कवि आलोक धन्वा की कविताएँ
मुलाक़ातें आलोक धन्वा की कविता
अचानक तुम आ जाओ
इतनी रेलें चलती हैं
भारत में
कभी
कहीं से भी आ सकती हो
मेरे पास
कुछ दिन रहना इस घर में
जो उतना ही तुम्हारा भी है
तुम्हें देखने की प्यास है गहरी
तुम्हें सुनने की
कुछ दिन रहना
जैसे तुम गई नहीं कहीं
मेरे पास समय कम
होता जा रहा है
मेरी प्यारी दोस्त
घनी आबादी का देश मेरा
कितनी औरतें लौटती हैं
शाम होते ही
अपने-अपने घर
कई बार सचमुच लगता है
तुम उनमें ही कहीं
आ रही हो
वही दुबली देह
बारीक़ चारख़ाने की
सूती साड़ी
कंधे से झूलता
झालर वाला झोला
और पैरों में चप्पलें
मैं कहता जूते पहनो खिलाड़ियों वाले
भाग-दौड़ में भरोसे के लायक़
तुम्हें भी अपने काम में
ज़्यादा मन लगेगा
मुझसे फिर एक बार मिलकर
लौटने पर
दु:ख-सुख तो
आते-जाते रहेंगे
सब कुछ पार्थिव है यहाँ
लेकिन मुलाक़ातें नहीं हैं
पार्थिव
इनकी ताज़गी
रहेगी यहाँ
हवा में!
इनसे बनती हैं नई जगहें
एक बार और मिलने के बाद भी
एक बार और मिलने की इच्छा
पृथ्वी पर कभी ख़त्म नहीं होगी
सफ़ेद रात आलोक धन्वा की कविता
पुराने शहर की इस छत पर
पूरे चाँद की रात
याद आ रही है वर्षों पहले की
जंगल की एक रात
जब चाँद के नीचे
जंगल पुकार रहे थे जंगल को
और बारहसिंगे
पीछे छूट गए बारहसिंगों को
निर्जन मोड़ पर ऊँची झाड़ियों में
ओझल होते हुए
क्या वे सब अभी तक बचे हुए हैं
पीली मिट्टी के रास्ते और खरहे
महोगनी के घने पेड़
तेज़ महक वाली कड़ी घास
देर तक गोधूलि ओस
रखवारे की झोपड़ी और
उसके ऊपर सात तारे
पूरे चाँद की इस शहरी रात में
किसलिए आ रही है याद
जंगल की रात?
छत से झाँकता हूँ नीचे
आधी रात बिखर रही है
दूर-दूर तक चाँद की रोशनी
सबसे अधिक खींचते हैं फ़ुटपाथ
ख़ाली खुले आधी रात के बाद के फ़ुटपाथ
जैसे आँगन छाए रहे मुझमें बचपन से ही
और खुली छतें बुलाती रहीं रात होते ही
कहीं भी रहूँ
क्या है चाँद के उजाले में
इस बिखरती हुई आधी रात में
एक असहायता
जो मुझे कुचलती है और एक उम्मीद
जो तकलीफ़ जैसी है
शहर में इस तरह बसे
कि परिवार का टूटना ही उसकी बुनियाद हो जैसे
न पुरखे साथ आए न गाँव न जंगल न जानवर
शहर में बसने का क्या मतलब है
शहर में ही ख़त्म हो जाना?
एक विशाल शरणार्थी शिविर के दृश्य
हर कहीं उनके भविष्यहीन तंबू
हम कैसे सफ़र में शामिल हैं
कि हमारी शक्ल आज भी विस्थापितों जैसी
सिर्फ़ कहने के लिए कोई अपना शहर है
कोई अपना घर है
इसके भीतर भी हम भटकते ही रहते हैं
लखनऊ में बहुत कम बच रहा है लखनऊ
इलाहाबाद में बहुत कम इलाहाबाद
कानपुर और बनारस और पटना और अलीगढ़
अब इन्हीं शहरों में
कई तरह की हिंसा कई तरह के बाज़ार
कई तरह के सौदाई
इनके भीतर इनके आस-पास
इनसे बहुत दूर बंबई हैदराबाद अमृतसर
और श्रीनगर तक
हिंसा
और हिंसा की तैयारी
और हिंसा की ताक़त
बहस नहीं चल पाती
हत्याएँ होती हैं
फिर जो बहस चलती है
उसका भी अंत हत्याओं में होता है
भारत में जन्म लेने का
मैं भी कोई मतलब पाना चाहता था
अब वह भारत ही नहीं रहा
जिसमें जन्म लिया
क्या है इस पूरे चाँद के उजाले में
इस बिखरती हुई आधी रात में
जो मेरी साँस
लाहौर और कराची और सिंध तक उलझती है?
क्या लाहौर बच रहा है?
वह अब किस मुल्क में है?
न भारत में न पाकिस्तान में
न उर्दू में न पंजाबी में
पूछो राष्ट्र निर्माताओं से
क्या लाहौर फिर बस पाया?
जैसे यह अछूती
आज की शाम की सफ़ेद रात
एक सच्चाई है
लाहौर भी मेरी सच्चाई है
कहाँ है वह
हरे आसमान वाला शहर बग़दाद
ढूँढ़ो उसे
अब वह अरब में कहाँ है?
पूछो युद्ध सरदारों से
इस सफ़ेद हो रही रात में
क्या वे बग़दाद को फिर से बना सकते है?
वे तो खजूर का एक पेड़ भी नहीं उगा सकते हैं
वे तो रेत में उतना भी पैदल नहीं चल सकते
जितना एक बच्चा ऊँट का चलता है
ढूह और ग़ुबार से
अंतरिक्ष की तरह खेलता हुआ
क्या वे एक ऊँट बना सकते हैं?
एक गुंबद एक तरबूज़ एक ऊँची सुराही
एक सोता
जो धीरे-धीरे चश्मा बना
एक गली
जो ऊँची दीवारों के साये में शहर घूमती थी
और गली में
सिर पर फ़ीरोज़ी रूमाल बाँधे एक लड़की
जो फिर कभी उस गली में नहीं दिखेगी
अब उसे याद करोगे
तो वह याद आएगी
अब तुम्हारी याद ही उसका बग़दाद है
तुम्हारी याद ही उसकी गली है उसकी उम्र है
उसका फ़ीरोज़ी रूमाल है
जब भगत सिंह फाँसी के तख़्ते की ओर बढ़े
तो अहिंसा ही थी
उनका सबसे मुश्किल सरोकार
अगर उन्हे क़बूल होता
युद्ध सरदारों का न्याय
तो वे भी जीवित रह लेते
बर्दाश्त कर लेते
धीरे-धीरे उजड़ते रोज़ मरते हुए
लाहौर की तरह
बनारस अमृतसर लखनऊ इलाहाबाद
कानपुर और श्रीनगर की तरह।
गोली दाग़ो पोस्टर आलोक धन्वा की कविता
यह उन्नीस सौ बहत्तर की बीस अप्रैल है या
किसी पेशेवर हत्यारे का दायाँ हाथ या किसी जासूस
का चमड़े का दस्ताना या किसी हमलावर की दूरबीन पर
टिका हुआ धब्बा है
जो भी हो—इसे मैं केवल एक दिन नहीं कह सकता!
जहाँ मैं लिख रहा हूँ
यह बहुत पुरानी जगह है
यहाँ आज भी शब्दों से अधिक तंबाकू का
इस्तेमाल होता है
आकाश यहाँ एक सूअर की ऊँचाई भर है
यहाँ जीभ का इस्तेमाल सबसे कम हो रहा है
यहाँ आँख का इस्तेमाल सबसे कम हो रहा है
यहाँ कान का इस्तेमाल सबसे कम हो रहा है
यहाँ नाक का इस्तेमाल सबसे कम हो रहा है
यहाँ सिर्फ़ दाँत और पेट हैं
मिट्टी में धँसे हुए हाथ हैं
आदमी कहीं नहीं है
केवल एक नीला खोखल है
जो केवल अनाज माँगता रहता है—
एक मूसलाधार बारिश से
दूसरी मूसलाधार बारिश तक
यह औरत मेरी माँ है या
पाँच फ़ीट लोहे की एक छड़
जिस पर दो सूखी रोटियाँ लटक रही हैं—
मरी हुई चिड़ियों की तरह
अब मेरी बेटी और मेरी हड़ताल में
बाल भर भी फ़र्क़ नहीं रह गया है
जबकि संविधान अपनी शर्तों पर
मेरी हड़ताल और मेरी बेटी को
तोड़ता जा रहा है
क्या इस आकस्मिक चुनाव के बाद
मुझे बारूद के बारे में
सोचना बंद कर देना चाहिए?
क्या उन्नीस सौ बहत्तर की इस बीस अप्रैल को
मैं अपने बच्चे के साथ
एक पिता की तरह रह सकता हूँ?
स्याही से भरी दवात की तरह—
एक गेंद की तरह
क्या मैं अपने बच्चों के साथ
एक घास भरे मैदान की तरह रह सकता हूँ?
वे लोग अगर अपनी कविता में मुझे
कभी ले भी जाते हैं तो
मेरी आँखों पर पट्टियाँ बाँधकर
मेरा इस्तेमाल करते हैं और फिर मुझे
सीमा से बाहर लाकर छोड़ देते हैं
वे मुझे राजधानी तक कभी नहीं पहुँचने देते हैं
मैं तो ज़िला-शहर तक आते-आते जकड़ लिया जाता हूँ!
सरकार ने नहीं—इस देश की सबसे
सस्ती सिगरेट ने मेरा साथ दिया
बहन के पैरों के आस-पास
पीले रेंड़ के पौधों की तरह
उगा था जो मेरा बचपन—
उसे दारोग़ा का भैंसा चर गया
आदमीयत को जीवित रखने के लिए अगर
एक दरोग़ा को गोली दाग़ने का अधिकार है
तो मुझे क्यों नहीं?
जिस ज़मीन पर
मैं अभी बैठकर लिख रहा हूँ
जिस ज़मीन पर मैं चलता हूँ
जिस ज़मीन को मैं जोतता हूँ
जिस ज़मीन में बीज बोता हूँ और
जिस ज़मीन से अन्न निकाल कर मैं
गोदामों तक ढोता हूँ
उस ज़मीन के लिए गोली दाग़ने का अधिकार
मुझे है या उन दोग़ले ज़मींदारों को जो पूरे देश को
सूदख़ोर का कुत्ता बना देना चाहते हैं
यह कविता नहीं है
यह गोली दाग़ने की समझ है
जो तमाम क़लम चलाने वालों को
तमाम हल चलाने वालों से मिल रही है।
भूल पाने की लड़ाई आलोक धन्वा की कविता
उसे भूलने की लड़ाई
लड़ता रहता हूँ
यह लड़ाई भी
दूसरी कठिन लड़ाइयों जैसी है
दुर्गम पथ जाते हैं उस ओर
उसके साथ गुज़ारे
दिनों के भीतर से
उठती आती है जो प्रतिध्वनि
साथ-साथ जाएगी आजीवन
इस रास्ते पर कोई
बाहरी मदद पहुँच नहीं सकती
उसकी आकस्मिक वापसी की छायाएँ
लंबी होती जाती हैं
चाँद-तारों के नीचे
अभिशप्त और निर्जन हो जैसे
एक भुलाई जा रही स्त्री के प्यार के
सारे प्रसंग
उसके वे सभी रंग
जिनमें वह बेसुध
होती थी मेरे साथ
लगातार बिखरते रहते हैं
जैसे पहली बार
आज भी उसी तरह
मैं नहीं उन लोगों में
जो भुला पाते हैं प्यार की गई स्त्री को
और चैन से रहते हैं
उन दिनों मैं
एक अख़बार में कॉलम लिखता था
देर रात गए लिखता रहता था
मेज़ पर
वह कबकी सो चुकी होती
अगर वह अभी अचानक जग जाती
मुझे लिखने नहीं देती
सेहत की बात करते हुए
मुझे खींच लेती बिस्तर में
रोशनी गुल करते हुए
आधी नींद में वह बोलती रहती कुछ
कोई आधा वाक्य
कोई आधा शब्द
उसकी आवाज़ धीमी होती जाती
और हम सो जाते
सुबह जब मैं जागता
तो पाता कि
वह मुझे निहार रही है
मैं कहता
तुम मुझे इस तरह क्या देखती हो
इतनी सुबह
देखा तो है रोज़
वह कहती
तुम मुझसे ज़्यादा सुंदर हो
मैं कहता
यह भी कोई बात है
भोर में नम
मेरे छोटे घर में
वह काम करती हुई
किसी ओट में जाती
कभी सामने पड़ जाती
वह जितने दिन मेरे साथ रही
उससे ज़्यादा दिन हो गए
उसे गए।
शृंगार
तुम भीगी रेत पर
इस तरह चलती हो
अपनी पिंडलियों से ऊपर
साड़ी उठाकर
जैसे पानी में चल रही हो!
क्या तुम जान-बूझकर ऐसा
कर रही हो
क्या तुम शृंगार को
फिर से बसाना चाहती हो?
उड़ानें आलोक धन्वा की कविता
कवि मरते हैं
जैसे पक्षी मरते हैं
गोधूलि में ओझल होते हुए!
सिर्फ़ उड़ानें बची रह
जाती हैं
दुनिया में आते ही
क्यों है
जहाँ इंतज़ार बहुत
और साथ कम
स्त्रियाँ जब पुकारती हैं
अपने बच्चों को
उनकी याद आती है!
क्या एक ऐसी
दुनिया आ रही है
जहाँ कवि और पक्षी
फिर आएँगे ही नहीं!
किसने बचाया मेरी आत्मा को आलोक धन्वा की कविता
किसने बचाया मेरी आत्मा को
दो कौड़ी की मोमबत्तियों की रोशनी ने
दो-चार उबले हुए आलुओं ने बचाया
सूखे पत्तों की आग
और मिट्टी के बर्तनों ने बचाया
पुआल के बिस्तर ने और
पुआल के रंग के चाँद ने
नुक्कड़ नाटक के आवारा जैसे छोकरे
चिथड़े पहने
सच के गौरव जैसा कंठ-स्वर
कड़ा मुक़ाबला करते
मोड़-मोड़ पर
दंगाइयों को खदेड़ते
वीर बाँकें हिंदुस्तानियों से सीखा रंगमंच
भीगे वस्त्र-सा विकल अभिनय
दादी के लिए रोटी पकाने का चिमटा लेकर
ईदगाह के मेले से लौट रहे नन्हे हामिद ने
और छह दिसंबर के बाद
फ़रवरी आते-आते
जंगली बेर ने
इन सबने बचाया मेरी आत्मा को।
जनता का आदमी आलोक धन्वा की कविता
बर्फ़ काटने वाली मशीन से आदमी काटने वाली मशीन तक
कौंधती हुई अमानवीय चमक के विरुद्ध
जलते हुए गाँवों के बीच से गुज़रती है मेरी कविता;
तेज़ आग और नुकीली चीख़ों के साथ
जली हुई औरत के पास
सबसे पहले पहुँचती है मेरी कविता;
जबकि ऐसा करते हुए मेरी कविता जगह-जगह से जल जाती है
और वे आज भी कविता का इस्तेमाल मुर्दागाड़ी की तरह कर रहे हैं
शब्दों के फेफड़ों में नए मुहावरों का ऑक्सीजन भर रहे हैं,
लेकिन जो कर्फ़्यू के भीतर पैदा हुआ,
जिसकी साँस लू की तरह गर्म है
उस नौजवान ख़ान मज़दूर के मन में
एक बिल्कुल नई बंदूक़ की तरह याद आती है मेरी कविता।
जब कविता के वर्जित प्रदेश में
मैं एकबारगी कई करोड़ आदमियों के साथ घुसा
तो उन तमाम कवियों को
मेरा आना एक अश्लील उत्पात-सा लगा
जो केवल अपनी सुविधा के लिए
अफ़ीम के पानी में अगले रविवार को चुरा लेना चाहते थे
अब मेरी कविता एक ली जा रही जान की तरह बुलाती है,
भाषा और लय के बिना, केवल अर्थ में—
उस गर्भवती औरत के साथ
जिसकी नाभि में सिर्फ़ इसलिए गोली मार दी गई
कि कहीं एक ईमानदार आदमी पैदा न हो जाए।
सड़े हुए चूहों को निगलते-निगलते
जिनके कंठ में अटक गया है समय
जिनकी आँखों में अकड़ गए हैं मरी हुई याद के चकत्ते
वे सदा के लिए जंगलों में बस गए हैं—
आदमी से बचकर
क्योंकि उनकी जाँघ की सबसे पतली नस में
शब्द शुरू होकर
जाँघ की सबसे मोटी नस में शब्द समाप्त हो जाते हैं
भाषा की ताज़गी से वे अपनी नीयत को ढँक रहे हैं
बस एक बहस के तौर पर
वे श्रीकाकुलम जैसी जगहों का भी नाम ले लेते हैं,
वे अजीब तरह से सफल हुए हैं इस देश में
मरे हुए आदमियों के नाम से
वे जीवित आदमियों को बुला रहे हैं।
वे लोग पेशेवर ख़ूनी हैं
जो नंगी ख़बरों का गला घोंट देते हैं
अख़बार की सनसनीख़ेज़ सुर्ख़ियों की आड़ में
वे बार-बार उस एक चेहरे के पालतू हैं
जिसके पेशाबघर का नक़्शा मेरे गाँव के नक़्शे से बड़ा है।
बर्फ़ीली दरारों में पाई जाने वाली
उजली जोंकों की तरह प्रकाशन संस्थाएँ इस देश की :
हुगली के किनारे आत्महत्या करने के पहले
क्यों चीख़ा था वह युवा कवि—‘टॉइम्स ऑफ़ इंडिया’
—उसकी लाश तक जाना भी मेरे लिए संभव नहीं हो सका
कि भाड़े पर लाया आदमी उसके लिए नहीं रो सका
क्योंकि उसे सबसे पहले
आज अपनी असली ताक़त के साथ हमलावर होना चाहिए।
हर बार कविता लिखते-लिखते
मैं एक विस्फोटक शोक के सामने खड़ा हो जाता हूँ
कि आख़िर दुनिया के इस बेहूदे नक़्शे को
मुझे कब तक ढोना चाहिए,
कि टैंक के चेन में फँसे लाखों गाँवों के भीतर
एक समूचे आदमी को कितने घंटों तक सोना चाहिए?
कलकत्ते के ज़ू में एक गैंडे ने मुझसे कहा
कि अभी स्वतंत्रता कहीं नहीं हैं, सब कहीं सुरक्षा है;
राजधानी के सबसे सुरक्षित हिस्से में
पाला जाता है एक आदिम घाव
जो पैदा करता है जंगली बिल्लियों के सहारे पाशविक अलगाव
तब से मैंने तय कर लिया है
कि गैंडे की कठिन चमड़ी का उपयोग युद्ध के लिए नहीं
बल्कि एक अपार करुणा के लिए होना चाहिए।
मैं अभी मांस पर खुदे हुए अक्षरों को पढ़ रहा हूँ—
ज़हरीली गैसों और ख़ूँख़ार गुप्तचरों से लैस
इस व्यवस्था का एक अदन-सा आदमी
मेरे घर में किसी भी समय ज़बर्दस्ती घुस आता है
और बिजली के कोड़ों से
मेरी माँ की जाँघ
मेरी बहन की पीठ
और मेरी बेटी की छातियों को उधेड़ देता है,
मेरी खुली आँखों के सामने
मेरे वोट से लेकर मेरी प्रजनन शक्ति तक को नष्ट कर देता है,
मेरी कमर में रस्से बाँध कर
मुझे घसीटता हुआ चल देता है,
जबकि पूरा गाँव इस नृशंस दृश्य को
तमाशबीन की तरह देखता रह जाता है।
क्योंकि अब तक सिर्फ़ जेल जाने की कविताएँ लिखी गईं
किसी सही आदमी के लिए
जेल उड़ा देने की कविताएँ पैदा नहीं हुईं।
एक रात
जब मैं ताज़े और गर्म शब्दों की तलाश में था—
हज़ारों बिस्तरों में पिछले रविवार को पैदा हुए बच्चे निश्चिंत सो रहे थे,
उन बच्चों की लंबाई
मेरी कविता लिखने वाली क़लम से थोड़ी-सी बड़ी थी।
तभी मुझे कोने में वे खड़े दिखाई दे गए, वे खड़े थे—कोने में
भरी हुई बंदूक़ों की तरह, सायरानों की तरह, सफ़ेद चीते की तरह,
पाठ्यक्रम की तरह, बदबू और संविधान की तरह।
वे अभिभावक थे,
मेरी पकड़ से बाहर—क्रूर परजीवी,
उनके लिए मैं बिलकुल निहत्था था
क्योंकि शब्दों से उनका कुछ नहीं बिगड़ता है
जब तक कि उनके पास सात सेंटीमीटर लंबी गोलियाँ हैं
—रायफ़लों में तनी-पड़ी।
वे इन बच्चों को बिस्तरों से उठाकर
सीधे बारूदख़ाने तक ले जाएँगे।
वे हर तरह की कोशिश करेंगे
कि इन बच्चों से मेरी जान-पहचान न हो
क्योंकि मेरी मुलाक़ात उनके बारूदख़ाने में आग की तरह घुसेगी।
मैं गहरे जल की आवाज़-सा उतर गया।
बाहर हवा में, सड़क पर
जहाँ अचानक मुझे फ़ायर स्टेशन के ड्राइवरों ने पकड़ लिया और पूछा—
आख़िर इस तरह अक्षरों का भविष्य क्या होगा?
आख़िर कब तक हम लोगों को दौड़ते हुए दमकलों के सहारे याद किया जाता रहेगा?
उधर युवा डोमों ने इस बात पर हड़ताल की
कि अब हम श्मशान में अकाल-मृत्यु के मुर्दों को
सिर्फ़ जलाएँगे ही नहीं
बल्कि उन मुर्दों के घर तक जाएँगे।
अक्सर कविता लिखते हुए मेरे घुटनों से
किसी अज्ञात समुद्र-यात्री की नाव टकरा जाती है
और फिर एक नए देश की खोज शुरू हो जाती है—
उस देश का नाम वियतनाम ही हो यह कोई ज़रूरी नहीं
उस देश का नाम बाढ़ में बह गए मेरे पिता का नाम भी हो सकता है,
मेरे गाँव का नाम भी हो सकता है
मैं जिस खलिहान में अब तक
अपनी फ़सलों, अपनी पंक्तियों को नीलाम करता आया हूँ
उसके नाम पर भी यह नाम हो सकता है।
क्यों पूछा था एक सवाल मेरे पुराने पड़ोसी ने—
मैं एक भूमिहीन किसान हूँ,
क्या मैं कविता को छू सकता हूँ?
अबरख़ की खान में लहू जलता है जिन युवा स्तनों और बलिष्ठ कंधों का
उन्हें अबरख़ ‘अबरख़’ की तरह
जीवन में एक बार भी याद नहीं आता है
क्यों हर बार आम ज़िंदगी के सवाल से
कविता का सवाल पीछे छूट जाता है?
इतिहास के भीतर आदिम युग से ही
कविता के नाम पर जो जगहें ख़ाली कर ली जाती हैं—
वहाँ इन दिनों चर्बी से भरे हुए डिब्बे ही अधिक जमा हो रहे हैं,
एक गहरे नीले काँच के भीतर
सुकांत की इक्कीस फ़ीट लंबी तड़पती हुई आँत
निकाल कर रख दी गई है,
किसी चिर विद्रोह की रीढ़ पैदा करने के लिए नहीं;
बल्कि कविता के अजायबघर को
पहले से और अजूबा बनाने के लिए।
असफल, बूढ़ी प्रेमिकाओं की भीड़ इकट्ठी करने वाली
महीन तंबाकू जैसी कविताओं के बीच
भेड़ों की गंध से भरा मेरा गड़रिए जैसा चेहरा
आप लोगों को बेहद अप्रत्याशित लगा होगा,
उतना ही
जितना साहू जैन के ग्लास-टैंक में
मछलियों की जगह तैरती हुई गजानन माधव मुक्तिबोध की लाश।
बम विस्फोट में घिरने के बाद का चेहरा मेरी ही कविताओं में क्यों है?
मैं क्यों नहीं लिख पाता हूँ वैसी कविता
जैसी बच्चों की नींद होती है,
खान होती है,
पके हुए जामुन का रंग होता है,
मैं वैसी कविता क्यों नहीं लिख पाता
जैसी माँ के शरीर में नए पुआल की महक होती है,
जैसी बाँस के जंगल में हिरन के पसीने की गंध होती है,
जैसे ख़रगोश के कान होते हैं,
जैसे ग्रीष्म के बीहड़ एकांत में
नीले जल-पक्षियों का मिथुन होता है,
जैसे समुद्री खोहों में लेटा हुआ खारा कत्थईपन होता है,
मैं वैसी कविता क्यों नहीं लिख पाता
जैसी हज़ारों फ़ीट की ऊँचाई से गिरनेवाले झरने की पीठ होती है?
हाथी के पैरों के निशान जैसे गंभीर अक्षरों में
जो कविता दीवारों पर लिखी होती है
कई लाख हलों के ऊपर खुदी हुई है जो
कई लाख मज़दूरों के टिफ़िन कैरियर में
ठंडी, कमज़ोर रोटी की तरह लेटी हुई है जो कविता?
एक मरे हुए भालू से लड़ती रहीं उनकी कविताएँ
कविता को घुड़दौड़ की जगह बनाने वाले उन सट्टेबाज़ों की
बाज़ी को तोड़ सकता है वही
जिसे आप मामूली आदमी कहते है;
क्योंकि वह किसी भी देश के झंडे से बड़ा है।
इस बात को वह महसूस करने लगा है,
महसूस करने लगा है वह
अपनी पीठ पर लिखे गए सैकड़ों उपन्यासों,
अपने हाथों से खोदी गई नहरों और सड़कों को
कविता की एक महान संभावना है यह
कि वह मामूली आदमी अपनी कृतियों को महसूस करने लगा है—
अपनी टाँग पर टिके महानगरों और
अपनी कमर पर टिकी हुई राजधानियों को
महसूस करने लगा है वह।
धीरे-धीरे उसका चेहरा बदल रहा है,
हल के चमचमाते हुए फाल की तरह पंजों को
बीज, पानी और ज़मीन के सही रिश्तों को
वह महसूस करने लगा है।
कविता का अर्थ विस्तार करते हुए
वह जासूसी कुत्तों की तरह शब्दों को खुला छोड़ देता है,
एक छिटकते हुए क्षण के भीतर देख लेता है वह
ज़ंजीर का अकेलापन,
वह जान चुका है—
क्यों एक आदिवासी बच्चा घूरता है अक्षर,
लिपि से भी डरते हुए,
इतिहास की सबसे घिनौनी किताब का राज़ खोलते हुए।
पतंग (एन.सी. ई.आर.टी) आलोक धन्वा की कविता
प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा बारहवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
सबसे तेज़ बौछारें गईं भादों गया
सवेरा हुआ
ख़रगोश की आँखों जैसा लाल सवेरा
शरद आया पुलों को पार करते हुए
अपनी नई चमकीली साइकिल तेज़ चलाते हुए
घंटी बजाते हुए ज़ोर-ज़ोर से
चमकीले इशारों से बुलाते हुए
पतंग उड़ाने वाले बच्चों के झुंड को
चमकीले इशारों से बुलाते हुए और
आकाश को इतना मुलायम बनाते हुए
कि पतंग ऊपर उठ सके—
दुनिया की सबसे हल्की और रंगीन चीज़ उड़ सके
दुनिया का सबसे पतला काग़ज़ उड़ सके—
बाँस की सबसे पतली कमानी उड़ सके—
कि शुरू हो सके सीटियों, किलकारियों और
तितलियों की इतनी नाज़ुक दुनिया
जन्म से ही वे अपने साथ लाते हैं कपास
पृथ्वी घूमती हुई आती है उनके बेचैन पैरों के पास
जब वे दौड़ते हैं बेसुध
छतों को भी नरम बनाते हुए
दिशाओं को मृदंग की तरह बजाते हुए
जब वे पेंग भरते हुए चले आते हैं
डाल की तरह लचीले वेग से अक्सर
छतों के ख़तरनाक किनारों तक—
उस समय गिरने से बचाता है उन्हें
सिर्फ़ उनके ही रोमांचित शरीर का संगीत
पतंगों की धड़कती ऊँचाइयाँ उन्हें थाम लेती हैं महज़ एक धागे के सहारे
पतंगों के साथ-साथ वे भी उड़ रहे हैं
अपने रंध्रों के सहारे
अगर वे कभी गिरते हैं छतों के ख़तरनाक किनारों से
और बच जाते हैं तब तो
और भी निडर होकर सुनहले सूरज के सामने आते हैं
पृथ्वी और भी तेज़ घूमती हूई आती है
उनके बेचैन पैरों के पास।
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| alok dhanwa |
आलोकधन्वा जीवन परिचय
आलोकधन्वा एक प्रमुख हिंदी कवि, लेखक और नाटककार हैं, जिनकी रचनाएँ भारतीय साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। उनका जन्म 9 अगस्त 1948 को बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में हुआ था। वे समकालीन हिंदी कविता के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर माने जाते हैं और उनकी कविता में जीवन के विभिन्न पहलुओं की गहरी समझ और संवेदनशीलता दिखाई देती है।
शिक्षा और करियर:
आलोकधन्वा ने अपनी शिक्षा पटना विश्वविद्यालय से प्राप्त की और इसके बाद साहित्य के क्षेत्र में कदम रखा। उनका लेखन मुख्य रूप से कविता, निबंध और नाटक पर केंद्रित है। वे हिंदी कविता के नवोन्मेषी प्रवृत्तियों के प्रवर्तक रहे हैं और अपनी लेखनी के जरिए सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर गहरी टिप्पणी करते हैं।
साहित्यिक योगदान:
आलोकधन्वा की कविताएँ अत्यंत प्रभावशाली और सशक्त मानी जाती हैं। उनकी कविताओं में जीवन की जटिलताओं, मानवीय रिश्तों, दर्द और संघर्ष की गहरी तस्वीरें देखने को मिलती हैं। उनके प्रमुख काव्य संग्रहों में 'तुम्हारे लिए', 'कविता का कोई अंत नहीं होता' और 'फासला' शामिल हैं। उनके काव्य में न केवल व्यक्तिगत अनुभवों की गहराई है, बल्कि समाज की समस्याओं, संघर्षों और बदलाव की ओर भी संकेत किया गया है।
पुरस्कार और सम्मान:
आलोकधन्वा को उनकी साहित्यिक उपलब्धियों के लिए कई सम्मान मिले हैं, जिनमें साहित्य अकादमी पुरस्कार, महात्मा गांधी साहित्य पुरस्कार और भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार शामिल हैं।
उनकी रचनाएँ भारतीय साहित्य में न केवल कविता के शास्त्रीय रूप को बल्कि समकालीन साहित्य की नयी दिशा को भी रेखांकित करती हैं।
Poem of Hindi Poet ALok Dhanwa
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