काका हाथरसी | Kaka Hathrasi

काका हाथरसी के कविता संग्रह
Poem collections /Book by Kaka Hathrasi


संग्रह/काका की फुलझड़ियाँ / काका हाथरसी

नाम बड़े, दर्शन छोटे / काका हाथरसी

नाम-रूप के भेद पर कभी किया है गौर ?
नाम मिला कुछ और तो, शक्ल-अक्ल कुछ और
शक्ल-अक्ल कुछ और, नैनसुख देखे काने
बाबू सुंदरलाल बनाए ऐंचकताने
कहँ ‘काका’ कवि, दयाराम जी मारें मच्छर
विद्याधर को भैंस बराबर काला अक्षर


मुंशी चंदालाल का तारकोल-सा रूप
श्यामलाल का रंग है जैसे खिलती धूप
जैसे खिलती धूप, सजे बुश्शर्ट पैंट में-
ज्ञानचंद छै बार फेल हो गए टैंथ में
कहँ ‘काका’ ज्वालाप्रसाद जी बिल्कुल ठंडे
पंडित शांतिस्वरूप चलाते देखे डंडे


देख, अशर्फीलाल के घर में टूटी खाट
सेठ भिखारीदास के मील चल रहे आठ
मील चल रहे आठ, कर्म के मिटें न लेखे
धनीराम जी हमने प्राय: निर्धन देखे
कहँ ‘काका’ कवि, दूल्हेराम मर गए क्वाँरे
बिना प्रियतमा तड़पें प्रीतमसिंह बिचारे


दीन श्रमिक भड़का दिए, करवा दी हड़ताल
मिल-मालिक से खा गए रिश्वत दीनदयाल
रिश्वत दीनदयाल, करम को ठोंक रहे हैं
ठाकुर शेरसिंह पर कुत्ते भौंक रहे हैं
‘काका’ छै फिट लंबे छोटूराम बनाए
नाम दिगंबरसिंह वस्त्र ग्यारह लटकाए


पेट न अपना भर सके जीवन-भर जगपाल
बिना सूँड़ के सैकड़ों मिलें गणेशीलाल
मिलें गणेशीलाल, पैंट की क्रीज सम्हारी-
बैग कुली को दिया चले मिस्टर गिरिधारी
कहँ ‘काका’ कविराय, करें लाखों का सट्टा
नाम हवेलीराम किराए का है अट्टा


दूर युद्ध से भागते, नाम रखा रणधीर
भागचंद की आज तक सोई है तकदीर
सोई है तकदीर, बहुत-से देखे-भाले
निकले प्रिय सुखदेव सभी, दुख देने वाले
कहँ ‘काका’ कविराय, आँकड़े बिल्कुल सच्चे
बालकराम ब्रह्मचारी के बारह बच्चे


चतुरसेन बुद्धू मिले,बुद्धसेन निर्बुद्ध
श्री आनंदीलालजी रहें सर्वदा क्रुद्ध
रहें सर्वदा क्रुद्ध, मास्टर चक्कर खाते
इंसानों को मुंशी तोताराम पढ़ाते
कहँ ‘काका’, बलवीरसिंह जी लटे हुए हैं
थानसिंह के सारे कपड़े फटे हुए हैं


बेच रहे हैं कोयला, लाला हीरालाल
सूखे गंगाराम जी, रूखे मक्खनलाल
रूखे मक्खनलाल, झींकते दादा-दादी
निकले बेटा आशाराम निराशावादी
कहँ ‘काका’ कवि, भीमसेन पिद्दी-से दिखते
कविवर ‘दिनकर’ छायावादी कविता लिखते


आकुल-व्याकुल दीखते शर्मा परमानंद
कार्य अधूरा छोड़कर भागे पूरनचंद
भागे पूरनचंद अमरजी मरते देखे
मिश्रीबाबू कड़वी बातें करते देखे
कहँ ‘काका’, भंडारसिंह जी रीते-थोते
बीत गया जीवन विनोद का रोते-धोते


शीला जीजी लड़ रहीं, सरला करतीं शोर
कुसुम, कमल, पुष्पा, सुमन निकलीं बड़ी कठोर
निकलीं बड़ी कठोर, निर्मला मन की मैली
सुधा सहेली अमृतबाई सुनीं विषैली
कहँ ‘काका’ कवि, बाबूजी क्या देखा तुमने ?
बल्ली जैसी मिस लल्ली देखी है हमने


तेजपाल जी भोथरे मरियल-से मलखान
लाला दानसहाय ने करी न कौड़ी दान
करी न कौड़ी दान, बात अचरज की भाई
वंशीधर ने जीवन-भर वंशी न बजाई
कहँ ‘काका’ कवि, फूलचंदजी इतने भारी
दर्शन करके कुर्सी टूट जाए बेचारी


खट्टे-खारी-खुरखुरे मृदुलाजी के बैन
मृगनैनी के देखिए चिलगोजा-से नैन
चिलगोजा से नैन शांता करती दंगा
नल पर न्हातीं गोदावरी, गोमती, गंगा
कहँ ‘काका’ कवि, लज्जावती दहाड़ रही है
दर्शन देवी लंबा घूँघट काढ़ रही है


कलियुग में कैसे निभे पति-पत्नी का साथ
चपलादेवी को मिले बाबू भोलानाथ
बाबू भोलानाथ, कहाँ तक कहें कहानी
पंडित रामचंद्र की पत्नी राधारानी
‘काका’, लक्ष्मीनारायण की गृहिणी रीता
कृष्णचंद्र की वाइफ बनकर आई सीता


अज्ञानी निकले निरे पंडित ज्ञानीराम
कौशल्या के पुत्र का रक्खा दशरथ नाम
रक्खा दशरथ नाम, मेल क्या खूब मिलाया
दूल्हा संतराम को आई दुलहिन माया
‘काका’ कोई-कोई रिश्ता बड़ा निकम्मा
पार्वतीदेवी हैं शिवशंकर की अम्मा


पूँछ न आधी इंच भी, कहलाते हनुमान
मिले न अर्जुनलाल के घर में तीर-कमान
घर में तीर-कमान बदी करता है नेका
तीर्थराज ने कभी इलाहाबाद न देखा
सत्यपाल ‘काका’ की रकम डकार चुके हैं
विजयसिंह दस बार इलैक्शन हार चुके हैं


सुखीराम जी अति दुखी, दुखीराम अलमस्त
हिकमतराय हकीमजी रहें सदा अस्वस्थ
रहें सदा अस्वस्थ, प्रभू की देखो माया
प्रेमचंद ने रत्ती-भर भी प्रेम न पाया
कहँ ‘काका’, जब व्रत-उपवासों के दिन आते
त्यागी साहब, अन्न त्यागकर रिश्वत खाते


रामराज के घाट पर आता जब भूचाल
लुढ़क जाएँ श्री तख्तमल, बैठें घूरेलाल
बैठें घूरेलाल रंग किस्मत दिखलाती
इतरसिंह के कपड़ों में भी बदबू आती
कहँ ‘काका’ गंभीरसिंह मुँह फाड़ रहे हैं
महाराज लाला की गद्दी झाड़ रहे हैं


दूधनाथ जी पी रे सपरेटा की चाय
गुरु गोपालप्रसाद के घर में मिली न गाय
घर में मिली न गाय, समझ लो असली कारण
मक्खन छोड़ डालडा खाते बृजनारायण
‘काका’, प्यारेलाल सदा गुर्राते देखे
हरिश्चंद्रजी झूठे केस लड़ाते देखे


रूपराम के रूप की निंदा करते मित्र
चकित रह गए देखकर कामराज का चित्र
कामराज का चित्र, थक गए करके विनती
यादराम को याद न होती सौ तक गिनती
कहँ ‘काका’ कविराय, बड़े निकले बेदर्दी
भरतराम ने चरतराम पर नालिश कर दी


नाम-धाम से काम का, क्या है सामंजस्य ?
किसी पार्टी के नहीं झंडाराम सदस्य
झंडाराम सदस्य, भाग्य की मिटे न रेखा
स्वर्णसिंह के हाथ कड़ा लोहे का देखा
कहँ ‘काका’, कंठस्थ करो, यह बड़े काम की
माला पूरी हुई एक सौ आठ नाम की


मसूरी यात्रा / काका हाथरसी

देवी जी कहने लगीं, कर घूँघट की आड़
हमको दिखलाए नहीं, तुमने कभी पहाड़
तुमने कभी पहाड़, हाय तकदीर हमारी
इससे तो अच्छा, मैं नर होती, तुम नारी
कहँ ‘काका’ कविराय, जोश तब हमको आया
मानचित्र भारत का लाकर उन्हें दिखाया


देखो इसमें ध्यान से, हल हो गया सवाल
यह शिमला, यह मसूरी, यह है नैनीताल
यह है नैनीताल, कहो घर बैठे-बैठे-
दिखला दिए पहाड़, बहादुर हैं हम कैसे ?
कहँ ‘काका’ कवि, चाय पिओ औ’ बिस्कुट कुतरो
पहाड़ क्या हैं, उतरो, चढ़ो, चढ़ो, फिर उतरो


यह सुनकर वे हो गईं लड़ने को तैयार
मेरे बटुए में पड़े, तुमसे मर्द हज़ार
तुमसे मर्द हज़ार, मुझे समझा है बच्ची ?
बहका लोगे कविता गढ़कर झूठी-सच्ची ?
कहँ ‘काका’ भयभीत हुए हम उनसे ऐसे
अपराधी हो कोतवाल के सम्मुख जैसे


आगा-पीछा देखकर करके सोच-विचार
हमने उनके सामने डाल दिए हथियार
डाल दिए हथियार, आज्ञा सिर पर धारी
चले मसूरी, रात्रि देहरादून गुजारी
कहँ ‘काका’, कविराय, रात-भर पड़ी नहीं कल
चूस गए सब ख़ून देहरादूनी खटमल


सुबह मसूरी के लिए बस में हुए सवार
खाई-खंदक देखकर, चढ़ने लगा बुखार
चढ़ने लगा बुखार, ले रहीं वे उबकाई
नींबू-चूरन-चटनी कुछ भी काम न आई
कहँ ‘काका’, वे बोंली, दिल मेरा बेकल है
हमने कहा कि पति से लड़ने का यह फल है


उनका ‘मूड’ खराब था, चित्त हमारा खिन्न
नगरपालिका का तभी आया सीमा-चिह्न
आया सीमा-चिह्न, रुका मोटर का पहिया
लाओ टैक्स, प्रत्येक सवारी डेढ़ रुपैया
कहँ ‘काका’ कवि, हम दोनों हैं एक सवारी
आधे हम हैं, आधी अर्धांगिनी हमारी


बस के अड्डे पर खड़े कुली पहनकर पैंट
हमें खींचकर ले गए, होटल के एजेंट
होटल के एजेंट, पड़े जीवन के लाले
दोनों बाँहें खींच रहे, दो होटल वाले
एक कहे मेरे होटल का भाड़ा कम है
दूजा बोला, मेरे यहाँ ‘फ्लैश-सिस्टम’ है


हे भगवान ! बचाइए, करो कृपा की छाँह
ये उखाड़ ले जाएँगे, आज हमारी बाँह
आज हमारी बाँह, दौड़कर आओ ऐसे
तुमने रक्षा करी ग्राह से गज की जैसे
कहँ ‘काका’ कवि, पुलिस-रूप धरके प्रभु आए
चक्र-सुदर्शन छोड़, हाथ में हंटर लाए


रख दाढ़ी पर हाथ हम, देख रहे मजदूर
रिक्शेवाले ने कहा, आदावर्ज हुजूर
आदावर्ज हुजूर, रखूँ बिस्तरा-टोकरी ?
मसजिद में दिलवा दूँ तुमको मुफ्त कोठरी ?
कहँ ‘काका’ कवि, क्या बकता है गाड़ीवाले
सभी मियाँ समझे हैं तुमने दाढ़ी वाले ?


चले गए अँगरेज पर, छोड़ गए निज छाप
भारतीय संस्कृति यहाँ सिसक रही चुपचाप
सिसक रही चुपचाप, बीवियां घूम रही हैं
पैंट पहनकर ‘मालरोड’ पर झूम रही हैं
कहँ ‘काका’, जब देखोगे लल्लू के दादा
धोखे में पड़ जाओगे, नर है या मादा


बीवी जी पर हो गया फैसन भूत सवार
संडे को साड़ी बँधी, मंडे को सलवार
मंडे को सलवार, बॉबकट बाल देखिए
देशी घोड़ी, चलती इंगलिश चाल देखिए
कहँ ‘काका’, फिर साहब ही क्यों रहें अछूते
आठ कोट, दस पैंट, अठारह जोड़ी जूते


भूल गए निज सभ्यता, बदल गया परिधान
पाश्चात्य रँग में रँगी, भारतीय संतान
भारतीय संतान रो रही माता हिंदी
आज सुहागिन नारि लगाना भूली बिंदी
कहँ ‘काका’ कवि, बोलो बच्चो डैडी-मम्मी
माता और पिता कहने की प्रथा निकम्मी


मित्र हमारे मिल गए कैप्टिन घोड़ासिंग
खींच ले गए ‘रिंक’ में देखी स्केटिंग
देखी स्केटिंग, हृदय हम मसल रहे थे
चंपो के संग मिस्टर चंपू फिसल रहे थे
काकी बोली-क्यों जी, ये किस तरह लुढ़कते
चाभी भरी हुई है या बिजली से चलते ?


हाथ जोड़ हमने कहा, लालाजी तुम धन्य
जीवन-भर करते रहो, इसी कोटि के पुन्य
इसी कोटि के पुन्य, नाम भारत में पाओ
बिना टिकट, वैकुंठ-धाम को सीधे जाओ
कहँ काकी ललकार-अरे यह क्या ले आए
बुद्धू हो तुम, पानी के पैसे दे आए ?


हलवाई कहने लगा, फेर मूँछ पर हाथ
दूध और जल का रहा आदिकाल से साथ
आदिकाल से साथ, कौन इससे बच सकता ?
मंसूरी में खालिस दूध नहीं पच सकता
सुन ‘काका’, हम आधा पानी नहीं मिलाएँ
पेट फूल दस-बीस यात्री नित मर जाएँ


पानी कहती हो इसे, तुम कैसी नादान ?
यह, मंसूरी ‘मिल्क’ है, जानो अमृत समान
जानो अमृत समान, अगर खालिस ले आते
आज शाम तक हम दोनों निश्चित मर जाते
कहँ ‘काका’, यह सुनकर और चढ़ गया पारा
गर्म हुईं वे, हृदय खौलने लगा हमारा


उनका मुखड़ा क्रोध से हुआ लाल तरबूज
और हमारी बुद्धि का बल्ब हो गया फ्यूज
बल्ब हो गया फ्यूज, दूध है अथवा पानी
यह मसला गंभीर बहुत है, मेरी रानी
कहँ ‘काका’ कवि, राष्ट्रसंघ में ले जाएँगे
अथवा इस पर ‘जनमत-संग्रह’ करवाएँगे


शीतयुद्ध-सा छिड़ गया, बढ़ने लगा तनाव
लालबुझक्कड़ आ गए, करने बीच-बचाव
करने बीच-बचाव, खोल निज मुँह का फाटक
एक साँस में सभी दूध पी गए गटागट
कहँ ‘काका’, यह न्याय देखकर काकी बोली-
चलो हाथरस, मंसूरी को मारो गोली


धमधूसर कव्वाल / काका हाथरसी

मेरठ में हमको मिले धमधूसर कव्वाल
तरबूजे सी खोपड़ी, ख़रबूजे से गाल
ख़रबूजे से गाल, देह हाथी सी पाई
लंबाई से ज़्यादा थी उनकी चौड़ाई
बस से उतरे, इक्कों के अड्डे तक आये
दर्शन कर घोड़ों ने आँसू टपकाये
रिक्शे वाले डर गये, डील-डौल को देख
हिम्मत कर आगे बढ़ा, ताँगे वाला एक
ताँगे वाला एक, चार रुपये मैं लूँगा
दो फ़ेरी कर, हुज़ूर को पहुँचा दूँगा


मँहगाई / काका हाथरसी

जन-गण मन के देवता, अब तो आँखें खोल
महँगाई से हो गया, जीवन डाँवाडोल
जीवन डाँवाडोल, ख़बर लो शीघ्र कृपालू
कलाकंद के भाव बिक रहे बैंगन-आलू
कहँ 'काका' कवि, दूध-दही को तरसे बच्चे
आठ रुपये के किलो टमाटर, वह भी कच्चे

राशन की दुकान पर, देख भयंकर भीर
'क्यू' में धक्का मारकर, पहुँच गये बलवीर
पहुँच गये बलवीर, ले लिया नंबर पहिला
खड़े रह गये निर्बल, बूढ़े, बच्चे, महिला
कहँ 'काका' कवि, करके बंद धरम का काँटा
लाला बोले-भागो, खत्म हो गया आटा



संग्रह/काका के प्रहसन / काका हाथरसी

हास्याष्टक / काका हाथरसी

‘काका’ से कहने लगे, शिवानंद आचार्य
रोना-धोना पाप है, हास्य पुण्य का कार्य
हास्य पुण्य का कार्य, उदासी दूर भगाओ
रोग-शोक हों दूर, हास्यरस पियो-पिलाओ
क्षणभंगुर मानव जीवन, मस्ती से काटो
मनहूसों से बचो, हास्य का हलवा चाटो
आमंत्रित हैं, सब बूढ़े-बच्चे, नर-नारी
‘काका की चौपाल’ प्रतीक्षा करे तुम्हारी

कौन क्या-क्या खाता है ? / काका हाथरसी

कौन क्या-क्या खाता है ?
खान-पान की कृपा से, तोंद हो गई गोल,
रोगी खाते औषधी, लड्डू खाएँ किलोल।
लड्डू खाएँ किलोल, जपें खाने की माला,
ऊँची रिश्वत खाते, ऊँचे अफसर आला।
दादा टाइप छात्र, मास्टरों का सर खाते,
लेखक की रायल्टी, चतुर पब्लिशर खाते।

दर्प खाय इंसान को, खाय सर्प को मोर,
हवा जेल की खा रहे, कातिल-डाकू-चोर।
कातिल-डाकू-चोर, ब्लैक खाएँ भ्रष्टाजी,
बैंक-बौहरे-वणिक, ब्याज खाने में राजी।
दीन-दुखी-दुर्बल, बेचारे गम खाते हैं,
न्यायालय में बेईमान कसम खाते हैं।

सास खा रही बहू को, घास खा रही गाय,
चली बिलाई हज्ज को, नौ सौ चूहे खाय।
नौ सौ चूहे खाय, मार अपराधी खाएँ,
पिटते-पिटते कोतवाल की हा-हा खाएँ।
उत्पाती बच्चे, चच्चे के थप्पड़ खाते,
छेड़छाड़ में नकली मजनूँ, चप्पल खाते।

सूरदास जी मार्ग में, ठोकर-टक्कर खायं,
राजीव जी के सामने मंत्री चक्कर खायं।
मंत्री चक्कर खायं, टिकिट तिकड़म से लाएँ,
एलेक्शन में हार जायं तो मुँह की खाएँ।
जीजाजी खाते देखे साली की गाली,
पति के कान खा रही झगड़ालू घरवाली।

मंदिर जाकर भक्तगण खाते प्रभू प्रसाद,
चुगली खाकर आ रहा चुगलखोर को स्वाद।
चुगलखोर को स्वाद, देंय साहब परमीशन,
कंट्रैक्टर से इंजीनियर जी खायं कमीशन।
अनुभवहीन व्यक्ति दर-दर की ठोकर खाते,
बच्चों की फटकारें, बूढ़े होकर खाते।

दद्दा खाएँ दहेज में, दो नंबर के नोट,
पाखंडी मेवा चरें, पंडित चाटें होट।
पंडित चाटें होट, वोट खाते हैं नेता,
खायं मुनाफा उच्च, निच्च राशन विक्रेता।
काकी मैके गई, रेल में खाकर धक्का,
कक्का स्वयं बनाकर खाते कच्चा-पक्का।


संग्रह/लूटनीति मंथन करि / काका हाथरसी

काका दोहावली / काका हाथरसी


मेरी भाव बाधा हरो, पूज्य बिहारीलाल
दोहा बनकर सामने, दर्शन दो तत्काल।


अँग्रेजी से प्यार है, हिंदी से परहेज,
ऊपर से हैं इंडियन, भीतर से अँगरेज।


अँखियाँ मादक रस-भरी, गज़ब गुलाबी होंठ,
ऐसी तिय अति प्रिय लगे, ज्यों दावत में सोंठ।


अंतरपट में खोजिए, छिपा हुआ है खोट,
मिल जाएगी आपको, बिल्कुल सत्य रिपोट।


अंदर काला हृदय है, ऊपर गोरा मुक्ख,
ऐसे लोगों को मिले, परनिंदा में सुक्ख।


अंधकार में फेंक दी, इच्छा तोड़-मरोड़
निष्कामी काका बने, कामकाज को छोड़।


अंध धर्म विश्वास में, फँस जाता इंसान,
निर्दोषों को मारकर, बन जाता हैवान।


अंधा प्रेमी अक्ल से, काम नहीं कुछ लेय,
प्रेम-नशे में गधी भी, परी दिखाई देय।


अक्लमंद से कह रहे, मिस्टर मूर्खानंद,
देश-धर्म में क्या धरा, पैसे में आनंद।


अगर चुनावी वायदे, पूर्ण करे सरकार,
इंतज़ार के मज़े सब, हो जाएँ बेकार।


अगर फूल के साथ में, लगे न होते शूल,
बिना बात ही छेड़ते, उनको नामाकूल।


अगर मिले दुर्भाग्य से, भौंदू पति बेमेल,
पत्नी का कर्त्तव्य है, डाले नाक नकेल।


अगर ले लिया कर्ज कुछ, क्या है इसमें हर्ज़,
यदि पहचानोगे उसे, माँगे पिछला क़र्ज़।


अग्नि निकलती रगड़ से, जानत हैं सब कोय,
दिल टकराए, इश्क की बिजली पैदा होय।


अच्छी लगती दूर से मटकाती जब नैन,
बाँहों में आ जाए तब बोले कड़वे बैन।


अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम,
चाचा मेरे कह गए, कर बेटा आराम।


अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम,
भाग्यवाद का स्वाद ले, धंधा काम हराम।


अति की बुरी कुरूपता, अति का भला न रूप,
अति का भला न बरसना अति भली न धूप।


अति की भली न दुश्मनी, अति का भला न प्यार
तू तू मैं मैं जब हुई प्यार हुआ बेकार।


अति की भली न बेरुखी, अति का भला न प्यार
अति की भली न मिठाई, अति का भला न खार।


अति की वर्षा भी बुरी, अति की भली न धूप,
अति की बुरी कूरुपता, अति का भला न रूप।


अधिक समय तक चल नहीं, सकता वह व्यापार,
जिसमें साझीदार हों, लल्लू-पंजू यार।


अधिकारी के आप तब, बन सकते प्रिय पात्र
काम छोड़ नित नियम से, पढ़िए, चमचा-शास्त्र।


अपना स्वारथ साधकर, जनता को दे कष्ट,
भ्रष्ट आचरण करे जो वह नेता हो भ्रष्ट।


अपनी आँख तरेर कर, जब बेलन दिखलाय,
अंडा-डंडा गिर पड़ें, घर ठंडा हो जाय।


अपनी गलती नहिं दिखे, समझे खुद को ठीक,
मोटे-मोटे झूठ को, पीस रहा बारीक।


अपनी ही करता रहे, सुने न दूजे तर्क,
सभी तर्क हों व्यर्थ जब, मूरख करे कुतर्क|


संग्रह/खिलखिलाहट / काका हाथरसी

डर था उसका / डा.अजय चौधरी

लुट जाने का डर था उसका
आबादी में घर था उसका
उस बस्ती में जीना कैसा
मरना भी दूभर था उसका
दिल की बातें खाक समझता
दिल भी तो पत्थर था उसका
उड़ने में ही था जो बाधक
अपना घायल पर था उसका
रहता था वो डरा-डरा सा
कहने को तो घर था उसका

पैदावार / अनिल धमाका

हमसे पूछा गया
‘किन्हीं दो फ़सलों के नाम बताएँ
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद लगातार
बढ़ रही हो जिनकी पैदावार।’
हमने कहा-‘भ्रष्टाचार व आतंकवाद।’


झूठ / अनिल धमाका

मंत्री जी से पूछा गया-
‘अपने जीवन का
कोई महत्त्वपूर्ण झूठ बताइए।’
वो बोले-
‘मेरे भाषणों की
प्रतियाँ ले जाइए।’

कुत्ते तभी भौंकते हैं / अल्हड़ बीकानेरी

रामू जेठ बहू से बोले, मत हो बेटी बोर
कुत्ते तभी भौंकते हैं जब दिखें गली में चोर
वफ़ादार होते हैं कुत्ते, नर हैं नमक हराम
मिली जिसे कुत्ते की उपमा, चमका उसका नाम
दिल्ली क्या, पूरी दुनिया में मचा हुआ है शोर
हैं कुत्ते की दुम जैसे ही, टेढ़े सभी सवाल
जो जबाव दे सके, कौन है वह माई का लाल
देख रहे टकटकी लगा, सब स्वीडन की ओर
प्रजातंत्र का प्रहरी कुत्ता, करता नहीं शिकार
रूखा-सूखा टुकड़ा खाकर लेटे पाँव पसार
बँगलों के बुलडॉग यहाँ सब देखे आदमख़ोर
कुत्ते के बजाय कुरते का बैरी, यह नाचीज़
मुहावरों के मर्मज्ञों को, इतनी नहीं तमीज़
पढ़ने को नित नई पोथियाँ, रहे ढोर के ढोर
दिल्ली के कुछ लोगों पर था चोरी का आरोप
खोजी कुत्ता लगा सूँघने अचकन पगड़ी टोप
जकड़ लिया कुत्ते ने मंत्री की धोती का छोर
तो शामी केंचुआ कह उठा, ‘हूँ अजगर’ का बाप
ऐसी पटकी दी पिल्ले ने, चित्त हुआ चुपचाप
साँपों का कर चुके सफाया हरियाणा के मोर।

संग्रह/काका तरंग / काका हाथरसी

कार के करिश्मे / काका हाथरसी

रोजाना हम बंबा पर ही घूमा करते
उस दिन पहुँचे नहर किनारे
वहाँ मिल गए बर्मन बाबू
बाँह गले में डाल कर लिया दिल पर काबू


कहने लगे-
क्यों भई काका, तुम इतने मशहूर हो गए
फिर भी अब तक कार नहीं ली ?
ट्रेनों में धक्के खाते हो, तुमको शोभा देता ऐसा,
कहाँ धरोगे जोड़-जोड़कर इतना पैसा ?


बेच रहे हैं अपनी (पुरानी) गाड़ी-
साँवलराम सूतली वाले
दस हजार वे माँग रहे हैं
पट जाएँगे, आठ-सात में
हिम्मत हो तो करूँ बात मैं ?


हमने कहा-
नहीं मित्रवर, तुमको शायद पता नहीं है
छोटी कारें बना रहा है, हमारे दोस्त का बेटा संजय
जय हो उसकी,
सर्वप्रथम अपना न्यू मॉडल
काका कवि को भेंट करेगा।
हमने भी तो जगह-जगह कविसम्मेलन में कविता गाई


एलेक्शन में जीत कराई।
हँसकर बोले बर्मन भाई-
वाह, वाह जी,
जब तक कार बनेगी उनकी,
तब तक आप रहेंगे जिंदा ?
भज गोविंदा, भज गोविंदा।


तो बर्मन जी,
हम तो केवल पाँच हजार लगा सकते हैं,
इतने में करवा दो काम,
जय रघुनंदन, जय सियाराम।
तोड़ फैसला हुआ कार का छह हजार में,
घर्र-घर्र का शोर मचाती कार हमारे घर पर आई
भीड़ लग गई, मच गया हल्ला,
हुए इकट्ठे लोग-लुगाई, लल्ली-लल्ला।
हमने पूछा-


‘क्यों बर्मन जी, शोर बहुत करती है गाड़ी ?’
‘शोर बहुत करती है गाड़ी ? कभी खरीदी भी है मोटर,
जितना ज्यादा शोर करेगी, उतनी कम दुर्घटना होगी
भीड़ स्वयं ही हटती जाए,
काई-जैसी फटती जाए,
बहरा भी भागे आगे से,
बिना हॉर्न के चले जाइए सर्राटे से।


‘बिना हॉर्न के ? तो क्या इसमें हॉर्न नहीं है ?’
‘हॉर्न बिचारा कैसे बोले,
काम नहीं कर रही बैटरी’
‘काम नहीं कर रही बैटरी ?
लाइट कैसे जलती होगी ?’
‘लाइट से क्या मतलब तुमको,
यह तो क्लासीकल गाड़ी है,
देखो कक्कू,
सफर आजकल दिन का ही अच्छा रहता है
कभी रात में नहीं निकलना।


डाकू गोली मार दिया करते टायर में
गाड़ी का गोबर हो जाए इक फायर में
रही हॉर्न की बात,
पाँच रुपए में लग जाएगा
पौं-पौं वाला (रबड़ का)
लेकिन नहीं जरूरत उसकी
बड़े-बड़े शहरों में होते,
साइलैंस एरिया ऐसे
वहाँ बजा दे कोई हौरन,
गिरफ्तार हो जाए फौरन


नाम गिरफ्तारी का सुनकर बात मान ली।
‘एक प्रश्न और है भाई,
उसकी भी हो जाए सफाई।’
‘बोलो-बोलो, जल्दी बोलो ?’
ड्राइवर बाबूसिंह कह रहा-
तेल अधिक खाती है गाड़ी ?’
‘काका जी तुम बूढ़े हो गए,
फिर भी बातें किए जा रहे बच्चों जैसी।


जितना ज्यादा खाएगा वह उतना ज्यादा काम करेगा’
तार-तार हो गए तर्क सब, रख ली गाड़ी।
उस दिन घर में लहर खुशी की ऐसी दौड़ी
जैसे हमको सीट मिल गई लोकसभा की
कूद रहे थे चकला-बेलन,
उछल रहे थे चूल्हे-चाकी
खुश थे बालक, खुश थी काकी
हुआ सवेरा-


चलो बालको तुम्हें घुमा लाएँ बाजार में
धक्के चार लगाते ही स्टार्ट हो गई।
वाह-वाह,
कितनी अच्छी है यह गाड़ी
धक्कों से ही चल देती है
हमने तो कुछ मोटरकारें
रस्सों से खिंचती देखी हैं
नएगंज से घंटाघर तक,
घंटाघर से नएगंज तक
चक्कर चार लगाए हमने।


खिड़की से बाहर निकाल ली अपनी दाढ़ी,
मालुम हो जाए जनता को,
काका ने ले ली है गाड़ी
खबर दूसरे दिन की सुनिए-
अखबारों में न्यूज आ गई-
नए बजट में पैट्रोल पर टैक्स बढ़ गया।
जय बमभोले, मूंड मुड़ाते पड़ गए ओले।
फिर भी साहस रक्खा हमने-
सोचा, तेल मिला लेंगे मिट्टी का पैट्रोल में
धूआँ तो कुछ बढ़ जाएगा,
औसत वह ही पड़ जाएगा।


दोपहर के तीन बजे थे-
खट-खट की आवाज सुनी, दरवाजा खोला-
खड़ा हुआ था एक सिपाही वर्दीधारी,
हमने पूछा,
कहिए मिस्टर
क्या सेवा की जाए तुम्हारी ?
बाएँ हाथ से दाई मूँछ ऐंठ कर बोला-
कार आपकी इंस्पेक्टर साहब को चाहिए,
मेमसाहब को आज आगरा ले जाएँगे फिल्म दिखाने,
पैट्रोल डलवाकर गाड़ी,
जल्दी से भिजवा दो थाने।
हमने सोचा-


वाह वाह यह देश हमारा
गाड़ी तो पीछे आती है, खबर पुलिस को
पहले से ही लग जाती है।
कितने सैंसिटिव हैं भारत के सी.आई.डी.
तभी ‘तरुण’ कवि बोले हमसे-
बड़े भाग्यशाली हो काका !
कोतवाल ने गाड़ी माँगी, फौरन दे दो
क्यों पड़ते हो पसोपेश में ?


मना करो तो फँस जाओगे किसी केस में।
एक कनस्तर तेल पिलाकर
कार रवाना कर दी थाने
चले गए हम खाना खाने।
आधा घंटा बाद सिपाही फिर से आया, बोला-
‘स्टैपनी दीजिए।’
हमने आँख फाड़कर पूछा-
स्टैपनी क्या ?
‘क्यों बनते हो,


गाड़ी के मालिक होकर भी नहीं जानते
हमने कहा-
सिपाही भइया
अपनी गाड़ी सिर्फ चार पहियों से चलती
कोई नहीं पाँचवा पहिया,
लौट गया तत्काल सिपहिया।


मोटर वापस आ जानी थी, अर्धरात्रि तक,
घर्र-घर्र की उत्कंठा में कान लगाए रहे रातभर ऐसे
अपना पूत लौटकर आता हो विदेश से जैसे
सुबह 10 बजे गाड़ी आई
इंस्पेक्टर झल्लाकर बोला-
शर्म नहीं आती है तुमको-


ऐसी रद्दी गाड़ी दे दी
इतना धूआँ छोड़ा इसने,
मेमसाहब को उल्टी हो गई।
हमने कहा-
उल्टी हो गई, तो हम क्या करें हुजूर
थाने को भेजी थी तब बिल्कुल सीधी थी।

सारे जहाँ से अच्छा है इंडिया हमारा / काका हाथरसी

सारे जहाँ से अच्छा है इंडिया हमारा
हम भेड़-बकरी इसके यह ग्वारिया हमारा

सत्ता की खुमारी में, आज़ादी सो रही है
हड़ताल क्यों है इसकी पड़ताल हो रही है
लेकर के कर्ज़ खाओ यह फर्ज़ है तुम्हारा
सारे जहाँ से अच्छा...

चोरों व घूसखोरों पर नोट बरसते हैं
ईमान के मुसाफिर राशन को तरशते हैं
वोटर से वोट लेकर वे कर गए किनारा
सारे जहाँ से अच्छा...

जब अंतरात्मा का मिलता है हुक्म काका
तब राष्ट्रीय पूँजी पर वे डालते हैं डाका
इनकम बहुत ही कम है होता नहीं गुज़ारा
सारे जहाँ से अच्छा...

हिन्दी के भक्त हैं हम, जनता को यह जताते
लेकिन सुपुत्र अपना कांवेंट में पढ़ाते
बन जाएगा कलक्टर देगा हमें सहारा
सारे जहाँ से अच्छा...

फ़िल्मों पे फिदा लड़के, फैशन पे फिदा लड़की
मज़बूर मम्मी-पापा, पॉकिट में भारी कड़की
बॉबी को देखा जबसे बाबू हुए अवारा
सारे जहाँ से अच्छा...

जेवर उड़ा के बेटा, मुम्बई को भागता है
ज़ीरो है किंतु खुद को हीरो से नापता है
स्टूडियो में घुसने पर गोरखा ने मारा
सारे जहाँ से अच्छा...

संग्रह/जय बोलो बेईमान की / काका हाथरसी

जय बोल बेईमान की / काका हाथरसी

मन, मैला, तन ऊजरा, भाषण लच्छेदार,
ऊपर सत्याचार है, भीतर भ्रष्टाचार।
झूटों के घर पंडित बाँचें, कथा सत्य भगवान की,
जय बोलो बेईमान की !

प्रजातंत्र के पेड़ पर, कौआ करें किलोल,
टेप-रिकार्डर में भरे, चमगादड़ के बोल।
नित्य नई योजना बन रहीं, जन-जन के कल्याण की,
जय बोल बेईमान की !

महँगाई ने कर दिए, राशन-कारड फेस
पंख लगाकर उड़ गए, चीनी-मिट्टी तेल।
‘क्यू’ में धक्का मार किवाड़ें बंद हुई दूकान की,
जय बोल बेईमान की !

डाक-तार संचार का ‘प्रगति’ कर रहा काम,
कछुआ की गति चल रहे, लैटर-टेलीग्राम।
धीरे काम करो, तब होगी उन्नति हिंदुस्तान की,
जय बोलो बेईमान की !

दिन-दिन बढ़ता जा रहा काले घन का जोर,
डार-डार सरकार है, पात-पात करचोर।
नहीं सफल होने दें कोई युक्ति चचा ईमान की,
जय बोलो बेईमान की !

चैक केश कर बैंक से, लाया ठेकेदार,
आज बनाया पुल नया, कल पड़ गई दरार।
बाँकी झाँकी कर लो काकी, फाइव ईयर प्लान की,
जय बोलो बईमान की !

वेतन लेने को खड़े प्रोफेसर जगदीश,
छहसौ पर दस्तखत किए, मिले चार सौ बीस।
मन ही मन कर रहे कल्पना शेष रकम के दान की,
जय बोलो बईमान की !

खड़े ट्रेन में चल रहे, कक्का धक्का खायँ,
दस रुपए की भेंट में, थ्री टायर मिल जायँ।
हर स्टेशन पर हो पूजा श्री टी.टी. भगवान की,
जय बोलो बईमान की !

बेकारी औ’ भुखमरी, महँगाई घनघोर,
घिसे-पिटे ये शब्द हैं, बंद कीजिए शोर।
अभी जरूरत है जनता के त्याग और बलिदान की,
जय बोलो बईमान की !

मिल-मालिक से मिल गए नेता नमकहलाल,
मंत्र पढ़ दिया कान में, खत्म हुई हड़ताल।
पत्र-पुष्प से पाकिट भर दी, श्रमिकों के शैतान की,
जय बोलो बईमान की !

न्याय और अन्याय का, नोट करो जिफरेंस,
जिसकी लाठी बलवती, हाँक ले गया भैंस।
निर्बल धक्के खाएँ, तूती होल रही बलवान की,
जय बोलो बईमान की !

पर-उपकारी भावना, पेशकार से सीख,
दस रुपए के नोट में बदल गई तारीख।
खाल खिंच रही न्यायालय में, सत्य-धर्म-ईमान की,
जय बोलो बईमान की !

नेता जी की कार से, कुचल गया मजदूर,
बीच सड़कर पर मर गया, हुई गरीबी दूर।
गाड़ी को ले गए भगाकर, जय हो कृपानिधान की,
जय बोलो बईमान की!

मूर्खिस्तान ज़िंदाबाद / काका हाथरसी

स्वतंत्र भारत के बेटे और बेटियो !
माताओ और पिताओ,
आओ, कुछ चमत्कार दिखाओ।
नहीं दिखा सकते ?
तो हमारी हाँ में हाँ ही मिलाओ।
हिंदुस्तान, पाकिस्तान अफगानिस्तान
मिटा देंगे सबका नामो-निशान
बना रहे हैं-नया राष्ट्र ‘मूर्खितान’
आज के बुद्धिवादी राष्ट्रीय मगरमच्छों से
पीड़ित है प्रजातंत्र, भयभीत है गणतंत्र
इनसे सत्ता छीनने के लिए
कामयाब होंगे मूर्खमंत्र-मूर्खयंत्र
कायम करेंगे मूर्खतंत्र।

हमारे मूर्खिस्तान के राष्ट्रपति होंगे-
तानाशाह ढपोलशंख
उनके मंत्री (यानी चमचे) होंगे-
खट्टासिंह, लट्ठासिंह, खाऊलाल, झपट्टासिंह
रक्षामंत्री-मेजर जनरल मच्छरसिंह
राष्ट्रभाषा हिंदी ही रहेगी, लेकिन बोलेंगे अँगरेजी।
अक्षरों की टाँगें ऊपर होंगी, सिर होगा नीचे,
तमाम भाषाएँ दौड़ेंगी, हमारे पीछे-पीछे।
सिख-संप्रदाय में प्रसिद्ध हैं पाँच ‘ककार’-
कड़ा, कृपाण, केश, कंघा, कच्छा।
हमारे होंगे पाँच ‘चकार’-
चाकू, चप्पल, चाबुक, चिमटा और चिलम।

इनको देखते ही भाग जाएँगी सब व्याधियाँ
मूर्खतंत्र-दिवस पर दिल खोलकर लुटाएँगे उपाधियाँ
मूर्खरत्न, मूर्खभूषण, मूर्खश्री और मूर्खानंद।

प्रत्येक राष्ट्र का झंडा है एक, हमारे होंगे दो,
कीजिए नोट-लँगोट एंड पेटीकोट
जो सैनिक हथियार डालकर
जीवित आ जाएगा
उसे ‘परमूर्ख-चक्र’ प्रदान किया जाएगा।
सर्वाधिक बच्चे पैदा करेगा जो जवान
उसे उपाधि दी जाएगी ‘संतान-श्वान’
और सुनिए श्रीमान-
मूर्खिस्तान का राष्ट्रीय पशु होगा गधा,
राष्ट्रीय पक्षी उल्लू या कौआ,
राष्ट्रीय खेल कबड्डी और कनकौआ।
राष्ट्रीय गान मूर्ख-चालीसा,
राजधानी के लिए शिकारपुर, वंडरफुल !
राष्ट्रीय दिवस, होली की आग लगी पड़वा।

प्रशासन में बेईमान को प्रोत्साहन दिया जाएगा,
ईमानदार सुर्त होते हैं, बेईमान चुस्त होते हैं।
वेतन किसी को नहीं मिलेगा,
रिश्वत लीजिए,
सेवा कीजिए !

‘कीलर कांड’ ने रौशन किया था
इंगलैंड का नाम,
करने को ऐसे ही शुभ काम-
खूबसूरत अफसर और अफसराओं को छाँटा जाएगा
अश्लील साहित्य मुफ्त बाँटा जाएगा।

पढ़-लिखकर लड़के सीखते हैं छल-छंद,
डालते हैं डाका,
इसलिए तमाम स्कूल-कालेज
बंद कर दिए जाएँगे ‘काका'।
उन बिल्डिगों में दी जाएगी ‘हिप्पीवाद’ की तालीम
उत्पादन कर से मुक्त होंगे
भंग-चरस-शराब-गंजा-अफीम
जिस कवि की कविताएँ कोई नहीं समझ सकेगा,
उसे पाँच लाख का ‘अज्ञानपीठ-पुरस्कार मिलेगा।
न कोई किसी का दुश्मन होगा न मित्र,
नोटों पर चमकेगा उल्लू का चित्र!

नष्ट कर देंगे-
धड़ेबंदी गुटबंदी, ईर्ष्यावाद, निंदावाद।
मूर्खिस्तान जिंदाबाद!

संग्रह/यार सप्तक / काका हाथरसी

अल्हड़ बीकानेरी / काका हाथरसी

अल्हड़ जी का स्वर मधुर, गोरा-चिट्टा चाम।
‘श्यामलाल’ क्यों रख दिया, घरवालों ने नाम।
घर वालों ने नाम, ‘शकीला’ पीटे ताली।
हमको दे दो, मूँगफली वाली कव्वाली।
इसे मंच पर गाने में जो होगी इनकम।
आधी तुम ले लेना, आधी ले लेंगे हम।

मॉर्डन रसिया / अल्हड़ बीकानेरी

असली माखन कहाँ आजकल ‘शार्टेज’ है भारी
चरबी वारौ ‘बटर’ मिलैगो फ्रिज में, हे बनवारी
आधी टिकिया मुख लिपटाय जइयो
बुलाय गई राधा प्यारी
कान्हा, बरसाने में आय जइयो
बुलाय गई राधा प्यारी।


मटकी रीती पड़ी दही की, बड़ी अजब लाचारी,
सपरेटा कौ दही मिलैगो कप में, हे बनवारी
छोटी चम्मच भर कै खाय जइयो
बुलाय गई राधा प्यारी
कान्हा, बरसाने में आय जइयो
बुलाय गई राधा प्यारी।


नंदन वन के पेड़ कट गए, बने पार्क सरकारी
‘ट्विस्ट’ करत गोपियाँ मिलैंगी जिनमें, हे बनवारी
‘‘संडे’ के दिन रास रचाय जइयो
बुलाय गई राधा प्यारी
कान्हा, बरसाने में आय जइयो
बुलाय गई राधा प्यारी।


जमना-तट सुनसान, मौन है बाँसुरिया बेचारी
गूँजत मधुर गिटार मिलैगो ब्रज में, हे बनवारी
फिल्मी डिस्को ट्यून सुनाय जइयो
बुलाय गई राधा प्यारी


कान्हा, बरसाने में आय जइयो
बुलाय गई राधा प्यारी।
सुखे ब्रज के ताल, गोपियाँ ‘स्विमिंग-पूल’ बलिहारी
पहने ‘बेदिंग सूट’ मिलैंगी जल में, हे बनवारी
उनके कपड़े चुस्त चुराय जइयो
बुलाय गई राधा प्यारी।
कान्हा, बरसाने में आय जइयो
बुलाय गई राधा प्यारी।


‘रॉकेट’ बन उड़ गई चाँद पर रंग-भरी पिचकारी
गोपिन गोबर लिए मिलैंगी कर में, हे बनवारी
मुखड़ौ होली पै लिपवाय जइयो
बुलाय गई राधा प्यारी
कान्हा, बरसाने में आय जइयो
बुलाय गई राधा प्यारी।
सूनौ पनघट, फूटी गगरी, मेम बनी ब्रजनारी
जूड़ौ गुंबद-छाप मिलौंगो सिर पै, हे बनवारी
दरसन कर कै, प्यास बुझाय जइयो
बुलाय गई राधा प्यारी
कान्हा, बरसाने में आय जइयो
बुलाय गई राधा प्यारी।


संग्रह/काका के व्यंग्य बाण / काका हाथरसी

व्यंग्य एक नश्तर है / काका हाथरसी

व्यंग्य एक नश्तर है
ऐसा नश्तर, जो समाज के सड़े-गले अंगों की
शल्यक्रिया करता है
और उसे फिर से स्वस्थ बनाने में सहयोग भी।
काका हाथरसी यदि सरल हास्यकवि हैं
तो उन्होंने व्यंग्य के तीखे बाण भी चलाए हैं।
उनकी कलम का कमाल कार से बेकार तक
शिष्टाचार से भ्रष्टाचार तक
विद्वान से गँवार तक
फ़ैशन से राशन तक
परिवार से नियोजन तक
रिश्वत से त्याग तक
और कमाई से महँगाई तक
सर्वत्र देखने को मिलता है।


सफल लेखक / काका हाथरसी

दस ग्रंथो से टीपकर पुस्तक की तैय्यार ।
उस पुस्तक पर मिल गया पुरस्कार सरकार ॥
पुरस्कार सरकार लेखनी सरपट रपटे ।
सूझ-बूझ मौलिकता, भय से पास न फटके ॥
जोड़-तोड़ में कुशल पहुँच है ऊँची जिसकी ।
धन्य होय साहित्य बोलती तूती उसकी ॥

झूठ माहात्म्य / काका हाथरसी

झूठ बराबर तप नहीं, साँच बराबर पाप
जाके हिरदे साँच है, बैठा-बैठा टाप
बैठा-बैठा टाप, देख लो लाला झूठा
'सत्यमेव जयते' को दिखला रहा अँगूठा
कहँ ‘काका ' कवि, इसके सिवा उपाय न दूजा
जैसा पाओ पात्र, करो वैसी ही पूजा

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