श्रीकांत वर्मा | Shrikant Verma
कुछ लोकप्रिय कविताएं / रचनाएं
काशी में शव / श्रीकांत वर्मा
तुमने देखी है काशी?
जहाँ, जिस रास्ते
जाता है शव -
उसी रास्ते
आता है शव!
शवों का क्या
शव आएँगे,
शव जाएँगे -
पूछो तो, किसका है यह शव?
रोहिताश्व का?
नहीं, नहीं,
हर शव रोहिताश्व नहीं हो सकता
जो होगा
दूर से पहचाना जाएगा
दूर से नहीं, तो
पास से -
और अगर पास से भी नहीं,
तो वह
रोहिताश्व नहीं हो सकता
और अगर हो भी तो
क्या फर्क पड़ेगा?
मित्रो,
तुमने तो देखी है काशी,
जहाँ, जिस रास्ते
जाता है शव
उसी रास्ते
आता है शव!
तुमने सिर्फ यही तो किया
रास्ता दिया
और पूछा -
किसका है यह शव?
जिस किसी का था,
और किसका नहीं था,
कोई फर्क पड़ा ?
एक और ढंग / श्रीकांत वर्मा
भागकर अकेलेपन से अपने
तुममें मैं गया।
सुविधा के कई वर्ष
तुमने व्यतीत किए।
कैसे?
कुछ स्मरण नहीं।
मैं और तुम! अपनी दिनचर्या के
पृष्ठ पर
अंकित थे
एक संयुक्ताक्षर!
क्या कहूँ! लिपि को नियति
केवल लिपि की नियति
थी -
तुममें से होकर भी,
बसकर भी
संग-संग रहकर भी
बिलकुल असंग हूँ।
सच है तुम्हारे बिना जीवन अपंग है
- लेकिन! क्यों लगता है मुझे
प्रेम
अकेले होने का ही
एक और ढंग है।
एक मुर्दे का बयान / श्रीकांत वर्मा
मैं एक अदृश्य दुनिया में, न जाने क्या कुछ कर रहा हूँ।
मेरे पास कुछ भी नहीं है-
न मेरी कविताएँ हैं, न मेरे पाठक हैं
न मेरा अधिकार है
यहाँ तक कि मेरी सिगरटें भी नहीं हैं।
मैं ग़लत समय की कविताएँ लिखता हुआ
नकली सिगरेट पी रहा हूँ।
मैं एक अदृश्य दुनिया में जी रहा हूँ
और अपने को टटोल कह सकता हूँ
दावे के साथ
मैं एक साथ ही मुर्दा भी हूँ और ऊदबिलाव भी।
मैं एक बासी दुनिया की मिट्टी में
दबा हुआ
अपने को खोद रहा हूँ।
मैं एक बिल्ली की शक्ल में छिपा हुआ चूहा हूँ
औरों को टोहता हुआ
अपनों में डरा बैठा हूँ
मैं अपने को टटोल कह सकता हूँ दावे के साथ
मैं ग़लत समय की कविताएँ लिखता हुआ
एक बासी दुनिया में
मर गया था।
मैं एक कवि था। मैं एक झूठ था।
मैं एक बीमा कम्पनी का एजेन्ट था।
मैं एक सड़ा हुआ प्रेम था
मैं एक मिथ्या कर्त्तव्य था
मौक़ा पड़ने पर नेपोलियन था
मौक़ा पड़ने पर शही द था।
मैं एक ग़लत बीबी का नेपोलियन था।
मैं एक
ग़लत जनता का शहीद था!\
मगध के लोग / श्रीकांत वर्मा
मगध के लोग
मृतकों की हड्डियां चुन रहे हैं
कौन-सी अशोक की हैं?
और चन्द्रगुप्त की?
नहीं, नहीं
ये बिम्बिसार की नहीं हो सकतीं
अजातशत्रु की हैं,
कहते हैं मगध के लोग
और आँसू
बहाते हैं
स्वाभाविक है
जिसने किसी को जीवित देखा हो
वही उसे
मृत देखता है
जिसने जीवित नहीं देखा
मृत क्या देखेगा?
कल की बात है –
मगधवासियों ने
अशोक को देखा था
कलिंग को जाते
कलिंग से आते
चन्द्रगुप्त को तक्षशिला की ओर घोड़ा दौड़ाते
आँसू बहाते
बिम्बिसार को
अजातशत्रु को
भुजा थपथपाते
मगध के लोगों ने
देखा था
और वे भूल नहीं पाये हैं
कि उन्होंने उन्हें
देखा था
जो अब
ढ़ूँढ़ने पर भी
दिखाई नहीं पड़ते
फागुन / श्रीकांत वर्मा
फागुन भी नटुआ है, गायक है, मंदरी है।
अह। इसकी वंशी सुन
सुधियां बौराती हैं।
अपनी दुबली अंगुली से जब यह जादूगर
कहीं तमतमायी
दुपहर को छू देता है,
महुए के फूल कहीं चुपके चू जाते हैं
और किसी झुंझकुर से चिड़िया उड़ जाती है।
अह। इसकी वंशी सुन....।।
जब फगुनी हवा कहीं
मोरों के गुच्छ हिला
ताल तलैया नखा तीर पर टहलती है
ऋतु की सुधियां शायद
टेसू बनकर, वन वन
शाख पर सुलगती हैं।
दिन जब टूटे पीले पत्ते सा कांप कहीं
ओझल हो जाता है
संझा जब उमसायी, किसी
ताल-तीर बांस झुरमुट से झांक मुंह दिखाती है,
सरसों के खेतों में पीली
जब एक किरन
गिर गुम हो जाती है,
मेड़ों पर जब जल्दी-जल्दी
कोई छाया
आकुल दिख पड़ती है,
दूर किसी जंगल से मंदरी यह आता है
धिंग धिंग धा धा धिंग धा
धा धिंग धा धा धिंग धा
मांदल धमकाता है,
हौले हौले घर-आंगन में छा जाता है।
इस सूने जीवन में बांसुरी बजाता है।
अह! आह इसकी वंशी सुन...।
स्वरों का समर्पण / श्रीकांत वर्मा
डबडब अँधेरे में, समय की नदी में
अपने-अपने दिये सिरा दो;
शायद कोई दिया क्षितिज तक जा,
सूरज बन जाए!!
हरसिंगार जैसे यदि चुए कहीं तारे,
अगर कहीं शीश झुका
बैठे हों मेड़ों पर
पंथी पथहारे,
अगर किसी घाटी भटकी हों छायाएँ,
अगर किसी मस्तक पर
जर्जर हों जीवन की
त्रिपथगा ऋचाएँ;
पीड़ा की यात्रा के ओ पूरब-यात्री!
अपनी यह नन्हीं-सी आस्था तिरा दो
शायद यह आस्था किसी प्रिय को
तट तक ले जाए!!
महामहिम / श्रीकांत वर्मा
महामहिम!
चोर दरवाज़े से निकल चलिए !
बाहर
हत्यारे हैं !
बहुक़्म आप
खोल दिए मैनें
जेल के दरवाज़े,
तोड़ दिया था
करोड़ वर्षों का सन्नाटा
महामहिम !
डरिए ! निकल चलिए !
किसी की आँखों में
हया नहीं
ईश्वर का भय नहीं
कोई नहीं कहेगा
"धन्यवाद" !
सब के हाथों में
कानून की किताब है
हाथ हिला पूछते हैं,
किसने लिखी थी
यह कानून की किताब ?
कुछ का व्यवहार बदल गया / श्रीकांत वर्मा
कुछ का व्यवहार बदल गया। कुछ का नहीं
बदला।
जिनसे उम्मीद थी, नहीं बदलेगा
उनका बदल गया।
जिनसे आशंका थी,
नहीं बदला।
जिन्हें कोयला मानता था
हीरों की तरह
चमक उठे।
जिन्हें हीरा मानता था
कोयलों की तरह
काले निकले।
सिर्फ अभी रुख बदला है, आँखे बदली है,
रास्ता बदला है।
अभी देखो
क्या होता है,
क्या क्या नहीं होता।
अभी तुम सड़कों पर घसीटे जाओगे,
अभी तुम घसिआरे पुकारे जाओगे
अभी एक एक करके
सभी खिड़कियाँ बन्द होंगी
और तब भी तुम अपनी
खिड़की खुली
रखोगे,
इस डर से कि
जरा सी भी अपनी
खिड़की बन्द की तो
बाहर से एक पत्थर
एक घृणा का पत्थर
एक हीनता का पत्थर
एक प्रतिद्वन्दिता का पत्थर
एक विस्मय का पत्थर
एक मानवीय पत्थर
एक पैशाचिक पत्थर
एक दैवी पत्थर
तुम्हारी खिड़की के शीशे तोड़ कर जाएगा
और तुम पहले से अधिक विकृत नजर आओगे
पहले से अधिक
बिलखते बिसूरते नजर पड़ोगे
जैसा कि तुम दिखना नहीं चाहते
दिखाई पड़ोगे।
यह कोई पहली बार नहीं है
जब तुम्हें मार पड़ी है
कम से कम तीन तो
आज को मिला कर
हो चुके
मतलब है तीन बार,
मार।
और ऐसी मार कि तीनों बार
बिलबिला गया
निराला की कविता याद आती है
"जब कड़ी मारे पड़ीं,
दिल हिल गया।"
बुखार में कविता / श्रीकांत वर्मा
मेरे जीवन में एक ऐसा वक्त आ गया है
जब खोने को
कुछ भी नहीं है मेरे पास -
दिन, दोस्ती, रवैया,
राजनीति,
गपशप, घास
और स्त्री हालाँकि वह बैठी हुई है
मेरे पास
कई साल से
क्षमाप्रार्थी हूँ मैं काल से
मैं जिसके सामने निहत्था हूँ
निसंग हूँ -
मुझे न किसी ने प्रस्तावित
किया है
न पेश।
मंच पर खड़े होकर
कुछ बेवकूफ चीख रहे हैं
कवि से
आशा करता है
सारा देश।
मूर्खो! देश को खोकर ही
मैंने प्राप्त की थी
यह कविता
जो किसी को भी हो सकती है
जिसके जीवन में
वह वक्त आ गया हो
जब कुछ भी नहीं हो उसके पास
खोने को।
जो न उम्मीद करता हो
न अपने से छल
जो न करता हो प्रश्न
न ढूँढ़ता हो हल।
हल ढूँढ़ने का काम
कवियों ने ऊबकर
सौंप दिया है
गणितज्ञ पर
और उसने
राजनीति पर।
कहाँ है तुम्हारा घर?
अपना देश खोकर कई देश लाँघ
पहाड़ से उतरती हुई
चिड़ियों का झुंड
यह पूछता हुआ ऊपर-ऊपर
गुजर जाता है : कहाँ है तुम्हारा घर?
दफ्तर में, होटल में, समाचार पत्र में,
सिनेमा में,
स्त्री के साथ एक खाट में?
नावें कई यात्रियों को
उतारकर
वेश्याओं की तरह
थकी पड़ी हैं घाट में।
मुझे दुख नहीं मैं किसी का नहीं हुआ।
दुख है कि मैंने सारा समय
हरेक का होने की
कोशिश की।
प्रेम किया।
प्रेम करते हुए
एक स्त्री के कहने पर
भविष्य की खोज की और एक दिन
सब कुछ पा लेने की
सरहद पर
दिखा एक द्वार: एक ड्राइंगरूम।
भविष्य
वर्तमान के लाउंज की तरह
कहीं जाकर खुल
जाता है।
रुको,
कोई आता है
सुनाई पड़ती है
किसी के पैरों की
चाप।
कोई मेरे
जूतों का माप
लेने आ रहा है।
मेरे तलुए घिस गए हैं
और फीतों की चाबुक
हिला-हिला
मैंने आसपास की भीड़ को
खदेड़ दिया है,
भगा दिया है।
औरों के साथ
दगा करती है स्त्री
मेरे साथ मैंने
दगा किया है।
पछतावा नहीं; यह एक कानून था जिसमें से होकर
मुझे आना था।
असल में यह एक
बहाना था
एक दिन अयोध्या से जाने का
मैं अपने कारखाने का
एक मजदूर भी
हो सकता था
मैं अपना अफसोस
ढो सकता था
बाजार में लाने को
बेचैन हो सकता था कविता
सुनाने को
फिर से एक बार इसे और उसे और उसे
पाने को
लेकिन एक बार उड़ जाने के बाद
इच्छाएँ
लौटकर नहीं आतीं
किसी और जगह पर
घोंसले बनाती हैं।
विधवाएँ बुड़बुड़ाती हैं
रँडापे पर
तरस खाती हैं
बुढ़ापे पर
नौजवान स्त्रियाँ
गली में ताक-झाँक करती हैं
चेचक और हैजे से
मरती हैं
बस्तियाँ
कैन्सर से
हस्तियाँ
वकील
रक्तचाप से
कोई नहीं
मरता
अपने पाप से
धुँआ उठ रहा है कई
माह से।
दिन चला जाता है
मारकर छलाँग एक खरगोश -सा।
बंद होनेवाली
दुकानों के दिल में
रह जाता है
कुछ-कुछ अफसोस-
हस्तक्षेप / श्रीकांत वर्मा
कोई छींकता तक नहीं
इस डर से
कि मगध की शांति
भंग न हो जाय,
मगध को बनाए रखना है, तो,
मगध में शांति
रहनी ही चाहिए
मगध है, तो शांति है
कोई चीखता तक नहीं
इस डर से
कि मगध की व्यवस्था में
दखल न पड़ जाय
मगध में व्यवस्था रहनी ही चाहिए
मगध में न रही
तो कहाँ रहेगी?
क्या कहेंगे लोग?
लोगों का क्या?
लोग तो यह भी कहते हैं
मगध अब कहने को मगध है,
रहने को नहीं
कोई टोकता तक नहीं
इस डर से
कि मगध में
टोकने का रिवाज न बन जाय
एक बार शुरू होने पर
कहीं नहीं रुकता हस्तक्षेप -
वैसे तो मगधनिवासियो
कितना भी कतराओ
तुम बच नहीं सकते हस्तक्षेप से -
जब कोई नहीं करता
तब नगर के बीच से गुजरता हुआ
मुर्दा
यह प्रश्न कर हस्तक्षेप करता है -
मनुष्य क्यों मरता है?
ट्राय का घोड़ा / श्रीकांत वर्मा
पहला बड़ी तेज़ी से गुज़रता है,
दूसरा बगटूट भागता है--
उसे दम मारने की
फुर्सत नहीं,
तीसरा बिजली की तरह गुज़र जाता है,
चौथा
सुपरसौनिक स्पीड से !
कहाँ जा रहे हैं, वे ?
क्यों भाग रहे हैं ?
क्या कोई उनका पीछा कर रहा है ?
क्या उनकी ट्रेन छूट रही है ?
मैं अपने बगल के व्यक्ति से पूछता हूँ !
'कहीं नहीं जा रहे हैं, वे',
मेरे पास खड़ा व्यक्ति कहता है,
'वे भाग भी नहीं रहे हैं,
कोई उनका पीछा नहीं कर रहा है
उनकी ट्रेन बहुत पहले छूट चुकी है।'
'फिर वे क्यों इस तरह गुज़र रहे हैं ?'
'क्योंकि उन्हे इसी तरह गुज़रना है !'
'कौन हैं, वे ?'
'घोड़े हैं !'
'घोड़े ?'
'हाँ, वे घुड़दौड़ में शामिल हैं ।
पहला दस हजार वर्षों में
यहाँ तक पहुँचा है ।
दूसरा
एथेंस से चला था,
उसे वॉल स्ट्रीट तक पहुँचना है ।
तीसरा
नेपोलियन का घोड़ा है,
एल्प्स पर चढ़ता, फिर
एल्प्स से उतरता है ।
चौथा बाज़ारू है, जो भी चाहे,
उस पर दाँव लगा सकता है ।'
यह कहकर मेरे पास खड़ा व्यक्ति
घोड़ की तरह हिनहिनाता है,
अपने दो हाथों को
अगले दो पैरों की तरह उठा
हवा में थिरकता
फिर सड़क पर सरपट भागता है ।
चकित में दूसरे व्यक्ति से कहता हूँ,
'पागल है !'
'नहीं, वह घोड़ा है।' तमाशबीन कहता है ।
'वह कहाँ जा रहा है ?'
'उसे पता नहीं'
'वह क्यों भाग रहा है ?'
'उसे पता नहीं'
वह क्या चाहता है ?'
'उसे पता नहीं' ।
इतना कह हमसफ़र
अपने थैले से ज़ीन निकाल
मेरी पीठ पर कसता है !
चीखता हूँ मैं,
जूझता हूँ मैं,
गुत्थम गुत्थ, हाँफता हूँ मैं !
मेरी पीठ पर बैठा सवार
हवा में चाबुक उछाल, मुझसे कहता है--
'इसके पहले कि तुम्हें
शामिल कर दिया जाय दौड़ में,
मैं चाहता हूँ,
तुम ख़ुद से पूछो, तुम कौन हो ?'
'मैं दावे से कह सकता हूँ, मनुष्य हूँ ।'
'नहीं, तुम काठ हो !
तुम्हारे अंदर दस हज़ार घोड़े हैं,
सौ हजार सैनिक हैं,
तुम छद्म हो ।
जितनी बार पैदा हुए हो तुम,
उतनी बार मारे गये हो !
तुम अमर नहीं,
इच्छा अमर है, संक्रामक है ।
बोलो, क्या चाहते हो ?' मुझसे
पूछता है, सवार ।
अपने दो हाथों को अगले दो पैरों की तरह
उठा,
पूँछ का गुच्छा हिलाता,
कहे जाता हूँ मै,
'मैं दस हजार वर्षों तक चलना
चाहता हूँ,
मैं एथेंस से चलकर
वॉल स्ट्रीट तक पहुँचना चाहता हूँ,
मैं एल्प्स पर चढ़ना
फिर एल्प्स से उतरना चाहता हूँ,
मैं, जो चाहे, उसके,
दाँव पर लगना चाहता हूँ ।'
उमंग में भरा हूआ मैं, यह भी नहीं पूछता,
अगला पड़ाव
कितनी दूर है ?
हैं भी, या नहीं हैं ?
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