वो ग़ज़ल वालों का असलूब समझते होंगे / बशीर बद्र
वो ग़ज़ल वालो का असलूब[1] समझते होंगे
चाँद कहते है किसे ख़ूब समझते होंगे
इतनी मिलती है मिरी ग़ज़लों से सूरत तेरी
लोग तुझको मेरा महबूब समझते होंगे
मैं समझता था मुहब्बत की ज़बाँ ख़ुश्बू है
फूल से लोग उसे ख़ूब समझते होंगे
देख कर फूल के औराक़ [2] पे शबनम कुछ लोग
तेरा अश्कों भरा मकतूब[3] समझते होंगे
भूल कर अपना ज़माना ये ज़माने वाले
आज के प्यार को मायूब[4] समझते होंगे
शब्दार्थ
1 शैली
2 पन्ने
3 ख़त
4बुरा ,ऐबदार
हमारा दिल सवेरे का सुनहरा जाम हो जाए / बशीर बद्र
हमारा दिल सवेरे का सुनहरा जाम हो जाए
चराग़ों की तरह आँखें जलें जब शाम हो जाए
मैं ख़ुद भी एहतियातन उस गली से कम गुज़रता हूँ
कोई मासूम क्यों मेरे लिए बदनाम हो जाए
अजब हालात थे यूँ दिल का सौदा हो गया आख़िर
मोहब्बत की हवेली जिस तरह नीलाम हो जाए
समन्दर के सफ़र में इस तरह आवाज़ दो हमको
हवाएँ तेज़ हों और कश्तियों में शाम हो जाए
मुझे मालूम है उसका ठिकाना फिर कहाँ होगा
परिंदा आसमाँ छूने में जब नाकाम हो जाए
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए
मुसाफ़िर के रस्ते बदलते रहे / बशीर बद्र
मुसाफ़िर के रस्ते बदलते रहे
मुक़द्दर में चलना था चलते रहे
कोई फूल सा हाथ काँधे पे था
मेरे पाँव शोलों पे चलते रहे
मेरे रास्ते में उजाला रहा
दिये उस की आँखों के जलते रहे
दुष्यंत कुमार ग़ज़ल
वो क्या था जिसे हमने ठुकरा दिया
मगर उम्र भर हाथ मलते रहे
मुहब्बत अदावत वफ़ा बेरुख़ी
किराये के घर थे बदलते रहे
सुना है उन्हें भी हवा लग गई
हवाओं के जो रुख़ बदलते रहे
लिपट के चराग़ों से वो सो गये
जो फूलों पे करवट बदलते रहे
सुनो पानी में ये किसकी सदा है / बशीर बद्र
सुनो पानी में किसकी सदा है
कोई दरिया की तह में रो रहा है
सवेरे मेरी इन आँखों ने देखा
ख़ुदा चारों तरफ़ बिखरा हुआ है
समेटो और सीने में छुपा लो
ये सन्नाटा बहुत फैला हुआ है
पके गेहूँ की ख़ुश्बू चीखती है
बदन अपना सुनहरा हो चला है
हक़ीक़त सुर्ख़ मछली जानती है
समंदर कैसा बूढ़ा देवता है
हमारी शाख़ का नौ-खेज़ पत्ता
हवा के होंठ अक़्सर चूमता है
मुझे उन नीली आँखों ने बताया
तुम्हारा नाम पानी पर लिखा है
पत्थर जैसे मछली के कूल्हे चमके / बशीर बद्र
पत्थर जैसे मछली के कूल्हे चमके
गंगा जल में आग लगा कर चले गये
सात सितारे उड़ते घोड़ों पर आये
पल्कों से कुछ फूल चुरा कर चले गये
दीवारें, दीवारों की ज़ानिब सरकीं
छत से बिस्तर लोग उठा कर चले गये
तितली भागे तितली के पीछे-पीछे
फूल आये और फूल चुरा कर चले गये
सर्दी आई लोग पहाड़ों को भूले
पत्थर पर शीशे बिखरा कर चले गये
रात हवा के ऐसे झोंके दर आये
भरी हुई छागल छलका कर चले गये
(१९७१)
हर रोज़ हमें मिलना हर रोज़ बिछड़ना है / बशीर बद्र
हर रोज़ हमें मिलना हर रोज़ बिछड़ना है
मैं रात की परछाईं तू सुबह का चेहरा है
आलम का ये सब नक़शा बच्चों का घरौंदा है
इक ज़र्रे के कब्ज़े में सहमी हुई दुनिया है
हम-राह चलो मेरे या राह से हट जाओ
दीवार के रोके से दरिया कभी रुकता है
ख़ुश रहे या बहुत उदास रहे / बशीर बद्र
ख़ुश रहे या बहुत उदास रहे
ज़िन्दगी तेरे आस पास रहे
चाँद इन बदलियों से निकलेगा
कोई आयेगा दिल को आस रहे
हम मुहब्बत के फूल हैं शायद
कोई काँटा भी आस पास रहे
मेरे सीने में इस तरह बस जा
मेरी सांसों में तेरी बास रहे
आज हम सब के साथ ख़ूब हँसे
और फिर देर तक उदास रहे
कोई जाता है यहाँ से न कोई आता है / बशीर बद्र
कोई जाता है यहाँ से न कोई आता है
ये दिया अपने अँधेरे में घुटा जाता है
सब समझते हैं वही रात की क़िस्मत होगा
जो सितारा कि बुलन्दी पे नज़र आता है
बिल्डिंगें लोग नहीं हैं जो कहीं भाग सकें
रोज़ इन्सानों का सैलाब बढ़ा जाता है
मैं इसी खोज में बढ़ता ही चला जाता हूँ
किसका आँचल है जो कोहसारों पे लहराता है
मेरी आँखों में है इक अब्र का टुकड़ा शायद
कोई मौसम हो सरे-शाम बरस जाता है
दे तसल्ली जो कोई आँख छलक उठती है
कोई समझाए तो दिल और भी भर आता है
अब्र के खेत में बिजली की चमकती हुई राह
जाने वालों के लिये रास्ता बन जाता है
(१९७०)
किसे ख़बर थी तुझे इस तरह सजाऊँगा / बशीर बद्र
किसे ख़बर थी तुझे इस तरह सजाऊँगा
ज़माना देखेगा और मैं न देख पाऊँगा
हयातो-मौत फ़िराको-विसाल सब यकजा
मैं एक रात में कितने दिये जलाऊँगा
पला बढ़ा हूँ अभी तक इन्हीं अन्धेरों में
मैं तेज़ धूप से कैसे नज़र मिलाऊँगा
मिरे मिज़ाज की ये मादराना फ़ितरत है
सवेरे सारी अज़ीयत मैं भूल जाऊँगा
तुम एक पेड़ से बाबस्ता हो मगर मैं तो
हवा के साथ बहुत दूर दूर जाऊँगा
मिरा ये अहद है मैं आज शाम होने तक
जहाँ से रिज़्क लिखा है वहीं से लाऊँगा
मोहब्बतों में दिखावे की दोस्ती न मिला / बशीर बद्र
मोहब्बतों में दिखावे की दोस्ती न मिला
अगर गले नहीं मिलता तो हाथ भी न मिला
घरों पे नाम थे, नामों के साथ ओहदे थे
बहुत तलाश किया कोई आदमी न मिला
तमाम रिश्तों को मैं घर पे छोड़ आया था
फिर इसके बाद मुझे कोई अजनबी न मिला
बहुत अजीब है ये क़ुरबतों की दूरी भी
वो मेरे साथ रहा और मुझे कभी न मिला
ख़ुदा की इतनी बड़ी क़ायनात में मैंने
बस एक शख़्स को माँगा मुझे वही न मिला
अगर तलाश करूँ कोई मिल ही जायेगा / बशीर बद्र
अगर तलाश करूँ कोई मिल ही जायेगा
मगर तुम्हारी तरह कौन मुझे चाहेगा
तुम्हें ज़रूर कोई चाहतों से देखेगा
मगर वो आँखें हमारी कहाँ से लायेगा
ना जाने कब तेरे दिल पर नई सी दस्तक हो
मकान ख़ाली हुआ है तो कोई आयेगा
मैं अपनी राह में दीवार बन के बैठा हूँ
अगर वो आया तो किस रास्ते से आयेगा
तुम्हारे साथ ये मौसम फ़रिश्तों जैसा है
तुम्हारे बाद ये मौसम बहुत सतायेगा
जब सहर चुप हो, हँसा लो हमको / बशीर बद्र
जब सहर चुप हो, हँसा लो हमको
जब अन्धेरा हो, जला लो हमको
हम हक़ीक़त हैं, नज़र आते हैं
दास्तानों में छुपा लो हमको
ख़ून का काम रवाँ रहना है
जिस जगह चाहे बहा लो हमको
दिन न पा जाए कहीं शब का राज़
सुबह से पहले उठा लो हमको
दूर हो जाएंगे सूरज की तरह
हम न कहते थे, उछालो हमको
हम ज़माने के सताये हैं बहोत
अपने सीने से लगा लो हमको
वक़्त के होंट हमें छू लेंगे
अनकहे बोल हैं गा लो हमको
परखना मत, परखने में कोई अपना नहीं रहता / बशीर बद्र
परखना मत, परखने में कोई अपना नहीं रहता
किसी भी आईने में देर तक चेहरा नहीं रहता
बडे लोगों से मिलने में हमेशा फ़ासला रखना
जहां दरिया समन्दर में मिले, दरिया नहीं रहता
हजारों शेर मेरे सो गये कागज की कब्रों में
अजब मां हूं कोई बच्चा मेरा ज़िन्दा नहीं रहता
तुम्हारा शहर तो बिल्कुल नये अन्दाज वाला है
हमारे शहर में भी अब कोई हमसा नहीं रहता
मोहब्बत एक खुशबू है, हमेशा साथ रहती है
कोई इन्सान तन्हाई में भी कभी तन्हा नहीं रहता
कोई बादल हरे मौसम का फ़िर ऐलान करता है
ख़िज़ा के बाग में जब एक भी पत्ता नहीं रहता
किताबें, रिसाले न अख़बार पढ़ना / बशीर बद्र
किताबें, रिसाले न अख़बार पढ़ना
मगर दिल को हर रात इक बार पढ़ना
सियासत की अपनी अलग इक ज़बाँ है
लिखा हो जो इक़रार, इनकार पढ़ना
अलामत नये शहर की है सलामत
हज़ारों बरस की ये दीवार पढ़ना
किताबें, किताबें, किताबें, किताबें
कभी तो वो आँखें, वो रुख़सार पढ़ना
मैं काग़ज की तक़दीर पहचानता हूँ
सिपाही को आता है तलवार पढ़ना
बड़ी पुरसुकूँ धूप जैसी वो आँखें
किसी शाम झीलों के उस पार पढ़ना
ज़बानों की ये ख़ूबसूरत इकाई
ग़ज़ल के परिन्दों का अशआर पढ़ना
हम लोग सोचते हैं हमें कुछ मिला नहीं / बशीर बद्र
हम लोग सोचते हैं हमें कुछ मिला नहीं
शहरों से वापसी का कोई रास्ता नहीं
इक चेहरा साथ-साथ रहा जो मिला नहीं
किस को तलाश करते रहे कुछ पता नहीं
शिद्दत की धूफ, तेज हवाओं के बावज़ूद
मैं शाख़ से गिरा हूँ, नज़र से गिरा नहीं
आख़िर ग़ज़ल का ताजमहल भी है मक़बरा
हम ज़िन्दगी थे, हमको किसी ने जिया नहीं
जिसकी मुख़ालिफ़त हुई, मशहूर हो गया
इन पत्थरों से कोई परिन्दा गिरा नहीं
तारीकियों में और चमकती है दिल की धूप
सूरज तमाम रात यहाँ डूबता नहीं
किसने जलाई बस्तियाँ, बाज़ार क्यों लुटे
मैं चाँद पर गया था, मुझे कुछ पता नहीं
एक चेहरा साथ साथ रहा जो मिला नहीं / बशीर बद्र
एक चेहरा साथ-साथ रहा जो मिला नहीं
किसको तलाश करते रहे कुछ पता नहीं
शिद्दत की धूप तेज़ हवाओं के बावजूद
मैं शाख़ से गिरा हूँ नज़र से गिरा नहीं
आख़िर ग़ज़ल का ताजमहल भी है मकबरा
हम ज़िन्दगी थे हमको किसी ने जिया नहीं
जिसकी मुखालफ़त हुई मशहूर हो गया
इन पत्थरों से कोई परिंदा गिरा नहीं
तारीकियों में और चमकती है दिल की धूप
सूरज तमाम रात यहाँ डूबता नहीं
किसने जलाई बस्तियाँ बाज़ार क्यों लुटे
मैं चाँद पर गया था मुझे कुछ पता नहीं
न जी भर के देखा न कुछ बात की / बशीर बद्र
न जी भर के देखा न कुछ बात की
बड़ी आरज़ू थी मुलाक़ात की
कई साल से कुछ ख़बर ही नहीं
कहाँ दिन गुज़ारा कहाँ रात की
उजालों की परियाँ नहाने लगीं
नदी गुनगुनाई ख़यालात की
मैं चुप था तो चलती हवा रुक गई
ज़ुबाँ सब समझते हैं जज़्बात की
सितारों को शायद ख़बर ही नहीं
मुसाफ़िर ने जाने कहाँ रात की
मुक़द्दर मेरे चश्म-ए-पुर'अब का
बरसती हुई रात बरसात की
मुझसे बिछड़ के ख़ुश रहते हो / बशीर बद्र
मुझसे बिछड़ के ख़ुश रहते हो
मेरी तरह तुम भी झूठे हो
इक टहनी पर चाँद टिका था
मैं ये समझा तुम बैठे हो
उजले-उजले फूल खिले थे
बिल्कुल जैसे तुम हँसते हो
मुझ को शाम बता देती है
तुम कैसे कपड़े पहने हो
तुम तन्हा दुनिया से लड़ोगे
बच्चों सी बातें करते हो
लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में / बशीर बद्र
लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में
और जाम टूटेंगे इस शराब-ख़ाने में
मौसमों के आने में मौसमों के जाने में
हर धड़कते पत्थर को लोग दिल समझते हैं
उम्र बीत जाती है दिल को दिल बनाने में
फ़ाख़्ता की मजबूरी ये भी कह नहीं सकती
कौन साँप रहता है उसके आशियाने में
दूसरी कोई लड़की ज़िन्दगी में आयेगी
कितनी देर लगती है उसको भूल जाने में
आँखों में रहा दिल में उतर कर नहीं देखा / बशीर बद्र
आँखों में रहा दिल में उतर कर नहीं देखा
किश्ती के मुसाफ़िर ने समन्दर नहीं देखा
बेवक़्त अगर जाऊँगा सब चौंक पड़ेंगे
इक उम्र हुई दिन में कभी घर नहीं देखा
जिस दिन से चला हूँ मिरी मंज़िल पे नज़र है
आँखों ने कभी मील का पत्थर नहीं देखा
ये फूल मुझे कोई विरासत में मिले हैं
तुमने मिरा काँटों भरा बिस्तर नहीं देखा
पत्थर मुझे कहता है मिरा चाहने वाला
मैं मोम हूँ उसने मुझे छूकर नहीं देखा
क़ातिल के तरफ़दार का कहना है कि उसने
मक़तूल की गर्दन पे कभी सर नहीं देखा
हर जनम में उसी की चाहत थे / बशीर बद्र
हर जनम में उसी की चाहत थे
हम किसी और की अमानत थे
उसकी आँखों में झिलमिलाती हुई,
हम ग़ज़ल की कोई अलामत थे
तेरी चादर में तन समेट लिया,
हम कहाँ के दराज़क़ामत थे
जैसे जंगल में आग लग जाये,
हम कभी इतने ख़ूबसूरत थे
पास रहकर भी दूर-दूर रहे,
हम नये दौर की मोहब्बत थे
इस ख़ुशी में मुझे ख़याल आया,
ग़म के दिन कितने ख़ूबसूरत थे
दिन में इन जुगनुओं से क्या लेना,
ये दिये रात की ज़रूरत थे
वो चांदनी का बदन ख़ुशबुओं का साया है / बशीर बद्र
वो चांदनी का बदन ख़ुशबुओं का साया है
बहुत अज़ीज़ हमें है मगर पराया है
उतर भी आओ कभी आसमाँ के ज़ीने से
तुम्हें ख़ुदा ने हमारे लिये बनाया है
महक रही है ज़मीं चांदनी के फूलों से
ख़ुदा किसी की मुहब्बत पे मुस्कुराया है
उसे किसी की मुहब्बत का ऐतबार नहीं
उसे ज़माने ने शायद बहुत सताया है
तमाम उम्र मेरा दम उसके धुएँ से घुटा
वो इक चराग़ था मैंने उसे बुझाया है
यूँ ही बेसबब न फिरा करो / बशीर बद्र
यूँ ही बे-सबब न फिरा करो, कोई शाम घर में भी रहा करो
वो ग़ज़ल की सच्ची किताब है, उसे चुपके-चुपके पढ़ा करो
कोई हाथ भी न मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से
ये नये मिज़ाज का शहर है, ज़रा फ़ासले से मिला करो
अभी राह में कई मोड़ हैं, कोई आयेगा कोई जायेगा
तुम्हें जिसने दिल से भुला दिया, उसे भूलने की दुआ करो
मुझे इश्तहार-सी लगती हैं, ये मोहब्बतों की कहानियाँ
जो कहा नहीं वो सुना करो, जो सुना नहीं वो कहा करो
कभी हुस्न-ए-पर्दानशीं भी हो ज़रा आशिक़ाना लिबास में
जो मैं बन-सँवर के कहीं चलूँ, मेरे साथ तुम भी चला करो
ये ख़िज़ाँ की ज़र्द-सी शाम में, जो उदास पेड़ के पास है
ये तुम्हारे घर की बहार है, इसे आँसुओं से हरा करो
नहीं बे-हिजाब वो चाँद-सा कि नज़र का कोई असर नहीं
उसे इतनी गर्मी-ए-शौक़ से बड़ी देर तक न तका करो
होंठों पे मोहब्बत के फ़साने नहीं आते / बशीर बद्र
होंठों पे मुहब्बत के फ़साने नहीं आते
साहिल पे समुंदर के ख़ज़ाने नहीं आते
पलकें भी चमक उठती हैं सोते में हमारी
आँखों को अभी ख़्वाब छुपाने नहीं आते
दिल उजड़ी हुई इक सराय की तरह है
अब लोग यहाँ रात बिताने नहीं आते
उड़ने दो परिंदों को अभी शोख़ हवा में
फिर लौट के बचपन के ज़माने नहीं आते
इस शहर के बादल तेरी ज़ुल्फ़ों की तरह हैं
ये आग लगाते हैं बुझाने नहीं आते
क्या सोचकर आए हो मोहब्बत की गली में
जब नाज़ हसीनों के उठाने नहीं आते
अहबाब[1] भी ग़ैरों की अदा सीख गये हैं
आते हैं मगर दिल को दुखाने नहीं आते
शब्दार्थ:
1 दोस्त, मित्र
कोई ख़ाली हाथ नहीं है / बशीर बद्र
कोई हाथ नहीं ख़ाली है
बाबा ये नगरी कैसी है
कोई किसी का दर्द न जाने
सबको अपनी अपनी पड़ी है
उसका भी कुछ हक़ है आख़िर
उसने मुझसे नफ़रत की है
जैसे सदियाँ बीत चुकी हों
फिर भी आधी रात अभी है
कैसे कटेगी तन्हा तन्हा
इतनी सारी उम्र पड़ी है
हम दोनों की खूब निभेगी
मैं भी दुखी हूँ वो भी दुखी है
अब ग़म से क्या नाता तोड़ें
ज़ालिम बचपन का साथी है
अजब मौसम है मेरे हर कदम पे फूल रखता है / बशीर बद्र
अजब मौसम है, मेरे हर कद़म पे फूल रखता है
मुहब्बत में मुहब्बत का फरिश्ता साथ चलता है
मैं जब सो जाऊँ, इन आँखों पे अपने होंठ रख देना
यक़ीं आ जायेगा, पलकों तले भी दिल धड़कता है
हर आंसू में कोई तसवीर अकसर झिलमिलाती है
तुम्हें आँखें बतायेंगी, दिलों में कौन जलता है
बहुत से काम रुक जाते हैं, मैं बाहर नहीं जाता
तुम्हारी याद का मौसम कहाँ टाले से टलता है
मुहब्बत ग़म की बारिश हैं, ज़मीं सर-सब्ज होती है
बहुत से फूल खिलते हैं, जहां बादल बरसता है
ख़ानदानी रिश्तों में अक़्सर रक़ाबत है बहुत / बशीर बद्र
ख़ानदानी रिश्तों में अक़्सर रक़ाबत है बहुत
घर से निकलो तो ये दुनिया खूबसूरत है बहुत
अपने कालेज में बहुत मग़रूर जो मशहूर है
दिल मिरा कहता है उस लड़की में चाहता है बहुत
उनके चेहरे चाँद-तारों की तरह रोशन हुए
जिन ग़रीबों के यहाँ हुस्न-ए-क़िफ़ायत1 है बहुत
हमसे हो नहीं सकती दुनिया की दुनियादारियाँ
इश्क़ की दीवार के साये में राहत है बहुत
धूप की चादर मिरे सूरज से कहना भेज दे
गुर्वतों का दौर है जाड़ों की शिद्दत2 है बहुत
उन अँधेरों में जहाँ सहमी हुई थी ये ज़मी
रात से तनहा लड़ा, जुगनू में हिम्मत है बहुत
शाम से रास्ता तकता होगा / बशीर बद्र
शाम से रास्ता तकता होगा
चांद खिड़की में अकेला होगा
धूप की शाख़ पे तनहा-तनहा
वह मुहब्बत का परिंदा होगा
नींद में डूबी महकती सांसें
ख़्वाब में फूल-सा चेहरा होगा
मुझको अपनी नज़र ऐ ख़ुदा चाहिए / बशीर बद्र
मुझको अपनी नज़र ऐ ख़ुदा चाहिए
कुछ नहीं और इसके सिवा चाहिए
एक दिन तुझसे मिलने ज़रूर आऊँगा
ज़िन्दगी मुझको तेरा पता चाहिए
इस ज़माने ने लोगों को समझा दिया
तुमको आँखें नहीं, आईना चाहिए
तुमसे मेरी कोई दुश्मनी तो नहीं
सामने से हटो, रास्ता चाहिए
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