानि परत सब कपाल॥
करत निपुनई गुन बिना, रहिमन निपुन हजूर।
मानहु टेरत बिटप चढ़ि, मोहि समान को कूर॥
कवि रहीम कहते हैं कि स्वयं गुणों से रहित होने अर्थात अवगुणी होने पर भी जो गुणियों के समक्ष चतुराई दिखाने की कोशिश करता है, तो उसकी पोल खुल जाती है और वह पकड़ा जाता है। उसका यह प्रयास ऐसा होता है कि मानो वह वृक्ष पर चढ़कर अपने पाखंडी होने की घोषणा कर रहा हो, स्वयं को चिल्ला-चिल्लाकर बेवक़ूफ़ बता रहा हो।

व्याख्या
कमला थिर न रहीम कहि, लखत अधम जे कोय।
प्रभु की सो अपनी कहै, क्यों न फजीहत होय।।
रहीम कहते हैं कि लक्ष्मी कहीं स्थिर नहीं रहती! मूर्ख जनों को ही ऐसा लगता है कि वह उनके घर में स्थिर होकर बैठ गई है। उस मूर्ख की फ़ज़ीहत कैसे नहीं होगी जो लक्ष्मी को (जो नारायण की अर्धांगिनी है) अपनी मानकर चलेगा!

व्याख्या
दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखै न कोय।
जो रहीम दिनहिं लखै, दीनबंधु सम होय।।
रहीम कहते हैं कि ग़रीब सबकी ओर देखता है, पर ग़रीब को कोई नहीं देखता। जो ग़रीब को प्रेम से देखता है, उससे प्रेम-पूर्ण व्यवहार करता है और उसकी मदद करता है, वह दीनबंधु भगवान के समान हो जाता है।

व्याख्या
नैन सलोने अधर मधु, कहि रहीम घटि कौन।
मीठो भावै लोन पर, अरु मीठे पर लौन॥
रहीम कहते हैं कि नायिका की आँखें सलोनी (नमकीन) हैं और होंठ मधुर हैं। दोनों में कोई किसी से कमतर नहीं बल्कि दोनों ही शोभादायक हैं। मीठे (अधरों) पर नमकीन (नयन) प्रीतिकर है और नमकीन (नयनों) पर (अधरों की) मिठास।

व्याख्या
कमला थिर न रहीम कहि, यह जानत सब कोय।
पुरुष पुरातन की बधू, क्यों न चंचला होय।।
रहीम कहते हैं कि लक्ष्मी कहीं स्थिर नहीं रहती! यह सब जानते हैं। लक्ष्मी पुरातन (अपने से बड़ी उम्र के) पुरुष की पत्नी है, चंचल क्यों नहीं होगी? इसका यह भी अर्थ हो सकता है कि लक्ष्मी नारायण की अर्धांगिनी है, वह पूरी सृष्टि के कर्ता-धर्ता की पत्नी है, उस पर किसका वश हो सकता है!

व्याख्या
पावस देखि रहीम मन, कोइल साधे मौन।
अब दादुर बक्ता भए, हमको पूछत कौन॥
वर्षा ऋतु को देखकर कोयल और रहीम के मन ने मौन साध लिया है। अब तो मेंढक ही बोलने वाले हैं। हमारी तो कोई बात ही नहीं पूछता। अभिप्राय यह है कि कुछ अवसर ऐसे आते हैं जब गुणवान को चुप रह जाना पड़ता है, उनका कोई आदर नहीं करता और गुणहीन वाचाल व्यक्तियों का ही बोलबाला हो जाता है।

व्याख्या
तरुवर फल नहिं खात हैं, सरवर पियहिं न पान।
कहि रहीम पर काज हित, संपति सँचहि सुजान॥
रहीम कहते हैं कि परोपकारी लोग परहित के लिए ही संपत्ति को संचित करते हैं। जैसे वृक्ष फलों का भक्षण नहीं करते हैं और ना ही सरोवर जल पीते हैं बल्कि इनकी सृजित संपत्ति दूसरों के काम ही आती है।

व्याख्या
धनि रहीम जल पंक को लघु जिय पिअत अघाय।
उदधि बड़ाई कौन है, जगत पिआसो जाय॥
रहिमन वे नर मर चुके, जे कहुँ माँगन जाहिं।
उनते पहिले वे मुए, जिन मुख निकसत नाहिं॥
भीख माँगना मरने से बदतर है। इसी संदर्भ में रहीम कहते हैं कि जो मनुष्य भीख माँगने की स्थिति में आ गया अर्थात् जो कहीं माँगने जाता है, वह मरे हुए के समान है। वह मर ही गया है लेकिन जो व्यक्ति माँगने वाले को किसी वस्तु के लिए ना करता है अर्थात उत्तर देता है, वह माँगने वाले से पहले ही मरे हुए के समान है।

व्याख्या
टूटे सुजन मनाइए, जौ टूटे सौ बार।
रहिमन फिरि फिरि पोहिए, टूटे मुक्ताहार॥
स्वजन (सज्जन) कितनी ही बार रूठ जाएँ, उन्हें बार-बार मनाना चाहिए। जैसे मोती की माला अगर टूट जाए तो उन मोतियों को फेंक नहीं देते, बल्कि उन्हें वापस माला में पिरो लेते हैं। क्योंकि सज्जन लोग मोतियों के समान होते हैं।

व्याख्या
छिमा बड़न को चाहिए, छोटेन को उतपात।
का रहिमन हरि को घट्यो, जो भृगु मारी लात॥
रहीम कहते हैं कि क्षमा बड़प्पन का स्वभाव है और उत्पात छोटे और ओछे लोगों की प्रवृति। भृगु ऋषि ने भगवान विष्णु को लात मारी, विष्णु ने इस कृत्य पर भृगु को क्षमा कर दिया। इससे विष्णु का क्या बिगड़ा! क्षमा बड़प्पन की निशानी है।

व्याख्या
जहाँ गाँठ तहँ रस नहीं, यह रहीम जग जोय।
मँड़ए तर की गाँठ में, गाँठ गाँठ रस होय॥
रहीम कहते हैं कि निजी संबंधों में जहाँ गाँठ होती है, वहाँ प्रेम या मिठास नहीं होती है लेकिन शादी के मंडप में बाँधी गई गाँठ के पोर-पोर में प्रेम-रस भरा होता है।

व्याख्या
जे सुलगे ते बुझि गए, बुझे ते सुलगे नाहिं।
रहिमन दाहे प्रेम के, बुझि बुझि कै सुलगाहिं॥
रहीम कहते हैं कि आग से जलकर लकड़ी सुलग-सुलगकर बुझ जाती है, बुझकर वह फिर सुलगती नहीं। लेकिन प्रेम की आग में दग्ध हो जाने पर प्रेमी बुझकर भी सुलगते रहते हैं।

व्याख्या
कहु रहीम कैसे निभै, बेर केर को संग।
वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग॥
रहीम कहते हैं कि दो विपरीत प्रवृत्ति के लोग एक साथ नहीं रह सकते। यानी दुर्जन-सज्जन एक साथ नहीं रह सकते। यदि साथ रहें तो हानि सज्जन की होती है, दुर्जन का कुछ नहीं बिगड़ता। कवि ने इस बात की पुष्टि करते हुए कहा है कि बेर और केले के पेड़ आसपास उगे हों तो उनकी संगत कैसे निभ सकती है? दोनों का अलग-अलग स्वभाव है। बेर के पेड़ में काँटे होते हैं तो केले का पेड़ नरम होता है। हवा के झोंकों से बेर की डालियाँ मस्ती में हिलती-डुलती हैं तो केले के पेड़ का अंग-अंग छिल जाता है।

व्याख्या
कदली, सीप, भुजंग-मुख, स्वाति एक गुन तीन।
जैसी संगति बैठिए, तैसोई फल दीन॥
रहीम कहते हैं कि स्वाति-नक्षत्र की वर्षा की बूँद तो एक ही हैं, पर उसका गुण संगति के अनुसार बदलता है। कदली में पड़ने से उस बूँद की कपूर बन जाती है, अगर वह सीप में पड़ी तो मोती बन जाती है तथा साँप के मुँह में गिरने से उसी बूँद का विष बन जाता है। इंसान भी जैसी संगति में रहेगा, उसका परिणाम भी उस वस्तु के अनुसार ही होगा।

व्याख्या
रहिमन अब वे बिरछ कहँ, जिनकी छाँह गँभीर।
बागन बिच बिच देखिअत, सेंहुड़, कुँज, करीर॥
रहीम कहते हैं कि वे पेड़ आज कहाँ, जिनकी घनी छाया होती थी! अब तो इस संसार रूपी बाग़ में काँटेदार सेंहुड़, कटीली झाड़ियाँ और करील देखने में आते हैं। कहने का भाव यह है कि सज्जन और परोपकारी लोग अब नहीं रहे, जो अपने सद्कर्मों से इस जगत को सुखी रखने का जतन करते थे। अब तो ओछे लोग ही अधिक मिलते हैं जो सुख नहीं, दु:ख ही देते हैं।

व्याख्या
रहिमन जिह्वा बावरी, कहि गई सरग पताल।
आपु तो कहि भीतर रही, जूती खात कपाल॥
रहिमन छोटे नरन सों, होत बड़ो नहीं काम।
मढ़ो दमामो ना बने, सौ चूहे के चाम॥
रहीम कहते हैं कि ओछे आदमी से बड़े काम नहीं हो सकते। उनसे यह आशा रखना नितांत व्यर्थ है कि वे किसी काम में सहायक सिद्ध होंगे। यदि नगाड़े पर चमड़ा मढ़ना हो तो उसे मढ़ने के लिए बड़े पशु का चाम ही काम आएगा जबकि सौ चूहों का चाम भी किसी काम का साबित नहीं होता।

व्याख्या
रहिमन बिद्या बुद्धि नहिं, नहीं धरम, जस, दान।
भू पर जनम वृथा धरै, पसु बिनु पूँछ बिषान॥
रहीम कहते हैं कि जिसमें बुद्धि नहीं और जिसने विद्या नहीं पाई, जिसने धर्म और दान नहीं किया और इस संसार में आकर यश नहीं कमाया; उस व्यक्ति ने व्यर्थ जन्म लिया और वह धरती पर बोझ है। विद्या विहीन व्यक्ति और पशु में सिर्फ़ पूँछ का फ़र्क होता है। यानी ऐसा व्यक्ति बिना पूँछ का पशु होता है।

व्याख्या
ओछो काम बड़े करैं तौ न बड़ाई होय।
ज्यों रहीम हनुमंत को, गिरधर कहै न कोय॥
रहीम कहते हैं कि कोई बड़ा आदमी कोई छोटा काम करे, तो उसका नाम-यश नहीं होता है। जैसे हनुमान ने पूरा पर्वत उठा लिया था, लेकिन उन्हें कोई गिरिधर नहीं कहता। हनुमान समर्थ हैं, एक क्या दस पर्वत उठा लें। बात तो तब है, जब कोई कम क्षमता के बावजूद बड़ा काम करके दिखा दे। तात्पर्य यह है कि हनुमान के लिए पर्वत उठाना सामान्य बात थी। लेकिन बाल-कृष्ण ने जब गोवर्धन उठाया तो सब उसे गिरधर के नाम से पुकारने लगे।

व्याख्या
सदा नगारा कूच का, बाजत आठों जाम।
रहिमन या जग आइ कै, को करि रहा मुकाम॥
आठों पहर कूच करने का नगाड़ा बजता रहता है। यानी हर वक़्त मृत्यु सक्रिय है, कोई न कोई मर ही रहा है। यही सत्य है। रहीम कहते हैं कि इस नश्वर संसार में आकर कौन अमर हुआ है!

व्याख्या
रहिमन मोहि न सुहाय, अमी पिआवै मान बिनु।
बरु, विष देय बुलाय, मान सहित मरिबो भलो॥
रहीम कहते हैं कि बिना मान-सम्मान के अगर कोई अमृत भी पिलाए तो भी मुझे नहीं रुचता है। भले ही मान सहित घर बुलाकर कोई ज़हर पिला दे, वह स्वीकार है। इज़्ज़त से तो मरना भी भला होता है।

व्याख्या
थोथे बादर क्वार के, ज्यों रहीम घहरात।
धनी पुरुष निर्धन भए, करें पाछिली बात॥
जाल परे जल जात बहि, तजि मीनन को मोह।
रहिमन मछरी नीर को तऊ न छाँड़ति छोह॥
धरती की-सी रीत है, सीत घाम औ मेह।
जैसी परे सो सहि रहे, त्यों रहीम यह देह॥
ए रहीम दर दर फिरहिं, माँगि मधुकरी खाहिं।
यारो यारी छोड़िये वे रहीम अब नाहिं॥
कवि रहीम कहते हैं कि अब वैभवहीन होने से जगह-जगह घूम-फिरकर भिक्षा माँगकर पेट-पालन हो रहा है। इसलिए हे मित्रो! अब मुझसे मित्रता मत रखो, क्योंकि पहले वाला धन-वैभवशाली रहीम अब नहीं रहा।

व्याख्या
अंजन दियो तो किरकिरी, सुरमा दियो न जाय।
जिन आँखिन सों हरि लख्यो, रहिमन बलि बलि जाय॥
कवि रहीम कहते हैं कि इन आँखों में काजल और सुरमा लगाने से कोई फ़ायदा नहीं है। मैंने तो जब से इन आँखों में ईश्वर को बसा लिया है एवं इनसे ईश्वर के दर्शन किए हैं, तब से मैं धनी हो गया हूँ। अर्थात् व्यर्थ के सौन्दर्य-प्रसाधन छोड़कर अपने नेत्रों में ईश्वर को बसाइए, यह जीवन धनी हो जाएगा।

व्याख्या
एक उदर दो चोंच है, पंछी एक कुरंड।
कहि रहीम कैसे जिए, जुदे जुदे दो पिंड॥
कुरंड पक्षी की दो चोंच और एक पेट होता है। इससे उसे ही परेशानी होती है। जिनके दो अलग-अलग शरीर ही हों, वे तो कैसे जीवित रह सकते हैं! रहीम कहते हैं कि पेट भरने, जीवन-निर्वाह की समस्या तो है ही। जिनके ख़र्च अधिक हों, उनके लिए तो और कठिनाई होगी।

व्याख्या
चित्रकूट में रमि रहे, रहिमन अवध-नरेस।
जा पर बिपदा पड़त है, सो आवत यह देस॥
बिंदु मों सिंधु समान को अचरज कासों कहै।
हेरनहार हेरान, रहिमन अपुने आप तें॥
रहीम कहते हैं कि अचरज की यह बात कौन कहे और किससे कहे! एक बूँद में ही पूरा सागर समा गया! खोजने वाला (आत्मा) अपने आप में खो गया। भ्रम का पर्दा हटते ही न खोजने वाला रहा और न वह, जिसे खोजा जा रहा था। दोनों एक हो गए। वस्तुतः भ्रम ही था जो अपने भीतर बसे परमात्मा को अलग देख रहा था। खोजने वाला इस बात से हैरान है कि जिसे बाहर ढूँढ़ रहा था, वह तो मेरे भीतर ही है।

व्याख्या
आवत काज रहीम कहि, गाढ़े बंधु सनेह।
जीरन होत न पेड़ ज्यौं, थामे बरै बरेह॥
गाढ़े समय पर, विपदा के समय स्नेही बंधु ही काम आते हैं। जैसे बरगद अपनी जटाओं के द्वारा सहारा मिलने से कभी जीर्ण अथवा कमज़ोर नहीं होता है। अर्थात् बरगद का पेड़ ज़मीन तक लटकने वाली अपनी जटाओं से धरती से पोषक तत्त्व लेकर सदा नया बना रहता है।

व्याख्या
ऊगत जाही किरन सों अथवत ताही काँति।
त्यौं रहीम सुख दुख सवै, बढ़त एक ही भाँति॥
रहीम कहते हैं कि सूर्य जिन किरणों के साथ उदित होता है, उन्हीं किरणों के साथ अस्त हो जाता है। उसकी कांति गायब, लुप्त हो जाती है। उसी प्रकार सुख और दुःख दोनों एक ही तरह से बढ़ा करते हैं अर्थात सुख एवं दुःख का क्रम सदा बना रहता है।

व्याख्या
खैर, ख़ून, खाँसी, खुसी, बैर, प्रीति, मदपान।
रहिमन दाबे ना दबैं, जानत सकल जहान॥
रहीम कहते हैं कि सारी दुनिया जानती है कि खैर (कत्थे का दाग़), ख़ून, खाँसी, ख़ुशी, दुश्मनी, प्रेम और शराब का नशा; ये चीज़ें ना तो दबाने से दबती हैं और ना छिपाने से छिपती हैं।

व्याख्या
दीरघ दोहा अरथ के, आखर थोरे आहिं।
ज्यों रहीम नट कुंडली, सिमिटि कूदि चढ़ि जाहिं॥
जो रहीम ओछो बढ़ै, तौ अति ही इतराय।
प्यादे सों फरजी भयो, टेढ़ो टेढ़ो जाय॥
रहीम कहते हैं कि ओछे लोग जब प्रगति करते हैं तो बहुत इतराते हैं। वैसे ही जैसे शतरंज की बिसात में प्यादा बहुत अहमियत नहीं रखता लेकिन वही प्यादा जब फरजी बन जाता है तो वह टेढ़ी चाल चलने लगता है।
व्याख्या

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