बिहारी के दोहे (रीतिसिद्ध कवि) Bihari ke Dohe

कोऊ कोरिक संग्रहौ कोऊ लाख हजार।

मो सम्पति जदुपति सदा बिपति-बिदारनहार॥


कोई हजारों, लाखों या करोड़ों की सम्पत्ति संग्रह करे, किन्तु मेरी सम्पत्ति तो वही सदा ‘विपत्ति के नाश करने वाले’ यदुनाथ (श्रीकृष्ण) हैं।



ज्यौं ह्वैहौं त्यौं होऊँगौ हौं हरि अपनी चाल।

हठु न करौ अति कठिनु है मो तारिबो गुपाल॥


हे कृष्ण, मैं अपनी चाल से जैसा होना होगा, वैसा होऊँगा। (मुझे तारने के लिए) तुम हठ न करो। हे गोपाल, मुझे तारना अत्यन्त कठिन है-(हँसी-खेल नहीं है, तारने का हठ छोड़ दो, मैं घोर नारकी हूँ)।



करौ कुबत जगु कुटिलता तजौं न दीनदयाल।

दुखी होहुगे सरल चित बसत त्रिभंगीलाल॥


कुबत = कुघार्त्ता, निन्दा। त्रिभंगीलाल = बाँके बिहारी लाल-मुरली बजाते समय पैर, कमर और गर्दन कुछ-कुछ टेढ़ी हो जाती है, जिससे शरीर में तीन जगह टेढ़ापन (बाँकपन) आ जाता है-वही त्रिभंगी बना है।


संसार भले ही निंदा करे, किन्तु हे दीनदयालु, मैं अपनी कुटिलता छोड़ नहीं सकता; क्योंकि हे त्रिभंगीलाल, मेरे सीधे चित्त में बसने से तुम्हें कष्ट होगा (सीधी जगह में टेढ़ी मूर्त्ति कैसे रह सकेगी? त्रिभंगी मूर्त्ति के लिए टेढ़ा हृदय भी तो चाहिए)।



मोहिं तुम्हैं बाढ़ी बहस को जीतै जदुराज।

अपनैं-अपनैं बिरद की दुहूँ निबाहन लाज॥


मुझमें और तुममें बहस छिड़ गई है, हे यदुराज! देखना है कि कौन जीतता है। अपने-अपने गुण की लाज दोनों ही को निबाहना है। (तुम मुझे तारने पर तुले हो, तो मैं पाप करने पर तुला हूँ; देखा चाहिए किसकी जीत होती है!)



निज करनी सकुचें हिं कत सकुचावत इहिं चाल।

मोहूँ-से अति बिमुख त्यौं सनमुख रहि गोपाल॥


हे गोपाल, मैं तो अपनी ही करनी से लजा गया हूँ, फिर तुम अपनी इस चाल से मुझे क्यों लजवा रहे हो कि मुझ-जैसे अत्यन्त विमुख के तुम सम्मुख रहते हो-(मैं तुम्हें सदा भूला रहता हूँ, और तुम मुझे सदा स्मरण रखते हो!)



तौ अनेक औगुन भरी चाहै याहि बलाइ।

जौ पति सम्पति हूँ बिना जदुपति राखे जाइ॥


यदि बिना सम्पत्ति के भी श्रीकृष्ण (मेरी) पत रखते जायँ-प्रतिष्ठा बचाये रक्खें, तो अनेक अवगुणों से भरी इस (सम्पत्ति) को मेरी बलैया चाहे।



हरि कीजति बिनती यहै तुमसौं बार हजार।

जिहिं तिहिं भाँति डर्‌यौ रह्यौ पर्‌यौ रहौं दरबार॥


हे कृष्ण, तुमसे मैं हजार बार यही बिनती करता हूँ कि (मैं) जिस तिस प्रकार से डरता हुआ भी तुम्हरे दरबार में सदा पड़ा रहूँ! (ऐसा प्रबंध कर दो।)



तौ बलियै भलियै बनी नागर नन्दकिसोर।

जौ तुम नीकैं कै लख्यौ मो करनी की ओर॥


हे चतुर नन्दकिशोर, मैं बलैया लूँ, यदि तुम अच्छी तरह से मेरी करतूत की ओर देखोगे-मेरे अवगुणों पर विचारोगे, तब तो बस मेरी बिगड़ी खूब बनी! मेरा उद्धार हो चुका! (अर्थात् नहीं होगा।)


नोट - ”ब्याघ हूँ ते बिहद असाधु हौं अजामिल तें ग्राह ते गुनाही कहो तिन में गिनाओगे? स्यौरी हौं न सूद्र हौं न केवल हौं न केवट कहूँ को त्यौं न गौतम-तिया हौं जापै पग घरि आओगे॥ राम सों कहत ‘पदमाकर’ पुकारि तुम मेरे महापापन को पारहू न पाओगे॥ झूठो ही कलंक सुनि सीता ऐसी सती तजी हौं तो साँचो हूँ कलंकी कैसे अपनाओगे?“



समै पलटि पलटै प्रकृति को न तजै निज चाल।

भौ अकरुन करुना करौ इहिं कुपूत कलिकाल॥


करुना करौ = करुना+आकरौ = करुणा के भण्डार भी। कुपूत = (कु+पूत) अपूत, अपवित्र, अपावन, पापी।


समय पलट जाने से-जमाना बदल जाने से-प्रकृति भी बदल जाती है। (फलतः प्रकृति के वशीभूत होकर) अपनी चाल कौन नहीं छोड़ देता है? इस पापी कलियुग में करुणा के भंडार (श्रीकृष्ण) भी करुणा-रहित (निष्ठुर) हो गये! (तभी तो मेरी पुकार नहीं सुनते!)



अपनैं-अपनैं मत लगे बादि मचावत सोरु।

ज्यौं-त्यौं सबकौं सेइबौ एकै नन्दकिसोरु॥


अपने-अपने मत के लिए व्यर्थ ही लोग हल्ला मचा रहे हैं। जैसे-तैसे सभी को एक उसी श्रीकृष्ण की उपासना करनी है। (सर्वदेवो नमस्कारः केशवं प्रति गच्छति।)


नोट - ‘है अछूती जोत उसकी मन्दिरों में जग रही, मस्जिदों गिरजाघरों में भी दिखाता है वही। बौद्ध-मठ के बीच है दिखला रहा वह एक ही, जैन-मन्दिर भी छुटा उसकी छटा से है नहीं॥-‘हरिऔध’।



अरुन सरोरुह कर-चरन दृग-खंजन मुख चंद।

समै आइ सुन्दरि सरद काहि न करति अनंद॥


लाल कमल ही उसके हाथ-पाँव हैं, खंजन ही आँखें हैं, और चन्द्रमा ही मुखड़ा है। (इस रूप में) शरद-ऋतु रूपी सुन्दरी स्त्री समय पर आकर किसे आनन्दित नहीं करती?


नोट - शरद ऋतु में कमल, खंजन और चंद्रमा की शोभा का वर्णन किया जाता है। यथा-”पाइ सरद रितु खंजन आये“ और ”सरद-सर्वरी नाथ मुख सरद-सरोरुह नैन“-तुलसीदास।



ओछे बड़े न ह्वै सकैं लगौ सतर ह्वै गैन।

दीरघ होहिं न नैकहूँ फारि निहारैं नैन॥


सतर = बढ़ी-चढ़ी, क्रोधयुक्त। नैकहूँ = तनिक भी। गैन = गगन, आकाश।


घमंड से आसमान पर चढ़ जाने से (बढ़-बढ़कर बातें करने से भी) ओछे आदमी बड़े नहीं हो सकते। आँखें फाड़-फाड़कर देखने से (आँखें) तनिक भी लम्बी नहीं होतीं।



औरैं गति औरै बचन भयौ बदन-रँगु औरु।

द्यौसक तैं पिय-चित चढ़ी कहैं चढ़ैं हूँ त्यौरु॥


बदन = मुख। द्यौसक = द्यौस+एक = दो-एक दिन।


और ही तरह की चाल है, और ही वचन है, और मुख का रंग भी कुछ और ही है! दो-एक दिन से तुम प्रीतम के चित्त पर चढ़ गई हो, यह बात तुम्हारी चढ़ी हुई त्यौरी ही कह रही है।



गाढ़ैं ठाढ़ैं कुचनु ठिलि पिय-हिय को ठहराइ।

उकसौंहैं हीं तौ हियैं दई सबै उकसाइ॥


गाढ़ैं = कठोर। ठाढ़ैं = खड़े (तने) हुए। उकसौहैं = उभड़े हुए। हियैं = हृदय, छाती। दर्द उकसाइ = उकसा (उभाड़) दिया।


तुम्हरे स्तन प्रीतम के हृदय में बसे हैं, (सो) उन कठोर और तने हुए स्तनों को ठेलकर (धक्के से अलग कर) प्रीतम के हृदय में और कौन (स्त्री) ठहर सकती है? (अरी) तुम्हारी उमड़ी हुई छाती ने ही तो सबको उमाड़ दिया! (कामोद्दीप्त कर दिया)



गुरुजन दूजैं ब्याह कौं निसि दिन रहत रिसाइ।

पति की पति राखति बधू आपुन बाँझ कहाइ॥


पति = पत, लाज। बाँझ = निस्सन्तान, बंध्या।


दूसरा ब्याह करने (को लालायित होने) के कारण (नायिका के) पति पर गुरुजन रात-दिन क्रोधित होते हैं (कि तुम क्यों शादी कर रहे हो?)। (इधर, नायिका यद्यपि बाँझ नहीं है, तो भी) अपने आपको बाँझ कहकर पति की प्रतिष्ठा रखती है (ताकि लोग समझें कि पत्नी के बाँझ होने से ही बेचारा शादी करता है, भोगेच्छा से प्रेरित होकर नहीं)।


नोट - इस दोहे में पति-प्रेम का भंडार भर दिया गया है।



घर-घर तुरुकनि हिन्दुअनि देतिं असीस सराहि।

पतिनु राखि चादर-चुरी तैं राखीं जयसाहि॥


हे जयशाह, घर-घर में तुर्क-स्त्रियाँ और हिन्दू स्त्रियाँ सराह-सराहकर तुम्हें आशीर्वाद देती हैं! क्योंकि तुमने उनके पतियों की रक्षाा कर उनकी चादर और चूड़ी (तुर्किनों की चादर और हिन्दुआनियों की चूड़ी) रख लीं-उनका सधवापन (सोहाग) बचा लिया।



जनमु जलधि पानिप बिमलु भौ जग आघु अपारु।

रहै गुनी ह्वै गर पर्यौ भलैं न मुकुताहारु॥


जलधि = समुद्र। पानिप = (1) चमक (2) शोभा। आघु = मूल्य। गुनी = (1) गुणयुक्त (2) सूत्र-युक्त, गुँथा हुआ। मुकुता = मोती।


समुद्र से तुम्हारा जन्म हुआ है (कुलीन हो), स्वच्छ चमक है (सुन्दर हो), और संसार में तुम्हारा मूल्य भी अपार है (आदरणीय भी हो)। ऐसे ‘गुणी’ होकर भी-गुथे हुए होकर भी-किसी के गले पड़े रहना (खामखाह किसी की खिदमत में रहना), ऐ मुक्ता-हार! तुम्हारे लिए अच्छा नहीं है!



(सो.) पावस कठिन जु पीर, अबला क्यौंकरि सहि सकैं।

तेऊ धरत न धीर, रक्त-बीज सम ऊपजै॥


रक्त-बीज = ‘रक्त’ और ‘बीज’ के समान भाग से अवतार (जन्म) लेने वाला-अर्थात् ‘नपुंसक’। ऊपजे = जन्म ग्रहण किया।


वर्षा ऋतु की जो कठिन पीड़ा है, इसे अबला स्त्रियाँ किस प्रकार सह सकती हैं? जब कि जन्म ही के नपुंसक (पैदाइशी हिजड़े) भी इस ऋतु में धैर्य नहीं धरते।



प्यासे दुपहर जेठ के फिरै सबै जलु सोधि।

मरुधर पाइ मतीर हीं मारू कहत पयोधि॥


सोधि = ढूँढ़कर। मरुधर = मरुभूमि, मारवाड़। मतीर = तरबूजा। मारू = मरुभूमि निवासी। पयोधि = समुद्र।


जेठ की दुपहरिया का प्यासा और सर्वत्र जल ढूँढ़-ढूँढ़कर थका हुआ मरुभूमि-निवासी, मरुभूमि में तरबूजे को पाकर, उसे समुद्र कहता है। (देखिए 677 वाँ दोहा)



समै-समै सुन्दर सबै रूपु-कुरूपु न कोइ।

मन की रुचि जेती जितै तित तेती रुचि होइ॥


रुचि = प्रवृत्ति, आसक्ति। जेती = जितनी। जितै = जिधर। तित तेती = उधर उतनी ही।


समय-समय पर सभी सुन्दर हैं, कोई सुन्दर और कोई कुरूप नहीं है। मन की प्रवृत्ति जिधर जितनी होगी, उधर उतनी ही आसक्ति होगी।



सामाँ सेन सयान की सबै साहि कैं साथ।

बाहु-बली जयसाहि जू फते तिहारैं हाथ॥


सामाँ = समान। सेन = सेना। साह = बादशाह। बाहु-बली = पराक्रमी। फते = फतह = विजय।


सेना और चतुराई के सामान तो सभी बादशाहों के साथ रहते हैं, किन्तु पराक्रमी राजा जयसिंह जी, विजय तुम्हारे ही हाथ रहती है।



काल्हि दसहरा बीति है धरि मूरखजिय लाज।

दुर्‌यौ फिरत कत द्रुमनु मैं नीलकंठ बिनु काज॥


दुर्‌यौ = लुकना, छिपना। दु्रमनु = वृक्षों।


कल दसहरा बीत जायगा। अरे मूर्ख, कुछ तो हृदय में लाज कर। अरे नीलकंठ, वृक्षों पर व्यर्थ क्यों लुका फिरता है?


नोट - दसहरा के दिन नीलकंठ दर्शन शुभ है।



हुकुम पाइ जयसाहि कौ हरि-राधिका-प्रसाद।

करी बिहारी सतसई भरी अनेक सवाद॥


राजा जयसिंह की आज्ञा पाकर और राधा-कृष्ण की कृपा से ‘बिहारी’ ने यह ‘सतसई’ बनाई, जो अनेक स्वादों से भरी है-अनेक रसों से अलंकृत है।



संबत ग्रह ससि जलधि छिति छठ तिथि बासर चंद।

चैत मास पछ कृष्ण में पूरन आनँदकंद॥


ग्रह = नौ। ससि = चन्द्रमा, एक। जलधि = समुद्र, सात। छिति = पृथ्वी, एक। बासर = दिन। चंद = सोम। आनँदकंद = आनन्द की जड़।


संवत् 1719 के चैत्र मास के कृष्ण पक्ष में छठी तिथि और सोमवार को, यह आनन्कन्द ‘सतसई’ पूरी हुई।


नोट - पद्य में संवत् के अंक उलटे ही क्रम से लिखते हैं।



सतसैया कै दोहरे अरु नावकु कै तीरु।

देखत तौ छोटैं लगैं घाव करैं गंभीरु॥


दोहरे = दोहे। नावकु के तीर = एक प्रकार का छोटा तीर, जो बाँस की नली होकर फेंका जाता है, और उसका निशाना अचूक समझा जाता है।


सतसई के दोहे, और नावक के तीर, देखने में तो छोटे लगते हैं, किन्तु चोट बड़ी गहरी करते हैं-घायल बनाने में कमाल करते हैं।

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