Ramavtar Tyagi Kavita रामावतार त्यागी की कविताएँ

जब मिलेगी रोशनी मुझसे मिलेगी  रामावतार त्यागी कविता / कविताएँ

इस सदन में मैं अकेला ही दिया हूँ;

मत बुझाओ!

जब मिलेगी, रोशनी मुझसे मिलेगी!

पाँव तो मेरे थकन ने छील डाले

अब विचारों के सहारे चल रहा हूँ

आँसूओं से जन्म दे-देकर हँसी को

एक मंदिर के दिए-सा जल रहा हूँ;

मैं जहाँ धर दूँ कदम वह राजपथ है;

मत मिटाओ!

पाँव मेरे, देखकर दुनिया चलेगी!

बेबसी मेरे अधर इतने न खोलो

जो कि अपना मोल बतलाता फिरूँ मैं

इस कदर नफ़रत न बरसाओ नयन से

प्यार को हर गाँव दफनाता फिरूँ मैं

एक अंगारा गरम मैं ही बचा हूँ

मत बुझाओ!

जब जलेगी, आरती मुझसे जलेगी!

जी रहे हो किस कला का नाम लेकर

कुछ पता भी है कि वह कैसे बची है,

सभ्यता की जिस अटारी पर खड़े हो

वह हमीं बदनाम लोगों ने रची है;

मैं बहारों का अकेला वंशधर हूँ

मत सुखाओ!

मैं खिलूँगा, तब नई बगिया खिलेगी!

शाम ने सबके मुखों पर आग मल दी

मैं जला हूँ, तो सुबह लाकर बुझुँगा

ज़िन्दगी सारी गुनाहों में बिताकर

जब मरूँगा देवता बनकर पुजुँगा;

आँसूओं को देखकर मेरी हंसी तुम

मत उड़ाओ!

मैं न रोऊँ, तो शिला कैसे गलेगी!

हारे थके मुसाफिर के  रामावतार त्यागी कविता / कविताएँ

हारे थके मुसाफिर के चरणों को धोकर पी लेने से

मैंने अक्सर यह देखा है मेरी थकन उतर जाती है ।

कोई ठोकर लगी अचानक जब-जब चला सावधानी से

पर बेहोशी में मंजिल तक जा पहुँचा हूँ आसानी से

रोने वाले के अधरों पर अपनी मुरली धर देने से

मैंने अक्सर यह देखा है, मेरी तृष्णा मर जाती है ॥

प्यासे अधरों के बिन परसे, पुण्य नहीं मिलता पानी को

याचक का आशीष लिये बिन स्वर्ग नहीं मिलता दानी को

खाली पात्र किसी का अपनी प्यास बुझा कर भर देने से

मैंने अक्सर यह देखा है मेरी गागर भर जाती है ॥

लालच दिया मुक्ति का जिसने वह ईश्वर पूजना नहीं है

बन कर वेदमंत्र-सा मुझको मंदिर में गूँजना नहीं है

संकटग्रस्त किसी नाविक को निज पतवार थमा देने से

मैंने अक्सर यह देखा है मेरी नौका तर जाती है ॥

प्रश्न किया है मेरे मन के मीत ने  रामावतार त्यागी कविता / कविताएँ

प्रश्न किया है मेरे मन के मीत ने

मेरा और तुम्हारा क्या सम्बन्ध है

वैसे तो सम्बन्ध कहा जाता नहीं

व्यक्त अगर हो जाए तो नाता नहीं

किन्तु सुनो लोचन को ढाँप दुकूल से

जो सम्बन्ध सुरभि का होता फूल से

मेरा और तुम्हारा वो सम्बन्ध है

मेरा जन्म दिवस ही जग का जन्म है

मेरे अन्त दिवस पर दुनिया खत्म है

आज बताता हूँ तुमको ईमान से

जो सम्बन्ध कला का है इंसान से

मेरा और तुम्हारा वो सम्बन्ध है

मैं न किसी की राजनीत का दाँव हूँ

देदो जिसको दान न ऐसा गाँव हूँ

झूठ कहूँगा तो कहना किस काम का

जो सम्बन्ध प्रगति और विराम का

मेरा और तुम्हारा वो सम्बन्ध है

करता हूँ मैं प्यार सुनाता गीत हूँ

जीवन मेरा नाम सृजन का मीत हूँ

और निकट आ जाओ सुनो न दूर से

जो सम्बन्ध स्वयंवर का सिन्दूर से

मेरा और तुम्हारा वो सम्बन्ध है

मैं रंगीन उमंगों का समुदाय हूँ

सतरंगी गीतों का एक निकाय हूँ

और कहूँ क्या तुम हो रहे उदास से

जो सम्बन्ध समर्पण का विश्वास से

मेरा और तुम्हारा वो सम्बन्ध है

प्रश्न किया मेरे मन के मीत ने

मेरा और तुम्हारा क्या सम्बन्ध है

एक भी आँसू न कर बेकार  रामावतार त्यागी कविता / कविताएँ

एक भी आँसू न कर बेकार

जाने कब समंदर माँगने आ जाए

पास प्यासे के कुँआ आता नहीं है

यह कहावत है अमरवाणी नहीं है

और जिसके पास देने को न कुछ भी

एक भी ऎसा यहाँ प्राणी नहीं है

कर स्वयं हर गीत का श्रंगार

जाने देवता को कौन सा भा जाय

चोट खाकर टूटते हैं सिर्फ दर्पण

किन्तु आकृतियाँ कभी टूटी नहीं हैं

आदमी से रूठ जाता है सभी कुछ

पर समस्यायें कभी रूठी नहीं हैं

हर छलकते अश्रु को कर प्यार

जाने आत्मा को कौन सा नहला जाय!

व्यर्थ है करना खुशामद रास्तों की

काम अपने पाँव ही आते सफर में

वह न ईश्वर के उठाए भी उठेगा

जो स्वयं गिर जाए अपनी ही नजर में

हर लहर का कर प्रणय स्वीकार

जाने कौन तट के पास पहुँच जाय

ज़िंदगी एक रस  रामावतार त्यागी कविता / कविताएँ

ज़िंदगी एक रस किस क़दर हो गई

एक बस्ती थी वो भी शहर हो गई

घर की दीवार पोती गई इस तरह

लोग समझें कि लो अब सहर हो गई

हाय इतने अभी बच गए आदमी

गिनते-गिनते जिन्हें दोपहर हो गई

कोई खुद्दार दीपक जले किसलिए

जब सियासत अंधेरों का घर हो गई

कल के आज के मुझ में यह फ़र्क है

जो नदी थी कभी वो लहर हो गई

एक ग़म था जो अब देवता बन गया

एक ख़ुशी है कि वह जानवर हो गई

जब मशालें लगातार बढ़ती गईं

रौशनी हारकर मुख्तसर हो गई.

मैं दिल्ली हूँ  रामावतार त्यागी कविता / कविताएँ

मैं दिल्ली हूँ मैंने कितनी, रंगीन बहारें देखी हैं।

अपने आँगन में सपनों की, हर ओर कितारें देखीं हैं॥

मैंने बलशाली राजाओं के, ताज उतरते देखे हैं।

मैंने जीवन की गलियों से तूफ़ान गुज़रते देखे हैं॥

देखा है; कितनी बार जनम के, हाथों मरघट हार गया।

देखा है; कितनी बार पसीना, मानव का बेकार गया॥

मैंने उठते-गिरते देखीं, सोने-चाँदी की मीनारें।

मैंने हँसते-रोते देखीं, महलों की ऊँची दीवारें॥

गर्मी का ताप सहा मैंने, झेला अनगिनत बरसातों को।

मैंने गाते-गाते काटा जाड़े की ठंडी रातों को॥

पतझर से मेरा चमन न जाने, कितनी बार गया लूटा।

पर मैं ऐसी पटरानी हूँ, मुझसे सिंगार नहीं रूठा॥

आँखें खोली; देखा मैंने, मेरे खंडहर जगमगा गए।

हर बार लुटेरे आ-आकर, मेरी क़िस्मत को जगा गए ॥

मुझको सौ बार उजाड़ा है, सौ बार बसाया है मुझको।

अक्सर भूचालों ने आकर, हर बार सजाया है मुझको॥

यह हुआ कि वर्षों तक मेरी, हर रात रही काली-काली।

यह हुआ कि मेरे आँगन में, बरसी जी भर कर उजियाली।।

वर्षों मेरे चौराहों पर, घूमा है ज़ालिम सन्नाटा।

मुझको सौभाग्य मिला मैंने, दुनिया भर को कंचन बाँटा।।

जब चाहा मैंने तूफ़ानों के, अभिमानों को कुचल दिया।

हँसकर मुरझाई कलियों को, मैंने उपवन में बदल दिया।।

मुझ पर कितने संकट आए, आए सब रोकर चले गए।

युद्धों के बरसाती बादल, मेरे पग धोकर चले गए।।

कब मेरी नींव रखी किसने, यह तो मुझको भी याद नहीं।

पूँछू किससे; नाना-नानी, मेरा कोई आबाद नहीं।।

इतिहास बताएगा कैसे, वह मेरा नन्हा भाई है।

उसको इन्सानों की भाषा तक, मैंने स्वयं सिखाई है।।

हाँ, ग्रन्थ महाभारत थोड़ा, बचपन का हाल बताता है।

मेरे बचपन का इन्द्रप्रस्थ ही, नाम बताया जाता है।।

कहते हैं मुझे पांडवों ने ही, पहली बार बसाया था।

और उन्होंने इन्द्रपुरी से सुन्दर मुझे सजाया था।।

मेरी सुन्दरता के आगे सब, दुनिया पानी भरती थी।

सुनते हैं देश विदेशो पर, तब भी मैं शासन करती थी।।

किन्तु महाभारत से जो, हर ओर तबाही आई थी।

वह शायद मेरे घर में भी, कोई वीरानी लाई थी।।

बस उससे आगे सदियों तक, मेरा इतिहास नहीं मिलता।

मैं कितनी बार बसी-उजड़ी, इसका कुछ पता नहीं चलता।।

ईसा से सात सदी पीछे, फिर बन्द कहानी शुरू हुई।

आठवीं सदी के आते ही, भरपूर जवानी शुरू हुई।।

सचमुच तो राजा अनंगपाल ने फिरसे मुझे बसाया था।

मेरी शोभा के आगे तब, नन्दन-वन भी शरमाया था।।

मेरे पाँवों को यमुना ने, आंखों से मल-मल धोया था।

बादल ने मेरे होंठों को आ-आकर स्वयं भिगोया था।।

आदमी का आकाश  रामावतार त्यागी कविता / कविताएँ

भूमि के विस्तार में बेशक कमी आई नहीं है

आदमी का आजकल आकाश छोटा हो गया है ।

हो गए सम्बन्ध सीमित डाक से आए ख़तों तक

और सीमाएँ सिकुड़कर आ गईं घर की छतों तक

प्यार करने का तरीका तो वही युग–युग पुराना

आज लेकिन व्यक्ति का विश्वास छोटा हो गया है ।

आदमी की शोर से आवाज़ नापी जा रही है

घण्टियों से वक़्त की परवाज़ नापी जा रही है

देश के भूगोल में कोई बदल आया नहीं है

हाँ, हृदय का आजकल इतिहास छोटा हो गया है ।

यह मुझे समझा दिया है उस महाजन की बही ने

साल में होते नहीं हैं आजकल बारह महीने

और ऋतुओं के समय में बाल भर अन्तर न आया

पर न जाने किस तरह मधुमास छोटा हो गया है ।

रोशनी मुझसे मिलेगी  रामावतार त्यागी कविता / कविताएँ

इस सदन में मैं अकेला ही दिया हूँ;

मत बुझाओ !

जब मिलेगी, रोशनी मुझसे मिलेगी !

पाँव तो मेरे थकन ने छील डाले

अब विचारों के सहारे चल रहा हूँ

आँसुओं से जन्म दे-देकर हँसी को

एक मन्दिर के दिए-सा जल रहा हूँ;

मैं जहाँ धर दूँ क़दम वह राजपथ है;

मत मिटाओ !

पाँव मेरे, देखकर दुनिया चलेगी !

बेबसी मेरे अधर इतने न खोलो

जो कि अपना मोल बतलाता फिरूँ मैं

इस कदर नफ़रत न बरसाओ नयन से

प्यार को हर गाँव दफ़नाता फिरूँ मैं

एक अँगारा गरम मैं ही बचा हूँ

मत बुझाओ !

जब जलेगी, आरती मुझसे जलेगी !

जी रहे हो किस कला का नाम लेकर

कुछ पता भी है कि वह कैसे बची है,

सभ्यता की जिस अटारी पर खड़े हो

वह हमीं बदनाम लोगों ने रची है;

मैं बहारों का अकेला वंशधर हूँ

मत सुखाओ !

मैं खिलूँगा, तब नई बगिया खिलेगी !

शाम ने सबके मुखों पर आग मल दी

मैं जला हूँ, तो सुबह लाकर बुझुँगा

ज़िन्दगी सारी गुनाहों में बिताकर

जब मरूँगा देवता बनकर पुजुँगा;

आँसूओं को देखकर मेरी हँसी तुम

मत उड़ाओ !

मैं न रोऊँ, तो शिला कैसे गलेगी !

सबसे अधिक तुम्हीं रोओगे  रामावतार त्यागी कविता / कविताएँ

आने पर मेरे बिजली-सी कौंधी सिर्फ तुम्हारे दृग में

लगता है जाने पर मेरे सबसे अधिक तुम्हीं रोओगे !

मैं आया तो चारण-जैसा

गाने लगा तुम्हारा आंगन;

हंसता द्वार, चहकती ड्योढ़ी

तुम चुपचाप खड़े किस कारण ?

मुझको द्वारे तक पहुंचाने सब तो आये, तुम्हीं न आए,

लगता है एकाकी पथ पर मेरे साथ तुम्हीं होओगे!

मौन तुम्हारा प्रश्न चिन्ह है,

पूछ रहे शायद कैसा हूं

कुछ कुछ बादल के जैसा हूं;

मेरा गीत सुन सब जागे, तुमको जैसे नींद आ गई,

लगता मौन प्रतीक्षा में तुम सारी रात नहीं सोओगे!

तुमने मुझे अदेखा कर के

संबंधों की बात खोल दी;

सुख के सूरज की आंखों में

काली काली रात घोल दी;

कल को गर मेरे आंसू की मंदिर में पड़ गई ज़रूरत

लगता है आंचल को अपने सबसे अधिक तुम ही धोओगे!

परिचय से पहले ही, बोलो,

उलझे किस ताने बाने में ?

तुम शायद पथ देख रहे थे,

मुझको देर हुई आने में;

जगभर ने आशीष पठाए, तुमने कोई शब्द न भेजा,

लगता है तुम मन की बगिया में गीतों का बिरवा बोओगे!

ज़िंदगी और बता तेरा इरादा क्या है  रामावतार त्यागी कविता / कविताएँ

ज़िंदगी और बता तेरा इरादा क्या है

इक हसरत थी कि आँचल का मुझे प्यार मिले

मैंने मंज़िल को तलाशा मुझे बाज़ार मिले

मुझको पैदा किया संसार में दो लाशों ने

और बर्बाद किया क़ौम के अय्याशों ने

तेरे दामन में बस मौत से ज़्यादा क्या है

ज़िंदगी और बता तेरा इरादा क्या है

जो भी तस्वीर बनाता हूँ बिगड़ जाती है

देखते-देखते दुनिया ही उजड़ जाती है

मेरी कश्ती तेरा तूफ़ान से वादा क्या है

ज़िंदगी और बता तेरा इरादा क्या है

तूने जो दर्द दिया उसकी क़सम खाता हूं

इतना ज़्यादा है कि एहसां से दबा जाता हूं

मेरी तक़दीर बता और तक़ाज़ा क्या है

ज़िंदगी और बता तेरा इरादा क्या है

मैंने जज़्बात के संग खेलते दौलत देखी

अपनी आँखों से मोहब्बत की तिजारत देखी

ऐसी दुनिया में मेरे वास्ते रक्खा क्या है

ज़िंदगी और बता तेरा इरादा क्या है

आदमी चाहे तो तक़दीर बदल सकता है

पूरी दुनिया की वो तस्वीर बदल सकता है

आदमी सोच तो ले उसका इरादा क्या है

चाँदी की उर्वशी न कर दे  रामावतार त्यागी कविता / कविताएँ

चाँदी की उर्वशी न कर दे युग के तप संयम को खंडित

भर कर आग अंक में मुझको सारी रात जागना होगा ।

मैं मर जाता अगर रात भी मिलती नहीं सुबह को खोकर

जीवन का जीना भी क्या है, गीतों का शरणागत होकर,

मन है राजरोग का रोगी, आशा है शव की परिणीता

डूब न जाये वंश प्यास का पनघट मुझे त्यागना होगा ॥

सपनों का अपराध नहीं है, मन को ही भा गयी उदासी

ज्यादा देर किसी नगरी में रुकते नहीं संत सन्यासी

जो कुछ भी माँगोगे दूँगा ये सपने तो परमहंस हैं

मुझको नंगे पाँव धार पर आँखें मूँद भागना होगा ॥

गागर क्या है - कंठ लगाकर जल को रोक लिया माटी ने

जीवन क्या है - जैसे स्वर को वापिस भेज दिया घाटी ने,

गीतों का दर्पण छोटा है जीवन का आकार बड़ा है

जीवन की खातिर गीतों को अब विस्तार माँगना होगा ॥

चुनना है बस दर्द सुदामा लड़ना है अन्याय कंस से

जीवन मरणासन्न पड़ा है, लालच के विष भरे दंश से

गीता में जो सत्य लिखा है, वह भी पूरा सत्य नहीं है

चिन्तन की लछ्मन रेखा को थोड़ा आज लाँघना होगा ॥

हिंद के बहादुरो  रामावतार त्यागी कविता / कविताएँ

हिंद के बहादुरो, शूरवीर बालको

थाम लो सँभालकर देश की मशाल को!

अंधकार का गरूर आन-बान तोड़ दो

बालको, भविष्य के लिए मिसाल छोड़ दो,

दो नई-नई दिशा वर्तमान काल को!

देश माँगता कि खून से रँगा गुलाब दो

तुम उठो सिपाहियो शत्रु को जवाब दो,

झूम-झूमकर मलो युद्ध के गुलाल को!

दूर तक जमीन पर शानदार जय लिखो

तुम विशाल सिंधु पर जय लिखो, विजय लिखो,

तोड़ दो पिशाच के तुम हरेक जाल को!


Ramavtar Tyagi
Ramavtar Tyagi


Comments