ईश्वर पर कविताएँ God Kavita Poem Poetry
नई खेती रमाशंकर यादव विद्रोही कविता
मैं किसान हूँ
आसमान में धान बो रहा हूँ।
कुछ लोग कह रहे हैं,
कि पगले आसमान में धान नहीं जमता,
मैं कहता हूँ कि
गेगले-घोघले
अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है,
तो आसमान में धान भी जम सकता है।
और अब तो
दोनों में एक होकर रहेगा—
या तो ज़मीन से भगवान उखड़ेगा
या आसमान में धान जमेगा।
स्रोत :
पुस्तक : नई खेती (पृष्ठ 115) रचनाकार : रमाशंकर यादव विद्रोही प्रकाशन : सांस, जसम संस्करण : 2011
नवस्तुति अविनाश मिश्र कविता
शैलपुत्री
तुम्हारा स्मरण संकल्प का स्मरण है—
अनामंत्रण के प्रस्ताव और उसके प्रभाव का स्मरण
तुम्हारा स्मरण उस आलोचना का स्मरण है
जिसमें एक भी उद्धरण नहीं
रचना और पुनर्रचना के लिए
अपमान और व्यथा की अनिवार्यता का
स्मरण करता हूँ मैं
स्मरण करता हूँ
एकांत और बहिर्गमन के पार
ले चलने वाले विवेक का
मैं चाहता हूँ
एक असमाप्त स्मरण
चाहता हूँ
अनतिक्रमणीय चरण
चिरदरिद्र मैं माँगता हूँ
तुम्हारी शरण!
ब्रह्मचारिणी
तप का एक अखंड कांड हो तुम—
देह की सामर्थ्य का सफल अनुशासन
विध्वंस जब अस्तित्व पर व्योम-सा सवार है
तुम मनोकामना का रोमांच हो
तुम्हारे तप
तुम्हारे अनुशासन
तुम्हारे रोमांच से अपरिचित
नागरिकों की देह नहीं जानती सामर्थ्य
वह जानती है बस—
सारी गिनतियों से बाहर छूट जाना
वे उपवास में हैं
वे विलाप में हैं
मनोकामना के लिए तप में नहीं
ताप में हैं
तप करो माँ, परंतु
तप से नागरिक-शोक हरो माँ!
चंद्रघंटा
ध्वनियाँ गूँजती हैं,
पुकारती हैं—
गूँजती हैं—दसों दिशाओं में—
पुकारती हैं—ध्वनियाँ
ध्वनियों से संकट को परास्त करने की
युक्ति लेकर आए हैं आततायी—
इस नवयुग में
व्याधि और भय के प्रसार में
क्या यह तुम्हारे ही चरित्र,
तुम्हारी ही प्रेरणा से संभव है
एक ही स्थापत्य में
कोई भवन देखता है कोई खँडहर
सत्यासत्य का भेद
दृष्टि-निर्भर है
दुरभिसंधियों की विचित्र दुर्गंध में
दया जया!
कूष्माण्डा
सृष्टि संभव हुई है तुम से
आदिकवयित्री हो तुम
तब जब तम ही तम था
तुम प्रकाशित थीं
अब जब इतना प्रकाशन है
प्रकाशित होते ही मरण है
तब कहाँ कौन-से तम में
किस सृष्टि के लिए
कैसे सृजन के लिए
हँस रही हो तुम
क्या जन उसी तरह मरेंगे
जैसे वे जीवित हैं
या बचेंगे
तुम्हारी अष्टभुजाओं से
कृपा
आदिस्वरूपा!
स्कंदमाता
विपत्ति तथा मूर्खता में
एक साथ फँस चुका है समय
दोष और दायित्व दूसरों पर
मढ़ देने का समय है यह
शत्रु तो बहुत दूर है
मित्र ही शत्रु हुए जाते हैं
हृदय अवसाद से भर चुका है
समीप सड़न से
शासन पतन से—
धर्म को नष्ट कर रहा है वह
मुझे अपनी मूढ़ता में मग्न रहने दो देवि,
तथ्यों और सूचनाओं का निषेध करने दो
ज्ञान नहीं है वह
ज्ञान की तरह प्रस्तुत है बस
मुझसे पूर्व भी जान चुके हैं कवि—
कुलीनता की हिंसा!
कात्यायनी
तुम्हारा स्मरण अत्यंत कल्याणकारी है,
लेकिन तुम स्वयं विघ्नों से घिरी हुई हो
मैं तुम्हें तब से जानता हूँ
जब तुम्हारे पास अपना कोई घोषणापत्र नहीं था
मुक्ति के लिए तुम्हारा संघर्ष
विचारपूर्ण प्रस्तावनाओं से युक्त था
वे लाल आवरण वाले उस घोषणापत्र से ली गई थीं
जो आने वाली बारिशों में काले नमक के रंग का हो गया
जिसे सांध्यकालीन बैठकों में शराब के साथ सलाद पर बुरका गया
बेतरह धुएँ से भरी इन बैठकों ने सब कुछ धुँधला कर दिया
तुम उनमें से नहीं हो
जिन्हें जब कुछ मिलता है, तब वे ठुकराते हैं
तुम ठोकर लगाओगी;
यह जानकर चीज़ें तुम तक आईं ही नहीं
तुम देर से आईं,
और जल्द पहचानी गईं!
कालरात्रि
ध्यान करता हूँ,
तुम्हारा ध्यान करता हूँ
तुम्हारी अनूठी कालिमा,
तुम्हारे मुक्त केशों का ध्यान करता हूँ
तुम्हारी चमकती आँखों का
ध्यान करता हूँ बार-बार
तुम्हारे तने हुए स्तनों का
जिनसे पाया आश्रय और आहार
ध्यान करता हूँ तुम्हारी सारी मुद्राओं का
जिनसे पाया निर्भय व्यवहार
ध्यान करता हूँ
तुम्हारा ध्यान करना
तुम्हारा ध्यान न करना
आपदा को आमंत्रित करना है
तुम्हें भूल गया,
इसलिए तुम्हारा ध्यान करता हूँ!
महागौरी
संकट सुदीर्घ हो या संकीर्ण,
एक रचनाकार प्रथमतः सौंदर्य-साधक होता है
संकट में सौंदर्य का अन्वेषण,
रचना की भौतिकी है
सब कुछ सौंदर्य है
क्लेश कुछ नहीं
कष्ट का कोई अर्थ नहीं
यह दुःख व्यर्थ है
केवल कोलाहल है,
अगर रूपांतरित न हो सके सौंदर्य में
हे महाशक्ति,
क्या तुम उनकी दीनता देख नहीं सकतीं
जिन्होंने जानी ही नहीं सुंदरता—
सदियों से वंचित
उन्हें वर दो,
सुंदर कर दो!
सिद्धिदात्री
जब सारी कविताएँ हो चुकीं
तब भी शेष है एक कविता
उसे भी कोई कहेगा
कि उसका अनुकरण हो सके
इस प्रकार कविता होती रहेगी
और अनुकरण भी
और सारी कविताओं का हो चुकना भी
और एक कविता का शेष रहना भी
जिसे जब कोई नहीं रचेगा अम्बिके,
तब उसे रचूँगा मैं
यह सिद्धि दो मुझे
उसका अनुकरण कर सकूँ
कि उसका अनुकरण हो सके
अनिवार्य है यह कार्यभार
मैं संशय से न देखूँ कविता को
कि कविता संशय से देखे संसार को!
स्रोत :
रचनाकार : अविनाश मिश्र प्रकाशन : समालोचन
पतंग संजय चतुर्वेदी कविता
रोचक तथ्य
इस कविता के लिए कवि को भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार प्राप्त हुआ।
तीन तिरछी पट्टियों वाली पतंग
मई की शाम के आकाश में
ऊपर जामुनी
बीच में वसंती
और नीचे आसमान के दीप्तिमान नीले में
जादुई फ़िरोज़ी
अंतरिक्ष के अक्षांशों को बदलती
वायु के आघूर्ण
और बरनूली की प्रमेय पर सवार
हिचकोले खा के नाव-सी उतरती है वर्तमान में
जैसे उतरता हो आकाशदीप
क्षितिज की कोमल और अँधेरी रेखाओं में
अचानक घास हवा और ज़मीन से
निकलते हैं बच्चे
वीर-विहीन धरती पर कुछ होने की शुभाशंका की तरह
बेस्वाद घरों की आकृतियों को अपनी लग्गियों से जगाते
सर्र से निकल जाते है सूरज के सामने से
तेज़ भागती गाड़ियों और टेनिस खेलकर लौटती औरतों के सामने से
उड़नतश्तरी अटक जाती है टेलीफ़ोन के तार में
अपने हाथ ऊपर उठाते हैं
डोर से बँधे सूफ़ी
और यह उतरा हंस
उच्छल जलधि में
छूते ही टूट जाता है शिव का धनुष
टंकार से काँपती हैं दसों दिशाएँ
बोलती बंद सन्निपात और हड़कंप
फिर सब सहज
मुक्त होकर निश्छल लौटते हैं
एक दूसरे को चपतियाते
छोटी-छोटी बातों पर हँस-हँसकर लोटपोट होते
ये शिव-धनु-भंजक मानव के रणंजय
एटलांटिक और प्रशांत को जोड़ने वाले पाँव
उधर कहीं समेटी जा रही है बाक़ी बची डोर
अगली यात्रा के लिए तौले जा रहे हैं जहाज़
तेज़ी से काम कर रही हैं अभियान की सूरतें
कभी न हारने वाली आशाएँ
उत्तरी ध्रुव एंटार्कटिका सगरमाथा को छूने वाली उंगलियाँ
इधर सूरज हो गया दार्शनिक अरुणाभ
शिव के आशीर्वाद की तरह
और यह देखो फिर एक हरी पतंग ने
गाँठ की तरह जोड़ दिया हमारी डोर को
सूर्य के जाते हुए रथ से
लोकातीत सूत्रों तक।
स्रोत : रचनाकार : संजय चतुर्वेदी प्रकाशन
आत्मत्राण-अनुवाद : हजारीप्रसाद द्विवेदी-रवींद्रनाथ टैगोर कविता
नोट
प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा दसवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
विपदाओं से मुझे बचाओ, यह मेरी प्रार्थना नहीं
केवल इतना हो (करुणामय)
कभी न विपदा में पाऊँ भय।
दुःख-ताप से व्यथित चित्त को न दो सांत्वना नहीं सही
पर इतना होवे (करुणामय)
दु:ख को मैं कर सकूँ सदा जय।
कोई कहीं सहायक न मिले
तो अपना बल पौरुष न हिले;
हानि उठानी पड़े जगत् में लाभ अगर वंचना रही
तो भी मन में ना मानूँ क्षय॥
मेरा त्राण करो अनुदिन तुम यह मेरी प्रार्थना नहीं
बस इतना होवे (करुणायम)
तरने की हो शक्ति अनामय।
मेरा भार अगर लघु करके न दो सांत्वना नहीं सही
केवल इतना रखना अनुनय—
वहन कर सकूँ इसको निर्भय।
नत शिर होकर सुख के दिन में
तव मुख पहचानूँ छिन-छिन में।
दुःख-रात्रि में करे वंचना मेरी जिस दिन निखिल मही
उस दिन ऐसा हो करुणामय,
तुम पर करूँ नहीं कुछ संशय॥
वीडियो
स्रोत :
पुस्तक : स्पर्श (भाग-2), कक्षा-10 (पृष्ठ 38) रचनाकार : रबिन्द्रनाथ टैगोर प्रकाशन : एन.सी. ई.आर.टी संस्करण : 2022
समतल-आदर्श भूषण कविता
समुद्र के पानी में आया नमक
रात की बही हुई उदासी है
नदियाँ मीठी इसलिए हैं
क्योंकि उन्हें तटों के कंधों का सहारा है
सुख का गंतव्य दुःख में विलय है
जैसे नदियाँ अपनी मिठास
समुद्र के खारेपन में मिलने से नहीं बचा सकतीं
समुद्र कहीं किसी कोने में जाकर नहीं गिरता
पृथ्वी का कोई कोना नहीं है
ऐसा पाइथागोरस कहता था
पृथ्वी का कोई हिस्सा
न ऊपर है
न नीचे
समतल एक भ्रम है
जीवन समतल की तरह भले दिखता हो
होता नहीं है
हम अपना पूरा जीवन
एक वक्र रेखा को सरल कहकर और
एक वृत्त को बिंदु मानकर गुज़ार देते हैं
समय कभी भी सरल रेखा में नहीं चलता
भूख की रात सबसे लंबी होती है और
ग्लानि का दिन सबसे गर्म
बिछोह की शाम सबसे ज़्यादा कोंचती है और
बेगारी की सुबह सबसे ज़्यादा चुभती है
समय अपना धर्म कभी नहीं भूलता
ईश्वर और धर्म दो अलग रास्ते हैं
धर्म का ज्ञान ईश्वरीय नहीं और
ईश्वर धार्मिक कभी नहीं हो सकता।
स्रोत :
रचनाकार : आदर्श भूषण प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
सम्राज्ञी का नैवेद्य-दान अज्ञेय कविता
रोचक तथ्य
जापान की सम्राज्ञी कोमियो प्राचीन राजधानी नारा के बुद्ध-मंदिर में जाते समय असमंजस में पड़ गई थी कि चढ़ाने को क्या ले जाए और फिर रीते हाथ गई थी। यही घटना कविता का आधार है।
हे महाबुद्ध!
मैं मंदिर में आई हूँ
रीते हाथ :
फूल मैं ला न सकी।
औरों का संग्रह
तेरे योग्य न होता।
जो मुझे सुनाती
जीवन के विह्वल सुख-क्षण का गीत—
खोलता रूप-जगत् के द्वार जहाँ
तेरी करुणा
बुनती रहती है
भव के सपनों, क्षण के आनंदों के
रह:सूत्र अविराम—
उस भोली मुग्धा को
कँपती
डाली से विलगा न सकी।
जो कली खिलेगी जहाँ, खिली,
जो फूल जहाँ है,
जो भी सुख
जिस भी डाली पर
हुआ पल्लवित, पुलकित,
मैं उसे वहीं पर
अक्षत, अनाघ्रात, अस्पृष्ट, अनाविल,
हे महाबुद्ध!
अर्पित करती हूँ तुझे।
वहीं-वहीं प्रत्येक भरे प्याला जीवन का,
वहीं-वहीं नैवेद्य चढ़ा
अपने सुंदर आनंद-निमिष का,
तेरा हो,
हे विगतागत के, वर्तमान के, पद्मकोश!
हे महाबुद्ध!
धूलि-मंदिर अनुवाद : हंसकुमार तिवारी - रवींद्रनाथ टैगोर कविता
भजन-पूजन साधना-आराधना, सब-कुछ पड़ा रहे
अरे, देवालय का द्वार बंद किए क्यों पड़ा है!
अँधेरे में छिपकर अपने-आप
चुपचाप तू किसे पूजता है?
आँख खोलकर ध्यान से देख तो सही—देवता घर में नहीं हैं।
.
देवता तो वहाँ गए हैं, जहाँ माटी गोड़कर खेतिहर खेती करते हैं—
पत्थर काटकर राह बना रहे हैं, बारहों महीने खट रहे हैं।
क्या धूप, क्या वर्षा, हर हालत में सबके साथ हैं
उनके दोनों हाथों में धूल लगी हुई है
अरे, तू भी उन्हीं के समान स्वच्छ कपड़े बदलकर धूल पर जा।
मुक्ति? मुक्ति कहाँ पाएगा भला, मुक्ति है कहाँ?
स्वयं प्रभु ही तो सृष्टि के बंधन में सबके निकट बँधे हुए हैं।
अरे, छोड़ो भी यह ध्यान, रहने भी दो फूलों की डलिया
कपड़े फट जाने दो, धूल-बालू लगे
कर्मयोग में उनसे कंधा मिलाकर पसीना बहने दो।
मज़दूर और मसीह अनुवाद : हरिवंशराय बच्चन - अलेक्सेइ खोम्याकोव कविता
पूरे दिन, जब तक उसके हाथों में बल था,
वह हलवाहा भारी हल को धीरज धरकर
चला रहा था, उलट रहा था
बड़े-बड़े माटी के ढोके
जिनके ऊपर घास उगी थी,
बना रहा था लंबे-गहरे खूड खेत में।
उफ़! जब मुझको घेरे निर्दय घृणा खड़ी थी,
मेरे पौरुष-हिम्मत पर ताने कसती थी,
मेरी मेहनत पर हँसती थी,
भूत की तरह दिए काम में जुता हुआ था,
पर अब चूर हुआ हूँ थककर,
चूर हुआ हूँ।
अब मुझको आराम चाहिए।
काश, निंदारे मैदानों में
छाया वाले तरुवर होते जिनकी डालें
मेरी स्वेद-सनी काया के ऊपर
मेहराबों-सी झुकती
जिनके नीचे कल-कल करती धारा बहती।
काश कि क्षण भर
उस छाया में, उस धारा के ऊपर झुककर
प्यास बुझाता, लंबी ठंडी साँस खींचता,
जैसे नभ की साध्य गद्य भी पी जाऊँगा।
काश कि जल से अंजलि भर-भर
सिर माथे का मद-पसीना धोता,
अपनी चिंताओं का भार हटाता।”
बड़ा मूर्ख है। छाया तेरे लिए नहीं है।
तुझे नहीं आराम बदा है। काम किए जा।
करता ही जा।
डाल नज़र खेतों पर कितना कुछ करने को।
कितना थोड़ा समय बचा है।
उठ न पराजित हो तू अपनी कमज़ोरी से।
तेरे स्वामी की आज्ञा है।
उठ! फिर अपना काम शुरू कर।
तुझे ख़रीदा था मैंने भारी क़ीमत पर,
उस सलीब से जिसपर मैंने अपना जीवन-रक्त दिया था।
हलवाहे, जो काम बताया मैंने तुझको
तू कर उसको शीश झुकाकर
मेहनतकश, मेहनत कर कसकर अनथक दिन भर।
प्रभु, तेरी इच्छा के मार्ग में नत-मस्तक,
कंपित, अर्पित।
तेरे अज्ञानी सेवक ने जो प्रमाद-वश कह डाला था
तेरी न्याय-पुस्तिका में मत हो वह अंकित।
जो तेरा आदेश करूँगा उसको पूरा
स्वेद और श्रम से वे हारे,
मैं न थकूँगा, मैं न झुकाऊँगा पलकों को
लगा न पाता जब तक तेरा काम किनारे।
अब तेरा सेवक आलस-वश कभी न होगा,
हाथ हटाएगा न कभी हल के हत्थे से,
भली भाँति उन खेतों को तैयार करेगा
जिनमें तेरे वरद करों से बीज पड़ेगा।
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