हरिओम पंवार की कविताएं / Hariom Panwar Kavita /Poem

हरिओम पंवार / परिचय

हरिओम पंवार वीररस के हिन्दी कवि हैं।  
हरिओम पंवार जी का जन्म उत्तर प्रदेश के बुलन्दशहर जिले में सिकन्दराबाद के निकट बुटना गाँव में हुआ था। वे मेरठ विश्वविद्यालय के मेरठ महाविद्यालय में विधि संकाय में प्रोफेसर हैं। उन्हें भारत के राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति एवं विभिन्न मुख्यमंत्रियों द्वारा सम्मानित किया जा चुका है। उन्हें 'निराला पुरस्कार', 'भारतीय साहित्य संगम पुरस्कार', 'रश्मि पुरस्कार', 'जनजागरण सर्वश्रेष्ठ कवि पुरस्कार' तथा 'आवाज-ए-हिन्दुस्थान' आदि सम्मान प्रदान किये गये हैं।

काला धन / हरिओम पंवार

मै अदना सा कलमकार हूँ घायल मन की आशा का
मुझको कोई ज्ञान नहीं है छंदों की परिभाषा का
जो यथार्थ में दीख रहा है मैं उसको लिख देता हूँ
कोई निर्धन चीख रहा है मैं उसको लिख देता हूँ
मैंने भूखों को रातों में तारे गिनते देखा है
भूखे बच्चों को कचरे में खाना चुनते देखा है
मेरा वंश निराला का है स्वाभिमान से जिन्दा हूँ
निर्धनता और काले धन पर मन ही मन शर्मिंदा हूँ

मैं शबनम चंदन के गीत नहीं गाता
अभिनंदन वंदन के गीत नहीं गाता
दरबारों के सत्य बताता फिरता हूँ
काले धन के तथ्य बताता फिरता हूँ

जहाँ हुकूमत का चाबुक कमजोर दिखाई देता है
काले धन का मौसम आदमखोर दिखाई देता है।

जिनके सर पर राजमुकुट है वो सरताज हमारे हैं,
जो जनता से निर्वाचित हैं नेता आज हमारे हैं,
इसीलिए अब दरबारों से केवल एक निवेदन है,
काले धन का लेखा-जोखा देने का आवेदन है,
क्योंकि भूख गरीबी का एक कारण काला धन भी है,
फुटपाथों पर पली जिंदगी का हारा सा मन भी है,
सिंहासन पर आने वालो अहंकार में मत झूलो,
काले धन के साम्राज्य से आँख मिलाना मत भूलो,
भूख प्यास का आलम देखो जाकर कालाहान्डी में,
माँ बेटी को बेच रही है दिन की एक दिहाड़ी में,
झोपड़ियों की भूख प्यास पर कलमकार तो चीखेगा,
मजदूरों के हक़ की खातिर मुट्ठी ताने दीखेगा,
पूरी संसद काले धन पर मौन साधकर बैठी है,
शुक्र करो के जनता अब तक हाथ बांधकर बैठी है,
झोपड़ियों को सौ-सौ आँसू रोज रुलाना बन्द करो,
सेंसैक्स पर नजरें रखकर देश चलाना बन्द करो,
जिस दिन भूख बगावत वाली सीमा पर आ जाती है
उस दिन भूखी जनता सिंहासन को भी खा जाती है।

मैं झुग्गी झोपड़ पट्टी का चारण हूँ
मैला ढोने वालों का उच्चारण हूँ
आँसू का अग्निगन्धा सम्बोधन हूँ
भूखे मरे किसानों का उद्बोधन हूँ
संवादों के देवालय को सब्जी मंडी बना दिया
संसद में केवल कोलाहल शोर सुनाई देता है।

आज व्यवस्था का चाबुक कमजोर दिखाई देता है।
काले धन का मौसम आदमखोर दिखाई देता है।।

काला धन वो धन है जिसका टैक्स बचाया जाता है
अक्सर ये धन सात समन्दर पार छुपाया जाता है
काले धन की अर्थव्यवस्था पूरा देश रुलाती है
झोपड़ पट्टी के बच्चों को खाली पेट सुलाती है
ये निर्धन के हिस्से की इमदादों को खा जाती है
मनरेगा के, अन्त्योदय के वादों को खा जाती है
बॉलीवुड की आधी दुनिया काले धन पर जिंदा है
चुपके-चुपके चोरी-चोरी दो नंबर का धंधा है
जब व्हाइट पैसे से बनती थी तो फिल्में काली थी
नैतिकता की संपोषक थी शुभ संदेशों वाली थी
काले धन की फ़िल्मी दुनिया इन्द्रधनुष रंगों में है,
पर दुनिया में जगह हमारी नंगों-भिखमंगों में है
काले धन के बल पर गुंडे निर्वाचित हो जाते हैं
भोली-भाली भूखी जनता में चर्चित हो जाते हैं
खनन माफिया काले धन के बल पर ऐंठे-ऐंठे हैं
स्विस बैंकों की संदूकों के तालों में जा बैठे हैं।

राजमहल के दर्पण मैले-मैले हैं
नौकरशाही के पंजे जहरीले हैं
शासकीय सुविधा बँट गयी दलालों में
क्या ये ही मिलना था पैंसठ सालों में
सैंतालिस में हम आजाद हुए थे आधी रजनी को
भोर नहीं आई अँधियारा घोर दिखाई देता है।
काले धन का मौसम आदमखोर दिखाई देता है।

हम काले धन वालों का धन-धाम नहीं पा सकते हैं
इनकी भूख हिमालय सी है ये खानें खा सकते हैं
इनके काले तारों से तो नीलाम्बर डर सकता है
इनकी भूख मिटाने में तो सागर भी मर सकता है
अपनी माँ भारत माता से नाता तोड़ चुके हैं ये
मीर जाफरों जयचन्दों को पीछे छोड़ चुके हैं ये।

काले धन का साम्राज्य कानून तोड़ते देखा है
प्रशासनिक व्यवस्था के नाखून तोड़ते देखा है
सचिवालय इनकी सेवा में खड़ा दिखाई देता है
हसन अली भी संविधान से बड़ा दिखाई देता है
इनके बाप विदेशी खातों की सूची में बैठे हैं
ये भारत में गद्दाफी के मार्कोस के बेटे हैं
गॉड पोर्टिकल खोजा है
फ्रॉड पोर्टिकल खोजो
जो काले धन के मालिक हैं उनका आज और कल खोजो

जो काले धन के मालिक हैं नाम बताओ डर क्या है
उनको उनके कर्मों का अंजाम बताओ डर क्या है
उनके नाम छिपाना तो संवैधानिक गद्दारी है
संविधान की रक्षा करना सबकी जिम्मेदारी है
दुनिया भर के आगे हाथ पसारोगे
लेकिन काले धन की जंग नकारोगे
झोली लेकर और घूमना बंद करो
अमरीका के चरण चूमना बन्द करो
भारत को कर्जा मिलता है भारत के काले धन से

पश्चिम की दादागीरी का दौर दिखाई देता है।
काले धन का मौसम आदमखोर दिखाई देता है।।

दोनों सत्ता और विपक्षी चुप्पी साधे बैठे हैं
आँखों पर गंधारी जैसी पट्टी बांधे बैठे हैं
इसीलिए अब चौराहों पर सब परदे खोलूँगा मैं
चाहे सूली पर टंग जाऊँ मन का सच बोलूँगा मैं
हो ना हो ये काले धन के खातेदार तुम्हारे हैं
या तो कोष तुम्हारा है या रिश्तेदार तुम्हारे हैं

कलम सत्य की धर्मपीठ है शिवम् सुन्दरम् गाती है
राजा भी अपराधी हो तो सीना ठोक बताती है
इसीलिए दिल्ली की चुप्पी आपराधिक ख़ामोशी है
वित्त मंत्रालय की कुर्सी कालेधन की दोषी है
मंत्रिमण्डल गुरु द्रोण सा पुत्र मोह का दोषी है
जो काले धन का मालिक है देश द्रोह का दोषी है

एफ डी आई लाने की जो कोशिश करती है दिल्ली
भारत को गिरवी रखने की कोशिश करती है दिल्ली
उससे आधी कोशिश अपना धन लाने में कर लेते
भूख गरीबी से लड़ लेते खूब खजाने भर लेते
काला धन वापस आता तो खुशहाली आ सकती थी
धन के सूखे मरुस्थलों में हरियाली आ सकती थी

लाख करोड़ों अपना दुनिया भर में है
लाख करोड़ों काला धन इस घर में है
इससे आधा भी जिस दिन पा जायेंगे
हम दुनिया की महाशक्ति बन जायेंगे
काले धन वाले बैठे हैं सोने के सिंहासन पर
भूखा बचपन उनके चारों ओर दिखाई देता है।
काले धन का मौसम आदमखोर दिखाई देता है।।

काले धन पर चैनल भी आवाज उठाते नहीं मिले,
कोई स्टिंग ब्लैक मनी का राज दिखाते नहीं मिले
काश! खोजते वो नम्बर जो ब्लैक मनी तालों के हैं,
ऐसा लगता है चैनल भी काले धन वालों के हैं

काले धन पर सत्ता और विपक्षी दोनों गले मिलो
भूखी मानवता की खातिर एक मुक्कमल निर्णय लो
संसद में बस इतना कर दो छोडो सभी बहानों को
राष्ट्र संपदा घोषित कर दो सारे गुप्त खजानों को
काला धन घर में भी है उसकी रफ़्तार मंद कर दो
हज़ार पाँच सौ के नोटों का फ़ौरन चलन बंद कर दो
नकद रूपये में क्रय विक्रय की परम्परा को बंद करो
बिना चेक के लेन देन की परम्परा को बंद करो
किसके लॉकर में क्या है डिक्लेरेसन करवाओ
कितने सोने का मालिक है एफिडेविट भरवाओ
फिर बैंको के एक एक लॉकर को खुलवाकर देखो
किसने कितना सच बोला है सब कुछ तुलवाकर देखो
केवल चौबीस घंटे में कालाधन बाहर आएगा
केवल ये कानून वतन से भ्रष्टाचार मिटवायेगा

जिस दिन भारत की संसद ऐसा कानून बनाएगी।
लोकपाल की कोई जरूरत शेष नहीं रह जायेगी।।

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घाटी के दिल की धड़कन / हरिओम पंवार

घाटी के दिल की धड़कन
काश्मीर जो खुद सूरज के बेटे की रजधानी था
डमरू वाले शिव शंकर की जो घाटी कल्याणी था
काश्मीर जो इस धरती का स्वर्ग बताया जाता था
जिस मिट्टी को दुनिया भर में अर्ध्य चढ़ाया जाता था
काश्मीर जो भारतमाता की आँखों का तारा था
काश्मीर जो लालबहादुर को प्राणों से प्यारा था
काश्मीर वो डूब गया है अंधी-गहरी खाई में
फूलों की खुशबू रोती है मरघट की तन्हाई में

ये अग्नीगंधा मौसम की बेला है
गंधों के घर बंदूकों का मेला है
मैं भारत की जनता का संबोधन हूँ
आँसू के अधिकारों का उदबोधन हूँ
मैं अभिधा की परम्परा का चारण हूँ
आजादी की पीड़ा का उच्चारण हूँ

इसीलिए दरबारों को दर्पण दिखलाने निकला हूँ |
मैं घायल घाटी के दिल की धड़कन गाने निकला हूँ ||

बस नारों में गाते रहियेगा कश्मीर हमारा है
छू कर तो देखो हिम छोटी के नीचे अंगारा है
दिल्ली अपना चेहरा देखे धूल हटाकर दर्पण की
दरबारों की तस्वीरें भी हैं बेशर्म समर्पण की

काश्मीर है जहाँ तमंचे हैं केसर की क्यारी में
काश्मीर है जहाँ रुदन है बच्चों की किलकारी में
काश्मीर है जहाँ तिरंगे झण्डे फाड़े जाते हैं
सैंतालिस के बंटवारे के घाव उघाड़े जाते हैं
काश्मीर है जहाँ हौसलों के दिल तोड़े जाते हैं
खुदगर्जी में जेलों से हत्यारे छोड़े जाते हैं

अपहरणों की रोज कहानी होती है
धरती मैया पानी-पानी होती है
झेलम की लहरें भी आँसू लगती हैं
गजलों की बहरें भी आँसू लगती हैं

मैं आँखों के पानी को अंगार बनाने निकला हूँ |
मैं घायल घाटी के दिल की धड़कन गाने निकला हूँ ||

काश्मीर है जहाँ गर्द में चन्दा-सूरज- तारें हैं
झरनों का पानी रक्तिम है झीलों में अंगारे हैं
काश्मीर है जहाँ फिजाएँ घायल दिखती रहती हैं
जहाँ राशिफल घाटी का संगीने लिखती रहती हैं
काश्मीर है जहाँ विदेशी समीकरण गहराते हैं
गैरों के झण्डे भारत की धरती पर लहरातें हैं

काश्मीर है जहाँ देश के दिल की धड़कन रोती है
संविधान की जहाँ तीन सौ सत्तर अड़चन होती है
काश्मीर है जहाँ दरिंदों की मनमानी चलती है
घर-घर में ए. के. छप्पन की राम कहानी चलती है
काश्मीर है जहाँ हमारा राष्ट्रगान शर्मिंदा है
भारत माँ को गाली देकर भी खलनायक जिन्दा है
काश्मीर है जहाँ देश का शीश झुकाया जाता है
मस्जिद में गद्दारों को खाना भिजवाया जाता है

गूंगा-बहरापन ओढ़े सिंहासन है
लूले - लंगड़े संकल्पों का शासन है
फूलों का आँगन लाशों की मंडी है
अनुशासन का पूरा दौर शिखंडी है

मै इस कोढ़ी कायरता की लाश उठाने निकला हूँ |
मैं घायल घाटी के दिल की धड़कन गाने निकला हूँ ||

हम दो आँसू नहीं गिरा पाते अनहोनी घटना पर
पल दो पल चर्चा होती है बहुत बड़ी दुर्घटना पर
राजमहल को शर्म नहीं है घायल होती थाती पर
भारत मुर्दाबाद लिखा है श्रीनगर की छाती पर
मन करता है फूल चढ़ा दूं लोकतंत्र की अर्थी पर
भारत के बेटे निर्वासित हैं अपनी ही धरती पर

वे घाटी से खेल रहे हैं गैरों के बलबूते पर
जिनकी नाक टिकी रहती है पाकिस्तानी जूतों पर
काश्मीर को बँटवारे का धंधा बना रहे हैं वो
जुगनू को बैसाखी देकर चन्दा बना रहे हैं वो
फिर भी खून-सने हाथों को न्योता है दरबारों का
जैसे सूरज की किरणों पर कर्जा हो अँधियारों का

कुर्सी भूखी है नोटों के थैलों की
कुलवंती दासी हो गई रखैलों की
घाटी आँगन हो गई ख़ूनी खेलों की
आज जरुरत है सरदार पटेलों की

मैं घाटी के आँसू का संत्रास मिटाने निकला हूँ |
मैं घायल घाटी के दिल की धड़कन गाने निकला हूँ ||

जब चौराहों पर हत्यारे महिमा-मंडित होते हों
भारत माँ की मर्यादा के मंदिर खंडित होते हों
जब क्रश भारत के नारे हों गुलमर्गा की गलियों में
शिमला-समझौता जलता हो बंदूकों की नालियों में

अब केवल आवश्यकता है हिम्मत की खुद्दारी की
दिल्ली केवल दो दिन की मोहलत दे दे तैय्यारी की
सेना को आदेश थमा दो घाटी ग़ैर नहीं होगी
जहाँ तिरंगा नहीं मिलेगा उनकी खैर नहीं होगी

जिनको भारत की धरती ना भाती हो
भारत के झंडों से बदबू आती हो
जिन लोगों ने माँ का आँचल फाड़ा हो
दूध भरे सीने में चाकू गाड़ा हो

मैं उनको चौराहों पर फाँसी चढ़वाने निकला हूँ |
मैं घायल घाटी के दिल की धड़कन गाने निकला हूँ ||

अमरनाथ को गाली दी है भीख मिले हथियारों ने
चाँद-सितारे टांक लिये हैं खून लिपि दीवारों ने
इसीलियें नाकाम रही हैं कोशिश सभी उजालों की
क्योंकि ये सब कठपुतली हैं रावलपिंडी वालों की
अंतिम एक चुनौती दे दो सीमा पर पड़ोसी को
गीदड़ कायरता ना समझे सिंहो की ख़ामोशी को

हमको अपने खट्टे-मीठे बोल बदलना आता है
हमको अब भी दुनिया का भूगोल बदलना आता है
दुनिया के सरपंच हमारे थानेदार नहीं लगते
भारत की प्रभुसत्ता के वो ठेकेदार नहीं लगते
तीर अगर हम तनी कमानों वाले अपने छोड़ेंगे
जैसे ढाका तोड़ दिया लौहार-कराची तोड़ेंगे

आँख मिलाओ दुनिया के दादाओं से
क्या डरना अमरीका के आकाओं से
अपने भारत के बाजू बलवान करो
पाँच नहीं सौ एटम बम निर्माण करो

मै भारत को दुनिया का सिरमौर बनाने निकला हूँ |
मैं घायल घाटी के दिल की धड़कन निकला हूँ ||


मै मरते लोकतन्त्र का बयान हूँ / हरिओम पंवार

मेरा गीत चाँद है ना चाँदनी
न किसी के प्यार की है रागिनी
हंसी भी नही है माफ कीजिये
खुशी भी नही है माफ कीजिये
शब्द - चित्र हूँ मैं वर्तमान का
आइना हूँ चोट के निशान का
मै धधकते आज की जुबान हूँ
मरते लोकतन्त्र का बयान हूँ

कोइ न डराए हमे कुर्सी के गुमान से
और कोइ खेले नही कलम के स्वाभिमान से
हम पसीने की कसौटियों के भोजपत्र हैं
आंसू - वेदना के शिला- लेखों के चरित्र हैं
हम गरीबों के घरों के आँसुओं की आग हैं
आन्धियों के गाँव मे जले हुए चिराग हैं

किसी राजा या रानी के डमरु नही हैं हम
दरबारों की नर्तकी के घुन्घरू नही हैं हम
सत्ताधीशों की तुला के बट्टे भी नही हैं हम
कोठों की तवायफों के दुपट्टे भी नही हैं हम
अग्निवंश की परम्परा की हम मशाल हैं
हम श्रमिक के हाथ मे उठी हुई कुदाल हैं
ये तुम्हारी कुर्सियाँ टिकाऊ नही हैं कभी
औ हमारी लेखनी बिकाऊ नही है कभी
राजनीति मे बडे अचम्भे हैं जी क्या करें
हत्यारों के हाथ बडे लम्बे हैं जी क्या करें
आज ऐरे गैरे- भी महान बने बैठे हैं
जाने- माने गुंडे संविधान बने बैठे हैं

आज ऐसे - ऐसे लोग कुर्सी पर तने मिले
जिनके पूरे - पूरे हाथ खून मे सने मिले
डाकु और वर्दियों की लाठी एक जैसी है
संसद और चम्बल की घाटी एक जैसी है
दिल्ली कैद हो गई है आज उनकी जेब मे
जिनसे ज्यादा खुद्दारी है कोठे की पाजेब मे

दरबारों के हाल- चाल न पूछो घिनौने हैं
गद्दियों के नीचे बेइमानी के बिछौने हैं
हम हमारा लोकतन्त्र कहते हैं अनूठा है
दल- बदल विरोधी कानूनो को ये अंगूठा है
कभी पन्जा , कभी फूल, कभी चक्कर धारी हैं
कभी वामपन्थी कभी हाथी की सवारी हैं

आज सामने खडे हैं कल मिलेंगे बाजू मे
रात मे तुलेंगे सूटकेशों की तराजू मे
आत्मायें दल बदलने को ऐसे मचलती हैं
ज्यों वेश्यांये बिस्तरों की चादरें बदलती हैं
उनकी आरती उतारो वे बडे महान हैं
जिनकी दिल्ली मे दलाली की बडी दुकान है

ये वो घडियाल हैं जो सिन्धु मे भी सूखें हैं
सारा देश खा चुके हैं और अभी भूखे हैं
आसमा के तारे आप टूटते देखा करो
देश का नसीब है ये फूटते देखा करो
बोलना छोडो खामोशी का समय है दोस्तो
डाकुओं की ताजपोशी का समय है दोस्तो


आजादी के टूटे-फूटे सपने लेकर बैठा हूँ / हरिओम पंवार

मन तो मेरा भी करता है झूमूँ , नाचूँ, गाऊँ मैं
आजादी की स्वर्ण-जयंती वाले गीत सुनाऊँ मैं
लेकिन सरगम वाला वातावरण कहाँ से लाऊँ मैं
मेघ-मल्हारों वाला अन्तयकरण कहाँ से लाऊँ मैं
मैं दामन में दर्द तुम्हारे, अपने लेकर बैठा हूँ
आजादी के टूटे-फूटे सपने लेकर बैठा हूँ

घाव जिन्होंने भारत माता को गहरे दे रक्खे हैं
उन लोगों को जैड सुरक्षा के पहरे दे रक्खे हैं
जो भारत को बरबादी की हद तक लाने वाले हैं
वे ही स्वर्ण-जयंती का पैगाम सुनाने वाले हैं

आज़ादी लाने वालों का तिरस्कार तड़पाता है
बलिदानी-गाथा पर थूका, बार-बार तड़पाता है
क्रांतिकारियों की बलिवेदी जिससे गौरव पाती है
आज़ादी में उस शेखर को भी गाली दी जाती है
राजमहल के अन्दर ऐरे- गैरे तनकर बैठे हैं
बुद्धिमान सब गाँधी जी के बन्दर बनकर बैठे हैं

मै दिनकर की परम्परा का चारण हूँ
भूषण की शैली का नया उदहारण हूँ
इसीलिए मैं अभिनंदन के गीत नहीं गा सकता हूँ |
मैं पीड़ा की चीखों में संगीत नहीं ला सकता हूँ | |

इससे बढ़कर और शर्म की बात नहीं हो सकती थी
आजादी के परवानों पर घात नहीं हो सकती थी
कोई बलिदानी शेखर को आतंकी कह जाता है
पत्थर पर से नाम हटाकर कुर्सी पर रह जाता है
गाली की भी कोई सीमा है कोई मर्यादा है
ये घटना तो देश-द्रोह की परिभाषा से ज्यादा है

सारे वतन-पुरोधा चुप हैं कोई कहीं नहीं बोला
लेकिन कोई ये ना समझे कोई खून नहीं खौला
मेरी आँखों में पानी है सीने में चिंगारी है
राजनीति ने कुर्बानी के दिल पर ठोकर मारी है
सुनकर बलिदानी बेटों का धीरज डोल गया होगा
मंगल पांडे फिर शोणित की भाषा बोल गया होगा

सुनकर हिंद - महासागर की लहरें तड़प गई होंगी
शायद बिस्मिल की गजलों की बहरें तड़प गई होंगी
नीलगगन में कोई पुच्छल तारा टूट गया होगा
अशफाकउल्ला की आँखों में लावा फूट गया होगा
मातृभूमि पर मिटने वाला टोला भी रोया होगा
इन्कलाब का गीत बसंती चोला भी रोया होगा

चुपके-चुपके रोया होगा संगम-तीरथ का पानी
आँसू-आँसू रोयी होगी धरती की चूनर धानी
एक समंदर रोयी होगी भगतसिंह की कुर्बानी
क्या ये ही सुनने की खातिर फाँसी झूले सेनानी
जहाँ मरे आजाद पार्क के पत्ते खड़क गये होंगे
कहीं स्वर्ग में शेखर जी के बाजू फड़क गये होंगे
शायद पल दो पल को उनकी निद्रा भाग गयी होगी
फिर पिस्तौल उठा लेने की इच्छा जाग गयी होगी

केवल सिंहासन का भाट नहीं हूँ मैं
विरुदावलियाँ वाली हाट नहीं हूँ मैं
मैं सूरज का बेटा तम के गीत नहीं गा सकता हूँ |
मैं पीड़ा की चीखों में संगीत नहीं ला सकता हूँ | |

शेखर महायज्ञ का नायक गौरव भारत भू का है
जिसका भारत की जनता से रिश्ता आज लहू का है
जिसके जीवन के दर्शन ने हिम्मत को परिभाषा दी
जिसने पिस्टल की गोली से इन्कलाब को भाषा दी
जिसकी यशगाथा भारत के घर-घर में नभचुम्बी है
जिसकी बेहद अल्प आयु भी कई युगों से लम्बी है

जिसके कारण त्याग अलौकिक माता के आँगन में था
जो इकलौता बेटा होकर आजादी के रण में था
जिसको ख़ूनी मेहंदी से भी देह रचना आता था
आजादी का योद्धा केवल चना-चबेना खाता था
अब तो नेता सड़कें, पर्वत, शहरों को खा जाते हैं
पुल के शिलान्यास के बदले नहरों को खा जाते हैं

जब तक भारत की नदियों में कल-कल बहता पानी है
क्रांति ज्वाल के इतिहासों में शेखर अमर कहानी है
आजादी के कारण जो गोरों से बहुत लड़ी है जी
शेखर की पिस्तौल किसी तीरथ से बहुत बड़ी है जी
स्वर्ण जयंती वाला जो ये मंदिर खड़ा हुआ होगा
शेखर इसकी बुनियादों के नीचे गड़ा हुआ होगा

मैं साहित्य नहीं चोटों का चित्रण हूँ
आजादी के अवमूल्यन का वर्णन हूँ
मैं दर्पण हूँ दागी चेहरों को कैसे भा सकता हूँ
मैं पीड़ा की चीखों में संगीत नहीं ला सकता हूँ

जो भारत-माता की जय के नारे गाने वाले हैं
राष्ट्रवाद की गरिमा, गौरव-ज्ञान सिखाने वाले हैं
जो नैतिकता के अवमूल्यन का ग़म करते रहते हैं
देश-धर्म की रक्षा करने का दम भरते रहते हैं
जो छोटी-छोटी बातों पर संसद में अड़ जाते हैं
और रामजी के मंदिर पर सड़कों पर लड़ जाते हैं

स्वर्ण-जयंती रथ लेकर जो साठ दिनों तक घूमे थे
आजादी की यादों के पत्थर पूजे थे, चूमे थे
इस घटना पर चुप बैठे थे सब के मुहँ पर ताले थे
तब गठबंधन तोड़ा होता जो वे हिम्मत वाले थे
सच्चाई के संकल्पों की कलम सदा ही बोलेगी
समय-तुला तो वर्तमान के अपराधों को तोलेगी

वरना तुम साहस करके दो टूक डांट भी सकते थे
जो शहीदों पर थूक गई वो जीभ काट भी सकते थे
जलियांवाले बाग़ में जो निर्दोषों का हत्यारा था
ऊधमसिंह ने उस डायर को लन्दन जाकर मारा था
जो अतीत को तिरस्कार के चांटे देती आयी है
वर्तमान को जातिवाद के काँटे देती आयी है

जो भारत में पेरियार को पैगम्बर दर्शाती है
वातावरण विषैला करके मन ही मन हर्षाती है
जिसने चित्रकूट नगरी का नाम बदल कर डाल दिया
तुलसी की रामायण का सम्मान कुचल कर डाल दिया
जो कल तिलक, गोखले को गद्दार बताने वाली है
खुद को ही आजादी का हक़दार बताने वाली है

उससे गठबंधन जारी है ये कैसी लाचारी है
शायद कुर्सी और शहीदों में अब कुर्सी प्यारी है
जो सीने पर गोली खाने को आगे बढ़ जाते थे
भारत माता की जय कहकर फाँसी पर चढ़ जाते थे
जिन बेटों ने धरती माता पर कुर्बानी दे डाली
आजादी के हवन-कुंड के लिये जवानी दे डाली

दूर गगन के तारे उनके नाम दिखाई देते हैं
उनके स्मारक भी चारों धाम दिखाई देते हैं
वे देवों की लोकसभा के अंग बने बैठे होंगे
वे सतरंगे इंद्रधनुष के रंग बने बैठे होंगे
उन बेटों की याद भुलाने की नादानी करते हो
इंद्रधनुष के रंग चुराने की नादानी करते हो

जिनके कारण ये भारत आजाद दिखाई देता है
अमर तिरंगा उन बेटों की याद दिखाई देता है
उनका नाम जुबाँ पर लेकर पलकों को झपका लेना
उनकी यादों के पत्थर पर दो आँसू टपका देना

जो धरती में मस्तक बोकर चले गये
दाग़ गुलामी वाला धोकर चले गये
मैं उनकी पूजा की खातिर जीवन भर गा सकता हूँ |
मैं पीड़ा की चीखों में संगीत नहीं ला सकता हूँ | |


अयोध्या की आग पर / हरिओम पंवार

अयोध्या की आग पर

चर्चा है अख़बारों में
टी.वी. में बाजारों में
डोली, दुल्हन,कहारों में
सूरज,चंदा,तारों में
आँगन, द्वार, दिवारों में
घाटी और पठारों में
लहरों और किनारों में
भाषण-कविता-नारों में
गाँव-गली-गलियारों में
दिल्ली के दरबारों में

धीरे-धीरे भोली जनता है बलिहारी मजहब की
ऐसा ना हो देश जला दे ये चिंगारी मजहब की

मैं होता हूँ बेटा एक किसानी का
झोंपड़ियों में पाला दादी-नानी का
मेरी ताकत केवल मेरी जुबान है
मेरी कविता घायल हिंदुस्तान है

मुझको मंदिर-मस्जिद बहुत डराते हैं
ईद-दिवाली भी डर-डर कर आते हैं
पर मेरे कर में है प्याला हाला का
मैं वंशज हूँ दिनकर और निराला का

मैं बोलूँगा चाकू और त्रिशूलों पर
बोलूँगा मंदिर-मस्जिद की भूलों पर
मंदिर-मस्जिद में झगडा हो अच्छा है
जितना है उससे तगड़ा हो अच्छा है

ताकि भोली जनता इनको जान ले
धर्म के ठेकेदारों को पहचान ले
कहना है दिनमानों का
बड़े-बड़े इंसानों का
मजहब के फरमानों का
धर्मों के अरमानों का
स्वयं सवारों को खाती है ग़लत सवारी मजहब की |
ऐसा ना हो देश जला दे ये चिंगारी मजहब की ||

बाबर हमलावर था मन में गढ़ लेना
इतिहासों में लिखा है पढ़ लेना
जो तुलना करते हैं बाबर-राम की
उनकी बुद्धि है निश्चित किसी गुलाम की

राम हमारे गौरव के प्रतिमान हैं
राम हमारे भारत की पहचान हैं
राम हमारे घट-घट के भगवान् हैं
राम हमारी पूजा हैं अरमान हैं
राम हमारे अंतरमन के प्राण हैं
मंदिर-मस्जिद पूजा के सामान हैं

राम दवा हैं रोग नहीं हैं सुन लेना
राम त्याग हैं भोग नहीं हैं सुन लेना
राम दया हैं क्रोध नहीं हैं जग वालो
राम सत्य हैं शोध नहीं हैं जग वालों
राम हुआ है नाम लोकहितकारी का
रावण से लड़ने वाली खुद्दारी का

दर्पण के आगे आओ
अपने मन को समझाओ
खुद को खुदा नहीं आँको
अपने दामन में झाँको
याद करो इतिहासों को
सैंतालिस की लाशों को

जब भारत को बाँट गई थी वो लाचारी मजहब की |
ऐसा ना हो देश जला दे ये चिंगारी मजहब की ||

आग कहाँ लगती है ये किसको गम है
आँखों में कुर्सी हाथों में परचम है
मर्यादा आ गयी चिता के कंडों पर
कूंचे-कूंचे राम टंगे हैं झंडों पर
संत हुए नीलाम चुनावी हट्टी में
पीर-फ़कीर जले मजहब की भट्टी में

कोई भेद नहीं साधू-पाखण्डी में
नंगे हुए सभी वोटों की मंडी में
अब निर्वाचन निर्भर है हथकंडों पर
है फतवों का भर इमामों-पंडों पर
जो सबको भा जाये अबीर नहीं मिलता
ऐसा कोई संत कबीर नहीं मिलता

जिनके माथे पर मजहब का लेखा है
हमने उनको शहर जलाते देखा है
जब पूजा के घर में दंगा होता है
गीत-गजल छंदों का मौसम रोता है
मीर, निराला, दिनकर, मीरा रोते हैं
ग़ालिब, तुलसी, जिगर, कबीरा रोते हैं

भारत माँ के दिल में छाले पड़ते हैं
लिखते-लिखते कागज काले पड़ते हैं
राम नहीं है नारा, बस विश्वाश है
भौतिकता की नहीं, दिलों की प्यास है
राम नहीं मोहताज किसी के झंडों का
सन्यासी, साधू, संतों या पंडों का

राम नहीं मिलते ईंटों में गारा में
राम मिलें निर्धन की आँसू-धारा में
राम मिलें हैं वचन निभाती आयु को
राम मिले हैं घायल पड़े जटायु को
राम मिलेंगे अंगद वाले पाँव में
राम मिले हैं पंचवटी की छाँव में

राम मिलेंगे मर्यादा से जीने में
राम मिलेंगे बजरंगी के सीने में
राम मिले हैं वचनबद्ध वनवासों में
राम मिले हैं केवट के विश्वासों में
राम मिले अनुसुइया की मानवता को
राम मिले सीता जैसी पावनता को

राम मिले ममता की माँ कौशल्या को
राम मिले हैं पत्थर बनी आहिल्या को
राम नहीं मिलते मंदिर के फेरों में
राम मिले शबरी के झूठे बेरों में

मै भी इक सौंगंध राम की खाता हूँ
मै भी गंगाजल की कसम उठाता हूँ
मेरी भारत माँ मुझको वरदान है
मेरी पूजा है मेरा अरमान है
मेरा पूरा भारत धर्म-स्थान है
मेरा राम तो मेरा हिंदुस्तान है


इन्कलाब के गीत सुनाते जायेंगे / हरिओम पंवार

इन्कलाब के गीत सुनाते जायेंगे

कोई रूप नहीं बदलेगा सत्ता के सिंहासन का
कोई अर्थ नहीं निकलेगा बार-बार निर्वाचन का
एक बड़ा ख़ूनी परिवर्तन होना बहुत जरुरी है
अब तो भूखे पेटों का बागी होना मजबूरी है

जागो कलम पुरोधा जागो मौसम का मजमून लिखो
चम्बल की बागी बंदूकों को ही अब कानून लिखो
हर मजहब के लम्बे-लम्बे खून सने नाखून लिखो
गलियाँ- गलियाँ बस्ती-बस्ती धुआं-गोलियां खून लिखो

हम वो कलम नहीं हैं जो बिक जाती हों दरबारों में
हम शब्दों की दीप- शिखा हैं अंधियारे चौबारों में
हम वाणी के राजदूत हैं सच पर मरने वाले हैं
डाकू को डाकू कहने की हिम्मत करने वाले हैं

जब तक भोली जनता के अधरों पर डर के ताले हैं
तब तक बनकर पांचजन्य हम हर दिन अलख जगायेंगे
बागी हैं हम इन्कलाब के गीत सुनाते जायेंगे

अगवानी हर परिवर्तन की भेंट चढ़ी बदनामी की
हमने बूढ़े जे.पी. के आँसू की भी नीलामी की
परिवर्तन की पतवारों से केवल एक निवेदन था
भूखी मानवता को रोटी देने का आवेदन था

अब भी रोज कहर के बादल फटते हैं झोपड़ियों पर
कोई संसद बहस नहीं करती भूखी अंतड़ियों पर
अब भी महलों के पहरे हैं पगडण्डी की साँसों पर
शोकसभाएं कहाँ हुई हैं मजदूरों की लाशों पर

निर्धनता का खेल देखिये कालाहांडी में जाकर
बेच रही है माँ बेटी को भूख प्यास से अकुलाकर
यहाँ बचपना और जवानी गम में रोज बुढ़ाती हैं
माँ , बेटे की लाशों पर आँचल का कफ़न उढाती है

जब तक बंद तिजोरी में मेहनतकश की आजादी है
तब तक हम हर सिंहासन को अपराधी बतलायेंगे
बाग़ी हैं हम इन्कलाब के गीत सुनाते जायेंगे

गाँधी के सपनों का सारा भारत टूटे लेता है
यहाँ चमन का माली खुद ही कलियाँ लुटे लेता है
निंदिया के आँचल में जब ये सारा जग सोता होगा
राजघाट में चुपके -चुपके तब गाँधी रोता होगा

हर चौराहे से आवाजें आती हैं संत्रासों की
पूरा देश नजर आता है मंडी ताज़ा लाशों की
सिंहासन को चला रहे हैं नैतिकता के नारों से
मदिरा की बदबू आती है संसद की दीवारों से

जन-गण-मन ये पूछ रहा है दिल्ली की दीवारों से
कब तक हम गोली खायें सरकारी पहरेदारों से
सिंहासन खुद ही शामिल है अब तो गुंडागर्दी में
संविधान के हत्यारे हैं अब सरकारी वर्दी में

जब तक लाशें पड़ी रहेंगी फुटपाथों की सर्दी में
तब तक हम अपनी कविता के अंगारे दहकायेंगे
बागी हैं हम इन्कलाब के गीत सुनाते जायेंगे

कोई भी निष्पक्ष नहीं है सब सत्ता के पण्डे हैं
आज पुलिस के हाथों में भी अत्याचारी डंडे हैं
संसद के सीने पर ख़ूनी दाग दिखाई देता है
पूरा भारत जलियांवाला बाग़ दिखाई देता है

इस आलम पर मौन लेखनी दिल को बहुत जलाती है
क्यों कवियों की खुद्दारी भी सत्ता से डर जाती है
उस कवि का मर जाना ही अच्छा है जो खुद्दार नहीं
देश जले कवि कुछ न बोले क्या वो कवि गद्दार नहीं

कलमकार का फर्ज रहा है अंधियारों से लड़ने का
राजभवन के राजमुकुट के आगे तनकर अड़ने का
लेकिन कलम लुटेरों को अब कहती है गाँधीवादी
और डाकुओं को सत्ता ने दी है ऐसी आजादी

राजमुकुट पहने बैठे हैं बर्बरता के अपराधी
हम ऐसे ताजों को अपनी ठोकर से ठुकरायेंगे
बागी हैं हम इन्कलाब के गीत सुनाते जायेंगे

बुद्धिजीवियों को ये भाषा अखबारी लग सकती है
मेरी शैली काव्य-शास्त्र की हत्यारी लग सकती है
पर जब संसद गूंगी शासन बहरा होने लगता है
और कलम की आजादी पर पहरा होने लगता है

तो अंतर आ ही जाता है शब्दों की परिभाषा में
कवि को चिल्लाना पड़ता है अंगारों की भाषा में
जब छालों की पीड़ा गाने की मजबूरी होती है
तो कविता में कला-व्यंजना ग़ैर जरुरी होती है

झोपड़ियों की चीखों का क्या कहीं आचरण होता है
मासूमो के आँसू का क्या कहीं व्याकरण होता है
वे उनके दिल के छालों की पीड़ा और बढ़ाते हैं
जो भूखे पेटों को भाषा का व्याकरण पढ़ाते हैं

जिन शब्दों की अय्याशी को पंडित गीत बताते हैं
हम ऐसे गीतों की भाषा कभी नहीं अपनाएंगे
बागी हैं हम इन्कलाब के गीत सुनाते जायेंगे

जब पूरा जीवन पीड़ा के दामन में ढल जाता है
तो सारा व्याकरण पेट की अगनी में जल जाता है
जिस दिन भूख बगावत वाली सीमा पर आ जाती है
उस दिन भूखी जनता सिंहासन को भी खा जाती है

मेरी पीढ़ी वालो जागो तरुणाई नीलाम न हो
इतिहासों के शिलालेख पर कल यौवन बदनाम न हो
अपने लोहू में नाखून डुबोने को तैयार रहो
अपने सीने पर कातिल लिखवाने को तैयार रहो

हम गाँधी की राहों से हटते हैं तो हट जाने दो
अब दो-चार भ्रष्ट नेता कटते हैं तो कट जाने दो
हम समझौतों की चादर को और नहीं अब ओढेंगे
जो माँ के आँचल को फाड़े हम वो बाजू तोड़ेंगे

अपने घर में कोई भी जयचंद नहीं अब छोड़ेंगे
हम गद्दारों को चुनकर दीवारों में चिन्वायेंगे
बागी हैं हम इन्कलाब के गीत सुनाते जायेंगे


हाँ हुजूर मैं चीख रहा हूँ / हरिओम पंवार

हाँ हुजूर मै चीख रहा हूँ, हाँ हुजूर मै चिल्लाता हूँ
क्योंकि हमेशा मैं भूखी अंतड़ियों कि पीड़ा गाता हूँ

मेरा कोई गीत नहीं है किसी रूपसी के गालों पर
मैंने छंद लिखे हैं केवल नंगे पैरों के छालों पर
मैंने सदा सुनी है सिसकी मौन चांदनी की रातों में
छप्पर को मरते देखा है रिमझिम-रिमझिम बरसातों में
आहों की अभिव्यक्ति रहा हूँ कविता में नारे गाता हूँ
मै सच्चे शब्दों का दर्पण, संसद को भी दिखलाता हूँ
क्योंकि हमेशा मैं भूखी अंतड़ियों कि पीड़ा गाता हूँ।

अवसादों के अभियानों से वातावरण पड़ा है घायल
वे लिखते हैं गजरे, कजरे, शबनम, सरगम, मेंहदी, पायल
वे अभिसार पढ़ाने बैठे हैं पीड़ा के सन्यासी को
मैं कैसे साहित्य समझ लूँ कुछ शब्दों कि अय्याशी को
मै भाषा में बदतमीज हूँ अलंकार को ठुकराता हूँ
और गीत के व्यकारणों के आकर्षण से कतराता हूँ
क्योंकि हमेशा मैं भूखी अंतड़ियों कि पीड़ा गाता हूँ।

दिन ढलते ही जिन्हें लुभाएँ वेशालय औ' मधुशालाएँ
माँ वाणी के अपराधी हैं, चाहे महाकवि कहलायें
अपराधों की अभिलाषाएं मौन चांदनी कि मस्ती में
जैसे कोई फूल बेचता, हो भूखी-नंगी बस्ती में
मैं शब्दों को बजा-बजा कर घुंघुरू नहीं बना पाता हूँ
मै तो पांचजन्य का गर्जन जन-गण-मन तक पहुँचाता हूँ
क्योंकि हमेशा मैं भूखी अंतड़ियों कि पीड़ा गाता हूँ।

जिनके गीतों कि जननी है महबूबा कि हँसी-उदासी
उनको रास नहीं आ सकते ऊधमसिंह औ' रानी झाँसी
मुझसे ज्यादा मत खुलवाओ इन सिद्धों के आवरणों को
इससे तो अच्छा है पढ़ लो तुम गिद्धों के आचरणों को
मैं अपनी कविता के तन पर गजरे नहीं सजा पाता हूँ
अमर शहीदों कि यादों से मैं कविता को महकाता हूँ
क्योंकि हमेशा मैं भूखी अंतड़ियों कि पीड़ा गाता हूँ।


मैनें क्यों गाए हैं नारे / हरिओम पंवार

मैंने जो कुछ भी गाया है तुम उसको नारे बतलाओ
मुझे कोई परवाह नहीं है मुझको नारेबाज बताओ
लेकिन मेरी मजबूरी को तुमने कब समझा है प्यारे |
लो तुमको बतला देता हूँ मैंने क्यूँ गाये हैं नारे ||

जब दामन बेदाग न हो जी
अंगारों में आग न हो जी
घूँट खून के पीना हो जी
जिस्म बेचकर जीना हो जी
मेहनतकश मजदूरों का भी
जब बदनाम पसीना हो जी
जनता सुना रही हो नारे
संसद भुना रही हो नारे
गम का अँगना दर्द बुहारे
भूखा बचपन चाँद निहारे
कोयल गाना भूल रही हो
ममता फाँसी झूल रही हो
मावस के डर से भय खाकर,
पूनम चीख़े और पुकारे
हो जाएँ अधिकार तुम्हारे
रह जाएँ कर्तव्य हमारे
छोड़ - छाड़ जीवन-दर्शन को तब लिखने पड़ते हैं नारे |
इसीलिए गाता हूँ नारे इसीलिए लिखता हूँ नारे ||

निर्वाचन लड़ते हैं नारे
चांटे से जड़ते हैं नारे
सत्ता की दस्तक हैं नारे
कुर्सी का मस्तक हैं नारे
गाँव-गली, शहरों में नारे,
सागर की लहरों में नारे
केसर की क्यारी में नारे
घर की फुलवारी में नारे
सर पर खड़े हुए हैं नारे,
दाएँ अड़े हुए हैं नारे
नारों के नीचे हैं नारे
नारों के पीछे हैं नारे
जब नारों को रोज पचाने
को खाने पड़ते हों नारे
इन नारों से जान बचाने
को लाने पड़ते हों नारे
छोड़ गीत के सम्मोहन को तब लिखने पड़ते हैं नारे |
इसीलिए गाता हूँ नारे इसीलिए लिखता हूँ नारे ||

जब चन्दामामा रोता हो
सूरज अँधियारा बोता हो
जीवन सूली-सा हो जाये,
गाजर-मूली सा हो जाये,
पूरब ज़ार-ज़ार हो जाये
पश्चिम को आरक्षण खाए
उत्तर का अलगावी स्वर हो
दक्षिण में भाषा का ज्वर हो
अपने बेगाने हो जायें
घर में ही काँटे बो जायें,
मानचित्र को काट रहे हों
भारत माँ को बाँट रहे हों
ग़ैर तिरंगा फाड़ रहे हों
अपने झण्डे गाड़ रहे हों,
जब सीने पर ही आ बैठें
भारत माता के हत्यारे
छोड़ - छाड़कर सूर-कबीरा तब लिखने पड़ते हैं नारे |
इसीलिए गाता हूँ नारे इसीलिए लिखता हूँ नारे ||

कलियाँ खिलने से घबरायें
भौंरे आवारा हो जायें
फूल खिले हों पर उदास हों,
पहरे उनके आस-पास हों
पायल सहम-सहम कर नाचे,
पाखण्डी रामायण बाँचे
कूटनीति में सब चलता हो,
मर्यादा का मन जलता हो
उल्लू गुलशन का माली हो
पहरेदारी भी जाली हो
संयम मौन साध बैठा हो
झूठ कुर्सियों पर ऐंठा हो
चापलूस हों दरबारों में,
ख़ुद्दारी हो मझ्धारों में
बलिदानी हों हारे-हारे,
डाकू भी लगते हों प्यारे
छोड़ चरित्रों की रामायण तब लिखने पड़ते हैं नारे |
इसीलिए गाता हूँ नारे इसीलिए लिखता हूँ नारे ||


अमर क्रांतिकारी चंद्रशेखर का परिचय / हरिओम पंवार

महायज्ञ का नायक शेखर, गौरव भारत भू का है
जिसका भारत की जनता से रिश्ता आज लहू का है
जिसके जीवन की शैली ने हिम्मत को परिभाषा दी
जिसके पिस्टल की गोली ने इंकलाब को भाषा दी
जिसने धरा गुलामी वाली क्रांति निकेतन कर डाली
आजादी के हवन कुंड में अग्नि चेतन कर डाली
जिसको खूनी मेंहदी से भी देह रचाना आता था
आजादी का योद्धा केवल नमक चबेना खाता था
अब तो नेता पर्वत सड़कें नहरों को खा जाते हैं
नए जिलों के शिलान्यास में शहरों को खा जाते हैं

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