कृष्ण बिहारी नूर / Krishn Bihari Noor
परिचय - कृष्णबिहारी ‘नूर’ का जन्म लखनऊ के ग़ौसनगर मुहल्ले में बाबू कुंजबिहारीलाल श्रीवास्तव के यहाँ 8 नवंबर, 1925 को हुआ। जून 1947 में उनका विवाह शकुन्तला देवी से हुआ। 19 जुलाई, 1982 को नूरसाहब की धर्मपत्नी का निधन हुआ। उनका दाह-संस्कार कानपुर में गंगा किनारे किया गया। धर्मपत्नी के निधन ने नूरसाहब में टूटन तो पैदा की, लेकिन उनके भीतर तेज़तर होते जा रहे शायरी के दरिया को और प्रवाहमान बनाया। 30 मई 2003 को प्रातः 10 बजे ग़ाज़ियाबाद के यशोदा हास्पिटल में आँत के आपरेशन के दौरान नूरसाहब का निधन हो गया।
कृष्ण बिहारी नूर की ग़ज़लें
ज़िंदगी से बड़ी सज़ा ही नहीं
ज़िंदगी से बड़ी सज़ा ही नहीं
और क्या जुर्म है पता ही नहीं
इतने हिस्सों में बट गया हूँ मैं
मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं
ज़िंदगी मौत तेरी मंज़िल है
दूसरा कोई रास्ता ही नहीं
सच घटे या बढ़े तो सच न रहे
झूट की कोई इंतिहा ही नहीं
ज़िंदगी अब बता कहाँ जाएँ
ज़हर बाज़ार में मिला ही नहीं
जिस के कारन फ़साद होते हैं
उस का कोई अता-पता ही नहीं
कैसे अवतार कैसे पैग़मबर
ऐसा लगता है अब ख़ुदा ही नहीं
चाहे सोने के फ़्रेम में जड़ दो
आईना झूट बोलता ही नहीं
अपनी रचनाओं में वो ज़िंदा है
'नूर' संसार से गया ही नहीं
आग है पानी है मिट्टी है हवा है मुझ में / कृष्ण बिहारी नूर
आग है पानी है मिट्टी है हवा है मुझ में
और फिर मानना पड़ता है ख़ुदा है मुझ में
अब तो ले दे के वही शख़्स बचा है मुझ में
मुझ को मुझ से जो जुदा कर के छुपा है मुझ में
जितने मौसम हैं सभी जैसे कहीं मिल जाएँ
इन दिनों कैसे बताऊँ जो फ़ज़ा है मुझ में
आइना ये तो बताता है मैं क्या हूँ लेकिन
आइना इस पे है ख़ामोश कि क्या है मुझ में
अब तो बस जान ही देने की है बारी ऐ 'नूर'
मैं कहाँ तक करूँ साबित कि वफ़ा है मुझ में
तेज़ हो जाता है ख़ुशबू का सफ़र शाम के बाद / कृष्ण बिहारी नूर
तेज़ हो जाता है ख़ुशबू का सफ़र शाम के बाद
फूल शहरों में भी खिलते हैं मगर शाम के बाद
उस से दरयाफ़्त न करना कभी दिन के हालात
सुब्ह का भूला जो लौट आया हो घर शाम के बाद
दिन तिरे हिज्र में कट जाता है जैसे-तैसे
मुझ से रहती है ख़फ़ा मेरी नज़र शाम के बाद
क़द से बढ़ जाए जो साया तो बुरा लगता है
अपना सूरज वो उठा लेता है हर शाम के बाद
तुम न कर पाओगे अंदाज़ा तबाही का मिरी
तुम ने देखा ही नहीं कोई शजर शाम के बाद
मेरे बारे में कोई कुछ भी कहे सब मंज़ूर
मुझ को रहती ही नहीं अपनी ख़बर शाम के बाद
यही मिलने का समय भी है बिछड़ने का भी
मुझ को लगता है बहुत अपने से डर शाम के बाद
तीरगी हो तो वजूद उस का चमकता है बहुत
ढूँड तो लूँगा उसे 'नूर' मगर शाम के बाद
नज़र मिला न सके उस से इस निगाह के बा'द / कृष्ण बिहारी नूर
नज़र मिला न सके उस से इस निगाह के बा'द
वही है हाल हमारा जो हो गुनाह के बा'द
मैं कैसे और किसी सम्त मोड़ता ख़ुद को
किसी की चाह न थी दिल में तेरी चाह के बा'द
हवस ने तोड़ दी बरसों की साधना मेरी
गुनाह क्या है ये जाना मगर गुनाह के बा'द
ज़मीर काँप तो जाता है आप कुछ भी कहें
वो हो गुनाह से पहले कि हो गुनाह के बा'द
कटी हुई थीं तनाबें तमाम रिश्तों की
छुपाता सर मैं कहाँ तुझ से रस्म-ओ-राह के बा'द
गवाह चाह रहे थे वो बे-गुनाही का
ज़बाँ से कह न सका कुछ ख़ुदा गवाह के बा'द
वो लब कि जैसे साग़र-ए-सहबा दिखाई दे / कृष्ण बिहारी नूर
वो लब कि जैसे साग़र-ए-सहबा दिखाई दे
जुम्बिश जो हो तो जाम छलकता दिखाई दे
दरिया में यूँ तो होते हैं क़तरे ही क़तरे सब
क़तरा वही है जिस में कि दरिया दिखाई दे
क्यूँ आईना कहें उसे पत्थर न क्यूँ कहें
जिस आईने में अक्स न उस का दिखाई दे
उस तिश्ना-लब के नींद न टूटे दुआ करो
जिस तिश्ना-लब को ख़्वाब में दरिया दिखाई दे
कैसी अजीब शर्त है दीदार के लिए
आँखें जो बंद हों तो वो जल्वा दिखाई दे
क्या हुस्न है जमाल है क्या रंग-रूप है
वो भीड़ में भी जाए तो तन्हा दिखाई दे
अपना पता न अपनी ख़बर छोड़ जाऊँगा / कृष्ण बिहारी नूर
अपना पता न अपनी ख़बर छोड़ जाऊँगा
बे-सम्तियों की गर्द-ए-सफ़र छोड़ जाऊँगा
तुझ से अगर बिछड़ भी गया मैं तो याद रख
चेहरे पे तेरे अपनी नज़र छोड़ जाऊँगा
ग़म दूरियों का दूर न हो पाएगा कभी
वो अपनी क़ुर्बतों का असर छोड़ जाऊँगा
गुज़रेगी रात रात मिरे ही ख़याल में
तेरे लिए मैं सिर्फ़ सहर छोड़ जाऊँगा
जैसे कि शम्अ-दान में बुझ जाए कोई शम्अ'
बस यूँ ही अपने जिस्म का घर छोड़ जाऊँगा
मैं तुझ को जीत कर भी कहाँ जीत पाऊँगा
लेकिन मोहब्बतों का हुनर छोड़ जाऊँगा
आँसू मिलेंगे मेरे न फिर तेरे क़हक़हे
सूनी हर एक राहगुज़र छोड़ जाऊँगा
संसार में अकेला तुझे अगले जन्म तक
है छोड़ना मुहाल मगर छोड़ जाऊँगा
उस पार जा सकेंगी तो यादें ही जाएँगी
जो कुछ इधर मिला है उधर छोड़ जाऊँगा
ग़म होगा सब को और जुदा होगा सब का ग़म
क्या जाने कितने दीदा-ए-तर छोड़ जाऊँगा
बस तुम ही पा सकोगे कुरेदोगे तुम अगर
मैं अपनी राख में भी शरर छोड़ जाऊँगा
कुछ देर को निगाह ठहर जाएगी ज़रूर
अफ़्साने में इक ऐसा खंडर छोड़ जाऊँगा
कोई ख़याल तक भी न छू पाएगा मुझे
ये चारों सम्त आठों पहर छोड़ जाऊँगा
इक ग़ज़ल उस पे लिखूँ दिल का तक़ाज़ा है बहुत / कृष्ण बिहारी नूर
इक ग़ज़ल उस पे लिखूँ दिल का तक़ाज़ा है बहुत
इन दिनों ख़ुद से बिछड़ जाने का धड़का है बहुत
रात हो दिन हो कि ग़फ़लत हो कि बेदारी हो
उस को देखा तो नहीं है उसे सोचा है बहुत
तिश्नगी के भी मक़ामात हैं क्या क्या यानी
कभी दरिया नहीं काफ़ी कभी क़तरा है बहुत
मिरे हाथों की लकीरों के इज़ाफ़े हैं गवाह
मैं ने पत्थर की तरह ख़ुद को तराशा है बहुत
कोई आया है ज़रूर और यहाँ ठहरा भी है
घर की दहलीज़ पे ऐ 'नूर' उजाला है बहुत
बस एक वक़्त का ख़ंजर मिरी तलाश में है / कृष्ण बिहारी नूर
बस एक वक़्त का ख़ंजर मिरी तलाश में है
जो रोज़ भेस बदल कर मिरी तलाश में है
ये और बात कि पहचानता नहीं है मुझे
सुना है एक सितमगर मिरी तलाश में है
अधूरे ख़्वाबों से उकता के जिस को छोड़ दिया
शिकन-नसीब वो बिस्तर मिरी तलाश में है
ये मेरे घर की उदासी है और कुछ भी नहीं
दिया जलाए जो दर पर मिरी तलाश में है
अज़ीज़ हूँ मैं मुझे किस क़दर कि हर इक ग़म
तिरी निगाह बचा कर मिरी तलाश में है
मैं एक क़तरा हूँ मेरा अलग वजूद तो है
हुआ करे जो समुंदर मिरी तलाश में है
वो एक साया है अपना हो या पराया हो
जनम जनम से बराबर मिरी तलाश में है
मैं देवता की तरह क़ैद अपने मंदिर में
वो मेरे जिस्म से बाहर मेरी तलाश में है
मैं जिस के हाथ में इक फूल दे के आया था
उसी के हाथ का पत्थर मेरी तलाश में है
वो जिस ख़ुलूस की शिद्दत ने मार डाला 'नूर'
वही ख़ुलूस मुक़र्रर मिरी तलाश में है
जिस का कोई भी नहीं उस का ख़ुदा है यारो / कृष्ण बिहारी नूर
जिस का कोई भी नहीं उस का ख़ुदा है यारो
मैं नहीं कहता किताबों में लिखा है यारो
मुड़ के देखूँ तो किधर और सदा दूँ तो किसे
मेरे माज़ी ने मुझे छोड़ दिया है यारो
इस सज़ा से तो मिरा जी ही नहीं भरता है
ज़िंदगी कैसे गुनाहों की सज़ा है यारो
शब है इस वक़्त कोई घर न खुला पाओगे
आओ मय-ख़ाने का दरवाज़ा खुला है यारो
कोई करता है दुआएँ तो ये जल जाता है
मेरा जीवन किसी मंदिर का दिया है यारो
मैं अँधेरे में रहूँ या मैं उजाले में रहूँ
ऐसा लगता है कोई देख रहा है यारो
हाल का ज़ख़्म तो माज़ी से बहुत गहरा है
आज ज़ख़्मी मिरा साया भी हुआ है यारो
इंतिज़ार आज के दिन का था बड़ी मुद्दत से
आज उस ने मुझे दीवाना कहा है यारो
रुक गया आँख से बहता हुआ दरिया कैसे / कृष्ण बिहारी नूर
रुक गया आँख से बहता हुआ दरिया कैसे
ग़म का तूफ़ाँ तो बहुत तेज़ था ठहरा कैसे
हर घड़ी तेरे ख़यालों में घिरा रहता हूँ
मिलना चाहूँ तो मिलूँ ख़ुद से मैं तन्हा कैसे
मुझ से जब तर्क-ए-तअल्लुक़ का किया अहद तो फिर
मुड़ के मेरी ही तरफ़ आप ने देखा कैसे
मुझ को ख़ुद पर भी भरोसा नहीं होने पाता
लोग कर लेते हैं ग़ैरों पे भरोसा कैसे
दोस्तों शुक्र करो मुझ से मुलाक़ात हुई
ये न पूछो कि लुटी है मिरी दुनिया कैसे
देखी होंटों की हँसी ज़ख़्म न देखे दिल के
आप दुनिया की तरफ़ खा गए धोका कैसे
आप भी अहल-ए-ख़िरद अहल-ए-जुनूँ थे मौजूद
लुट गए हम भी तिरी बज़्म में तन्हा कैसे
इस जनम में तो कभी मैं न उधर से गुज़रा
तेरी राहों में मिरे नक़्श-ए-कफ़-ए-पा कैसे
आँख जिस जा पे भी पड़ती है ठहर जाती है
लिखना चाहूँ तो लिखूँ तेरा सरापा कैसे
ज़ुल्फ़ें चेहरे से हटा लो कि हटा दूँ मैं ख़ुद
'नूर' के होते हुए इतना अंधेरा कैसे
देना है तो निगाह को ऐसी रसाई दे / कृष्ण बिहारी नूर
देना है तो निगाह को ऐसी रसाई दे
मैं देखूँ आइना तो मुझे तू दिखाई दे
काश ऐसा ताल-मेल सुकूत-ओ-सदा में हो
उस को पुकारूँ मैं तो उसी को सुनाई दे
ऐ काश इस मक़ाम पे पहुँचा दे उस का प्यार
वो कामयाब होने पे मुझ को बधाई दे
मुजरिम है सोच सोच गुनहगार साँस साँस
कोई सफ़ाई दे तो कहाँ तक सफ़ाई दे
हर आने जाने वाले से बातें तिरी सुनूँ
ये भीक है बहुत मुझे दर की गदाई दे
या ये बता कि क्या है मिरा मक़्सद-ए-हयात
या ज़िंदगी की क़ैद से मुझ को रिहाई दे
कुछ एहतिराम अपनी अना का भी 'नूर' कर
यूँ बात बात पर न किसी की दहाई दे
तमाम जिस्म ही घायल था घाव ऐसा था / कृष्ण बिहारी नूर
तमाम जिस्म ही घायल था घाव ऐसा था
कोई न जान सका रख-रखाव कैसा था
बस इक कहानी हुई ये पड़ाव ऐसा था
मिरी चिता का भी मंज़र अलाव ऐसा था
वो हम को देखता रहता था हम तरसते थे
हमारी छत से वहाँ तक दिखाव ऐसा था
कुछ ऐसी साँसें भी लेना पड़ीं जो बोझल थीं
हवा का चारों तरफ़ से दबाव ऐसा था
ख़रीदते तो ख़रीदार ख़ुद भी बिक जाते
तपे हुए खरे सोने का भाव ऐसा था
हैं दाएरे में क़दम ये न हो सका महसूस
रह-ए-हयात में यारो घुमाओ ऐसा था
कोई ठहर न सका मौत के समुंदर तक
हयात ऐसी नदी थी बहाव ऐसा था
बस उस की माँग में सिंदूर भर के लौट आए
हमारे अगले जनम का चुनाव ऐसा था
फिर इस के बअ'द झुके तो झुके ख़ुदा की तरफ़
तुम्हारी सम्त हमारा झुकाव ऐसा था
वो जिस का ख़ून था वो भी शनाख़्त कर न सका
हथेलियों पे लहू का रचाव ऐसा था
ज़बाँ से कुछ न कहूँगा ग़ज़ल ये हाज़िर है
दिमाग़ में कई दिन से तनाव ऐसा था
फ़रेब दे ही गया 'नूर' उस नज़र का ख़ुलूस
फ़रेब खा ही गया मैं सुभाव ऐसा था
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