Ameer Minai Ghazal / अमीर मीनाई ग़ज़लें

अमीर मीनाई ग़ज़ल

तुन्द मै और ऐसे कमसिन के लिये / अमीर मीनाई ग़ज़ल / रचना


 
तुन्द मय और ऐसे कमसिन के लिये
साक़िया हल्की-सी ला इन के लिये

मुझ से रुख़्सत हो मेरा अहद-ए-शबाब
या ख़ुदा रखना न उस दिन के लिये

है जवानी ख़ुद जवानी का सिंगार
सादगी गहना है इस सिन के लिये

सब हसीं हैं ज़ाहिदों को नापसन्द
अब कोई हूर आयेगी इन के लिये

वस्ल का दिन और इतना मुख़्तसर
दिन गिने जाते थे इस दिन के लिये

सारी दुनिया के हैं वो मेरे सिवा
मैंने दुनिया छोड़ दी जिन के लिये

लाश पर इबरत ये कहती है 'अमीर'
आये थे दुनिया में इस दिन के लिये




जब से बुलबुल तूने दो तिनके लिये / अमीर मीनाई ग़ज़ल / रचना


 
जब से बुलबुल तूने दो तिनके लिये
टूटती है बिजलियाँ इनके लिये

है जवानी ख़ुद जवानी का सिंगार
सादगी गहना है उस सिन के लिये

कौन वीराने में देखेगा बहार
फूल जंगल में खिले किनके लिये

सारी दुनिया के हैं वो मेरे सिवा
मैंने दुनिया छोड़ दी जिन के लिये

बाग़बाँ कलियाँ हों हल्के रंग की
भेजनी हैं एक कमसिन के लिये

सब हसीं हैं ज़ाहिदों को नापसन्द
अब कोई हूर आयेगी इनके लिये

वस्ल का दिन और इतना मुख़्तसर
दिन गिने जाते थे इस दिन के लिये






कह रही है हश्र में वो आँख शर्माई हुई / अमीर मीनाई ग़ज़ल / रचना


 
कह रही है हश्र में वो आँख शर्माई हुई
हाय कैसे इस भरी महफ़िल में रुसवाई हुई

आईने में हर अदा को देख कर कहते हैं वो
आज देखा चाहिये किस किस की है आई हुई

कह तो ऐ गुलचीं असीरान-ए-क़फ़स के वास्ते
तोड़ लूँ दो चार कलियाँ मैं भी मुर्झाई हुई

मैं तो राज़-ए-दिल छुपाऊँ पर छिपा रहने भी दे
जान की दुश्मन ये ज़ालिम आँख ललचाई हुई

ग़म्ज़ा-ओ-नाज़-ओ-अदा सब में हया का है लगाव
 
हाए रे बचपन की शोख़ी भी है शर्माई हुई

वस्ल में ख़ाली रक़ीबों से हुई महफ़िल तो क्या
शर्म भी जाये तो जानूँ के तन्हाई हुई

गर्द उड़ी आशिक़ की तुर्बत से तो झुँझला के कहा
वाह सर चढ़ने लगी पाँओं की ठुकराई हुई




सरकती जाये है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता-आहिस्ता / अमीर मीनाई ग़ज़ल / रचना


 
सरकती जाये है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता-आहिस्ता
निकलता आ रहा है आफ़ताब आहिस्ता-आहिस्ता

जवाँ होने लगे जब वो तो हम से कर लिया पर्दा
हया यकलख़त आई और शबाब आहिस्ता-आहिस्ता

शब-ए-फ़ुर्कत का जागा हूँ फ़रिश्तों अब तो सोने दो
कभी फ़ुर्सत में कर लेना हिसाब आहिस्ता-आहिस्ता

सवाल-ए-वस्ल पर उन को अदू का ख़ौफ़ है इतना
दबे होंठों से देते हैं जवाब आहिस्ता आहिस्ता

हमारे और तुम्हारे प्यार में बस फ़र्क़ है इतना
इधर तो जल्दी जल्दी है उधर आहिस्ता आहिस्ता

वो बेदर्दी से सर काटे 'अमीर' और मैं कहूँ उन से
हुज़ूर आहिस्ता-आहिस्ता जनाब आहिस्ता-आहिस्ता

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इश्क़ में जाँ से गुज़रते हैं गुज़रने वाले / अमीर मीनाई ग़ज़ल / रचना


 
इश्क़ में जाँ से गुज़रते हैं गुज़रने वाले
मौत की राह नहीं देखते मरने वाले

आख़िरी वक़्त भी पूरा न किया वादा-ए-वस्ल
आप आते ही रहे मर गये मरने वाले

उठ्ठे और कूच-ए-महबूब में पहुँचे आशिक़
ये मुसाफ़िर नहीं रस्ते में ठहरने वाले

जान देने का कहा मैंने तो हँसकर बोले
तुम सलामत रहो हर रोज़ के मरने वाले

आस्माँ पे जो सितारे नज़र आये 'आमीर'
याद आये मुझे दाग़ अपने उभरने वाले




हँस के फ़रमाते हैं वो देख कर हालत मेरी / अमीर मीनाई ग़ज़ल / रचना


 
हँस के फ़रमाते हैं वो देख कर हालत मेरी
क्यों तुम आसान समझते थे मुहब्बत मेरी

बाद मरने के भी छोड़ी न रफ़ाक़त मेरी
मेरी तुर्बत से लगी बैठी है हसरत मेरी

मैंने आग़ोश-ए-तसव्वुर में भी खेंचा तो कहा
पिस गई पिस गई बेदर्द नज़ाकत मेरी

आईना सुबह-ए-शब-ए-वस्ल जो देखा तो कहा
देख ज़ालिम ये थी शाम को सूरत मेरी

यार पहलू में है तन्हाई है कह दो निकले
आज क्यों दिल में छुपी बैठी है हसरत मेरी

हुस्न और इश्क़ हमआग़ोश नज़र आ जाते
तेरी तस्वीर में खिंच जाती जो हैरत मेरी

किस ढिटाई से वो दिल छीन के कहते हैं 'अमीर'
वो मेरा घर है रहे जिस में मुहब्बत मेरी

Ameer Minai Ghazal



बन्दा नवाज़ियों पे खु़दा-ए-करीम था / अमीर मीनाई ग़ज़ल / रचना


 

बन्दा-नवाज़ियों पे ख़ुदा-ए-करीम था
करता न मैं गुनाह तो गुनाह-ए-अज़ीम था

बातें भी की ख़ुदा ने दिखाया जमाल भी
वल्लाह क्या नसीब जनाब-ए-कलीम था

दुनिया का हाल अहल-ए-अदम है ये मुख़्तसर
इक दो क़दम का कूच-ए-उम्मीद-ओ-बीम था

करता मैं दर्दमन्द तबीबों से क्या रजू
जिस ने दिया था दर्द बड़ा वो हक़ीम था

समाँ-ए-उफ़्व क्या मैं कहूँ मुख़्तसर है ये
बन्दा गुनाहगार था ख़ालिक़ करीम था

जिस दिन से मैं चमन में हुआ ख़्वाहे-ए-गुल 'अमीर'
नाम-ए-सबा कहीं न निशान-ए-नसीम था




झोंका इधर न आये नसीम-ए-बहार का / अमीर मीनाई ग़ज़ल / रचना


 
झोंका इधर न आये नसीम-ए-बहार का
नाज़ुक बहुत है फूल चराग़-ए-मज़ार का

फिर बैठे-बैठे वाद-ए-वस्ल उस ने कर लिया
फिर उठ खड़ा हुआ वही रोग इन्तज़ार का

शाख़ों से बर्ग-ए-गुल नहीं झड़ते हैं बाग़ में
ज़ेवर उतार रहा है उरूस-ए-बहार का

हर गुल से लालाज़ार में ये पूछता हूँ मैं
तू ही पता बता दे दिल-ए-दाग़दार का

इस प्यार से फ़िशार दिया गोर-ए-तंग ने
याद आ गया मज़ा मुझे आग़ोश-ए-यार का

हिलती नहीं हवा से चमन में ये डालियाँ
मूँह चूमते हैं फूल उरूस-ए-बहार का

उठता है नज़अ में वो सरहाने से ऐ 'अमीर'
मिटता है आसरा दिल-ए-उम्मीदवार का




अच्छे ईसा हो मरीज़ों का ख़याल अच्छा है / अमीर मीनाई ग़ज़ल / रचना


 


अच्छे ईसाहो मरीज़ों का ख़याल अच्छा है
हम मरे जाते हैं तुम कहते हो हाल अच्छा है

तुझ से माँगूँ मैं तुझी को कि सब कुछ मिल जाये
सौ सवालों से यही इक सवाल अच्छा है

देख ले बुलबुल-ओ-परवाना की बेताबी को
हिज्रअच्छा न हसीनों का विसालअच्छा है

आ गया उस का तसव्वुरतो पुकारा ये शौक़
दिल में जम जाये इलाही ये ख़याल अच्छा है




है दिल को शौक़ उस बुत-ए-क़ातिल की दीद का / अमीर मीनाई ग़ज़ल / रचना



है दिल को शौक़ उस बुत-ए-क़ातिल की दीद का
होली का रंग जिस को लहू है शहीद का

दुनिया परस्त क्या रहे उक़बा करेंगे तै
निकलेगा ख़ाक घर से क़दम ज़न मुरीद का

होने न पाए ग़ैर बग़लगीर यार से
अल्लाह यूँ ही रोज़ गुज़र जाए ईद का

सारा हिसाब ख़त्म हुआ हश्र हो चुका
पूछा गया न हाल तुम्हारे शहीद का

जा के सफ़र में भूल गए हमको वो अमीर
याँ और दोस्तों ने लिखा ख़त रसीद का




अमीर लाख इधर से उधर ज़माना हुआ / अमीर मीनाई ग़ज़ल / रचना


अमीर लाख इधर से उधर ज़माना हुआ
वो बुत वफ़ा पे न आया मैं बे-वफ़ा न हुआ।

सर-ए-नियाज़ को तेरा ही आस्ताना हुआ
शराब-ख़ाना हुआ या क़िमार-ख़ाना हुआ।

हुआ फ़रोग़ जो मुझ को ग़म-ए-ज़माना हुआ
पड़ा जो दाग़ जिगर में चराग़-ए-ख़ाना हुआ।

उम्मीद जा के नहीं उस गली से आने की
ब-रंग-ए-उम्र मिरा नामा-बर रवाना हुआ।

हज़ार शुक्र न ज़ाए हुई मिरी खेती
कि बर्क़ ओ सैल में तक़्सीम दाना दाना हुआ।


क़दम हुज़ूर के आए मिरे नसीब खुले
जवाब-ए-क़स्र-ए-सुलैमाँ ग़रीब-ख़ाना हुआ।

तिरे जमाल ने ज़ोहरा को दौर दिखलाया
तिरे जलाल से मिर्रीख़ का ज़माना हुआ।

कोई गया दर-ए-जानाँ पे हम हुए पामाल
हमारा सर न हुआ संग-ए-आस्ताना हुआ।

फ़रोग़-ए-दिल का सबब हो गई बुझी जो हवस
शरार-ए-कुश्ता से रौशन चराग़-ए-ख़ाना हुआ।

जब आई जोश पे मेरे करीम की रहमत
गिरा जो आँख से आँसू दुर-ए-यगाना हुआ।

हसद से ज़हर तन-ए-आसमाँ में फैल गया
जो अपनी किश्त में सरसब्ज़ कोई दाना हुआ।

चुने महीनों ही तिनके ग़रीब बुलबुल ने
मगर नसीब न दो रोज़ आशियाना हुआ।

ख़याल-ए-ज़ुल्फ़ में छाई ये तीरगी शब-ए-हिज्र
कि ख़ाल-ए-चेहरा-ए-ज़ख़्मी चराग़-ए-ख़ाना हुआ।

ये जोश-ए-गिर्या हुआ मेरे सैद होने पर
कि चश्म-ए-दाम के आँसू से सब्ज़ दाना हुआ।

न पूछ नाज़-ओ-नियाज़ उस के मेरे कब से हैं
ये हुस्न ओ इश्क़ तो अब है उसे ज़माना हुआ।

उठाए सदमे पे सदमे तो आबरू पाई
अमीर टूट के दिल गौहर-ए-यगाना हुआ।




क़ैदी जो था वो दिल से ख़रीदार हो गया / अमीर मीनाई ग़ज़ल / रचना



क़ैदी जो था वो दिल से ख़रीदार हो गया
यूसुफ़ को क़ैदख़ाना भी बाज़ार हो गया
 
उल्टा वो मेरी रुह से बेज़ार हो गया
मैं नामे-हूर ले के गुनहगार हो गया
 
ख़्वाहिश जो रोशनी की हुई मुझको हिज्र में
जुगनु चमक के शम्ए शबे-तार हो गया
 
एहसाँ किसी का इस तने-लागिर से क्या उठे
सो मन का बोझ साया -ए-दीवार हो गया
 
बे-हीला इस मसीह तलक था गुज़र महाल,
क़ासिद समझ कि राह में बीमार हो गया.
 
जिस राहरव ने राह में देखा तेरा जमाल
आईनादार पुश्ते-ब-दिवार हो गया.
 
क्योंकर मैं तर्क़े-उल्फ़ते-मिज़्गाँ करुँ अमीर
मंसूर चढ़ के दार पे सरदार हो गया.
 




फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझको रात भर रक्खा / अमीर मीनाई ग़ज़ल / रचना



फ़िराक़-ए-यारने बेचैन मुझको रात भर रक्खा
कभी तकियाइधर रक्खा, कभी तकिया उधर रक्खा

बराबरआईने के भी न समझे क़द्रवो दिल की
इसे ज़ेरे-क़दमरक्खा उसे पेशे-नज़ररक्खा

तुम्हारे संगे-दरका एक टुकड़ा भी जो हाथ आया
अज़ीज़ऐसा किया मर कर उसे छाती पे धर रक्खा

जिनाँ में साथ अपने क्यों न ले जाऊँ मैं नासेहको
सुलूकऐसा ही मेरे साथ है हज़रतने कर रक्खा

बड़ा एहसाँ है मेरे सर पे उसकी लग़ज़िश-ए-पाका
कि उसने बेतहाशा हाथ मेरे दोशपर रक्खा

तेरे हर नक़्श-ए-पाको रहगुज़र में सजदा कर बैठे
जहाँ तूने क़दम रक्खा वहाँ हमने भी सर रक्खा

अमीर अच्छा शगून-ए-मय किया साक़ी की फ़ुरक़तमें
जो बरसा अब्र-ए-रहमतजा-ए-मय<ref>शराब की जगह
</ref>शीशेमें भर रक्खा




ना शौक़ ए वस्ल का दावा / अमीर मीनाई ग़ज़ल / रचना


ना शौक़ ए वस्ल का दावा ना ज़ौक ए आश्नाई का
ना इक नाचीज़ बन्दा और उसे दावा ख़ुदाई का

कफ़स में हूँ मगर सारा चमन आँखों के आगे है
रिहाई के बराबर अब तस्सव्वुर है रिहाई का

नया अफ़साना कह वाइज़ तो शायद गर्म हो महफ़िल
क़यामत तो पुराना हाल है रोज़ ए जुदाई का

बहार आई है अब अस्मत का पर्दाफ़ाश होता है
जुनूं का हाथ है आज और दामन पारसाई का




ऐ ज़ब्त देख इश्क़ की उन को ख़बर न हो / अमीर मीनाई ग़ज़ल / रचना


ऐ ज़ब्त देख इश्क़ की उन को ख़बर न हो
दिल में हज़ार दर्द उठे आँख तर न हो।

मुद्दत में शाम-ए-वस्ल हुई है मुझे नसीब
दो-चार साल तक तो इलाही सहर न हो।

इक फूल है गुलाब का आज उन के हाथ में
धड़का मुझे ये है कि किसी का जिगर न हो।

ढूँडे से भी न मअ'नी-ए-बारीक जब मिला
धोका हुआ ये मुझ को कि उस की कमर न हो।

उल्फ़त की क्या उम्मीद वो ऐसा है बेवफ़ा
सोहबत हज़ार साल रहे कुछ असर न हो।

तूल-ए-शब-ए-विसाल हो मिस्ल-ए-शब-ए-फ़िराक़
निकले न आफ़्ताब इलाही सहर न हो।




कहा जो मैंने कि यूसुफ़ को ये हिजाब न था / अमीर मीनाई ग़ज़ल / रचना


कहा जो मैंने कि यूसुफ़ को ये हिजाब न था
तो हँस के बोले वो मुँह क़ाबिल-ए-नक़ाब न था।

शब-ए-विसाल भी वो शोख़ बे-हिजाब न था
नक़ाब उलट के भी देखा तो बे-नक़ाब न था।

लिपट के चूम लिया मुँह मिटा दिया उन का
नहीं का उन के सिवा इस के कुछ जवाब न था।

मिरे जनाज़े पे अब आते शर्म आती है
हलाल करने को बैठे थे जब हिजाब न था।

नसीब जाग उठे सो गए जो पाँव मिरे
तुम्हारे कूचे से बेहतर मक़ाम-ए-ख़्वाब न था।

ग़ज़ब किया कि इसे तू ने मोहतसिब तोड़ा
अरे ये दिल था मिरा शीशा-ए-शराब न था।

ज़माना वस्ल में लेता है करवटें क्या क्या
फ़िराक़-ए-यार के दिन एक इंक़लाब न था।

तुम्हीं ने क़त्ल किया है मुझे जो तनते हो
अकेले थे मलक-उल-मौत हम-रिकाब न था।

दुआ-ए-तौबा भी हम ने पढ़ी तो मय पी कर
मज़ा ही हम को किसी शय का बे-शराब न था।

मैं रू-ए-यार का मुश्ताक़ हो के आया था
तिरे जमाल का शैदा तो ऐ नक़ाब न था।

बयान की जो शब-ए-ग़म की बेकसी तो कहा
जिगर में दर्द न था दिल में इज़्तिराब न था।

वो बैठे बैठे जो दे बैठे क़त्ल-ए-आम का हुक्म
हँसी थी उन की किसी पर कोई इताब न था।

जो लाश भेजी थी क़ासिद की भेजते ख़त भी
रसीद वो तो मिरे ख़त की थी जवाब न था।

सुरूर-ए-क़त्ल से थी हाथ पाँव को जुम्बिश
वो मुझ पे वज्द का आलम था इज़्तिराब न था।

सबात बहर-ए-जहाँ में नहीं किसी को 'अमीर'
इधर नुमूद हुआ और उधर हुबाब न था।




फुटकर शेर / अमीर मीनाई / रचना


1. उल्फ़त में बराबर है वफ़ा हो कि जफ़ा हो,
  हर बात में लज़्ज़त है अगर दिल में मज़ा हो।


2.इक फूल है गुलाब का आज उनके हाथ में,
  धड़का मुझे है ये कि किसी का जिगर न हो।


3.अल्लाह रे सादगी, नहीं इतनी उन्हें ख़बर,
  मय्यत पे आ के पूछते हैं इन को क्या हुआ।


4.किसी रईस की महफ़िल का ज़िक्र क्या है 'अमीर'
  ख़ुदा के घर भी न जाएंगे बिन बुलाये हुए।


5.ऐ ज़ब्त देख इश्क़ की उनको ख़बर न हो,
  दिल में हज़ार दर्द उठे आंख ततर न हो।
  मुद्दत में शाम-ए-वस्ल हुई है मुझे नसीब,
  दो चार साल तक तो इलाही सहर न हो।


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