जोश मलीहाबादी की ग़ज़लें
सोज़-ए-ग़म दे के मुझे उस ने ये इरशाद किया / जोश मलीहाबादी / ग़ज़ल
सोज़-ए-ग़म दे के मुझे उस ने ये इरशाद किया
जा तुझे कशमकश-ए-दहर से आज़ाद किया
वो करें भी तो किन अल्फ़ाज़ में तेरा शिकवा
जिन को तेरी निगह-ए-लुत्फ़ ने बर्बाद किया
दिल की चोटों ने कभी चैन से रहने न दिया
जब चली सर्द हवा मैं ने तुझे याद किया
ऐ मैं सौ जान से इस तर्ज़-ए-तकल्लुम के निसार
फिर तो फ़रमाइए क्या आप ने इरशाद किया
इस का रोना नहीं क्यूँ तुम ने किया दिल बर्बाद
इस का ग़म है कि बहुत देर में बर्बाद किया
इतना मानूस हूँ फ़ितरत से कली जब चटकी
झुक के मैं ने ये कहा मुझ से कुछ इरशाद किया
मेरी हर साँस है इस बात की शाहिद ऐ मौत
मैं ने हर लुत्फ़ के मौक़े पे तुझे याद किया
मुझ को तो होश नहीं तुम को ख़बर हो शायद
लोग कहते हैं कि तुम ने मुझे बर्बाद किया
कुछ नहीं इस के सिवा 'जोश' हरीफ़ों का कलाम
वस्ल ने शाद किया हिज्र ने नाशाद किया
मेरी हालत देखिए और उन की सूरत देखिए / जोश मलीहाबादी / ग़ज़ल
मेरी हालत देखिए और उन की सूरत देखिए
फिर निगाह-ए-ग़ौर से क़ानून-ए-क़ुदरत देखिए
सैर-ए-महताब-ओ-कवाकिब से तबस्सुम ता-बके
रो रही है वो किसी की शम-ए-तुर्बत देखिए
आप इक जल्वा सरासर मैं सरापा इक नज़र
अपनी हाजत देखिए मेरी ज़रूरत देखिए
अपने सामान-ए-ताय्युश से अगर फ़ुर्सत मिले
बेकसों का भी कभी तर्ज़-ए-मईशत देखिए
मुस्कुरा कर इस तरह आया न कीजे सामने
किस क़दर कमज़ोर हूँ मैं मेरी सूरत देखिए
आप को लाया हूँ वीरानों में इबरत के लिए
हज़रत-ए-दिल देखिए अपनी हक़ीक़त देखिए
सिर्फ़ इतने के लिए आँखें हमें बख़्शी गईं
देखिए दुनिया के मंज़र और ब-इबरत देखिए
मौत भी आई तो चेहरे पर तबस्सुम ही रहा
ज़ब्त पर है किस क़दर हम को भी क़ुदरत देखिए
ये भी कोई बात है हर वक़्त दौलत का ख़याल
आदमी हैं आप अगर तो आदमियत देखिए
फूट निकलेगा जबीं से एक चश्मा हुस्न का
सुब्ह उठ कर ख़ंदा-ए-सामान-ए-क़ुदरत देखिए
रश्हा-ए-शबनम बहार-ए-गुल फ़रोग़-ए-मेहर-ओ-माह
वाह क्या अशआर हैं दीवान-ए-फ़ितरत देखिए
इस से बढ़ कर और इबरत का सबक़ मुमकिन नहीं
जो नशात-ए-ज़िंदगी थे उन की तुर्बत देखिए
थी ख़ता उन की मगर जब आ गए वो सामने
झुक गईं मेरी ही आँखें रस्म-ए-उल्फ़त देखिए
ख़ुश-नुमा या बद-नुमा हो दहर की हर चीज़ में
'जोश' की तख़्ईल कहती है कि नुदरत देखिए
क़दम इंसाँ का राह-ए-दहर में थर्रा ही जाता है / जोश मलीहाबादी / ग़ज़ल
क़दम इंसाँ का राह-ए-दहर में थर्रा ही जाता है
चले कितना ही कोई बच के ठोकर खा ही जाता है
नज़र हो ख़्वाह कितनी ही हक़ाइक़-आश्ना फिर भी
हुजूम-ए-कशमकश में आदमी घबरा ही जाता है
ख़िलाफ़-ए-मस्लहत मैं भी समझता हूँ मगर नासेह
वो आते हैं तो चेहरे पर तग़य्युर आ ही जाता है
हवाएँ ज़ोर कितना ही लगाएँ आँधियाँ बन कर
मगर जो घिर के आता है वो बादल छा ही जाता है
शिकायत क्यूँ इसे कहते हो ये फ़ितरत है इंसाँ की
मुसीबत में ख़याल-ए-ऐश-ए-रफ़्ता आ ही जाता है
शगूफ़ों पर भी आती हैं बलाएँ यूँ तो कहने को
मगर जो फूल बन जाता है वो कुम्हला ही जाता है
समझती हैं मआल-ए-गुल मगर क्या ज़ोर-ए-फ़ितरत है
सहर होते ही कलियों को तबस्सुम आ ही जाता है
जब से मरने की जी में ठानी है / जोश मलीहाबादी / ग़ज़ल
जब से मरने की जी में ठानी है
किस क़दर हम को शादमानी है
शाइरी क्यूँ न रास आए मुझे
ये मिरा फ़न्न-ए-ख़ानदानी है
क्यूँ लब-ए-इल्तिजा को दूँ जुम्बिश
तुम न मानोगे और न मानी है
आप हम को सिखाएँ रस्म-ए-वफ़ा
मेहरबानी है मेहरबानी है
दिल मिला है जिन्हें हमारा सा
तल्ख़ उन सब की ज़िंदगानी है
कोई सदमा ज़रूर पहुँचेगा
आज कुछ दिल को शादमानी है
तबस्सुम है वो होंटों पर जो दिल का काम कर जाए / जोश मलीहाबादी / ग़ज़ल
तबस्सुम है वो होंटों पर जो दिल का काम कर जाए
उन्हें इस की नहीं परवा कोई मरता है मर जाए
दुआ है मेरी ऐ दिल तुझ से दुनिया कूच कर जाए
और ऐसी कुछ बने तुझ पर कि अरमानों से डर जाए
जो मौक़ा मिल गया तो ख़िज़्र से ये बात पूछेंगे
जिसे हो जुस्तुजू अपनी वो बेचारा किधर जाए
सहर को सीना-ए-आलम में परतव डालने वाले
तसद्दुक़ अपने जल्वे का मिरा बातिन सँवर जाए
परेशाँ बाल करते हैं उन्हें शोख़ी से मतलब है
बिखरता है अगर शीराज़ा-ए-आलम बिखर जाए
हयात-ए-दाइमी की लहर है इस ज़िंदगानी में
अगर मरने से पहले बन पड़े तो 'जोश' मर जाए
बेहोशियों ने और ख़बरदार कर दिया / जोश मलीहाबादी / ग़ज़ल
बेहोशियों ने और ख़बरदार कर दिया
सोई जो अक़्ल रूह ने बेदार कर दिया
अल्लाह रे हुस्न-ए-दोस्त की आईना-दारियाँ
अहल-ए-नज़र को नक़्श-ब-दीवार कर दिया
या रब ये भेद क्या है कि राहत की फ़िक्र ने
इंसाँ को और ग़म में गिरफ़्तार कर दिया
दिल कुछ पनप चला था तग़ाफ़ुल की रस्म से
फिर तेरे इल्तिफ़ात ने बीमार कर दिया
कल उन के आगे शरह-ए-तमन्ना की आरज़ू
इतनी बढ़ी कि नुत्क़ को बेकार कर दिया
मुझ को वो बख़्शते थे दो आलम की नेमतें
मेरे ग़ुरूर-ए-इश्क़ ने इंकार कर दिया
ये देख कर कि उन को है रंगीनियों का शौक़
आँखों को हम ने दीदा-ए-ख़ूँ-बार कर दिया
वो सब्र दे कि न दे जिस ने बे-क़रार किया / जोश मलीहाबादी / ग़ज़ल
वो सब्र दे कि न दे जिस ने बे-क़रार किया
बस अब तुम्हीं पे चलो हम ने इंहिसार किया
तुम्हारा ज़िक्र नहीं है तुम्हारा नाम नहीं
किया नसीब का शिकवा हज़ार बार किया
सुबूत है ये मोहब्बत की सादा-लौही का
जब उस ने वअ'दा किया हम ने ए'तिबार किया
मआल हम ने जो देखा सुकून ओ जुम्बिश का
तो कुछ समझ के तड़पना ही इख़्तियार किया
मिरे ख़ुदा ने मिरे सब गुनाह बख़्श दिए
किसी का रात को यूँ मैं ने इंतिज़ार किया
ये बात ये तबस्सुम ये नाज़ ये निगाहें / जोश मलीहाबादी / ग़ज़ल
ये बात ये तबस्सुम ये नाज़ ये निगाहें
आख़िर तुम्हीं बताओ क्यूँकर न तुम को चाहें
अब सर उठा के मैं ने शिकवों से हात उठाया
मर जाऊँगा सितमगर नीची न कर निगाहें
कुछ गुल ही से नहीं है रूह-ए-नुमू को रग़बत
गर्दन में ख़ार की भी डाले हुए है बाँहें
अल्लाह री दिल-फ़रेबी जल्वों के बाँकपन की
महफ़िल में वो जो आए कज हो गईं कुलाहें
ये बज़्म 'जोश' किस के जल्वों की रहगुज़र है
हर ज़र्रे में हैं ग़लताँ उठती हुई निगाहें
फिर सर किसी के दर पे झुकाए हुए हैं हम / जोश मलीहाबादी / ग़ज़ल
फिर सर किसी के दर पे झुकाए हुए हैं हम
पर्दे फिर आसमाँ के उठाए हुए हैं हम
छाई हुई है इश्क़ की फिर दिल पे बे-ख़ुदी
फिर ज़िंदगी को होश में लाए हुए हैं हम
जिस का हर एक जुज़्व है इक्सीर-ए-ज़िंदगी
फिर ख़ाक में वो जिंस मिलाए हुए हैं हम
हाँ कौन पूछता है ख़ुशी का नहुफ़्ता राज़
फिर ग़म का बार दिल पे उठाए हुए हैं हम
हाँ कौन दर्स-ए-इश्क़-ए-जुनूँ का है ख़्वास्त-गार
आए कि हर सबक़ को भुलाए हुए हैं हम
आए जिसे हो जादा-ए-रिफ़अत की आरज़ू
फिर सर किसी के दर पे झुकाए हुए हैं हम
बैअत को आए जिस को हो तहक़ीक़ का ख़याल
कौन-ओ-मकाँ के राज़ को पाए हुए हैं हम
हस्ती के दाम-ए-सख़्त से उकता गया है कौन
कह दो कि फिर गिरफ़्त में आए हुए हैं हम
हाँ किस के पा-ए-दिल में है ज़ंजीर-ए-आब-ओ-गिल
कह दो कि दाम-ए-ज़ुल्फ़ में आए हुए हैं हम
हाँ किस को जुस्तुजू है नसीम-ए-फ़राग़ की
आसूदगी को आग लगाए हुए हैं हम
हाँ किस को सैर-ए-अर्ज़-ओ-समा का है इश्तियाक़
धूनी फिर उस गली में रमाए हुए हैं हम
जिस पर निसार कौन-ओ-मकाँ की हक़ीक़तें
फिर 'जोश' उस फ़रेब में आए हुए हैं हम
मिला जो मौक़ा तो रोक दूँगा 'जलाल' रोज़-ए-हिसाब तेरा / जोश मलीहाबादी / ग़ज़ल
मिला जो मौक़ा तो रोक दूँगा 'जलाल' रोज़-ए-हिसाब तेरा
पढूँगा रहमत का वो क़सीदा कि हँस पड़ेगा इताब तेरा
यही तो हैं दो सुतून-ए-महकम इन्हीं पे क़ाइम है नज़्म-ए-आलम
यही तो है राज़-ए-ख़ुल्द-ओ-आदम निगाह मेरी शबाब तेरा
सबा तसद्दुक़ तिरे नफ़स पर चमन तिरे पैरहन पे क़ुर्बां
नसीम-ए-दोशीज़गी में कैसा बसा हुआ है शबाब तेरा
तमाम महफ़िल के रू-ब-रू गो उठाईं नज़रें मिलाईं आँखें
समझ सका एक भी न लेकिन सवाल मेरा जवाब तेरा
हज़ार शाख़ें अदा से लचकीं हुआ न तेरा सा लोच पैदा
शफ़क़ ने कितने ही रंग बदले मिला न रंग-ए-शबाब तेरा
इधर मिरा दिल तड़प रहा है तिरी जवानी की जुस्तुजू में
उधर मिरे दिल की आरज़ू में मचल रहा है शबाब तेरा
करेगी दोनों का चाक पर्दा रहेगा दोनों को कर के रुस्वा
ये शोरिश-ए-ज़ौक़-ए-दीद मेरी ये एहतिमाम-ए-हिजाब तेरा
जड़ें पहाड़ों की टूट जातीं फ़लक तो क्या अर्श काँप उठता
अगर मैं दिल पर न रोक लेता तमाम ज़ोर-ए-शबाब तेरा
भला हुआ 'जोश' ने हटाया निगाह का चश्म-ए-तर से पर्दा
बला से जाती रहें गर आँखें खुला तो बंद-ए-नक़ाब तेरा
काफ़िर बनूँगा कुफ़्र का सामाँ तो कीजिए / जोश मलीहाबादी / ग़ज़ल
काफ़िर बनूँगा कुफ़्र का सामाँ तो कीजिए
पहले घनेरी ज़ुल्फ़ परेशाँ तो कीजिए
उस नाज़-ए-होश को कि है मूसा पे ताना-ज़न
इक दिन नक़ाब उलट के पशीमाँ तो कीजिए
उश्शाक़ बंदगान-ए-ख़ुदा हैं ख़ुदा नहीं
थोड़ा सा नर्ख़-ए-हुस्न को अर्ज़ां तो कीजिए
क़ुदरत को ख़ुद है हुस्न के अल्फ़ाज़ का लिहाज़
ईफ़ा भी हो ही जाएगा पैमाँ तो कीजिए
ता-चंद रस्म-ए-जामा-दरी की हिकायतें
तकलीफ़ यक-तबस्सुम-ए-पिन्हाँ तो कीजिए
यूँ सर न होगी 'जोश' कभी इश्क़ की मुहिम
दिल को ख़िरद से दस्त-ओ-गरेबाँ तो कीजिए
इस बात की नहीं है कोई इंतिहा न पूछ / जोश मलीहाबादी / ग़ज़ल
इस बात की नहीं है कोई इंतिहा न पूछ
ऐ मुद्दआ-ए-ख़ल्क़ मिरा मुद्दआ न पूछ
क्या कह के फूल बनती हैं कलियाँ गुलाब की
ये राज़ मुझ से बुलबुल-ए-शीरीं-नवा न पूछ
जितने गदा-नवाज़ थे कब के गुज़र चुके
अब क्यूँ बिछाए बैठे हैं हम बोरिया न पूछ
पेश-ए-नज़र है पस्त-ओ-बुलंद-ए-रह-ए-जुनूँ
हम बे-ख़ुदों से क़िस्सा-ए-अर्ज़-ओ-समा न पूछ
सुम्बुल से वास्ता न चमन से मुनासिबत
इस ज़ुल्फ़-ए-मुश्क-बार का हाल ऐ सबा न पूछ
सद महफ़िल-ए-नशात है इक शेर-ए-दिल-नशीं
इस बर्बत-ए-सुख़न में है किस की सदा न पूछ
कर रहम मेरे जेब ओ गरेबाँ पे हम-नफ़स
चलती है कू-ए-यार में क्यूँकर हवा न पूछ
रहता नहीं है दहर में जब कोई आसरा
उस वक़्त आदमी पे गुज़रती है क्या न पूछ
हर साँस में है चश्मा-ए-हैवान-ओ-सलसबील
फिर भी मैं तिश्ना-काम हूँ ये माजरा न पूछ
बंदा तिरे वजूद का मुनकिर नहीं मगर
दुनिया ने क्या दिए हैं सबक़ ऐ ख़ुदा न पूछ
क्यूँ 'जोश' राज़-ए-दोस्त की करता है जुस्तुजू
कह दो कोई कि शाह का हाल ऐ गदा न पूछ
सारी दुनिया है एक पर्दा-ए-राज़ / जोश मलीहाबादी / ग़ज़ल
सारी दुनिया है एक पर्दा-ए-राज़
उफ़ रे तेरे हिजाब के अंदाज़
मौत को अहल-ए-दिल समझते हैं
ज़िंदगानी-ए-इश्क़ का आग़ाज़
मर के पाया शहीद का रुत्बा
मेरी इस ज़िंदगी की उम्र दराज़
कोई आया तिरी झलक देखी
कोई बोला सुनी तिरी आवाज़
हम से क्या पूछते हो हम क्या हैं
इक बयाबाँ में गुम-शुदा आवाज़
तेरे अनवार से लबालब है
दिल का सब से अमीक़ गोशा-ए-राज़
आ रही है सदा-ए-हातिफ़-ए-ग़ैब
'जोश' हमता-ए-हाफ़िज़-ए-शीराज़
जोश मलीहाबादी की नज़्में
किसान / जोश मलीहाबादी / नज़्म
झुटपुटे का नर्म-रौ दरिया शफ़क़ का इज़्तिराब
खेतियाँ मैदान ख़ामोशी ग़ुरूब-ए-आफ़्ताब
दश्त के काम-ओ-दहन को दिन की तल्ख़ी से फ़राग़
दूर दरिया के किनारे धुँदले धुँदले से चराग़
ज़ेर-ए-लब अर्ज़ ओ समा में बाहमी गुफ़्त-ओ-शुनूद
मिशअल-ए-गर्दूं के बुझ जाने से इक हल्का सा दूद
वुसअतें मैदान की सूरज के छुप जाने से तंग
सब्ज़ा-ए-अफ़्सुर्दा पर ख़्वाब-आफ़रीं हल्का सा रंग
ख़ामुशी और ख़ामुशी में सनसनाहट की सदा
शाम की ख़ुनकी से गोया दिन की गर्मी का गिला
अपने दामन को बराबर क़त्अ सा करता हुआ
तीरगी में खेतियों के दरमियाँ का फ़ासला
ख़ार-ओ-ख़स पर एक दर्द-अंगेज़ अफ़्साने की शान
बाम-ए-गर्दूं पर किसी के रूठ कर जाने की शान
दूब की ख़ुश्बू में शबनम की नमी से इक सुरूर
चर्ख़ पर बादल ज़मीं पर तितलियाँ सर पर तुयूर
पारा पारा अब्र सुर्ख़ी सुर्ख़ियों में कुछ धुआँ
भूली-भटकी सी ज़मीं खोया हुआ सा आसमाँ
पत्तियाँ मख़मूर कलियाँ आँख झपकाती हुई
नर्म-जाँ पौदों को गोया नींद सी आती हुई
ये समाँ और इक क़वी इंसान या'नी काश्त-कार
इर्तिक़ा का पेशवा तहज़ीब का पर्वरदिगार
जिस के माथे के पसीने से पए-इज़्ज़-ओ-वक़ार
करती है दरयूज़ा-ए-ताबिश कुलाह-ए-ताजदार
सर-निगूँ रहती हैं जिस से क़ुव्वतें तख़रीब की
जिस के बूते पर लचकती है कमर तहज़ीब की
जिस की मेहनत से फबकता है तन-आसानी का बाग़
जिस की ज़ुल्मत की हथेली पर तमद्दुन का चराग़
जिस के बाज़ू की सलाबत पर नज़ाकत का मदार
जिस के कस-बल पर अकड़ता है ग़ुरूर-ए-शहरयार
धूप के झुलसे हुए रुख़ पर मशक़्क़त के निशाँ
खेत से फेरे हुए मुँह घर की जानिब है रवाँ
टोकरा सर पर बग़ल में फावड़ा तेवरी पे बल
सामने बैलों की जोड़ी दोश पर मज़बूत हल
कौन हल ज़ुल्मत-शिकन क़िंदील-ए-बज़्म-ए-आब-ओ-गिल
क़स्र-ए-गुलशन का दरीचा सीना-ए-गीती का दिल
ख़ुशनुमा शहरों का बानी राज़-ए-फ़ितरत का सुराग़
ख़ानदान-ए-तेग़-ए-जौहर-दार का चश्म-ओ-चराग़
धार पर जिस की चमन-परवर शगूफ़ों का निज़ाम
शाम-ए-ज़ेर-ए-अर्ज़ को सुब्ह-ए-दरख़्शाँ का पयाम
डूबता है ख़ाक में जो रूह दौड़ाता हुआ
मुज़्महिल ज़र्रों की मौसीक़ी को चौंकाता हुआ
जिस के छू जाते ही मिस्ल-ए-नाज़नीन-ए-मह-जबीं
करवटों पर करवटें लेती है लैला-ए-ज़मीं
पर्दा-हा-ए-ख़्वाब हो जाते हैं जिस से चाक चाक
मुस्कुरा कर अपनी चादर को हटा देती है ख़ाक
जिस की ताबिश में दरख़शानी हिलाल-ए-ईद की
ख़ाक के मायूस मतला पर किरन उम्मीद की
तिफ़्ल-ए-बाराँ ताजदार-ए-ख़ाक अमीर-ए-बोस्ताँ
माहिर-ए-आईन-ए-क़ुदरत नाज़िम-ए-बज़्म-ए-जहाँ
नाज़िर-ए-गुल पासबान-ए-रंग-ओ-बू गुलशन-पनाह
नाज़-परवर लहलहाती खेतियों का बादशाह
वारिस-ए-असरार-ए-फ़ितरत फ़ातेह-ए-उम्मीद-ओ-बीम
महरम-ए-आसार-ए-बाराँ वाक़िफ़-ए-तब्अ-ए-नसीम
सुब्ह का फ़रज़ंद ख़ुर्शीद-ए-ज़र-अफ़शाँ का अलम
मेहनत-ए-पैहम का पैमाँ सख़्त-कोशी की क़सम
जल्वा-ए-क़ुदरत का शाहिद हुस्न-ए-फ़ितरत का गवाह
माह का दिल मेहर-ए-आलम-ताब का नूर-ए-निगाह
क़ल्ब पर जिस के नुमायाँ नूर ओ ज़ुल्मत का निज़ाम
मुन्कशिफ़ जिस की फ़रासत पर मिज़ाज-ए-सुब्ह-ओ-शाम
ख़ून है जिस की जवानी का बहार-ए-रोज़गार
जिस के अश्कों पर फ़राग़त के तबस्सुम का मदार
जिस की मेहनत का अरक़ तय्यार करता है शराब
उड़ के जिस का रंग बिन जाता है जाँ-परवर गुलाब
क़ल्ब-ए-आहन जिस के नक़्श-ए-पा से होता है रक़ीक़
शो'ला-ख़ू झोंकों का हमदम तेज़ किरनों का रफ़ीक़
ख़ून जिस का बिजलियों की अंजुमन में बारयाब
जिस के सर पर जगमगाती है कुलाह-ए-आफ़्ताब
लहर खाता है रग-ए-ख़ाशाक में जिस का लहू
जिस के दिल की आँच बन जाती है सैल-ए-रंग-ओ-बू
दौड़ती है रात को जिस की नज़र अफ़्लाक पर
दिन को जिस की उँगलियाँ रहती हैं नब्ज़-ए-ख़ाक पर
जिस की जाँकाही से टपकाती है अमृत नब्ज़-ए-ताक
जिस के दम से लाला-ओ-गुल बन के इतराती है ख़ाक
साज़-ए-दौलत को अता करती है नग़्मे जिस की आह
माँगता है भीक ताबानी की जिस से रू-ए-शाह
ख़ून जिस का दौड़ता है नब्ज़-ए-इस्तिक़्लाल में
लोच भर देता है जो शहज़ादियों की चाल में
जिस का मस ख़ाशाक में बनता है इक चादर महीन
जिस का लोहा मान कर सोना उगलती है ज़मीन
हल पे दहक़ाँ के चमकती हैं शफ़क़ की सुर्ख़ियाँ
और दहक़ाँ सर झुकाए घर की जानिब है रवाँ
उस सियासी रथ के पहियों पर जमाए है नज़र
जिस में आ जाती है तेज़ी खेतियों को रौंद कर
अपनी दौलत को जिगर पर तीर-ए-ग़म खाते हुए
देखता है मुल्क-ए-दुश्मन की तरफ़ जाते हुए
क़त्अ होती ही नहीं तारीकी-ए-हिरमाँ से राह
फ़ाक़ा-कश बच्चों के धुँदले आँसुओं पर है निगाह
सोचता जाता है किन आँखों से देखा जाएगा
बे-रिदा बीवी का सर बच्चों का मुँह उतरा हुआ
सीम-ओ-ज़र नान-ओ-नमक आब-ओ-ग़िज़ा कुछ भी नहीं
घर में इक ख़ामोश मातम के सिवा कुछ भी नहीं
एक दिल और ये हुजूम-ए-सोगवारी हाए हाए
ये सितम ऐ संग-दिल सरमाया-दारी हाए हाए
तेरी आँखों में हैं ग़लताँ वो शक़ावत के शरार
जिन के आगे ख़ंजर-ए-चंगेज़ की मुड़ती है धार
बेकसों के ख़ून में डूबे हुए हैं तेरे हात
क्या चबा डालेगी ओ कम्बख़्त सारी काएनात
ज़ुल्म और इतना कोई हद भी है इस तूफ़ान की
बोटियाँ हैं तेरे जबड़ों में ग़रीब इंसान की
देख कर तेरे सितम ऐ हामी-ए-अम्न-ओ-अमाँ
गुर्ग रह जाते हैं दाँतों में दबा कर उँगलियाँ
इद्दिआ-ए-पैरवी-ए-दीन-ओ-ईमाँ और तू
देख अपनी कुहनीयाँ जिन से टपकता है लहू
हाँ सँभल जा अब कि ज़हर-ए-अहल-ए-दिल के आब हैं
कितने तूफ़ान तेरी कश्ती के लिए बे-ताब हैं
शिकस्त-ए-ज़िंदाँ का ख़्वाब / जोश मलीहाबादी / नज़्म
क्या हिन्द का ज़िंदाँ काँप रहा है गूँज रही हैं तक्बीरें
उकताए हैं शायद कुछ क़ैदी और तोड़ रहे हैं ज़ंजीरें
दीवारों के नीचे आ आ कर यूँ जम्अ हुए हैं ज़िंदानी
सीनों में तलातुम बिजली का आँखों में झलकती शमशीरें
भूखों की नज़र में बिजली है तोपों के दहाने ठंडे हैं
तक़दीर के लब को जुम्बिश है दम तोड़ रही हैं तदबीरें
आँखों में गदा की सुर्ख़ी है बे-नूर है चेहरा सुल्ताँ का
तख़रीब ने परचम खोला है सज्दे में पड़ी हैं तामीरें
क्या उन को ख़बर थी ज़ेर-ओ-ज़बर रखते थे जो रूह-ए-मिल्लत को
उबलेंगे ज़मीं से मार-ए-सियह बरसेंगी फ़लक से शमशीरें
क्या उन को ख़बर थी सीनों से जो ख़ून चुराया करते थे
इक रोज़ इसी बे-रंगी से झलकेंगी हज़ारों तस्वीरें
क्या उन को ख़बर थी होंटों पर जो क़ुफ़्ल लगाया करते थे
इक रोज़ इसी ख़ामोशी से टपकेंगी दहकती तक़रीरें
संभलों कि वो ज़िंदाँ गूँज उठा झपटो कि वो क़ैदी छूट गए
उट्ठो कि वो बैठीं दीवारें दौड़ो कि वो टूटी ज़ंजीरें
अपनी मल्का-ए-सुख़न से
ऐ शम-ए-'जोश' ओ मशअ'ल-ए-ऐवान-ए-आरज़ू
ऐ मेहर-ए-नाज़ ओ माह-ए-शबिस्तान-ए-आरज़ू
ऐ जान-ए-दर्द-मंदी ओ ईमान-ए-आरज़ू
ऐ शम-ए-तूर ओ यूसुफ़-ए-कनआ'न-ए-आरज़ू
ज़र्रे को आफ़्ताब तो काँटे को फूल कर
ऐ रूह-ए-शे'र सज्दा-ए-शाइ'र क़ुबूल कर
दरिया का मोड़ नग़्मा-ए-शीरीं का ज़ेर-ओ-बम
चादर शब-ए-नुजूम की शबनम का रख़्त-ए-नम
तितली का नाज़-ए-रक़्स ग़ज़ाला का हुस्न-ए-रम
मोती की आब गुल की महक माह-ए-नौ का ख़म
इन सब के इम्तिज़ाज से पैदा हुई है तू
कितने हसीं उफ़ुक़ से हुवैदा हुई है तू
होता है मह-वशों का वो आलम तिरे हुज़ूर
जैसे चराग़-ए-मुर्दा सर-ए-बज़्म-ए-शम-ए-तूर
आ कर तिरी जनाब में ऐ कार-साज़-ए-नूर
पलकों में मुँह छुपाते हैं झेंपे हुए ग़ुरूर
आती है एक लहर सी चेहरों पर आह की
आँखों में छूट जाती हैं नब्ज़ें निगाह की
रफ़्तार है कि चाँदनी रातों में मौज-ए-गंग
या भैरवीं की पिछले पहर क़ल्ब में उमंग
ये काकुलों की ताब है ये आरिज़ों का रंग
जिस तरह झुटपुटे में शब-ओ-रोज़ की तरंग
रू-ए-मुबीं न गेसू-ए-सुम्बुल-क़वाम है
वो बरहमन की सुब्ह ये साक़ी की शाम है
आवाज़ में ये रस ये लताफ़त ये इज़्तिरार
जैसे सुबुक महीन रवाँ रेशमी फुवार
लहजे में ये खटक है कि है नेश्तर की धार
और गिर रहा है धार से शबनम का आबशार
चहकी जो तू चमन में हवाएँ महक गईं
गुल-बर्ग-ए-तर से ओस की बूँदें टपक गईं
जादू है तेरी सौत का गुल पर हज़ार पर
जैसे नसीम-ए-सुब्ह की रौ जू-ए-बार पर
नाख़ुन किसी निगार का चाँदी के तार पर
मिज़राब-ए-अक्स-ए-क़ौस रग-ए-आबशार पर
मौजें सबा की बाग़ पे सहबा छिड़क गईं
जुम्बिश हुई लबों को तो कलियाँ चटक गईं
चश्म-ए-सियाह में वो तलातुम है नूर का
जैसे शराब-ए-नाब में जौहर सुरूर का
या चहचहों के वक़्त तमव्वुज तुयूर का
बाँधे हुए निशाना कोई जैसे दूर का
हर मौज-ए-रंग-ए-क़ामत-ए-गुलरेज़ रम में है
गोया शराब-ए-तुंद बिलोरीं क़लम में है
तुझ से नज़र मिलाए ये किस की भला मजाल
तेरे क़दम का नक़्श हसीनों के ख़द्द-ओ-ख़ाल
अल्लाह रे तेरे हुस्न-ए-मलक-सोज़ का जलाल
जब देखती हैं ख़ुल्द से हूरें तिरा जमाल
परतव से तेरे चेहरा-ए-पर्वीं-सरिश्त के
घबरा के बंद करती हैं ग़ुर्फ़े बहिश्त के
चेहरे को रंग-ओ-नूर का तूफ़ाँ किए हुए
शम-ओ-शराब-ओ-शे'र का उनवाँ किए हुए
हर नक़्श-ए-पा को ताज-ए-गुलिस्ताँ किए हुए
सौ तूर इक निगाह में पिन्हाँ किए हुए
आती है तू चमन में जब इस तर्ज़-ओ-तौर से
गुल देखते हैं बाग़ में बुलबुल को ग़ौर से
मेरे बयाँ में सेहर-बयानी तुझी से है
रू-ए-सुख़न पे ख़ून-ए-जवानी तुझी से है
लफ़्ज़ों में रक़्स-ओ-रंग-ओ-रवानी तुझी से है
फ़क़्र-ए-गदा में फ़र्र-ए-कियानी तुझी से है
फ़िदवी के इस उरूज पे करती है ग़ौर क्या
तेरी ही जूतियों का तसद्दुक़ है और क्या
ऐ किर्दगार-ए-मा'नी ओ ख़ल्लाक़-ए-शेर-ए-तर
ऐ जान-ए-ज़ौक़ ओ मुहसिना-ए-लैली-ए-हुनर
खुल जाए गर ये बात कि उर्दू ज़बान पर
तेरी निगाह-ए-नाज़ का एहसाँ है किस क़दर
चारों तरफ़ से नारा-ए-सल्ले-अला उठे
तेरे मुजस्समों से ज़मीं जगमगा उठे
मेरे हुनर में सर्फ़ हुई है तिरी नज़र
ख़ेमा है मेरे नाम का बाला-ए-बहर-ओ-बर
शोहरत की बज़्म तुझ से मुनव्वर नहीं मगर
फ़र्क़-ए-गदा पे ताज है सुल्ताँ बरहना-सर
परवाने को वो कौन है जो मानता नहीं
और शम्अ' किस तरफ़ है कोई जानता नहीं
दिल तेरी बज़्म-ए-नाज़ में जब से है बारयाब
हर ख़ार एक गुल है तो हर ज़र्रा आफ़्ताब
इक लश्कर-ए-नशात है हर ग़म के हम-रिकाब
ज़ेर-ए-नगीं है आलम-ए-तमकीन-ओ-इज़तिराब
बाद-ए-मुराद ओ चश्मक-ए-तूफ़ाँ लिए हुए
हूँ बू-ए-ज़ुल्फ़-ओ-जुंबिश-ए-मिज़्गाँ लिए हुए
तेरे लबों से चश्मा-ए-हैवाँ मिरा कलाम
तेरी लटों से मौजा-ए-तूफ़ाँ मिरा कलाम
तेरी नज़र से तूर-ब-दामाँ मिरा कलाम
तेरे सुख़न से नग़्मा-ए-यज़्दाँ मिरा कलाम
तू है पयाम-ए-आलम-ए-बाला मिरे लिए
इक वही-ए-ज़ी-हयात है गोया मिरे लिए
ऐ माह-ए-शेर-परवर ओ मेहर-ए-सुख़न-वरी
ऐ आब-ओ-रंग-ए-'हाफ़िज़' ओ ऐ हुस्न-ए-'अनवरी'
तू ने ही सब्त की है ब-सद नाज़-ए-दावरी
मेरे सुख़न की पुश्त पे मोहर-ए-पयम्बरी
तेरी शमीम-ए-ज़ुल्फ़ की दौलत लिए हुए
मेरा नफ़स है बू-ए-रिसालत लिए हुए
दुर-हा-ए-आब-दार ओ शरर-हा-ए-दिल-नशीं
शब-हा-ए-तल्ख़-ओ-तुर्श ओ सहर-हा-ए-शक्करीं
अक़्ल-ए-नशात-ख़ेज़ ओ जुनून-ए-ग़म-आफ़रीं
दौलत वो कौन है जो मिरी जेब में नहीं
टकराई जब भी मुझ से ख़जिल सरवरी हुई
यूँ है तिरे फ़क़ीर की झोली भरी हुई
नग़्मे पले हैं दौलत-ए-गुफ़्तार से तिरी
पाया है नुत्क़ चश्म-ए-सुख़न-बार से तिरी
ताक़त है दिल में नर्गिस-ए-बीमार से तिरी
क्या क्या मिला है 'जोश' को सरकार से तिरी
बाँके ख़याल हैं ख़म-ए-गर्दन लिए हुए
हर शे'र की कलाई है कंगन लिए हुए
ऐ लैली-ए-नहुफ़्ता ओ ऐ हुस्न-ए-शर्मगीं
तुझ पर निसार दौलत-ए-दुनिया मता-ए-दींं
मंसूब मुझ से है जो ब-अंदाज़-ए-दिल-नशीं
तेरी वो शाइ'री है मिरी शाइ'री नहीं
आवाज़ा चर्ख़ पर है जो इस दर्द-मंद का
गोया वो अक्स है तिरे क़द्द-ए-बुलंद का
मेरे बयाँ में ये जो वफ़ूर-ए-सुरूर है
ताक़-ए-सुख़न-वरी में जो ये शम-ए-तूर है
ये जो मिरे चराग़ की ज़ौ दूर दूर है
सरकार ही की मौज-ए-तबस्सुम का नूर है
शे'रों में करवटें ये नहीं सोज़-ओ-साज़ की
लहरें हैं ये हुज़ूर की ज़ुल्फ़-ए-दराज़ की
मुझ रिंद-ए-हुस्न-कार की मय-ख़्वारियाँ न पूछ
इस ख़्वाब-ए-जाँ-फ़रोज़ की बेदारियाँ न पूछ
करती है क्यूँ शराब ख़िरद-बारियाँ न पूछ
बे-होशियों में क्यूँ है ये हुश्यारियाँ न पूछ
पीता हूँ वो जो ज़ुल्फ़ की रंगीं घटाओं में
खिंचती है उन घनी हुई पलकों की छाँव में
हुश्यार इस लिए हूँ कि मय-ख़्वार हूँ तिरा
सय्याद-ए-शे'र हूँ कि गिरफ़्तार हूँ तिरा
लहजा मलीह है कि नमक-ख़्वार हूँ तिरा
सेह्हत ज़बान में है कि बीमार हूँ तिरा
तेरे करम से शेर-ओ-अदब का इमाम हूँ
शाहों पे ख़ंदा-ज़न हूँ कि तेरा ग़ुलाम हूँ
मैं वो हूँ जिस के ग़म ने तिरे दिल में राह की
इक उम्र जिस के इश्क़ में ख़ुद तू ने आह की
सोया है शौक़ सेज पे तेरी निगाह की
रातें कटी हैं साए में चश्म-ए-सियाह की
क्यूँ कर न शाख़-ए-गुल की लचक हो बयान में
तेरी कमर का लोच है मेरी ज़बान में
तर्शे हुए लबों के बहकते ख़िताब से
ज़रतार काकुलों के महकते सहाब से
सरशार अँखड़ियों के दहकते शबाब से
मौज-ए-नफ़स के इत्र से मुखड़े की आब से
बारह बरस तपा के ज़माना सुहाग का
सींचा है तू ने बाग़ मिरे दिल की आग का
गर्मी से जिस की बर्फ़ का देवता डरे वो आग
शो'लों में ओस को जो मुबद्दल करे वो आग
लौ से जो ज़महरीर का दामन भरे वो आग
हद है जो नाम नार-ए-सक़र पर धरे वो आग
जिस की लपट गले में जलाती है राग को
पाला है क़ल्ब-ए-नाज़ में तू ने उस आग को
रिश्वत / जोश मलीहाबादी / नज़्म
लोग हम से रोज़ कहते हैं ये आदत छोड़िए
ये तिजारत है ख़िलाफ़-ए-आदमियत छोड़िए
इस से बद-तर लत नहीं है कोई ये लत छोड़िए
रोज़ अख़बारों में छपता है कि रिश्वत छोड़िए
भूल कर भी जो कोई लेता है रिश्वत चोर है
आज क़ौमी पागलों में रात दिन ये शोर है
किस को समझाएँ उसे खोदें तो फिर पाएँगे क्या
हम अगर रिश्वत नहीं लेंगे तो फिर खाएँगे क्या
क़ैद भी कर दें तो हम को राह पर लाएँगे क्या
ये जुनून-ए-इश्क़ के अंदाज़ छुट जाएँगे क्या
मुल्क भर को क़ैद कर दे किस के बस की बात है
ख़ैर से सब हैं कोई दो-चार दस की बात है
ये हवस ये चोर बाज़ारी ये महँगाई ये भाव
राई की क़ीमत हो जब पर्बत तो क्यूँ न आए ताव
अपनी तनख़्वाहों के नाले में है पानी आध-पाव
और लाखों टन की भारी अपने जीवन की है नाव
जब तलक रिश्वत न लें हम दाल गल सकती नहीं
नाव तनख़्वाहों के पानी में तो चल सकती नहीं
रिश्वतों की ज़िंदगी है चोर-बाज़ारी के साथ
चल रही है बे-ज़री अहकाम-ए-ज़रदारी के साथ
फुर्तियाँ चूहों की हैं बिल्ली की तर्रारी के साथ
आप रोकें ख़्वाह कितनी ही सितमगारी के साथ
हम नहीं हिलने के सुन लीजे किसी भौंचाल से
काम ये चलता रहेगा आप के इक़बाल से
ये है मिल वाला वो बनिया है ये साहूकार है
ये है दूकाँ-दार वो है वेद ये अत्तार है
वो अगर ठग है तो ये डाकू है वो बट-मार है
आज हर गर्दन में काली जीत का इक हार है
हैफ़ मुल्क-ओ-क़ौम की ख़िदमत-गुज़ारी के लिए
रह गए हैं इक हमीं ईमान-दारी के लिए
भूक के क़ानून में ईमान-दारी जुर्म है
और बे-ईमानियों पर शर्मसारी जुर्म है
डाकुओं के दौर में परहेज़-गारी जुर्म है
जब हुकूमत ख़ाम हो तो पुख़्ता-कारी जुर्म है
लोग अटकाते हैं क्यूँ रोड़े हमारे काम में
जिस को देखो ख़ैर से नंगा है वो हम्माम में
तोंद वालों की तो हो आईना-दारी वाह वा
और हम भूखों के सर पर चाँद-मारी वाह वा
उन की ख़ातिर सुब्ह होते ही नहारी वाह वा
और हम चाटा करें ईमान-दारी वाह वा
सेठ जी तो ख़ूब मोटर में हवा खाते फिरें
और हम सब जूतियाँ गलियों में चटख़ाते फिरें
ख़ूब हक़ के आस्ताँ पर और झुके अपनी जबीं
जाइए रहने भी दीजे नासेह-ए-गर्दूँ-नशीं
तौबा तौबा हम भड़ी में आ के और देखें ज़मीं
आँख के अंधे नहीं हैं गाँठ के पूरे नहीं
हम फटक सकते नहीं परहेज़-गारी के क़रीब
अक़्ल-मंद आते नहीं ईमान-दारी के क़रीब
इस गिरानी में भला क्या ग़ुंचा-ए-ईमाँ खिले
जौ के दाने सख़्त हैं ताँबे के सिक्के पिल-पिले
जाएँ कपड़े के लिए तो दाम सुन कर दिल हिले
जब गरेबाँ ता-ब-दामन आए तो कपड़ा मिले
जान भी दे दे तो सस्ते दाम मिल सकता नहीं
आदमियत का कफ़न है दोस्तों कपड़ा नहीं
सिर्फ़ इक पतलून सिलवाना क़यामत हो गया
वो सिलाई ली मियाँ दर्ज़ी ने नंगा कर दिया
आप को मालूम भी है चल रही है क्या हवा
सिर्फ़ इक टाई की क़ीमत घोंट देती है गला
हल्की टोपी सर पे रखते हैं तो चकराता है सर
और जूते की तरफ़ बढ़िए तो झुक जाता है सर
थी बुज़ुर्गों की जो बनियाइन वो बनिया ले गया
घर में जो गाढ़ी कमाई थी वो गाढ़ा ले गया
जिस्म की एक एक बोटी गोश्त वाला ले गया
तन में बाक़ी थी जो चर्बी घी का प्याला ले गया
आई तब रिश्वत की चिड़िया पँख अपने खोल कर
वर्ना मर जाते मियाँ कुत्ते की बोली बोल कर
पत्थरों को तोड़ते हैं आदमी के उस्तुख़्वाँ
संग-बारी हो तो बन जाती है हिम्मत साएबाँ
पेट में लेती है लेकिन भूक जब अंगड़ाइयाँ
और तो और अपने बच्चे को चबा जाती है माँ
क्या बताएँ बाज़ियाँ हैं किस क़दर हारे हुए
रिश्वतें फिर क्यूँ न लें हम भूक के मारे हुए
आप हैं फ़ज़्ल-ए-ख़ुदा-ए-पाक से कुर्सी-नशीं
इंतिज़ाम-ए-सल्तनत है आप के ज़ेर-ए-नगीं
आसमाँ है आप का ख़ादिम तो लौंडी है ज़मीं
आप ख़ुद रिश्वत के ज़िम्मेदार हैं फ़िदवी नहीं
बख़्शते हैं आप दरिया कश्तियाँ खेते हैं हम
आप देते हैं मवाक़े' रिश्वतें लेते हैं हम
ठीक तो करते नहीं बुनियाद-ए-ना-हमवार को
दे रहे हैं गालियाँ गिरती हुई दीवार को
सच बताऊँ ज़ेब ये देता नहीं सरकार को
पालिए बीमारियों को मारिए बीमार को
इल्लत-ए-रिश्वत को इस दुनिया से रुख़्सत कीजिए
वर्ना रिश्वत की धड़ल्ले से इजाज़त दीजिए
बद बहुत बद-शक्ल हैं लेकिन बदी है नाज़नीं
जड़ को बोसे दे रहे हैं पेड़ से चीं-बर-जबीं
आप गो पानी उलचते हैं ब-तर्ज़-ए-दिल-नशीं
नाव का सूराख़ लेकिन बंद फ़रमाते नहीं
कोढ़ियों पर आस्तीं कब से चढ़ाए हैं हुज़ूर
कोढ़ को लेकिन कलेजे से लगाए हैं हुज़ूर
दस्त-कारी के उफ़ुक़ पर अब्र बन कर छाइए
जहल के ठंडे लहू को इल्म से गर्माइए
कार-ख़ाने कीजिए क़ाएम मशीनें लाइए
उन ज़मीनों को जो महव-ए-ख़्वाब हैं चौंकाइए
ख़्वाह कुछ भी हो मुंढे ये बैल चढ़ सकती नहीं
मुल्क में जब तक कि पैदा-वार बढ़ सकती नहीं
दिल में जितना आए लूटें क़ौम को शाह-ओ-वज़ीर
खींच ले ख़ंजर कोई जोड़े कोई चिल्ले में तीर
बे-धड़क पी कर ग़रीबों का लहू अकड़ें अमीर
देवता बन कर रहें तो ये ग़ुलामान-ए-हक़ीर
दोस्तों की गालियाँ हर आन सहने दीजिए
ख़ाना-ज़ादों को यूँही शैतान रहने दीजिए
दाम इक छोटे से कूज़े के हैं सौ जाम-ए-बिलूर
मोल लेने जाएँ इक क़तरा तो दें नहर-ओ-क़ुसूर
इक दिया जो बेचता है माँगता है शम-ए-तूर
इक ज़रा से संग-रेज़े की है क़ीमत कोह-ए-नूर
जब ये आलम है तो हम रिश्वत से क्या तौबा करें
तौबा रिश्वत कैसी हम चंदा न लें तो क्या करें
ज़ुल्फ़ उस को-ऑपरेटिव सिलसिले की है दराज़
छेड़ते हैं हम कभी तो वो कभी रिश्वत का साज़
गाह हम बनते हैं क़ुमरी गाह वो बनते हैं बाज़
आप को मालूम क्या आपस का ये राज़-ओ-नियाज़
नाव हम अपनी खिवाते भी हैं और खेते भी हैं
रिश्वतों के लेने वाले रिश्वतें देते भी हैं
बादशाही तख़्त पर है आज हर शय जल्वा-गर
फिर रहे हैं ठोकरें खाते ज़र-ओ-ला'ल-ओ-गुहर
ख़ास चीज़ें क़ीमतें उन की तो हैं अफ़्लाक पर
आब-ख़ोरा मुँह फुलाता है अठन्नी देख कर
चौदा आने सेर की आवाज़ सुन कर आज-कल
लाल हो जाता है ग़ुस्से से टमाटर आज-कल
नस्तरन में नाज़ बाक़ी है न गुल में रंग-ओ-बू
अब तो है सेहन-ए-चमन में ख़ार-ओ-ख़स की आबरू
ख़ुर्दनी चीज़ों के चेहरों से टपकता है लहू
रूपये का रंग फ़क़ है अशरफ़ी है ज़र्द-रू
हाल के सिक्के को माज़ी का जो सिक्का देख ले
सौ रूपे के नोट के मुँह पर दो अन्नी थूक दे
वक़्त से पहले ही आई है क़यामत देखिए
मुँह को ढाँपे रो रही है आदमियत देखिए
दूर जा कर किस लिए तस्वीर-ए-इबरत देखिए
अपने क़िबला 'जोश' साहब ही की हालत देखिए
इतनी गम्भीरी पे भी मर-मर के जीते हैं जनाब
सौ जतन करते हैं तो इक घूँट पीते हैं जनाब
अलबेली सुब्ह / जोश मलीहाबादी / नज़्म
नज़र झुकाए उरूस-ए-फ़ितरत जबीं से ज़ुल्फ़ें हटा रही है
सहर का तारा है ज़लज़ले में उफ़ुक़ की लौ थरथरा रही है
रविश रविश नग़्मा-ए-तरब है चमन चमन जश्न-ए-रंग-ओ-बू है
तुयूर शाख़ों पे हैं ग़ज़ल-ख़्वाँ कली कली गुनगुना रही है
सितारा-ए-सुब्ह की रसीली झपकती आँखों में हैं फ़साने
निगार-ए-महताब की नशीली निगाह जादू जगा रही है
तुयूर बज़्म-ए-सहर के मुतरिब लचकती शाख़ों पे गा रहे हैं
नसीम फ़िरदौस की सहेली गुलों को झूला झुला रही है
कली पे बेले की किस अदा से पड़ा है शबनम का एक मोती
नहीं ये हीरे की कील पहने कोई परी मुस्कुरा रही है
सहर को मद्द-ए-नज़र हैं कितनी रिआयतें चश्म-ए-ख़ूँ-फ़िशाँ की
हवा बयाबाँ से आने वाली लहू में सुर्ख़ी बढ़ा रही है
शलूका पहने हुए गुलाबी हर इक सुबुक पंखुड़ी चमन में
रंगी हुई सुर्ख़ ओढ़नी का हवा में पल्लू सुखा रही है
फ़लक पे इस तरह छुप रहे हैं हिलाल के गिर्द-ओ-पेश तारे
कि जैसे कोई नई नवेली जबीं से अफ़्शाँ छुड़ा रही है
खटक ये क्यूँ दिल में हो चली फिर चटकती कलियो? ज़रा ठहरना
हवा-ए-गुलशन की नर्म रो में ये किसी की आवाज़ आ रही है?
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