रहौ कोऊ काहू मनहि दियें हित हरिवंश पद Hitharivansh ke Pad
रहौ कोऊ काहू मनहि दियें।
मेरे प्राननाथ श्रीस्यामा, सपथ करौं तिन छियें॥
जे अवतार कदंब-भजत हैं, धरि दृढ़व्रत जु हियें।
तेऊ उमगि तत मरजादा, बन-बिहार-रस पियें॥
खोये रतन फिरत जे घर-घर, कौन काज इमि जियें।
‘हितहरिबंस' अनतु सचु’ नाहीं, बिन या रसहिं लियें॥
सुनि मेरो बचन छबीली राधा हितहरिवंश पद Hitharivansh ke Pad
सुनि मेरो बचन छबीली राधा।
तैं पायौ रससिंधु अगाधा॥
जाहिं बिरंचि उमापति नाये।
तापै तैं बन-फूल बिनाये॥
तेरो रूप कहत नहि आवै।
(जैश्री) ‘हित हरिबंस' कछुक जसु गावै॥
आरति कीजै स्यामसुन्दर की हितहरिवंश पद Hitharivansh ke Pad
आरति कीजै स्यामसुंदर की।
नंदनंदन श्रीराधावर की॥
भक्ति कौ दीप, प्रेम की बाती।
साधु संगति कर अनुदिन राती॥
आरति ब्रज-जुबतिन-मन-भावै।
स्याम लीला 'हितहरिबंस गावै॥
मोहनलाल के रंग राँची हितहरिवंश पद Hitharivansh ke Pad
मोहनलाल के रंग राँची।
मेरे ख्याल परौ जिन कोऊ, बात दसौं दिसि माची॥
कंत अनंत करो किन कोऊ, नाहिं धारना साँची।
यह जिय जाहु भले सिर ऊपर, हौं तु प्रगट ह्वै नाची॥
जाग्रत सयन रहत ऊपर मणि ज्यों कंचन सँग पाँची।
‘हित हरिवंस' डरौं काके डर, हौं नाहिन मति काँची॥
आजु बन नीको रास बनायौ हितहरिवंश पद Hitharivansh ke Pad
आजु बन नीको रास बनायौ।
पुलिन पवित्र सुभग जमुना-तट, मोहन बेनु बजायौ॥
कल कंकन किंकिनि नूपुर-धुनि, सुनि खग-मृग सच पायौ।
जुवतिन-मंडल मध्य स्यामघन, सारंग-राग जमायौ॥
ताल, मृदंग उपंग मुरज डफ, मिलि रस-सिंधु बढायौ।
विविध बिसद वृषभानु-नंदिनी, अंग-सुढंग दिखायौ॥
अभिनय, निपुन लटकि लटि लोचन, भृकुटि अनंद नचायौ।
ततथेई ताथेई धरति नवल गति, पति ब्रजराज रिझायौ॥
बरसत कुसुम मुदित नभ-नायक, इन्द्र निसान बजायौ।
(जैश्री) ‘हित हरिबंस' रसिक राधापति, जस बितान जग छायौ॥
सरद बिमल, नभ चंद बिराजै हितहरिवंश पद Hitharivansh ke Pad
सरद बिमल, नभ चंद बिराजै। मधुर मधुर मुरली कल बाजै।
अति राजत घनस्याम-तमाला। कंचन-बेलि बनी ब्रज-बाला॥
भूषन बहुत, विविध रँग सारी। अंग सुगंध दिखावति नारी॥
बरसत कुसुम मुदित सुर-जोषा। सुनियतु दिवि-दुंदुभि-कल-घोषा।
(जैश्री) ‘हितहरिबंस' मगन मन स्यामा। राधा-रमन सकल सुखधामा॥
ताते भैया, मेरी सौं, कृष्णगुन संचु हितहरिवंश पद Hitharivansh ke Pad
ताते भैया, मेरी सौं, कृष्णगुन संचु।
कुत्सित बाद बिकारहिं परधन, सुनु सिख परतिय बंधु॥
मणि-गुण-पुंज जु ब्रजपति छाँड़त ‘हित हरिवंस' सुकर गहि कंचु ।
पायो जानि जगत में सब जन कपटी कुटिल कलिजुगी टंचु।
इहि परलोक सकल सुख पावत, मेरी सौं, कृष्ण गुन संचु॥
मानुष कौ तन पाइ भजौ ब्रजनाथ कों हितहरिवंश पद Hitharivansh ke Pad
मानुष कौ तन पाइ भजौ ब्रजनाथ कों।
दर्बी लैकैं मूढ़ जरावत हाष कों॥
‘हित हरिवंस' प्रपंच विषयरस मोह के।
बिनु कंचन क्यो चलें पचीसा लोह के॥
देखौ भाई, सुंदरता की सींवा हितहरिवंश पद Hitharivansh ke Pad
देखौ भाई, सुंदरता की सींवा।
ब्रज-नव-तरुनि-कंदब-नागरी निरखि करति अध ग्रीवा॥
जो कोउ कोटि कलप लगि जोवै रसना कोटिक पावै।
तऊ रुचिर बदनारविंद की सोभा कहति न आवै॥
देवलोक भुवलोक रसातल सुनि कबिकुल मन डरियै।
सहज माधुरी अंग-अंग की, कहि कासों पटतरियै॥
(जैश्री) ‘हित हरिवंस' प्रताप रूप गुन बय बल स्याम उजागर।
जाकौ भू-बिलास बस पसुरिव, दिन बिथकित रससागर॥
ब्रज-नव-तरुनि-कदंब-मुकुट मनि हितहरिवंश पद Hitharivansh ke Pad
ब्रज-नव-तरुनि-कदंब-मुकुट मनि स्यामा आजु बनी।
नख-सिख लौं अंग-अंग माधुरी मोहे स्याम धनी॥
यौं राजत कबरी गूथित कच कनककंज-बदनी॥
चिकुर चंद्रकनि बीच अरघ बिधु मानौं ग्रसत फनी॥
सौभग रस सिर स्रवत पनारी पिय सीमंत ठनी॥
भ्रकुटि काम कोदंड, नैन सर, कज्जल रेख अनी॥
भाल तिलक, ताटंक गंड पर, नासा जलज मनी।
दसन कुंद, सरसाधर-पल्लव पीतम-मन-समनी॥
(जैश्री) ‘हितहरिबंस' प्रसंसित स्यामा, कीरति विसद घनी।
गावत श्रवननि सुनत सुखाकर विस्व-दुरित-दबनी॥
मधुरितु बृंदाबन आनंद न थोर हितहरिवंश पद Hitharivansh ke Pad
मधुरितु बृंदाबन आनंद न थोर।
राजति नागरी नव कुसल किसोर॥
जूथिका जुगलरूप मंजरी रसाल।
बिथकित अलि मधु माधवी गुलाल॥
चंपक बकुल कुल बिबिध सरोज।
केतकी मेदिनी मद मुदित मनोज॥
रोचक रुचिर बहै त्रिविध समीर।
मुकुलित चूत नदति पिक कीर॥
पावन पुलिन घन मंजुल निकुंज।
किसलय सैन रचित सुखपुंज॥
मंजीर मुरज डफ मुरली मृदंग।
बाजत उपंग बीना वर मुख-चंग॥
मृगमद मलयज कुंकुम अबीर।
बदन अगर-सत सुरभित चीर॥
गावत सुंदर हरि सरस धमारि॥
पुलकित खग-मृग बहत न बारि॥
(जैश्री) ‘हितहरिबंस' हंस-हंसिनी-समाज।
ऐसे ई करहु मिलि जुग-जुग राज॥
हितहरिवंश प्रपंच वंच हितहरिवंश पद Hitharivansh ke Pad
(जैश्री) ‘हितहरिवंश प्रपंच वंच सब काल व्याल कौ खायो।
यह जिय जानि स्याम–स्यामा-पद-कमल संगिरे सिर नायो॥
जोई-जोई प्यारो करैं हितहरिवंश पद Hitharivansh ke Pad
जोई-जोई प्यारो करैं सोई मोहि भावै।
भावै मोहि जोई, सोई-सोई करें प्यारे॥
मोकों तो भावती ठौर प्यारे के नैनन में,
प्यारे भये चाहैं मेरे नैनन के तारे॥
मेरे तन-मन-प्रानहूँ तें प्रीतम प्रिय आपने,
कोटिक प्रान प्रीतम मोसों हारे।
(जैश्री) 'हितहरिबंस' हंस-हंसिनी स्यामल गौर,
कहौ, कौन करै जल-तरंगिनि न्यारे॥
प्रीति न काहु कि कानि बिचारै हितहरिवंश पद Hitharivansh ke Pad
प्रीति न काहु कि कानि बिचारै॥
मारग अपमारग विथकित मन, को अनुसरत निबारै॥
ज्यौं पावस सलिता-जल उमगति, सनमुख सिंधु सिधारै।
ज्यौं नादहि मन दिये कुरंगनि, प्रगट पारधी मारै॥
(जैश्री) ‘हित हरिवंस' लग-सारँग ज्यौं सलभ सरीरहिं जारै।
नाइक निपुन नवलमोहन बिनु कौन अपनपौ हारे॥
आजु नीकी बनी राधिका नागरी हितहरिवंश पद Hitharivansh ke Pad
आजु नीकी बनी राधिका नागरी।
ब्रज जुवति जूथ में रूप अरु चतुरई,
सील-सिंगार-गुन-सबनि तें आगरी॥
कमल दच्छिन भुजा बाम भुजा अंसु सखि,
गावती सरस मिलि मधुर सुर’ राग री॥
सकल विद्या विहित रहसि ‘हरिबंस' हित,
मिलत नव कुंज बर स्याम बड़ भाग रीं॥
Comments
Post a Comment