श्रीकृष्ण सरल की कविताएँ
1. भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के बलिदान
आज लग रहा कैसा जी को कैसी आज घुटन है
दिल बैठा सा जाता है, हर साँस आज उन्मन है
बुझे बुझे मन पर ये कैसी बोझिलता भारी है
क्या वीरों की आज कूच करने की तैयारी है?
हाँ सचमुच ही तैयारी यह, आज कूच की बेला
माँ के तीन लाल जाएँगे, भगत न एक अकेला
मातृभूमि पर अर्पित होंगे, तीन फूल ये पावन,
यह उनका त्योहार सुहावन, यह दिन उन्हें सुहावन।
फाँसी की कोठरी बनी अब इन्हें रंगशाला है
झूम झूम सहगान हो रहा, मन क्या मतवाला है।
भगत गा रहा आज चले हम पहन वसंती चोला
जिसे पहन कर वीर शिवा ने माँ का बंधन खोला।
झन झन झन बज रहीं बेड़ियाँ, ताल दे रहीं स्वर में
झूम रहे सुखदेव राजगुरु भी हैं आज लहर में।
नाच नाच उठते ऊपर दोनों हाथ उठाकर,
स्वर में ताल मिलाते, पैरों की बेड़ी खनकाकर।
पुनः वही आलाप, रंगें हम आज वसंती चोला
जिसे पहन राणा प्रताप वीरों की वाणी बोला।
वही वसंती चोला हम भी आज खुशी से पहने,
लपटें बन जातीं जिसके हित भारत की माँ बहनें।
उसी रंग में अपने मन को रँग रँग कर हम झूमें,
हम परवाने बलिदानों की अमर शिखाएँ चूमें।
हमें वसंती चोला माँ तू स्वयं आज पहना दे,
तू अपने हाथों से हमको रण के लिए सजा दे।
सचमुच ही आ गया निमंत्रण लो इनको यह रण का,
बलिदानों का पुण्य पर्व यह बन त्योहार मरण का।
जल के तीन पात्र सम्मुख रख, यम का प्रतिनिधि बोला,
स्नान करो, पावन कर लो तुम तीनो अपना चोला।
झूम उठे यह सुनकर तीनो ही अल्हण मर्दाने,
लगे गूँजने और तौव्र हो, उनके मस्त तराने।
लगी लहरने कारागृह में इंक्लाव की धारा,
जिसने भी स्वर सुना वही प्रतिउत्तर में हुंकारा।
खूब उछाला एक दूसरे पर तीनों ने पानी,
होली का हुड़दंग बन गई उनकी मस्त जवानी।
गले लगाया एक दूसरे को बाँहों में कस कर,
भावों के सब बाँढ़ तोड़ कर भेंटे वीर परस्पर।
मृत्यु मंच की ओर बढ़ चले अब तीनो अलबेले,
प्रश्न जटिल था कौन मृत्यु से सबसे पहले खेले।
बोल उठे सुखदेव, शहादत पहले मेरा हक है,
वय में मैं ही बड़ा सभी से, नहीं तनिक भी शक है।
तर्क राजगुरु का था, सबसे छोटा हूँ मैं भाई,
छोटों की अभिलषा पहले पूरी होती आई।
एक और भी कारण, यदि पहले फाँसी पाऊँगा,
बिना बिलम्ब किए मैं सीधा स्वर्ग धाम जाऊँगा।
बढ़िया फ्लैट वहाँ आरक्षित कर तैयार मिलूँगा,
आप लोग जब पहुँचेंगे, सैल्यूट वहाँ मारूँगा।
पहले ही मैं ख्याति आप लोगों की फैलाऊँगा,
स्वर्गवासियों से परिचय मैं बढ, चढ़ करवाऊँगा।
तर्क बहुत बढ़िया था उसका, बढ़िया उसकी मस्ती,
अधिकारी थे चकित देख कर बलिदानी की हस्ती।
भगत सिंह के नौकर का था अभिनय खूब निभाया,
स्वर्ग पहुँच कर उसी काम को उसका मन ललचाया।
भगत सिंह ने समझाया यह न्याय नीति कहती है,
जब दो झगड़ें, बात तीसरे की तब बन रहती है।
जो मध्यस्त, बात उसकी ही दोनों पक्ष निभाते,
इसीलिए पहले मैं झूलूं, न्याय नीति के नाते।
यह घोटाला देख चकित थे, न्याय नीति अधिकारी,
होड़ा होड़ी और मौत की, ये कैसे अवतारी।
मौत सिद्ध बन गई, झगड़ते हैं ये जिसको पाने,
कहीं किसी ने देखे हैं क्या इन जैसे दीवाने?
मौत, नाम सुनते ही जिसका, लोग काँप जाते हैं,
उसको पाने झगड़ रहे ये, कैसे मदमाते हें।
भय इनसे भयभीत, अरे यह कैसी अल्हण मस्ती,
वन्दनीय है सचमुच ही इन दीवानो की हस्ती।
मिला शासनादेश, बताओ अन्तिम अभिलाषाएँ,
उत्तर मिला, मुक्ति कुछ क्षण को हम बंधन से पाएँ।
मुक्ति मिली हथकड़ियों से अब प्रलय वीर हुंकारे,
फूट पड़े उनके कंठों से इन्क्लाब के नारे ।
इन्क्लाब हो अमर हमारा, इन्क्लाब की जय हो,
इस साम्राज्यवाद का भारत की धरती से क्षय हो।
हँसती गाती आजादी का नया सवेरा आए,
विजय केतु अपनी धरती पर अपना ही लहराए।
और इस तरह नारों के स्वर में वे तीनों डूबे,
बने प्रेरणा जग को, उनके बलिदानी मंसूबे।
भारत माँ के तीन सुकोमल फूल हुए न्योछावर,
हँसते हँसते झूल गए थे फाँसी के फंदों पर।
हुए मातृवेदी पर अर्पित तीन सूरमा हँस कर,
विदा हो गए तीन वीर, दे यश की अमर धरोहर।
अमर धरोहर यह, हम अपने प्राणों से दुलराएँ,
सिंच रक्त से हम आजादी का उपवन महकाएँ।
जलती रहे सभी के उर में यह बलिदान कहानी,
तेज धार पर रहे सदा अपने पौरुष का पानी।
जिस धरती बेटे हम, सब काम उसी के आएँ,
जीवन देकर हम धरती पर, जन मंगल बरसाएँ।
(क्रान्ति गंगा)
2. धरा की माटी बहुत महान
धरा है हमको मातृ समान
धरा की माटी बहुत महान
स्वर्ण चाँदी माटी के रूप
विलक्षण इसके रूप अनेक
इसी में घुटनों घुटनों चले
साधु संन्यासी तपसी भूप
इसी माटी में स्वर्ण विहान
इसी में जीवन का अवसान
धरा की माटी बहुत महान
धरा की माटी में वरदान
धरा की माटी में सम्मान
धरा की माटी में आशीष
धरा की माटी में उत्थान
धरा की माटी में अनुरक्ति
सफलता का निश्चित सोपान
धरा की माटी बहुत महान
धरा देती है हमको अन्न
धरा रखती है हमें प्रसन्न
धरा ही देती अपना साथ
अगर हो जाते कभी विपन्न
धरा की सेवा अपना धर्म
धरा अपनी सच्ची पहचान
धरा की माटी बहुत महान
3. जियो या मरो, वीर की तरह
जियो या मरो, वीर की तरह।
चलो सुरभित समीर की तरह।
जियो या मरो, वीर की तरह।
वीरता जीवन का भूषण
वीर भोग्या है वसुंधरा
भीरुता जीवन का दूषण
भीरु जीवित भी मरा-मरा
वीर बन उठो सदा ऊँचे,
न नीचे बहो नीर की तरह।
जियो या मरो, वीर की तरह।
भीरु संकट में रो पड़ते
वीर हँस कर झेला करते
वीर जन हैं विपत्तियों की
सदा ही अवहेलना करते
उठो तुम भी हर संकट में,
वीर की तरह धीर की तरह।
जियो या मरो, वीर की तरह।
वीर होते गंभीर सदा
वीर बलिदानी होते हैं
वीर होते हैं स्वच्छ हृदय
कलुष औरों का धोते हैं
लक्ष-प्रति उन्मुख रहो सदा
धनुष पर चढ़े तीर की तरह।
जियो या मरो, वीर की तरह।
वीर वाचाल नहीं होते
वीर करके दिखलाते हैं
वीर होते न शाब्दिक हैं
भाव को वे अपनाते हैं
शब्द में निहित भाव समझो,
रटो मत उसे कीर की तरह।
जियो या मरो वीर की तरह।
4. देश के सपने फूलें फलें
देश के सपने फूलें फलें
प्यार के घर घर दीप जले
देश के सपने फूलें फलें
देश को हमें सजाना है
देश का नाम बढ़ाना है
हमारे यत्न, हमारे स्वप्न,
बाँह में बाँह डाल कर चलें
देश के सपने फूलें फलें
देश की गौरव वृद्धि करें
प्रगति पथ पर समृद्धि करें
नहीं प्राणों की चिंता हो
नहीं प्रण से हम कभी टलें
देश के सपने फूलें फलें
साधना के तप में हम तपें
देश के हित चिन्तन में खपें
कर्म गंगा बहती ही रहे
निरन्तर हिम जैसे हम गलें
देश के सपने फूलें फलें
हमारी साँसों में लय हो
हमारी धरती की जय हो
साधना के प्रिय साँचे में
हमारे शुभ संकल्प ढलें
देश के सपने फूलें फलें
5. शहीद
देते प्राणों का दान देश के हित शहीद
पूजा की सच्ची विधि वे ही अपनाते हैं,
हम पूजा के हित थाल सजाते फूलों का
वे अपने हाथों, अपने शीष चढ़ाते हैं।
जो हैं शहीद, सम्मान देश का होते वे
उत्प्रेरक होतीं उनसे कई पीढ़ियाँ हैं,
उनकी यादें, साधारण यादें नहीं कभी
यश गौरव की मंज़िल के लिए सीढ़ियाँ हैं।
कर्त्तव्य राष्ट्र का होता आया यह पावन
अपने शहीद वीरों का वह जयगान करे,
सम्मान देश को दिया जिन्होंने जीवन दे
उनकी यादों का राष्ट्र सदा सम्मान करे।
जो देश पूजता अपने अमर शहीदों को
वह देश, विश्व में ऊँचा आदर पाता है,
वह देश हमेशा ही धिक्कारा जाता, जो
अपने शहीद वीरों की याद भुलाता है।
प्राणों को हमने सदा अकिंचन समझा है
सब कुछ समझा हमने धरती की माटी को,
जिससे स्वदेश का गौरव उठे और ऊँचा
जीवित रक्खा हमने उस हर परिपाटी को।
चुपचाप दे गए प्राण देश-धरती के हित
हैं हुए यहाँ ऐसे भी अगणित बलिदानी,
कब खिले, झड़े कब, कोई जान नहीं पाया
उन वन-फूलों की महक न हमने पहचानी।
यह तथ्य बहुत आवश्यक है हम सब को ही
सोचें, खाना-पीना ही नहीं ज़िंदगी है,
हम जिएँ देश के लिए, देश के लिए मरें
बन्दगी वतन की हो, वह सही बन्दगी है।
क्या बात करें उनकी, जो अपने लिए जिए
वे हैं प्रणम्य, जो देशधरा के लिए मरे,
वे नहीं, मरी केवल उनकी भौतिकता ही
सदियों के सूखेपन में भी वे हरे-भरे।
वे हैं शहीद, लगता जैसे वे यहीं-कहीं
यादों में हर दम कौंध-कौंध जाते हैं वे,
जब कभी हमारे कदम भटकने लगते हैं
तो सही रास्ता हमको दिखलाते हैं वे।
हमको अभीष्ट यदि, बलिदानी फिर पैदा हों
बलिदान हुए जो, उनको नहीं भुलाएँ हम,
सिर देने वालों की पंक्तियाँ खड़ी होंगी
उनकी यादें साँसों पर अगर झुलाएँ हम।
जीवन शहीद का व्यर्थ नहीं जाया करता
मर रहे राष्ट्र को वह जीवन दे जाता है,
जो किसी शत्रु के लिए प्रलय बन सकता है
वह जन-जन को ऐसा यौवन दे जाता है।
6. देश से प्यार
जिसे देश से प्यार नहीं हैं
जीने का अधिकार नहीं हैं।
जीने को तो पशु भी जीते
अपना पेट भरा करते हैं
कुछ दिन इस दुनिया में रह कर
वे अन्तत: मरा करते हैं।
ऐसे जीवन और मरण को,
होता यह संसार नहीं है
जीने का अधिकार नहीं हैं।
मानव वह है स्वयं जिए जो
और दूसरों को जीने दे,
जीवन-रस जो खुद पीता वह
उसे दूसरों को पीने दे।
साथ नहीं दे जो औरों का
क्या वह जीवन भार नहीं है?
जीने का अधिकार नहीं हैं।
साँसें गिनने को आगे भी
साँसों का उपयोग करो कुछ
काम आ सके जो समाज के
तुम ऐसा उद्योग करो कुछ।
क्या उसको सरिता कह सकते
जिसमें बहती धार नहीं है ?
जीने का अधिकार नहीं हैं।
7. सैनिक
मारने और मरने का काम कौन लेता
यह कठिन काम जो करता, वह सैनिक होता,
जैसे चाहे, जब चाहे मौत चली आए
जो नहीं तनिक भी डरता, वह सैनिक होता।
यह नहीं कि वह वेतनभोगी ही होता है
वह मातृभूमि का होता सही पुजारी है,
अर्चन के हित अपने जीवन को दीप बना
उसने माँ की आरती सदैव उतारी है।
पैसा पाने के लिए कौन जीवन देगा
जीवन तो धरती माँ के लिए दिया जाता,
धरती के रखवाले सैनिक के द्वारा ही
है जीवन का सच्चा सम्मान किया जाता।
यह नहीं कि वह अपनी ही कुर्बानी देता
दुख के सागर में वह परिवार छोड़ जाता,
जब अपनी धरती-माता की सुनता पुकार
तिनके जैसे सारे सम्बन्ध तोड़ जाता।
सैनिक, सैनिक होता है, वह कुछ और नहीं
वह नहीं किसी का भाई पुत्र और पति है,
कर्त्तव्यसजग प्रहरी वह धरती माता का
जो पुरस्कार उसका सर्वोच्च, वीर-गति है।
सैनिक का रिश्ता होता अपनी धरती से
वह और सभी रिश्तों से ऊपर होता है,
जब जाग रहा होता सैनिक, हम सोते हैं
वह हमें जगाने, चिर्रनिद्रा में सोता है।
8. प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है
प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है,
मार्ग वह हमें दिखाती है।
प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है।
नदी कहती है' बहो, बहो
जहाँ हो, पड़े न वहाँ रहो।
जहाँ गंतव्य, वहाँ जाओ,
पूर्णता जीवन की पाओ।
विश्व गति ही तो जीवन है,
अगति तो मृत्यु कहाती है।
प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है।
शैल कहतें है, शिखर बनो,
उठो ऊँचे, तुम खूब तनो।
ठोस आधार तुम्हारा हो,
विशिष्टिकरण सहारा हो।
रहो तुम सदा उर्ध्वगामी,
उर्ध्वता पूर्ण बनाती है।
प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है।
वृक्ष कहते हैं खूब फलो,
दान के पथ पर सदा चलो।
सभी को दो शीतल छाया,
पुण्य है सदा काम आया।
विनय से सिद्धि सुशोभित है,
अकड़ किसकी टिक पाती है।
प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है।
यही कहते रवि शशि चमको,
प्राप्त कर उज्ज्वलता दमको।
अंधेरे से संग्राम करो,
न खाली बैठो, काम करो।
काम जो अच्छे कर जाते,
याद उनकी रह जाती है।
प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है।
9. प्रेम की पावन धारा है
प्रेम की पावन धारा है,
प्रेम दीपक मन मन्दिर का।
आत्मा का उजियारा है,
प्रेम की पावन धारा है।
प्रेम से हृदय स्वच्छ होता है,
प्रेम है पाप कलुष धोता है।
प्रेम संबल है जीवन का,
प्रेम ने विश्व सँवारा है।
प्रेम की पावन धारा है।
प्रेम उन्नति का साधन है,
प्रेम का हर क्षण पावन है।
प्रेम के बिना दिव्य जीवन,
सिंधु जल जैसा खारा है।
प्रेम की पावन धारा है।
प्रेम जीवन तरणी खेता,
प्रेम प्रतिदान नहीं लेता।
प्रेम प्रेरक शुभ कर्मों का,
प्रेममय यह जग सारा है।
प्रेम की पावन धारा है।
प्रेम, यह जग की भाषा है,
प्रेम, सबकी अभिलाषा है।
प्रेम ने पातक धोए है,
धरा पर स्वर्ग उतारा है।
प्रेम की पावन धारा है।
10. मत ठहरो
मत ठहरो, तुमको चलना ही चलना है
चलने के प्रण से तुम्हें नहीं टलना है
मत ठहरो, तुमको चलना ही चलना है।
केवल गति ही जीवन विश्रान्ति पतन है,
तुम ठहरे, तो समझो ठहरा जीवन है।
जब चलने का व्रत लिया ठहरना कैसा?
अपने हित सुख की खोज, बड़ी छलना है
मत ठहरो, तुमको चलना ही चलना है।
तुम चलो, ज़माना अपने साथ चलाओ,
जो पिछड़ गए हैं आगे उन्हें बढ़ाओ
तुमको प्रतीक बनना है विश्वप्रगति का
तुमको जन हित के साँचे में ढलना है
मत ठहरो, तुमको चलना ही चलना है।
बाधाएँ, असफलताएँ तो आती हैं
दृढ़ निश्चय लख, वे स्वयं चली जाती हैं
जितने भी रोड़े मिलें, उन्हें ठुकराओ
पथ के काँटो को पैंरो से दलना है
मत ठहरो, तुमको चलना ही चलना है।
जो कुछ करना है, उठो! करो! जुट जाओ!
जीवन का कोई क्षण, मत व्यर्थ गँवाओ
कर लिया काम, भज लिया राम, यह सच है
अवसर खोकर तो सदा हाथ मलना है
मत ठहरो, तुमको चलना ही चलना है।
11. आँसू
जो चमक कपोलों पर ढुलके मोती में है
वह चमक किसी मोती में कभी नहीं होती,
सागर का मोती, सागर साथ नहीं लाता
अन्तर उंडेल कर ले आता कपोल मोती।
रोदन से, भारी मन हलका हो जाता है
रोदन में भी आनन्द निराला होता है,
हर आँसू धोता है मन की वेदना प्रखर
ताज़गी और वह हर्ष अनोखा बोता है।
आँसू कपोल पर लुढ़क-लुढ़क जब बह उठते
लगता हिमगिरि से गंगाजल बह उठता है,
हैं कौन-कौन से भाव हृदय में घुमड़ रहे
हर आँसू जैसे यह सब कुछ कह उठता है।
सन्देह नहीं, आँसू पानी तो होते ही
वे तरल आग हैं, और जला सकते हैं वे,
उनमें इतनी क्षमता भूचाल उठा सकते
उनमें क्षमता, पत्थर पिघला सकते हैं वे।
आँसू दुख के ही नही, खुशी के भी होते
जब खुशी बहुत बढ़ जाती, रोते ही बनता,
आधिक्य खुशी का, कहीं न पागल कर डाले
अतिशय खुशियों को, रोकर धोते ही बनता।
भावातिरेक से भी रोना आ जाता है
ऐसे रोदन को कोई रोक नहीं पाता,
रोने वाला, निरुपाय खड़ा रह जाता है
आगमन आँसुओं का, वह रोक नहीं पाता।
जो व्यक्ति फफक कर जीवन में रोया न कभी
उसके जीवन में कुछ अभाव रह जाता है,
दुख प्रकट न हो, भारी अनर्थ होकर रहता
रो पड़ने से, वह सारा दुख बह जाता है।
इतिहास आँसुओं ने रच डाले कई-कई
हो विवश शक्ति उनने अपनी दिखलाई है,
वे रहे महाभारत की संरचना करते
सोने की लंका भी उनने जलवाई है।
12. छोड़ो लीक पुरानी
छोड़ो लीक पुरानी छोड़ो
युग को नई दिशा में मोड़ो
छोड़ो लीक पुरानी छोड़ो
प्रेरक बने अतीत तुम्हारा
नए क्षितिज की ओर चरण हो,
नए लक्ष्य की ओर तुम्हारे
उन्मुख जीवन और मरण हो
रखे बाँध कर जो जीवन को
ऐसे हर बंधन को तोड़ो
छोड़ो लीक पुरानी छोड़ो।
बीत गया सो बीत गया वह
तुमको वर्तमान गढ़ना है
नया ज्ञान उपलब्ध जिधर हो
तुमको उसी ओर बढ़ना है
तुम जीवन के हर अनुभव से
जितना संभव ज्ञान निचोड़ो
छोड़ो, लीक पुरानी छोड़ो।
पास तुम्हारे अपनी संस्कृति
लक्ष्य, नया विज्ञान तुम्हारा,
नया सृजन इस महादेश का
अब यह हो अभियान तुम्हारा
करने पूर्ण नए लक्ष्यों को
सागर लांघों, पर्वत फोड़ो
छोड़ो, लीक पुरानी छोड़ो।
ज्ञान तर्क सम्मत शुभ होता
नहीं अंधविश्वास सुखद है,
ग्रहण करो सभी ज्ञान तुम
जो हितकर, जो तुम्हे सुखद है
ज्ञान श्रेष्ठ संपत्ति सभी की
जितना बने, ज्ञान धन जोड़ो
छोड़ो, लीक पुरानी छोड़ो।
13. जवानी खुद अपनी पहचान
जवानी खुद अपनी पहचान
जवानी की है अद्भुत शान
जवानी खुद अपनी पहचान।
घिसट कर चलता बचपन है
लड़कपन अल्हड़ जीवन है
बुढ़ापा थका-थका चलता
जवानी ऊँची बहुत उड़ान
जवानी खुद अपनी पहचान।
जवानी लपटों का घर है
जवानी पंचम का स्वर है
जवानी सपनों की वय है
जवानी में जाग्रत अरमान
जवानी खुद अपनी पहचान।
जवानी के दिन करने के
जवानी के दिन भरने के
जवानी दिन भूचालों के
जवानी है उठता तूफ़ान
जवानी खुद अपनी पहचान।
जवानी को न गँवाए हम
भला कुछ कर दिखालाएँ हम
जवानी पश्चाताप न हो
जवानी हो संतोष महान
जवानी खुद अपनी पहचान।
14. नेतृत्व
नेता, समाज को है नेतृत्व दिया करता
संकट आएँ, वह उनको स्वयं झेलता है,
वह झोंक नहीं देता लोगों को भट्टी में
खतरे आते, वह उनसे स्वयं खेलता है।
योग्यता अपेक्षित होती है हर नेता में
अपने समाज को सही दिशा में ले जाए,
पहचान समय की नब्ज़, सही निर्णय ले वह
ले सूझबूझ से काम, सफलता वह पाए।
नेतृत्व न रहता पीछे 'बढ़े चलो!' कह कर
नेतृत्व सदा आगे चल कर दिखलाता है,
नेतृत्व न खाता पीछे रह शीतल बयार
वह खाता तो, छाती पर गोली खाता है।
केवल कुछ लोगों को हाँके, नेतृत्व न वह
अपने समाज को दिशा-दान वह देता है,
नेतृत्व न देता लच्छेदारी बातों को
निज आन-बान के लिए जान वह देता है।
पिछलग्गू पैदा कर लेना नेतृत्व नहीं
नेतृत्व नहीं हू-हू कर पत्थर फिकवाता,
नेतृत्व देश के दीवाने पैदा करता
नेतृत्व, लाठियों से अपने सिर सिकवाता।
नेतृत्व देखता देश, देश की खुशहाली
नेतृत्व नहीं देखता स्वयं को, अपनों को,
नेतृत्व, हमेशा खुदी मिटा कर चलता है
पालता नहीं आँखों में सुख के सपनों को।
15. पीड़ा का आनन्द
जो कष्ट दूसरे के हैं ओढ़ लिया करते
वह कष्ट नहीं होता, आनन्द कहलाता है,
कहने वाले कहते, वह पीड़ा भुगत रहा
उस पीड़ा में भी वह मिठास ही पाता है।
हम व्यक्ति राष्ट्र या फिर समाज के दुख बाँटे
अनुभूति नहीं फिर दुख की कोई भी करता
वह यही गर्व करता, मैं नहीं अकेला हूँ
वह तो सुख का अनुभव करता, जो दुख हरता।
हम अगर किसी का धन बाँटें, दुख पाएँगे
हम कष्ट किसी के बाँटे, मन को सुख होगा
सुख के बाँटे सुख मिलता, दुख के बाँटे दुख
यह नियम प्रकृति का अटल, न कभी विमुख होगा।
16. मुझमें ज्योति और जीवन है
मुझमें ज्योति और जीवन है
मुझमे यौवन ही यौवन है।
मुझमें ज्योति और जीवन है।
मुझे बुझा कर देखे कोई
बुझने वाला दीप नहीं मैं,
जो तट पर मिल जाया करती
ऐसी सस्ती सीप नहीं मैं।
शब्द-शब्द मेरा मोती है,
गहन अर्थ ही सच्चा धन है।
मुझमें ज्योति और जीवन है।।
रुक जाने को चला नहीं मैं
चलते जाना जीवन-क्रम है,
बुझ जाने को जला नहीं मैं
जलते जाना नित्यनियम है।
मैं पर्याय उजाले का हूँ,
अंधियारे से चिर-अनबन है।
मुझमें ज्योति और जीवन है।।
हलकी बहुत मानसिकता यह
शिकवे या शिकायतें करना,
हलकी बहुत मानसिकता यह
हलकेपन पर कभी उतरना।
आने नहीं दिया मैंने यह,
अपने मन में हलकापन है।
मुझमें ज्योति और जीवन है।।
वर्ष, मास, दिन रहा भुनाता
हर क्षण का उपयोग किया है,
तुम हिसाब कर लो, देखोगे
लिया बहुत कम, अधिक दिया है।
यही गणित मेरे जीवन का,
यही रहा मेरा चिन्तन है।
मुझमें ज्योति और जीवन है।।
17. कहो नहीं करके दिखलाओ
कहो नहीं करके दिखलाओ
उपदेशों से काम न होगा
जो उपदिष्ट वही अपनाओ
कहो नहीं, करके दिखलाओ।
अंधकार है! अंधकार है!
क्या होगा कहते रहने से,
दूर न होगा अंधकार वह
निष्क्रिय रहने से सहने से
अंधकार यदि दूर भगाना
कहो नहीं तुम दीप जलाओ
कहो नहीं, करके दिखलाओ।
यह लोकोक्ति सुनी ही होगी
स्वर्ग देखने, मरना होगा
बात तभी मानी जाएगी
स्वयं आचरण करना होगा
पहले सीखो सबक स्वयं
फिर और किसी को सबक सिखाओ।
कहो नहीं, करके दिखलाओ।
कर्म, कर्म के लिए प्रेरणा
होते हैं उपदेश निरर्थक
साधु वृत्ति से मन को माँजो
साधु वेश परिवेश निरर्थक।
दुनिया भली बनेगी पीछे
पहले खुद को भला बनाओ।
कहो नहीं, करके दिखलाओ।।
कथनी है वाचाल कहाती
करनी रहती सदा मौन है,
मौन स्वयं अभिव्यक्ति सबल है
इसे जानता नहीं कौन है।
नहीं सहारा लो कथनी का,
करनी से ही सब समझाओ।
कहो नहीं, करके दिखलाओ।।
18. माँ
इस एक शब्द 'माँ' में है मंत्र–शक्ति भारी
यह मंत्र–शक्ति सबको फलदायी होती है,
आशीष–सुधा माँ देती अपने बच्चों को
वह स्वयं झेलती दुःख, विषपायी होती है।
माँ से कोमल है शब्द–कोश में शब्द नहीं
माँ की ममता से बड़ी न कोई ममता है,
उपमान और उपमाएँ सबकी मिल सकतीं
लेकिन दुनिया में माँ की कहीं न समता है।
यह छोटा–सा 'माँ' शब्द, सिन्धु क्षमताओं का
तप–त्याग–स्नेह से रहता सदा लबालब है,
खारा सागर, माँ की समता क्या कर पाए
माँ की महानता से महान कोई कब है।
हम लोग जिसे ममता कहकर पुकारते हैं
बौनी है वह भी माँ की ममता के सम्मुख,
हम लोग जिसे क्षमता कहकर पुकारते हैं
बौनी है वह भी माँ की ममता के सम्मुख।
माँ की महानता से, महानता बड़ी नहीं
माँ के तप से, होता कोई तप बड़ा नहीं,
साकार त्याग भी माँ के आगे बौना है
माँ के सम्मुख हो सकता कोई खड़ा नहीं।
हैं त्याग–आग अनुराग मातृ–उर में पलते
वर्षा–निदाघ आँखों में पलते आए हैं,
भावना और कर्त्तव्य रहे ताने–बाने
चरमोत्कर्ष ममता – क्षमता ने पाए हैं।
बेटे के तन का रोयाँ भी दुखता देखे
माता आकुल–व्याकुल हो जाया करती है,
जब पुत्र–दान की माँग धरा–माता करती
इस कठिन कसौटी पर माँ खरी उतरती है।
वह धातु अलग, जिससे माँ निर्मित होती है
उसको कैसा भी ताप नहीं पिघला सकता,
हल्के से हल्का ताप पुत्र – पुत्री को हो
माँ के मन के हिम को वह ताप गला सकता|
दुनिया में जितने भी सागर, सब उथले हैं
माता का उर प्रत्येक सिन्धु से गहरा है,
कोई पर्वत, माँ के मन को क्या छू पाए
माँ के सम्मुख कोई उपमान न ठहरा है|
इतनी महानता भारत की माताओं में
अवतारों को भी अपनी गोद खिलाती हैं,
हो राम – कृष्ण गौतम या कोई महावीर
माताएँ हैं, जो उनको पाठ पढ़ाती हैं।
कोई जीजा माँ किसी शिवा को शेर बना
जब समर–भूमि में सह–आशीष पठाती है,
तो बड़े – बड़े योद्धा भी भाग खड़े होते
अरि के खेमों में काई–सी फट जाती है।
कोई जगरानी किसी चन्द्रशेखर को जब
निज दूध पिला जीवन के पाठ पढ़ाती है,
वह दूध खून का फव्वारा बन जाता है
वह मौत, मौत को भी झकझोर रुलाती है|
कोई विद्या माँ, भगत सिंह से बेटे को
जब घोल–घोल घुट्टी में क्रान्ति पिलाती है,
तो उसका शैशव बन्दूकें बोने लगता
बरजोर जवानी फाँसी को ललचाती है।
जब प्रभावती कोई सुभाष से बेटे को
भारत–माता की व्यथा–कथा बतलाती है,
हर साँस और हर धड़कन उस विद्रोही की
धरती की आजादी की बलि चढ़ जाती है।
कोई चाफेकर – माता तीन – तीन बेटे
भारत माता के ऊपर न्योछावर करती,
कहती, चौथा होता तो वह भी दे देती
आँसू न एक गिरता, वह आह नहीं भरती।
तप और त्याग साकार देखना यदि अभीष्ट
तो देखे कोई भारत की माताओं को,
कलियों में किसलय में भी लपटें होती हैं
तो देखे कोई भारत की ललनाओं को।
कर्त्तव्य हमारा, हम माताओं को पूजें
आशीष कवच पाकर उनका, निर्भय विचरें,
हम लाज रखें उसकी, जो हमने दूध पिया
माँ और बड़ी माँ का हम ऊँचा नाम करें।
माता माता तो है ही, गुरु भी होती है
माता ही पहले–पहले सबक सिखाती है,
माँ घुट्टी में ही जीवन घोल पिला देती
माँ ही हमको जीवन की राह दिखाती है।
हम जननी की, भारत–जननी की जय बोलें
निज जीवन देकर उनके कर्ज चुकाएँ हम
जो सीख मिली है, उसका पालन करने को
निज शीश कटा दें, उनको नहीं झुकाएँ हम।
19. काँटे अनियारे लिखता हूँ
अपने गीतों से गंध बिखेरूँ मैं कैसे
मैं फूल नहीं काँटे अनियारे लिखता हूँ।
मैं लिखता हूँ मँझधार, भँवर, तूफान प्रबल
मैं नहीं कभी निश्चेष्ट किनारे लिखता हूँ।
मैं लिखता उनकी बात, रहे जो औघड़ ही
जो जीवन–पथ पर लीक छोड़कर चले सदा,
जो हाथ जोड़कर, झुककर डरकर नहीं चले
जो चले, शत्रु के दाँत तोड़कर चले सदा।
मैं गायक हूँ उन गर्म लहू वालों का ही
जो भड़क उठें, ऍसे अंगारे लिखता हूँ।
मैं फूल नहीं काँटे अनियारे लिखता हूँ।।
हाँ वे थे जिनके मेरु–दण्ड लोहे के थे
जो नहीं लचकते, नहीं कभी बल खाते थे,
उनकी आँखों में स्वप्न प्यार के पले नहीं
जब भी आते, बलिदानी सपने आते थे।
मैं लिखता उनकी शौर्य–कथाएँ लिखता हूँ
उनके तेवर के तेज दुधारे लिखता हूँ।
मैं फूल नहीं काँटे अनियारे लिखता हूँ।।
जो देश–धरा के लिए बहे, वह शोणित है
अन्यथा रगों में बहने वाला पानी है,
इतिहास पढ़े या लिखे, जवानी वह कैसे
इतिहास स्वयं बन जाए, वही जवानी है।
मैं बात न लिखता पानी के फव्वारों की
जब लिखता शोणित के फव्वारे लिखता हूँ।
मैं फूल नहीं काँटे अनियारे लिखता हूँ।
20. मैं अमर शहीदों का चारण
मैं अमर शहीदों का चारण, उनके गुण गाया करता हूँ
जो कर्ज राष्ट्र ने खाया है, मैं उसे चुकाया करता हूँ।
यह सच है, याद शहीदों की हम लोगों ने दफनाई है
यह सच है, उनकी लाशों पर चलकर आज़ादी आई है,
यह सच है, हिन्दुस्तान आज जिन्दा उनकी कुर्वानी से
यह सच अपना मस्तक ऊँचा उनकी बलिदान कहानी से।
वे अगर न होते तो भारत मुर्दों का देश कहा जाता,
जीवन ऍसा बोझा होता जो हमसे नहीं सहा जाता,
यह सच है दाग गुलामी के उनने लोहू सो धोए हैं,
हम लोग बीज बोते, उनने धरती में मस्तक बोए हैं।
इस पीढ़ी में, उस पीढ़ी के मैं भाव जगाया करता हूँ।
मैं अमर शहीदों का चारण उनके यश गाया करता हूँ।
यह सच उनके जीवन में भी रंगीन बहारें आई थीं,
जीवन की स्वप्निल निधियाँ भी उनने जीवन में पाई थीं,
पर, माँ के आँसू लख उनने सब सरस फुहारें लौटा दीं,
काँटों के पथ का वरण किया, रंगीन बहारें लौटा दीं।
उनने धरती की सेवा के वादे न किए लम्बे—चौड़े,
माँ के अर्चन हित फूल नहीं, वे निज मस्तक लेकर दौड़े,
भारत का खून नहीं पतला, वे खून बहा कर दिखा गए,
जग के इतिहासों में अपनी गौरव—गाथाएँ लिखा गए।
उन गाथाओं से सर्दखून को मैं गरमाया करता हूँ।
मैं अमर शहीदों का चरण उनके यश गाया करता हूँ।
है अमर शहीदों की पूजा, हर एक राष्ट्र की परंपरा
उनसे है माँ की कोख धन्य, उनको पाकर है धन्य धरा,
गिरता है उनका रक्त जहाँ, वे ठौर तीर्थ कहलाते हैं,
वे रक्त—बीज, अपने जैसों की नई फसल दे जाते हैं।
इसलिए राष्ट्र—कर्त्तव्य, शहीदों का समुचित सम्मान करे,
मस्तक देने वाले लोगों पर वह युग—युग अभिमान करे,
होता है ऍसा नहीं जहाँ, वह राष्ट्र नहीं टिक पाता है,
आजादी खण्डित हो जाती, सम्मान सभी बिक जाता है।
यह धर्म—कर्म यह मर्म सभी को मैं समझाया करता हूँ।
मैं अमर शहीदों का चरण उनके यश गाया करता हूँ।
पूजे न शहीद गए तो फिर, यह पंथ कौन अपनाएगा?
तोपों के मुँह से कौन अकड़ अपनी छातियाँ अड़ाएगा?
चूमेगा फन्दे कौन, गोलियाँ कौन वक्ष पर खाएगा?
अपने हाथों अपने मस्तक फिर आगे कौन बढ़ाएगा?
पूजे न शहीद गए तो फिर आजादी कौन बचाएगा?
फिर कौन मौत की छाया में जीवन के रास रचाएगा?
पूजे न शहीद गए तो फिर यह बीज कहाँ से आएगा?
धरती को माँ कह कर, मिट्टी माथे से कौन लगाएगा?
मैं चौराहे—चौराहे पर ये प्रश्न उठाया करता हूँ।
मैं अमर शहीदों का चारण उनके यश गाया करता हूँ।
जो कर्ज ने खाया है, मैं चुकाया करता हूँ।
चन्द्र शेखर आजाद (महाकाव्य) : श्रीकृष्ण सरल
Chandra Shekhar Azad (Epic in Hindi) : Shri Krishna Saral
अध्याय-१: आत्म दर्शन
चन्द्रशेखर नाम, सूरज का प्रखर उत्ताप हूँ मैं,
फूटते ज्वालामुखी-सा, क्रांति का उद्घोष हूँ मैं।
कोश जख्मों का, लगे इतिहास के जो वक्ष पर है,
चीखते प्रतिरोध का जलता हुआ आक्रोश हूँ मैं।
विवश अधरों पर सुलगता गीत हूँ विद्रोह का मैं,
नाश के मन पर नशे जैसा चढ़ा उन्माद हूँ मैं।
मैं गुलामी का कफन, उजला सपन स्वाधीनता का,
नाम से आजाद, हर संकल्प से फौलाद हूँ मैं।
आँसुओं को, तेज मैं तेजाब का देने चला हूँ,
जो रही कल तक पराजय, आज उस पर जीत हूँ मैं।
मैं प्रभंजन हूँ, घुटन के बादलों को चीर देने,
बिजलियों की धड़कनों का कड़कता संगीत हूँ मैं।
सिसकियों पर, अब किसी अन्याय को पलने न दूँगा,
जुल्म के सिक्के किसी के, मैं यहाँ चलने न दूँगा।
खून के दीपक जलाकर अब दिवाली ही मनेगी,
इस धरा पर, अब दिलों की होलियाँ जलने न दूँगा।
राज सत्ता में हुए मदहोश दीवानो! लुटेरों,
मैं तुम्हारे जुल्म के आघात को ललकारता हूँ।
मैं तुम्हारे दंभ को-पाखंड को, देता चुनौती,
मैं तुम्हारी जात को-औकात को ललकारता हूँ।
मैं जमाने को जगाने, आज यह आवाज देता
इन्कलाबी आग में, अन्याय की होली जलाओ।
तुम नहीं कातर स्वरों में न्याय की अब भीख माँगो,
गर्जना के घोष में विद्रोह के अब गीत गाओ।
आग भूखे पेट की, अधिकार देती है सभी को,
चूसते जो खून, उनकी बोटियाँ हम नोच खाएँ।
जिन भुजाओं में कसक-कुछ कर दिखानेकी ठसक है,
वे न भूखे पेट, दिल की आग ही अपनी दिखाएँ।
और मरना ही हमें जब, तड़प कर घुटकर मरें क्यों
छातियों में गोलियाँ खाकर शहादत से मरें हम।
मेमनों की भाँति मिमिया कर नहीं गर्दन कटाएँ,
स्वाभिमानी शीष ऊँचा रख, बगावत से मरें हम।
इसलिए, मैं देश के हर आदमी से कह रहा हूँ,
आदमीयता का तकाजा है वतन के हों सिपाही।
हड्डियों में शक्ति वह पैदा करें, तलवार मुरझे,
तोप का मुँह बंद कर, हम जुल्म पर ढाएँ तबाही।
कलम के जादूगरों से कह रही युग-चेतना यह,
लेखनी की धार से, अंधेर का वे वक्ष फाड़ें।
रक्त, मज्जा, हड्डियों के मूल्य पर जो बन रहा हो,
तोड़ दें उसके कंगूरे, उस महल को वे उजाड़ें।
बिक गई यदि कलम, तो फिर देश कैसे बच सकेगा,
सर कलम हो, कालम का सर शर्म से झुकने व पाए।
चल रही तलवार या बन्दूक हो जब देश के हित,
यह चले-चलती रहे, क्षण भर कलम स्र्कने न पाए।
यह कलम ऐसे चले, श्रम-साधना की ज्यों कुदाली,
वर्ग-भेदों की शिलाएँ तोड़ चकनाचूर कर दे।
यह चले ऐसे कि चलते खेत में हल जिस तरह हैं,
उर्वरा अपनी धरा की, मोतियों से माँग भर दे।
यह चले ऐसे कि उजड़े देश का सौभाग्य लिख दे,
यह चले ऐसे कि पतझड़ में बहारें मुस्कराएँ।
यह चले ऐसे कि फसलें झूम कर गाएँ बघावे,
यह चले तो गर्व से खलिहान अपने सर उठाएँ।
यह कलम ऐसे चले, ज्यों पुण्य की है बेल चलती,
यह कलम बन कर कटारी पाप के फाड़े कलेजे।
यह कलम ऐसे चले, चलते प्रगति के पाँव जैसे,
यह कलम चल कर हमारे देश का गौरव सहेजे।
सृष्टि नवयुग की करें हम, पुण्य-पावन इस धरा पर,
हाथ श्रम के, आज नूतन सर्जना करके दिखाएँ।
हो कला की साधना का श्रेय जन-कल्याणकारी,
हम सिपाही देश के दुर्भाग्य को जड़ से मिटाएँ।
अध्याय-२: क्रांति दर्शन
कौन कहता है कि हम हैं सरफिरे, खूनी, लुटेरे?
कौन यह जो कापुस्र्ष कह कर हमें धिक्कारता हैं?
कौन यह जो गालियों की भर्त्सना भरपेट करके,
गोलियों से तेज, हमको गालियों से मारता है।
जिन शिराओं में उबलता खून यौवन का हठीला,
शान्ति का ठण्डा जहर यह कौन उनमें भर रहा है?
मुक्ति की समरस्थली में, मारने-मरने चले हम,
कौन यह हिंसा-अहिंसा का विवेचन कर रहा हैं?
कौन तुम? तुम पूज्य-पूज्य बापू?राष्ट्र-अधिनायक हमारे,
तुम बहिष्कृत कर रहे, ये क्रान्तिकारी योजनाएँ?
आत्म-उत्सर्जन करें, स्वाधीनता हित हम शलभ-से,
और तुम कहते, घृणित हैं ये सभी हिंसक विधाएँ।
तो सुनो युगदेव! यह मैं चन्द्रशेखर कह रहा हूँ,
सत्य ही खूनी, लुटेरे और हम सब सरफिरे हैं।
दासता के घृणित बादल छा गए जब से धरा पर,
हम उड़ाने को उन्हें बनकर प्रभंजन आ घिरे हैं।
सत्य ही खूनी कि हमको खून के पथ का भरोसा,
खून के पथ पर सदा स्वाधीनता का रथ चला है।
युद्ध के भीषण कगारे पर अहिंसा भीस्र्ता है,
मुक्ति के प्यासे मृगों को इन भुलावे ने छला हैं।
हड्डियों का खाद देकर खून से सींचा जिसे हैं,
मुक्ति की वह फसल, मौसम के प्रहरों में टिकी हैं।
प्रार्थनाओं-याचनाओं ने संवारा जिस फसल को,
वह सदा काटी गई, लूटी गई सस्ती बिकी है।
प्रार्थनाओं-याचनाओं से अगर बचती प्रतिष्ठा,
गजनवी महमूद, तो फिर मूर्ति-भंजक क्यों कहाता?
तोड़ता क्यों मूर्तियाँ, क्यों फोड़ता मस्तक हमारे,
क्यों अहिंसक खून वह निदोंष लोगों का बहाता?
युद्ध के संहार में, हिंसा-अहिंसा कुछ नहीं है,
मारना-मरना, विजय का मर्म स्वाभाविक समर का।
युद्ध में वीणा नहीं, रणभेरियाँ या शंख बजते,
युद्ध का है कर्म हिंसा, है अहिंसा धर्म घर का।
कर रहे है युद्ध हम भी, लक्ष्य है स्वाधीनता का,
खून का परिचय, वतन के दुश्मनों को दे रहे हैं।
डूबते-तिरते दिखाई दे रहे तुम आँसुओं में,
खून के तूफान में, हम नाव अपनी खे रहे हैं।
मंन्त्र है बलिदान, जो साधन हमारी सिद्ध का है,
खून का सूरज उगा, अभिशाप का हम तम हटाते।
जिस सरलता से कटाते लोग हैं नाखून अपने,
देश के हित उस तरह, हम शीष हैं अपने कटाते।
स्वाभिमानी गर्व से ऊँचा रहे, मस्तक कहाता,
जो पराजय से झुके, धड़ के लिए सर बोझ भारी।
रोष के उत्ताप से खोले नहीं, वह खून कैसा,
आदमी ही क्या, न यदि ललकार बन जाती कटारी।
इसलिए खूनी भले हमको कहो, कहते रहो, हम,
ताप अपने खून का ठण्डा कभी होने न देगे।
खून से धोकर दिखा देंगे कलुष यह दासता का,
हम किसी को आँसुओं से दाग यह धोने न देगे।
तुम अहिंसा भाव से सह लो भले अपमान माँ का,
किन्तु हम उस आततायी का कलेजा फाड़ देंगे।
दृष्टि डालेगा अगर कोई हमारी पूज्य माँ पर ,
वक्ष में उसके हुमक कर तेज खंजर गाड़ देगे।
मातृ-भू माँ से बड़ी है, है दुसह अपमान इसका,
हैं उचित, हम शस्त्र-बल से शत्रु का मस्तक झुकाएँ।
रक्त का शोषण हमारा कर रहा जो क्रूरता से,
खून का बदला करारा खून से ही हम चुकाएँ।
हैं अहिंसा आत्म-बल, तुम आत्म-बल से लड़ रहे हो,
शस्त्र-बल के साथ हम भी आत्म-बल अपना लगते।
शान्ति की लोरी सुना कर, तुम सुलाते वीरता को,
क्रांति के उद्घोष से हम बाहुबल को हैं जगाते।
आत्म-बल होता, तभी तो शस्त्र अपना बल दिखाते,
कायरों के हाथ में हैं शस्त्र बस केवल खिलौने।
मारना-मरना उन्हें है खेल, जिनमें आत्म-बल है,
आत्म-बल जिनमें नहीं हैं, अर्थियाँ उनको बिछौने।
और हाँ तुमने हमें पागल कहा, सच ही कहा है,
खून की हर बूँद में उद्दाम पागलपन भरा है।
हम न यौवन में बुढ़ापे के कभी हामी रहे हैं,
छेड़ता जो काल को, हम में वही यौवन भरा है।
होश खोकर, जोश जो निर्दोष लोगों को सताए,
पाप है वह जोश, ऐसे जोश में आना बुरा है।
यदि वतन के दुश्मनों का खून पीने जोश आए,
इस तरह के जोश से फिर होश में आना बुरा है।
बढ़ रहे संकल्प से हम, लक्ष्य अपने सामने है,
साथ है संबल हमारे, वतन की दीवानगी का।
देश का सौदा, नहीं हम कोश उनके लूटतें हैं।
काँपते है नाम से, हम होश उनके लूटते हैं।
हम नहीं हम, आज हम भूकम्प है-विस्फोट भी हैं,
खून में तूफान की पागल रवानी घुल गई है।
आज शोले-से भड़कते हैं सभी अरमान दिल के,
आज कुछ करके दिखाने को जवानी तुल गई है।
`सरफरोशी की तमन्ना' से उठे हम सरफिरे कुछ,
मस्तकों का मोल, देखें कौन है कितना चुकाता।
देखना हैं,रक्त किसकी देह में गाढ़ा अधिक है,
देखना है, कौन किसका गर्व मिट्टी में मिलता।
हम, दमन के दाँत पैने तोड़ने पर तुल गए हैं,
वक्ष ताने हम खड़े, यम से नहीं डरने चले हैं।
खेल हम इसको समझते, मौत यह हौआ नहीं है,
मौत से भी आज दो-दो हाथ हम करने चले हैं।
जो कफन बाँधे, हथेली पर रखे सर कूद पड़ते,
मौत हो या मौत का भी बाप, वे डरते नहीं हैं।
वीर मरते एक ही हैं बार जीवन में, निडर हो,
कायरों की भाँति सौ-सौ बार वे मरते नहीं हैं।
क्या हुआ दो-चार या दस-बीस हैं हम, हम बहुत हैं
हम हजारों और लाखों के लिए भारी पडेग़े।
सिंह-शावक एक, जैसे चीरता दल गीदड़ों के
हम उसी बल से तुम्हारी छातियों पर जा चढ़ेंगे।
दूध माँ का, आज अपनी आन हमको दे रहा है,
शक्ति माँ के दूध की अब हम दिखा कर ही रहेंगे।
नाचना है नग्न होकर, पीट कर जो ढोल अपना,
सभ्यता का सबक हम उसको सिखाकर ही रहेंगे।
आज यौवन की कड़कती धूप देती है चुनौती,
हम किसी के पाप की छाया यहाँ टिकने न देंगे।
मस्तकों का मोल देकर, हम खरीदेंगे अमरता,
देश का सम्मान, मर कर भी कभी बिकने न देगें।
गर्जना कर, फिर यही संकल्प हम दुहरा रहे हैं,
हम, वतन की शान को-अभिमान को जिन्दा रखेंगे।
देश के उत्थान हित, बलिदान को जिन्दा रखेंगे,
खून के तूफान हिन्दुस्तान को जिन्दा रखेंगे।
और जननायक! भले ही तुम हमें अपना न समझो,
तुम भले कोसो, हमारे आज बम-विस्फोट को भी
सह रहे आघात हम जैसे विदेशी राज-मद के,
झेल लेंगे प्राण अपनों की करारी चोट को भी।
किन्तु दुहरी मार भी विचलित न हमको कर सकेगी,
चोट खाकर और भडकेंगी हमारी भावनाएँ,
और खोलेगा हमारा खून, मचलेगी जवानी,
और भी उद्दण्ड होगी क्रांतिकारी योजनाएँ।
बम हमारे, दुश्मनों के गर्व को खाकर रहेंगे,
दासता के दुर्ग को, विस्फोट इनके तोड़ देगे।
और पिस्तौलें हमारी, गीत गायेंगी विजय के,
वज्र-दृढ़ संकल्प, युग की धार को भी मोड़ देगे।
अब निराशा का कुहासा पथ न धूमिल कर सकेगा,
क्रांति की हर किरण, आत्मा का उजाला बन गई है।
आज केवल ब म नहीं हैं, प्राण भी विस्फोट करते,
शत्रु के संहार को, हर साँस ज्वाला बन गई है।
अध्याय-३: भावरा ग्राम-धरा
मंजरित इस आम्र-तरु की छाँह में बैठो पथिक! तुम,
मैं समीरण से कहूँ, वह अतिथि पर पंखा झलेगा।
गाँव के मेहमान की अभ्यर्थना है धर्म सबका,
वह हमारे पाहुने की भावनाओं में ढलेगा।
नागरिक सुकुमार सुविधाएँ, सुखद अनुभूतियाँ बहु,
दे कहाँ से तुम्हें सूखी पत्तियों का यह बिछावन।
आत्मा की छाँह की, पर तुम्हें शीतलता मिलेगी,
ग्राम-अन्तर की मिलेगी भावना पावन-सुहावन।
और परिचय मैं बता दूँ, भावरा कहते मुझे सब,
जो घुमड़ती ही रहे, उस याद जैसा गाँव हूँ मैं।
छोड़ जाता जो समय के वक्ष पर दृढ़-चिह्न अपना,
अंगदी व्यक्तित्व का अनपढ़ हठीला पाँव हूँ मैं।
सभ्यता की वर्ण-माला की लिखी पहली लिखावट,
सुभग मंगल तिलक-सा हूँ, संस्कृति के भाल पर मैं।
हो रहा संकोच, कैसे मैं बखानूँ रूप अपना,
एक तिल जैसा हुआ प्रस्थित प्रकृति के गाल पर मैं।
गिरि-शिखरियों के सहुवान सुखद आँगन में अवस्थित,
छू रही नभ को हठीली विंध्य-पर्वत की भूजाएँ।
लग रह, जैसे प्रकृति के पालने में झूलता मैं,
गगन के छत से बँधी ये डोरियाँ गिरि-मेखलाएँ।
या कि माँ की गोद में, मैं दुबक कर बैठा हुआ-सा,
माँगती मेरे लिए वह, हाथ ऊँचे कर दुआएँ।
या पिलाने दूध, आँचल ओट माँ ने कर लिया हो,
ले बलैंया, टालती हो वह सभी मेरी बलाएँ।
या कि नटखट एक बालक ओट लेकर छिप गया हो,
माँ प्रकट हो, उछल औचक हूप! कर उसको डराने।
चौंकती सी देख उसको, डर गई! कहकर चिढ़ाने,
डाल गलबहियाँ, विजय के गर्व से फिर खिलखिलाने।
और अब इस ओर देखो, ताल यह जल से भरा जो,
चमकता ऐसे, चमकता जिस तरह श्रम का पसीना।
या कि पर्वत-श्रृंखला की प्रिय अँगूठी में जड़ा हो,
जगमगाता शुभ्र शुभ अनमोल सुन्दर-सा नगीना।
या कि वृत्ताकर दर्पण, हो खचित वर्तुल परिधि में,
शैल-मालाएँ सँवर कर रूप इसमें झाँकती हों।
स्व्च्छ, जैसे दूधिया चादर बिछाई हो किसी ने,
फूल-पुरइन, उँगलियाँ जैसे सितारे टाँकती हों।
देखते हो तुम पथिक! तस्र्वृन्द अपने पास ही जो,
ये सुकृत जैसे, समय अनुकूल फलते-फूलते हैं।
झूमने लगते कभी फल-भार के उन्माद से ये,
चढ़ समीरण के हिडोले पर कभी ये झूलते हैं।
रात है इन पर उतरती, साधना की शान्ति जैसी,
ये उजाले दिन कि जैसे तेज हो तप का विखरता।
शान्ति मन में, पर यहाँ संघर्ष जीवन में निरन्तर,
कर्म की आराधना से, मन यहाँ सब का निखरता।
ग्राम-वासी लोग, जैसे साधना-रत कर्मयोगी,
सन्त जैसे सरल मन, अवधूत जैसे आदिवासी।
पुण्य के प्रति नित विचारों में प्रगति मिलती यहाँ पर,
और मिलती पाप के प्रति यहाँ जीवन में उदासी।
ग्राम-घर, ऊँचे भवन कुछ, सण्कुचित-सी कुछ झुपड़िएँ,
बहुरिएँ, ज्यों ससुर जी को देखकर शरमा गई हों।
कुछ अटरिएँ धवल, शोभित हैं घरौदों में कि जैसे,
बाल-मुख में दूध की कुछ-कुछ दँतुलिएँ आ गई हों।
अध्याय-४: बावली माँ
वर्ण केवल एक, जिस पर वर्णमाला ही निछावर,
शब्द केवल एक जिसमें अर्थ का सागर भरा है।
ऊष्मित ममता, अधिक व्यापक गगन की नीलिमा से
दिव्य वह अस्तित्व माँ सहन-शीला धरा है।
योग की तय-साधना से कम न पावन त्याग माँ का,
ज्वार सागर का, न पागल मातृ-उर के ज्वार-सा है।
और भावो के कई उपमान मिल सकते हमें हैं,
किन्तु कोई प्यार दुनिया का न, माँ के प्यार-सा है।
छू न सकतीं मातृ-मन को विश्व की ऊँचाईयाँ सब,
मातृ-उर से अधिक कोई किन्तु सिन्धु भी गहरा नहीं है।
पुत्र के तन पर न रोया एक ऐसा सकेगा,
मातृ-ममता का सजग जिस पर कड़ा पहरा नहीं है।
विश्व की प्रत्येक माँ, विधि की अनोखी एक रचना,
भावना प्रत्येक माँ की, एक साँचे में ढली है।
राग की, अनुराग की, तप-त्याग की प्रतिमूर्ति माँ है,
मानबी, देवी, मगर संतान हित माँ बावली है।
बावली माँ एक रहती थी यहाँ भी पथिक पाहुन,
छाँह पलकों की किए निज पूत को वह पालती थी।
चन्द्रशेखर चन्द्र-माँ के भाग्य-नभ का चन्द्रमा था,
ढाल बनकर लाल की वह सब बलायें टालती थी।
एक रोयाँ भी कभी दुखता दिखे यदि लाड़ले का,
अंक में सुत, रात आँखों में लिये वह जागती थी।
पल्लुओं से देव-द्वारे झाड़ती, माथा रगड़ती,
वह मनाती थी मनौती, विकल घर-घर भागती थी।
एक क्यों, आते कई दिन, जब आहार होता,
लाल को ममतमायी, भूखा कभी सोने न देती
काट लेती दिन, अभावों की चुनरिया ओढ़कर वह,
किन्तु आँखों के सितारे को दुखी होने न देती।
पर वही माँ दिन थी खिन्न, जब भोजन परोसा,
बैठ मेरे लाड़ले! खाले तनिक, वह कह न पाई।
चन्द्रशेखर सकपकाया देखता माँ का मलिन मुख,
लांघ संयम के किनारे, बढ़ चली माँ की स्र्लाई।
हिचकियों की दीर्घ कारा से हुई जब मुक्त वाणी,
सिसकियों ने फुसफुसाया, चाँद तू मेरा सलौना।
आज मोहन सेप कहूँ कैसे कि मोहन-भोग खाले,
जब कि रूखा और सूखा, है बना भोजन अलोना।
ला रही थी मैं पड़ौसिन से नमक, पर ला न पाई,
लाल! तेरे पूज्य बापू ने उसे वापिस कराया।
तड़प कर बोले, भले भूखे रहें चिन्ता नहीं कुछ,
माँग कर खाकर जियें हम, इसलिए जीवन न पाया।
माँ! दुखी मत हो कि तेरा स्नेह षडरस से अधिक है,
मधुर व्यंजन समझ यह भोजन अलोना खा सकूँगा।
मैं पिता के स्वाभिमानी शीष को झुकने न दूँगा,
आन अपने वंश की मैं शान से अपना सकूँगा।
आज तेरे स्नेह कै सौगन्ध खाकर कह रहा माँ!
गर्म मेरा खून, तेरे दूध का सम्मान होगा।
मैं अभावों से लडूँग़ा, और लड़कर जी सकूँगा,
साथ स्नेहाशीष तेरा, काल भी वरदान होगा।
और उस दिन तीन दिन फिर और था भोजन अलोना
लड़कियाँ माँ ने बटोरी, बेच उनको नमक आया।
पर किसी को खेद किंचित भी नहीं इस हाल पर था,
बन गया था घर किला, यह भेद बाहर जान पाया।
किन्तु निर्धनता अकेली, थी नहीं माँ की परीक्षा,
भाग्य पर उसके भयानक एक पर्वत और टूटा।
जो हृदय का हार प्रिय, आधारजीवन का सदृढ़ था,
हाय रे दुर्भाग्य! उस आधार का भी साथ छूटा।
भाग्य-नभ का चन्द्र, उसकी दृष्टि से ओझल हुआ था,
कर दिया गृह-त्याग सुत ने, माँ वियोगिन हो गई थी।
छटपटाती-तड़पती वह मीन हो जल-हीन जैसे,
खो गई थी प्राण-निधि, चिर वेदना नह बो गई थी।
बस गया जा निर्धना का नयन-धन वाराणसी में,
चन्द्रशेखर गंग-तट पर ज्ञान-घट भरने गया था।
क्या पता माँ को कि गंगाजल अनल-प्रेरक, बनेगा,
जानती कैसे कि उसका लाल क्या करने गया था।
एक ही विश्वास में अटकी हुई थीं भावनाएँ,
लौट आएगा किसी दिन, गोद का श्रृंगार उसका।
अर्चना, आशीष अहरह साधना-आराधना में,
खप रहीं थीं वृद्ध साँसे, तप रहा था प्यार उसका।
जेठ की तपती दुपहरी में बबंडर घूमता जब,
लाल की अनुहार लख, वह भेंटने उसको लपकती।
किन्तु सूखे पात-सा कृश-गात क्या आघात सहता,
वात-चुक्रित देह धरती पर पके फल-सी टपकती।
झूमते गजराज-से, जब सघन पावस-दूत घिरते,
सिंह-सुत की विविध आकृतियाँ उसे दिखतीं घनों में।
गर्जना का भान होता, क्रद्ध जब विद्युत तड़कती,
तैरती सुधियाँ सुअन की इन्द्र-धनुषी चितवनों में।
जब शरद का चन्द्र उगता, देखती थी एकटक वह,
चाहती, वह गोद में उसके उछल कर बैठ जाए।
आज किस वन पर हुआ धावा, उजाड़ा कौन उपवन,
दूध से कुछ भात अपने भानजे को जा खिलाना।
चिन्दियाँ कुछ औढ़नी से फाड़ चन्दा को दिखाती
जीर्ण ले-ले,तू नये कुछ वस्त्र चन्टू को सिलाना,
याद तो होगा, तुझे उसने सगा मामा बनाया,
दूध से कुछ भात अपने भानजे को जो खिलाना।
स्वर्ण-किरणों का बिछाता जाल जब हेमन्त का रवि,
सुधि उमड़ती, दशहरे, पर लाल सोना लूटता था।
हौसला किसका, लगा कर होड़ उससे तेज दौडे,
छोड़कर पीछे सभी को, तीर-सा वह छूटता था।
जब गली में शोर होता, झगड़त बालक परस्पर,
जब किसी के चीखने कल स्वर उसे पड़ता सुनाई।
भास होता, आज चन्दर ने किसी को धर दबोचा,
वह छड़ी लेकर लपकती, कोसती, उसकी ढिठाई।
जब शिशिर के गीत में वह देखती बालक ठिठुरते,
याद करती, चन्द्र कैसा निर्वसन हो घूमता था।
ढेर सूखी पत्तियों का जब सखा उसके जलाते,
फाँदता लपटें, कभी उनके शिखर वह घूमता था।
आग-सी वन में लगा उन्मत जब टेसू दहकते,
सुधि सताती, ढेर सारी डालियाँ वह तोड़ लाता।
रंग केसरिया बनाता, फूल टेसू के गला कर,
खूब होली खेलता, जो भी निकलता वह भिगाता।
लाड़ले की विविध लीलाएँ उसे जब याद आतीं,
कौंध जाती वेदना, कस कलेजा थाम लेती।
ज्योति आँखों की भटकती थी अँधेरे के वनों में,
छोड़ती निश्वास, अपने लाल का वह नाम लेती।
याचना करती, कुशल उसकी मना, अशरण-शरण प्रभु
लौट आए लाल मेरा, युक्ति वह उसको सिखाना।
मैं अकेली ही बहुत हूँ झेलने दास्र्ण व्यथाएँ
तू किसी माँ को कभी दुर्दिन नहीं ऐसे दिखाना।
अध्याय-५: वाराणसी लहरें
उच्छल गंगा का हिल्लोलित अन्तर है,
भावना प्रगति की मानों हुई प्रखर हैं।
लहरें हैं, जो स्र्कने का नाम न लेती,
तटकी बांहों में वे विश्राम न लेती।
बढ़ते जाने की उनमें होड़ लगी है,
मंत्रों में जैसे अद्भुत शक्ति जगी है।
हर लहर, लहर को आगे ठेल रही है,
हर लहर, लहर की गति को झेल रही है।
बढ़ना, बढ़ते जाना सक्रिय जीवन है,
तट से बँध कर रह जाना घुटन-सड़न है।
जो कूद पड़ा लहरों में, पार हुआ हैं,
जो जूझ पड़ा, सपना साकार हुआ है।
जो लीक पुरातनता की छोड़ न पाया,
जिसका बल युग-धारा को मोड़ न पाया।
वह मानव क्या, जो बन्धन तोड़ न पाया,
जो अन्यायों के घट को फोड़ न पाया।
ये लहरें हैं, आता है इन्हें लहरना
बढ़ने की धुन में भाता नहीं ठहरना।
तुन कौन? यहाँ जो गुमसुम बैठे तट पर,
निश्चल निष्क्रिय, जीवन के इस पनघट पर।
देखो जलधारा पर तिरती नौकाएँ,
जीवन-धारा पर तिरती अभिलाषाएँ।
उथलें में कुछ गहरे में नहा रहे हैं,
अपने कल्मष गंगा में बहा रहे हैं।
कछुए कुलबुल कर रहे कामनाओं से,
सुछ डुबे हैं अवदमित वासनाओं से।
कुछ दानी उनको दाने चुगा रहे हैं,
पाथेय पुण्य के अंकुर उगा रहे हैं।
घाटों पर जाग्रत जीवन मचल रहा है,
खामोशी को कोलाहल निगल रहा है।
नर-नारी बालक-वृद्ध युवा आए हैं,
वे अपनी वय की साध साथ लाए हैं।
बच्चें, बचपन के खेलों पर ललचयें,
बच्चों के बाबा, पुण्य कमाने आए।
क्या बात कहें उनकी जिनमें यौवन है,
छायावादी कविता-सी हर धड़कन है।
यौवन की साँसों में हैं सुमन महकते,
यौवन सागर है, शांत नहीं यह तट है।
यौवन, अभिलाषाओं का वंशीवट है,
यौवन रंगीन उमंगों का पनघट है।
यौवन आता तो जीवन ही जीवन है,
यौवन आता, बेबस हो जाता मन है।
यौवन के क्षण सपनों के हाथों बिकते,
यौवन के पाँव नहीं धरती पर टिकते।
तुम कौन, घाट से टिके हुए बैठे हो?
तुन किसके हाथों बिके हुए बैठे हो?
बिक चुका यहाँ नृप हरिशचन्द्र-सा दानी,
रोहित-सा बेटा, तारा जैसी रानी।
तो सुनो, छलकते जीवन की मैं गगरी,
देखो, मैं बाबा विश्वनाथ की नगरी।
जो बड़भागी, वे लोग यहाँ रहते हैं,
परिचय दूँ? वाराणसी मुझे कहते हैं।
शिव के त्रिशूल पर बैठी मैं इठलाती,
मैं दैहिक, दैविक, भौतिक शूल मिटाती।
जीने वालों को दिव्य ज्ञान देती हूँ,
मरने वालों को मोक्ष-दान देती हूँ।
शंकर बाबा की कैसे कहूँ `कहानी',
उन जैसा कोई मिला न अवढर दानी।
तप की विभूति तन पर शोभित होती है,
यश-गंगा उनके जटा-जूट धोती है।
है तेज-पुंज-सा उन्नत भाल दमकता,
कहने वाले कहते हैं, चन्द्र चमकता।
वे युग का विष पीने वाले विषपायी,
अपने भक्तों को वे सदैव वरदायी।
विषयों के विषधर उन्हें नहीं डसते हैं,
जन-मंगल ही उनके मन में बसते हैं।
वे सुनते अनहद-वाद विश्व-भय-हारी,
इसलिए लोग कहते, नादिया सवारी।
वे वर्तमान के मान, भूत हैं वश में,
अभिप्रेत भविष्यत हैं मन के तर्कंश में।
जग के विचित्र गुण-गण उनके अनुचर हैं,
वे पर्वतीय-सुषमा-पति शिव-शंकर हैं।
क्या मृग-मरीचिका कोई उसे लुभाए,
जो मृग-छाला को आसन स्वयं बनाए।
वे धूरजटी, धुन की धूनी रमते हैं,
व्यवधान विफल होते जब वे जमते हैं।
मैंने तुमको शिव का माहात्म्य बताया,
मैंने गंगा की लहरों का गुण गाया।
तुम उठो पथिक, झटको यह आत्म-उदासी,
जग से जूझो, तुम बनो नहीं सन्यासी।
गंगा की लहारों से शीतलता पाओ,
मन्दिर में बाबा के दर्शन कर आओ।
तुमको रहस्य कुछ और बताऊँगी मैं,
अपने बेटे का गौरव गाऊँगी मैं।
अध्याय-६: खूनी मेंहदी
हाँ सुनो पथिक! जो बात कह रही हूँ मैं,
कब से उसका संताप सह रही हूँ मैं।
कह देने से मन हल्का हो जाता है,
दुख का उफान फिर तल में सो जाता है।
तुम सभी जहाँ बैठे, यह वही ठिकाना,
बैठा करता था बूढ़ा एक पुराना।
सब लोग उसे पागल! पागल! कहते थे,
उसकी उत्पीड़न से आहें भरता रहता।
वह कभी हवा में सीधा हाथ झटकता,
वह कभी-कभी खुद पर ही झल्लाता था।
वह अपने से ही बातें करता रहता,
कुछ उत्पीड़न से आहें भरता रहता।
वह कभी हवा में सीधा हाथ झटकता,
वह बार-बार पत्थर पर उसे पटकता
इस तरह हाथ लोहू-लुहान हो जाता,
पागल का कुछ ठण्डा उफान हो जाता।
बढ़ गया एक दिन आत्म-दाह जब भारी,
गंगा-मैया में ही छलाँग दे मारी।
जर्ज रित देह को लहरों ने झकझोरा,
यों टूट गया साँसों का कच्चा डोरा।
चल निकलीं, जितने मुँह उतनी ही बातें,
जन-पथ पर चलती बातों की बारातें।
चर्चाओं के मंथन से अभिमत निकला,
वह पाप धो रहा था अपना कुछ पिछला।
यह पागल था पहले जल्लाद भयानक,
उसका सारा जीवन ही क्रूर कथानक।
जाने कितनों के जीवन-दीप बुझाए,
उसने जाने कितने माँ-दीप स्र्लाए।
उसके अन्तर में नहीं दया-ममता थी,
दानवी वृत्ति की अपरिसीम क्षमता थी।
जल्लाद दैत्याकार महाबल-शाली,
उसकी आँखों में चिता-ज्वाला की लाली।
उसकी गति में हत्याओं की हलचल थी,
मति में जघन्य पापों की चहल-पहल थी।
वह क्रुद्ध बाज-सा जिसके ऊपर टूटा,
तन के पिंजडे से प्राण-पखेरू छूटा।
वह दैत्य एक दिन जब अपनी पर आया,
निर्बोध एक बालक पर हाथ उठाया।
इस बाल-सिंह का नाम चन्द्रशेखर था,
जलती भट्टी का ताप लिए अन्तर था।
वह भी जन -आंदोलन में कूद पड़ा था,
शासन ने उसको इसीलिए जकड़ा था।
देखे केवल चौदह वसन्त जीवन के,
संकल्प उग्र हो गए उदित यौवन के।
वह तड़प, `बाँधो न मुझे हत्यारो'!
पन्द्रह क्या, पन्द्रह सौ कोड़े तुम मारो।
मैं जहाँ खड़ा हूँ, तिलभर नहीं हिलूँगा,
मैं हर कोडे पर हँसता हुआ मिलूँगा।
जो दण्ड मिले वरदान, समझ ले लूँगा,
आघात भयंकर फूल समझ झेलूँगा।
जो मार पडेग़ी उसका स्वाद चखूँगा,
जो दूध पिया है उसकी लाज रखूँगा।
यह कह वह बालक खड़ा हो गया तनकर,
जल्लाद झपट बैठा सक्रोश उफन कर।
पूरी ताकत से एक हाथ दे मारा,
बालक बोला गाँधी की जय का नारा।
फिर और जोर से उसने हाथ जमाया,
भारत-माता की जय का नारा आया।
क्रोधांध दैत्य ने हाथ तीसरा छोड़ा,
कुछ खाल खींच कर ले आया वह कोड़ा।
चौथा कोड़ा हो गया खून से तर था,
विचलित किंचत भी नहीं चन्द्रशेखर था।
निर्वसन देह पर पडे तडातड़ कोड़े,
भरपूर हाथ उस नर-दानव ने छोडे।
कोमल काया कोड़ो से जूझ रही थी,
उसको जन-नायक की जय सूझ रही थी।
जल्लाद, हाथ कस-कस कर गया जमाता,
हर हाथ, खाल उसकी उधेड़ ले आता।
बालक ने चाहा नहीं वार से बचना,
खूनी मेंहदी की हुई देह पर रचना।
उसने अपना कोई व्रण नहीं टटोला,
वह गाँधी की-भारत माँ की जय बोला।
उस नरम उमर ने मार भंयकर खाई,
अधखिले फूल ने वज्र-शक्ति दिखालाई।
कुसुमादपि उसकी देह बनी फौलादी,
वह झेल गया आघात क्रुर जल्लादी।
लोगों के दिल पर अब उसका आसन था,
यह देख-देख ईर्ष्यालु हुआ शासन था।
हर अन्तर ही अब उसका अपना घर था,
अनुदिन उसका चिन्तन हो रहा प्रखर था।
जन-भावों पर छा गया चन्द्रशेखर था,
नक्षत्र नया आगया चन्द्रशेखर था।
कायरता का खा गया चन्द्रशेखर था
आजाद नाम पा गया चन्द्रशेखर था।
वह धरती का अनुराग लिए फिरता था,
तन पर कोड़ों के दाग लिए फिरता था।
वह स्वर में विप्लव-राग लिए फिरता था,
वह उर में जलती आग लिए फिरता था।
सहला न सका उसके घावों को गाँधी,
आ गई क्रांतिकारी भावों की आँधी।
लपटों का सरगम छिड़ा उग्र जीवन में,
वह धूमकेतु-सा निकला क्रांति-गगन में।
अध्याय-७: काकोरी लघुता की गुरुता
मैं शांत, मौन, गंभीर भावनाओं का स्वर,
लघु ग्राम एक, मैं दूर नगर कोलाहल से।
मैं हूँ सागर में सरिता का अस्तित्व-बोध,
मैं छिटक गया घुँघुरू,जीवन की पायल से।
बालक की जिज्ञास-माला का एक प्रश्न,
जिसका उत्तर बन जाय बड़ों की हैरानी।
जिसका जैसा जी चाहे अर्थ लगा बैठे,
मैं सन्तों की-अवधूतों की अटपट बानी।
जगमग-जगमग विस्तीर्ण सौर-मण्डल का मैं,
टिमटिम करता छोटा-सा एक सितारा हूँ।
मैं भूलभुलैयों का व्यापक निर्देश नहीं,
मैं अक्लमंद को हल्का एक इशारा हूँ।
मैं उपदेशों की परिधिहीन विस्तार नहीं,
लघु सूत्र एक, मैं चिन्तनशील मनस्वी हूँ।
मैं विधि-निषेध संयुक्त विशद साधना नहीं,
पल एक सुफल का, पहुँचे हुए तपस्वी का।
मुझ में न राज-पथ इच्छाओं से विशद विपुल,
मेरी निधियाँ हैं, तृप्ति-भावना-सी गलियाँ।
विकृतियों के स्मारक से मुझ में सौध नहीं,
मेरे कच्चे घर, गौरव की विरुदावलियाँ।
मेरी संस्कृति को, चपल सभ्यता की दासी,
उँगलियाँ थाम कर चलना नहीं सिखाती है।
मेरे विकास में पौरुष का विश्वास सजग,
मेरी लघुता, गुरुता को मार्ग दिखाती है।
संसद का करते दृश्य उपस्थित हैं अलाव,
मन्त्रालय बन जातीं मेरी चौपालें हैं।
कर्मठ किसान उत्पादन का लड़ते चुनाव,
मत-पत्र बना करतीं गेहूँ की बालें हैं।
मेरी सम्पति, बन्दिनी नहीं कोषालय की,
बिखरी रहती है वह खेतों-खलिहानों में।
मेरी गरिमा न अनावृत-सी है नागरिका,
शोभित होती है वह धानी परिधानों से।
बचपन चौकड़ियाँ भरता हुआ चला जाता,
यौवन का चढ़ता रंग चटखती तीसी है।
दूल्हा-सा सजता चना गुलाबी सेहरे में,
उन पर सवार नादान उमर पच्चीसी है।
सर-सर करती है सरसों पवन-झकोरों से,
मुख पर मल दी, मानों विवाह की हल्दी है।
छेड़ती उसे अरहर, 'गोरी कुछ ठहर और`
प्रियतम घर जाने की ऐसी क्या जल्दी है।`
रानी-सी पुजती ज्वार, छत्र धारण करके,
चम-चम मोती-से दाने सब मन हरते।
मक्का के भुट्टे चँवर लिए तैयार खड़े,
रजगिरा बाजरा झुक-झुक अभिवादन करते।
मैं कैसे पूरा विवरण दूँ निज वैभव का,
सम्पन्न खेत, याश-गाथा-से फैले रहते।
उजले रहते लोगों के मन दर्पण जैसे,
श्रम-साधक केवल हाथ-पैर मैले रहते।
नारियाँ नहीं, देवियाँ कहें तो अच्छा है,
सच्चे अर्थों में वे सब अन्न-पूर्णाएँ।
शुभ ग्रह जैसी, वे गृह की जन्म-पत्रिका में,
वे पुरुष हाथ में प्रबल भाग्य की रेखाएँ।
उँगली की कूँची से घर की दीवारों पर,
जब करतीं वे अनगढ़ चित्रों की रचनाएँ।
तो सच मानो कृतकृत्य कला हो जाती है,
मिल पाती हैं उपयुक्त न उनको उपमाएँ।
तो मैं ऐसी जीवन्त चेतना का प्रहरी,
लघु ग्राम एक, पर बहुत बड़े दिल वाला हूँ।
मैं संघर्षो के पीठ तरे हरिमाया हूँ,
मैं गया नहीं नाजों-नखरों में पाला हूँ।
लखनवी शान, वैसे पड़ोस में ही मेरे,
पर मैंने उससे की सदैव सीना-जोरी।
क्या नाम बताना ही होगा मुझको हुजूर!
तो सुनिए, मुझको कहते हैं सब काकोरी।
जी हाँ काकोरी, मैं काकोरी ग्राम एक,
जो क्रान्ति-काल में लपटों जैसा चमक गया।
मैंने देखा धरती के दीवानों का दल,
साम्राज्यवाद की छाती पर धमक गया।
मैं धीरज से खिलवाड़ करूँगा नहीं अधिक,
क्या हुआ, किस तरह हुआ, तुम्हें बतलाता हूँ।
विश्वास सुनी बातों पर कम ही करता हूँ,
आँखों देखी ही तुमको आज सुनाता हूँ।
अध्याय-८: रेल की नकेल
दिनभर ने ली दिन की अपनी पूँजी समेट,
वह था बिलकुल घर जाने की तैयारी में।
रह गई शेष थी तनिक क्षीण आभा उसकी,
जैसे कुछ निधि फँस कर रह जाए उधारी में।
वह रही-सही पूँजी डूबती दिखाई दी,
था डूब रहा सूरज का लाल-लाल गोला।
देवता प्रचारित करने शिला-खण्ड गोला।
हो लेप दिया जैसे शुभ सिन्दूरी चोला।
धँस रहा क्षितिज में लाल-लाल सूरज ऐसे,
लग जाए आग, जल-पोत समन्दर में डूबे।
रोहित आभा पर तिमिर हो रहा था हावी,
नैराश्य-ग्रसित हो रही दिवाकर की ऐसे।
पंछी, दल के दल बढ़े जा रहे थे ऐसे
जाते हों जैसे श्रमिक रात की पाली के।
थी क्रांति क्षीण हो रही दिवाकर की ऐसे
शोषित हों दिन जैसे यौवन की लाली के।
वन से चर कर घर के थीं गायें लौट रहीं,
गोधूलि अधर में उठ कर ऐसी छाई थी
छू रही किनारे दो, जैसे कोई धारा,
या धरती-अम्बर की हो रही सगाई थी।
मेरी साँसों भी श्लथ थीं, दिन भर के श्रम से,
मैंने सोचा, अब मैं संध्या-वंदन कर लूँ।
प्रेरणा मिली जो जीवन के संघर्षों से,
उनका कृतज्ञता से मैं अभिनन्दन कर लूँ।
स्वर तभी सुनाई दिया मुझे कुछ छक छक छक,
दिख पड़ी धुएँ की काली रेखा भी ऐसे।
व्यक्तित्व कुटिल जब दिखता है, तब दिखता है,
अपकीर्ति चला करती आगे आगे जैसे।
आ रही रेल गाड़ी थी कोई इठलाती,
फक-फक छक-छक वह बोल बोलती थी ऐसे
कहती हो जैसे, सुनो! सुनो! लखनऊ वालो!
क्या पता तुम्हें `जबलपूर के छ:-छ: पैसे।'
लखनऊ वाले उत्तर दें, इसके पहले ही,
लग गई चाल को नजर किसी दीवाने की।
हक्की-बक्की भौंचक्की-सी वह ठिठक गइंर्,
रफ्तार समझ में आई नहीं जमाने की।
समझाने उसको क्रांतिवीर कुछ कूद पड़े,
कानों में सिंहों की भीषण गर्जना पड़ी।
हम नहीं छुएँगे जान-माल जनता का, पर,
तुम हिलो नहीं, जब तक यह गाड़ी रह खड़ी।
पिल तड़े छैनियाँ-घन ले वीर तिजोरी पर,
तो मार-मार हजमकर बैठी थी वह भारत का,
जो माल हजम कर बैठी थी वह भारत का,
सब छीन लिया, उस पर न एक कौड़ी छोड़ी।
जो कुछ भी पाया, सब समेट वे खिसक गए,
जड़ दिया तमाचा शासन के मुँह पर भारी।
तिलमिला उठे अंग्रेज बहादुर चाँटे से,
खिलखिला उठे भारत के वीर क्रांतिकारी।
मैंने देखा, वे क्रांति-वीर सब ही के सब,
यौवन-मद में मदमाते सिंह हठीले थे।
थे पुष्ट वक्ष, गर्वोन्नत मस्तक, सबलबाहु,
तेजीद्दीप्त, बलशाली और गठीले थे।
नेता तो नेता था ही, उसका क्या कहना,
अंगारों स यौवन वाला वह बिस्मिल था।
आजाद चन्द्रशेखर भी था उन्नीस नहीं,
वह आत्म-बली, संकल्पी, निडर, शेरदिल था।
वैसे जब आती उमर, सभी होते जवान,
कुछ और बात थी उस पर चढ़ी जवानी में।
संकल्प धधकते थे उसके उर में ऐसी
लग जाए जैसे आग सिन्धु के पानी में।
अध्याय-९: लखनऊ खुली बगावत
लखनऊ नाम, क्या आप कहेंगे नगर मुझे?
जी नहीं, कृपा करके मुझको नगरी कहिए।
मन ऊब गया हो अगर आपका जीवन से,
तशरीफ लाइए, आप यहाँ आकर रहिए।
देखेंगे मेरा रूप, `वाह!' कह बैठेंगे
संभव है चोरी-छिपे आह भी भर लेंगे।
सपने, जो छलते रहे आपको अब तक हैं,
वे अपने सपने आप यहाँ सच कर लेंगे।
इस कदर घूर कर आप देखते क्यों मुझको,
छलछला उठी क्यों प्यास हृदय की आँखों में?
परिचय पाने को उत्सुक हों, तो सुनिएगा,
मैं ऐसी वैसी नहीं, एक हूँ लाखों में।
मैं किसी मेंढ़ पर खिला जंगली फूल नहीं,
मैं स्निग्ध सुमन की कोमल मृदुल पाँखुरी हूँ।
मैं नहीं सिपाही जैसा खड़ा तानपूरा,
ज;तद्ध अधर-शयन करती, मैं वही बाँसुरी हूँ।
मैं रूप-रंग की नहीं चटख भर ही केवल,
मैं सिक्त-सुरभि सी, जो मन को हुलसाती है।
मैं दूध-नहाई हुई चाँदनी की फिसलन,
वह धूप नहीं मैं, जो तन को झुलसाती है।
मैं नहीं किसी के फूहड़ अट्टहास जैसी,
मैं लजवन्ती मुस्कानों की मृदु सिहरन हूँ।
मैं किसी रूप के प्यासे की हूँ नजर नहीं,
अध-खुले नयन की बाँकी-तिरछी चितवन हूँ।
अरमान भीड़ बनकर बौराए-से फिरते,
अव्यक्त खुमारी-सी मन पर छा जाती है।
सुरमई किनारी की सिन्दूरी साड़ी में,
जब नेह-निमन्त्रण-सी संध्या आ जाती है।
हैं नाज और नखरे मेरे आभूषण, पर,
मशहूर नहीं केवल लखनवी नजाकत है।
जब कभी जुल्म की छाया मुझ पर पड़ती है,
हर चितवन ही वन जाती खुली बगावत है।
लावा बन जाता खून खौलता हुआ, और,
विस्फोट अनय की लघु आहट बन जाती है।
हर शोख अदा करती विद्रोह भयानक है,
हर भाव आग, हर साँस लपट बन जाती है।
यदि सुनी आपने हो चर्चा सत्तावन की,
यदि पृष्ठ पलट कर देखें हों इतिहासों के।
मेरे विद्रोही पैरों ने मुँह कुचले थे
नापाक इरादे लिए खून के प्यासों के।
तब थिरक उठे थे पाँव, जवानी नाची थी,
लहलह करते जलते भीषण अंगारों पर।
धड़ से फिरंगियों के सर उछल-उछल पड़ते,
जब हाथ जवानों के पड़ते तलवारों पर।
आँखों में उतरे हुए खून की सुर्खी ले,
रण-खेतों में जब मेरे शेर उतरते थे।
अंग्रेज लड़ाके बख्शो! बख्शो! चिल्लाते,
नापाक इरादे तौबा ! तौबा! करते थे।
मैं वही लखनऊ, मुझमें वही खून अब भी,
बरजोर खून में अब भी वही रवानी है।
हर बूँद खून की, है पागल तूफान लिए,
हर बूँद, जोश की जलती हुई निशानी है।
हाँ, एक बात रह गई और वह भी कह दूँ,
अंग्रेज हुकूमत ने फिर मुँह की खाई थी।
अपने आँचल से मैंने तेज हवा की थी,
जब आग क्रान्तिकारी दल ने भड़काई थी।
वे मुट्ठी भर, लेकिन पहाड़ से टकराए,
साम्राज्यवाद की कैसी शान उछाली थी।
दुनिया के आगे बड़ी नाक वाले बनते,
उस बड़ी नाक में उनने कौड़ी डाली थी।
काकोरी कहता, क्रांतिकारियों ने उनकी,
गाड़ी तो क्या, सचमुच इज्जत ही लूटी थी।
जब रास खींच कर उसे रोक ली, तो उनकी
छूटती कहाँ से गाड़ी, नाड़ी छूटी थी।
वह लुटी-पिटी गाड़ी आई रोती-रोती,
वे क्रांति-वीर आए इठलाते मदमाते।
अपनी आँखों से मैंने दोनों को देखा,
वे दिन रह-रह कर अब भी मुझे याद आते।
बिस्मिल, उफ कैसा विकट हौसला था उसमें,
वह जान झोंक देने में औरों से बढ़कर।
अशफाक चाँद-सूरज का एक नमूना था,
वह चमक उठा, शासन की छाती पर चढ़कर।
रोशन, बहादुरी को रोशन करने आया,
वह अक्खड़ता है अब न देखने को मिलती।
राजेन्द्र गजब की अलमस्ती उसने पाई,
जो उसे देखता, मन की कली-कली खिलती।
आजाद, नहीं मिलती उसकी कोई मिसाल,
क्या विकट दिलेरी और बला की तेजी थी।
कुछ खास तौर से अपने हाथों से गढ़कर,
वह हस्ती मालिक ने दुनिया में भेजी थी।
वह झूम-झूम कर चलना, उसका इठलाना,
वह जोखिम में उसका आगे-आगे रहना।
वह शान, बहुत मुश्किल करना उसका बयान,
वह वतन-परस्ती उसकी, उसका क्या कहना।
अफसोस! जाल में उलझ गए उनमें से कुछ,
फिर हुआ न्याय का नाटक, जैसे होता है।
वे झूल गए फन्दों पर हँसते-हँसते ही,
दिल करके उनकी याद आज भी रोता है।
आजाद, नाम जैसा खुद भी आजाद रहा,
अंग्रेज हुकूमत छू न सकी उसकी छाया।
वह आँख-मिचौनी रहा खेलता उससे ही,
था नोच रहा खंभा, वह शासन खिसियाया।
अध्याय-१०: विकट हौसला
ले रहे आप रुचि हैं मेरी इन बातों में
इसलिए कर रहा दिल, कुछ और सुनाऊँ मैं।
आजाद किस तरह लुकाछिपी खेला करता,
कुछ और करिश्में देखे हुए, दिखाऊँ मैं।
आ सकी न कोई उसके दिल में दुर्बलता,
आती कैसे, वह शक्ल देख घबराती थी।
धीरता डालती थी उस पर अपने डोरे,
वीरता निछावर उस पर हो-हो जाती थी।
शासन की आँखों में वह धूल झोंकता था,
पानी में रहकर बैर मगर से करता था।
जब कमजोरी उसके दिल में थी आ न सकी,
डर भी उसके दिल में आने से डरता था।
स्वछन्द पवन जैसी-उसकी इच्छाएँ थीं,
अरमान अग्नि-मुख-पर्वत जैसे बलशाली।
उसकी गतिविधियाँ होनहार की गति जैसी,
आजाद शत्रु के लिए बना करता बाली।
उस दिन उसके मन में यह इच्छा तड़प उठी,
अशफाक जेल में है, उससे मिल आऊँ मैं।
दो बातें करना सचमुच अगर पाप है तो,
दर्शन करके ही जी की जलन मिटाऊँ मैं।
इच्छा का अंकुर उगा, पात फूटे-फैले,
जीवन लहराया, फूलों ने थे फल पाए।
जेलर साहब ने सुना, वहाँ उनसे मिलने,
कोई अच्छे-खासे तगड़े लाला आए।
बंदगी हुजूरे आली! मैं साहू चन्दर,
हाजिर हूँ अपने वतन बड़ौदा, से आकर।
सोचा, हुजूर की खिदमत में कुछ अर्ज करूँ,
मैं देखूँ अपना भाग्य यहाँ भी अजमा कर।
मैं मूँगफली का बहुत बड़ा व्यापरी था,
पिट गया सभी व्यापार, दिवाला निकल गया।
सोचा, दुर्दिन में घर से दूर रहूँ, चलकर,
रोजी-रोटी के लिए करूँ कुछ काम नया।
सुनते हैं, रसद कैदियों को जो दी जाती,
यह काम दिया जाता है ठेकेदारों को।
इस साल इनायत हो मुझ पर गरीब परवर।
मिल जाये रोटी हम जैसे बेचारों को।
जो सिफ्त काम में मेरे, वह भी बतला दूँ,
वह रसद, जे के कैदी यद्यपि खाएँगे।
पर असर पडेग़ा रसद बाँटने वालों पर,
वे मुझ जैसे मोटे-तगडे हो जाएँगे।
``लालाजी! यह दिल्लगी नहीं, गर सच है तो,
हम कोशिश करके काम तुम्हें दिलवाएँगे।
पर खौफ हमें, यदि अनशन कर बैठ कैदी,
तो क्या उन जैसे पिचक नहीं हम जाएँगे।
लाला बोले, ``मैं शक्ल देख कर कह सकता,
खाएगा गुपचुप कौन, कौन चिल्लाएगा।
जब अनशन करने की नौबत आएगी, तो,
उसका इलाज भी उस जैसा हो जाएगा।``
जेलर साहब ने साथ लिया लालाजी को,
ले चले दिखाने कैदी और कैदखाना।
वे सोच रहे थे यह बकरा फँस जाए, तो
पक जाएगा अपना भी अच्छा नजराना।
क्या पता, जिसे वे बकरा समझ रहे थे, वह
नाखून छिपाए, बबर शेर का चाचा था।
शासन के मुँह का घाव अभी भी भरा न था,
जब काकोरी में उसने जड़ा तमाचा था।
आतुर जिसके हित बन्दी-गृह की दीवारें,
शासन की सुरसा भूखी जिसे लील जाने।
वह खड़ा उन्हीं के बीच प्राण-जैसा तन में,
उन्नत ग्रीवा, नि:शंक, निडर, सीना ताने।
अशफाक देखकर उसको, क्षणभर को चौंका,
पण्डितजी कैसे यहाँ, कलेजा काँप गया।
पर समझ गये, हौसला इन्हें ले आया है,
क्या उनके दिल में है, वह यह भी भाँप गया।
जो कुछ आँखों ने कहा, सुना वह आँखों ने,
मुख और कान, दोनों अवयव बेकार हुए।
रीझे-खीझे, उलझे-सुलझे, भर-भर आए,
दिल एक-दूसरे पर इस तरह निसार हुए।
पिंजड़ा मलता रह गया हाथ, उसका शिकार
वह चला गया बाहर, उसके भीतर आकर।
जेलर समझा, उँगली से पहुँचा पकडेंग़े,
पर लाला खिसका, साफ अँगूठा दिखलाकर।
अध्याय-११: झाँसी मौत की माँग
मैं झाँसी, दुश्मन के मंसूबों की फाँसी,
मैं ज्योति वीरता के ज्वलन्त आदशों की।
स्वातंत्र्य हेतु तलवार सान पर चढ़ी हुई,
जीवंत प्रेरणा मैं भीषण संघर्षों की।
मेरी मिट्टी में बारूदी विस्फोट सजग,
हर कंकड़ है मेरा, बलिदान-कहानी है।
हर पत्थर है बेजोड़ वीरता का स्मारक,
मैं वह, जिसमें पर्याय आग, का पानी है।
मैं वह, जिसकी बरजोर हवाओं में बिजली,
जिसकी हर पत्ती के हैं तेवर तने हुए।
जिससे टकरा कर मौत स्वयं मुँह की खाए,
मेरे बेटे हैं उसी धातु के बने हुए।
तलवार हाथ में लिए बुन्देला टूट पड़े,
दुश्मन पर्वत भी हो तो वह हट जाएगा।
वह टूट जायगा किन्तु झुकेगा नहीं कभी,
धरती के हित वह खड़ा-खड़ा कट जाएगा।
यदि नाम पूछना हो मेरा, तो सुनो पथिक!
लन्दन वालों से पूछो, वे बतलाएँगें।
झाँसी कहने के पहले थर-थर काँपेंगे,
लेते ही मेरा नाम, घाव हरियायेंगे।
जब डींग मारते हों वे कभी वीरता की,
ले दो झाँसी का नाम, मुर्दनी छाएगी।
वे भले भूल जाएँ अपने राजा-रानी,
झाँसी की रानी नहीं भुलाई जाएगी।
मैं झाँसी, मेरा नाम स्वयं इतिहास एक,
अक्षर-अक्षर बलिदान कहानी कहता है।
जब कभी देश का मान दाँव पर लगता है,
मेरा विद्रोही खून नहीं चुप रहता है।
मेरी मिट्टी के आगे सोना मिट्टी है,
मेरी मिट्टी, हर देश-भक्त को चन्दन है।
हर कण सजीवता की जीवित परिभाषा है,
हर क्षण जीवन का सर्वोपरि अभिनंदन है।
जिनके अंतर में देश-भक्ति की अमर ज्योति
वे दीवाने, मेरे दर्शन को आते हैं।
उनकी भावुकता मेरे लिए समस्या है,
मेरी मिट्टी, वे अपने शीष चढ़ाते हैं।
आया था ऐसा ही दीवाना एक कभी,
शायद उसने कुछ आक-धतूरा खाया था।
सब लोग माँगते सुखी, दीर्घ अच्छा जीवन,
वह मुझसे अच्छी मौत माँगने आया था।
बोला, माँ! दे सकती हो तो यह वर दे-दे,
आजादी के तेरे सपने साकार करूँ।
आलेख प्रेरणा की जो रहे पीढ़ियों को,
जो मरदों को जीवन दे, ऐसी मौत मरूँ।
रह गई स्तब्ध, जब मैंने उसकी माँग सुनी,
`हाँ या ना' इनमें से कुछ भी कैसे कहती।
जिसने मुझको माँ कह, मेरी पद-रज ली थी।
माँ बनकर उसकी मौत भला कैसे सहती।
`ना' भी इसलिए नहीं मेरे मुँह से निकला,
युग-ध्वनि उसकी वाणी में मुझे सुनाई दी।
आजादी की तस्वीर गढ़ी थी जो मैंने,
उसके संकल्पों में मुझको दिखलाई दी।
मैं इतना ही कह सकी यशस्वी रहो वत्स!
तेरा जीवन, मेरे सपनों की गोद पले।
क्या कहूँ मौत की मौत नहीं, वह जीवन हो,
तेरे इच्छा-पथ पर वह सहमी हुई चले।
अध्याय-१२: वर की खोज
आजाद, गोद में मेरी ऐसे आ बैठा,
सचमुच ही जैसे मैंने उसको गोद लिया।
उसके प्रति इतना स्वाभाविक आकर्षण था,
जैसे हठमठ ही उसने मेरा दूध पिया।
अंग्रेजी शासन के मुँह पर थप्पड़ जड़कर,
मेरी गोदी में आ बैठा निर्भीक-मना।
जैसे घर में ऊँचाई पर हो चित्र टँगा,
पंछी उसके पीछे ले अपना नीड़ बना।
या जैसे कोई सिंह देख अपना शिकार,
कुछ दुबक, संकुचित हो धरती से सट जाए।
फिर अपनी पूरी शक्ति लगा भरकर उछाल,
कसमसा तीर-सा छूटे, उसे झपट खाए।
वैसे ही वह आजाद वीर वज्रांग बली,
दम साधे था अपने दुश्मन पर फट पड़ने।
कह रहा शक्ति का संचय था सक्रियता से,
साम्राज्यवाद के दुर्दम दानव से लड़ने।
अज्ञातवास ही केवल उसका लक्ष्य न था,
वह सूत्र क्रांति के धीरे-धीरे जोड़ रहा।
यौवन, जो होता चकाचौंध पर न्योछावर,
संघर्षों के पथ पर वह उसको मोड़ रहा।
उर्वरा भूमि में यत्न-लता लहलहा उठी,
कलियों ने आँखें खोली, श्रम ने फल पाए।
आजाद अकेला नहीं शत्रु के सम्मुख था,
विश्वस्त मित्र थे अब उसके दाँए-बाँए।
यौवन की आँधीं उठी वेग से हहराती,
लड़खड़ा उठी अत्याचारों की सजल घटा।
आराध्य देश, व्यक्तित्व श्लेष था उन सबका,
संकल्प-साधना अनुप्रास की दिव्य छटा।
जब सुखद नींव की घनी छाँह में, लोगों के,
यौवन के मीठे मादक सपने पलते थे।
कर्तव्य-सजग उनके अंतर भट्टी बनते,
संकल्प मुक्ति के, गोले जैसे ढलते थे।
संकल्प अकेले ढलते, ऐसी बात न थी,
निर्मित होते सचमुच विध्वंसक बम गोले।
था बारूदी उत्साह भड़क उठने आतुर,
सब तुले हुऐ थे, जो होना है सो होले।
हम भूख-प्यास जिस आवश्यकता को कहते,
उस दुर्बलता के आगे थे वे झुके नहीं।
उठ गए पाँव, तूफान ताकता रहा उन्हें,
वे आग और पानी से बाधित रुके नहीं।
क्या वास्तु विवशता है, उनने जाना न कभी,
भय क्या है उससे परिचय भी तो हुआ नहीं।
घर की सीमाओं ने उनको बाँधा न कभी,
अपनों की ममता ने उनका मन छुआ नहीं।
आजाद, देश की आजादी था खोज रहा,
संघर्ष-शील मन के संकल्पों के वन में।
हर साँस दासता से भारी-भारी लगती,
कस रही खाल थी उसकी, माँ के बंधन में।
भुजदंड फड़कते थे अरि का मर्दन करने,
वह दाँत पीसता था उसको खा जाने को।
उसका यौवन था प्रलय मेघ-सा घुमड़ रहा,
धरती के दुश्मन पर विनाश बरसाने को।
था सूँघ रहा शासन भी उसकी गतिविधियाँ,
वह डाल रहा था जाल, उसे उलझाने को।
बढ़ रहीं समस्याएँ थीं उसकी दिन-दूनी,
आजाद चाहिए था उनको सुलझाने को।
हथकड़ियाँ थीं बेचैन वरण करने उसका,
वे आस लगाए उसकी बैठी थीं क्वाँरी।
ससुराल बने, यह कारागृह की साध रही।
कर रहे सभी थे धूमधाम से तैयारी।
बढ़ रहे भाव, आजाद अकड़ता जाता था,
था माँग रहा यह भी दहेज में आजादी।
शासन ससुरा, यह देने को तैयार न था,
इस उलझन में थी अटक रही अब तक शादी।
जब देखा, उसको सभी दबाने तुले हुए,
सब उसे फाँसने डाल रहे घेरा भारी।
तो वह भी सबको धता बताकर निकल गया,
रम गया कहीं वह, बनकर बालब्रह्मचारी।
अध्याय-१३: ओरछा अज्ञात योगी
ओरछा नाम, मैंने भी जीवन देखा,
मैं ग्राम-नगर दोनों की सीमा-रेखा।
खण्डहर, बीते वैभव की याद दिलाते,
अब लहाराते हैं खेत गाँव के नाते।
खण्डहर जिनमें साहित्य दबा सोता है,
उसकी साँसों का भास मुझे होता है।
लगता है, जैसे केशव बोल रहे हैं,
कानों में जैसे मधुरस घोल रहे हैं।
लगता है, जैसे इन्द्र-सभा मुखरित है,
लगता है, जैसे राज प्रजा का हित है।
लगता है, जैसे हर घर कला-निकेतन,
लगता, जैसे रस-सराबोर जड़-चेतन।
स्वर के झूलों पर राग झूलता दिखता,
गौरव से है हर वृक्ष फूलता दिखता।
कुछ छायाएँ, जैसे हिलती-डुलती हैं,
जैसे वे आपस में मिलती-जुलती हैं।
प्रेरणा यहाँ है प्राणवन्त कण-कण में,
युग के युग जैसे समा रहे हर क्षण में।
बीते वैभव की याद गर्व बनती है,
वह वर्तमान को पुण्य-पर्व बनती है।
चढ़ रही धूल यश पर यद्यपि विस्मृति की,
पर है विचित्र कुछ चाल समय की गति की।
कोई झोंका आता है धूल उड़ाता,
वह मेरे गौरव को फिर से चमकाता।
कुछ दिन पहले ही ऐसा झोंका आया,
वह मुझको बिलकुल नई चेतना लाया।
वह पवन झकोरा मनुज-देह-धारी था,
वह कोई पहुँचा हुआ ब्रह्मचारी था।
पूछा,तो बोला नाम हरीशंकर है,
जीवन बिलकुल आजाद, देश ही घर है,
जिस जगह लगा मन, योगी रम जाता है।
जीवन-प्रवाह कुछ दिन को थम जाता है।
उस योगी में कुछ कांति विलक्षण देखी,
अव्यक्त साधना उसमें हर क्षण देखी।
तन ऐसा, जैसे पैरुष देह धरे हो,
मन ऐसा, जैसे पूरा सिंधु भरे हो।
मुख पर ज्वलन्त जैसे संकल्प लिपे हों,
वाणी में जैसे अगणित भेद छिप हों।
आँखों में जैसे कोई लौ जलती हो,
संसृति, जैसे संकेतों पर चलती हो।
योगी की कुटिया थी सातार किनारे,
हो सिद्धि खड़ी जैसे साधन के द्वारे।
फलवती हुई हो जैसे कठिन तपस्या,
या लिए चुनौती कोई जटिल समस्या।
सातार, कि जैसे इच्छा मचल रही हो,
`चाँदी' जैसे आतप से पिघल रही हो।
चलती, तो चट्टानों से टकराती थी,
वह उछल-उछल संघर्ष गीत गाती थी।
कहती हो जैसे, जीवन केवल गति है,
गतिशील समय, गतिशील स्वयं संसृति है।
यदि बैठ गए थक कर, जीवन की यति है,
जीवन की यति, बस दुर्गति ही दुर्गति है।
वह कुटिया भी उसकी हाँ में हाँ भरती,
संघर्ष निरन्तर क्रुद्ध पवन से करती।
जर्जरित पात झोंकों से उड़ जाते थे,
योगी के श्रम से वे फिर जुड़ जाते थे।
वर्षा आती, तो छाजन रोक न पाता,
योगी कोने में सिमटा रात बिताता।
था शिशिर-समीरण, जैसे तीर चलाता,
हड्डी-हड्डी को भेद प्राण छू जाता।
कोई योगी को विचलित कर न सका था,
डर उसे डराता, पर वह डर न सका था।
अर्जुन-वृक्षों पर झुकता घना अंधेरा,
भूतों-प्रेतों का जैसे उन पर डेरा।
हर रात विकट भय की सराय होती थी,
जंगली हवा की साँय-साँय होती थी।
बाहर हू! हू! करके शृगाल रोते थे,
अच्छे-अच्छे अपना धीरज खोते थे।
थे कभी भयानक वन पशु शोर मचाते,
दरवाजे पर ही सिंह कभी आ जाते।
योगी, जैसे भय का दुर्भेद्य किला था,
पर्वत जैसा अविचल मन उसे मिला था।
श्रम उसके जीवन का अति पावन क्रम था,
बजरंग बली की पूजा नित्य-नियम था।
सिंदूरी चोला उन्हें चढ़ाया करता,
कुछ इधर-उधर भी वह हो आया करता।
जा रहा एक दिन था वह वन-प्रांतर में,
थे घुमड़ रहे कुछ भाव सजग अन्तर में।
आ निकट, पुलिस वालों ने उसको घेरा,
`सच-सच बतला क्या असल नाम है तेरा?
लगता, तू ही आजाद क्रांन्तिकारी है,
यह भेष बदल कर बना ब्रह्मचारी है।
हम अभी साथ ले चलते तुमको थाने,
सब आ जाएगी तेरी अकल ठिकाने।
योगी बोला, ``क्यों तुम सब मुझे सताते,
आजाद क्रांन्तिकारी क्यों मुझे बताते।
वैसे मैं हूँ आजाद क्योंकि योगी हूँ,
मैं नहीं किसी का चर वेतन-भोगी हूँ।
जिसने घर छोड़ा, बना ब्रह्मचारी है,
वह व्यक्ति कर्म से सदा क्रांन्तिकारी है।
पर छोड़ो इन बातों को तुम घर जाओ,
मैं हनूमान का भक्त, न मुझे सताओ।
बजंरग बली को चोला मुझे चढ़ाना,
जब जी चाहे, तुम भी प्रसाद ले जाना।
योगी ने उनको भरमाया बातों में,
क्या जीते उससे कोई प्रतिघातों में।
उनको टरका, योगी कुटिया पर आया,
निज इष्टदेव को आकर शीष नवाया।
बोला, ``बंजरगी! खूब बचाया तूने,
संकट में अच्छा मार्ग सुझाया तूने।
पकड़ा जाता तो हवा जेल की खाता,
सब किए कराए पर पानी फिर जाता।
तेरे बल पर मैं हर दम यही कहूँगा,
आजाद नाम, हरदम आजाद रहूँगा।
पैदा न हुआ कोई, जो मुझको पकड़े,
जंजीरों में मुझको क्या कोई जकड़े।
यह पुलिस, स्वयं हारेगी और थकेगी,
जीते जी, मेरी छाया छू न सकेगी।
अध्याय-१४: योग माया
अनुदिन प्रसरित योगी की ख्याति-परिधि थी,
बढ़ रही ब्याज जैसी ही यश की निधि थी।
सौरभ को क्या कोई बन्दी कर पाया?
क्या नहीं क्षितिज से सूरज बाहर आया?
विश्वास जहाँ जमता, श्रद्धा बढ़ती है,
वह तेज नशे जैसी मन पर चढ़ती है।
यश की निधि लूटे कभी नहीं लुटती है,
जितनी लूटो, वह दूनी आ जुटती है।
जब कीर्ति-कौमुदी फैल गई घर-घर में,
कुटिया का योगी था सबके अन्तर में।
लग गए भक्त-जन अब दर्शन को आने,
अर्पित करते थे लोग फूल, फल पाने।
थी एक साँझ, वह बेला गोधूली थी,
वन-प्रांतर में संध्या फूली-फूली थी।
वरदान प्रकृति ने शोभा का पाया था,
मन का हुलास, जैसे बाहर आया था।
योगी यह मोहक दृश्य निहार रहा था,
वह मन में उसका चित्र उतार रहा था।
उसकी तन्मयता में कुछ बाधा आई,
दी उसे मृदुल कोमल पदचाप सुनाई।
कुछ क्षण में ही उसके सम्मुख आकृति थी,
जैसे कि देह धर आई स्वयं प्रकृति थी।
तन की द्युति, जैसे फेनिल चन्द्र-छटा हो,
अलकावलि, जैसे श्यामल सजग घटा हो।
आँखें, जैसे दो झीलें भरी-भरी हों,
पुतलियाँ, कि जल में तिरती हुई तरी हों।
पलकें जैसे सीपियाँ मोतियों वाली,
करतीं बरौनियाँ निज धन की रखवाली।
भृकुटी, जैसे दो इन्द्र-धनुष उग आए,
चितवन, जैसे मन्थन ने तीर चलाए।
उर, जैसे लहराता तूफानी सागर,
करता हो जैसे अपना ओज उजागर।
वह यौवन, जैसे लेता हो अँगड़ाई,
साँसों में जैसे केशर-गंध समाई।
गति, जैसे गर्वीली नागिन लहराए,
जिस ओर चले, भारी उत्पात मचाए।
उत्पात उपस्थित योगी के सम्मुख था,
जैसे कि समन्वित हो आया सुख-दुख था।
दोनों अवाक्, दोनों हतप्रभ सम्मोहित,
जैसे प्रभाव हो पारस्परिक प्ररोहित।
युग जैसे भारी लगे उन्हें कुछ क्षण थे,
दोनों अंतर ही बोझिल भाव-प्रवण थे।
प्रकृतिस्थ भावनाएँ अब मौन मुखर था,
अब हुआ निनादित वीणा से मृदु स्वर था।
``कल्याण-कामना हेतु दवि! प्रस्तुत हूँ,
केवल साधक, मैं सिद्ध नहीं विश्रुत हूँ।
अभ्यास योग का है मेरा साधारण,
क्या पूछूँ मैं इस अमित कृपा का कारण?
``मेरी पीड़ा का पूछ रहे हो कारण,
कारण भी तुम ही, उसके तुम्हीं निवारण।
सब जान-बूझ अनजान बन रहे योगी,
क्यों नहीं मुझे वरदान बन रहे योगी?
यह योग सधना किसके हित अपनाई?
चढ़ते यौवन में यह विरक्ति क्यों आई?
क्या साध किसी की रह जाएगी प्यासी?
यह रम्य रूप, मन में क्यों घनी उदासी?
``वरदान बनूँगा कैसे मैं कल्याणी,
गृह-हीन पथिक, बिल्कुल नगण्य-सा प्राणी।
यह प्यास, प्यास है नहीं, मात्र विकृति है,
है तृप्ति एक इसकी, वह भाव-सुकृति है।
मैं स्वयं रूप का भक्त, रूप वह मन का,
सौन्दर्य नहीं होता है केवल तन का।
तुम जिसे रूप कहती हो, वह तो छल है,
वह रूप, आत्मा का ही केवल बल है।
मैं मन देती योगी! तुम मुझको बल दो,
हम बनें मनोबल, जीवन को संबल दो।
दो तन होकर, हम एक रूप हो जाएँ,
जिस लिए मिला जीवन, उसका फल पाएँ।
``तुम पुरुष, औरर मैं प्रकृति-स्वरूपा नारी,
हम दोनों ही सह-जीवन के अधिकारी।
मनु के आगे श्रद्धा हो रही समर्पित,
हम करें आज नव-जीवन, नव-रस अर्जित।
तुम शक्ति स्वरूपा, फिर क्यों सह दुर्बलता,
क्या शोभित नारी को इतनी चंचलता?
कुल-शील आदि कुछ ज्ञात नहीं है मेरा,
क्यों व्यक्त अपरिचित के प्रति स्नेह घनेरा?
``है प्रणय नहीं दुर्बलता, शाश्वत बल है,
यह मानव जीवन का पावन शतदल है।
अनुबंध प्रणय का कोई पाप नहीं हैं,
वरदान प्रणय है, वह अभिशाप नहीं है।
कुल-शील नहीं निर्णायक कभी प्रणय के,
कुल-शील नहीं बन्धन हैं कभी हृदय के।
पल एक बहुत है, दो अन्तर मिल जाने,
रवि-रश्मि एक है बहुत कमल खिल जाने।
तुम मेरे हो, जब से तुमको देखा है,
व्यवधान नहीं अब विधि-निषेध रेखा है।
पल भर में ही तुमको पहचान लिया है,
मैंने तुमको बस अपना मान लिया है।
``अनुबन्ध देवि! दो हृदयों में होता है,
उर एक, प्रणय का भार नहीं ढोता है।
दो हाथों से बजती सदैव है ताली,
मेरा अन्तर इस प्रणय-भाव से खाली।
मैं हूँ निवेदिता, हृदय दे रही तुमको,
मीठे सपनों का निलय दे रही तुमको।
योगी, यह सब स्वीकार किया जाता है,
इन भावों का सत्कार किया जाता है।
जो ठुकराता है प्यार, बहुत पछताता,
लगता है उसको शाप, बहुत दुख पाता।
अष्शिप्त बनो मत, जीवन का सुख पाओ,
वरदान स्वयं घर आया है, अपनाओ।
``हूँ विवश देवि! मैं तिल भर नहीं हिलूँगा,
इस जीवन में तो तुमको नहीं मिलूँगा।
मेरे जीवन में नारी केवल माँ है,
वह ज्योतित पूनम है, वह नहीं अमा है।
तपते जीवन को, माँ शीतल छाया हैं,
माँ से महानता ने भी बल पाया है।
आना है तो अगले जीवन में आना,
माँ बन कर मुझको अपने गले लगाना।
``योगी! सचमुच तुम जीत गए मैं हारी,
तुम पुरुष नहीं हो हो कोई अवतारी।
अनुभूति आज की अमर प्रेरणा होगी,
हों माया के अपराध क्षमा, हे योगी।
तुम हो जिसने नारी को विवश किया है,
जीवन बिल्कुल ही मुझको नया दिया है।
जो व्रत-साधा तुमने, पूरा वह व्रत हो,
उस दिव्य-साधना से जन-जन उपकृत हो।
अध्याय-१५: कानपुर प्राणों की मशाल
मैं शहर कानपुर, भारत का उद्योग नगर,
मैं वह साँचा हूँ, जिसमें लक्ष्मी ढलती है।
मैं पल भर भी थक कर विश्राम नहीं लेता,
दिन-रात, सुबह या शाम जिन्दगी चलती है।
मेरे जीवन का मूल-मन्त्र केवल श्रम है,
गंगा जैसा ही पावन मुझे पसीना है।
यदि आप कहें, यह जीवन एक अंगूठी है,
मैं कहूँ, पसीना ही उसका अनमोल नगीना है।
दिन-रात, वयोगी उर के सतत प्रज्ज्वलन-सी,
धू-धू करके भट्टियाँ प्रचण्ड दहकती हैं।
इस्पात पिघल जाता स्नेहिल अन्तर-सा,
शुभ अगरु-धूप-सी साँसें नित्य महकती हैं।
श्रम अर्थ-व्यवस्था के क्षय से पीड़ित रहता,
श्रम का फल कोई पाए तो कैसे पाए।
पूँजीवादी अन्तर की स्वार्थ-साधना-सी
चिमनियाँ खड़ी रहतीं सुरसा-सा मुँह बाए।
मन की विकृतियों जैसा धुँआ उगलतीं वे,
उनकी कालिख जन-जीवन पर छा जाती है।
जीवन पर छाई यह कालिख तब उड़ती है,
प्रज्ज्वलित क्रांति की जब आँधी आ जाती है।
आँधियाँ अनेकों मैंने ऐसी देखी हैं,
भूकम्प कई भीषण मेरे घर आए हैं।
मानव होकर जो मानव का शोषण करते
अपनी लपटों से उनके मुँह झुलसाए हैं।
संघर्ष उठाए, मेरे उग्र विचारों ने,
तूफान भयंकर इन साँसों ने झेले हैं।
जिन्दगी धरोहर रखी नहीं फूलों के घर,
मैंने काँटों के खेल अनेकों खेले हैं।
मेरी आँखों में घूम रहा सन् सत्तावन,
जब मुक्ति-समर में मेरे शेर दहाड़े थे।
युद्धोन्माद ने भीषण प्रलय मचाया था,
वे झपट पड़े तो शत्रु कलेजे फाड़े थे।
फिर क्रांन्ति-काल के वे दिन जब लपटें नाचीं,
पिस्तौलों ने जब मचल भैरवी गाई थी।
बम के गोलों ने भड़क-भड़क कर ताल दिया,
अंग्रेजों की तब अकल ठिकाने आई थी।
वे सिंह-सूरमा एक-दूसरे से बढ़कर,
बन गया कानपुर उनके लिए अखाड़ा था।
लोहू से उनने रंगा क्रान्ति के झण्डे को,
साम्राज्यवाद की छाती पर ही गाड़ा था।
जब डूब गए कुछ तारे, कुछ टिमटिमा रहे,
आजाद, गगन में धूमकेतु-सा आया था।
साम्राज्यवाद के पैरों की धरती खिसकी,
सत्यानाशी फल उसने उन्हें चखाया था।
जाने कितनी थी आग विचारों में उसके,
संकेतों में ज्वालामुखियों का नर्तन था।
बलिपंथी पागल पर्वानों को साथ लिए,
वह एक नए युग का कर रहा प्रवर्तन था।
रौंदा करता था शत्रु-कलेजे मचल-मचल,
वह क्रुद्ध प्रभंजन जैसी भीषण चाल लिए।
वह खोज रहा था भारत की आजादी को,
अपने प्राणों की जलती हुई मशाल लिए।
अध्याय-१६: अखण्ड भारत
मैं नगर कानपुर, भूल नहीं पाता वह दिन,
जब आसमान से सूरज आग उगलता था।
लगता था, जैसे किरणें गर्म सलाखें हैं,
धरती का चप्पा-चप्पा उनसे जलता था।
लू के प्रवाह का क्रुद्ध प्रवर्तन ऐसा था,
जैसे कि भयंकर आग पिघल कर आई हो।
या प्रलय-सूर्य ने स्वयं आगमन के पहले
आगमन-सूचना की पत्रिका पठाई हो।
लगता था, जैसे, सौ-पचास भट्टियाँ नहीं,
बन गया नगर ही एक बड़ा-सा भट्टा है।
चिमनियों, धुएँ के असित-रंग-आकर्षण से,
आतप सारा का सारा यहाँ इकट्ठा है।
सारा का सारा नगर एक भारी कढ़ाह,
जिसमें पड़कर चेतन-जीवन खलबला रहा।
लू के झोंके कर देते जीवन अस्त-व्यस्त,
जैसे कढ़ाह में कोई कोंचे चला रहा।
ऐसे आलम में लोग प्राण-रक्षा करने,
दुबके बैठे अपने-अपने घर के बिल में।
कुछ कर्मयोग के साधक उस दोपहरी में,
लड़ रहे धूप से, आग लिए अपने दिल में।
आजाद साथ दल के, था वन-वन भटक रहा,
लग गई पुलिस को गंध, नगर वह छान रही।
जितने अनियारी मूँछों वाले हाथ लगे,
वह पकड़-पकड़ कर उन सबको पहचान रही।
तप रही तवा जैसी धरती, पर वीर उधर,
था रौंद रहा वन को, वह दावानल जैसा।
जैसे कोई औघड़ हो, जीत रहा ऋतु को,
या धुनी भटकता हो कोई पागल जैसा।
अपने मित्रों के प्रति उसका उद्बोधन था,
साथियो! आज जीवन की सही समीक्षा है।
यह धूप न केवल अपने लिए चुनौती है,
यौवन के उन्मादों की कठिन परीक्षा है।
तप रहे खून की गर्मी से, क्या धूप उन्हें,
चाँदनी समझ उसको, वे रास रचाते हैं।
जो अपने यौवन की ही आग लिए फिरते,
वे किसी लपट से दामन नहीं बचाते हैं।
जिनके यौवन का खून खौलता नहीं कभी,
वे आग और लपटों की चर्चा करते हैं।
जिनके शोणित में आग प्रवाहित होती है,
ज्वालाओं के तल में वे लोग उतरते हैं।
हम मस्तक अपने रख हथेलियों पर फिरते,
कोई प्रचण्ड आतप क्या हमें डराएगा।
अपने सर से हम कफन बाँध कर ही निकले,
क्यों काल नहीं फिर हमसे मुँह की खाएगा।
हम आज़ादी की देवी को करने प्रसन्न,
अपने प्राणों के पुष्पहार लेकर निकले।
निश्चित है, उसकी भेंट चढ़ेंगे ही हम सब,
हम में से कुछ, कुछ पीछे, या कुछ, कुछ पहले।
इसलिए प्रतिज्ञा करें कि कोई दुर्बलता,
दल के गौरव पर कालिख नहीं लगाएगी।
यदि देशद्रोह की गंध तनिक भी आई, तो,
गोली ही उसको अनुशासन समझाएगी।
जो मानचित्र खींचा है हमने भारत का,
अपने शोणित, का हम सब उसमें रंग भरें।
जीवन में और मरण में एक-दूसरे के-
हम साथ रहेंगे, मिलकर यह संकल्प करें।
लग गई होड़, 'यह लो ! यह लो!` कहकर सबने,
अपने हाथों से अपना-अपना खून दिया।
जो मानचित्र खींचा अखण्ड भारत का था,
उसको रंग कर, जीवन को जोश-जुनून दिया।
अध्याय-१७: आगरा आग का घर
जिसके अन्तर में पौरुष की है आग भरी
मैं उसी आग का हूँ, आगरा कहाता हूँ।
सब जुल्म-जोर के जल जाते हैं घास पात,
जब आँख बदल कर मैं अपनी पर आता हूँ।
मेरी सड़कों, गलियों, या कूचे-कूचे में,
भारत का है गौरव-शाली इतिहास छिपा।
मेरी अलसाई आँखों में पतझार छिपा,
मेरी मदमाई आँखों में मधुमास छिपा।
कह रहा कौन, आड़ा-तिरछा मेरा आँगन,
कुछ लाल-धवल उस आँगन में पाषाण भरे।
सच बात अगर सुनना चाहें, मुझसे सुनिए,
मेरे पत्थर-पत्थर में जीवित प्राण भरे।
भारत की संस्कृति का जय-घोष कर रही जो,
वह यमुना भी मेरे घर होकर बहती है।
मेरे वैभव के जो दिन उसने देखे हैं,
वह उसकी गाथा हर दर्शक से कहती है।
क्या ताजमहल का भी लेखा देना होगा?
आश्चर्य विश्व का, किन्तु गर्व वह अपनों का।
लगता है, जैसे कला देह धर आई है,
या फूल खिला बैठा है सुन्दर सपनों का।
या याद किसी की बर्फ बन गई है जम कर,
या कीर्ति किसी की गई दूध से है धोई।
या श्रम की साँसों की पावनता उग आई,
या गढ़ कर ही रह गई दृष्टि उजली काई।
कोई कुछ भी कहना चाहे कह सकता है,
पर एक बात है, ताज ताज है भारत का।
वह व्यक्ति-स्नेह की यादगार तो है ही, पर
यह भी सच है वह मान आज है भारत का।
यह नहीं कि स्वर की जमीं-लहरियाँ ही केवल,
यह नहीं कि मेरे फूल-फूल ही महके हैं।
लपटों ने भी गौरव की रखवाली की है,
जब कभी आँच आई, अंगारे दहके हैं।
आजादी के संघर्ष-काल के वे दिन, जब,
उठ खड़े हो गए जगह-जगह कुछ दीवाने।
उस महफिले की थी एक शमा भी जली यहाँ,
आए थे जाने कहाँ-कहाँ से परवाने।
सरकार फिरंगी उन्हें क्रांतिकारी कहती,
वह चून बाँध कर उनके पीछे पड़ी हुई।
वे भी तो उसके पीछे पड़े भूत जैसे,
आजादी पर दोनों की गाड़ी अड़ी हुई।
वे कहते, आजादी अधिकार हमारा है,
अधिकार माँग कर नहीं, इसे लड़कर लेंगे।
सरकार खुशी से नहीं दे रही, तो अब हम,
आजादी इसकी छाती पर चढ़ कर लेंगे।
हम नहीं याचनाएँ करने के विश्वासी,
हम मार-मार कर इनके भूत भगाएँगे।
हम गोली का, बमगोलों से उत्तर देंगे,
आहुतियों से लपटों की भूख जगाएँगें।
अध्याय-१८: चाँदनी और चट्टान द्वीप
उस दिन जब निकला चाँद, चाँदनी भी निकली,
वह तेज नशे की हलकी हुई खुमारी सी।
रेशमी-धवल साड़ी में धरा सुशोभित थी,
अवगुण्ठित स्नेहिल विनय-शील सुकुमारी-सी।
चाँदनी, कि जैसे कुशल चाँद जादूगर ने,
दर्शक-दल पर अपनी मोहनी बिखेरी हो।
या किरण-जाल फैला धरती को फाँस लिया,
नभ के मचान पर बैठा चाँद अहेरी हो।
चाँदनी, धरा पर दूती बन कर आई-सी,
वह चाँद, प्रतीक्षा-रत जैसे अभिसारी हो।
या जिसका मुँह फक हुआ जमा-पूँजी खोकर,
वह चाँद, कि जैसे हारा हुआ जुआरी हो।
चाँदनी, कि जैसे उजली कीर्ति कलाधर की,
दिशि-विदिशाओं में सुमन-सुरभि-सी फैली थी
वह चाँद, सुकवि जैसे रहस्यवादी कोई,
चाँदनी, कि, जैसे उसकी अपनी शैली थी।
वह चाँद, फुहारों का हो जैसे छतनारा,
धरती जैसे जी-भर मल-मल कर नहा रही।
चाँदनी, कि जैसे स्वच्छ झाग हो साबुन का,
या नभ की ग्वालिन दूध धरा पर बहा रही।
मैं स्नात आगरा रूप-रंग-रस धारा में,
स्वप्निल कल्पना-तरंगों में लहराया-सा।
राका रजनी की रजत-रश्मियों से कर्षित,
था ताज-क्षेत्र में जन-जीवन बौराया सा।
कुछ यहाँ-वहाँ बैठे थे बिखरे-बिखरे से,
गपशप करते मुकुलित सुरभित उद्यानों में।
मखमली गलीचे जैसा हरित दूर्बा-दल,
मृदु सिहरन भरता यौवन के अरमानों में।
थी होड़ लगी, कुछ सुमन उधर, कुछ सुमन इधर,
सौरभ-तंरग थी प्रसरित बहु-धाराओं में।
कुछ भ्रमर उधर बन्दी थे सरसिज-संपुट में,
मन हुए इधर बन्दी, तन की काराओं में।
चाँदनी स्निग्ध-शीतल थी चन्दन जैसी, पर,
बाजार गर्म था विविध भाव-अनुभावों का।
थी कहीं उपालंभित प्रेमी की निष्ठुरता,
हो रहा प्रदर्शन कहीं हृदय के घावों का।
था मान-मनौवल कहीं, कहीं वादों की झड़,
थी कहीं दुहाई दी जाती विश्वासों की।
मीठे सपनों को सरसाती स्वर छेड़ रही,
बाँसुरी कहीं मादक श्वासों-प्रश्वासों की।
लगता, जैसे जीवन केवल वैभव-विलास,
लगता, जैसे दुनिया केवल रस की धारा।
लगता जैसे सौन्दर्य चक्रवर्ती शासक,
लगता था, जैसे कोमल रूप कठिन कारा।
मनुहार-प्यार के इस अगाध सागर में ही,
संकल्प प्रखर भी थी कुछ बड़वानल जैसे।
उठ रहा झाग फुसफुसा धरातल पर केवल,
भूकम्प छिपाए हुए अतल का जल जैसे।
आनन्द महासागर में दो चट्टान-द्वीप,
कर रहे धरातल की गतियों का अनुशीलन।
उनके कठोर संकल्पों में विस्फोट सजग,
वे क्या जाने मन की कलियों का उन्मीलन।
प्रतिमान द्वीप द्वय थे नगराज हिमालय के,
उपलब्धि एक की तन-मन की उँचाई थी।
संगठित, पुष्ट पौरुष की घनीभूत गरिमा,
जो द्वीप दूसरा था, वह उसने पाई थी।
यदि नामकरण अत्यावश्यक हो, तो कह दूँ,
था भगतसिंह, पौरुष पंजाबी पानी का।
आजाद, नाम था फौलादी संकल्पों का,
वह चरम बिन्दु था तपती हुई जवानी का।
ज्योत्सना-सरोवर में वे कमल-पत्र जैसे,
मन तो क्या तन पर भी न बूँद क्षण भर ठहरी।
रस की रुचि ऐसी, जैसे पानी की लकीर,
कर्त्तव्य-सजगता पत्थर की रेखा गहरी।
आजाद फुसफुसाया, ``क्या बुरा जमाना है,
अभिशाप गुलामी का साँसों पर छाया है।
यह यौवन है जो पिघल रहा शीतलता से,
यह जीवन का आनन्द लूटने आया है।
मन में आता है, अगर चले मेरा वश तो,
वैभव-विलास के घर में आग लगा दूँ मैं।
सम्मान बेच, सुख-नींद सो रहा जो समाज,
जी करता, उसकी ठोकर मार जगा दूँ मैं।
प्रतिरोध न करता जो यौवन अन्यायों का,
जिस लाल खून में नहीं आग की गर्मी है।
जिन साँसों में है लपटों जैसी लहक नहीं,
जिन्दगी, जिन्दगी नहीं, बड़ी बेशर्मी है।
सहमति सूचक `हाँ' भगतसिंह के स्वर में थी,
उद्दाम मनोभावों का किया समर्थन था।
उसके चिन्तन को तर्क सदा बनते खराद,
इसलिए विनत हो प्रस्तुत यह संशोधन था।
क्यों आग लगाएँ हम अपने समाज में ही,
हम लोग गुलामी की ही चिता सजाएँगे।
जिसने हमको अपने घर में घर-हीन किया,
उसकी इंर्टों से अब हम ईंट बजाएँगे।
आजादी अपना मूल्य माँगती है हमसे,
हम अपने मीठे सपनों का बलिदान करें।
जिसकी मिट्टी की गंध समाई साँसों में,
जीवन देकर, उस धरती का सम्मान करें।
उल्टी-सीधी, सीधी-उल्टी इसकी गति हैं,
यह व्यक्ति-देश का भाग्य-चक्र ऐसे फिरता।
मर-मिंटे व्यक्ति, तो देश सँवरता है उनका,
यदि व्यक्ति सँवरते, देश बहुत नीचे गिरता।
इसलिए करें संकल्प, नींव के पत्थर बन,
छाती पर आजादी का महल उठायेंगे।
हम नींव खून से जितनी-जितनी सींचेगे,
उस मंजिल पर हम उतने शिखर चढ़ाएंगे।
आजाद तड़प कर बोल उठा, `सुन भगतसिंह!
यह खून देश का है, यह मेरा खून नहीं।
जो मेरे संकल्पों की गति को रोक सके,
इस शासन पर ऐसा कोई कानून नहीं।
मैं प्रलय-मेघ-सा शासन पर मंडराऊँगा,
मैं आजादी का पावन कमल खिलाऊँगा।
प्यासी धरती को लोग पिलाते पानी, मैं-
अपनी धरती को अपना खून पिलाऊँगा।
मैं रक्त तिलक कर, वचन दे रहा हूँ तुझको,
लोहित लहरों में तेरे साथ बहूँगा मैं।
जब खूनी तूफानों में कूद पडेग़ा तू,
उस तैराकी में पीछे नहीं रहूँगा मैं।
अध्याय-१९: लाहौर प्यारे सपने
लाहौर, नगर मैं टूटे हुए सितारे-सा,
मैं ऐसा भटका, रहा ठिकाना-ठौर नहीं।
लाहौर, बिंब हूँ मैं भारत के दर्पण का,
मैं बदल गया हूँ फिर षी क्या लाहौर नहीं।
लाहौर जगह वह-मिले जहाँ दो मोड़ मुझे,
मै गलत दिशा में गलती से मुड़ आया हूँ।
लाहौर, पात मैं भारत की ही डाली का,
इस ओर हवा के झोंके से उड़ आया हूँ।
कहते हैं टूटा पात न डाली पर लगता,
क्या इस परवशता का मुझको कम खेद नहीं?
जो चाहो रख दो नाम, नाम में क्या रक्खा,
तुम राम कहो या मैं रहीम, कुछ भेद नहीं।
धरती तो अब भी वही, जहाँ मैं पहले था,
क्या आसमान टुकड़े-टुकडे हो पाया है?
है हवा एक, जो दोनों घर आती जाती,
प्रतिबन्ध किसी ने उस पर कभी लगाया है?
इस बदले हुए जमाने में भी क्या बदला,
दिल वही रहा, केवल विचार ही बदले हैं।
दुलहिन की डोली वही, वही दुलहिन भी है,
वे बदल न पाए, बस कहार ही बदले हैं।
जो पाँख-पखेरू पहले थे, वे अब भी हैं,
गाते तो वे ही गीत आज भी गाते हैं।
यदि बदल गया कुछ, ऐनक ही तो बदला है,
आँखों में अब भी वे ही सपने आते हैं।
वह अंग्रेजों का जुल्म-सितम वरपा करना,
कंधे से कंधा मिला, सभी का भिड़ जाना।
वह बलिदानों की होड़, दौड़ कुर्बानी की,
वह आजादी की जंग अनोखी छिड़ जाना।
वह शान्ति-अहिंसा की भारत-माता की जय,
वह आग क्रान्ति की, इन्कलाब का वह नारा।
लगता था, जैसे ये बादल छंट जाएंगे,
लगता था, अब हो जाएगा वारा-न्यारा।
जो कुछ मैंने वारा वह, व्यर्थ हुआ सारा,
मेरे पाँसे भी उल्टे सारे के सारे।
मैं सोच रहा था अब वारे-न्यारे होंगे,
दो भाई लड़कर किन्तु हुए न्यारे-न्यारे।
वह तीर जहर में बुझा हुआ था दुश्मन का,
कर गया काम, हम तड़पे और छटपटाए।
जब न्याय-तराजू बन्दर के हाथों में थी,
मिलना जाना क्या था, केवल आँसू पाए।
आँसू बोए, तो भेद-भाव की बेल उगी,
जब खिले फूल नफरत के, तो दुश्मनी फली।
वे राम और रहमान साथ चलते थे जो,
अब उन दोनों में आपस में तलवार चली।
जो कुछ मैंने देखा, बयान के बाहर है,
जो हुआ, हो गया वह, उसको हो जाने दो।
मत छेड़ो उन घावों को, छिड़को नमक नहीं,
दो घड़ी चैन पाऊँ, मुझको सो जाने दो।
दो घड़ी नींद गहरी लग गई अगर मेरी,
तो ये विचार फिर मुझको नहीं सताएंगे।
वे अच्छे दिन हौले-हौले फिर उभरेंगे,
आँखों में वे प्यार सपने फिर आएंगे।
फिर रासबिहारी बोस यहाँ पर आएंगे,
कर्तारसिंह को आकर गले लगाएंगे।
कर्तारसिंह ने फंदा चूम लिया यदि तो,
वे भतसिंह को वह मस्ती दे जायेंगे।
पंजाब-केसरी भगतसिंह फिर गरजेगा
हम लालाजी की हत्या का बदला लेंगे।
सुखदेव! राजगुरु! ओ आजाद बली! आओ!
हम हत्यारे को अच्छा एक सबक देंगे।
आजाद पुकारेगा, ओ भैया भगतसिंह !
मत समझ कि तू संकट में वहाँ अकेला है।
जब कभी दोस्त का गिरा पसीना धरती पर,
हँसते-हँसते आजाद जान पर खेला है।
फिर कूद-फाँद आजाद यहाँ आ धमकेगा,
आजादी के दीवाने गले मिलेंगे, फिर।
सान्डर्स, गोलियों से फिर भूना जाएगा,
उनकी पिस्तौलों से गुल कई खिलेंगे फिर।
जब चनन सिंह झपटेगा भगतसिंह पर, तो
आजाद गर्जना कर, ललकारेगा उसको।
कर सुनी-अनसुनी चननसिंह यदि फिर लपका
आजाद मौ के घाट उतारेगा उसको।
फिर लिखा मिलेगा घर-घर गली-गली में यह
लालाजी की हत्या का बदला चुका दिया।
जो सर घमंड से अकड़ कर चलता था,
थप्पड़ जड़कर उस सर को हमने झुका दिया।
छेड़ेगा मुझको भगतसिंह अफसर बनकर,
आजाद कीर्तन-मंडल एक बनाएगा।
मैं झूम उठूँगा उसकी मस्ती देख-देख,
मुझको सलाम करता-करता वह जाएगा।
मैं रुखसत दूँगा उसे खुदा हाफिज कह कर,
उसकी खुशहाली की मैं दुआ मनाऊँगा।
अपनी गर्दन को झुका देख लेने उसको,
मैं दिल पर ही उसकी तस्वीर बनाऊँगा।
अध्याय-२०: मीठा-मीठा दर्द
तुम पूछ रहे हो मुझसे वे बीती बातें,
शायद तुम मेरी दुखती नस पहचान गए।
मैं करता हूँ महसूस दर्द मीठा-मीठा,
अजनबी मुसाफिर! शायद तुम यह जान गए।
तो सुनो, एक-दो बातें और बताता हूँ,
आजाद, नहीं उसमें पंजाबी पानी था।
पर जो पानी था, वह तेजाबी पानी था,
क्या कहें खून की, वह सचमुच लासानी था।
क्या सूझ-बूझ थी उसकी कार्य-व्यवस्था में,
किसकी मजाल, जो एक नुक्स भी पा जाए।
योजना, देख लेता था वह नस-नस उसकी,
नामुमकिन क्या, जब वह अपनी पर आ जाए।
हौसला, भला उसका मुकाबिला कहाँ मिला,
जो मिले नहीं ढूँढ़े, वह विकट दिलेरी थी।
जो आँख उठा कर देख सके वह आँख कहाँ?
उसके आगे हिम्मत क्या तेरी-मेरी थी।
संकल्प, बपौती में जैसे उसने पाए,
आदर्श, स्वयं जैसे उसने अपनाए थे।
निस्वार्थ त्याग, जैसे यह उसकी आदत थी,
सच्चे नेता के गुण उसने सब पाए थे।
उस दिन, जब छेड़ा बहुत साथियों ने उसको,
गुस्से में आकर फेंक दिया अपना भोजन।
साथी बोले-अफसोस हमे, पर पंडित जी!
पैसे लेकर, यह करो दुबारा आयोजन।
आजाद कड़क कर बोला, पैसे कहाँ रखे?
ये पैसे यों ही मुफ्त नहीं आ जाते हैं।
जो कोई देता, वह अपने दल को देता,
हम भी उसको पूरा विश्वास दिलाते हैं ।
कर्त्तव्य-भार हम पर भी यह आ जाता है,
रक्खें हिसाब हम उनकी पाई-पाई का।
खाने-पीने में पैसे नहीं उड़ाएँ वे,
सम्मान करें हम दल की नेक कमाई का।
अब निराहार ही आज मुझे रहना होगा,
दल की निधि से, मैं पैसा एक नहीं लूँगा।
मेरा ही दिल, यदि मुझसे पूछेगा हिसाब,
क्या समझाऊँगा, उसको क्या उत्तर दूँगा।
हाँ अगर चाहते तुम, मैं भूखा नहीं रहूँ,
जो फेंक दिए नाली में चने, उठा लाओ।
पानी से धोकर मैं उसको ही खाऊँगा,
अन्तिम निर्णय है, मुझे नहीं तुम फुसलाओ।
झख मार, उठाए गए चने नाली में से,
वे ही उसने खाए, पानी से धो-धो कर।
अतिरिक्त एक पाई भी उसने छुई नहीं,
की नहीं खयानत उसने खुद नेता होकर।
यह देख लिया तुमने, नेता क्या होता है,
कैसे संयम से वह ईमान बचाता है।
वह अपनी लम्बी जीभ नहीं फैलाता है,
लेकर डकार, वह पैसे नहीं पचाता है।
जो कुछ मिल जाए, हड़प नही लेता है वह,
झाँसे देकर गुलछर्रे नहीं उड़ाता है।
बेरहम नहीं होता वह, माले मुफ्त देख,
काले धन पर वह लार नहीं टपकाता है।
पर जाने भी दो, एक नहीं सौ बातें है,
क्या-क्या बतलाऊँ, कैसे-कैसे समझाऊँ।
हाँ, बहक गया मैं शायद बातों-बातों में,
इसलिए लौट फिर उस किस्से पर ही आऊँ।
आजाद, बात का धनी वचन का पक्का था,
वह अगर ठान ले, टस-से-मस फिर क्या होना।
आ पडे मुसीबत भारी से भी भारी, पर
कुछ नहीं शिकायत-शिकवे, या रोना-धोना।
दुर्भाग्य देखिए, भगतसिंह को जेल मिली,
भगवतीचरण, बम फट जाने से नहीं रहे।
शासन ने पकडे बम के कई कारखाने,
इस तरह अनेकों उस दल ने आघात सहे।
आजाद, किन्तु विचलित रत्ती भर नहीं हुआ,
फिर लगा संगठन में वह पूरी ताकत से।
शासन से समझौता करने वह झुका नहीं,
वह बाज नहीं आया था कभी बगावत से।
था कौल यही, दम में दम रहते जूझूँगा,
गिन-गिन कर मैं शासन के दाँत उखाड़ूँगा।
पिंजड़ा, वह मुझको पाने मुँह धोकर रक्खे,
आजाद रहा, रहकर आजाद दहाड़ूँगा।
अध्याय-२१: दिल्ली इतिहास की करवटें
मैं दिल्ली हूँ, युग-युग से रही राजधानी,
भारत के गौरव की प्रख्यात धुरी हूँ मैं।
जो मेरे हैं, मैं उन्हें प्यार की गल-बाँही,
जो शत्रु, कलेजे को विष-बुझी छुरी हूँ मैं।
मेरी नजरों में इतिहासों के प्रलय-सृजन,
हर नजर, खुमारी से बोझिल है बाकी है।
जब ऐसी-वैसी नजर किसी ने फेंकी तो,
उसकी छाती मैंने कीलों से टाँकी है।
मैंने झेली है कड़ी-कड़कती धूप कभी,
तो कभी दूधिया मैं चाँदनी नहाई हूँ।
वैभव-विलास की चकाचौंध पर रीझी हूँ,
पर नहीं कभी उसमें भटकी-भरमाई हूँ।
मैं नहीं किसी की शोख नजर जैसी चंचल,
जो प्यार छिपा कर रखता, मैं उस दिल जैसी।
मैं नहीं किसी चौराहे जैसी भीड़-भाड़,
जो जमे कायदे से, मैं उस महफिल जैसी।
मेरे गौरव की बात पूछते मुझसे ही,
मदमाये फूलों और बहारों से पूछो।
मैंने जीवन में कैसे-कैसे दिन देखे,
सूरज से पूछो चाँद-सितारों से पूछो।
हर कंकड़ ही कुछ लिए कहानी पड़ा हुआ,
कुछ यश गाथा लेकर है हर मीनार खड़ी।
तिलमिला गई, पर मैंने होश नहीं खोया,
जब कभी मुसीबत की हैं मुझ पर मार पड़ी।
आ पड़ी मुसीबत ऐसी ही मुझ पर तब थी,
जब धोखे से लद गया फिरंगी शासन था।
मैं हुंकारी, फुंकारी, झटके दिए कई,
बन गया घोर विद्रोही मेरा जीवन था।
सन सत्तावन में मेरा जौहर जागा, तो,
मेरी लपटों ने खूनी रास रचाया था।
अपने बेटों की आहुतियाँ मैंने दी थीं,
पर भारत के गौरव को सदा बचाया था।
वह जफर, चार बेटों की बलि दी थी उसने,
आजादी के हित उनने शीष कटाए थे।
वे कटे हुए सर रखे बाप के हाथों में,
बर्बर अँग्रेजों ने ये रंग दिखाये थे।
साम्राज्यवाद की खूनी प्यास बढ़ी इतनी,
बहशी हडसन ने सचमुच उनका खून पिया।
मैंने अपनी आँखों से यह सब कुछ देखा,
मैं चीखी-चिल्लाई, पर किसने ध्यान दिया।
कहते, आजादी बिना बहाए खून मिली,
मैंने ऐसी-ऐसी कीमतें चुकाई हैं।
मेरे बेटे फाँसी के फन्दों पर झूले,
तब ये सुहावनी घड़ियाँ घर में आई हैं।
तुम पूछ रहे कुर्बानी मेरे बेटों की,
मेरी जबान पथराई, क्या कह पाऊँगी।
बैठे, यह चित्रावली दे रही मैं तुमको,
पन्ने पलटो, इसकी झाँकियाँ दिखाऊँगी।
अध्याय-२२: चित्र-विचित्र
यह चित्र, तुम्हारी आँखों के सम्मुख है जो,
चल-समारोह यह जाता दिखलाई देता।
लगता, अँग्रेजी शासन का वैभव-विलास,
इस तरह अकड़ कर ही यह अँगडाई़ लेता।
यह शान-वान, यह ठाठ-बाट, गाजे-बाजे,
दे रहे साथ सजधज कर, राजे-रजवाडे।
यह कदम-कदम आगे बढ़ती पैदल सेना,
ये घुड़सवार, हाथों में ही झण्डे गाड़े।
यह घूम-झूम चलता पर्वत जैसा हाथी,
यह सजी लाट साहब की आज सवारी है।
भारतवासी चूँ करें, नहीं वह धाक जमे,
इसलिए आज की यह सारी तैयारी है।
यह चित्र इसी क्रम का है, यह भगदड़ कैसी?
कह रहा धुँआ, यह बम का हुआ धड़ाका है।
बच गए लाट साहब हैं बिलकुल बाल-बाल,
उनके यश पर इस तरह पड़ा यह डाका है।
मैंने लोगों से चर्चा की, तो बतलाया,
यह काम किसी का नहीं, क्रांतिकारी दल का।
बम-काण्ड योजना थी यह रासू दादा की,
लग गया पता अब शासन को उनके बल का।
लो पलट दिया यह पृष्ठ, दूसरा चित्र दिखा,
हो रही सभा यह गुप्त क्रांतिकारी दल की।
ये सभी क्रांति के माने हुए सितारे हैं,
सब आग लिए अपने-अपने अन्तस्तल की।
इनकी बातें मेरे कानों में भी आईं,
ये दिखे मुझे सब के सब प्राणों के दानी।
आजाद उपस्थित हुआ नहीं, पर निर्विरोध,
वह चुना गया था इस सेना का सेनानी।
उसके प्रति यह निष्ठा, ऐसा विश्वास अडिग,
यह मुझे हर्ष की और गर्व की बात बनी।
उस सेनानी ने दल में नई जान डाली,
फिर जोर-शोर से अँग्रजों से जंग ठनी।
यह नया पृष्ठ, यह नया चित्र, देखें इसको,
आजाद-भगत, ये गुप्त मन्त्रणा में रत हैं।
इतने स्नेहिल, भाई-भाई से अधिक प्रेम,
जो असंभाव्य, ये उसको करने उद्यत हैं।
इनकी बातों का यह रहस्य था मिला मुझे,
इनको असेम्बली में करनी थी बमबारी।
शासन के बहरे कान खोलने थे उनको,
आजाद, व्यवस्था उसने ही की थी सारी।
वह जाने कितनी बार सभा में हो आया,
की जाँच, स्वयं उसने सब कुछ देखा-भाला।
जब हुआ उसे सन्तोष, योजना सक्रिय थी,
केवल न सभा, उसने साम्राज्य हिला डाला।
जैसे ये देखे, वैसे चित्र अनेकों हैं,
इनकी मस्ती के कई रूप हैं, रंग कई।
आजाद, झलक मिलती है उसकी कई जगह,
चित्रित उससे जीवन के यहाँ प्रसंग कई।
निर्द्वंन्द्व घूमता था वह मुक्त-पवन जैसा,
वह मन की गति जैसा ही था आता-जाता।
व्यक्तित्व शीत-ज्वर जैसा ही था कुछ उसका,
कँप-कँपी छूटती, शासन उससे थर्राता।
जिसको पढ़-पढ़ कर लोग वीर बनते जाते,
आजाद, वीरता की वह जीवित परिभाषा।
भारत-माता का, वह साकार सुखद सपना,
उसके अन्तर की वह सबसे उज्ज्वल आशा।
अध्याय-२३: प्रयाग बोलते फूल
मैं हूँ प्रयाग, जीवन पुण्यों का पुष्पित तरु,
मैं कठिन तपस्या का अभिलषित प्राप्त वर हूँ।
मैं ज्ञान-कर्म-इच्छा का शुभ्र मिलन-मन्दिर,
भारत की संस्कृतियों की रखे धरोहर हूँ।
माँ वाणी की पूजा का मैं पावन प्रसाद,
मैं अगरु, धूप-चन्दन का धूम्र सुगंधित हूँ।
मैं सत्यं-शिवम्-सुन्दरम् का साकार रूप,
मैं तीर्थराज के गौरव से अभिवन्दित हूँ।
साहित्य-कला-संस्कृति की पुण्य-त्रिवेणी मैं,
मैं जीवन के पावन प्रवाह का शुभ-संगम।
मैं वेद-पुराणों-इतिहासों का मुखरित स्वर,
मैंने उनके उपदेश किए हैं हृदयंगम।
मैं हूँ यथार्थ-आदर्श और सिद्धान्त रूप,
मैं गंगा-यमुना-सरस्वती का हूँ प्रवाह,
सागर की गहराई तो नापी जा सकती,
मेरे अन्तर की गहराई युग-युग अथाह।
यह नहीं कि केवल गंगा, युमना, सरस्वती,
मेरे आँगन में हिल-मिल कर लहराती हैं।
जीवन की जाने कितनी विषम विविधतायें,
सब मेरे घर आपस में मिलने आती हैं।
मेरी धारा का पुण्य-परस इतना पावन,
छू देते ही अस्थियाँ फूल बन जाती हैं।
प्रतिकूल हवाएँ आकर यहाँ गले मिलतीं,
बह पाने के भावों में वे सन जाती हैं।
मैं कभी रात्रि के सन्नाटे में सुनता हूँ,
तल में, वे सोए हुए फूल बतराते है,
वे कौन, कहाँ से आए, क्या-क्या करते थे,
ये सब बातें, वे सुनते और सुनाते हैं।
कोई कहता, थी लाख-करोड़ों की सम्पत्ति,
जब आया मैं, तो सभी छोड़कर आया हूँ।
कोई कहता दुनिया बिलकुल निस्सार दिखी,
मैं उस जग से सम्बन्ध तोड़कर आया हूँ।
किसनू कहता, मैं बाग-बगीचे खेत-खले,
अपने बेटे के नाम लिखा कर आया हूँ।
साहू कहता, जो कुछ था-सब धरती में था,
क्या छिपा कहाँ, मैं सभी दिखाकर आया हूँ।
यह धनीराम का कथन कि घर के आँगन में,
रुपयों के बादल आकर रोज बरसते थे।
विश्वास छोड़ दीनू कहता, मेरे बच्चे,
भूखे रहकर टुकड़ों के लिए तरसते थे।
पुनिया कहती, मैं आई तो आते-आते,
मैंने अपनी मुनिया का ब्याह रचाया था।
कर दिए हाथ पीले, मैं रिण से उरिण हुई,
बड़भागिन ने इन्दर जैसा वर पाया था।
पारो कहती, वे मेरे सिरहाने ही थे,
हौले से मेरा माथा तनिक हिलाया था।
पा सुखद परस, मैंने आँखें खोलीं, उनने,
रोते-रोते गंगाजल मुझे पिलाया था।
टूटे से स्वर में मैं इतना कह सकी, नाथ!
मैं बड़भागिन हूँ, बनी सुहागिन जाती हूँ।
मेरे बच्चों को सदा सुखी रखना प्रियतम!
तुम सुखी रहो, मैं भी यह दुआ मनाती हूँ।
सुखिया कहती, मैं जीवन भर की दुखियारी,
सुख मिला कभी, वह एक नाम का ही सुख था।
हाँ एक और सुख था, वह सचमुच ही सुख था,
वह मेरे वीर-बहादुर बेटे का मुख था।
जब चलता वह, तो जैसे धरती हिलती थी,
मेरे बेटे की गज भर चौड़ी छाती थी।
सम्पदा सिमट मेरे घर आँगन में आती,
मैं उसे देख लेती, निहाल हो जाती थी।
ज्ञानी जी, अपनी ज्ञान भरी बातें करते,
दुनिया क्या है छल है, प्रपंच है, माया है।
हम मुट्ठी बाँधे गए और खोले आए,
फूटी कौड़ी भी कोई साथ न लाया है।
जग में धन-दौलत सुत-दारा हैं सभी व्यर्थ,
मन को न शांति क्षण भर इनसे मिल पाई है।
है धर्म और धरती की सेवा कर्म जिन्हें,
वह सेवा उनकी सबसे बड़ी कमाई है।
इस भाँति स्तब्ध-सन्नाटे में, मैं उन सबकी,
सुनता रहता हूँ सुख-दुख की अगणित बातें।
कुछ पता नहीं चलता, कितना क्या समय गया,
इस तरह बीतती जाती है अगणित रातें।
हाँ, इन बातों से परे और भी बातें हैं,
जिनको मैं अपनी आँखों-देखी कह सकता।
मैं भूल नहीं पाता कुछ मस्तानी छवियाँ,
सुधियों में उनको देखे बिना न रह सकता।
साहित्य-कला-विज्ञान आदि के वैसे तो,
उद्भट ज्ञाता, विद्वान धुरन्दर रहे कई।
कुछ राजनीति के कुशल खिलाड़ी भी खेले,
कल्पना-तरंगों में भी डूबे-बहे कई।
पर जिसने अपनी छाप बहुत गहरी छोड़ी,
वह एक युवक, जैसे जलता अंगारा था।
छबि कभी-कभी वह मुझे देखने को मिलती,
मुझको उसका व्यक्तित्व बहुत ही प्यारा था।
आजाद नाम से वह सब में जाना जाता,
अँग्रेजों से तकरार वीर ने ठानी थी।
भारत-माता के बन्धन देख न पाता वह,
इसलिए भभक उट्ठी वह नई जवानी थी।
उसने अपने जैसे ही दीवानों का दल,
तैयार कर लिया था मरने मिट जाने को।
अपना जीवन रख दिया मौत के घर गिरवी,
भिड़ गया देश अपना आजाद कराने को।
वैसे उपाधियों के चश्मे से देखें तो,
व्यक्तित्व बहुत ही धुँधला उसका दिखता था।
व्यक्तित्व वीरता के चश्मे से पढ़ें अगर,
हम देखेंगे, वह रक्त-लेख ही लिखता था।
उल्टे-सीधे जो अक्षर उसने सीखे थे,
वे देश-भक्ति के गौरव-ग्रन्थ बने सारे।
जो दुर्बलता का हृदय वेध रख देते हैं,
उस भाषा के सब अक्षर ऐसे अनियारे।
उस अमर-वीर की आत्माहुति का स्वर्ण-लेख,
लिखने के पहले धैर्य जुटाना ही होगा।
अपनी साँसों पर लदा बोझ हल्का करने,
आँसू का अपना कोश लुटाना ही होगा।
अध्याय-२४: आत्म बलिदान
उस दिन उपवन में एक वृक्ष की डाली पर,
शुक और सारिका बैठे गपशप करते थे।
चर्चित होती थी आसमान की ऊँचाई,
धरती की बातों पर वे कभी उतरते थे।
शुक बोला, मेरी जैसी चोंच कहीं देखी?
इतनी सुन्दर, कवि-जन देते हैं उपमाएँ।
सारिका छेड़ बैठी, कवियों की कौन बात-
चाहें तिनके को तीर सरीखा बतलाएँ।
केवल सुन्दर मुख होने से क्या होता है,
हों कर्म हमारे सुन्दर, तब सुन्दरता है।
यदि नहीं आत्मा में उतनी ही सुन्दरता,
तो तेज धूप-सा रूप सदैव अखरता है।
शुक बोला, रूपसि जली-भुनी क्यों बैठी हो?
कवि की वाणी से सुरभित सुमन निकलते हैं।
सारिका तुनक बोली, कवियों की भली चली-
लग जाय रूप की आँच, तुरन्त पिघलते हैं।
अपमान जाति का हुआ देख, शुक खिसियाया,
बोला, छोड़ो ये बातें, करें ज्ञान-चर्चा।
थोड़ा मुस्का कर चुटकी भरी सारिका ने,
क्यों लगी सूझने अब तुमको पूजा-अर्चा ?
शुक और सारिका की यह चहक-चुहुलबाजी,
ला नहीं सकी कोई आकर्षक रंग नया।
दो युवक वृक्ष के नीचे आकर बैठ गए,
हो गया उपस्थित बिल्कुल एक प्रसंग नया।
सारिका सहम संकेतों के स्वर में बोली,
उड़ चलें कहीं हम गपशप वहाँ लड़ाएँगे।
शुक ने संकेत किया, बैठो क्यों डरती हो?
वे हमें पकड़ कर खा थोड़े ही जाएँगे।
सारिका तनिक झुँझलाई, धीरे से बोली-
मेरी मानो, यह डाल छोड़कर उड़ जाएँ।
कुछ नहीं ठिकाना इन मर्दों की चालों का,
क्या पता, फाँस हमको पिंजड़े में लटकाएँ।
इस मीठी चुटकी का रस लेकर शुक बोला,
मर्दों पर क्यों तुम गुस्सा आज उतार रहीं?
मिल गया कौन-सा गुरु, जिसने शिक्षा दी है,
बढ़-बढ़ कर आज मनोविज्ञान बखार रहीं।
सारिका डूबते-से स्वर में शुक से बोली-
उड़ चलें कहीं हम, मेरा मन चिन्तातुर है।
कुछ अशुभ बात होती दिखलाई देती है,
कुछ आशंका से धड़क रहा मेरा उर है।
शुक बोला, नारी हो तुम, यों ही डरती हो,
शुभ और अशुभ की चिन्ता तुम्हें सताती है।
आ जाय छींक तो शकुन-अपशकुन हो जाता,
तिल भर चिन्ता को नारी ताड़ बताती है।
कह उठी सारिका, प्राप्त मुझे वरदान एक,
क्या आगम है, यह भान मुझे हो जाता है।
यदि मँडराती हो मौत किसी के सर पर तो,
उसका यथार्थ अनुमान मुझे हो जाता है।
इन दो में से यह एक गठीला नौ-जवान,
पड़ रही मौत की इसके सर पर छाया है।
मैं सोच रही, इसका भवितव्य टले कैसे,
इस अशुभ अनागत ने ही मुझे सताया है।
शुक बोल उठा, यह भेद आज मैं समझा हूँ,
क्यों शंका-आशंका से नारी मन डरता।
अपनी चिन्ता से अधिक उसे अपनों की है,
जग-जाहिर है नारी की पर-दुख-कातरता।
भवितव्य उसे तुम साफ-साफ ही बतला दो,
कह दो उससे, उठकर अन्यत्र चला जाए।
जो व्यक्ति सगा बनता, वह कभी दगा करता,
कह दो, वह अपनों द्वारा नहीं छला जाए।
कोई सचेत कर सके उसे, इसके पहले-
प्रारम्भ हुआ युवकों में बातों का क्रम था।
यद्यपि चर्चा का विषय गूढ़ ही दिखता था,
बातों में दिखता नहीं कहीं भी विभ्रम था।
सुखदेव राज! यह देश किधर जा रहा आज,
इसकी गतिविधि कुछ नहीं समझ में आती है।
हम मरें-मिटें, खप जायँ देश-हित-चिन्तन में,
पर जनता तो जी भर आनन्द मनाती है।
उसका मत है, इसका ठेका कुछ लोगों पर,
इन कामों में क्यों अपनी जान फँसाएँ हम ?
जीवन पाया है, खाएँ-पिएँ-करें मस्ती,
यौवन पाया है, झूमें-नाचें-गाएँ हम।
ये युवक कि जो भारत के भाग्य-विधाता है,
ये चकाचौंध की धाराओं में बहते हैं।
लेकर यौवन की आग माँगते ये पानी,
ये जोर जुल्म सब शीश झुकाए सहते हैं।``
सुखदेवराज बोला, "भैया आजाद! सुनो,
हम इनकी गति को मोड़ें तो कैसे मोड़ें।
इनसे कुछ आशा करना, बड़ी दुराशा है,
इसलिए उचित है, हम इनका पीछा छोड़ें।"
"मैं इससे सहमत नहीं, राज! जो तुम कहते,
हम नई आग इन युवकों में भड़काएँगे।
ये उठें, प्रलय के ताण्डव का उद्घोष करें,
ये उठें, भाग्य इस धरती का चमाकाएँगे।
यदि किसी देश की दौलत का अनुमान करें,
संकल्पवान यौवन केवल उसका धन है।
हैं युवक, उठाते राष्ट्र-भार जो कंधों पर,
युवकों से मिलता सदा राष्ट्र को जीवन है।
यदि युवक हुए पथ-भ्रष्ट पतन की क्या सीमा,
ये डूब गए, तो देश रसातल जाता है।
ये उछले, इनके बल पर देश उछलता है,
धरती पर जैसे स्वर्ग उतर कर आता है।
इसलिए करेंगे हम सचेत इस पीढ़ी को,
हम युवकों को करना बलिदान सिखाएँगे।
ये सोए तो दुर्भाग्य हमारा जागेगा,
हम छिड़क खून के छींटे इन्हें जगाएँगे।
इस ओर खून की बात न हो पाई पूरी,
उस ओर खून के बादल सचमुच घिर आए।
सुखदेवराज कब खिसका, पता न चल पाया,
आजाद अकेले पर वे बादल अर्राए।
'तुम कौन?` कड़क कर पूछा पुलिस अधीक्षक ने,
जब सुनी नॉट बाबर के मुख से यह बोली-
आजाद, भला यह सुनने का कब आदी था,
उस बोली पर वह दाग उठा सीधी गोली।
वह गोली उसकी, शत्रु भुजा को ले बैठी,
ऐसा अचूक उसका वह सधा निशाना था।
यह लगा नॉट बाबर को कहाँ उलझ बैठे,
आ गया काल ही सम्मुख, उसने जाना था।
दूसरी ओर विश्वेश्वर लिए मोर्चा था,
कुछ उझक, वीर पर उसने भी गोली छोड़ी।
आजाद, लगाया उसने नहले पर दहला,
अपनी गोली से उसकी भी हड्डी तोड़ी।
कर दिया कचूमर जबड़े का उस गोली ने,
विश्वेश्वर पीछे हट झाड़ी में दुबक गया।
इस ओर डटा आजाद अकेला एक वीर,
उस ओर सैन्य-दल दुश्मन का आ गया नया।
वह गरज-गरज कहता गोरी सेना लाओ,
क्यों मेरे सम्मुख लाए तुम हिन्दुस्तानी ?
देखो, नस-नस में गर्म खौलता खून भरा,
तुम समझ रहे शायद इनमें होगा पानी।
इस भाँति गर्जना कर वह छोड़ रहा गोली,
पिस्तौल, आग की बौछारें थी बरसाती।
जिस ओर छूटती गोली, सन्नाटा छाता,
जिस ओर हाथ उठता, काई-सी फट जाती।
दुर्भाग्य, एक ही तीर बच रहा तर्कश में,
उस काल-मुखी में बची एक अन्तिम गोली।
पिस्तौल लगा माथे से घोड़ा दबा दिया,
वह खेल गया अपने से ही खूनी होली।
बन पड़ी सैन्य-दल की, छोड़ीं गोलियाँ कई,
देखी न पीठ, उनने छाती को भून दिया।
जब-जब बन्दूकों ने छाती को गोली दी,
तब-तब छाती ने क्रुद्ध उबलता खून दिया।
जो खटक रहे अब तक अभाव थे जीवन के,
हो गई पूर्ति उनकी, ऐसी घड़ियाँ आईं।
मुख रहा तरसता गोली खाने बचपन में,
गोलियाँ कई यौवन की छाती ने खाइंर्।
भारत माता का लाल विदा लेकर उससे,
जा मिला शहीदों की मस्तानी टोली में।
जिसकी बोली लोगों को नवजीवन देती,
थी छिपी मौत उसकी हर क्रोधित गोली में।
पुँछ गया देश के माथे का वह रक्त-तिलक,
निर्धनता की कुटिया ने जिसे लगाया था।
हो गया शान्त घन-गर्जन जैसा स्वर, जिसने,
भारत के गौरव को झकझोर जगाया था।
वह लाल विदा हो गया बावली उस माँ का,
साँसों के झूले पर जो उसे झुलाती थी।
रखती जिसको पलकों की शीतल छाया में,
थपकी दे-दे, छाती पर जिसे सुलाती थी।
रह गई बिलखती-रोती वह दुखियारी माँ,
वह उसकी गोदी सूनी करके चला गया।
अपने हाथों से अपना जीवन-दीप बुझा,
जन-जाग्रति की बुझती मशाल वह जला गया।
सो गया मौत की गोदी में वह प्रलय-वीर,
वह मौत नहीं, वह तो जीवन का अलंकरण।
चलता था जीवन रखे हथेली पर जैसे,
कर लिया मौत का भी वैसे ही स्वयं वरण।
जो माँगा था वरदान मौत का, भर पाया,
वह मौत नहीं, शाश्वत जीवन ही उसे मिला।
अपनी धरती को खून पिला कर ही माना,
था रक्त-सरोवर में गौरव का कमल खिला।
जिसको कोई कायरता लाँघ नहीं पाए-
वह मौत, खून की ऐसी अमिट रेख-सी है।
हम जिसे मौत कहते, वह उसकी मौत नहीं,
सदियों की छाती पर वह शिला-लेख सी है।
कह रही मौत वह, चीख-चीख कर यह हमसे,
हम जिएँ देश-हित, और देश के लिए मरें।
भारत-माता जब हमसे यह जीवन माँगे,
हँसते-हँसते यह जीवन अर्पित उसे करें।
प्रेरणा शहीदों से हम अगर नहीं लेंगे,
आजादी ढलती हुई साँझ हो जाएगी।
यदि वीरों की पूजा हम नहीं करेंगे तो
यह सच मानो, वीरता बाँझ हो जाएगी।
अध्याय-२५: पथिक प्रतिबोध
मैं आजादी के परवानों का दीवाना,
मैं आजादी की डगर-डगर में घूमा हूँ।
आजाद चन्द्रशेखर की है जो याद लिए,
उस ग्राम-ग्राम में, नगर-नगर में घूमा हूँ।
कंकड़-पत्थर, गलियों-चौराहों को मैंने,
उस महाबली की याद सँजोते देखा है।
जिनसे उसके जीवन की गाथा जुड़ी हुई,
उन वृक्षों को भी मैंने रोते देखा है।
वह कुटिया, जिसमें उसने प्रथम साँस ली थी,
कहती, मुझको बेटे की आहट आती है।
वे चट्टानें, जिन पर वह खेला-कूदा था,
उन चट्टानों की भी छाती फट जाती है।
मेरे पैरों से लिपट धूल ने पूछा था
जो मुझमें खेला, वह मेरा फौलाद कहाँ?
हर मेंढ़, डगर, पगडण्डी ने भी प्रश्न किया,
आजाद कहाँ? आजाद कहाँ? आजाद कहाँ?
आजाद कहाँ, मैं इसका क्या उत्तर देता,
में उनको रोते और बिलखते छोड़ चला।
मैं घबराया, मेरा ही हृदय न फट जाए,
उस ग्राम-धरा से मैं अपना मुख मोड़ चला।
ओोरछा तीर्थ बन गया देश-भक्तों का जो,
जा पहुँचा मैं भी वहाँ सांत्वना पाने को।
क्या पता कि लेने के देने पड़ जायेंगे,
मैं धैर्य कहाँ से लाऊँ, हाल सुनाने को।
मेरे कन्धों से लग सातार बहुत रोई,
आजाद कहाँ भैया? क्या सन्देशा लाए?
सुध-बुध तो खोता नहीं भावरा याद किए,
बतलाओ, तुम तो अभी वहीं से ही आए।
``आजाद कहाँ? आजाद कहाँ? रटते-रटते,
मैंने देखा सातार सूखती जाती थी।
पानी होकर, वह दिल पत्थर कैसे करती,
इसलिए पत्थरों से वह सर टकराती थी।
उस कुटिया में जिसमें योगी आजाद रहा,
उस नर नाहर की वीर-प्रसू माँ आई थी।
उसका क्रन्दन सुन पत्थर पिघल हुए पानी,
फट गए हृदय, उसने पछाड़ जब खाई थी।
दीवारों से सर फोड़-फोड़ उसने पूछा-
``क्यों खड़ी मौन? बतलाओ मेरा लाल कहाँ?
साम्राज्यवाद की पर्वत जैसी छाती भी,
धक-धक करने लगती थी, वह भूचाल कहाँ?
ओ सरिता की वाचाल लहरियों! बोलो तो,
मेरी आशाओं का मृग-छौना कहाँ गया?
माँ होकर भी मैं स्वयं खेलती थी जिससे,
मेरा चन्दा, वह बाल-खिलौना कहाँ गया?
अर्जुन वृक्षों! तुम रहे खड़े के खडे यहाँ,
मेरी आँखों की ज्योति यहाँ से चली गई।
मेरी गुदड़ी में एक लाल ही शेष बचा,
कैसी अभागिनी, मैं उससे भी छली गई।
मेरी छाती से लग कर जिसने दूध पिया,
उस छाती से बोलो अब किसे लगाऊँ मैं?
किसका माथा चूमूँ राजा-बेटा कहकर?
अब कृष्ण-कन्हैया कहकर किसे जगाऊँ मैं?
जिस तरह किया माँ ने विलाप, उसकी गाथा,
हर पत्ती ने रो-रोकर मुझे बताई थी।
मैं खड़ा रह सका नहीं, वहाँ से खिसक गया,
मुझको प्रयाग में ही अपना सुधि आई थी।
वह उपवन भी मैंने जाकर देखा, जिसमें,
आ गई मौत को भी उसने ललकारा था।
जो वीर प्रसूता माँ का दूध पिया उसने,
वह दूध, खून का बन बैठा फव्वारा था।
उस उपवन का हर वृक्ष तड़पता दिखा मुझे,
यह साख-साख ने फूट-फूट कर बतलाया।
आजाद नाम, जो बना वीरता का प्रतीक,
वह सुभट-सूरमा लड़कर यहीं काम आया।
आ-आकर मुझमे कई हवाएँ कह जातीं,
उस बलिदानी को लोग भूलते जाते हैं।
जिन आँखों ने उसका लोहू बहते देखा,
उन आँखों में पद-लोभ फूलते जाते हैं।
कह देना उनसे एक बात यह समझा कर,
जो याद शहीदों की इस तरह भुलाते हैं,
दुश्मन उनकी आजादी को तकते रहते,
जब दाँव लगा, तो वे उसको खा जाते हैं।
कह देना, आजादी जीवित रखनी है तो,
उन सब को पूजें, जिनने खून बहाया है।
यह बिना खून की बूँद बहाए नहीं मिली,
लोहू का भागीरथ यह गंगा लाया है।
यह नहीं, याद भर ही उनकी हो अलम् हमें,
अवसर आए प्राणों के पुष्प चढ़ाएँ हम।
अब आजादी की बलिवेदी माँगे हविष्य,
अपने हाथों से अपने शीष चढाएँ हम।
कर्त्तव्य कह रहा चीख-चीख कर यह हमसे,
हर एक साँस को एक सबक यह याद रहे
अपनी हस्ती क्या, रहें-रहें या नहीं रहें,
यह देश रहे आबाद, देश आजाद रहे।
अध्याय-२६: उपसंहार युग ध्वनि
आजाद, महाभारत का भीषण शंखनाद,
गूँजता सदा युद्धोन्माद का घोष रहा।
उसकी साँसों ने देश-भक्ति के स्वर फूँके,
जुल्मों के प्रति जलता उसका आक्रोश रहा।
आजाद, भँवर वन बैठा जीवन-धारा का,
वह कायरता के कलुष डुबाया करता था।
वह जीवन का बैताल, सजग विक्रम करता,
वह अनाचर में आग लगाया करता था।
आजाद, भयंकर चक्रवात संकल्पों का,
वह अन्यायों की धूल उड़ाया करता था।
अत्याचारी व्यक्तित्वों को करने निढाल,
उसका यौवन रस्सियाँ तुड़ाया करता था।
आजाद, क्षुब्ध सागर का उठता हुआ ज्वार,
थे शासन के जलपोत डगमगाया करते।
उसकी प्रचण्डता का कोई प्रतिरोध न था,
कानून, आग ही उसकी भड़काया करते।
आजाद, हिमालय अडिग उच्च आदर्शों का,
वीरता सदा उसकी अविजित ऊँचाई थी।
भारत-माता के लिए काम आऊँगा मैं,
यह गंगा उसने दोनों हाथ उठाई थी।
आजाद, वीरता के तर्कश का क्रुद्ध तीर,
निर्दिष्ट लक्ष्य का सदा अचूक निशाना था।
आजादी का अभिषेक रक्त से होता है,
यह मर्म, धर्म जैसा उसने पहचाना था।
आजाद, कड़कता हुआ क्रुद्ध वह घन था, जो,
अरि पर खूनी बिजलियाँ गिराया करता था।
वह मुर्दों में संचार खून का करता था,
उनमें जीवन की ज्योति जगाया करता था।
आजाद, भावनाओं का वह भूकम्प विकट,
उस धक्के से साम्राज्यवाद थरथरा उठा।
आजाद वज्र का था ऐसा आघात प्रबल,
अत्याचारों का पर्वत भी चरमरा उठा।
आजाद, फूटता हुआ भयंकर ज्वाला-गिरि,
हम जिसे खून कहते, वह क्रोधित लावा था।
वह दानव-सा दुर्दान्त दस्यु भी दहल गया,
ऐसा भीषण उस महावीर का धावा था।
आजाद, हिन्द के बलिदानों का स्वर्ण-लेख,
जो गर्म खून से गौरव-लिपि में लिखा गया।
भारत के बेटे आजादी के पर्वाने,
यह सत्य, सूर्य जैसा चमका कर दिखा गया।
आजाद, देश की आजादी का वह रहस्य,
जिसने जाना, वह बना देश का दीवाना।
जो जान न पाया, उस कृतघ्न का क्या कहना,
है अर्थहीन उसका जग में आना-जाना।
आजाद प्रेरणा-स्रोत अमर हर पीढ़ी का,
धरती की आजादी प्राणों से प्यारी हो।
यौवन अंगारों से अपना शृंगार करे,
हर फूल वज्र, हर कली कराल कटारी हो।
भगत सिंह (महाकाव्य) : श्रीकृष्ण सरल
Bhagat Singh (Epic in Hindi) : Shri Krishna Saral
सर्ग १ : सिंह-जननी
शान्ति के वरदान-सी, तुम धवल-वसना कौन?
संकुचित है मौन लख कर तुम्हारा मौन।
दूध की मुस्कान से संपृक्त ये सित केश,
सौम्यता पर शुभ्रता ज्यों विमल परिवेश।
साधुता की, सरल जीवन के लिए यह देन,
उल्लसित मंथित अमल ज्यों ज्योत्स्ना का फेन।
भव्यता धारण किये शुचि धवल दिव्य दुकूल,
या खिले जीवन-लता पर ये सुयश के फूल।
कलुषता निर्वासिनी, यह धवलता की जीत,
संवरित है शीष पर, यह स्नेह का नवनीत।
प्रस्फुटित है भाल पर मानो हृदय का ओप,
साधना पर, सिद्धि का मानो सुखद आरोप।
और मुख पर स्निग्ध अंतर की झलकती क्रांति
लग रही, ज्यों साँस सुख की ले रही हो शांति।
भावनाओं की, मुखाकृति सहज पुण्य-प्रसूति,
झुर्रियों में युग-युगों की सन्निहित अनुभूति।
देह पर चित्रित त्वचा की संकुचित हर रेख,
लग रही वय-पत्र पर ज्यों एक सुन्दर लेख।
या कि जीवन-भूमि पर-डण्डियों का जाल,
चल रहा वय का पथिक संध्या समय की चाल।
कौन हो इस भाँति अपने आप मे तुम लीन?
कौन हो तुम पुण्य-प्रतिमा-सी यहाँ आसीन?
कौन स्नेहाशीष की तुम मूर्ति अमित उदार?
कौन श्रद्धा-भावना ही तुम स्वयं साकार?
कौन तुम, मन में तुम्हारे कौन-सी है व्याधि?
अर्चना हित खींच लाई तुम्हें दिव्य समाधि।
है कृती वह कौन, किसका समाधिस्य कृतित्व?
वन्दना से स्वयं वन्दित, कौन वन व्यक्तित्व?
कौन माँ! ममता-मयी तुम? क्यों नयन में नीर?
उच्छ्वसित उर में तुम्हारे, कौन-सी है पीर?
पूछता हूँ मैं अकिंचन एक कवि अनजान,
भाव-मग्ना कर रहीं तुम किस व्रती का ध्यान?
`बस करो अब वत्स! अपना सुन लिया स्तुति गान,
अब नहीं अपराध आगे कर सकेंगे कान।
बात हौले से करो, स्वर को सम्हाल-सम्हाल,
सो रहा इस भूमि में बरजोर मेरा लाल।
सो रहा है यहाँ, मेरी कोख का भूचाल,
सो रहा इस भूमि से निज शत्रुओं का काल।
सो रहा है मातृ-मन का यहाँ शाश्वत गर्व,
सो रहा सुख से, मना कर वह यहाँ बलि-पर्व।
सो रहा वंशानुक्रम से पुष्ट रक्तोन्माद,
जो कि वातावरण में ढल, बन गया फौलाद।
सो रहा है यहाँ, मेरी आग का प्रिय फूल,
स्वर्ग का सुख दे रही, उसको धरा की धूल।
धूम धरती पर मचा, विद्रोह का वरदान,
यहाँ मेरे दूध का सोया अजस्र उफान।
सो गया उल्लास मेरा, सो गया आमोद,
एक माँ की गोद तज कर, दूसरी की गोद।
ओज अन्तस् का, यहाँ पर कर रहा विश्राम,
वत्स! क्या तुमको बतादूँ उस हठी का नाम?
लाल वह मेरा भगत, था सिंह ही साकार,
जन्म से ही था कहाया गया वह सरदार।
गर्जना उसकी विकट सुन, काँपते थे लाट,
पूत चरणों की तनिक ले लूँ सुशीतल धूल।
सुन लिया, क्या और परिचय रह गया कुछ शेष?
यहाँ मेरी भावना का सो रहा आवेश?
``तनिक ठहरो माँ! हुई वरदान मेरी भूल,
पूत चरणों की तनिक ले लूँ सुशीतल धूल।
इन पगों पर ही रहे युग-युग नमित यह माथ,
फेर दो इस शीष पर माँ! स्नेह-प्रश्लथ हाथ।
सिंह जननी धन्य हो तुम, कोटि बार प्रणम्य,
धन्य निश्चय ही तुम्हारा लाल वीर अदम्य।
किन्तु माँ! शंका तनिक मेरी अभी है शेष,
बात हौले से करूँ, यह क्यों मिला आदेश?
``अरे! इतनी-सी न समझे तुम सरल सी बात,
मानवी मन के कहाते पारखी निष्णात।
सत्य है, शंका तुम्हारी है नहीं निर्मूल,
अर्थ मेरे भाव का तुमने लिया प्रतिकूल।
वार्ता के तीव्र स्वर से जागने का खेद,
शान्ति के संकेत का मेरा नहीं यह भेद।
वार्ता का विषय कर सकता है उसे त्रस्त,
निज प्रशंसा-श्रवण का, वह था नहीं अभयस्त।
वत्स! दो बातें न की उसने कभी स्वीकारा,
स्वयं का गुण-गान, या फिर शत्रु की ललकार।
देख पाता था न मेरा लाल, आँखें लाल,
निज प्रशंसा भी उसे करती रही बे-हाल।
किन्तु तुमने पूर्ण करने स्वल्प शिष्टाचार,
था `कृती' या `व्रती' शब्दों का किया व्यवहार।
संकुचन के क्षोभ को, उसके लिए यह बात,
है बहुत छोटी, कदाचित् हो बड़ा व्याघात।
आज तक है याद मुझको एक दिन की शाम,
एक दिन आये कहीं से वे, न लूँगी नाम।
साथ उनके आ गये थे मित्र उनके एक,
वार्ता से ही प्रकट अति बुद्धि और विवेक।
प्रस्फुटित वातावरण में हास्य और विनोद,
पा रहे थे हम सभी, वह सरल निश्छल मोद।
किया उपक्रम, मैं करूँ जलपान का उपचार,
सिंह-शावक आ गया मेरे हृदय का हार।
प्रणत होकर अतिथि का, उसने किया सम्मान,
अतिथि की वाणी बनी वरदान का तूफान।
``तुम प्रणत मुझको, प्रणत हो तुम्हें सब संसार,
जियो युग-युग, तुम करो निज सुयश का विस्तार।
देख मेरी और बोले अतिथिवर सप्रयास,
कह रहा जो बात, भाभी! तुम करो विश्वास।
है अडिग विश्वास मन में, यह तुम्हारा लाल,
विश्व में ऊँचा करेगा मातृ-भू का भाल।
आत्मा कहती, बनेगा वीर यह सम्राट,
इस धरा की दासता की बेड़ियों को काट।
पूत के लक्षण प्रकट हैं पालने में आज,
सिंहनी का सुअन होगा विश्व का सरताज।
अल्प वय, इतनी विनय, इतना पराक्रम, ओज,
सिंह-शावक सी ठवनि, ये नयन रक्तंभोज।
देह सुगठित, विक्रमी चितवन समुन्नत भाल,
शत्रुओं का शत्रु होगा यह कठोर कराल।
अतिथिवर की बात में व्यति-क्रम हुआ तत्काल,
विनत होकर बाल ने स्वर में मधुरता ढाल।
कहा-`चाचाजी! अनय यदि मैं करूँ, हो क्षम्य,
बात मुझको लग रही अनपेक्ष और अगम्य।
कह मुझे सम्राट, देते स्वप्न का क्यों जाल?
स्वप्न में राजा बना सकते सदा कंगाल।
मातृ-भू का ही अकिंचन बन सका यदि भृत्य,
सफल समझूँगा सभी मैं साधना के कृत्य।
और यदि गुण-गान आवश्यक, निवेदन एक,
देश के सम्मान का, स्वर में रहें उद्रेक।
सुन प्रशंसा, आदमी कर्तव्य जाता भूल,
अनधिकृत श्लाघा, पतन के लिये पोषक मूल।
जो न करता निज प्रशंसा सुन कभी प्रतिवाद,
अंकुरित उर में हुआ करता प्रमत्त प्रमाद।
विकस यह अंकुर बने जब एक वृक्ष विशाल,
पतन के परिणाम का फिर कुछ न पूछो हाल।
फिर निवेदन विज्ञवर! हो क्षम्य यह व्याघात,
क्षम्य मेरी, आज छोटे मुँह बड़ी यह बात।
अनवरत अपनी प्रशंसा सुन हुआ कुछ क्षोभ,
प्रतिक्रमण का, संवरण मैं कर न पाया लोभ।'
``वार्ता का वत्स! अब मैं क्या करूँ विस्तार,
वह प्रशंसा का सदा करता रहा प्रतिकार।
शान्ति के संकेत का मेरा यही था अर्थ,
और भी शंका रही कुछ शेष सुकवि समर्थ?
``धन्य हो माँ! और क्या शंका रहेगी शेष?
धन्य ऐसे पुत्र पाकर माँ! हमारा देश।
धन्य हूँ मैं, आज सुन कर ये प्रबुद्ध विचार,
है नहीं सामर्थ्य, जो अभिव्यक्त हो आभार।
जानकर यह बात, जिज्ञासा बढ़ी कुछ और,
किन विचारों में पला था देश का सिर-मौर?
किस तरह विकसित हुआ मन में विकट बलिदान?
माँ! करो उपकृत, सुना कुछ और भी प्रतिमान।
वत्स तुम कितने चतुर, कितने उदार विचार,
स्वयं उपकृत का कथन कर, कर रहे उपकार।
मातृ-मन का जानते हो तुम मनोविज्ञान,
बात कर यह, कह रहे प्रमुदित मुझे मतिमान।
लाल मेरा, बालपन में था बहुत शैतान,
हम नहीं केवल,पड़ौसी भी रहे हैरान।
जब झगड़ता, साथियों के केश लेता नोंच,
चिह्न बनते गाल पर, लेता प्रकुप्त खरोंच।
फूल चुनना आग के, थे प्रिय उसे ये खेल,
घोर विपदाएँ विहँस कर लाल लेता झेल।
तोड़ता यह, फोड़ता वह, जोड़ता कुछ और,
थे कुएँ या बावड़ी सब खेलने के ठौर।
क्षमा करता, यदि कभी छोटे करें अपराध,
पर, सबल की धृष्टता का दण्ड था निर्बाध।
चौगुना भी क्यों न हो, वह माँगता था द्वन्द्व,
नम्र था व्यवहार में, संघर्ष में स्वच्छन्द।
मित्र की रक्षार्थ, वह बनता स्वयं था ढाल,
जो उसे नीचा दिखाए, किस सखी का लाल।
बाहुओं का जोर था उसके लिए उन्माद,
मोम-सा तन, किन्तु बनता द्वन्द्व में फौलाद।
स्नेह में भी, बैर में भीं, वह न था परिमेय,
दण्ड था उद्दंडता का, साधुता का श्रेय।
नीति दुश्मन की सही पर स्वजन की न अनीति,
व्यक्ति पर उसकी नहीं, व्यक्तित्व पर थी प्रीति।
और हाँ, पूछी अभी तुमने हृदय की पीर,
पूछते थे तुम, लिये मैं क्यों नयन में नीर।
तो सुनो, है सहज ही सुत, व्यथा का सन्ताप,
सुन न पाती आज मैं निज तात का संलाप।
वह न मेरे पास, मेरी मोद का श्रृंगार,
आज सूना है हृदय, खोकर हृदय का हार।
हैं तड़पते कान सुनने लाल के प्रिय बोल,
हैं कहाँ वे चूम लूँ जो मधुर स्निध कपोल।
अंक में भर लूँ जिसे, वह कहाँ कोमल गात,
वह न मेरे पास, उसकी रह गई है बात।
मातृ-मन्दिर पर हुआ अर्र्पित सुकोमल फूल,
शत्रुओं से जूझ, फाँसी पर गया वह झूल।
सांत्वना देता मुझे है लाल का सन्देश,
``शीघ्र ही स्वाधीन होगा माँ! हमारा देश।
तुम न समझो माँ! तुम्हारी गोद से मैं दूर,
तुम न समझो, आज तुम पर है विधाता क्रूर।
माँ! हमारे देश के जितने हठीले बाल,
वे तुम्हारे ही भगत हैं, वे तुम्हारे लाल।
देख छवि उनकी, किया करना मुझे तुम याद,
विसर्जन मेरा, न बन जाये तुम्हें अवसाद।
स्वर्गं भी है जिस धरा के सामने अति रंक,
जो सभी की माँ हमारी, ले रही वह अंक।
व्यर्थ जायेगा नहीं माँ! एक यह बलिदान,
है निकट स्वाधीनता का सुखद पुण्य-विहान।
मुक्ति की मंगल प्रभाती सुनें जिस दिन कान,
ले नया उत्साह, खग-कुल कर उठें कल गान।
जिस सुबह हो देश का वातावरण स्वच्छन्द,
गा उठें कवि-कण्ठ जिस दिन गीत नव, नव-छंद।
मुक्ति के दिन बाल-रवि की रश्मियों का जाल,
इस धरा पर कुंकुमी आभा अलभ्य उछाल।
पुण्य-भारतवर्ष का जिस दिन करे अभिषेक,
देश के नर-नाहरों की पूर्ण हो जब टेक।
जब उठे दीवानगी की लहर चारों ओर,
गगन-भेदी घोष चूमे जब गगन के छोर।
जब दिशाओं में तरंगित हो हृदय का हर्ष,
विश्व अभिनन्दन करे-जय देश भारतवर्ष!
तब मिलूंगा तुम्हें फूलों की सुरभि के संग,
तुम्हें किरणों में मिलूंगा मैं लिये नव-रंग।
तब पवन अठखेलियाँ कर, करे तुमको तंग,
तब समझना, ये भगत के ही निराले ढंग।
तब लगेगा माँ, दुपट्टा मैं रहा हूँ खींच,
तब लगेगा मैं तुम्हारे दृग रहा हूँ मींच।
भास परिचित स्पर्श का जब हो पुलक के साथ,
हाथ मेरा खींचने, अपना बढ़ा कर हाथ।
जब कहोगी-कौन हे रे ढीठ! तू है कौन?
तब तुम्हें उत्तर मिलेगा एक केवल मौन।
तुम चकित हो, चौंक देखोगी वहाँ सब ओर,
सुन सकोगी हर्ष-ध्वनियाँ और जय का शोर।
एक ही क्यों भगत, देखोगी अनेकों वीर,
नमित नयनों से तुम्हारे चू पडेग़ा नीर।
घुल सकेगा, धुल सकेगा रोष का उन्माद,
गर्व से प्रतिफल करोगी माँ मुझे तुम याद।
तो यही सन्देश सुत का, कर रहा परितोष,
है सराहा भाग्य मैंने, दे न विधि को दोष।
वत्स! अन्तर का बताया है तुम्हें सब हाल,
तुम बताओ, क्यों बने जिज्ञासु तुम इस काल?
``लग रहा माँ! मुझे जैसे आज जीवन धन्य,
आज मुझ-सा भाग्य-शाली कौन होगा अन्य?
कर न पाया तप कि पहले मिल गया वरदान,
पूर्ण होता दिख रहा अपना बड़ा अरमान।
भावनाओं ने हृदय से है किया अनुबन्ध,
क्रान्ति के इस देवता पर लिखूँ छन्द प्रबन्ध।
आ गया इस ओर लेने प्रेरणा मैं आज,
माँ! तुम्हारे लाल की जैसे सुनी अवाज।
लगा जैसे कह रहा हो सिंह आज दहाड़,
लेखनी से कवि निराशा का कुहासा फाड़।
तुम सुकवि हो, मिला वाणी का तुम्हें वरदान,
तुम जगा दो निज स्वरों से देश में बलिदान।
लेखनी की नोंक में भर दो हृदय की शक्ति,
और कह दो धर्म केवल है धरा की भक्ति।
देश की मिट्टी इधर, उस ओर सौ साम्राज्य,
ग्रहण मिट्टी को करो, साम्राज्य हों सौ त्याज्य।
शीष पर धर देश की मिट्टी, करो प्रण आज,
प्राण देकर भी रखेंगे, हम धरा की लाज।
सह न पायेंगे कभी हम, देश का अपमान,
देश का सम्मान है प्रत्येक का सम्मान।
जो उठाये इस हमारी मातृ-भू पर आँख,
रोष की ज्वाला भने, हर फूल की हर पाँख।
भूल कर भी जो छुए इस देश का सम्मान,
कड़कती बिजली बने हर कली की मुस्कान।
लक्ष्य इस आदर्श का, सब को बता दो आज,
सो रहे जो, कवि! जगा दो दे उन्हें आवाज।
आज कवि की लेखनी उगले कुटिल अंगार,
साधना का, रक्त की लाली करे श्रृंगार।
गर्जना का घोष हो, हर शब्द की झंकार,
रोष की हुँकार हो गाण्डीव की टंकार।
शान्ति का सरगम बने संघर्ष का उत्कर्ष,
आज भारतवर्ष का हर वीर हो दुर्द्धर्ष।
कवि! भरो पाषाण में भी आज पागल प्राण,
चाहता युग कवि-स्वरों का आज सत्य प्रमाण।
कर सके यह, लेखनी का तो सफल अस्तित्व,
सफल, वाणी का मिला जो आज तुमको स्वत्व।
``माँ! इसी सन्देश की उर ने सुनी आवाज,
खींच लाई है यही आवाज मुझको आज।
क्रांति के जो देवता, मेरे लिये आराध्य,
काव्य साधन मात्र, उनकी वन्दना है साध्य।
और यह सौभाग्य मेरा, जो यहाँ तुम प्राप्त,
क्या न शुभ संकल्प का संकेत यह पर्याप्त?
तुम करो माँ! आज मुझ पर और भी उपकार,
सिंह-सुत की वार्ता कह, आज सह-विस्तार।
``वत्स! तुमने विवश मुझको कर दिया है आज,
रह न पायेगा हृदय में आज कोई राज।
पर समय का भी हमें रखना पड़ेगा ध्यान,
क्यों न घर चल हम विचारों का करें प्रतिपादन?
दे सकूँगी क्या तुम्हें आतिथ्य का आह्लाद?
और रूखी रोटियों में क्या मिलेगा स्वाद?
किन्तु तुमको पास बैठा, स्नेह का ले रंग,
लाल के चित्रित करूँगी, मैं अनेक प्रसंग।
``माँ! तुम्हारा मान्य है साभार यह प्रस्ताव,
रोटियाँ रूखी भले, रूखा न होगा भाव।
वस्तु में क्या, भावना में ही निहित आनन्द,
काव्य शोभित भाव से, हो भले कोई छन्द।
तो चलो माँ! आज मुझको दो दिशा का दान,
आज मेरी भावनाओं को करो गतिवान।
मुक्त स्नेहाशीष का खोलो अमित भण्डार,
विश्व-जीवन को बने आलोक, माँ का प्यार।
(यह रचना अधूरी है)
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