Meer Taqi Meer Ghazals – Classical Urdu Poetry in Hindi | मीर तकी मीर की ग़ज़लें

मीर तक़ी 'मीर' / परिचय
“मीर के शेर का अह्‌वाल कहूं क्या ग़ालिब
जिस का दीवान कम अज़-गुलशन-ए कश्मीर नही”

मोहम्मद मीर उर्फ मीर तकी "मीर" (1723 - 1810) उर्दू एवं फ़ारसी भाषा के महान शायर थे। मीर का जन्म आगरा मे हुआ था। उनका बचपन अपने पिता की देख रेख मे बीता। उनके जीवन में प्यार और करुणा के महत्त्व के प्रति नजरिये का, मीर के जीवन पे गहरा प्रभाव पड़ा। इसकी झलक उनके शेरो मे भी देखने को मिलती है। पिता के मरणोपरांत ११ की वय मे वो आगरा छोड़ कर दिल्ली आ गये। दिल्ली आ कर उन्होने अपनी पढाई पूरी की और शाही शायर बन गये। अहमद शाह अब्दाली के दिल्ली पर हमले के बाद वह अशफ-उद-दुलाह के दरबार मे लखनऊ चले गये। अपनी ज़िन्दगी के बाकी दिन उन्होने लखनऊ मे ही गुजारे।

अहमद शाह अब्दाली और नादिरशाह के हमलों से कटी-फटी दिल्ली को मीर तक़ी मीर ने अपनी आँखों से देखा था। इस त्रासदी की व्यथा उनके कलामो मे दिखती है, अपनी ग़ज़लों के बारे में एक जगह उन्होने कहा था-

हमको शायर न कहो मीर कि साहिब हमने
दर्दो ग़म कितने किए जमा तो दीवान किया

मीर तक़ी मीर की टॉप 10 शायरी

नाज़ुकी उस के लब की क्या कहिए
पंखुड़ी इक गुलाब की सी है


राह-ए-दूर-ए-इश्क़ में रोता है क्या
आगे आगे देखिए होता है क्या


पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है


अब तो जाते हैं बुत-कदे से 'मीर'
फिर मिलेंगे अगर ख़ुदा लाया


आग थे इब्तिदा-ए-इश्क़ में हम
अब जो हैं ख़ाक इंतिहा है ये


ले साँस भी आहिस्ता कि नाज़ुक है बहुत काम
आफ़ाक़ की इस कारगह-ए-शीशागरी का


मत सहल हमें जानो फिरता है फ़लक बरसों
तब ख़ाक के पर्दे से इंसान निकलते हैं


याद उस की इतनी ख़ूब नहीं 'मीर' बाज़ आ
नादान फिर वो जी से भुलाया न जाएगा


'मीर' के दीन-ओ-मज़हब को अब पूछते क्या हो उन ने तो
क़श्क़ा खींचा दैर में बैठा कब का तर्क इस्लाम किया


इश्क़ इक 'मीर' भारी पत्थर है
कब ये तुझ ना-तवाँ से उठता है

मीर तकी मीर की ग़ज़लें


 पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है / ग़ज़ल (अति लोकप्रिय )

पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है

लगने न दे बस हो तो उस के गौहर-ए-गोश को बाले तक
उस को फ़लक चश्म-ए-मह-ओ-ख़ुर की पुतली का तारा जाने है

आगे उस मुतकब्बिर के हम ख़ुदा ख़ुदा किया करते हैं
कब मौजूद ख़ुदा को वो मग़रूर-ए-ख़ुद-आरा जाने है

आशिक़ सा तो सादा कोई और न होगा दुनिया में
जी के ज़ियाँ को इश्क़ में उस के अपना वारा जाने है

चारागरी बीमारी-ए-दिल की रस्म-ए-शहर-ए-हुस्न नहीं
वर्ना दिलबर-ए-नादाँ भी इस दर्द का चारा जाने है

क्या ही शिकार-फ़रेबी पर मग़रूर है वो सय्याद बचा
ताइर उड़ते हवा में सारे अपने असारा जाने है

मेहर ओ वफ़ा ओ लुत्फ़-ओ-इनायत एक से वाक़िफ़ इन में नहीं
और तो सब कुछ तंज़ ओ किनाया रम्ज़ ओ इशारा जाने है

क्या क्या फ़ित्ने सर पर उस के लाता है माशूक़ अपना
जिस बे-दिल बे-ताब-ओ-तवाँ को इश्क़ का मारा जाने है

रख़नों से दीवार-ए-चमन के मुँह को ले है छुपा या'नी
इन सूराख़ों के टुक रहने को सौ का नज़ारा जाने है

तिश्ना-ए-ख़ूँ है अपना कितना 'मीर' भी नादाँ तल्ख़ी-कश
दम-दार आब-ए-तेग़ को उस के आब-ए-गवारा जाने है



उल्टी हो गईं सब तदबीरें कुछ न दवा ने काम किया

उल्टी हो गईं सब तदबीरें कुछ न दवा ने काम किया
देखा इस बीमारी-ए-दिल ने आख़िर काम तमाम किया

अहद-ए-जवानी रो रो काटा पीरी में लीं आँखें मूँद
या'नी रात बहुत थे जागे सुब्ह हुई आराम किया

हर्फ़ नहीं जाँ-बख़्शी में उस की ख़ूबी अपनी क़िस्मत की
हम से जो पहले कह भेजा सो मरने का पैग़ाम किया

नाहक़ हम मजबूरों पर ये तोहमत है मुख़्तारी की
चाहते हैं सो आप करें हैं हम को अबस बदनाम किया

सारे रिंद औबाश जहाँ के तुझ से सुजूद में रहते हैं
बाँके टेढ़े तिरछे तीखे सब का तुझ को इमाम किया

सरज़द हम से बे-अदबी तो वहशत में भी कम ही हुई
कोसों उस की ओर गए पर सज्दा हर हर गाम किया

किस का काबा कैसा क़िबला कौन हरम है क्या एहराम
कूचे के उस के बाशिंदों ने सब को यहीं से सलाम किया

शैख़ जो है मस्जिद में नंगा रात को था मय-ख़ाने में
जुब्बा ख़िर्क़ा कुर्ता टोपी मस्ती में इनआ'म किया

काश अब बुर्क़ा मुँह से उठा दे वर्ना फिर क्या हासिल है
आँख मुँदे पर उन ने गो दीदार को अपने आम किया

याँ के सपीद ओ सियह में हम को दख़्ल जो है सो इतना है
रात को रो रो सुब्ह किया या दिन को जूँ तूँ शाम किया

सुब्ह चमन में उस को कहीं तकलीफ़-ए-हवा ले आई थी
रुख़ से गुल को मोल लिया क़ामत से सर्व ग़ुलाम किया

साअद-ए-सीमीं दोनों उस के हाथ में ला कर छोड़ दिए
भूले उस के क़ौल-ओ-क़सम पर हाए ख़याल-ए-ख़ाम किया

काम हुए हैं सारे ज़ाएअ' हर साअ'त की समाजत से
इस्तिग़्ना की चौगुनी उन ने जूँ जूँ मैं इबराम किया

ऐसे आहु-ए-रम-ख़ुर्दा की वहशत खोनी मुश्किल थी
सेहर किया ए'जाज़ किया जिन लोगों ने तुझ को राम किया

'मीर' के दीन-ओ-मज़हब को अब पूछते क्या हो उन ने तो
क़श्क़ा खींचा दैर में बैठा कब का तर्क इस्लाम किया



हस्ती अपनी हबाब की सी है

हस्ती अपनी हबाब की सी है
ये नुमाइश सराब की सी है

नाज़ुकी उस के लब की क्या कहिए
पंखुड़ी इक गुलाब की सी है

चश्म-ए-दिल खोल इस भी आलम पर
याँ की औक़ात ख़्वाब की सी है

बार बार उस के दर पे जाता हूँ
हालत अब इज़्तिराब की सी है

नुक़्ता-ए-ख़ाल से तिरा अबरू
बैत इक इंतिख़ाब की सी है

मैं जो बोला कहा कि ये आवाज़
उसी ख़ाना-ख़राब की सी है

आतिश-ए-ग़म में दिल भुना शायद
देर से बू कबाब की सी है

देखिए अब्र की तरह अब के
मेरी चश्म-ए-पुर-आब की सी है

'मीर' उन नीम-बाज़ आँखों में
सारी मस्ती शराब की सी है



देख तो दिल कि जाँ से उठता है

देख तो दिल कि जाँ से उठता है
ये धुआँ सा कहाँ से उठता है

गोर किस दिलजले की है ये फ़लक
शोला इक सुब्ह याँ से उठता है

ख़ाना-ए-दिल से ज़ीनहार न जा
कोई ऐसे मकाँ से उठता है

नाला सर खींचता है जब मेरा
शोर इक आसमाँ से उठता है

लड़ती है उस की चश्म-ए-शोख़ जहाँ
एक आशोब वाँ से उठता है

सुध ले घर की भी शोला-ए-आवाज़
दूद कुछ आशियाँ से उठता है

बैठने कौन दे है फिर उस को
जो तिरे आस्ताँ से उठता है

यूँ उठे आह उस गली से हम
जैसे कोई जहाँ से उठता है

इश्क़ इक 'मीर' भारी पत्थर है
कब ये तुझ ना-तवाँ से उठता है



फ़क़ीराना आए सदा कर चले

फ़क़ीराना आए सदा कर चले
कि म्याँ ख़ुश रहो हम दुआ कर चले

जो तुझ बिन न जीने को कहते थे हम
सो इस अहद को अब वफ़ा कर चले

शिफ़ा अपनी तक़दीर ही में न थी
कि मक़्दूर तक तो दवा कर चले

पड़े ऐसे अस्बाब पायान-ए-कार
कि नाचार यूँ जी जला कर चले

वो क्या चीज़ है आह जिस के लिए
हर इक चीज़ से दिल उठा कर चले

कोई ना-उमीदाना करते निगाह
सो तुम हम से मुँह भी छुपा कर चले

बहुत आरज़ू थी गली की तिरी
सो याँ से लहू में नहा कर चले

दिखाई दिए यूँ कि बे-ख़ुद किया
हमें आप से भी जुदा कर चले

जबीं सज्दा करते ही करते गई
हक़-ए-बंदगी हम अदा कर चले

परस्तिश की याँ तक कि ऐ बुत तुझे
नज़र में सभों की ख़ुदा कर चले

झड़े फूल जिस रंग गुलबुन से यूँ
चमन में जहाँ के हम आ कर चले

न देखा ग़म-ए-दोस्ताँ शुक्र है
हमीं दाग़ अपना दिखा कर चले

गई उम्र दर-बंद-ए-फ़िक्र-ए-ग़ज़ल
सो इस फ़न को ऐसा बड़ा कर चले

कहें क्या जो पूछे कोई हम से 'मीर'
जहाँ में तुम आए थे क्या कर चले



क्या कहूँ तुम से मैं कि क्या है इश्क़

क्या कहूँ तुम से मैं कि क्या है इश्क़
जान का रोग है बला है इश्क़

इश्क़ ही इश्क़ है जहाँ देखो
सारे आलम में भर रहा है इश्क़

इश्क़ है तर्ज़ ओ तौर इश्क़ के तईं
कहीं बंदा कहीं ख़ुदा है इश्क़

इश्क़ मा'शूक़ इश्क़ आशिक़ है
या'नी अपना ही मुब्तला है इश्क़

गर परस्तिश ख़ुदा की साबित की
किसू सूरत में हो भला है इश्क़

दिलकश ऐसा कहाँ है दुश्मन-ए-जाँ
मुद्दई है प मुद्दआ है इश्क़

है हमारे भी तौर का आशिक़
जिस किसी को कहीं हुआ है इश्क़

कोई ख़्वाहाँ नहीं मोहब्बत का
तू कहे जिंस-ए-ना-रवा है इश्क़

'मीर'-जी ज़र्द होते जाते हो
क्या कहीं तुम ने भी किया है इश्क़



अश्क आँखों में कब नहीं आता

अश्क आँखों में कब नहीं आता
लोहू आता है जब नहीं आता

होश जाता नहीं रहा लेकिन
जब वो आता है तब नहीं आता

सब्र था एक मोनिस-ए-हिज्राँ
सो वो मुद्दत से अब नहीं आता

दिल से रुख़्सत हुई कोई ख़्वाहिश
गिर्या कुछ बे-सबब नहीं आता

इश्क़ को हौसला है शर्त अर्ना
बात का किस को ढब नहीं आता

जी में क्या क्या है अपने ऐ हमदम
पर सुख़न ता-ब-लब नहीं आता

दूर बैठा ग़ुबार-ए-'मीर' उस से
इश्क़ बिन ये अदब नहीं आता



राह-ए-दूर-ए-इश्क़ में रोता है क्या

राह-ए-दूर-ए-इश्क़ में रोता है क्या
आगे आगे देखिए होता है क्या

क़ाफ़िले में सुब्ह के इक शोर है
या'नी ग़ाफ़िल हम चले सोता है क्या

सब्ज़ होती ही नहीं ये सरज़मीं
तुख़्म-ए-ख़्वाहिश दिल में तू बोता है क्या

ये निशान-ए-इश्क़ हैं जाते नहीं
दाग़ छाती के अबस धोता है क्या

ग़ैरत-ए-यूसुफ़ है ये वक़्त-ए-अज़ीज़
'मीर' उस को राएगाँ खोता है क्या



जिस सर को ग़ुरूर आज है याँ ताज-वरी का

जिस सर को ग़ुरूर आज है याँ ताज-वरी का
कल उस पे यहीं शोर है फिर नौहागरी का

शर्मिंदा तिरे रुख़ से है रुख़्सार परी का
चलता नहीं कुछ आगे तिरे कब्क-ए-दरी का

आफ़ाक़ की मंज़िल से गया कौन सलामत
अस्बाब लुटा राह में याँ हर सफ़री का

ज़िंदाँ में भी शोरिश न गई अपने जुनूँ की
अब संग मुदावा है इस आशुफ़्ता-सरी का

हर ज़ख़्म-ए-जिगर दावर-ए-महशर से हमारा
इंसाफ़-तलब है तिरी बेदाद-गरी का

अपनी तो जहाँ आँख लड़ी फिर वहीं देखो
आईने को लपका है परेशाँ-नज़री का

सद मौसम-ए-गुल हम को तह-ए-बाल ही गुज़रे
मक़्दूर न देखा कभू बे-बाल-ओ-परी का

इस रंग से झमके है पलक पर कि कहे तू
टुकड़ा है मिरा अश्क अक़ीक़-ए-जिगरी का

कल सैर किया हम ने समुंदर को भी जा कर
था दस्त-ए-निगर पंजा-ए-मिज़्गाँ की तरी का

ले साँस भी आहिस्ता कि नाज़ुक है बहुत काम
आफ़ाक़ की इस कारगह-ए-शीशागरी का

टुक 'मीर'-ए-जिगर-सोख़्ता की जल्द ख़बर ले
क्या यार भरोसा है चराग़-ए-सहरी का



यारो मुझे मुआ'फ़ रखो मैं नशे में हूँ

यारो मुझे मुआ'फ़ रखो मैं नशे में हूँ
अब दो तो जाम ख़ाली ही दो मैं नशे में हूँ

एक एक क़ुर्त दौर में यूँ ही मुझे भी दो
जाम-ए-शराब पुर न करो मैं नशे में हूँ

मस्ती से दरहमी है मिरी गुफ़्तुगू के बीच
जो चाहो तुम भी मुझ को कहो मैं नशे में हूँ

या हाथों हाथ लो मुझे मानिंद-ए-जाम-ए-मय
या थोड़ी दूर साथ चलो मैं नशे में हूँ

मा'ज़ूर हूँ जो पाँव मिरा बे-तरह पड़े
तुम सरगिराँ तो मुझ से न हो मैं नशे में हूँ

भागी नमाज़-ए-जुमा तो जाती नहीं है कुछ
चलता हूँ मैं भी टुक तो रहो मैं नशे में हूँ

नाज़ुक-मिज़ाज आप क़यामत हैं 'मीर' जी
जूँ शीशा मेरे मुँह न लगो मैं नशे में हूँ



हम हुए तुम हुए कि 'मीर' हुए

हम हुए तुम हुए कि 'मीर' हुए
उस की ज़ुल्फ़ों के सब असीर हुए

जिन की ख़ातिर की उस्तुख़्वाँ-शिकनी
सो हम उन के निशान-ए-तीर हुए

नहीं आते कसो की आँखों में
हो के आशिक़ बहुत हक़ीर हुए

आगे ये बे-अदाइयाँ कब थीं
इन दिनों तुम बहुत शरीर हुए

अपने रोते ही रोते सहरा के
गोशे गोशे में आब-गीर हुए

ऐसी हस्ती अदम में दाख़िल है
नय जवाँ हम न तिफ़्ल-ए-शीर हुए

एक दम थी नुमूद बूद अपनी
या सफ़ेदी की या अख़ीर हुए

या'नी मानिंद-ए-सुब्ह दुनिया में
हम जो पैदा हुए सौ पीर हुए

मत मिल अहल-ए-दुवल के लड़कों से
'मीर'-जी उन से मिल फ़क़ीर हुए



बारे दुनिया में रहो ग़म-ज़दा या शाद रहो

बारे दुनिया में रहो ग़म-ज़दा या शाद रहो
ऐसा कुछ कर के चलो याँ कि बहुत याद रहो

इश्क़-पेचे की तरह हुस्न-ए-गिरफ़्तारी है
लुत्फ़ क्या सर्व की मानिंद गर आज़ाद रहो

हम को दीवानगी शहरों ही में ख़ुश आती है
दश्त में क़ैस रहो कोह में फ़रहाद रहो

वो गराँ ख़्वाब जो है नाज़ का अपने सो है
दाद बे-दाद रहो शब को कि फ़रियाद रहो

'मीर' हम मिल के बहुत ख़ुश हुए तुम से प्यारे
इस ख़राबे में मिरी जान तुम आबाद रहो



था मुस्तआर हुस्न से उस के जो नूर था

था मुस्तआर हुस्न से उस के जो नूर था
ख़ुर्शीद में भी उस ही का ज़र्रा ज़ुहूर था

हंगामा गर्म-कुन जो दिल-ए-ना-सुबूर था
पैदा हर एक नाले से शोर-ए-नुशूर था

पहुँचा जो आप को तो मैं पहुँचा ख़ुदा के तईं
मालूम अब हुआ कि बहुत मैं भी दूर था

आतिश बुलंद दिल की न थी वर्ना ऐ कलीम
यक शो'ला बर्क़-ए-ख़िर्मन-ए-सद-कोह-ए-तूर था

मज्लिस में रात एक तिरे परतवे बग़ैर
क्या शम्अ क्या पतंग हर इक बे-हुज़ूर था

उस फ़स्ल में कि गुल का गरेबाँ भी है हवा
दीवाना हो गया सो बहुत ज़ी-शुऊर था

मुनइ'म के पास क़ाक़ुम ओ संजाब था तो क्या
उस रिंद की भी रात गुज़र गई जो ऊर था

हम ख़ाक में मिले तो मिले लेकिन ऐ सिपहर
उस शोख़ को भी राह पे लाना ज़रूर था

कल पाँव एक कासा-ए-सर पर जो आ गया
यकसर वो उस्तुख़्वान शिकस्तों से चूर था

कहने लगा कि देख के चल राह बे-ख़बर
मैं भी कभू किसू का सर-ए-पुर-ग़ुरूर था

था वो तो रश्क-ए-हूर-ए-बहिश्ती हमीं में 'मीर'
समझे न हम तो फ़हम का अपनी क़ुसूर था



ज़ख़्म झेले दाग़ भी खाए बहुत

ज़ख़्म झेले दाग़ भी खाए बहुत
दिल लगा कर हम तो पछताए बहुत

जब न तब जागह से तुम जाया किए
हम तो अपनी ओर से आए बहुत

दैर से सू-ए-हरम आया न टुक
हम मिज़ाज अपना इधर लाए बहुत

फूल गुल शम्स ओ क़मर सारे ही थे
पर हमें इन में तुम्हीं भाए बहुत

गर बुका इस शोर से शब को है तो
रोवेंगे सोने को हम-साए बहुत

वो जो निकला सुब्ह जैसे आफ़्ताब
रश्क से गुल फूल मुरझाए बहुत

'मीर' से पूछा जो मैं आशिक़ हो तुम
हो के कुछ चुपके से शरमाए बहुत



आरज़ूएँ हज़ार रखते हैं

आरज़ूएँ हज़ार रखते हैं
तो भी हम दिल को मार रखते हैं

बर्क़ कम-हौसला है हम भी तो
दिलक-ए-बे-क़रार रखते हैं

ग़ैर ही मूरिद-ए-इनायत है
हम भी तो तुम से प्यार रखते हैं

न निगह ने पयाम ने वा'दा
नाम को हम भी यार रखते हैं

हम से ख़ुश-ज़मज़मा कहाँ यूँ तो
लब ओ लहजा हज़ार रखते हैं

चोट्टे दिल के हैं बुताँ मशहूर
बस यही ए'तिबार रखते हैं

फिर भी करते हैं 'मीर' साहब इश्क़
हैं जवाँ इख़्तियार रखते हैं



क्या हक़ीक़त कहूँ कि क्या है इश्क़

क्या हक़ीक़त कहूँ कि क्या है इश्क़
हक़-शनासों के हाँ ख़ुदा है इश्क़

दिल लगा हो तो जी जहाँ से उठा
मौत का नाम प्यार का है इश्क़

और तदबीर को नहीं कुछ दख़्ल
इश्क़ के दर्द की दवा है इश्क़

क्या डुबाया मुहीत में ग़म के
हम ने जाना था आश्ना है इश्क़

इश्क़ से जा नहीं कोई ख़ाली
दिल से ले अर्श तक भरा है इश्क़

कोहकन क्या पहाड़ काटेगा
पर्दे में ज़ोर-आज़मा है इश्क़

इश्क़ है इश्क़ करने वालों को
कैसा कैसा बहम किया है इश्क़

कौन मक़्सद को इश्क़ बिन पहुँचा
आरज़ू इश्क़ मुद्दआ है इश्क़

'मीर' मरना पड़े है ख़ूबाँ पर
इश्क़ मत कर कि बद बला है इश्क़



ग़म रहा जब तक कि दम में दम रहा

ग़म रहा जब तक कि दम में दम रहा
दिल के जाने का निहायत ग़म रहा

हुस्न था तेरा बहुत आलम-फ़रेब
ख़त के आने पर भी इक आलम रहा

दिल न पहुँचा गोशा-ए-दामाँ तलक
क़तरा-ए-ख़ूँ था मिज़ा पर जम रहा

सुनते हैं लैला के ख़ेमे को सियाह
उस में मजनूँ का मगर मातम रहा

जामा-ए-एहराम-ए-ज़ाहिद पर न जा
था हरम में लेक ना-महरम रहा

ज़ुल्फ़ें खोलीं तो तू टुक आया नज़र
उम्र भर याँ काम-ए-दिल बरहम रहा

उस के लब से तल्ख़ हम सुनते रहे
अपने हक़ में आब-ए-हैवाँ सम रहा

मेरे रोने की हक़ीक़त जिस में थी
एक मुद्दत तक वो काग़ज़ नम रहा

सुब्ह-ए-पीरी शाम होने आई 'मीर'
तू न चेता याँ बहुत दिन कम रहा



हमारे आगे तिरा जब किसू ने नाम लिया

हमारे आगे तिरा जब किसू ने नाम लिया
दिल-ए-सितम-ज़दा को हम ने थाम थाम लिया

क़सम जो खाइए तो ताला-ए-ज़ुलेख़ा की
अज़ीज़-ए-मिस्र का भी साहब इक ग़ुलाम लिया

ख़राब रहते थे मस्जिद के आगे मय-ख़ाने
निगाह-ए-मस्त ने साक़ी की इंतिक़ाम लिया

वो कज-रविश न मिला रास्ते में मुझ से कभी
न सीधी तरह से उन ने मिरा सलाम लिया

मज़ा दिखावेंगे बे-रहमी का तिरी सय्याद
गर इज़्तिराब-ए-असीरी ने ज़ेर-ए-दाम लिया

मिरे सलीक़े से मेरी निभी मोहब्बत में
तमाम उम्र मैं नाकामियों से काम लिया

अगरचे गोशा-गुज़ीं हूँ मैं शाइरों में 'मीर'
प मेरे शोर ने रू-ए-ज़मीं तमाम लिया



आए हैं 'मीर' काफ़िर हो कर ख़ुदा के घर में

आए हैं 'मीर' काफ़िर हो कर ख़ुदा के घर में
पेशानी पर है क़श्क़ा ज़ुन्नार है कमर में

नाज़ुक बदन है कितना वो शोख़-चश्म दिलबर
जान उस के तन के आगे आती नहीं नज़र में

सीने में तीर उस के टूटे हैं बे-निहायत
सुराख़ पड़ गए हैं सारे मिरे जिगर में

आइंदा शाम को हम रोया कुढ़ा करेंगे
मुतलक़ असर न देखा नालीदन-ए-सहर में

बे-सुध पड़ा रहूँ हूँ उस मस्त-ए-नाज़ बिन मैं
आता है होश मुझ को अब तो पहर पहर में

सीरत से गुफ़्तुगू है क्या मो'तबर है सूरत
है एक सूखी लकड़ी जो बू न हो अगर में

हम-साया-ए-मुग़ाँ में मुद्दत से हूँ चुनाँचे
इक शीरा-ख़ाने की है दीवार मेरे घर में

अब सुब्ह ओ शाम शायद गिर्ये पे रंग आवे
रहता है कुछ झमकता ख़ूनाब चश्म-ए-तर में

आलम में आब-ओ-गिल के क्यूँकर निबाह होगा
अस्बाब गिर पड़ा है सारा मिरा सफ़र में



चलते हो तो चमन को चलिए कहते हैं कि बहाराँ है

चलते हो तो चमन को चलिए कहते हैं कि बहाराँ है
पात हरे हैं फूल खिले हैं कम-कम बाद-ओ-बाराँ है

रंग हवा से यूँ टपके है जैसे शराब चुवाते हैं
आगे हो मय-ख़ाने के निकलो अहद-ए-बादा-गुसाराँ है

इश्क़ के मैदाँ-दारों में भी मरने का है वस्फ़ बहुत
या'नी मुसीबत ऐसी उठाना कार-ए-कार-गुज़ाराँ है

दिल है दाग़ जिगर है टुकड़े आँसू सारे ख़ून हुए
लोहू पानी एक करे ये इश्क़-ए-लाला-अज़ाराँ है

कोहकन ओ मजनूँ की ख़ातिर दश्त-ओ-कोह में हम न गए
इश्क़ में हम को 'मीर' निहायत पास-ए-इज़्ज़त-दाराँ है



बार-हा गोर-ए-दिल झंका लाया

बार-हा गोर-ए-दिल झंका लाया
अब के शर्त-ए-वफ़ा बजा लाया

क़द्र रखती न थी मता-ए-दिल
सारे आलम में मैं दिखा लाया

दिल कि यक क़तरा ख़ूँ नहीं है बेश
एक आलम के सर बला लाया

सब पे जिस बार ने गिरानी की
उस को ये ना-तवाँ उठा लाया

दिल मुझे उस गली में ले जा कर
और भी ख़ाक में मिला लाया

इब्तिदा ही में मर गए सब यार
इश्क़ की कौन इंतिहा लाया

अब तो जाते हैं बुत-कदे से 'मीर'
फिर मिलेंगे अगर ख़ुदा लाया



जिन के लिए अपने तो यूँ जान निकलते हैं

जिन के लिए अपने तो यूँ जान निकलते हैं
इस राह में वे जैसे अंजान निकलते हैं

क्या तीर-ए-सितम उस के सीने में भी टूटे थे
जिस ज़ख़्म को चीरूँ हूँ पैकान निकलते हैं

मत सहल हमें जानो फिरता है फ़लक बरसों
तब ख़ाक के पर्दे से इंसान निकलते हैं

किस का है क़िमाश ऐसा गूदड़ भरे हैं सारे
देखो न जो लोगों के दीवान निकलते हैं

गह लोहू टपकता है गह लख़्त-ए-दिल आँखों से
या टुकड़े जिगर ही के हर आन निकलते हैं

करिए तो गिला किस से जैसी थी हमें ख़्वाहिश
अब वैसे ही ये अपने अरमान निकलते हैं

जागह से भी जाते हो मुँह से भी ख़शिन हो कर
वे हर्फ़ नहीं हैं जो शायान निकलते हैं

सो काहे को अपनी तू जोगी की सी फेरी है
बरसों में कभू ईधर हम आन निकलते हैं

उन आईना-रूयों के क्या 'मीर' भी आशिक़ हैं
जब घर से निकलते हैं हैरान निकलते हैं



जो इस शोर से 'मीर' रोता रहेगा

जो इस शोर से 'मीर' रोता रहेगा
तो हम-साया काहे को सोता रहेगा

मैं वो रोने वाला जहाँ से चला हूँ
जिसे अब्र हर साल रोता रहेगा

मुझे काम रोने से अक्सर है नासेह
तू कब तक मिरे मुँह को धोता रहेगा

बस ऐ गिर्या आँखें तिरी क्या नहीं हैं
कहाँ तक जहाँ को डुबोता रहेगा

मिरे दिल ने वो नाला पैदा किया है
जरस के भी जो होश खोता रहेगा

तू यूँ गालियाँ ग़ैर को शौक़ से दे
हमें कुछ कहेगा तो होता रहेगा

बस ऐ 'मीर' मिज़्गाँ से पोंछ आँसुओं को
तू कब तक ये मोती पिरोता रहेगा



जब नाम तिरा लीजिए तब चश्म भर आवे

जब नाम तिरा लीजिए तब चश्म भर आवे
इस ज़िंदगी करने को कहाँ से जिगर आवे

तलवार का भी मारा ख़ुदा रक्खे है ज़ालिम
ये तो हो कोई गोर-ए-ग़रीबाँ में दर आवे

मय-ख़ाना वो मंज़र है कि हर सुब्ह जहाँ शैख़
दीवार पे ख़ुर्शीद का मस्ती से सर आवे

क्या जानें वे मुर्ग़ान-ए-गिरफ़्तार-ए-चमन को
जिन तक कि ब-सद-नाज़ नसीम-ए-सहर आवे

तू सुब्ह क़दम-रंजा करे टुक तो है वर्ना
किस वास्ते आशिक़ की शब-ए-ग़म बसर आवे

हर सू सर-ए-तस्लीम रखे सैद-ए-हरम हैं
वो सैद-फ़गन तेग़-ब-कफ़ ता किधर आवे

दीवारों से सर मारते फिरने का गया वक़्त
अब तू ही मगर आप कभू दर से दर आवे

वाइ'ज़ नहीं कैफ़िय्यत-ए-मय-ख़ाना से आगाह
यक जुरआ बदल वर्ना ये मिंदील धर आवे

सन्नाअ हैं सब ख़्वार अज़ाँ जुमला हूँ मैं भी
है ऐब बड़ा उस में जिसे कुछ हुनर आवे

ऐ वो कि तू बैठा है सर-ए-राह पे ज़िन्हार
कहियो जो कभू 'मीर' बला-कश इधर आवे

मत दश्त-ए-मोहब्बत में क़दम रख कि ख़िज़र को
हर गाम पे इस रह में सफ़र से हज़र आवे



जिन जिन को था ये इश्क़ का आज़ार मर गए

जिन जिन को था ये इश्क़ का आज़ार मर गए
अक्सर हमारे साथ के बीमार मर गए

होता नहीं है उस लब-ए-नौ-ख़त पे कोई सब्ज़
ईसा ओ ख़िज़्र क्या सभी यक-बार मर गए

यूँ कानों-कान गुल ने न जाना चमन में आह
सर को पटक के हम पस-ए-दीवार मर गए

सद कारवाँ वफ़ा है कोई पूछता नहीं
गोया मता-ए-दिल के ख़रीदार मर गए

मजनूँ न दश्त में है न फ़रहाद कोह में
था जिन से लुत्फ़-ए-ज़िंदगी वे यार मर गए

गर ज़िंदगी यही है जो करते हैं हम असीर
तो वे ही जी गए जो गिरफ़्तार मर गए

अफ़्सोस वे शहीद कि जो क़त्ल-गाह में
लगते ही उस के हाथ की तलवार मर गए

तुझ से दो-चार होने की हसरत के मुब्तिला
जब जी हुए वबाल तो नाचार मर गए

घबरा न 'मीर' इश्क़ में उस सहल-ए-ज़ीस्त पर
जब बस चला न कुछ तो मिरे यार मर गए



रही न-गुफ़्ता मिरे दिल में दास्ताँ मेरी

रही न-गुफ़्ता मिरे दिल में दास्ताँ मेरी
न उस दयार में समझा कोई ज़बाँ मेरी

ब-रंग-ए-सौत-ए-जरस तुझ से दूर हूँ तन्हा
ख़बर नहीं है तुझे आह कारवाँ मेरी

तिरे न आज के आने में सुब्ह के मुझ पास
हज़ार जाए गई तब-ए-बद-गुमाँ मेरी

वो नक़्श-ए-पै हूँ मैं मिट गया हो जो रह में
न कुछ ख़बर है न सुध हैगी रह-रवाँ मेरी

शब उस के कूचे में जाता हूँ इस तवक़्क़ो' पर
कि एक दोस्त है वाँ ख़्वाब पासबाँ मेरी

उसी से दूर रहा असल मुद्दआ' जो था
गई ये उम्र-ए-अज़ीज़ आह राएगाँ मेरी

तिरे फ़िराक़ में जैसे ख़याल मुफ़्लिस का
गई है फ़िक्र-ए-परेशाँ कहाँ कहाँ मेरी

नहीं है ताब-ओ-तवाँ की जुदाई का अंदोह
कि ना-तवानी बहुत है मिज़ाज-दाँ मेरी

रहा मैं दर-ए-पस-ए-दीवार-ए-बाग़ मुद्दत लेक
गई गुलों के न कानों तलक फ़ुग़ाँ मेरी

हुआ हूँ गिर्या-ए-ख़ूनीं का जब से दामन-गीर
न आस्तीन हुई पाक दोस्ताँ मेरी

दिया दिखाई मुझे तो इसी का जल्वा 'मीर'
पड़ी जहान में जा कर नज़र जहाँ मेरी



मुँह तका ही करे है जिस तिस का

मुँह तका ही करे है जिस तिस का
हैरती है ये आईना किस का

शाम से कुछ बुझा सा रहता हूँ
दिल हुआ है चराग़ मुफ़्लिस का

थे बुरे मुग़्बचों के तेवर लेक
शैख़ मय-ख़ाने से भला खिसका

दाग़ आँखों से खिल रहे हैं सब
हाथ दस्ता हुआ है नर्गिस का

बहर कम-ज़र्फ़ है बसान-ए-हबाब
कासा-लैस अब हुआ है तू जिस का

फ़ैज़ ऐ अब्र चश्म-ए-तर से उठा
आज दामन वसीअ है इस का

ताब किस को जो हाल-ए-मीर सुने
हाल ही और कुछ है मज्लिस का



'मीर' दरिया है सुने शेर ज़बानी उस की

'मीर' दरिया है सुने शेर ज़बानी उस की
अल्लाह अल्लाह रे तबीअत की रवानी उस की

ख़ातिर-ए-बादिया से दैर में जावेगी कहीं
ख़ाक मानिंद बगूले के उड़ानी उस की

एक है अहद में अपने वो परागंदा-मिज़ाज
अपनी आँखों में न आया कोई सानी उस की

मेंह तो बौछार का देखा है बरसते तुम ने
इसी अंदाज़ से थी अश्क-फ़िशानी उस की

बात की तर्ज़ को देखो तो कोई जादू था
पर मिली ख़ाक में क्या सेहर-बयानी उस की

कर के ता'वीज़ रखें उस को बहुत भाती है
वो नज़र पाँव पे वो बात दिवानी उस की

उस का वो इज्ज़ तुम्हारा ये ग़ुरूर-ए-ख़ूबी
मिन्नतें उन ने बहुत कीं प न मानी उस की

कुछ लिखा है तुझे हर बर्ग पे ऐ रश्क-ए-बहार
रुक़आ वारें हैं ये औराक़-ए-ख़िज़ानी उस की

सरगुज़िश्त अपनी किस अंदोह से शब कहता था
सो गए तुम न सुनी आह कहानी उस की

मरसिए दिल के कई कह के दिए लोगों को
शहर-ए-दिल्ली में है सब पास निशानी उस की

मियान से निकली ही पड़ती थी तुम्हारी तलवार
क्या एवज़ चाह का था ख़स्मी-ए-जानी उस की

आबले की सी तरह ठेस लगी फूट बहे
दर्दमंदी में गई सारी जवानी उस की

अब गए उस के जुज़ अफ़्सोस नहीं कुछ हासिल
हैफ़ सद हैफ़ कि कुछ क़द्र न जानी उस की



उम्र भर हम रहे शराबी से

उम्र भर हम रहे शराबी से
दिल-ए-पुर-ख़ूँ की इक गुलाबी से

जी ढहा जाए है सहर से आह
रात गुज़रेगी किस ख़राबी से

खिलना कम कम कली ने सीखा है
उस की आँखों की नीम-ख़्वाबी से

बुर्क़ा उठते ही चाँद सा निकला
दाग़ हूँ उस की बे-हिजाबी से

काम थे इश्क़ में बहुत पर 'मीर'
हम ही फ़ारिग़ हुए शिताबी से



आवेगी मेरी क़ब्र से आवाज़ मेरे बा'द

आवेगी मेरी क़ब्र से आवाज़ मेरे बा'द
उभरेंगे इश्क़-ए-दिल से तिरे राज़ मेरे बा'द

जीना मिरा तो तुझ को ग़नीमत है ना-समझ
खींचेगा कौन फिर ये तिरे नाज़ मेरे बा'द

शम-ए-मज़ार और ये सोज़-ए-जिगर मिरा
हर शब करेंगे ज़िंदगी ना-साज़ मेरे बा'द

हसरत है इस के देखने की दिल में बे-क़यास
अग़्लब कि मेरी आँखें रहें बाज़ मेरे बा'द

करता हूँ मैं जो नाले सर-अंजाम बाग़ में
मुँह देखो फिर करेंगे हम आवाज़ मेरे बा'द

बिन गुल मुआ ही मैं तो प तू जा के लौटियो
सेहन-ए-चमन में ऐ पर-ए-पर्वाज़ मेरे बा'द

बैठा हूँ 'मीर' मरने को अपने में मुस्तइद
पैदा न होंगे मुझ से भी जाँबाज़ मेरे बा'द



बातें हमारी याद रहें फिर बातें ऐसी न सुनिएगा
बातें हमारी याद रहें फिर बातें ऐसी न सुनिएगा
पढ़ते किसू को सुनिएगा तो देर तलक सर धुनिएगा

सई ओ तलाश बहुत सी रहेगी इस अंदाज़ के कहने की
सोहबत में उलमा फ़ुज़ला की जा कर पढ़िए गिनयेगा

दिल की तसल्ली जब कि होगी गुफ़्त ओ शुनूद से लोगों की
आग फुंकेगी ग़म की बदन में उस में जलिए भुनिएगा

गर्म अशआर 'मीर' दरूना दाग़ों से ये भर देंगे
ज़र्द-रू शहर में फिरिएगा गलियों में ने गुल चुनिएगा



उस का ख़िराम देख के जाया न जाएगा

उस का ख़िराम देख के जाया न जाएगा
ऐ कब्क फिर बहाल भी आया न जाएगा

हम कशतगान-ए-इशक़ हैं अब्रू-ओ-चश्म-ए-यार
सर से हमारे तेग़ का साया न जाएगा

हम रहरवान-ए-राह-ए-फ़ना हैं बिरंग-ए-उम्र
जावेंगे ऐसे खोज भी पाया न जाएगा

फोड़ा सा सारी रात जो पकता रहेगा दिल
तो सुब्ह तक तो हाथ लगाया न जाएगा

अपने शहीद-ए-नाज़ से बस हाथ उठा कि फिर
दीवान-ए-हश्र में उसे लाया न जाएगा

अब देख ले कि सीना भी ताज़ा हुआ है चाक
फिर हम से अपना हाल दिखाया न जाएगा

हम बे-ख़ुदान-ए-महफ़िल-ए-तस्वीर अब गए
आइंदा हम से आप में आया न जाएगा

गो बे-सुतूँ को टाल दे आगे से कोहकन
संग-ए-गरान-ए-इश्क़ उठाया न जाएगा

हम तो गए थे शैख़ को इंसान बूझ कर
पर अब से ख़ानक़ाह में जाया न जाएगा

याद उस की इतनी ख़ूब नहीं 'मीर' बाज़ आ
नादान फिर वो जी से भुलाया न जाएगा


इस अहद में इलाही मोहब्बत को क्या हुआ

इस अहद में इलाही मोहब्बत को क्या हुआ
छोड़ा वफ़ा को उन ने मुरव्वत को क्या हुआ

उम्मीद-वार-ए-वादा-ए-दीदार मर चले
आते ही आते यारो क़यामत को क्या हुआ

कब तक तज़ल्लुम आह भला मर्ग के तईं
कुछ पेश आया वाक़िआ' रहमत को क्या हुआ

उस के गए पर ऐसे गए दिल से हम-नशीं
मालूम भी हुआ न कि ताक़त को क्या हुआ

बख़्शिश ने मुझ को अब्र-ए-करम की किया ख़जिल
ऐ चश्म जोश-ए-अश्क-ए-नदामत को क्या हुआ

जाता है यार तेग़-ब-कफ़ ग़ैर की तरफ़
ऐ कुश्ता-ए-सितम तिरी ग़ैरत को क्या हुआ

थी साब आशिक़ी की बदायत ही 'मीर' पर
क्या जानिए कि हाल-ए-निहायत को क्या हुआ



इश्क़ में ज़िल्लत हुई ख़िफ़्फ़त हुई तोहमत हुई

इश्क़ में ज़िल्लत हुई ख़िफ़्फ़त हुई तोहमत हुई
आख़िर आख़िर जान दी यारों ने ये सोहबत हुई

अक्स उस बे-दीद का तो मुत्तसिल पड़ता था सुब्ह
दिन चढ़े क्या जानूँ आईने की क्या सूरत हुई

लौह-ए-सीना पर मिरी सौ नेज़ा-ए-ख़त्ती लगे
ख़स्तगी इस दिल-शिकस्ता की इसी बाबत हुई

खोलते ही आँखें फिर याँ मूँदनी हम को पड़ीं
दीद क्या कोई करे वो किस क़दर मोहलत हुई

पाँव मेरा कल्बा-ए-अहज़ाँ में अब रहता नहीं
रफ़्ता रफ़्ता उस तरफ़ जाने की मुझ को लत हुई

मर गया आवारा हो कर मैं तो जैसे गर्द-बाद
पर जिसे ये वाक़िआ' पहुँचा उसे वहशत हुई

शाद ओ ख़ुश-ताले कोई होगा किसू को चाह कर
मैं तो कुल्फ़त में रहा जब से मुझे उल्फ़त हुई

दिल का जाना आज कल ताज़ा हुआ हो तो कहूँ
गुज़रे उस भी सानहे को हम-नशीं मुद्दत हुई

शौक़-ए-दिल हम ना-तवानों का लिखा जाता है कब
अब तलक आफी पहुँचने की अगर ताक़त हुई

क्या कफ़-ए-दस्त एक मैदाँ था बयाबाँ इश्क़ का
जान से जब उस में गुज़रे तब हमें राहत हुई

यूँ तो हम आजिज़-तरीन-ए-ख़ल्क़-ए-आलम हैं वले
देखियो क़ुदरत ख़ुदा की गर हमें क़ुदरत हुई

गोश ज़द चट-पट ही मरना इश्क़ में अपने हुआ
किस को इस बीमारी-ए-जाँ-काह से फ़ुर्सत हुई

बे-ज़बाँ जो कहते हैं मुझ को सो चुप रह जाएँगे
मारके में हश्र के गर बात की रुख़्सत हुई

हम न कहते थे कि नक़्श उस का नहीं नक़्क़ाश सहल
चाँद सारा लग गया तब नीम-रुख़ सूरत हुई

इस ग़ज़ल पर शाम से तो सूफ़ियों को वज्द था
फिर नहीं मालूम कुछ मज्लिस की क्या हालत हुई

कम किसू को 'मीर' की मय्यत की हाथ आई नमाज़
ना'श पर उस बे-सर-ओ-पा की बला कसरत हुई



मक्का गया मदीना गया कर्बला गया

मक्का गया मदीना गया कर्बला गया
जैसा गया था वैसा ही चल फिर के आ गया

देखा हो कुछ उस आमद-ओ-शुद में तो मैं कहूँ
ख़ुद गुम हुआ हूँ बात की तह अब जो पा गया

कपड़े गले के मेरे न हों आब-दीदा क्यूँ
मानिंद-ए-अब्र दीदा-ए-तर अब तो छा गया

जाँ-सोज़ आह ओ नाला समझता नहीं हूँ मैं
यक शो'ला मेरे दिल से उठा था जला गया

वो मुझ से भागता ही फिरा किब्र-ओ-नाज़ से
जूँ जूँ नियाज़ कर के मैं उस से लगा गया

जोर-ए-सिपहर-ए-दूँ से बुरा हाल था बहुत
मैं शर्म-ए-ना-कसी से ज़मीं में समा गया

देखा जो राह जाते तबख़्तुर के साथ उसे
फिर मुझ शिकस्ता-पा से न इक-दम रहा गया

बैठा तो बोरिए के तईं सर पे रख के 'मीर'
सफ़ किस अदब से हम फ़ुक़रा की उठा गया



मैं कौन हूँ ऐ हम-नफ़साँ सोख़्ता-जाँ हूँ

मैं कौन हूँ ऐ हम-नफ़साँ सोख़्ता-जाँ हूँ
इक आग मिरे दिल में है जो शो'ला-फ़िशाँ हूँ

लाया है मिरा शौक़ मुझे पर्दे से बाहर
मैं वर्ना वही ख़ल्वती-ए-राज़-ए-निहाँ हूँ

जल्वा है मुझी से लब-ए-दरिय-ए-सुख़न पर
सद-रंग मिरी मौज है मैं तब-ए-रवाँ हूँ

पंजा है मिरा पंजा-ए-ख़ुर्शीद मैं हर सुब्ह
मैं शाना-सिफ़त साया-ए-रू ज़ुल्फ़-ए-बुताँ हूँ

देखा है मुझे जिन ने सो दीवाना है मेरा
मैं बाइ'स-ए-आशुफ़्तगी-ए-तब-ए-जहाँ हूँ

तकलीफ़ न कर आह मुझे जुम्बिश-ए-लब की
मैं सद सुख़न-आग़ुश्ता-ब-ख़ूँ ज़ेर-ए-ज़बाँ हूँ

हूँ ज़र्द ग़म-ए-ताज़ा-निहालान-ए-चमन से
उस बाग़-ए-ख़िज़ाँ-दीदा में मैं बर्ग-ए-ख़िज़ाँ हूँ

रखती है मुझे ख़्वाहिश-ए-दिल बस-कि परेशाँ
दरपय न हो इस वक़्त ख़ुदा जाने कहाँ हूँ

इक वहम नहीं बेश मिरी हस्ती-ए-मौहूम
उस पर भी तिरी ख़ातिर-ए-नाज़ुक पे गराँ हूँ

ख़ुश-बाशी-ओ-तंज़िया-ओ-तक़द्दुस थे मुझे 'मीर'
अस्बाब पड़े यूँ कि कई रोज़ से याँ हूँ



इश्क़ हमारे ख़याल पड़ा है ख़्वाब गई आराम गया

इश्क़ हमारे ख़याल पड़ा है ख़्वाब गई आराम गया
जी का जाना ठहर रहा है सुब्ह गया या शाम गया

इश्क़ किया सो दीन गया ईमान गया इस्लाम गया
दिल ने ऐसा काम किया कुछ जिस से मैं नाकाम गया

किस किस अपनी कल को रोवे हिज्राँ में बेकल उस का
ख़्वाब गई है ताब गई है चैन गया आराम गया

आया याँ से जाना ही तो जी का छुपाना क्या हासिल
आज गया या कल जावेगा सुब्ह गया या शाम गया

हाए जवानी क्या क्या कहिए शोर सरों में रखते थे
अब क्या है वो अहद गया वो मौसम वो हंगाम गया

गाली झिड़की ख़श्म-ओ-ख़ुशूनत ये तो सर-ए-दस्त अक्सर हैं
लुत्फ़ गया एहसान गया इनआ'म गया इकराम गया

लिखना कहना तर्क हुआ था आपस में तो मुद्दत से
अब जो क़रार किया है दिल से ख़त भी गया पैग़ाम गया

नाला-ए-मीर सवाद में हम तक दोशीं शब से नहीं आया
शायद शहर से उस ज़ालिम के आशिक़ वो बदनाम गया



अब जो इक हसरत-ए-जवानी है

अब जो इक हसरत-ए-जवानी है
उम्र-ए-रफ़्ता की ये निशानी है

रश्क-ए-यूसुफ़ है आह वक़्त-ए-अज़ीज़
'उम्र इक बार-ए-कारवानी है

गिर्या हर वक़्त का नहीं बे-हेच
दिल में कोई ग़म-ए-निहानी है

हम क़फ़स-ज़ाद क़ैदी हैं वर्ना
ता चमन एक पर-फ़िशानी है

उस की शमशीर तेज़ है हमदम
मर रहेंगे जो ज़िंदगानी है

ग़म-ओ-रंज-ओ-अलम निको याँ से
सब तुम्हारी ही मेहरबानी है

ख़ाक थी मौजज़न जहाँ में और
हम को धोका ये था कि पानी है

याँ हुए 'मीर' तुम बराबर ख़ाक
वाँ वही नाज़ ओ सरगिरानी है



कुछ मौज-ए-हवा पेचाँ ऐ 'मीर' नज़र आई
कुछ मौज-ए-हवा पेचाँ ऐ 'मीर' नज़र आई
शायद कि बहार आई ज़ंजीर नज़र आई

दिल्ली के न थे कूचे औराक़-ए-मुसव्वर थे
जो शक्ल नज़र आई तस्वीर नज़र आई

मग़रूर बहुत थे हम आँसू की सरायत पर
सो सुब्ह के होने को तासीर नज़र आई

गुल-बार करे हैगा असबाब-ए-सफ़र शायद
ग़ुंचे की तरह बुलबुल दिल-गीर नज़र आई

उस की तो दिल-आज़ारी बे-हेच ही थी यारो
कुछ तुम को हमारी भी तक़्सीर नज़र आई



ग़ुस्से से उठ चले हो तो दामन को झाड़ कर

ग़ुस्से से उठ चले हो तो दामन को झाड़ कर
जाते रहेंगे हम भी गरेबान फाड़ कर

दिल वो नगर नहीं कि फिर आबाद हो सके
पछताओगे सुनो हो ये बस्ती उजाड़ कर

यारब रह-ए-तलब में कोई कब तलक फिरे
तस्कीन दे कि बैठ रहूँ पाँव गाड़ कर

मंज़ूर हो न पास हमारा तो हैफ़ है
आए हैं आज दूर से हम तुझ को ताड़ कर

ग़ालिब कि देवे क़ुव्वत-ए-दिल इस ज़ईफ़ को
तिनके को जो दिखावे है पल में पहाड़ कर

निकलेंगे काम दिल के कुछ अब अहल-ए-रीश से
कुछ ढेर कर चुके हैं ये आगे उखाड़ कर

उस फ़न के पहलवानों से कश्ती रही है 'मीर'
बहुतों को हम ने ज़ेर किया है पछाड़ कर



ब-रंग-ए-बू-ए-गुल उस बाग़ के हम आश्ना होते

ब-रंग-ए-बू-ए-गुल उस बाग़ के हम आश्ना होते
कि हमराह-ए-सबा टुक सैर करते फिर हवा होते

सरापा आरज़ू होने ने बंदा कर दिया हम को
वगर्ना हम ख़ुदा थे गर दिल-ए-बे-मुद्दआ होते

फ़लक ऐ काश हम को ख़ाक ही रखता कि इस में हम
ग़ुबार-ए-राह होते या कसू की ख़ाक-ए-पा होते

इलाही कैसे होते हैं जिन्हें है बंदगी ख़्वाहिश
हमें तो शर्म दामन-गीर होती है ख़ुदा होते

तू है किस नाहिए से ऐ दयार-ए-इश्क़ क्या जानूँ
तिरे बाशिंदगाँ हम काश सारे बेवफ़ा होते

अब ऐसे हैं कि साने' के मिज़ाज ऊपर बहम पहुँचे
जो ख़ातिर-ख़्वाह अपने हम हुए होते तो क्या होते

कहीं जो कुछ मलामत गर बजा है 'मीर' क्या जानें
उन्हें मा'लूम तब होता कि वैसे से जुदा होते



जीते-जी कूचा-ए-दिलदार से जाया न गया
जीते-जी कूचा-ए-दिलदार से जाया न गया
उस की दीवार का सर से मिरे साया न गया

काव-कावे मिज़ा-ए-यार ओ दिल-ए-ज़ार-ओ-नज़ार
गुथ गए ऐसे शिताबी कि छुड़ाया न गया

वो तो कल देर तलक देखता ईधर को रहा
हम से ही हाल-ए-तबाह अपना दिखाया न गया

गर्म-रौ राह-ए-फ़ना का नहीं हो सकता पतंग
उस से तो शम्अ-नमत सर भी कटाया न गया

पास-ए-नामूस-ए-मोहब्बत था कि फ़रहाद के पास
बे-सुतूँ सामने से अपने उठाया न गया

ख़ाक तक कूचा-ए-दिलदार की छानी हम ने
जुस्तुजू की पे दिल-ए-गुम-शुदा पाया न गया

आतिश-ए-तेज़ जुदाई में यकायक उस बिन
दिल जला यूँ कि तनिक जी भी जलाया न गया

मह ने आ सामने शब याद दिलाया था उसे
फिर वो ता सुब्ह मिरे जी से भुलाया न गया

ज़ेर-ए-शमशीर-ए-सितम 'मीर' तड़पना कैसा
सर भी तस्लीम-ए-मोहब्बत में हिलाया न गया

जी में आता है कि कुछ और भी मौज़ूँ कीजे
दर्द-ए-दिल एक ग़ज़ल में तो सुनाया न गया



हम आप ही को अपना मक़्सूद जानते हैं

हम आप ही को अपना मक़्सूद जानते हैं
अपने सिवाए किस को मौजूद जानते हैं

इज्ज़-ओ-नियाज़ अपना अपनी तरफ़ है सारा
इस मुश्त-ए-ख़ाक को हम मस्जूद जानते हैं

सूरत-पज़ीर हम बिन हरगिज़ नहीं वे माने
अहल-ए-नज़र हमीं को मा'बूद जानते हैं

इश्क़ उन की अक़्ल को है जो मा-सिवा हमारे
नाचीज़ जानते हैं ना-बूद जानते हैं

अपनी ही सैर करने हम जल्वा-गर हुए थे
इस रम्ज़ को व-लेकिन मादूद जानते हैं

यारब कसे है नाक़ा हर ग़ुंचा इस चमन का
राह-ए-वफ़ा को हम तो मसदूद जानते हैं

ये ज़ुल्म-ए-बे-निहायत दुश्वार-तर कि ख़ूबाँ
बद-वज़इयों को अपनी महमूद जानते हैं

क्या जाने दाब सोहबत अज़ ख़्वेश रफ़्तगाँ का
मज्लिस में शैख़-साहिब कुछ कूद जानते हैं

मर कर भी हाथ आवे तो 'मीर' मुफ़्त है वो
जी के ज़ियान को भी हम सूद जानते हैं



पीरी में क्या जवानी के मौसम को रोइए

पीरी में क्या जवानी के मौसम को रोइए
अब सुब्ह होने आई है इक दम तो सोइए

रुख़्सार उस के हाए रे जब देखते हैं हम
आता है जी में आँखों को उन में गड़ोइए

इख़्लास दिल से चाहिए सज्दा नमाज़ में
बे-फ़ाएदा है वर्ना जो यूँ वक़्त खोइए

किस तौर आँसुओं में नहाते हैं ग़म-कशाँ
इस आब-ए-गर्म में तो न उँगली डुबोइए

मतलब को तो पहुँचते नहीं अंधे के से तौर
हम मारते फिरे हैं यू नहीं टप्पे टोइए

अब जान जिस्म-ए-ख़ाकी से तंग आ गई बहुत
कब तक इस एक टोकरी मिट्टी को ढोईए

आलूदा उस गली की जो हूँ ख़ाक से तो 'मीर'
आब-ए-हयात से भी न वे पाँव धोइए



उस का ख़याल चश्म से शब ख़्वाब ले गया

उस का ख़याल चश्म से शब ख़्वाब ले गया
क़स्मे कि इश्क़ जी से मिरे ताब ले गया

किन नींदों अब तू सोती है ऐ चश्म-ए-गिर्या-नाक
मिज़्गाँ तो खोल शहर को सैलाब ले गया

आवे जो मस्तबा में तो सुन लो कि राह से
वाइज़ को एक जाम-ए-मय-ए-नाब ले गया

ने दिल रहा बजा है न सब्र ओ हवास ओ होश
आया जो सैल-ए-इश्क़ सब अस्बाब ले गया

मेरे हुज़ूर शम्अ ने गिर्या जो सर किया
रोया मैं इस क़दर कि मुझे आब ले गया

अहवाल उस शिकार ज़ुबूँ का है जाए रहम
जिस ना-तवाँ को मुफ़्त न क़स्साब ले गया

मुँह की झलक से यार के बेहोश हो गए
शब हम को 'मीर' परतव-ए-महताब ले गया



आए हैं 'मीर' मुँह को बनाए ख़फ़ा से आज

आए हैं 'मीर' मुँह को बनाए ख़फ़ा से आज
शायद बिगड़ गई है कुछ उस बेवफ़ा से आज

वाशुद हुई न दिल को फ़क़ीरों के भी मिले
खुलती नहीं गिरह ये कसू की दुआ से आज

जीने में इख़्तियार नहीं वर्ना हम-नशीं
हम चाहते हैं मौत तो अपनी ख़ुदा से आज

साक़ी टुक एक मौसम-ए-गुल की तरफ़ भी देख
टपका पड़े है रंग चमन में हवा से आज

था जी में उस से मिलिए तो क्या क्या न कहिए 'मीर'
पर कुछ कहा गया न ग़म-ए-दिल हया से आज



रंज खींचे थे दाग़ खाए थे

रंज खींचे थे दाग़ खाए थे
दिल ने सदमे बड़े उठाए थे

पास-ए-नामूस-ए-इश्क़ था वर्ना
कितने आँसू पलक तक आए थे

वही समझा न वर्ना हम ने तो
ज़ख़्म छाती के सब दिखाए थे

अब जहाँ आफ़्ताब में हम हैं
याँ कभू सर्व ओ गुल के साए थे

कुछ न समझे कि तुझ से यारों ने
किस तवक़्क़ो पे दिल लगाए थे

फ़ुर्सत-ए-ज़िंदगी से मत पूछो
साँस भी हम न लेने पाए थे

'मीर' साहब रुला गए सब को
कल वे तशरीफ़ याँ भी लाए थे



आ जाएँ हम नज़र जो कोई दम बहुत है याँ

आ जाएँ हम नज़र जो कोई दम बहुत है याँ
मोहलत हमें बिसान-ए-शरर कम बहुत है याँ

यक लहज़ा सीना-कोबी से फ़ुर्सत हमें नहीं
यानी कि दिल के जाने का मातम बहुत है याँ

हासिल है क्या सिवाए तराई के दहर में
उठ आसमाँ तले से कि शबनम बहुत है याँ

माइल-ब-ग़ैर होना तुझ अबरू का ऐब है
थी ज़ोर ये कमाँ वले ख़म-चम बहुत है याँ

हम रह-रवान-ए-राह-ए-फ़ना देर रह चुके
वक़्फ़ा बिसान-ए-सुब्ह कोई दम बहुत है याँ

इस बुत-कदे में मअ'नी का किस से करें सवाल
आदम नहीं है सूरत-ए-आदम बहुत है याँ

आलम में लोग मिलने की गों अब नहीं रहे
हर-चंद ऐसा वैसा तो आलम बहुत है याँ

वैसा चमन से सादा निकलता नहीं कोई
रंगीनी एक और ख़म-ओ-चम बहुत है याँ

एजाज़-ए-ईसवी से नहीं बहस इश्क़ में
तेरी ही बात जान मुजस्सम बहुत है याँ

मेरे हलाक करने का ग़म है अबस तुम्हें
तुम शाद ज़िंदगानी करो ग़म बहुत है याँ

दिल मत लगा रुख़-ए-अरक़-आलूद यार से
आईने को उठा कि ज़मीं नम बहुत है याँ

शायद कि काम सुब्ह तक अपना खिंचे न 'मीर'
अहवाल आज शाम से दरहम बहुत है याँ



दिल-ए-बेताब आफ़त है बला है

दिल-ए-बेताब आफ़त है बला है
जिगर सब खा गया अब क्या रहा है

हमारा तो है अस्ल-ए-मुद्दआ तू
ख़ुदा जाने तिरा क्या मुद्दआ है

मोहब्बत-कुश्ता हैं हम याँ किसू पास
हमारे दर्द की भी कुछ दवा है

हरम से दैर उठ जाना नहीं ऐब
अगर याँ है ख़ुदा वाँ भी ख़ुदा है

नहीं मिलता सुख़न अपना किसू से
हमारा गुफ़्तुगू का ढब जुदा है

कोई है दिल खिंचे जाते हैं ऊधर
फ़ुज़ूली है तजस्सुस ये कि क्या है

मरूँ मैं इस में या रह जाऊँ जीता
यही शेवा मिरा मेहर-ओ-वफ़ा है

सबा ऊधर गुल ऊधर सर्व ऊधर
उसी की बाग़ में अब तो हवा है

तमाशा-कर्दनी है दाग़-ए-सीना
ये फूल इस तख़्ते में ताज़ा खिला है

हज़ारों उन ने ऐसी कीं अदाएँ
क़यामत जैसे इक उस की अदा है

जगह अफ़्सोस की है बाद चंदे
अभी तो दिल हमारा भी बजा है

जो चुपके हूँ कहे चुपके हो क्यूँ तुम
कहो जो कुछ तुम्हारा मुद्दआ है

सुख़न करिए तो होवे हर्फ़-ज़न यूँ
बस अब मुँह मूँद ले मैं ने सुना है

कब उस बेगाना-ख़ू को समझे आलम
अगरचे यार आलम-आश्ना है

न आलम में है ने आलम से बाहर
प सब आलम से आलम ही जुदा है

लगा मैं गिर्द सर फिरने तो बोला
तुम्हारा 'मीर' साहिब सर-फिरा है



ता-ब मक़्दूर इंतिज़ार किया

ता-ब मक़्दूर इंतिज़ार किया
दिल ने अब ज़ोर बे-क़रार किया

दुश्मनी हम से की ज़माने ने
कि जफ़ाकार तुझ सा यार किया

ये तवहहुम का कारख़ाना है
याँ वही है जो ए'तिबार किया

एक नावक ने उस की मिज़्गाँ के
ताएर-ए-सिदरा तक शिकार किया

सद-रग-ए-जाँ को ताब दे बाहम
तेरी ज़ुल्फ़ों का एक तार किया

हम फ़क़ीरों से बे-अदाई क्या
आन बैठे जो तुम ने प्यार किया

सख़्त काफ़िर था जिन ने पहले 'मीर'
मज़हब-ए-इश्क़ इख़्तियार किया



होता है याँ जहाँ में हर रोज़-ओ-शब तमाशा

होता है याँ जहाँ में हर रोज़-ओ-शब तमाशा
देखा जो ख़ूब तो है दुनिया अजब तमाशा

हर चंद शोर-ए-महशर अब भी है दर पे लेकिन
निकलेगा यार घर से होवेगा जब तमाशा

भड़के है आतिश-ए-ग़म मंज़ूर है जो तुझ को
जलने का आशिक़ों के आ देख अब तमाशा

तालेअ' जो मीर ख़्वारी महबूब को ख़ुश आई
पर ग़म ये है मुख़ालिफ़ देखेंगे सब तमाशा



आह जिस वक़्त सर उठाती है

आह जिस वक़्त सर उठाती है
अर्श पर बर्छियाँ चलाती है

नाज़-बरदार-ए-लब है जाँ जब से
तेरे ख़त की ख़बर को पाती है

ऐ शब-ए-हिज्र रास्त कह तुझ को
बात कुछ सुब्ह की भी आती है

चश्म-ए-बद्दूर-चश्म-ए-तर ऐ 'मीर'
आँखें तूफ़ान को दिखाती है



शेर के पर्दे में मैं ने ग़म सुनाया है बहुत

शेर के पर्दे में मैं ने ग़म सुनाया है बहुत
मरसिए ने दिल के मेरे भी रुलाया है बहुत

बे-सबब आता नहीं अब दम-ब-दम आशिक़ को ग़श
दर्द खींचा है निहायत रंज उठाया है बहुत

वादी ओ कोहसार में रोता हूँ ड़ाढें मार मार
दिलबरान-ए-शहर ने मुझ को सताया है बहुत

वा नहीं होता किसू से दिल गिरफ़्ता इश्क़ का
ज़ाहिरन ग़मगीं उसे रहना ख़ुश आया है बहुत

'मीर' गुम-गश्ता का मिलना इत्तिफ़ाक़ी अम्र है
जब कभू पाया है ख़्वाहिश-मंद पाया है बहुत



चमन में गुल ने जो कल दावा-ए-जमाल किया

चमन में गुल ने जो कल दावा-ए-जमाल किया
जमाल-ए-यार ने मुँह उस का ख़ूब लाल किया

फ़लक ने आह तिरी रह में हम को पैदा कर
ब-रंग-ए-सब्ज़-ए-नूरस्ता पाएमाल किया

रही थी दम की कशाकश गले में कुछ बाक़ी
सो उस की तेग़ ने झगड़ा ही इंफ़िसाल किया

मिरी अब आँखें नहीं खुलतीं ज़ोफ़ से हमदम
न कह कि नींद में है तू ये क्या ख़याल किया

बहार-ए-रफ़्ता फिर आई तिरे तमाशे को
चमन को युम्न-ए-क़दम ने तिरे निहाल किया

जवाब-नामा सियाही का अपनी है वो ज़ुल्फ़
किसू ने हश्र को हम से अगर सवाल किया

लगा न दिल को कहीं क्या सुना नहीं तू ने
जो कुछ कि 'मीर' का इस आशिक़ी ने हाल किया



गुल को महबूब हम-क़्यास किया

गुल को महबूब हम-क़्यास किया
फ़र्क़ निकला बहुत जो पास किया

दिल ने हम को मिसाल-ए-आईना
एक आलम का रू-शनास किया

कुछ नहीं सूझता हमें उस बिन
शौक़ ने हम को बे-हवास किया

इश्क़ में हम हुए न दीवाने
क़ैस की आबरू का पास किया

दौर से चर्ख़ के निकल न सके
ज़ोफ़ ने हम को मूरतास किया

सुब्ह तक शम्अ' सर को धुनती रही
क्या पतिंगे ने इल्तिमास किया

तुझ से क्या क्या तवक्क़ोएँ थीं हमें
सो तिरे ज़ुल्म ने निरास किया

ऐसे वहशी कहाँ हैं ऐ ख़ूबाँ
'मीर' को तुम अबस उदास किया

मीर तकी मीर की रुबाई

तुम तो ऐ मेहरबान अनूठे निकले

तुम तो ऐ मेहरबान अनूठे निकले
जब आन के पास बैठे रूठे निकले

क्या कहिए वफ़ा एक भी वअ'दा न किया
ये सच है कि तुम बहुत झूटे निकले


इक मर्तबा दिल पे इज़्तिराबी आई

इक मर्तबा दिल पे इज़्तिराबी आई
या'नी कि अजल मेरी शिताबी आई

बिखरा जाता है ना-तवानी से जी
आशिक़ न हुए कि इक ख़राबी आई


मिलिए उस शख़्स से जो आदम होवे

 मिलिए उस शख़्स से जो आदम होवे
नाज़ उस को कमाल पर बहुत कम होवे

हो गर्म-ए-सुख़न तो गिर्द आवे यक ख़ल्क़
ख़ामोश रहे तो एक आलम होवे


इतने भी न हम ख़राब होते रहते

इतने भी न हम ख़राब होते रहते
काहे को ग़म-ओ-अलम से रोते रहते

सब ख़्वाब-ए-अदम से चौंकने के हैं वबाल
बेहतर था यही कि वोहीं सोते रहते




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