सुहावना मौसम था। द्रौपदी आश्रम के बाहर खड़ी थी। इतने में एक सुंदर फूल हवा में उड़ता हुआ उसके पास आ गिरा। द्रौपदी ने उसे उठा लिया और भीमसेन के पास जाकर बोली—“क्या तुम जाकर ऐसे ही कुछ और फूल ला सकोगे?” यह कहती हुई द्रौपदी हाथ में फूल लिए युधिष्ठिर के पास दौड़ी गई।
द्रौपदी की इच्छा पूरी करने के लिए भीमसेन उस फूल की तलाश में निकल पड़ा। चलते-चलते वह पहाड़ की घाटी में जा पहुँचा, जहाँ केले के पेड़ों का एक विशाल बग़ीचा लगा हुआ था। बग़ीचे के बीच एक बड़ा भारी बंदर रास्ता रोके लेटा हुआ था। बंदर ने भीम की तरफ़ देखकर कहा—“मैं कुछ अस्वस्थ हूँ। इसलिए लेटा हुआ हूँ। ज़रा आँख लगी थी, तो तुमने आकर नींद ख़राब कर दी। मुझे क्यों जगाया तुमने?”
एक बंदर के इस प्रकार मनुष्य जैसा उपदेश देने पर भीमसेन को बड़ा क्रोध आया और बोला—“जानते हो, मैं कौन हूँ? मैं कुरुवंश का वीर, कुंती का बेटा हूँ। मुझे रोको मत! मेरे रास्ते से हट जाओ और मुझे आगे जाने दो।”
बंदर बोला—“देखो भाई, मैं बूढ़ा हूँ। कठिनाई से उठ बैठ सकता हूँ। ठीक है, यदि तुम्हें आगे बढ़ना ही है, तो मुझे लाँघकर चले जाओ।” भीमसेन ने कहा—“किसी जानवर को लाँघना अनुचित कहा गया है। इसी से मैं रुक गया, नहीं तो मैं कभी का तुम्हें एक ही छलाँग में लाँघकर चला गया होता।” बंदर ने कहा—“भाई, मुझे ज़रा बताना कि वह हनुमान कौन था, जो समुद्र को लाँघ गया था।”
भीमसेन ज़रा कड़ककर बोला—“क्या कहा? तुम महावीर हनुमान को नहीं जानते? उठकर रास्ता दे दो, नाहक मृत्यु को न्यौता मत दो।”
बंदर बड़े करुण स्वर में बोला—“हे वीर! शांत हो जाओ! इतना क्रोध न करो। यदि मुझे लाँघना तुम्हें अनुचित लगता हो, तो मेरी इस पूँछ को हटाकर एक ओर कर दो और चले जाओ।”
भीमसेन ने बंदर की पूँछ एक हाथ से पकड़ ली, लेकिन आश्चर्य! भीम ने पूँछ पकड़ तो ली; पर वह उससे ज़रा भी नहीं हिली—उठने की तो कौन कहे! उसे बड़ा ताज्जुब होने लगा कि यह बात क्या है? उसने दोनों हाथों से पूँछ पकड़कर ख़ूब ज़ोर लगाया। किंतु पूँछ वैसी की वैसी ही धरी रही। भीम बड़ा लज्जित हुआ। उसका गर्व चूर हो गया। उसे बड़ा विस्मय होने लगा कि मुझसे अधिक ताक़तवर यह कौन है! भीम के मन में बलिष्ठों के लिए बड़ी श्रद्धा थी। वह नम्र हो गया। बोला—“मुझे क्षमा करें। आप कौन हैं?” हनुमान ने कहा—“हे पांडुवीर! हनुमान मैं ही हूँ।”
“वानर-श्रेष्ठ! मुझसे बढ़कर भाग्यवान और कौन होगा, जो मुझे आपके दर्शन प्राप्त हुए।” कहकर भीमसेन ने हनुमान को दंडवत प्रणाम किया। मारुति ने आशीर्वाद देते हुए कहा—“भीम! युद्ध के समय तुम्हारे भाई अर्जुन के रथ पर उड़ने वाली ध्वजा पर मैं विद्यमान रहूँगा। विजय तुम्हारी ही होगी।” इसके बाद हनुमान ने भीमसेन को पास के झरने में खिले हुए सुगंधित फूल दिखाए। फूलों को देखते ही भीमसेन को द्रौपदी का स्मरण हो आया। उसने जल्दी से फूल तोड़े और वेग से आश्रम की ओर लौट चला।
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