गोपालदास नीरज की ग़ज़लें (हिंदी) / Gopal Das Neeraj Ghazal

 तमाम उम्र मैं इक अजनबी के घर में रहा / गोपालदास "नीरज"

तमाम उम्र मैं इक अजनबी के घर में रहा ।
सफ़र न करते हुए भी किसी सफ़र में रहा ।

वो जिस्म ही था जो भटका किया ज़माने में,
हृदय तो मेरा हमेशा तेरी डगर में रहा ।

तू ढूँढ़ता था जिसे जा के बृज के गोकुल में,
वो श्याम तो किसी मीरा की चश्मे-तर में रहा ।

वो और ही थे जिन्हें थी ख़बर सितारों की,
मेरा ये देश तो रोटी की ही ख़बर में रहा ।

हज़ारों रत्न थे उस जौहरी की झोली में,
उसे कुछ भी न मिला जो अगर-मगर में रहा ।

हम तेरी चाह में, ऐ यार ! वहाँ तक पहुँचे / गोपालदास "नीरज"

हम तेरी चाह में, ऐ यार ! वहाँ तक पहुँचे ।
होश ये भी न जहाँ है कि कहाँ तक पहुँचे ।

इतना मालूम है, ख़ामोश है सारी महफ़िल,
पर न मालूम, ये ख़ामोशी कहाँ तक पहुँचे ।

वो न ज्ञानी ,न वो ध्यानी, न बिरहमन, न वो शेख,
वो कोई और थे जो तेरे मकाँ तक पहुँचे ।

एक इस आस पे अब तक है मेरी बन्द जुबाँ,
कल को शायद मेरी आवाज़ वहाँ तक पहुँचे ।

चाँद को छूके चले आए हैं विज्ञान के पंख,
देखना ये है कि इन्सान कहाँ तक पहुँचे ।


अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए / गोपालदास "नीरज"

अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए।
जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए।

जिसकी ख़ुशबू से महक जाय पड़ोसी का भी घर
फूल इस क़िस्म का हर सिम्त खिलाया जाए।

आग बहती है यहाँ गंगा में झेलम में भी
कोई बतलाए कहाँ जाके नहाया जाए।

प्यार का ख़ून हुआ क्यों ये समझने के लिए
हर अँधेरे को उजाले में बुलाया जाए।

मेरे दुख-दर्द का तुझ पर हो असर कुछ ऐसा
मैं रहूँ भूखा तो तुझसे भी न खाया जाए।

जिस्म दो होके भी दिल एक हों अपने ऐसे
मेरा आँसू तेरी पलकों से उठाया जाए।

गीत उन्मन है, ग़ज़ल चुप है, रूबाई है दुखी
ऐसे माहौल में ‘नीरज’ को बुलाया जाए।

दूर से दूर तलक एक भी दरख्त न था / गोपालदास "नीरज"

दूर से दूर तलक एक भी दरख्त न था|
तुम्हारे घर का सफ़र इस क़दर सख्त न था।

इतने मसरूफ़ थे हम जाने के तैयारी में,
खड़े थे तुम और तुम्हें देखने का वक्त न था।

मैं जिस की खोज में ख़ुद खो गया था मेले में,
कहीं वो मेरा ही एहसास तो कमबख्त न था।

जो ज़ुल्म सह के भी चुप रह गया न ख़ौल उठा,
वो और कुछ हो मगर आदमी का रक्त न था।

उन्हीं फ़क़ीरों ने इतिहास बनाया है यहाँ,
जिन पे इतिहास को लिखने के लिए वक्त न था।

शराब कर के पिया उस ने ज़हर जीवन भर,
हमारे शहर में 'नीरज' सा कोई मस्त न था।

पीछे / गोपालदास "नीरज"

गुमनामियों मे रहना, नहीं है कबूल मुझको
चलना नहीं गवारा, बस साया बनके पीछे..

वो दिल मे ही छिपा है, सब जानते हैं लेकिन
क्यूं भागते फ़िरते हैं, दायरो-हरम के पीछे..

अब “दोस्त” मैं कहूं या, उनको कहूं मैं “दुश्मन”
जो मुस्कुरा रहे हैं,खंजर छुपा के अपने पीछे..

तुम चांद बनके जानम, इतराओ चाहे जितना
पर उसको याद रखना, रोशन हो जिसके पीछे..

वो बदगुमा है खुद को, समझे खुशी का कारण
कि मैं चह-चहा रहा हूं, अपने खुदा के पीछे..

इस ज़िन्दगी का मकसद, तब होगा पूरा “नीरज”
जब लोग याद करके, मुस्कायेंगे तेरे पीछे..


है बहुत अंधियार अब सूरज निकलना चाहिये / गोपालदास "नीरज

है बहुत अंधियार अब सूरज निकलना चाहिए
जिस तरह से भी हो ये मौसम बदलना चाहिए

रोज़ जो चेहरे बदलते है लिबासों की तरह
अब जनाज़ा ज़ोर से उनका निकलना चाहिए

अब भी कुछ लोगो ने बेची है न अपनी आत्मा
ये पतन का सिलसिला कुछ और चलना चाहिए

फूल बन कर जो जिया वो यहाँ मसला गया
जीस्त को फ़ौलाद के साँचे में ढलना चाहिए

छिनता हो जब तुम्हारा हक़ कोई उस वक़्त तो
आँख से आँसू नहीं शोला निकलना चाहिए

दिल जवां, सपने जवाँ, मौसम जवाँ, शब् भी जवाँ
तुझको मुझसे इस समय सूने में मिलना चाहिए

अब के सावन में शरारत / गोपालदास "नीरज"

 अब के सावन में शरारत ये मेरे साथ हुई
मेरा घर छोड़ के कुल शहर में बरसात हुई

आप मत पूछिये क्या हम पे 'सफ़र में गुज़री?
आज तक हमसे हमारी न मुलाकात हुई

हर गलत मोड़ पे टोका है किसी ने मुझको
एक आवाज़ तेरी जब से मेरे साथ हुई

मैंने सोचा कि मेरे देश की हालत क्या है
एक क़ातिल से तभी मेरी मुलाक़ात हुई

प्रथम प्यार के चुम्बन की तरह / गोपालदास "नीरज"

जब चले जाएंगे लौट के सावन की तरह,
याद आएंगे प्रथम प्यार के चुम्बन की तरह।

ज़िक्र जिस दम भी छिड़ा उनकी गली में मेरा,
जाने शरमाए वो क्यों गांव की दुल्हन की तरह।

कोई कंघी न मिली जिससे सुलझ पाती वो,
ज़िन्दगी उलझी रही ब्रह्म के दर्शन की तरह।

दाग़ मुझमें है कि तुझमें यह पता तब होगा,
मौत जब आएगी कपड़े लिए धोबन की तरह।

हर किसी शख़्स की किस्मत का यही है किस्सा,
आए राजा की तरह ,जाए वो निर्धन की तरह।

जिसमें इन्सान के दिल की न हो धड़कन की 'नीरज',
शायरी तो है वह अख़बार की कतरन की तरह।

जितना कम सामान रहेगा / गोपालदास "नीरज"

जितना कम सामान रहेगा
उतना सफ़र आसान रहेगा

जितनी भारी गठरी होगी
उतना तू हैरान रहेगा

उससे मिलना नामुमक़िन है
जब तक ख़ुद का ध्यान रहेगा

हाथ मिलें और दिल न मिलें
ऐसे में नुक़सान रहेगा

जब तक मन्दिर और मस्जिद हैं
मुश्क़िल में इन्सान रहेगा

‘नीरज’ तो कल यहाँ न होगा
उसका गीत-विधान रहेगा

हम तुम्हें मरने न देंगे / गोपालदास "नीरज"

धूल कितने रंग बदले डोर और पतंग बदले
जब तलक जिंदा कलम है हम तुम्हें मरने न देंगे

खो दिया हमने तुम्हें तो पास अपने क्या रहेगा
कौन फिर बारूद से सन्देश चन्दन का कहेगा
मृत्यु तो नूतन जनम है हम तुम्हें मरने न देंगे।

तुम गए जब से न सोई एक पल गंगा तुम्हारी
बाग में निकली न फिर हस्ते गुलाबों की सवारी
हर किसी की आँख नम है हम तुम्हें मरने न देंगे

तुम बताते थे कि अमृत से बड़ा है हर पसीना
आँसुओं से ज्यादा कीमती है न कोई नगीना
याद हरदम वह कसम है हम तुम्हें मरने न देंगे

तुम नहीं थे व्यक्ति तुम आजादियों के कारवाँ थे
अमन के तुम रहनुमा थे प्यार के तुम पासवाँ थे
यह हकीकत है न भ्रम है हम तुम्हें मरने न देंगे

तुम लड़कपन के लड़कपन तुम जवानो की जवानी
सिर्फ दिल्ली ही न हर दिल था तुम्हारी राजधानी
प्यार वह अब भी न कम है हम तुम्हें मरने न देंगे

बोलते थे तुम न तुममें बोलता था देश सारा
बस नहीं इतिहास ही तुमने हवाओं को सवाँरा
आज फिर धरती नरम है हम तुम्हें मरने न देंगे

एक जुग ब'अद शब-ए-ग़म की सहर देखी है / गोपालदास "नीरज"


एक जुग ब'अद शब-ए-ग़म की सहर देखी है
देखने की न थी उम्मीद मगर देखी है

जिस में मज़हब के हर इक रोग का लिक्खा है इलाज
वो किताब हम ने किसी रिंद के घर देखी है

ख़ुद-कुशी करती है आपस की सियासत कैसे
हम ने ये फ़िल्म नई ख़ूब इधर देखी है

दोस्तो नाव को अब ख़ूब सँभाले रखिए
हम ने नज़दीक ही इक ख़ास भँवर देखी है

उस को क्या ख़ाक शराबों में मज़ा आएगा
जिस ने इक बार भी वो शोख़ नज़र देखी है

गगन बजाने लगा जल-तरंग फिर यारो / गोपालदास "नीरज"

गगन बजाने लगा जल-तरंग फिर यारो
कि भीगे हम भी ज़रा संग संग फिर यारो

किसे पता है कि कब तक रहेगा ये मौसम
रखा है बाँध के क्यूँ मन को रंग फिर यारो

घुमड़ घुमड़ के जो बादल घिरा अटारी पर
विहंग बन के उड़ी इक उमंग फिर यारो

कहीं पे कजली कहीं तान उट्ठी बिरहा की
हृदय में झाँक गया इक अनंग फिर यारो

पिया की बाँह में सिमटी है इस तरह गोरी
सभंग श्लेष हुआ है अभंग फिर यारो

जो रंग गीत का 'बलबीर'-जी के साथ गाया
न हम ने देखा कहीं वैसा रंग फिर यारो

जब भी इस शहर में कमरे से मैं बाहर निकला / गोपालदास "नीरज"


जब भी इस शहर में कमरे से मैं बाहर निकला
मेरे स्वागत को हर इक जेब से ख़ंजर निकला

मेरे होंटों पे दुआ उस की ज़बाँ पे गाली
जिस के अंदर जो छुपा था वही बाहर निकला

ज़िंदगी भर मैं जिसे देख कर इतराता रहा
मेरा सब रूप वो मिट्टी का धरोहर निकला

रूखी रोटी भी सदा बाँट के जिस ने खाई
वो भिकारी तो शहंशाहों से बढ़ कर निकला

क्या अजब है यही इंसान का दिल भी 'नीरज'
मोम निकला ये कभी तो कभी पत्थर निकला

ख़ुशबू सी आ रही है इधर ज़ाफ़रान की / गोपालदास "नीरज"


ख़ुशबू सी आ रही है इधर ज़ाफ़रान की
खिड़की खुली है फिर कोई उन के मकान की

हारे हुए परिंद ज़रा उड़ के देख तू
आ जाएगी ज़मीन पे छत आसमान की

ज्यूँ लूट लें कहार ही दुल्हन की पालकी
हालत यही है आज कल हिन्दोस्तान की

नीरज से बढ़ के और धनी कौन है यहाँ
उस के हृदय में पीर है सारे जहान की

बदन पे जिस के शराफ़त का पैरहन देखा / गोपालदास "नीरज"

बदन पे जिस के शराफ़त का पैरहन देखा
वो आदमी भी यहाँ हम ने बद-चलन देखा

ख़रीदने को जिसे कम थी दौलत-ए-दुनिया
किसी कबीर की मुट्ठी में वो रतन देखा

मुझे मिला है वहाँ अपना ही बदन ज़ख़्मी
कहीं जो तीर से घायल कोई हिरन देखा

बड़ा न छोटा कोई फ़र्क़ बस नज़र का है
सभी पे चलते समय एक सा कफ़न देखा

ज़बाँ है और बयाँ और उस का मतलब और
अजीब आज की दुनिया का व्याकरन देखा

लुटेरे डाकू भी अपने पे नाज़ करने लगे
उन्होंने आज जो संतों का आचरन देखा

जो सादगी है कुहन में हमारे ऐ 'नीरज'
किसी पे और भी क्या ऐसा बाँकपन देखा

जब चले जाएँगे हम लौट के सावन की तरह / गोपालदास "नीरज"

जब चले जाएँगे हम लौट के सावन की तरह
याद आयेंगे प्रथम प्यार के चुम्बन की तरह.

ज़िक्र जिस दम भी छिड़ा उनकी गली में मेरा,
जाने शरमाए वो क्यूँ गाँव की दुल्हन की तरह.

मेरे घर कोई ख़ुशी आती तो कैसे आती?
उम्र-भर साथ रहा दर्द महाजन की तरह.

कोई कंघी न मिली जिससे सुलझ पाती वो,
ज़िंदगी उलझी रही ब्रह्म के दर्शन की तरह.

दाग मुझमें है कि तुझमें ये पता तब होगा,
मौत जब आएगी कपड़े लिए धोबन की तरह.

हर किसी शख्स की किस्मत का यही है क़िस्सा,
आए राजा की तरह, जाए वो निर्धन की तरह.

जिसमें इन्सान के दिल की न हो धडकन 'नीरज'
शायरी तो है वो अख़बार के कतरन की तरह.

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