‘तुलसी’ काया खेत है, मनसा भयौ किसान।
पाप-पुन्य दोउ बीज हैं, बुवै सो लुनै निदान॥
गोस्वामी जी कहते हैं कि शरीर मानो खेत है, मन मानो किसान है। जिसमें यह किसान पाप और पुण्य रूपी दो प्रकार के बीजों को बोता है। जैसे बीज बोएगा वैसे ही इसे अंत में फल काटने को मिलेंगे। भाव यह है कि यदि मनुष्य शुभ कर्म करेगा तो उसे शुभ फल मिलेंगे और यदि पाप कर्म करेगा तो उसका फल भी बुरा ही मिलेगा।
राम नाम अवलंब बिनु, परमारथ की आस।
बरषत वारिद-बूँद गहि, चाहत चढ़न अकास॥
राम-नाम का आश्रय लिए बिना जो लोग मोक्ष की आशा करते हैं अथवा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूपी चारों परमार्थों को प्राप्त करना चाहते हैं वे मानो बरसते हुए बादलों की बूँदों को पकड़ कर आकाश में चढ़ जाना चाहते हैं। भाव यह है कि जिस प्रकार पानी की बूँदों को पकड़ कर कोई भी आकाश में नहीं चढ़ सकता वैसे ही राम नाम के बिना कोई भी परमार्थ को प्राप्त नहीं कर सकता।
‘तुलसी’ सब छल छाँड़िकै, कीजै राम-सनेह।
अंतर पति सों है कहा, जिन देखी सब देह॥
गोस्वामी जी कहते हैं कि सब छल-कपटों को छोड़ कर भगवान् की सच्चे हृदय से भक्ति करो। उस पति से भला क्या भेदभाव है जिसने सारे शरीर को देखा हुआ है। भाव यह कि जैसे पति अपनी पत्नी के सारे शरीर के रहस्यों को जानता है वैसे ही प्रभु सारे जीवों के सब कर्मों को जानता है।
तुलसी ममता राम सों, समता सब संसार।
राग न रोष न दोष दुख, दास भए भव पार॥
तुलसी कहते हैं कि जिनकी श्री राम में ममता और सब संसार में समता है, जिनका किसी के प्रति राग, द्वेष, दोष और दुःख का भाव नहीं है, श्री राम के ऐसे भक्त भव सागर से पार हो चुके हैं।
‘तुलसी’ साथी विपति के, विद्या, विनय, विवेक।
साहस, सुकृत, सुसत्य-व्रत, राम-भरोसो एक॥
गोस्वामी जी कहते हैं कि विद्या, विनय, ज्ञान, उत्साह, पुण्य और सत्य भाषण आदि विपत्ति में साथ देने वाले गुण एक भगवान् राम के भरोसे से ही प्राप्त हो सकते हैं।
तुलसी जौं पै राम सों, नाहिन सहज सनेह।
मूंड़ मुड़ायो बादिहीं, भाँड़ भयो तजि गेह॥
तुलसी कहते हैं कि यदि श्री रामचंद्र जी से स्वाभाविक प्रेम नहीं है तो फिर वृथा ही मूंड मुंडाया, साधु हुए और घर छोडकर भाँड़ बने (वैराग्य का स्वांग भरा)।
दंपति रस रसना दसन, परिजन बदन सुगेह।
तुलसी हर हित बरन सिसु, संपति सहज सनेह॥
तुलसी कहते हैं कि रस और रसना पति-पत्नी है, दाँत कुटुंबी हैं, मुख सुंदर घर है, श्री महादेव जी के प्यारे 'र' और 'म' ये दोनों अक्षर दो मनोहर बालक हैं और सहज स्नेह ही संपत्ति हैं।
आवत हिय हरषै नहीं, नैनन नहीं सनेह।
‘तुलसी’ तहाँ न जाइए, कंचन बरसे मेह॥
जिस घर में जाने पर घर वाले लोग देखते ही प्रसन्न न हों और जिनकी आँखों में प्रेम न हो, उस घर में कभी न जाना चाहिए। उस घर से चाहे कितना ही लाभ क्यों न हो वहाँ कभी नहीं जाना चाहिए।
तुलसी परिहरि हरि हरहि, पाँवर पूजहिं भूत।
अंत फजीहत होहिंगे, गनिका के से पूत॥
तुलसी कहते हैं कि श्री हरि (भगवान् विष्णु) और श्री शंकर जी को छोड़कर जो पामर भूतों की पूजा करते हैं, वेश्या के पुत्रों की तरह उनकी अंत में बड़ी दुर्दशा होगी।
लोग मगन सब जोग हीं, जोग जायँ बिनु छेम।
त्यों तुलसी के भावगत, राम प्रेम बिनु नेम॥
लोग सब योग में ही (अप्राप्त वस्तु के प्राप्त करने के काम में ही) लगे हैं, परंतु क्षेम (प्राप्त वस्तु की रक्षा) का उपाय किए बिना योग व्यर्थ है। इसी प्रकार तुलसीदास के विचार से श्रीरामजी के प्रेम बिना सभी नियम व्यर्थ हैं।
दुर्जन दर्पण सम सदा, करि देखौ हिय गौर।
संमुख की गति और है, विमुख भए पर और॥
दुर्जन शीशे के समान होते हैं, इस बात को ध्यान से देख लो, क्योंकि दोनों ही जब सामने होते हैं तब तो और होते हैं और जब पीछ पीछे होते हैं तब कुछ और हो जाते हैं। भाव यह है कि दुष्ट पुरुष सामने तो मनुष्य की प्रशंसा करता है और पीठ पीछे निंदा करता है, इसी प्रकार शीशा भी जब सामने होता है तो वह मनुष्य के मुख को प्रतिबिंबित करता है; पर जब वह पीठ पीछे होता है तो प्रतिबिंबित नहीं करता।
‘तुलसी’ जस भवितव्यता, तैसी मिलै सहाय।
आपु न आवै ताहि पै, ताहि तहाँ लै जाय॥
गोस्वामी जी कहते हैं कि जैसी होनहार होती है मनुष्य को वैसी ही सहायता प्राप्त हो जाती है। होनहार स्वयं मनुष्य के पास नहीं आती प्रत्युत उसे ही स्वयं खींच कर वहाँ ले जाती है। भाव यह है कि होनहार या भाग्य के आगे किसी का कुछ वश नहीं चलता।
राम-नाम-मनि-दीप धरु, जीह देहरी द्वार।
‘तुलसी’ भीतर बाहिरौ, जौ चाहसि उजियार॥
तुलसीदास जी कहते हैं कि यदि तुम अपने हृदय के अंदर और बाहर दोनों ओर प्रकाश चाहते हो तो राम-नाम रूपी मणि के दीपक को जीभ रूपी देहली के द्वार पर धर लो। दरवाज़े की देहली पर यदि दीपक रख दिया जाए तो उससे घर के बाहर और अंदर दोनों ओर प्रकाश हो जाया करता है। इसी प्रकार जीभ मानो शरीर के अंदर और बाहर दोनों ओर की देहली है। इस जीभ रूपी देहली पर यदि राम-नाम रूपी मणि का दीपक रख दिया जाय तो हृदय के बाहर और अंदर दोनों ओर अवश्य प्रकाश हो ही जाएगा।
हियँ निर्गुन नयनन्हि सगुन, रसना राम सुनाम।
मनहुँ पुरट संपुट लसत, तुलसी ललित ललाम॥
हृदय में निर्गुण ब्रह्म का ध्यान, नेत्रों के सामने सगुण स्वरूप की सुंदर झांकी और जीभ से सुंदर राम-नाम का जप करना। तुलसी कहते हैं कि यह ऐसा है मानो सोने की सुंदर डिबिया में मनोहर रत्न सुशोभित हो।
अमिय गारि गारेउ गरल, नारी करि करतार।
प्रेम बैर की जननि युग, जानहिं बुध न गँवार॥
भगवान् ने स्त्री को अमृत और प्रेम दोनों में सानकर बनाया है। स्त्री वैर और प्रेम दोनों की जननी है, इस बात को बुद्धिमान् पुरुष जानते हैं किंतु गँवार नहीं।
रघुपति कीरति कामिनी, क्यों कहै तुलसीदासु।
सरद अकास प्रकास ससि, चार चिबुक तिल जासु॥
श्री रघुनाथ जी की कीर्तिरूपी कामिनी का तुलसीदास कैसे बखान कर सकता है? शरत्पूर्णिमा के आकाश में प्रकाशित होने वाला चंद्रमा मानो उस कीर्ति-कामिनी की ठुड्डी का तिल है।
घर दीन्हे घर जात है, घर छोड़े घर जाय।
‘तुलसी’ घर बन बीच रहू, राम प्रेम-पुर छाय॥
यदि मनुष्य एक स्थान पर घर करके बैठ जाय तो वह वहाँ की माया-ममता में फँसकर उस प्रभु के घर से विमुख हो जाता है। इसके विपरीत यदि मनुष्य घर छोड़ देता है तो उसका घर बिगड़ जाता है, इसलिए कवि का कथन है कि भगवान् राम के प्रेम का नगर बना कर घर और बन दोनों के बीच समान रूप से रहो, पर आसक्ति किसी में न रखो।
ऊँची जाति पपीहरा, पियत न नीचौ नीर।
कै याचै घनश्याम सों, कै दु:ख सहै सरीर॥
पपीहा वास्तव में बड़ी ऊँची जाति का है, जो नीचे ज़मीन पर पड़ा हुआ पानी नहीं पीता। वह या तो बादल से ही पानी माँगता है या अपने शरीर पर दु:ख ही झेलता रहता है। भाव यह कि श्रेष्ठ पुरुष तुच्छ वासनाओं में कभी नहीं फँसते, वे सदा उत्कृष्ट गुणों को ही ग्रहण करते हैं।
गंगा जमुना सुरसती, सात सिंधु भरपूर।
‘तुलसी’ चातक के मते, बिन स्वाती सब धूर॥
गंगा, यमुना, सरस्वती और सातों समुद्र ये सब जल से भले ही भरे हुए हों, पर पपीहे के लिए तो स्वाति नक्षत्र के बिना ये सब धूल के समान ही हैं; क्योंकि पपीहा केवल स्वाति नक्षत्र में बरसा हुआ जल ही पीता है। भाव यह है कि सच्चे प्रेमी अपनी प्रिय वस्तु के बिना अन्य किसी वस्तु को कभी नहीं चाहता, चाहे वह वस्तु कितनी ही मूल्यवान् क्यों न हो।
बिनु विश्वास भगति नहीं, तेही बिनु द्रवहिं न राम।
राम-कृपा बिनु सपनेहुँ, जीव न लहि विश्राम॥
भगवान् में सच्चे विश्वास के बिना मनुष्य को भगवद्भक्ति प्राप्त नहीं हो सकती और बिना भक्ति के भगवान् कृपा नहीं कर सकते। जब तक मनुष्य पर भगवान् की कृपा नहीं होती तब तक मनुष्य स्वप्न में भी सुख-शांति नहीं पा सकता। अत: मनुष्य को भगवान् का भजन करते रहना चाहिए ताकि भगवान् के प्रसन्न हो जाने पर भक्त को सब सुख-संपत्ति अपने आप प्राप्त हो जाय।
राम नाम अवलंब बिनु, परमारथ की आस।
बरसत बारिद बूँद गहि, चाहत चढ़न अकास॥
जो राम नाम का सहारा लिए बिना ही परमार्थ और मोक्ष की आशा करता है, वह तो मानो बरसते हुए बादल की बूँदों को पकड़कर आकाश में चढ़ना चाहता है (अर्थात् जैसे वर्षा की बूँदों को पकड़कर आकाश पर चढ़ना असंभव है, वैसे ही राम नाम का जप किए बिना परमार्थ की प्राप्ति असंभव है)।
राम भरोसो राम बल, राम नाम बिस्वास।
सुमिरत सुभ मंगल कुसल, मांगत तुलसीदास॥
तुलसीदास जी यही माँगते हैं कि मेरा एक मात्र राम पर ही भरोसा रहे, राम ही का बल रहे और जिसके स्मरण मात्र ही से शुभ, मंगल और कुशल की प्राप्ति होती है, उस राम नाम में ही विश्वास रहे।
असन बसन सुत नारि सुख, पापिहुँ के घर होइ।
संत-समागम रामधन, ‘तुलसी’ दुर्लभ दोइ॥
भोजन, वस्त्र, पुत्र और स्त्री-सुख तो पापी के घर में भी हो सकते हैं; पर सज्जनों का समागम भगवान् और राम रूपी धन की प्राप्ति ये दोनों बड़े दुर्लभ हैं। भाव यह है कि जिसके बड़े भाग्य होते हैं उसे ही भगवद्भक्ति तथा सज्जन पुरुषों की संगति प्राप्त होती है।
हरे चरहिं तापहिं बरे, फरें पसारहिं हाथ।
तुलसी स्वारथ मीत सब, परमारथ रघुनाथ॥
वृक्ष जब हरे होते हैं, तब पशु-पक्षी उन्हें चरने लगते हैं, सूख जाने पर लोग उन्हें जलाकर तापते हैं और फलने पर फल पाने के लिए लोग हाथ पसारने लगते हैं (अर्थात् जहाँ हरा-भरा घर देखते हैं, वहाँ लोग खाने के लिए दौड़े जाते हैं, जहाँ बिगड़ी हालत होती है, वहाँ उसे और भी जलाकर सुखी होते हैं और जहाँ संपत्ति से फला-फूला देखते हैं, वहाँ हाथ पसार कर मांगने लगते हैं)। तुलसी कहते है कि इस प्रकार जगत में तो सब स्वार्थ के ही मित्र हैं। परमार्थ के मित्र तो एकमात्र श्री रघुनाथ जी ही हैं।
राम नाम रति राम गति, राम नाम बिस्वास।
सुमिरत सुभ मंगल कुसल, दुहुँ दिसि तुलसीदास॥
तुलसीदास कहते हैं कि जिसका राम नाम में प्रेम है, राम ही जिसकी एकमात्र गति है और राम नाम में ही जिसका विश्वास है, उसके लिए राम नाम का स्मरण करने से ही दोनों ओर (इस लोक में और परलोक में) शुभ, मंगल और कुशल है।
नाम गरीबनिवाज को, राज देत जन जानि।
तुलसी मन परिहरत नहिं, धुरविनिआ की वानि॥
तुलसीदास कहते हैं कि गरीब निवाज (दीनबंधु) श्री राम का नाम ऐसा है, जो जपने वाले को भगवान का निज जन जानकर राज्य (प्रजापति का पद या मोक्ष-साम्राज्य तक) दे डालता है। परंतु यह मन ऐसा अविश्वासी और नीच है कि घूरे (कूड़े के ढेर) में पड़े दाने चुगने की ओछी आदत नहीं छोड़ता (अर्थात् गदे विषयो में ही सुख खोजता है)।
‘तुलसी’ संत सुअंब तरु, फूलि फलहिं पर हेत।
इतते ये पाहन हनत, उतते वे फल देत॥
तुलसीदास कहते हैं कि सज्जन और रसदार फलों वाले वृक्ष दूसरों के लिए फलते-फूलते हैं क्योंकि लोग तो उन वृक्षों पर या सज्जनों पर इधर से पत्थर मारते हैं पर उधर से वे उन्हें पत्थरों के बदले में फल देते हैं। भाव यह है कि सज्जनों के साथ कोई कितना ही बुरा व्यवहार क्यों न करे, पर सज्जन उनके साथ सदा भला ही व्यवहार करते हैं।
मान रखिवौ माँगिबौ, पिय सों सहज सनेहु।
‘तुलसी’ तीनों तब फबैं, जब चातक मत लेहु॥
माँगकर भी अपने मान को बचाए रखना, साथ ही प्रिय से स्वाभाविक प्रेम भी बनाए रखना—ये तीनों बातें तभी अच्छी लग सकती हैं, जब कि व्यक्ति पपीहे के समान आचरण अपने व्यवहार में लाए। पपीहा बादल से पानी की बूँदों की प्रार्थना भी करता है और अपने स्वाभिमान को भी बनाए रखता है। क्योंकि उसके हृदय में बादल के प्रति सच्चा प्रेम है, वह बादल के सिवा और किसी से कुछ नहीं माँगता। भाव यह कि सच्चा प्रेमी अपने प्रियतम से माँग कर भी अपने प्रेम और मान की रक्षा कर लेता है, पर दूसरे लोगों का माँगने से मान और प्रेम घट जाता है।
लहइ न फूटी कौड़िहू, को चाहै केहि काज।
सो तुलसी महँगो कियो, राम ग़रीबनिवाज॥
तुलसी कहते हैं कि जिसको एक फूटी कौड़ी भी नहीं मिलती थी (जिसकी कोई प्रतिष्ठा नहीं थी),उसको भला कौन चाहता और किसलिए चाहता। उसी तुलसी को ग़रीब-निवाज श्री राम जी ने आज महँगा कर दिया (उसका गौरव बढ़ा दिया)।
जानि राम सेवा सरस, समुझि करब अनुमान।
पुरुषा ते सेवक भए, हर ते भे हनुमान॥
श्री राम की सेवा में परम आनंद जानकर पितामह ब्रह्माजी सेवक जांबवान् बन गए और शिव जी हनुमान् हो गए। इस रहस्य को समझो और प्रेम की महिमा का अनुमान लगाओ।
रामहि सुमिरत रन भिरत, देत परत गुरु पायँ।
तुलसी जिन्हहि न पुलक तनु, ते जग जीवत जाएँ॥
भगवान् श्रीराम का स्मरण होने के समय, धर्मयुद्ध में शत्रु से भिड़ने के समय, दान देते समय और श्री गुरु के चरणों में प्रणाम करते समय जिनके शरीर में विशेष हर्ष के कारण रोमांच नहीं होता, वे जगत में व्यर्थ ही जीते हैं।
राम भरत लछिमन ललित, सत्रु समन सुभ नाम।
सुमिरत दसरथ सुवन सब, पूजहिं सब मन काम॥
राम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न ऐसे जिनके सुंदर और शुभ नाम हैं, दशरथ के इन सब सुपुत्रों का स्मरण करते ही सारी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं।
स्वामी होनो सहज है, दुर्लभ होनो दास।
गाडर लाए ऊन को, लागी चरन कपास॥
संसार में किसी का स्वामी बन कर रहना तो बड़ा सरल है, पर सेवक बन कर रहना बड़ा कठिन है। मनुष्य आया तो यहाँ भगवान् का सेवक बनने के लिए है पर सेवक न बन कर वह विषय-वासना में फँस जाता है। यह तो वैसे हुआ जैसे कि कोई ऊन के लोभ से भेड़ को रखे कि चलो इससे ऊन मिलेगी, पर वह ऊन देने के बदले खेत के कपास को ही चर जाय, लाभ की बजाय हानि करने लग पड़े। वैसे ही मनुष्य-जन्म पाकर भी जीव प्रभु-भक्ति का लाभ नहीं प्राप्त करता और विषय-वासनाओं में फँसा रहता है।
सीता लखन समेत प्रभु, सोहत तुलसीदास।
हरषत सुर बरषत सुमन, सगुन सुमंगल बास॥
तुलसी कहते हैं कि सीता और लक्ष्मण के सहित प्रभु श्री रामचंद्र जी सुशोभित हो रहे हैं, देवतागण हर्षित होकर फूल बरसा रहे हैं। भगवान का यह सगुण ध्यान सुमंगल-परम कल्याण का निवास स्थान है।
रे मन सब सों निरस ह्वै, सरस राम सों होहि।
भलो सिखावन देत है, निसि दिन तुलसी तोहि॥
रे मन! तू संसार के सब पदार्थों से प्रीति तोड़कर श्री राम से प्रेम कर। तुलसीदास तुझको रात-दिन यही शिक्षा देता है।
संकर प्रिय मम द्रोही, सिव द्रोही मम दास।
ते नर करहिं कलप भरि, घोर नरक महुँ बास॥
(भगवान् श्री रामचंद्र जी कहते हैं कि) जिनको शिव जी प्रिय हैं, किंतु जो मुझसे विरोध रखते हैं; अथवा जो शिवजी से विरोध रखते हैं और मेरे दास बनना चाहते हैं, मनुष्य एक कल्प तक घोर नरक में पड़े रहते हैं (अतएव श्री शंकर जी में और श्री राम जी में कोई ऊँच-नीच का भेद नहीं मानना चाहिए।)।
जग ते रहु छत्तीस ह्वै, रामचरन छ: तीन।
‘तुलसी’ देखु विचारि हिय, है यह मतौ प्रबीन॥
संसार में तो छत्तीस के अंक के समान पीठ करके रहो, और राम के चरणों में त्रेसठ के समान सम्मुख रहो। चतुर पुरुषों के इस मत को अपने हृदय में विचार करके देख लो। भाव यह है कि 36 के अंक में 3 और 6 इन दोनों अंकों की आपस में पीठ लगी रहती है पर 63 में 6 और 3 इन दोनों के मुख आमने-सामने होते हैं। इसलिए मनुष्यों को चाहिए कि वे संसार से तो सदा 36 के अंक के समान पीठ फेर कर विरक्त रहें परंतु भगवान् राम के चरणों के प्रति 63 के अंक के समान सदा अनुकूल रहें।
रसना सांपिनी बदन बिल, जे न जपहिं हरिनाम।
तुलसी प्रेम न राम सों, ताहि बिधाता बाम॥
जो श्री हरि का नाम नहीं जपते, उनकी जीभ सर्पिणी के समान केवल विषय-चर्चा रूपी विष उगलने वाली और मुख उसके बिल के समान है। जिसका राम में प्रेम नही है, उसके लिए तो विधाता वाम ही है (अर्थात् उसका भाग्य फूटा ही है)।
मीठो अरु कठवति भरो, रौंताई अरु छेम।
स्वारथ परमारथ सुलभ, राम नाम के प्रेम॥
मीठा पदार्थ (अमृत) भी हो और कठौता भरकर मिले, यानी राज्यादि अधिकार भी प्राप्त हों और क्षेमकुशल भी रहे (अर्थात् अभिमान और भोगों से बचकर रहा जाए) अर्थात् स्वार्थ भी सधे तथा परमार्थ भी संपन्न हो; ऐसा होना बहुत ही कठिन है परंतु श्री राम नाम के प्रेम से ये परस्पर विरोधी दुर्लभ बातें भी सुलभ हो जाती है।
हरन अमंगल अघ अखिल, करन सकल कल्यान।
रामनाम नित कहत हर, गावत बेद पुरान॥
राम नाम सब अमंगलों और पापों को हरने वाला तथा सब कल्याणों को करने वाला है। इसी से श्री महादेव जी सर्वदा श्री राम नाम को रटते रहते हैं और वेद-पुराण भी इस नाम का ही गुण गाते हैं।
‘तुलसी’ श्री रघुवीर तजि, करौ भरोसौ और।
सुख संपति की का चली, नरकहुँ नाहीं ठौर॥
गोस्वामी जी कहते हैं कि जो भगवान् राम को छोड़ कर किसी दूसरे पर भरोसा रख कर बैठते हैं, उन्हें भला सुख-संपत्ति तो मिलेगी ही कहाँ से! उन्हें तो नरक में भी स्थान न मिलेगा। भाव यह कि मनुष्य को भगवान् के सिवा किसी दूसरे का कभी भरोसा नहीं करना चाहिए।
हम लखि लखहि हमार लखि, हम हमार के बीच।
तुलसी अलखहि का लखहि, राम नाम जप नीच॥
तू पहले अपने स्वरूप को जान, फिर अपने यथार्थ ब्रह्म के स्वरूप का अनुभव कर। तदनंतर अपने और ब्रह्म के बीच में रहने वाली माया को पहचान। अरे नीच ! (इन तीनों को समझे बिना) तू उस अलख परमात्मा को क्या समझ सकता है? अतः (अलख-अलख चिल्लाना छोडकर) राम नाम का जप कर।
राम नाम कलि कामतरु, राम भगति सुरधेनु।
सकल सुमंगल मूल जग, गुरुपद पंकज रेनु॥
कलियुग में राम नाम मनचाहा फल देने वाले कल्पवृक्ष के समान है, रामभक्ति मुँह माँगी वस्तु देने वाली कामधेनु है और श्री सद्गुरु के चरण कमल की रज संसार में सब प्रकार के मंगलों की जड़ है।
तुलसी हठि-हठि कहत नित, चित सुनि हित करि मानि।
लाभ राम सुमिरन बड़ी, बड़ी बिसारें हानि॥
तुलसी नित्य-निरंतर बड़े आग्रह के साथ कहते हैं कि हे चित्त! तू मेरी बात सुनकर उसे हितकारी समझ। राम का स्मरण ही बड़ा भारी लाभ है और उसे भुलाने में ही सबसे बड़ी हानि है।
मो सम दीन न दीन हित, तुम्ह समान रघुबीर।
अस बिचारि रघुबंस मनि, हरहु बिषम भव भीर॥
हे रघुवीर! मेरे समान तो कोई दीन नहीं है और आपके समान कोई दीनबंधु नही है। ऐसा विचारकर हे रघुवंश-मणि! जन्म-मरण के महान् भय का नाश कीजिए।
सूर समर करनी करहीं, कहि न जनावहिं आप।
विद्यमान रिपु पाइ रन, कायर करहिं प्रलाप॥
शूरवीर युद्ध में काम करके दिखाते हैं, मुँह से बातें बना कर अपनी बड़ाई नहीं करते। इसके विपरीत कायर पुरुष युद्ध में शत्रु को सामने देखकर बकवाद करने लगते हैं। भाव यह है कि वीर पुरुष काम करके दिखाते हैं, बातें नहीं बनाते और नीच पुरुष बातें तो बढ़कर बनाते हैं पर काम के समय भाग जाते हैं।
राम दूरि माया बढ़ति, घटति जानि मन माँह।
भूरि होति रवि दूरि लखि, सिर पर पगतर छाँह॥
जैसे सूर्य को दूर देखकर छाया लंबी हो जाती है और सूर्य जब सिर पर आ जाता है तब वह ठीक पैरों के नीचे आ जाती है, उसी प्रकार श्री राम से दूर रहने पर माया बढ़ती है और जब वह श्री राम को मन में विराजित जानती है, तब घट जाती है।
जाति हीन अघ जन्म महि, मुक्त कोन्हि असि नारि।
महामंद मन सुख चहसि, ऐसे प्रभुहि बिसारि॥
जो नीच जाति की और पापों की जन्मभूमि थी, ऐसी स्त्री (शबरी) को भी जिन्होंने मुक्त कर दिया, अरे महामूर्ख मन। तू ऐसे प्रभु श्री राम को भूलकर सुख चाहता है?
तुलसी रामहु तें अधिक, राम भगत जियें जान।
रिनिया राजा राम में, धनिक भए हनुमान॥
तुलसी कहते हैं कि श्री राम के भक्त को राम जी से भी अधिक समझो। राजराजेश्वर श्री रामचंद्र जी स्वयं ऋणी हो गए और उनके भक्त श्री हनुमान जी उनके साहूकार बन गए (श्री राम-जी ने यहाँ तक कह दिया कि मैं तुम्हारा ऋण कभी चुका ही नहीं सकता)।
काल करम गुन दोष जग, जीव तिहारे हाथ।
तुलसी रघुबर रावरो, जानु जानकीनाथ॥
तुलसी कहते हैं कि हे रघुनाथजी! काल, कर्म, गुण, दोष, जगत्-जीव सब आपके ही अधीन हैं। हे जानकीनाथ! इस तुलसी को भी अपना ही जानकर अपनाइए।
बिनु सतसंग न हरिकथा, तेहि बिनु मोह न भाग।
मोह गएँ बिनु रामपद, होइ न दृढ़ अनुराग॥
सत्संग के बिना भगवान की लीला-कथाएँ सुनने को नहीं मिलती, भगवान की रहस्यमयी कथाओं के सुने बिना मोह नहीं भागता और मोह का नाश हुए बिना भगवान् श्री राम के चरणों मे अचल प्रेम नहीं होता।
काल करम गुन दोष जग, जीव तिहारे हाथ।
तुलसी रघुबर रावरो, जानु जानकीनाथ॥
तुलसी कहते हैं कि हे रघुनाथजी! काल, कर्म, गुण, दोष, जगत्-जीव सब आपके ही अधीन हैं। हे जानकीनाथ! इस तुलसी को भी अपना ही जानकर अपनाइए।
अनुदिन अवध बधावने, नित नव मंगल मोद।
मुदित मातु-पितु लोग लखि, रघुवर बाल विनोद॥
श्री अयोध्या जी में रोज बधावे बजते हैं, नित नए-नए मंगलाचार और आनंद मनाए जाते हैं। श्री रघुनाथ जी की बाल लीला देख-देखकर माता-पिता तथा सब लोग बडे प्रसन्न होते हैं।
बरषा रितु रघुपति भगति, तुलसी सालि सुदास।
रामनाम बर बरन जुग, सावन भादव मास॥
तुलसीदास जी कहते हैं कि श्री रघुनाथ जी की भक्ति वर्षा-ऋतु है, उत्तम सेवकगण (प्रेमी भक्त) धान हैं और राम नाम के दो सुंदर अक्षर सावन-भादों के महीने हैं (अर्थात् जैसे वर्षा-ऋतु के श्रावण, भाद्रपद- इन दो महीनो में धान लहलहा उठता है, वैसे ही भक्ति पूर्वक श्री राम नाम का जप करने से भक्तों को अत्यंत सुख मिलता है।
जेहि सरीर रति राम सों, सोइ आदरहिं सुतान।
रुद्र देह तजि नेह बस, संकर भे हनुमान॥
चतुर लोग उसी शरीर का आदर करते हैं, जिस शरीर से श्री राम में प्रेम होता है। इस प्रेम के कारण ही श्री शंकर जी अपने रुद्र देह को त्यागकर हनुमान बन गए।
बिगरी जनम अनेक को, सुधरै अबहीं आजु।
होहि राम को नाम जपु, तुलसी तजि कुसमाजु॥
तुलसी कहते हैं कि तू कुसंगति को और चित्त के सारे बुरे विचारों को त्यागकर राम का बन जा और उनके नाम का जप कर। ऐसा करने से तेरी अनेक जन्मों की बिगड़ी हुई स्थिति अभी सुधर सकती है।
राम नाम मनिदीप धरु, जीह देहरीं द्वार।
तुलसी भीतर बाहेरहुँ, जौं चाहसि उजिआर॥
तुलसी कहते हैं कि यदि तू भीतर और बाहर दोनों ओर प्रकाश (लौकिक एवं पारमार्थिक ज्ञान) चाहता है तो राम नाम के दीप को अपनी देहरी पर हमेशा जलाए रख अर्थात् अपनी देह की देहरी जीभ पर हमेशा राम-नाम का सुमिरन रखना। इससे तुम्हारे भीतर और बाहर दोनों और चेतना का उजाला रहेगा।
घर-घर माँगे टूक पुनि, भूपति पूजे पाय।
जे तुलसी तब राम बिनु, ते अब राम सहाय॥
तुलसी कहते हैं कि जिस समय मैं राम से (श्री राम के आश्रय से) रहित था, उस समय घर-घर टुकड़े माँगता था। अब जो श्री राम जी मेरे सहायक हो गए हैं तो फिर राजा लोग मेरे पैर पूजते हैं।
बिलग बिलग सुख संग दुख, जनम मरन सोइ रीति।
रहिअत राखे राम के, गए ते उचित अनीति॥
संसार से दूर-दूर रहने में है सुख है, आसक्ति में ही दुःख है। यही बात जन्म और मृत्यु में है। श्री राम के रक्खे अर्थात् वे रखना चाहते हैं, इसीलिए (आसक्ति रहित होकर यहाँ से जो चले गए, उन्होंने ही उचित किया (तात्पर्य यह है कि जगत में या तो भगवत प्रेमी होकर रहें या ऐसी चेष्टा करें जिससे मुक्ति ही मिल जाए)।
सबहि समरथहि सुखद प्रिय, अच्छम प्रिय हितकारि।
कबहुँ न काहुहि राम प्रिय, तुलसी कहा बिचारि॥
(संसार की यह दशा है कि) जो समर्थ पुरुष है उन सबको तो सुख देने वाला प्रिय लगता है और असमर्थ को अपना भला करने वाला प्रिय होता है। तुलसी विचारकर ऐसा कहते हैं कि भगवान श्री राम (विषयी पुरुषों में) कभी किसी को भी प्रिय नहीं लगते।
कियो सुसेवक धरम कपि, प्रभु कृतग्य जियँ जानि।
जोरि हाथ ठाढ़े भए, बरदायक वरदानि॥
श्री हनुमान जी ने एक अच्छे सेवक का धर्म ही निभाया। परंतु यह जानकर वर देने वाले देवताओं के भी वरदाता महेश्वर श्री भगवान् हृदय से ऐसे कृतज्ञ हुए कि हाथ जोड़कर हनुमान जी के सामने खड़े हो गए (कहने लगे कि हे हनुमान्! मैं तुम्हारे बदले में उपकार तो क्या करूँ, तुम्हारे सामने नज़र उठाकर देख भी नहीं सकता)।
जथा भूमि सब बीजमय, नखत निवास अकास।
राम नाम सब धरममय, जानत तुलसीदास॥
जैसे सारी धरती बीजमय है, सारा आकाश नक्षत्रों का निवास है, वैसे ही राम नाम सर्वधर्ममय है—तुलसीदास इस रहस्य को जानते हैं।
जौ जगदीस तौ अति भलो, जौं महीस तौ भाग।
तुलसी चाहत जनम भरि, राम चरन अनुराग॥
यदि श्री राम जी समस्त जगत् के स्वामी हैं तो बहुत ही अच्छी बात है, और यदि वे केवल पृथ्वी के स्वामी-राजा हैं तो भी मेरा बड़ा भाग्य है। तुलसीदास तो जन्मभर श्री राम के चरण कमलों में प्रेम ही चाहता है।
बिनहीं रितु तरुबर फरत, सिला द्रबति जल जोर।
राम लखन सिय करि कृपा, जब चितबत जेहि मोर॥
श्री राम, लक्ष्मण और सीता जब कृपा करके जिसकी तरफ़ ताक लेते हैं तब बिना ही ऋतु के वृक्ष फलने लगते हैं और पत्थर की शिलाओं से बड़े ज़ोर से जल बहने लगता है।
लंक बिभीषन राज कपि, पति मारुति खग मीच।
लही राम सों नाम रति, चाहत तुलसी नीच॥
श्री रामजी से विभीषण ने लंका पायी, सुग्रीव ने राज्य प्राप्त किया, हनुमान जी ने सेवक की पदवी या प्रतिष्ठा पायी और पक्षी जटायु ने देव दुर्लभ उत्तम मृत्यु प्राप्त की। परंतु नीच तुलसीदास तो उन प्रभु श्री राम से केवल राम नाम में प्रेम ही चाहता है।
राम प्रेम बिनु दूबरो, राम प्रेमहीं पीन।
रघुबर कबहुँक करहुगे, तुलसिहि ज्यों जल मीन॥
जैसे मछली जल के संयोग से पुष्ट होती है और जल के बिना दुबली हो जाती है, जल के वियोग में मर जाती है, वैसे ही हे श्री रघुनाथ जी! आप इस तुलसीदास को कब ऐसा करेंगे जब वह श्री राम के प्रेम के बिना मछली की भाँति दुबला जाए और श्री राम (आप) के प्रेम से ही पुष्ट हो?
बालक कोसलपाल के, सेवकपाल कृपाल।
तुलसी मन मानस बसत, मंगल मंजु मराल॥
कोसलपति दशरथ के बालक श्री राम सेवकों की रक्षा करने वाले तथा बड़े ही कृपालु हैं। वे तुलसी के मनरूपी मानसरोवर में कल्याण रूप सुंदर हंस के समान निवास करते हैं।
नातो नाते राम कें, राम सनेहँ सनेहु।
तुलसी माँगत जोरि कर, जनम-जनम सिव देहु॥
तुलसीदास हाथ जोड़कर वरदान माँगता है कि हे शिवजी! मुझे जन्म-जन्मान्तरों में यही दीजिए कि मेरा श्री राम के नाते ही किसी से नाता हो और श्री राम से प्रेम के कारण ही प्रेम हो।
चित्रकूट सब दिन बसत, प्रभु सिय लखन समेत।
राम नाम जप जाप कहि, तुलसी अभिमत देत॥
सीता और लक्ष्मण सहित प्रभु श्री राम चित्रकूट में सदा-सर्वदा निवास करते हैं। तुलसी कहते हैं कि वे राम-नाम का जप जपने वाले को इच्छित फल देते हैं।
लव निमेष परमानु जुग, बरस कलप सर चंड।
भजसि न मन तेहि राम कहँ, कालु जासु कोदंड॥
हे मन! तू उन श्री राम को क्यों नही भजता; जिनका काल तो धनुष है और लव, निमेष, परमाणु, युग, वर्ष और काल जिनके प्रचंड बाण हैं।
तुलसी प्रीति प्रतीति सों, राम नाम जप जाग।
किएँ होइ बिधि दाहिनो, देइ अभागेहि भाग॥
तुलसीदास जी कहते हैं कि प्रेम और विश्वास के साथ राम-नाम-जप रूपी यज्ञ करने से विधाता अनुकूल हो जाता है और अभागे मनुष्य को भी परम भाग्यवान् बना देता है।
तुलसी सुखी जो राम सों, दुखी सो निज करतूति।
करम बचन मन ठीक जेहि, तेहि न सकै कलि धूति॥
तुलसी कहते हैं कि जो मनुष्य श्री राम जी से अपने को सब प्रकार से सुखी होना और अपनी अहंकार भरी करतूतों से दुखी होना मानता है, जिसके कर्म, वचन और मन ठीक हैं; उसको कलियुग धोखा नहीं दे सकता।
जरउ सो संपत्ति सदन, सुख सुहृद मातु पितु भाइ।
सनमुख होत जो रामपद, करइ न सहस सहाइ॥
वह संपत्ति, घर, सुख, मित्र, माता-पिता और भाई आदि सब जल जाएँ, जो श्री राम के चरणों के सम्मुख होने में हँसते हुए (प्रसन्नतापूर्वक) सहायता नहीं करते।
बरषा को गोबर भयो, को चहै को करै प्रीति।
तुलसी तू अनुभवहि अब, राम बिमुख की रीति॥
तुलसी कहते हैं कि तू अब श्री रामजी से विमुख मनुष्य की गति का तो अनुभव कर, वह बरसात का गोबर हो जाता है (जो न तो लीपने के काम में आता है न पाथने के) अर्थात् निकम्मा हो जाता है। उसे कौन चाहेगा? और कौन उससे प्रेम करेगा?
निज दूषन गुन राम के, समुझें तुलसीदास।
होइ भलो कलिकालहूँ, उभय लोक अनयास॥
तुलसी कहते हैं कि अपने दोषों तथा श्री राम के गुणों को समझ लेने पर अथवा दोषों को अपना किया और गुण भगवान् श्री राम के दिए हुए मान लेने से इस कलि काल में भी मनुष्य का इस लोक और परलोक दोनों में सहज ही कल्याण हो जाता है।
जल थल नभ गति अमित अति, अग जगजीव अनेक।
तुलसी तो से दीन कहँ, राम नाम गति एक॥
जगत में चर-अचर अनेक प्रकार के असंख्य जीव हैं और चरों मे कुछ ऐसे हैं जिनकी जल में गति है; कुछ की पृथ्वी पर गति है और कुछ की आकाश में गति है; परंतु हे तुलसीदास! तुझ-सरीखे दीन के लिए तो राम नाम ही एक मात्र गति है।
मोर-मोर सब कहँ कहसि, तू को कहु निज नाम।
कै चुप साधहि सुनि समुझि, कै तुलसी जपु राम॥
तू सबको मेरा-मेरा कहता है, परंतु यह तो बता कि तू कौन है ? और तेरा अपना नाम क्या है? तुलसी कहते हैं कि अब या तो तू इसको (नाम और रूप के रहस्य को) सुन और समझकर मौन हो जा (मेरा-मेरा कहना छोड़कर अपने स्वरूप में स्थित हो जा) या राम का नाम जप।
राम निकाई रावरी, है सबही को नीक।
जौं यह साँची है सदा, तौ नीको तुलसीक॥
तुलसी कहते हैं कि हे रामजी! आपकी भलाई (सुहृद्भाव) से सभी का भला है। अर्थात् आपका कल्याणमय स्वभाव सभी का कल्याण करने वाला है। यदि यह बात सत्य है तो तुलसीदास का भी सदा कल्याण ही है।
राम सनेही राम गति, राम चरन रति जाहि।
तुलसी फल जग जनम को, दियो बिधाता ताहि॥
तुलसी कहते हैं जो श्री राम का ही प्रेमी है, श्री राम ही जिसकी गति है और श्री राम के ही चरणों में जिसकी प्रीति है। बस, उसी को विधाता ने जगत में जन्म लेने का यथार्थ फल दिया है।
राम नाम पर नाम तें, प्रीति प्रतीति भरोस।
सो तुलसी सुमिरत सकल, सगुन सुमंगल कोस॥
तुलसीदास जी कहते हैं कि जो राम नाम के परायण हैं और राम नाम में ही जिसका प्रेम, विश्वास और भरोसा है, वह राम नाम का स्मरण करते ही समस्त सद्गुणों और श्रेष्ठ मंगलों का ख़ज़ाना बन जाता है।
सबरी गीध सुसेवकनि, सुगति दीन्हि रघुनाथ।
नाम उधारे अमित खल, बेद बिदित गुन गाथ॥
श्री रघुनाथ जी ने तो शबरी, गिद्धराज, जटायु आदि अपने श्रेष्ठ सेवकों को ही सुगति दी; परंतु राम नाम ने तो असंख्य दुष्टों का उद्धार कर दिया। राम नाम की यह गुणगाथा वेदों में प्रसिद्ध है।
राम नाम सुमिरत सुजस, भाजन भए कुजाति।
कुतरुक सुरपुर राज मग, लहत भुवन बिख्याति॥
राम नाम का स्मरण करने से (गणिका एवं अजामिल आदि) अप्रिय स्वभाव वाले भी सुंदर कीर्ति के पात्र हो गए। स्वर्ग के राजमार्ग पर स्थित बुरे वृक्ष भी त्रिभुवन मे ख्याति पा जाते हैं।
वेष विसद बोलनि मधुर, मन कटु करम मलीन।
तुलसी राम न पाइऐ, भएँ बिषय-जल मीन॥
तुलसी कहते हैं कि ऊपर का वेष साधुओं का-सा हो और बोली भी मीठी हो, परंतु मन कठोर और कर्म भी मलिन हो; इस प्रकार विषय रूपी जल की मछली बने रहने से श्री राम की प्राप्ति नहीं होती (श्री राम तो सरल मन वाले को ही मिलते हैं)।
सकल कामना हीन जे, राम भगति रस लीन।
नाम सुप्रेम पियूष हृद, तिन्हहुँ किए मन मीन॥
जो समस्त कामनाओं से रहित हैं और श्री रामजी के भक्तिरस में डूबे हुए हैं, उन महात्माओं ने भी राम नाम के सुंदर प्रेमरूपी अमृत-सरोवर में अपने मन को मछली बना रक्खा है (अर्थात् नामामृत के आनंद को वे क्षण भर के लिए भी त्यागने में मछली की भांति व्याकुल हो जाते हैं)।
‘तुलसी’ कबहुँ न त्यागिए, अपने कुल की रीति।
लायक ही सों कीजिए, ब्याह, बैर अरु प्रीति॥
तुलसीदास कहते हैं कि अपने कुल की रीति को कभी नहीं छोड़ना चाहिए। वैर, विवाह और प्रीति अपने समान व्यक्तियों से ही करना चाहिए।
सुद्ध सच्चिदानंदमय, कंद भानुकुल केतु।
चरित करत नर अनुहरत, संसृति सागर सेतु॥
शुद्ध (प्रकृतिजन्य त्रिगुणों से रहित, मायातीत दिव्य मंगल विग्रह), सच्चिदानंदकंदस्वरूप, सूर्यकुल के ध्वजा रूप भगवान् श्री राम मनुष्यों के समान ऐसे चरित्र करते हैं, जो संसार-सागर से तारने के लिए पुल के समान हैं (अर्थात् उन चरित्रों को गाकर और सुनकर लोग भवसागर से सहज ही तर जाते हैं)।
राम बाम दिसि जानकी, लखन दाहिनी ओर।
ध्यान सकल कल्यानमय, सुरतरु तुलसी तोर॥
भगवान् श्री रामजी की बाईं ओर श्री जानकी जी हैं और दाहिनी ओर श्री लक्ष्मण जी हैं, यह ध्यान संपूर्ण रूप से कल्याणमय है। हे तुलसी! तेरे लिए तो यह मनमाना फल देने वाला कल्पवृक्ष ही है।
पंचबटी बट बिटप तर, सीता लखन समेत।
सोहत तुलसीदास प्रभु, सकल सुमंगल देत॥
पंचवटी में वटवृक्ष के नीचे सीता और लक्ष्मण समेत प्रभु श्री राम सुशोभित हैं। तुलसी कहते हैं कि यह ध्यान सब सुमंगलों का दाता है।
ज्यों जग बैरी मीन कौ, आपु सहित बिनु वारि।
त्यों ‘तुलसी’ रघुवीर बिनु, गति अपनी सुविचारि॥
जिस प्रकार पानी के बिना मछली के सब शत्रु हो जाते हैं, यहाँ तक कि वह स्वयं भी अपने आप ही अपनी शत्रु हो जाती है वैसी ही भगवान् राम के बिना मनुष्य के सब शत्रु हो जाते हैं। इसलिए गोस्वामी जी अपने मन को समझाते हुए कहते हैं कि तू भी अपना कल्याण चाहता है तो भगवान् की शरण में जा ताकि तेरा उद्धार हो जाय।
ज्यों जग बैरी मीन को, आपु सहित बिनु बारि।
त्यों तुलसी रघुबीर बिनु, गति आपनी बिचारि॥
जैसे जल को छोड़कर सारा जगत् ही मछली का वैरी है, यहाँ तक कि वह आप भी वैरी का काम करती है (जीभ के स्वाद के लिए काँटे में अपना मुँह फंसा लेती है), वैसे ही हे तुलसी! एक श्री रघुनाथ जी के बिना अपनी भी यही गति समझ ले (अपना ही मन वैरी बनकर तुझे विषयों में फंसा देगा)।
तुलसी राम कृपालु सों, कहि सुनाउ गुन दोष।
होय दूबरी दीनता, परम पीन संतोष॥
तुलसी कहते हैं कि तुम कृपालु श्री रामजी से अपने सब गुण-दोष दिल खोलकर सुना दो। इससे तुम्हारी दीनता दुबली (कम) हो जाएगी और संतोष परम पुष्ट (दृढ़) हो जाएगा।
प्रीति प्रतीति सुरीति सों, राम राम जपु राम।
तुलसी तेरो है भलो, आदि मध्य परिनाम॥
तुलसी कहते हैं कि तुम प्रेम, विश्वास और विधि के साथ राम-राम जपो; इससे तुम्हारा आदि, मध्य और अंत तीनों ही कालों में कल्याण है।
सेवा सील सनेह बस, करि परिहरि प्रिय लोग।
तुलसी ते सब राम सों, सुखद संजोग वियोग॥
तुलसी कहते हैं कि जगत के संबंधी प्रियजनों को (उनके मोह को) त्याग कर सेवा, शील और प्रेम से श्री राम को वश करो। श्री राम के प्रति सेवा, प्रेम आदि करने पर प्रत्येक संयोग-वियोग सुखप्रद हो जाएगा (क्योकि मोहवश ही मनुष्य को जन्म-मरणशील प्रियजनों या प्रिय पदार्थों के संयोग-वियोग में सुख-दुख होता है और राम से तो कभी वियोग हो ही नहीं सकता।
ब्रह्म राम तें नामु बड़, बर दायक बर दानि।
राम चरित सत कोटि महँ, लिय महेस जियँ जानि॥
ब्रह्म और राम से भी राम नाम बड़ा है, वह वर देने वाले देवताओं को भी वर देने वाला है। श्री शंकर जी ने इस रहस्य को मन में समझकर ही राम चरित्र के सौ करोड़ श्लोकों में से (चुनकर दो अक्षर के इस) राम नाम को ही ग्रहण किया।
राम नाम नर केसरी, कनककसिपु कलिकाल।
जापक जन प्रहलाद जिमि, पालिहि दलि सुरसाल॥
श्री राम नाम नृसिंह भगवान् है,कलयुग हिरण्यकशिपु है और श्री राम नाम का जप करने वाले भक्तजन प्रह्लाद जी के समान हैं जिनकी वह राम नाम रूपी नृसिंह भगवान् देवताओं को दुःख देने वाले हिरण्यकशिपु को (भक्ति के बाधक कलियुग को) मारकर रक्षा करेगा।
राम नाम कलि कामतरु, सकल सुमंगल कंद।
सुमिरत करतल सिद्धि सब, पग-पग परमानंद॥
श्री राम का नाम कलियुग में कल्पवृक्ष के समान है और सब प्रकार के श्रेष्ठ मंगलों का परम सार है। रामनाम के स्मरण से ही सब सिद्धियाँ वैसे ही प्राप्त हो जाती हैं, जैसे कोई चीज़ हथेली में ही रक्खी हो और पग-पग पर परम आनंद की प्राप्ति होती है।
गौतम तिय गति सुरति करि, नहिं परसति पग पानि।
मन बिहसे रघुबंस मनि, प्रीति अलौकिक जानि॥
मुनि गौतम की पत्नी अहल्या की गति को याद करके (जो चरणस्पर्श करते ही देवी बनकर आकाश में उड़ गई थी) श्री सीता जी अपने हाथों से भगवान् श्री राम जी के पैर नहीं छूतीं। रघुवंश-विभूषण श्री राम सीता के इस अलौकिक प्रेम को जानकर मन-ही-मन हँसने लगे।
तुलसी बिलसत नखत निसि, सरद सुधाकर साथ।
मुकुता झालरि झलक जनु, राम सुजसु सिसु हाथ॥
तुलसीदास जी कहते है कि शरत्पूर्णिमा के चंद्रमा के साथ रात्रि में नक्षत्रावली ऐसी शोभा देती है, मानो श्री राम जी के सुयश रूपी शिशु के हाथ में मोतियों की झालर झलमला रही हो।
तुलसी राम सुदीठि तें, निबल होत बलवान।
बैर बालि सुग्रीव के, कहा कियो हनुमान॥
तुलसी कहते हैं कि श्री राम की शुभ दृष्टि से निर्बल भी बलवान् हो जाते हैं। सुग्रीव और बालि के वैर में हनुमान जी ने भला क्या किया? (परंतु वही श्री राम जी की कृपा से महान् वीर हो गए)।
ईस अंक ते बढ़त सब, ईस अंक बिनु आदि॥
माया, जीव, स्वभाव, गुण, काल, कर्म और महत्त्वादि सब ईश्वररूपी अंग के संयोग से बढ़ते हैं और उस अंग के बिना व्यर्थ हो जाते हैं।
त्राहि तीनि कह्यो द्रौपदी, तुलसी राज समाज।
प्रथम बढ़े पट तिय विकल, चहत चलित निज काज॥
तुलसी कहते हैं कि राजसभा में ( जब दुःशासन द्रौपदी का चीर खींचने लगा तब) द्रौपदी ने घबड़ा कर तीन बार 'त्राहि-त्राहि' पुकारा। पहली त्राहि कहते ही वस्त्र बढ़ गया, दूसरी में भगवान् व्याकुल हो उठे कि द्रौपदी को सताने वालों के लिए अब क्या किया जाए? (तीसरी में) चकित होकर अपने कार्य की इच्छा करने लगे (अर्थात् दुशासनादि के संहार का निश्चय कर लिया) अर्थात् भक्त की सच्चे मन से की हुई एक भी पुकार व्यर्थ नहीं जाती।
जाएँ कहब करतूति बिनु, जाए जोग बिन छेम।
तुलसी जाएँ उपाय सब, बिना राम पद प्रेम॥
बिना करनी किए केवल कथन मात्र व्यर्थ है, बिना क्षेम (प्राप्त वस्तु की रक्षा) के योग (अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति) व्यर्थ है। तुलसीदास जी कहते हैं कि श्री राम के चरणो में प्रेम हुए बिना सब साधन व्यर्थ हैं।
सिष्य सखा सेवक सचिव, सुतिय सिखाबनु साँच।
सुनि करिए पुनि परिहरिय, पर मनरंजन पाँच॥
शिष्य, मित्र, सेवक, मंत्री और स्त्री यदि इनकी कोई शिक्षा सच्ची हो और हितकारक हो तो उस पर आचरण करना चाहिए; नहीं तो दूसरों के मन को प्रसन्न करने के लिए कही गई इन पाँचों की बातों को छोड़ देना चाहिए।
सत्य बचन मानस बिमल, कपट रहित करतूति।
तुलसी रघुबर सेवकहि, सकै न कलिजुग धूति॥
तुलसी कहते हैं कि जिनके वचन सत्य होते हैं, मन निर्मल होता है और क्रिया कपट रहित होती है, ऐसे श्री राम के भक्तों को कलियुग कभी धोखा नहीं दे सकता (वे माया में नही फंस सकते)।
‘तुलसी’ विलंब न कीजै, भजि लीजै रघुबीर।
तन तरकस तें जात है, स्वांस सार सो तीर॥
तुलसीदास कहते हैं कि अब देर मत करो, अब भगवान् राम का भजन कर लो, क्योंकि शरीर रूपी तरकस से प्राण रूपी तीर निकलते ही जा रहे हैं और जो श्वास एक बार निकल जाता है वह फिर नहीं आता।
चारि चहत मानस अगम, चनक चारि को लाहु।
चारि परिहरें चारि को, दानि चारि चख चाहु॥
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष— इन चारों को मनुष्य चाहता है; परंतु ये मन से अगम है मिलते नहीं। मिलते हैं चार चने ही (केवल कुछ विषय ही), अतएव इन चारों की चाह छोड़कर चारों के देने वाले भगवान् श्री राम को बाहर के दो और भीतर के दो (मन-बुद्धि) इन चारों नेत्रों से देखो।
स्याम सुरभि पय बिसद अति, गुनद करहिं सब पान।
गिरा ग्राम्य सिय राम जस, गावहिं सुनहिं सुजान॥
श्यामा गौ काली होने पर भी उसका दूध बहुत उज्ज्वल और गुणदायक होता है, इसी से लोग उसे (बड़े चाव से) पीते हैं। इसी प्रकार बुद्धिमान् संतजन श्री सीताराम जी के यश को गँवारू भाषा में होने पर भी (बड़े चाव से) गाते और सुनते हैं।
बिंधि न इँधन पाइऐ, सायर जुरै न नीर।
परै उपास कुबेर घर, जो बिपच्छ रघुबीर॥
यदि श्री रघुनाथ जी प्रतिकूल हो जाए तो फिर (घनी लकड़ियों वाले) विंध्याचल में इंधन नहीं मिलेगा, समुद्र में जल नहीं जुड़ सकेगा और धनपति कुबेर के घर भी फाका पड़ जाएगा।
कुलिसहु चाहि कठोर अति, कोमल कुसुमहु चाहि।
चित्त खगेस राम कर समुझि, परइ कहु काहि॥
हे पक्षिराज! श्री राम का चित्त [अपने लिए तो] वज्र से अधिक कठोर है और (भक्तों के लिए) फूल से भी अधिक कोमल है। कहिए, फिर इस चित्त का रहस्य किस की समझ मे आ सकता है।
तुलसी उद्यम करम जुग, जब जेहि राम सुडीठि।
होइ सुफल सोइ ताहि सब, सनमुख प्रभु तन पीठि॥
तुलसी कहते हैं कि जब जिस पर श्री राम की सुदृष्टि होती है, तब उसके सब उद्यम और कर्म दोनों सफल हो जाते हैं और वह शरीर की ममता छोड़कर प्रभु के सम्मुख हो जाता है।
जैसो तैसो रावरो, केवल कोसलपाल।
तौ तुलसी को है भलो, तिहूँ लोक तिहुँ काल॥
तुलसी कहते हैं कि हे कोसलपति श्री राम! जैसा-तैसा (भला-बुरा) यह तुलसी केवल आपका ही है। यदि यह बात सच है तो तीनों लोकों में (यह जहाँ-कहीं रहे) और तीनों कालों (भूत, भविष्य और वर्तमान) में इसका कल्याण-ही-कल्याण है।
हित सों हित, रति राम सों, रिपु सों बैर बिहाउ।
उदासीन सब सों सरल, तुलसी सहज सुभाउ॥
तुलसी कहते हैं कि रामभक्त का ऐसा सहज भाव होना चाहिए कि श्री राम में उसका प्रेम हो, मित्रों से मैत्री हो, वैरियों से वैर का त्याग कर दे, किसी में पक्षपात न हो और सबसे सरलता का व्यवहार हो।
तुलसी दुइ महँ एक ही, खेल छाँड़ि छल खेलु।
कै करु ममता राम सों, कै ममता परहेलु॥
तुलसीदास जी कहते हैं कि सब छोड़कर तू दोनों मे से एक ही खेल- या तो केवल राम से ही ममता कर या ममता का सर्वथा त्याग कर दे।
तुलसी जाके होयगी, अंतर बाहिर दीठि।
सो कि कृपालुहि देइगो, केवट पालहि पीठि॥
तुलसी कहते हैं कि जिसके भीतरी और बाहरी दृष्टि होगी अर्थात् जो लोक-लीला और परम तत्त्व दोनों को समझता होगा, वह क्या केवट की रुचि की रक्षा करने वाले (चरण पखरवा कर उसे कुल सहित तारने वाले) कृपालु श्री राम के कभी विमुख होगा?
राम कथा मंदाकिनी, चित्रकूट चित चारु।
तुलसी सुभग सुनेह बन, सिय रघुवीर बिहारु॥
श्री राम जी की कथा मंदाकिनी नदी है, सुंदर (भक्ति से पूर्ण निर्दोष) चित्त चित्रकूट है और स्नेह ही सुंदर वन है जिसमें श्री सीताराम जी विहार करते हैं।
मुए जिआए भालु कपि, अवध बिप्र को पूत।
सुमिरहु तुलसी ताहि तू, जाको मारुति दूत॥
जिन्होंने लंका मे मरे हुए बंदर-भालुओं को जिला दिया और अयोध्या में मरे हुए एक ब्राह्मण के बालक को जीवित कर दिया, हे तुलसीदास ! तुम उनका स्मरण करो जिनके दूत पवन पुत्र हनुमान हैं (जो संजीवनी बूटी लाकर लक्ष्मण जी को जीवित करने वाले हैं)।
कहा विभीषन लै मिल्यो, कहा बिगारयो बालि।
तुलसी प्रभु सरनागतहि, सद दिन आए पालि॥
बालि ने तो भगवान् का क्या बिगाड़ा था और विभीषण ऐसा क्या लेकर आया था (जिससे भगवान् ने उसे लंका का राज्य देकर अभय कर दिया)? तुलसी कहते हैं कि प्रभु सदा से ही अपने शरणागत की रक्षा करते आए हैं।
नीच चंग-सम जानिए, सुनि लखि ‘तुलसीदास’।
हील देत महि गिरि परत, खैंचत चढ़त अकास॥
नीच पुरुष पतंग के समान होते हैं। यदि पतंग को ढील दो तो वह पृथ्वी पर गिर पड़ती है। पर यदि उसकी डोरी को खींचते जाएँ तो वह आकाश में चढ़ जाती है। भाव यह कि यदि दुष्ट पुरुष को खींच कर रखो और उससे कठोरता से काम लो तो वह ठीक काम करता है; पर यदि उसके साथ नम्रता से व्यवहार करो तो वह काम में लापरवाह हो जाता है।
तुलसी स्वारथ राम हित, परमारथ रघुवीर।
सेवक जाके लखन से, पवनपूत रनधीर॥
तुलसीदास का तो स्वार्थ भी राम के लिए है और परमार्थ भी वे श्री रघुनाथ जी ही हैं, जिनके श्री लक्ष्मण और रणधीर श्री हनुमान जैसे सेवक हैं।
जो संपति सिव रावनहि, दीन्हि दिएँ दस माथ।
सोइ संपदा बिभीषनहि, सकुचि दीन्हि रघुनाथ॥
जो संपत्ति रावण को शिवजी ने दस सिरों की बलि चढ़ाने पर दी थी, वही संपदा श्री रघुनाथजी ने विभीषण को बड़े संकोच के साथ दी (यह सोचते रहे कि मैंने इस शरणागत भक्त को तुच्छ वस्तु ही दी)।
सबइ कहावत राम के, सबहि राम की आस।
राम कहहिं जेहि आपनो, तेहि भजु तुलसीदास॥
सभी श्री राम के भक्त कहलाते हैं और सभी को श्री रामचंद्र जी की ही आशा है। परंतु हे तुलसी! तू तो उसी का भजन (सेवा) कर, जिसको स्वयं श्री रामचंद्र जी अपना भक्त कहते हैं।
तुलसी जाने सुनि समुझि, कृपासिंधु रघुराज।
महँगे मनि कंचन किए, सौंधे जग जल नाज॥
तुलसी कहते हैं कि श्री रघुनाथ कृपा के समुद्र हैं, जिन्होंने मणियों को और सोने को तो महँगा कर दिया; परंतु प्राण धारण करने के लिए सबसे अधिक आवश्यक वस्तु जल और अन्न को जगत में सस्ता (सुलभ) बना दिया।
जे जन रूखे बिषय रस, चिकने राम सनेह।
तुलसी ते प्रिय राम को, कानन बसहि कि गेह॥
तुलसी कहते हैं कि जो विषय-रस से विरक्त हैं और राम प्रेम के रसिक हैं, वे ही श्री राम के प्यारे हैं-फिर चाहे वे वन में रहें या घर में (विरक्त हो या गृहस्थ)।
स्वारथ सुख सपनेहुँ अगम, परमारथ न प्रबेस।
राम नाम सुमिरत मिटहिं, तुलसी कठिन कलेस॥
जिन लोगो को सांसारिक सुख सपने में भी नहीं मिलते और मोक्ष प्राप्ति के मार्ग में जिनका प्रवेश नहीं है, तुलसी कहते हैं कि राम नाम का स्मरण करने से उनके भी कठिन क्लेश मिट जाते हैं।
जानें जान न जोइऐ, दिनु जाने को जान।
तुलसी यह सुनि समुझि हियँ, आनु धरें धनु बान॥
जानने पर ही जानना देखा जाता है, बिना जाने कौन जान सकता है ? तुलसी कहते हैं कि यह बात सुनकर और समझकर धनुष-बाण धारण किए हुए श्री रामजी को अपने हृदय में ले आओ। (ध्यान करते-करते ही साक्षात्कार हो जाएगा)।
बारि मथें घृत होइ बरु, सिकता ते बरु तेल।
बिनु हरि भजन न भव तरिअ, यह सिद्धांत अपेल॥
जल के मथने से भले ही घी उत्पन्न हो जाए तथा बालु के पेरने से चाहे तेल निकल आवे; परंतु श्री हरि के भजन बिना भवसागर से पार नहीं हुआ जा सकता, यह सिद्धांत अटल है।
सेये सीता राम नहिं, भजे न संकर गौरि।
जनम गँवायो बादिही, परत पराई पौरि॥
यदि श्री सीताराम जी की सेवा नहीं की और श्री गौरीशंकर का भजन नहीं किया तो पराए दरवाज़े पर पड़े रहकर वृथा ही जन्म गँवाया।
भगत भूमि भूसुर सुरभि, सुर हित लागि कृपाल।
करत चरित धरि मनुज तनु, सुनत मिटहिं जगजाल॥
भक्त, भूमि, ब्राह्मण, गौ और देवताओं के हित के लिए कृपालु श्री राम मनुष्य-शरीर धारण कर (नाना प्रकार की) लीलाएँ करते हैं, जिनके सुनने मात्र से जगत के (सारे) जंजाल कट जाते हैं।
तिल पर राखेउ सकल जग, विदित विलोकत लोग।
तुलसी महिमा राम की, कौन जानिवे जोग॥
श्री राम की महिमा को जानने का अधिकारी कौन है? उन्होंने आँख के काले तिल (पुतली) पर सारे जगत् को रख दिया है, इस बात को सब लोग जानते हैं और प्रत्यक्ष देखते हैं (आँखों का छोटा-सा तिल यदि बिगड़ जाए तो इतना भारी विस्तृत जगत् ज़रा-सा भी नहीं दीख पड़ता)।
श्रीरघुबीर प्रताप ते, सिंधु तरे पापान।
ते मतिमंद जे राम तजि, भजहिं जाइ प्रभु आन॥
श्री रघुनाथ जी के प्रताप से समुद्र में पत्थर तर गए। अतएव वे लोग मंदबुद्धि हैं जो ऐसे श्री राम को छोड़कर किसी दूसरे स्वामी को जाकर भजते हैं।
रघुबर कीरति सज्जननि, सीतल खलनि सुताति।
ज्यों चकोर चय चक्कवनि, तुलसी चाँदनि राति॥
जिस प्रकार चांदनी रात चकोरों के समूह के लिए शांतिदायिनी और चकवो के लिए विशेष ताप देने वाली होती है, तुलसीदास कहते हैं कि उसी प्रकार श्री रघुनाथ जी की कीर्ति सज्जनों के लिए शीतल (सुख देने वाली) और दुर्जनों को विशेष जलाने वाली होती है।
हरि माया कृत दोष गुन, दिनु हरि भजन न जाहिं।
भजिअ रास सब काम तजि, अस बिचारि मनमाहि॥
श्री हरि की माया के द्वारा रचे हुए दोष और गुण श्री हरि के भजन बिना नहीं नष्ट होते। ऐसा मन में विचारकर सब कामनाओं को त्यागकर श्री राम का भजन ही करना चाहिए।
सूधे मन सूधे बचन, सूधी सब करतूति।
तुलसी सूधी सकल विधि, रघुवर प्रेम प्रसूति॥
जिसका मन सरल है, वाणी सरल है और समस्त क्रियाएँ सरल हैं, उसके लिए भगवान् श्री रघुनाथ जी के प्रेम को उत्पन्न करने वाली सभी विधियाँ सरल हैं अर्थात् निष्कपट (दंभ रहित) मन, वाणी और कर्म से भगवान् का प्रेम अत्यंत सरलता से प्राप्त हो सकता है।
नीच मोचु लै जाइ जो, राम रजाएसु पाइ।
तौ तुलसी तेरो भलो न, तूअनमलो अघाइ॥
तुलसी कहते हैं कि रे नीच ! यदि श्री राम की आज्ञा पाकर तुझे मृत्यु ले जाए तो उसमें भी तेरा कल्याण ही है। परंतु मनमाने जीवन में तो महान् अकल्याण ही है।
हिरन्याच्छ भ्राता सहित, मधु कैटभ बलवान।
जेहिं मारे सोइ अवतरेउ, कृपासिंधु भगवान॥
जिन कृपासिंधु भगवान ने भाई हिरण्यकशिपु सहित हिरण्याक्ष को और बलवान् मधु-कैटभ को मारा था, वे ही भगवान् (श्रीराम रूप में) अवतरित हुए।
कासी बिधि बसि तनु तजे, हठि तनु तजें प्रयाग।
तुलसी जो फल सो सुलभ, राम नाम अनुराग॥
तुलसीदास कहते हैं कि काशी में विधिवत् निवास करके शरीर त्यागने पर और तीर्थराज प्रयाग में हठ से शरीर छोड़ने पर जो (मोक्षरूपी) फल मिलता है, वह राम नाम में अनुराग होने से सुगमता से मिल जाता है।
करमठ कठमलिया कहै, ग्यानी ग्यान बिहीन।
तुलसी विपथ बिहाइ गो, राम दुआरें दीन॥
तुलसी कहते हैं कि कर्मठ (कर्मकांडी) लोग तो मुझे काठ की माला धारण करने वाला 'कठमलिया' कहते हैं, ज्ञानी मुझको ज्ञान-विहीन बतलाते हैं (और उपासना करना मैं जानता ही नहीं) मैं तो तीनों मार्गों को छोड़, दीन होकर श्री रामचंद्र जी के दरवाजे पर जा पड़ा हूँ।
सगुन ध्यान रुचि सरस नहिं, निर्गुन मन ते दूरि।
तुलसी सुमिरहु राम को, नाम सजीवन मूरि॥
सगुण रूप के ध्यान में तो प्रीतियुक्त रुचि नहीं है और निर्गुण स्वरूप मन से दूर है (यानी समझ में नही आता)। तुलसी कहते हैं कि ऐसी दशा में रामनाम-स्मरण रूपी संजीवनी बूटी का सदा सेवन करो।
तुलसी दिन भल साहु कहँ, भली चोर कहँ राति।
निसि बासर ता कहँ भलो, मानै राम इताति॥
तुलसी कहते हैं कि साहूकार के लिए दिन अच्छा है और चोर के लिए रात अच्छी है; परंतु जो श्री राम की आज्ञा मानता है, उसके लिए रात-दिन दोनों कल्याणकारी हैं।
निज इच्छा प्रभु अवतरइ, सुर महिगो द्विज लागि।
सगुन उपासक संग तहँ, रहहिं मोच्छ सब त्यागि॥
देवता, पृथ्वी, गौ और ब्राह्मणों की रक्षा के लिए भगवान् अपनी इच्छा से ही अवतार धारण करते हैं। वहाँ सगुण स्वरूप के उपासक भक्तगण सब प्रकार के मोक्षों का परित्याग कर उनके साथ रहते हैं।
राम नाम जपि जीहँ जन, भए सुकृत सुखसालि।
तुलसी इहाँ जो आलसी, गयो आजु की कालि॥
तुलसीदास कहते हैं कि जीभ से राम नाम का जप करके लोग पुण्यात्मा और परम सुखी हो गए; परंतु इस नाम जप में जो आलस्य करते हैं, उन्हें तो आज या कल नष्ट ही हुआ समझो।
तुलसी कोसलपाल सो, को सरनागत पाल।
भज्यो बिभीषन बंधु भय, भज्यो दारिद काल॥
तुलसी कहते हैं कि कोसलपति श्री राम के समान शरणागत का पालन करने वाला और कौन है? विभीषण ने भाई रावण के डर से श्री राम का भजन किया था, परंतु भगवान् ने उसकी दरिद्रता को तथा काल को नष्ट कर दिया (लंका का राज्य देकर अमर कर दिया)।
परौ नरक फल चारि सिसु, मीच डाकिनी खाउ।
तुलसी राम सनेह को, जो फल सो जरि जाउ॥
तुलसी कहते हैं, मैं चाहे नरक में पडूँ, चारों फल (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष) रूपी बालकों को चाहे मृत्युरूपी डाकिनी खा जाए, श्री राम जी से प्रेम करने का और कुछ भी जो फल हो वह जल जाए (किंतु फिर भी मैं तो श्री राम के चरणों में प्रेम ही करता रहूँगा)।
पय अहार फल खाइ जपु, राम नाम षट मास।
सकल सुमंगल सिद्धि सब, करतल तुलसीदास॥
छ: महीने तक केवल दूध का आहार करके अथवा फल खाकर राम-नाम का जप करो। तुलसी कहते हैं कि ऐसा करने से सब प्रकार के सुमंगल और सब सिद्धियाँ करतलगत हो जाएगी (अर्थात अपने-आप ही मिल जाएँगी)।
राम प्रेम पथ देखिऐ, दिएँ विषय तन पीठि।
तुलसी केंचुरि परिहरें, होत साँपहू वीठि॥
तुलसी कहते हैं कि विषयों की ओर पीठ देने से ही (विषयो में वैराग्य होने से ही) श्री राम जी के प्रेम का पथ दिखलाई पड़ता है। सांप को भी केंचुल छोड़ देने पर ही दिखलाई देने लगता है।
स्वारथ परमारथ सकल, सुलभ एक ही ओर।
द्वार दूसरे दीनता, उचित न तुलसी तोर॥
जब एक श्री रामचंद्र जी की ओर से ही सब स्वार्थ और परमार्थ सुलभ हैं तब हे तुलसी! तुझे दूसरे के दरवाज़े पर दीनता दिखलाना उचित नहीं है।
सब साधन को एक फल, जेहिं जान्यो सो जान।
ज्यों त्यों मन मंदिर बसहिं, राम धरें धनु बान॥
सब साधनों का यही एकमात्र फल है कि जिस-किसी प्रकार से भी हो, धनुष-बाण धारण करने वाले श्री राम जी मन-मंदिर में निवास करने लगें। जिसने इस रहस्य को जान लिया, वही यथार्थ जानने वाला है।
रोग निकर तनु जरठ पनु, तुलसी संग कुलोग।
राम कृपा लै पालिऐ, दीन पालिबे जोग॥
तुलसी कहते हैं कि मेरा शरीर रोगों की खान है, वृद्धावस्था है और बुरे लोगों का संग है। हे राम! आप कृपा करके मुझे अपनाकर मेरा पालन कीजिए, यह दीन पालने योग्य है।
परमानंद कृपायतन, मन परिपूरन काम।
प्रेम भगति अनपायनी, देहु हमहि श्रीराम॥
हे परमानंद स्वरूप, कृपा के धाम, मन की कामनाओं के पूर्ण करने वाले श्री रामचंद्र जी! आप हमें अपनी अविचल प्रेमा-भक्ति दीजिए।
स्वारथ परमारथ रहित, सीता राम सनेहँ।
तुलसी सो फल चारि को, फल हमार मत एहँ॥
तुलसी कहते हैं कि स्वार्थ (भोग) और परमार्थ (मोक्ष) की इच्छा से रहित जो श्री सीताराम के प्रति निष्काम और अनन्य प्रेम है, वह अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष-चारों फलों का भी महान फल है, यह मेरा मत है।
रामचंद्र के भजन बिनु, जो चह पद निर्वान।
ग्यानवंत अपि सो नर, पसु बिनु पूँछ विषान॥
जो मनुष्य श्री रामचंद्र जी के भजन बिना ही निर्वाण पद (मोक्ष) चाहता है, वह ज्ञानवान् (समझदार) होने पर भी बिना सीग-पूंछ का पशु है।
करिहौ कोसलनाथ तजि, जनहिं दूसरी आस।
जहाँ-तहाँ दुख पाइहौ, तब हीं तुलसीदास॥
तुलसी कहते हैं कि कोसल पति श्री राम जी को छोड़कर जभी दूसरी आशा करोगे तभी जहाँ-तहाँ दुःख ही पाओगे।
‘तुलसी’ असमय के सखा, साहस धर्म विचार।
सुकृत, सील, सुभाव रिजु, राम-चरन-आधार॥
तुलसी कहते हैं कि भगवान् राम के चरण भक्तों के लिए दु:ख के दिनों में साथी हैं। ये उत्साह, धर्म, विचार, पुण्य, सुशीलता और सरल स्वभाव के आधार हैं, अत: उन्हीं के चरणों का आश्रय लो।
जो चेतन कह जड़ करइ, जड़हि करइ चैतन्य।
अस समर्थ रघुनाथ कहि, महिं जीव ते धन्य॥
जो चेतन को जड़ कर देते हैं और जड़ को चेतन, ऐसे समर्थ श्री रघुनाथ जी को जो जीव भजते हैं वे धन्य हैं।
राज अजिर राजत रुचिर, कोसल पालक बाल।
जानु पानि चर चरित, वर सगुन सुमंगल माल॥
कोसलपति महाराज दशरथ के लाड़ले लाल राजमहल-के सुंदर आँगन में हाथों और घुटनों के बल चलते हुए ऐसी उत्तम-उत्तम लीलाएँ कर रहे हैं जो मानो सब शुभ गुण और सुमंगलों की माला ही है।
है तुलसी कें एक गुन, अवगुन निधि कह लोग।
भलो भरोसो रावरो, राम रिसिवे जोग॥
तुलसी कहते हैं कि लोग मुझको अवगुणों का भंडार कहते हैं, परंतु मुझमें एक गुण यह है कि मुझको आपका पूरा भरोसा है। इसी से हे राम जी! आपको मुझ पर रीझ जाना योग्य है।
बिनु बिस्वास भगति नहिं, तेहि बिनु द्रवहिं न रामु।
राम कृपा बिनु सपनेहुँ, जीव न लह बिश्राम॥
भगवान पर श्रद्धा-विश्वास हुए बिना उनकी भक्ति नहीं होती, भक्ति के बिना श्री राम पिघलते नहीं और श्री राम की कृपा बिना जीव स्वप्न में विश्राम (शांति) ना पाता।
खेलत बालक ब्याल सँग, मेलत पावक हाथ।
तुलसी सिसु पितु मातु ज्यों, राखत सिय रघुनाथ॥
जैसे सांप के साथ खेलते और अग्नि में हाथ डालते हुए बालक को उसके माता-पिता रोक लेते हैं, वैसे ही तुलसीदास रूपी शिशु को विषय रूपी विषधर सर्प अथवा विषयरूपी ज्वाला की ओर जाते देखकर माता-पिता रूप श्री सीताराम बचा लेते हैं।
सेइ साधु गुरु समुझि सिखि, राम भगति थिरताइ।
लरिकाई को पैरिबो, तुलसी बिसरि न जाइ॥
सच्चे साधु और सद्गुरु की सेवा करके उनसे श्री राम के तत्त्व को समझो और सीखो, तब श्री राम की भक्ति स्थिर हो जाएगी; क्योंकि बचपन में सीखा हुआ तैरना फिर नहीं भूलता।
सनमुख आवत पथिक ज्यों, दिएँ दाहिनो वाम।
तैसोइ होत सु आप को, त्यों ही तुलसी राम॥
तुलसी कहते हैं कि सामने आते हुए पथिक को आप दाएँ-बाएँ जिस ओर देकर चलेंगे, उसी प्रकार वह भी आपके दाएँ-बाएँ हो जाएगा। ऐसे ही श्री राम को भी जो जिस प्रकार भजता है, श्री राम भी उसे उसी प्रकार भजते हैं।
बलकल भूषन फल असन, तृन सज्या द्रुम प्रीति।
तिन्ह समयन लंका दई, यह रघुबर की रीति॥
भगवान् श्री राम जिस समय स्वयं वल्कल-वस्त्रों से भूषित रहते थे, फल खाते थे, तिनकों की शय्या पर सोते थे और वृक्षों से प्रेम करते थे, उसी समय उन्होंने विभीषण को लंका प्रदान की। श्री रघुनाथ जी की यही रीति है (स्वयं त्याग करते हैं और भक्तों को परम ऐश्वर्य दे देते हैं)।
रामहि डरु करु राम सों, ममता प्रीति प्रतीत।
तुलसी निरुपधि राम को, भएँ हारेहूँ जोति॥
श्री राम से डरो, श्री राम में ही ममता, प्रेम और विश्वास करो। तुलसी कहते हैं कि श्री राम का कपट रहित सेवक हो रहने पर हारने में भी जीत ही है।
प्रीति राम सों नीति पथ, चलिय राग रिस जीति।
तुलसी संतन के मते, इहै भगति की रीति॥
तुलसी कहते हैं कि श्री राम जी से प्रेम करना और राग (आसक्ति या काम) एवं क्रोध को जीतकर नीति के मार्ग-पर चलना, संतों के मत से भक्ति की यही रीति है।
नाम ललित लीला ललित, ललित रूप रघुनाथ।
ललित बसन भूषन ललित, ललित अनुज सिसु साथ॥
श्री रघुनाथ जी का नाम, उनकी लीला, उनका सुंदर रूप, उनके वस्त्र, उनके आभूषण सभी अत्यंत सुंदर है और सुंदर छोटे भाई तथा अयोध्यावासी बालक उनके साथ (खेल रहे) हैं।
साहिब सीतानाथ सों, जब घटि है अनुराग।
तुलसी तबहीं भाल तें, भभरि भागि हैं भाग॥
तुलसी कहते हैं-जब स्वामी श्री जानकीनाथ जी से प्रेम घट जाएगा, तब उस आदमी के मस्तक से सौभाग्य तुरंत ही विकल होकर भाग जाएगा। (अर्थात् जो मनुष्य भगवान् श्री राम से विमुख हो जाता है; उसका सारा सुख-सौभाग्य नष्ट हो जाता है)।
सभा सभासद निरखि पट, पकरि उठायो हाथ।
तुलसी कियो इगारहों, बसन बेस जदुनाथ॥
जिस समय द्रौपदी ने सभा और सभासदों की ओर देखकर (किसी से भी रक्षा की आशा न समझकर) एक हाथ से अपनी साड़ी को पकड़ा और दूसरे हाथ को ऊँचा करके भगवान् को पुकारा, तुलसी कहते हैं कि उसी समय यादवपति भगवान् श्री कृष्ण ने ग्यारहवाँ वस्त्रावतार धारण कर लिया (दस अवतार भगवान् के प्रसिद्ध हैं, यह ग्यारहवाँ हुआ)।
दंडक बन पावन करन, चरन सरोज प्रकाउ।
ऊसर जामहिं पल तरहिं, होइ रंक ते राउ॥
दंडकवन को पवित्र (ज्ञापमुक्त) करने वाले भगवान के चरण कमलों के प्रभाव से ऊसर भूमि में भी अन्न उत्पन्न हो जाता है, दुष्ट तर जाते हैं और रंक भी राजा बन जाता है।
कै तोहि लागहिं राम प्रिय, कै तू प्रभु प्रिय होहि।
दुइ में रुचै जो सुगम, सो कोने तुलसी तोहि॥
या तो तुझे राम प्रिय लगने लगे या प्रभु श्री राम का तू प्रिय बन जा। दोनों में से जो तुझे सुगम जान पड़े तथा प्रिय लगे, (तुलसी कहते हैं कि) तुझे वही करना चाहिए।
सिला सुतिय भइ गिरि तरे, मृतक जिए जग जान।
राम अनुग्रह सगुन सुभ, सुलभ सकल कल्यान॥
श्री राम की कृपा से सब शुभ सद्गुण आ जाते हैं, सब प्रकार के कल्याण सुलभ हो जाते हैं। इस बात को तमाम जगत् जानता है कि श्री रामकृपा से शिला सुंदरी स्त्री (अहल्या) बन गई, समुद्र में पहाड़ तर गए और युद्ध में मरे हुए वानर-भालू पुनः जीवित हो गए।
बचन वेष तें जो बनइ, सो बिगरइ परिनाम।
तुलसी मन तें जो बनइ, बनी बनाई राम॥
तुलसी कहते हैं कि दंभ से भरे हुए बाहरी वेष और वचनों से जो काम बनता है, वह दंभ खुलने पर अंत में बिगड़ जाता है। परंतु जो काम सरल मन से बनता है, वह तो श्री राम की कृपा से बना-बनाया ही है।
बालि बली बलसालि दलि, सखा कीन्ह कपिराज।
तुलसी राम कृपालु को, विरद ग़रीब निवाज॥
श्री राम ने शरीर से बली और सेना-राज्यादि बलों से युक्त बालि को मार कर सुग्रीव को अपना सखा और बंदरों का राजा बना दिया। तुलसी कहते हैं कि कृपालु श्री रामचंद्र जी का विरद ही ग़रीबों की रक्षा करता है।
तब लगि कुसल न जीव कहुँ, सपनेहुँ मन बिश्राम।
जब लगि भजत न राम कहुँ, सोक धाम तजि काम॥
जब तक यह जीव शोक के घर काम-वासना को त्यागकर श्री राम को नहीं भजता, तब तक उसके लिए न तो कुशल है और न स्वप्न में भी उसके मन को शांति मिलती है।
सुमिरन सेवा राम सों, साहब सों पहिचानि।
ऐसेहु लाभ न ललक जो, तुलसी नित हित हानि॥
श्री रामजी का स्मरण हो, श्री रामजी की सेवा का सौभाग्य प्राप्त हो और श्री राम-सरीखे स्वामी को तत्त्व से पहचान लिया जाए। ऐसे परम लाभ के लिए भी जो नहीं ललचाता, तुलसी कहते हैं कि उसके हित को सर्वथा हानि ही है।
तुलसी जौ लौं विषय की, सुधा माधुरी मीठि।
तौ लौ सुधा सहस्र सम, राम भगति सुठि सीठि॥
तुलसी कहते हैं कि जब तक विषयों की मिथ्या माधुरी मीठी लगती है, तब तक हज़ार अमृत के समान मधुर होने पर भी रामभक्ति बिलकुल फीकी प्रतीत होती है।
हौंहु कहावत सबु कहत, राम सहत उपहास।
साहिब सीतानाथ सो, सेवक तुलसीदास॥
सब लोग मुझे श्री रामजी का दास कहते हैं और मैं भी बिना लज्जा-संकोच के कहलाता हूँ (कहने वालों का विरोध नहीं करता)। कृपालु श्री राम इस उपहास को सहते हैं कि श्री जानकीनाथ जी सरीखे स्वामी का तुलसीदास-सा सेवक है।
आपु आपने तें अधिक, जेहि प्रिय सीताराम।
तेहि के पग की पान हीं, तुलसी तनु को चाम॥
अपनी और अपने संबंधी समस्त पदार्थों की अपेक्षा जिसे श्री सीताराम जी अधिक प्रिय हैं, तुलसीदास के शरीर का चमड़ा ऐसे प्रेमी भक्त के चरणों की जूतियों में लगे तो उसका सौभाग्य है।
बाधक सब सब के भए, साधक भए न कोइ।
तुलसी राम कृपालु तें, भलो होइ सो होइ॥
तुलसी कहते हैं कि इस जगत में तो सब लोग सबके बाधक ही होते हैं, साधक कोई किसी का नहीं है। कृपा के सार श्री रामजी से ही भला होता है सो होता है।
ग्यान गिरा गोतीत अज, माया मन गुन पार।
सोइ सच्चिदानंदघन, कर नर चरित उदार॥
जो ज्ञान (बुद्धि), वाणी और इंद्रियों से परे, अजन्मा तथा माया, मन और गुणों के पार हैं, वही सच्चिदानंदघन भगवान श्रेष्ठ नरलीला करते हैं।
बैरि बंधु निसिचर अधम, तज्यो न भरें कलंक।
झूठें अघ सिय परिहरी, तुलसी साई ससंक॥
शत्रु रावण के भाई, नीच राक्षस और (भाई को त्याग देने के कलंक से भरे रहने पर भी विभीषण को तो राम ने अपनी शरण में ले लिया और झूठे ही अपराध के कारण पवित्रात्मा सीता का त्याग कर दिया। तुलसीदास के स्वामी श्री राम बड़े ही सावधान हैं (लीला व्यवहार में अपने अंदर किसी प्रकार का दोष नहीं आने देते)।
स्वारथ सीता राम सों, परमारथ सिय राम।
तुलसी तेरो दूसरे, द्वार कहा कहु काम॥
श्री सीताराम से ही तेरे सब स्वार्थ सिद्ध हो जाएँगे, और श्री सीता राम ही तेरे परमार्थ (परम ध्येय) हैं; तुलसीदास जी कहते हैं कि फिर बतला तेरा दूसरे के दरवाज़े पर क्या काम है?
पुन्य पाप जस अजस के, भावी भाजन भूरि।
संकट तुलसीदास को, राम करहिंगे दूरि॥
तुलसीदास का संकट तो श्री राम दूर कर ही देंगे। हाँ, सहायक और बाधक लोग भविष्य में पुण्य-पाप तथा यश-अपयश के पात्र ख़ूब होंगे।
बंधु वधू रत कहि कियो, वचन निरुत्तर बालि।
तुलसी प्रभु सुग्रीव की, चितइ न कछू कुचालि॥
श्री राम ने बालि को तो यह कहकर निरुत्तर कर दिया कि तू भाई की स्त्री पर आसक्त है; परंतु तुलसी जी कहते हैं कि प्रभु ने सुग्रीव की वैसी ही कुचाल पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया।
हरि हर जस सुर नर गिरहुँ, बरनहिं सुकवि समाज।
हाँडी हाटक घटित चरु, राँधे स्वाद सुनाज॥
सुकविगण भगवान् श्री हरि और भगवान् श्री शंकर के यश को संस्कृत और भाषा दोनों में ही वर्णन करते हैं। उत्तम आनाज को चाहे मिट्टी की हाँडी में पकाया जाए, चाहे सोने के पान में, यह स्वादिष्ट ही होता है।
निगम अगम साहेब सुगम, राम साँचिली चाह।
अंदु असन अवलोकिअत, सुलभ सबै जग माह॥
जो हमारे स्वामी वेदों के लिए भी अगम हैं, वे ही श्री राम सच्ची चाह से ऐसे सुगम हो जाते हैं जैसे जल और अन्न जगत में सबके लिए सुलभ देखे जाते हैं।
तुलसी राम जो आदरयो, खोटो खरो खरोइ।
दीपक काजर सिर धर्यो, धर्यो सुधरयो धरोइ॥
तुलसी कहते हैं कि जिसको श्री राम ने आदर दे दिया (अपना लिया) वह बुरा भी भला, सदा भला ही है। दीपक ने जब काजल को अपने सिर पर धारण कर लिया तो फिर कर ही लिया।
मुकुर निरखि मुख राम भ्रू, गनत गुनहि दै दोष।
तुलसी से सठ सेवकन्हि ,लखि जनि परहिं सरोष॥
श्री राम जी दर्पण में अपना श्रीमुख निरख कर अपनी टेढ़ी भौंहो को (जो एक गुण है) दोष देते हैं और सोचते हैं कि तुलसी सरीखे दुष्ट सेवकों को कहीं इन टेढ़ी भृकुटियों में क्रोध न दिखाई देने लगे।
तुलसी रघुबर सेवकहि, खल डाटत मन माखि।
बाजराज के बालकहि, लवा दिखावत आँखि॥
तुलसीदास जी कहते हैं कि दुष्ट लोग मन में क्रोध करके श्री रघुनाथ जी के सेवक को वैसे ही डांटा करते हैं जैसे बाजराज के बच्चे को बटेर आँख दिखाता है।
तनु विचित्र कायर बचन, अहि अहार मन घोर।
तुलसी हरि भए पच्छधर, ताते कह सब मोर॥
तुलसी कहते हैं कि मोर का रंग-बिरंगा विचित्र शरीर है, कायर की-सी उसकी बोली है, सांप उसका भोजन है और कठोर मन है। इतने अवगुण होने पर भी भगवान् श्री कृष्ण ने उसकी पांखों को सिर पर धारण कर लिया- भगवान् उसका पक्ष रखने वाले हो गए, तो सभी उससे प्रेम करते हुए 'मोर-मोर' (मेरा,मेरा) कहने लगे।
तुलसी रामहि परिहरें, निपट हानि सुन ओझ।
सुरसरि गत सोई सलिल, सुरा सरिस गंगोझ॥
तुलसी कहते हैं कि अरे पंडित! सुनो, श्री राम जी को छोड़ देने से अत्यंत हानि होती है। श्री गंगा जी का वही जल श्री गंगा जी से अलग हो जाने पर मदिरा के समान हो जाता है (इसी प्रकार श्री राम से विमुख होकर विषयों का संग करने से परमात्मा का अंश जीव अपवित्र होकर नरकगामी हो जाता है)।
सुख जीवन सब कोउ चहत, सुख जीवन हरि हाय।
तुलसी दाता माँगनेउ, देखिअत अबुध अनाथ॥
सब कोई सुखमय जीवन चाहते हैं, परंतु सुखमय जीवन श्री हरि के हाथ में है। तुलसी को तो जगत् में दाता और भिखारी दोनों ही मूर्ख और अनाथ दिखाई देते हैं (दाता इसलिए मूर्ख है कि वे दान के अभिमान से बंध जाते हैं और भिखारी इसलिए अनाथ है कि वे सर्वलोकमहेश्वर, सबके सुहृद भगवान् को छोड़कर नाशवान् लोगों से नाशवान् भोग माँगते हैं।
सहसनाम मुनि भनित सुनि, तुलसी बल्लभ नाम।
सकुचित हिय हँसि निरखि सिय, धरम धुरंधर राम॥
मुनि के कहे हुए रामसहस्रनाम में 'तुलसीवल्लभ' अपना नाम सुनकर धर्मधुरंधर भगवान श्री राम जी हँसकर सीताजी की ओर देखते हैं और मन-ही-मन सकुचाते हैं।
कृपिन देइ पाइअ परो, बिनु साधे सिधि होइ।
सीतापति सनसुख समुझि, जो कोज सुभ सोइ॥
कृपण दे देता है, पड़ा मिल जाता है, बिना ही साधन के सिद्धि हो जाती है। श्री जानकीनाथ को सम्मुख समझकर (उनकी कृपा पर भरोसा करके) जो कुछ कीजिए, वही शुभ हो जाता है।
राम राज राजत सकल, धरम निरत नर नारि।
राग न रोष न दोष दुख, सुलभ पदारथ चारि॥
रामराज्य में सभी नर-नारी अपने-अपने धर्म में रत होकर शोभित हो रहे हैं। कहीं भी राग (आसक्ति), क्रोध, दोष और दुःख नहीं हैं; धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष-चारों पदार्थ सभी को सुलभ हो रहे हैं।
प्रभु गुन गन भूषन बसन, बिसद विसेष सुबेस।
राम सुकीरति कामिनी, तुलसी करतब केस॥
प्रभु श्रीराम के गुणों के समूह उनकी सुंदर कीर्तिरूपी कामिनी के वस्त्र और आभूषण हैं,जिनसे उसका वेष बहुत ही स्वच्छ और सुंदर जान पड़ता है। और तुलसीदास द्वारा उस कीर्ति का वर्णन करना (अनधिकार प्रयास) वह करतूत है (जो अत्यंत काली है), इसलिए उसकी केश से उपमा दी जा सकती है।
भव भुअंग तुलसी नकुल, उतत ग्यान हरि लेत।
चित्रकूट एक औषधी, चितबत होत सचेत॥
संसार रूपी सर्प तुलसीदास रूपी नेवले को डसते ही उसका सारा ज्ञान हरण कर लेता है। परंतु चित्रकूट एक ऐसी औषध है कि उसकी ओर देखते ही वह पुनः सचेत हो जाता है।
दंड जतिन्ह कर भेद जहँ, नर्तक नृत्य समाज।
जीतहु मनहि सुनिअ अस, रामचंद्र के राज॥
श्री रामचंद्र जी के राज्य में दंड केवल संन्यासियों के हाथों में रह गया था और भेद केवल नाचने वालों के नृत्य-समाज में था; और 'जीतो' शब्द केवल मन को जीतने के प्रसंग में ही सुन पड़ता था (राजनीति में साम, दाम, दंड और भेद; ये चार शत्रु को जीतने के उपाय कहे गए हैं। श्री रामराज्य में कोई शत्रु था ही नहीं, जिसके लिए इनसे काम लेना पड़ता; अतएव दंड और भेद के नाम से तो क्रमशः उपर्युक्त वस्तु तथा भाव रह गए और साम,दाम स्वाभाविक सात्विक गुण हैं ही)।
रावन रिपु के दास तें, कायर करहिं कुचालि।
खर दूषन मारीच ज्यों, नीच जाहिंगे कालि॥
कायर ही रावणारि श्री राम के दासों से कुचाल किया करते हैं। वे नीच खरदूषण या मारीच की भांति कल ही (शीघ्र ही) संसार से कूच कर जाएँगे।
तुलसी रामहि आपु तें, सेवक की रुचि मीठि।
सीतापति से साहिबहि, कैसे दीजै पीठि॥
तुलसी कहते हैं कि श्री रामचंद्र जी को अपनी रुचि की अपेक्षा सेवक की रुचि अधिक मधुर लगती है (वे अपनी रुचि छोड़ देते हैं, परंतु सेवक की रुचि रखते हैं), ऐसे श्री सीतापति के समान स्वामी से क्यों कर विमुख हुआ जाए?
राम राज संतोष सुख, घर बन सकल सुपास।
तरु सुरतरु सुरधेनु महि, अभिमत भोग बिलास॥
रामराज्य में सब प्रकार से संतोष और सुख है, घर में तथा वन में दोनों ही जगह सब प्रकार की सुविधाएँ हैं । वृक्ष कल्पवृक्ष के समान और पृथ्वी कामधेनु के समान इच्छामान को पूर्ण करती है और मनोवांछित भोग-विलास सबको प्राप्त हैं।
तेहि समाज कियो कठिन पन, जेहिं तौल्यो कैलास।
तुलसी प्रभु महिमा कहौं, सेवक को विस्वास॥
जिस रावण ने कैलास को हाथों से तौला था, उसी के दरबार में अंगद ने पांव रोपकर कठिन प्रण कर लिया (कि कोई यदि मेरा पैर हटा देगा तो मैं सीता को हार जाऊँगा और श्री राम लौट जाएँगे तथा प्रभु ने इस प्रण को भंग नहीं होने दिया)। तुलसी कहते हैं, इसे मैं प्रभु की महिमा कहूँ या सेवक (अंगद) का विश्वास बतलाऊँ।
रे मन सब सों निरस ह्वै, सरस राम सों होहि।
भलौ सिखावन देत हैं, निसिदिन ‘तुलसी’ तोहि॥
हे मन! तू सब ओर से उदास होकर भगवान् राम के प्रेम में लग जा, मैं तुझे रात-दिन यही सुंदर शिक्षा देता हूँ।
राम चरित राकेस कर, सरिस सुखद सब काहु।
सज्जन कुमुद चकोर चित, हित विसेखि बड़ लाहु॥
श्री रामचंद्र जी के चरित्र पूर्णिमा के चंद्रमा को किरणों के समान सभी को सुख देने वाले हैं, परंतु सज्जन रूपी कुमुद और चकोरों के चित्त के लिए तो वे विशेषरूप से हितकारी और महान् लाभरूप हैं।
हिय फाटहुँ फूटहुँ नयन, जरउ सो तन केहि काम।
द्रवहिं नहिं पुलकइ नहीं, तुलसी सुमिरत राम॥
तुलसीदास कहते हैं कि श्रीराम का स्मरण करके जो हृदय पिघल नहीं जाते वे हृदय फट जाएँ, जिन आँखों से प्रेम के आँसू नहीं बहते वे आँखें फूट जाएँ और जिस शरीर में रोमांच नही होता वे वह जल जाएँ, (अर्थात् ऐसे निकम्मे अंग किस काम के? )।
खेती बनि विद्या बनिज, सेवा सिलिप सुकाज।
तुलसी सुरतरु सरिस सब, सुफल राम के राज॥
तुलसीदास जी कहते हैं कि रामराज्य में खेती, मज़दूरी, विद्या, व्यापार, सेवा और कारीगरी तथा अन्य सुंदर कार्य कल्पवृक्ष के समान सब सुंदर शुभ फलों के देने वाले हैं।
कहा बिभीषन लै मिल्यो, कहा दियो रघुनाथ।
तुलसी यह जानें बिना, मूढ़ मीजि हैं हाथ॥
विभीषण क्या लेकर भगवान से मिला था और श्री रघुनाथजी ने उसे क्या दे डाला? तुलसीदास जी कहते हैं, इस बात को बिना जाने मूर्ख लोग हाथ ही मलते रह जाएँगे।
भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप।
किए चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप॥
जगदीश्वर भगवान् श्री रामजी ने भक्तों के लिए ही राजा का शरीर धारण किया और साधारण मनुष्यों की भांति परम पवित्र लीलाएँ कीं।
कोपें सोच न पोच कर, करिम निहोर न काज।
तुलसी परमिति प्रीति की, रीति राम के राज॥
तुलसीदास जी कहते हैं कि श्री रामचंद्र जी के राज्य में प्रेम की रीति सीमा तक पहुँच गई थी। इनसे न तो किसी के क्रोध करने पर कोई उसकी चिंता ही करता और न उसका कोई अपार ही करता। सब लोग सबका काम प्रेम से करते। काम करने में कोई किसी पर अहसान नहीं जताता।
अबिचल राज विभीषनहि, दीन्ह राम रघुनाथ।
अजहुँ बिराजत लंक पर, तुलसी सहित समाज॥
तुलसीदास कहते हैं कि रघुराज श्री राम ने विभीषण को अविचल राज्य दे दिया, इसी से वह आज भी अपने समाज (परिकर) सहित लंका के राज्यपद पर विराजमान हैं।
बाल बिभूषन बसन बर, धूरि धूसरित अंग।
बालकेलि रघुबर करत, बाल बंधु सब संग॥
श्री राम जी बालोचित सुंदर गहने-कपड़ों से सजे हुए हैं, उनके श्री अंग धूल से मटमैले हो रहे हैं, सब बालकों तथा भाइयों के साथ आप बच्चों के-से खेल खेल रहे हैं।
नामु राम को कलपतरु, कलि कल्यान निवासु।
जो सुमिरत भयो भांग तें, तुलसी तुलसीदासु॥
कलियुग में श्री राम का नाम कल्पवृक्ष (मनचाहा पदार्थ देने वाला) है और कल्याण का निवास (मुक्ति का घर) है, जिसके स्मरण करने से तुलसीदास भांग से (विषय मद से भरी और दूसरों को भी विषय-मद उपजाने वाली साधुओं द्वारा त्याज्य स्थिति से) बदलकर तुलसी के समान (निर्दोष, भगवान का प्यारा, सबका आदरणीय और जगत् को पावन करने वाला) हो गया।
नाम राम को अंक है, सब साधन हैं सून।
अंक गएँ कछु हाथ नहिं, अंक रहें दस गून॥
श्री राम का नाम अंक है और सब साधन शून्य है। अंक न रहने पर तो कुछ भी हाथ नहीं लगता, परंतु शून्य के पहले अंक आने पर वे दस गुने हो जाते हैं (अर्थात् राम नाम के जप के साथ जो साधन होते हैं, वे दस गुने लाभदायक हो जाते हैं) परंतु राम नाम से हीन जो साधन होता है वह कुछ भी फल नहीं देता।
एकु छत्रु एकु मुकुटमनि, सब बरननि पर जोउ।
तुलसी रघुबर नाम के, बरन बिराजत दोउ॥
तुलसीदास कहते हैं कि श्री रघुनाथ के नाम (राम) के दोनों अक्षरों में एक 'र' तो (रेफ के रूप में) सब वर्गों के मस्तक पर छत्र की भांति विराजता है और दूसरा 'म' (अनुस्वार के रूप में) सबके ऊपर मुकुट-मणि के समान सुशोभित होता है।
सिला साप मोचन चरन, सुमिरहु तुलसीदास।
तजहु सोच संकट मिटिहिं, पूजहि मन की आस॥
तुलसी कहते हैं कि शिला को (अहल्या को) शाप से मुक्त करने वाले श्री राम के चरणों का स्मरण करो और सब चिंताओं का त्याग कर दो। इस प्रकार अनन्य श्री राम चिंतन से तुम्हारे सब संकट दूर हो जाएँगे और मनोकामना पूर्ण हो जाएगी।
प्रभु तरु तर कपि डार पर, ते किए आपु समान।
तुलसी कहूँ न राम से, साहिब-सील निधान॥
वानरों के स्वामी श्री राम तो पेड़ के नीचे विराजते थे और सेवक होने पर भी वानर पेड़ की डालियों पर बैठते थे, तो भी (इस अशिष्टता पर कोई ध्यान न देकर) प्रभु ने उनको अपने ही समान बना लिया। तुलसी कहते हैं कि श्री राम के समान शील के भंडार स्वामी और कहीं भी नहीं हैं।
राम कामतरु परिहरत, सेवत कलि तर ठूँठ।
स्वारथ परमारथ चहत, सकल मनोरथ झूठ॥
जो मनुष्य श्री रामरूपी कल्पवृक्ष को छोड़कर सूखे ठूँठ जैसे कलियुग अर्थात् पाप रूपी वृक्ष का सेवन करते हैं और उससे स्वार्थ और परमार्थ रूपी फल चाहते हैं, उनके सभी मनोरथ व्यर्थ होते हैं (अर्थात् स्वार्थ, परमार्थ कुछ भी सिद्ध नहीं होता)।
जथा लाभ संतोष सुख, रघुवर चरन सनेह।
तुलसी जो मन खूँद सम, कानन बसहुँ कि गेह॥
जो कुछ मिल जाए उसी में जिनका मन संतुष्ट और सुखी रहता है और जिसमें श्री रघुनाथ जी के चरणों का प्रेम भरा है, जिनका मन ऐसा खूद-सा बन गया है, तुलसी कहते हैं कि वे वन में रहें या घर में, उनके लिए दोनों एक-से हैं।
तुलसी श्रीरघुबीर तजि, करै भरोसो और।
सुख संपति की का चली, नरकहुँ नाहीं ठौर॥
तुलसी कहते हैं कि जो मनुष्य श्री रघुनाथजी को छोड़कर दूसरा कोई भरोसा करता है; सुख-संपत्ति की तो बात ही दूर है, उसे नरक में भी जगह नहीं मिलेगी।
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