मोमिन ख़ाँ मोमिन की ग़ज़लें / Momin Khan Momin Ghazal
वो जो हम में तुम में क़रार था तुम्हें याद हो कि न याद हो / मोमिन ख़ाँ मोमिन
वो जो हम में तुम में क़रार था तुम्हें याद हो कि न याद हो
वही या'नी वा'दा निबाह का तुम्हें याद हो कि न याद हो
वो जो लुत्फ़ मुझ पे थे बेशतर वो करम कि था मिरे हाल पर
मुझे सब है याद ज़रा ज़रा तुम्हें याद हो कि न याद हो
वो नए गिले वो शिकायतें वो मज़े मज़े की हिकायतें
वो हर एक बात पे रूठना तुम्हें याद हो कि न याद हो
कभी बैठे सब में जो रू-ब-रू तो इशारतों ही से गुफ़्तुगू
वो बयान शौक़ का बरमला तुम्हें याद हो कि न याद हो
हुए इत्तिफ़ाक़ से गर बहम तो वफ़ा जताने को दम-ब-दम
गिला-ए-मलामत-ए-अक़रिबा तुम्हें याद हो कि न याद हो
कोई बात ऐसी अगर हुई कि तुम्हारे जी को बुरी लगी
तो बयाँ से पहले ही भूलना तुम्हें याद हो कि न याद हो
कभी हम में तुम में भी चाह थी कभी हम से तुम से भी राह थी
कभी हम भी तुम भी थे आश्ना तुम्हें याद हो कि न याद हो
सुनो ज़िक्र है कई साल का कि किया इक आप ने वा'दा था
सो निबाहने का तो ज़िक्र क्या तुम्हें याद हो कि न याद हो
कहा मैं ने बात वो कोठे की मिरे दिल से साफ़ उतर गई
तो कहा कि जाने मिरी बला तुम्हें याद हो कि न याद हो
वो बिगड़ना वस्ल की रात का वो न मानना किसी बात का
वो नहीं नहीं की हर आन अदा तुम्हें याद हो कि न याद हो
जिसे आप गिनते थे आश्ना जिसे आप कहते थे बा-वफ़ा
मैं वही हूँ 'मोमिन'-ए-मुब्तला तुम्हें याद हो कि न याद हो
असर उस को ज़रा नहीं होता / मोमिन ख़ाँ मोमिन
असर उस को ज़रा नहीं होता
रंज राहत-फ़ज़ा नहीं होता
बेवफ़ा कहने की शिकायत है
तो भी वादा-वफ़ा नहीं होता
ज़िक्र-ए-अग़्यार से हुआ मा'लूम
हर्फ़-ए-नासेह बुरा नहीं होता
किस को है ज़ौक़-ए-तल्ख़-कामी लेक
जंग बिन कुछ मज़ा नहीं होता
तुम हमारे किसी तरह न हुए
वर्ना दुनिया में क्या नहीं होता
उस ने क्या जाने क्या किया ले कर
दिल किसी काम का नहीं होता
इम्तिहाँ कीजिए मिरा जब तक
शौक़ ज़ोर-आज़मा नहीं होता
एक दुश्मन कि चर्ख़ है न रहे
तुझ से ये ऐ दुआ नहीं होता
आह तूल-ए-अमल है रोज़-फ़ुज़ूँ
गरचे इक मुद्दआ नहीं होता
तुम मिरे पास होते हो गोया
जब कोई दूसरा नहीं होता
हाल-ए-दिल यार को लिखूँ क्यूँकर
हाथ दिल से जुदा नहीं होता
रहम कर ख़स्म-ए-जान-ए-ग़ैर न हो
सब का दिल एक सा नहीं होता
दामन उस का जो है दराज़ तो हो
दस्त-ए-आशिक़ रसा नहीं होता
चारा-ए-दिल सिवाए सब्र नहीं
सो तुम्हारे सिवा नहीं होता
क्यूँ सुने अर्ज़-ए-मुज़्तर-ए-'मोमिन'
सनम आख़िर ख़ुदा नहीं होता
आँखों से हया टपके है अंदाज़ तो देखो / मोमिन ख़ाँ मोमिन
आँखों से हया टपके है अंदाज़ तो देखो
है बुल-हवसों पर भी सितम नाज़ तो देखो
उस बुत के लिए मैं हवस-ए-हूर से गुज़रा
इस इश्क़-ए-ख़ुश-अंजाम का आग़ाज़ तो देखो
चश्मक मिरी वहशत पे है क्या हज़रत-ए-नासेह
तर्ज़-ए-निगह-ए-चश्म-ए-फ़ुसूँ-साज़ तो देखो
अरबाब-ए-हवस हार के भी जान पे खेले
कम-तालई-ए-आशिक़-ए-जाँ-बाज़ तो देखो
मज्लिस में मिरे ज़िक्र के आते ही उठे वो
बदनामी-ए-उश्शाक़ का एज़ाज़ तो देखो
महफ़िल में तुम अग़्यार को दुज़-दीदा नज़र से
मंज़ूर है पिन्हाँ न रहे राज़ तो देखो
उस ग़ैरत-ए-नाहीद की हर तान है दीपक
शो'ला सा लपक जाए है आवाज़ तो देखो
दें पाकी-ए-दामन की गवाही मिरे आँसू
उस यूसुफ़-ए-बेदर्द का ए'जाज़ तो देखो
जन्नत में भी 'मोमिन' न मिला हाए बुतों से
जौर-ए-अजल-ए-तफ़रक़ा-पर्दाज़ तो देखो
रोया करेंगे आप भी पहरों इसी तरह / मोमिन ख़ाँ मोमिन
रोया करेंगे आप भी पहरों इसी तरह
अटका कहीं जो आप का दिल भी मिरी तरह
आता नहीं है वो तो किसी ढब से दाव में
बनती नहीं है मिलने की उस के कोई तरह
तश्बीह किस से दूँ कि तरह-दार की मिरे
सब से निराली वज़्अ है सब से नई तरह
मर चुक कहीं कि तू ग़म-ए-हिज्राँ से छूट जाए
कहते तो हैं भले की व-लेकिन बुरी तरह
ने ताब हिज्र में है न आराम वस्ल में
कम-बख़्त दिल को चैन नहीं है किसी तरह
लगती हैं गालियाँ भी तिरे मुँह से क्या भली
क़ुर्बान तेरे फिर मुझे कह ले उसी तरह
पामाल हम न होते फ़क़त जौर-ए-चर्ख़ से
आई हमारी जान पे आफ़त कई तरह
ने जाए वाँ बने है न बिन जाए चैन है
क्या कीजिए हमें तो है मुश्किल सभी तरह
मा'शूक़ और भी हैं बता दे जहान में
करता है कौन ज़ुल्म किसी पर तिरी तरह
हूँ जाँ-ब-लब बुतान-ए-सितमगर के हाथ से
क्या सब जहाँ में जीते हैं 'मोमिन' इसी तरह
दफ़्न जब ख़ाक में हम सोख़्ता-सामाँ होंगे / मोमिन ख़ाँ मोमिन
दफ़्न जब ख़ाक में हम सोख़्ता-सामाँ होंगे
फ़िल्स माही के गुल-ए-शम-ए-शबिस्ताँ होंगे
नावक-अंदाज़ जिधर दीदा-ए-जानाँ होंगे
नीम-बिस्मिल कई होंगे कई बे-जाँ होंगे
ताब-ए-नज़्ज़ारा नहीं आइना क्या देखने दूँ
और बन जाएँगे तस्वीर जो हैराँ होंगे
तू कहाँ जाएगी कुछ अपना ठिकाना कर ले
हम तो कल ख़्वाब-ए-अदम में शब-ए-हिज्राँ होंगे
नासेहा दिल में तू इतना तो समझ अपने कि हम
लाख नादाँ हुए क्या तुझ से भी नादाँ होंगे
कर के ज़ख़्मी मुझे नादिम हों ये मुमकिन ही नहीं
गर वो होंगे भी तो बे-वक़्त पशेमाँ होंगे
एक हम हैं कि हुए ऐसे पशेमान कि बस
एक वो हैं कि जिन्हें चाह के अरमाँ होंगे
हम निकालेंगे सुन ऐ मौज-ए-हवा बल तेरा
उस की ज़ुल्फ़ों के अगर बाल परेशाँ होंगे
सब्र या रब मिरी वहशत का पड़ेगा कि नहीं
चारा-फ़रमा भी कभी क़ैदी-ए-ज़िंदाँ होंगे
मिन्नत-ए-हज़रत-ए-ईसा न उठाएँगे कभी
ज़िंदगी के लिए शर्मिंदा-ए-एहसाँ होंगे
तेरे दिल-तफ़्ता की तुर्बत पे अदू झूटा है
गुल न होंगे शरर-ए-आतिश-ए-सोज़ाँ होंगे
ग़ौर से देखते हैं तौफ़ को आहु-ए-हरम
क्या कहें उस के सग-ए-कूचा के क़ुर्बां होंगे
दाग़-ए-दिल निकलेंगे तुर्बत से मिरी जूँ लाला
ये वो अख़गर नहीं जो ख़ाक में पिन्हाँ होंगे
चाक पर्दे से ये ग़म्ज़े हैं तो ऐ पर्दा-नशीं
एक मैं क्या कि सभी चाक-ए-गरेबाँ होंगे
फिर बहार आई वही दश्त-नवर्दी होगी
फिर वही पाँव वही ख़ार-ए-मुग़ीलाँ होंगे
संग और हाथ वही वो ही सर ओ दाग़-ए-जुनून
वो ही हम होंगे वही दश्त ओ बयाबाँ होंगे
उम्र सारी तो कटी इश्क़-ए-बुताँ में 'मोमिन'
आख़िरी वक़्त में क्या ख़ाक मुसलमाँ होंगे
ठानी थी दिल में अब न मिलेंगे किसी से हम / मोमिन ख़ाँ मोमिन
ठानी थी दिल में अब न मिलेंगे किसी से हम
पर क्या करें कि हो गए नाचार जी से हम
हँसते जो देखते हैं किसी को किसी से हम
मुँह देख देख रोते हैं किस बे-कसी से हम
हम से न बोलो तुम इसे क्या कहते हैं भला
इंसाफ़ कीजे पूछते हैं आप ही से हम
बे-ज़ार जान से जो न होते तो माँगते
शाहिद शिकायतों पे तिरी मुद्दई से हम
उस कू में जा मरेंगे मदद ऐ हुजूम-ए-शौक़
आज और ज़ोर करते हैं बे-ताक़ती से हम
साहब ने इस ग़ुलाम को आज़ाद कर दिया
लो बंदगी कि छूट गए बंदगी से हम
बे-रोए मिस्ल-ए-अब्र न निकला ग़ुबार-ए-दिल
कहते थे उन को बर्क़-ए-तबस्सुम हँसी से हम
इन ना-तावनियों पे भी थे ख़ार-ए-राह-ए-ग़ैर
क्यूँ कर निकाले जाते न उस की गली से हम
क्या गुल खिलेगा देखिए है फ़स्ल-ए-गुल तो दूर
और सू-ए-दश्त भागते हैं कुछ अभी से हम
मुँह देखने से पहले भी किस दिन वो साफ़ था
बे-वज्ह क्यूँ ग़ुबार रखें आरसी से हम
है छेड़ इख़्तिलात भी ग़ैरों के सामने
हँसने के बदले रोएँ न क्यूँ गुदगुदी से हम
वहशत है इश्क़-ए-पर्दा-नशीं में दम-ए-बुका
मुँह ढाँकते हैं पर्दा-ए-चश्म-ए-परी से हम
क्या दिल को ले गया कोई बेगाना-आश्ना
क्यूँ अपने जी को लगते हैं कुछ अजनबी से हम
ले नाम आरज़ू का तो दिल को निकाल लें
'मोमिन' न हों जो रब्त रखें बिदअती से हम
क़हर है मौत है क़ज़ा है इश्क़ / मोमिन ख़ाँ मोमिन
क़हर है मौत है क़ज़ा है इश्क़
सच तो यूँ है बुरी बला है इश्क़
असर-ए-ग़म ज़रा बता देना
वो बहुत पूछते हैं क्या है इश्क़
आफ़त-ए-जाँ है कोई पर्दा-नशीं
कि मिरे दिल में आ छुपा है इश्क़
बुल-हवस और लाफ़-ए-जाँ-बाज़ी
खेल कैसा समझ लिया है इश्क़
वस्ल में एहतिमाल-ए-शादी-ए-मर्ग
चारागर दर्द-ए-बे-दवा है इश्क़
सूझे क्यूँकर फ़रेब-ए-दिलदारी
दुश्मन-आश्ना-नुमा है इश्क़
किस मलाहत-सिरिश्त को चाहा
तल्ख़-कामी पे बा-मज़ा है इश्क़
हम को तरजीह तुम पे है यानी
दिलरुबा हुस्न ओ जाँ-रुबा है इश्क़
देख हालत मिरी कहें काफ़िर
नाम दोज़ख़ का क्यूँ धरा है इश्क़
देखिए किस जगह डुबो देगा
मेरी कश्ती का नाख़ुदा है इश्क़
अब तो दिल इश्क़ का मज़ा चक्खा
हम न कहते थे क्यूँ बुरा है इश्क़
आप मुझ से निबाहेंगे सच है
बा-वफ़ा हुस्न ओ बेवफ़ा है इश्क़
मैं वो मजनून-ए-वहशत-आरा हूँ
नाम से मेरे भागता है इश्क़
क़ैस ओ फ़रहाद ओ वामिक़ ओ 'मोमिन'
मर गए सब ही क्या वबा है इश्क़
महशर में पास क्यूँ दम-ए-फ़रियाद आ गया / मोमिन ख़ाँ मोमिन
महशर में पास क्यूँ दम-ए-फ़रियाद आ गया
रहम उस ने कब किया था कि अब याद आ गया
उलझा है पाँव यार का ज़ुल्फ़-ए-दराज़ में
लो आप अपने दाम में सय्याद आ गया
नाकामियों में तुम ने जो तश्बीह मुझ से दी
शीरीं को दर्द-ए-तल्ख़ी-ए-फ़रहाद आ गया
हम चारागर को यूँ ही पहनाएँगे बेड़ियाँ
क़ाबू में अपने गर वो परी-ज़ाद आ गया
दिल को क़लक़ है तर्क-ए-मोहब्बत के बाद भी
अब आसमाँ को शिकवा-ए-बेदाद आ गया
वो बद-गुमाँ हुआ जो कहीं शेर में मिरे
ज़िक्र-ए-बुतान-ए-ख़ल्ख़-ओ-नौशाद आ गया
थे बे-गुनाह जुरअत-ए-पा-बोस थी ज़रूर
क्या करते वहम-ए-ख़जलत-ए-जल्लाद आ गया
जो हो चुका यक़ीं कि नहीं ताक़त-ए-विसाल
दम में हमारे वो सितम-ईजाद आ गया
ज़िक्र-ए-शराब-ओ-हूर कलाम-ए-ख़ुदा में देख
'मोमिन' मैं क्या कहूँ मुझे क्या याद आ गया
दिल-बस्तगी सी है किसी ज़ुल्फ़-ए-दुता के साथ / मोमिन ख़ाँ मोमिन
दिल-बस्तगी सी है किसी ज़ुल्फ़-ए-दुता के साथ
पाला पड़ा है हम को ख़ुदा किस बला के साथ
कब तक निभाइए बुत-ए-ना-आश्ना के साथ
कीजे वफ़ा कहाँ तलक उस बेवफ़ा के साथ
याद-ए-हवा-ए-यार ने क्या क्या न गुल खिलाए
आई चमन से निकहत-ए-गुल जब सबा के साथ
माँगा करेंगे अब से दुआ हिज्र-ए-यार की
आख़िर तो दुश्मनी है असर को दुआ के साथ
है किस का इंतिज़ार कि ख़्वाब-ए-अदम से भी
हर बार चौंक पड़ते हैं आवाज़-ए-पा के साथ
या रब विसाल-ए-यार में क्यूँकर हो ज़िंदगी
निकली ही जान जाती है हर हर अदा के साथ
अल्लाह रे सोज़-ए-आतिश-ए-ग़म बा'द-ए-मर्ग भी
उठते हैं मेरी ख़ाक से शो'ले हवा के साथ
सौ ज़िंदगी निसार करूँ ऐसी मौत पर
यूँ रोए ज़ार ज़ार तू अहल-ए-अज़ा के साथ
हर दम अरक़ अरक़ निगह-ए-बे-हिजाब है
किस ने निगाह-ए-गर्म से देखा हया के साथ
मरने के बा'द भी वही आवारगी रही
अफ़्सोस जाँ गई नफ़स-ए-ना-रसा के साथ
दस्त-ए-जुनूँ ने मेरा गरेबाँ समझ लिया
उलझा है उन से शोख़ के बंद-ए-क़बा के साथ
आते ही तेरे चल दिए सब वर्ना यास का
कैसा हुजूम था दिल-ए-हसरत-फ़ज़ा के साथ
मैं कीने से भी ख़ुश हूँ कि सब ये तो कहते हैं
उस फ़ित्ना-गर को लाग है इस मुब्तला के साथ
अल्लाह री गुमरही बुत ओ बुत-ख़ाना छोड़ कर
'मोमिन' चला है का'बा को इक पारसा के साथ
'मोमिन' वही ग़ज़ल पढ़ो शब जिस से बज़्म में
आती थी लब पे जान ज़ह-ओ-हब्बज़ा के साथ
ग़ैरों पे खुल न जाए कहीं राज़ देखना / मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ैरों पे खुल न जाए कहीं राज़ देखना
मेरी तरफ़ भी ग़म्ज़ा-ए-ग़म्माज़ देखना
उड़ते ही रंग-ए-रुख़ मिरा नज़रों से था निहाँ
इस मुर्ग़-ए-पर-शिकस्ता की परवाज़ देखना
दुश्नाम-ए-यार तब-ए-हज़ीं पर गिराँ नहीं
ऐ हम-नफ़स नज़ाकत-ए-आवाज़ देखना
देख अपना हाल-ए-ज़ार मुनज्जिम हुआ रक़ीब
था साज़गार ताला-ए-ना-साज़ देखना
बद-काम का मआल बुरा है जज़ा के दिन
हाल-ए-सिपहर-ए-तफ़रक़ा-अंदाज़ देखना
मत रखियो गर्द-ए-तारिक-ए-उश्शाक़ पर क़दम
पामाल हो न जाए सर-अफ़राज़ देखना
मेरी निगाह-ए-ख़ीरा दिखाते हैं ग़ैर को
बे-ताक़ती पे सरज़निश-ए-नाज़ देखना
तर्क-ए-सनम भी कम नहीं सोज़-ए-जहीम से
'मोमिन' ग़म-ए-मआल का आग़ाज़ देखना
वो कहाँ साथ सुलाते हैं मुझे / मोमिन ख़ाँ मोमिन
वो कहाँ साथ सुलाते हैं मुझे
ख़्वाब क्या क्या नज़र आते हैं मुझे
उस परी-वश से लगाते हैं मुझे
लोग दीवाना बनाते हैं मुझे
या रब उन का भी जनाज़ा उट्ठे
यार उस कू से उठाते हैं मुझे
अबरू-ए-तेग़ से ईमा है कि आ
क़त्ल करने को बुलाते हैं मुझे
बेवफ़ाई का अदू की है गिला
लुत्फ़ में भी वो सताते हैं मुझे
हैरत-ए-हुस्न से ये शक्ल बनी
कि वो आईना दिखाते हैं मुझे
फूँक दे आतिश-ए-दिल दाग़ मिरे
उस की ख़ू याद दिलाते हैं मुझे
गर कहे ग़म्ज़ा किसे क़त्ल करूँ
तो इशारत से बताते हैं मुझे
मैं तो उस ज़ुल्फ़ की बू पर ग़श हूँ
चारागर मुश्क सुँघाते हैं मुझे
शो'ला-रू कहते हैं अग़्यार को वो
अपने नज़दीक जलाते हैं मुझे
जाँ गई पर न गई जौर-कशी
बा'द-ए-मुर्दन भी दबाते हैं मुझे
वो जो कहते हैं तुझे आग लगे
मुज़्दा-ए-वस्ल सुनाते हैं मुझे
अब ये सूरत है कि ऐ पर्दा-नशीं
तुझ से अहबाब छुपाते हैं मुझे
'मोमिन' और दैर ख़ुदा ख़ैर करे
तौर बेढब नज़र आते हैं मुझे
डर तो मुझे किस का है कि मैं कुछ नहीं कहता / मोमिन ख़ाँ मोमिन
डर तो मुझे किस का है कि मैं कुछ नहीं कहता
पर हाल ये इफ़शा है कि मैं कुछ नहीं कहता
नासेह ये गिला क्या है कि मैं कुछ नहीं कहता
तू कब मिरी सुनता है कि मैं कुछ नहीं कहता
मैं बोलूँ तो चुप होते हैं अब आप जभी तक
ये रंजिश-ए-बेजा है कि मैं कुछ नहीं कहता
कुछ ग़ैर से होंटों में कहे है ये जो पूछो
तू वूहीं मुकरता है कि मैं कुछ नहीं कहता
कब पास फटकने दूँ रक़ीबों को तुम्हारे
पर पास तुम्हारा है कि मैं कुछ नहीं कहता
नासेह को जो चाहूँ तो अभी ठीक बना दूँ
पर ख़ौफ़ ख़ुदा का है कि मैं कुछ नहीं कहता
क्या क्या न कहे ग़ैर की गर बात न पूछो
ये हौसला मेरा है कि मैं कुछ नहीं कहता
क्या कहिए नसीबों को कि अग़्यार का शिकवा
सुन सुन के वो चुपका है कि मैं कुछ नहीं कहता
मत पूछ कि किस वास्ते चुप लग गई ज़ालिम
बस क्या कहूँ मैं क्या है कि मैं कुछ नहीं कहता
चुपके से तिरे मिलने का घर वालों में तेरे
इस वास्ते चर्चा है कि मैं कुछ नहीं कहता
हाँ तंग-दहानी का न करने के लिए बात
है उज़्र पर ऐसा है कि मैं कुछ नहीं कहता
ऐ चारागरो क़ाबिल-ए-दरमाँ नहीं ये दर्द
वर्ना मुझे सौदा है कि मैं कुछ नहीं कहता
हर वक़्त है दुश्नाम हर इक बात में ताना
फिर उस पे भी कहता है कि मैं कुछ नहीं कहता
कुछ सुन के जो मैं चुप हूँ तो तुम कहते हो बोलो
समझो तो ये थोड़ा है कि मैं कुछ नहीं कहता
सुनता नहीं वो वर्ना ये सरगोशी-ए-अग़्यार
क्या मुझ को गवारा है कि मैं कुछ नहीं कहता
'मोमिन' ब-ख़ुदा सेहर-बयानी का जभी तक
हर एक को दावा है कि मैं कुछ नहीं कहता
करता है क़त्ल-ए-आम वो अग़्यार के लिए / मोमिन ख़ाँ मोमिन
करता है क़त्ल-ए-आम वो अग़्यार के लिए
दस बीस रोज़ मरते हैं दो-चार के लिए
देखा अज़ाब-ए-रंज दिल-ए-ज़ार के लिए
'आशिक़ हुए हैं वो मिरे आज़ार के लिए
दिल इश्क़ तेरी नज़्र किया जान क्यूँकि दूँ
रक्खा है उस को हसरत-ए-दीदार के लिए
क़त्ल उस ने जुर्म-ए-सब्र-ए-जफ़ा पर किया मुझे
ये ही सज़ा थी ऐसे गुनहगार के लिए
ले तू ही भेज दे कोई पैग़ाम-ए-तल्ख़ अब
तज्वीज़ ज़हर है तिरे बीमार के लिए
आता नहीं है तू तो निशानी ही भेज दे
तस्कीन-ए-इज़्तिराब-ए-दिल-ए-जार के लिए
क्या दिल दिया था इस लिए मैं ने तुम्हें कि तुम
हो जाओ यूँ 'अदू मिरे अग़्यार के लिए
चलना तो देखना कि क़यामत ने भी क़दम
तर्ज़-ए-ख़िराम ओ शोख़ी-ए-रफ़्तार के लिए
जी में है मोतियों की लड़ी उस को भेज दूँ
इज़हार-ए-हाल-ए-चश्म-ए-गुहर-बार के लिए
देता हूँ अपने लब को भी गुल-बर्ग से मिसाल
बोसे जो ख़्वाब में तिरे रुख़्सार के लिए
जीना उमीद-ए-वस्ल पे हिज्राँ में सहल था
मरता हूँ ज़िंदगानी-ए-दुश्वार के लिए
'मोमिन' को तो न लाए कहीं दाम में वो बुत
ढूँडे है तार-ए-सुब्हा के ज़ुन्नार के लिए
तुम भी रहने लगे ख़फ़ा साहब / मोमिन ख़ाँ मोमिन
तुम भी रहने लगे ख़फ़ा साहब
कहीं साया मिरा पड़ा साहब
है ये बंदा ही बेवफ़ा साहब
ग़ैर और तुम भले भला साहब
क्यूँ उलझते हो जुम्बिश-ए-लब से
ख़ैर है मैं ने क्या किया साहब
क्यूँ लगे देने ख़त्त-ए-आज़ादी
कुछ गुनह भी ग़ुलाम का साहब
हाए री छेड़ रात सुन सुन के
हाल मेरा कहा कि क्या साहब
दम-ए-आख़िर भी तुम नहीं आते
बंदगी अब कि मैं चला साहब
सितम आज़ार ज़ुल्म ओ जौर ओ जफ़ा
जो किया सो भला किया साहब
किस से बिगड़े थे किस पे ग़ुस्सा था
रात तुम किस पे थे ख़फ़ा साहब
किस को देते थे गालियाँ लाखों
किस का शब ज़िक्र-ए-ख़ैर था साहब
नाम-ए-इश्क़-ए-बुताँ न लो 'मोमिन'
कीजिए बस ख़ुदा ख़ुदा साहब
दिल क़ाबिल-ए-मोहब्बत-ए-जानाँ नहीं रहा / मोमिन ख़ाँ मोमिन
दिल क़ाबिल-ए-मोहब्बत-ए-जानाँ नहीं रहा
वो वलवला वो जोश वो तुग़्याँ नहीं रहा
ठंडा है गर्म-जोशी-ए-अफ़्सुर्दगी से जी
कैसा असर कि नाला-ओ-अफ़्ग़ाँ नहीं रहा
करते हैं अपने ज़ख़्म-ए-जिगर को रफ़ू हम आप
कुछ भी ख़याल-ए-जुम्बिश-ए-मिज़्गाँ नहीं रहा
दिल-सख़्तियों से आई तबीअ'त में नाज़ुकी
सब्र-ओ-तहम्मुल-ए-क़लक़-ए-जाँ नहीं रहा
ग़श हैं कि बे-दिमाग़ हैं गुल-पैरहन नमत
अज़-बस दिमाग़-ए-इत्र-ए-गरेबाँ नहीं रहा
आँखें न बदलें शोख़-नज़र क्यूँ के अब कि मैं
मफ़्तून-ए-लुत्फ़-ए-नर्गिस-ए-फ़त्ताँ नहीं रहा
नाकामियों का गाह गिला गाह शुक्र है
शौक़-ए-विसाल ओ अन्दुह-ए-हिज्राँ नहीं रहा
बे-तूदा तूदा-ख़ाक सुबुक-दोश हो गए
सर पर जुनून-ए-इश्क़ का एहसाँ नहीं रहा
हर लहज़ा मेहर-जल्वों से हैं चश्म-पोशियाँ
आईना-ज़ार दीदा-ए-हैराँ नहीं रहा
फिरते हैं कैसे पर्दा-नशीनों से मुँह छुपाए
रुस्वा हुए कि अब ग़म-ए-पिन्हाँ नहीं रहा
आसेब-ए-चश्म-ए-क़हर-ए-परी-तलअताँ नहीं
ऐ उन्स इक नज़र कि मैं इंसाँ नहीं रहा
बेकारी-ए-उमीद से फ़ुर्सत है रात दिन
वो कारोबार-ए-हसरत-ओ-हिरमाँ नहीं रहा
बे-सैर-ए-दश्त-ओ-बादिया लगने लगा है जी
और इस ख़राब घर में कि वीराँ नहीं रहा
क्या तल्ख़-कामियों ने लब-ए-ज़ख़्म सी दिए
वो शोर-ए-इश्तियाक़-ए-नमक-दाँ नहीं रहा
बे-ए'तिबार हो गए हम तर्क-ए-इश्क़ से
अज़-बस कि पास-ए-वादा-ओ-पैमाँ नहीं रहा
नींद आई है फ़साना-ए-गेसू-ओ-ज़ुल्फ़ से
वहम-ओ-गुमान-ए-ख़्वाब-ए-परेशाँ नहीं रहा
किस काम के रहे जो किसी से रहा न काम
सर है मगर ग़ुरूर का सामाँ नहीं रहा
'मोमिन' ये लाफ़-ए-उल्फ़त-ए-तक़्वा है क्यूँ मगर
दिल्ली में कोई दुश्मन-ए-ईमाँ नहीं रहा
'मोमिन' ख़ुदा के वास्ते ऐसा मकाँ न छोड़
मोमिन ख़ाँ मोमिन
'मोमिन' ख़ुदा के वास्ते ऐसा मकाँ न छोड़
दोज़ख़ में डाल ख़ुल्द को कू-ए-बुताँ न छोड़
आशिक़ तो जानते हैं वो ऐ दिल यही सही
हर-चंद बे-असर है पर आह ओ फ़ुग़ाँ न छोड़
उस तबा-ए-नाज़नीं को कहाँ ताब-ए-इंफ़िआल
जासूस मेरे वास्ते ऐ बद-गुमाँ न छोड़
नाचार देंगे और किसी ख़ूब-रू को दिल
ज़ख़्मी किया उदू को तो मरना मुहाल है
क़ुर्बान जाऊँ तेरे मुझे नीम-जाँ न छोड़
कुछ कुछ दुरुस्त ज़िद से तिरी हो चले हैं वो
यक-चंद और कज-रवी ऐ आसमाँ न छोड़
जिस कूचे में गुज़ार सबा का न हो सके
ऐ अंदलीब उस के लिए गुलसिताँ न छोड़
गर फिर भी अश्क आएँ तो जानूँ कि इश्क़ है
हुक़्क़े का मुँह से ग़ैर की जानिब धुआँ न छोड़
होता है इस जहीम में हासिल विसाल-ए-जौर
'मोमिन' अजब बहिश्त है दैर-ए-मुग़ाँ न छोड़
अदम में रहते तो शाद रहते उसे भी फ़िक्र-ए-सितम न होता / मोमिन ख़ाँ मोमिन
अदम में रहते तो शाद रहते उसे भी फ़िक्र-ए-सितम न होता
जो हम न होते तो दिल न होता जो दिल न होता तो ग़म न होता
हुई ख़जालत से नफ़रत अफ़्ज़ूँ गिले किए ख़ूब आख़िरीं दम
वो काश इक दम ठहर के आते कि मेरे लब पर भी दम न होता
पड़ा ही मरना बस अब तो हम को जो उस ने ख़त पढ़ के नामा-बर से
कहा कि गर सच ये हाल होता तो दफ़्तर इतना रक़म न होता
किसी के जलने का ध्यान आया वगर्ना दूद-ए-फ़ुग़ाँ से मेरे
अगर हज़ारों सिपेह्र बनते तुम्हारी आँखों में नम न होता
जो आप दर से उठा न देते कहीं न करता मैं जब्हा-साई
अगरचे ये सरनविश्त में था तुम्हारे सर की क़सम न होता
विसाल को हम तरस रहे थे जो अब हुआ तो मज़ा न पाया
अदू के मरने की जब ख़ुशी थी कि उस को रंज-ओ-अलम न होता
जहान-ए-तंग ओ हुजूम-ए-वहशत ग़रज़ कि दम पर बुरी बनी थी
कहाँ मैं जाता न जी ठहरता कहीं जो दश्त-ए-अदम न होता
मगर रक़ीबों ने सर उठाया कि ये न होता तो बे-मुरव्वत
नज़र से ज़ाहिर हया न होती हया से गर्दन में ख़म न होता
वहाँ तरक़्क़ी जमाल को है यहाँ मोहब्बत है रोज़-अफ़्ज़ूँ
शरीक-ए-ज़ेबा था बुल-हवस भी जो बेवफ़ाई में कम न होता
ग़लत कि साने' को हो गवारा ख़राश-ए-अंगुश्त-हा-ए-नाज़ुक
जवाब-ए-ख़त की उमीद रखते जो क़ौल-ए-जुफ़्फ़िल-क़लम न होता
ये बे-तकल्लुफ़ फिरा रही है कशिश दिल-ए-आशिक़ाँ की उस को
वगर्ना ऐसी नज़ाकतों पे ख़िराम-ए-नाज़ इक क़दम न होता
विसाल तो है कहाँ मयस्सर मगर ख़याल-ए-विसाल ही में
मज़े उड़ाते हवस निकलती जो साथ अंदाज़-ए-रम न होता
हुआ मुसलमाँ मैं और डर से न दर्स-ए-वाइज़ को सुन के 'मोमिन'
बनी थी दोज़ख़ बला से बनती अज़ाब-ए-हिज्र-ए-सनम न होता
अगर ग़फ़्लत से बाज़ आया जफ़ा की / मोमिन ख़ाँ मोमिन
अगर ग़फ़्लत से बाज़ आया जफ़ा की
तलाफ़ी की भी ज़ालिम ने तो क्या की
मरे आग़ाज़-ए-उल्फ़त में हम अफ़्सोस
उसे भी रह गई हसरत जफ़ा की
कभी इंसाफ़ ही देखा न दीदार
क़यामत अक्सर उस कू में रहा की
फ़लक के हाथ से मैं जा छुपूँ गर
ख़बर ला दे कोई तहतुस-सरा की
शब-ए-वस्ल-ए-अदू क्या क्या जला हूँ
हक़ीक़त खुल गई रोज़-ए-जज़ा की
चमन में कोई उस कू से न आया
गई बर्बाद सब मेहनत सबा की
कुशाद-ए-दिल पे बाँधी है कमर आज
नहीं है ख़ैरियत बंद-ए-क़बा की
किया जब इल्तिफ़ात उस ने ज़रा सा
पड़ी हम को हुसूल-ए-मुद्दआ की
कहा है ग़ैर ने तुम से मिरा हाल
कहे देती है बेबाकी अदा की
तुम्हें शोर-ए-फ़ुग़ाँ से मेरे क्या काम
ख़बर लो अपनी चश्म-ए-सुर्मा-सा की
दिया इल्म ओ हुनर हसरत-कशी को
फ़लक ने मुझ से ये कैसी दग़ा की
ग़म-ए-मक़्सद-रसी ता नज़्अ' और हम
अब आई मौत बख़्त-ए-ना-रसा की
मुझे ऐ दिल तिरी जल्दी ने मारा
नहीं तक़्सीर उस देर-आश्ना की
जफ़ा से थक गए तो भी न पूछा
कि तू ने किस तवक़्क़ो पर वफ़ा की
कहा उस बुत से मरता हूँ तो 'मोमिन'
कहा मैं क्या करूँ मर्ज़ी ख़ुदा की
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