न किसी की आँख का नूर हूँ न किसी के दिल का क़रार हूँ
मुज़्तर ख़ैराबादी ग़ज़ल
न किसी की आँख का नूर हूँ न किसी के दिल का क़रार हूँ
किसी काम में जो न आ सके मैं वो एक मुश्त-ए-ग़ुबार हूँ
न दवा-ए-दर्द-ए-जिगर हूँ मैं न किसी की मीठी नज़र हूँ मैं
न इधर हूँ मैं न उधर हूँ मैं न शकेब हूँ न क़रार हूँ
मिरा वक़्त मुझ से बिछड़ गया मिरा रंग-रूप बिगड़ गया
जो ख़िज़ाँ से बाग़ उजड़ गया मैं उसी की फ़स्ल-ए-बहार हूँ
पए फ़ातिहा कोई आए क्यूँ कोई चार फूल चढ़ाए क्यूँ
कोई आ के शम' जलाए क्यूँ मैं वो बेकसी का मज़ार हूँ
न मैं लाग हूँ न लगाव हूँ न सुहाग हूँ न सुभाव हूँ
जो बिगड़ गया वो बनाव हूँ जो नहीं रहा वो सिंगार हूँ
मैं नहीं हूँ नग़्मा-ए-जाँ-फ़ज़ा मुझे सुन के कोई करेगा क्या
मैं बड़े बिरोग की हूँ सदा मैं बड़े दुखी की पुकार हूँ
न मैं 'मुज़्तर' उन का हबीब हूँ न मैं 'मुज़्तर' उन का रक़ीब हूँ
जो बिगड़ गया वो नसीब हूँ जो उजड़ गया वो दयार हूँ
इलाज-ए-दर्द-ए-दिल तुम से मसीहा हो नहीं सकता
मुज़्तर ख़ैराबादी ग़ज़ल
इलाज-ए-दर्द-ए-दिल तुम से मसीहा हो नहीं सकता
तुम अच्छा कर नहीं सकते मैं अच्छा हो नहीं सकता
अदू को छोड़ दो फिर जान भी माँगो तो हाज़िर है
तुम ऐसा कर नहीं सकते तो ऐसा हो नहीं सकता
अभी मरते हैं हम जीने का ता'ना फिर न देना तुम
ये ता'ना उन को देना जिन से ऐसा हो नहीं सकता
तुम्हें चाहूँ तुम्हारे चाहने वालों को भी चाहूँ
मिरा दिल फेर दो मुझ से ये झगड़ा हो नहीं सकता
दम-ए-आख़िर मिरी बालीं पे मजमा' है हसीनों का
फ़रिश्ता मौत का फिर आए पर्दा हो नहीं सकता
न बरतो उन से अपनाइयत के तुम बरताव ऐ 'मुज़्तर'
पराया माल इन बातों से अपना हो नहीं सकता
अगर तुम दिल हमारा ले के पछताए तो रहने दो
मुज़्तर ख़ैराबादी ग़ज़ल
अगर तुम दिल हमारा ले के पछताए तो रहने दो
न काम आए तो वापस दो जो काम आए तो रहने दो
मिरा रहना तुम्हारे दर पे लोगों को खटकता है
अगर कह दो तो उठ जाऊँ जो रहम आए तो रहने दो
कहीं ऐसा न करना वस्ल का वा'दा तो करते हो
कि तुम को फिर कोई कुछ और समझाए तो रहने दो
दिल अपना बेचता हूँ वाजिबी दाम उस के दो बोसे
जो क़ीमत दो तो लो क़ीमत न दी जाए तो रहने दो
दिल-ए-'मुज़्तर' की बेताबी से दम उलझे तो वापस दो
अगर मर्ज़ी भी हो और दिल न घबराए तो रहने दो
मेरे महबूब तुम हो यार तुम हो दिल-रुबा तुम हो
मुज़्तर ख़ैराबादी ग़ज़ल
मेरे महबूब तुम हो यार तुम हो दिल-रुबा तुम हो
ये सब कुछ हो मगर मैं कह नहीं सकता कि क्या तुम हो
तुम्हारे नाम से सब लोग मुझ को जान जाते हैं
मैं वो खोई हुई इक चीज़ हूँ जिस का पता तुम हो
मोहब्बत को हमारी इक ज़माना हो गया लेकिन
न तुम समझे कि क्या मैं हूँ न मैं समझा कि क्या तुम हो
हमारे दिल को बहर-ए-ग़म की क्या ताक़त जो ले बैठे
वो कश्ती डूब कब सकती है जिस के ना-ख़ुदा तुम हो
बिछड़ना भी तुम्हारा जीते-जी की मौत है गोया
उसे क्या ख़ाक लुत्फ़-ए-ज़िंदगी जिस से जुदा तुम हो
मुसीबत का तअ'ल्लुक़ हम से कुछ भी हो तो राहत है
मिरे दिल को ख़ुदा वो दर्द दे जिस की दवा तुम हो
कहीं इस फूटे-मुँह से बेवफ़ा का लफ़्ज़ निकला था
बस अब ता'नों पे ता'ने हैं कि बे-शक बा-वफ़ा तुम हो
क़यामत आएगी या आ गई इस की शिकायत क्या
क़यामत क्यूँ न हो जब फ़ित्ना-ए-रोज़-ए-जज़ा तुम हो
उलझ पड़ने में काकुल हो बिगड़ने में मुक़द्दर हो
पलटने में ज़माना हो बदलने में हवा तुम हो
वो कहते हैं ये सारी बेवफ़ाई है मोहब्बत की
न 'मुज़्तर' बे-वफ़ा मैं हूँ न 'मुज़्तर' बे-वफ़ा तुम हो
तू मुझे किस के बनाने को मिटा बैठा है
मुज़्तर ख़ैराबादी ग़ज़ल
तू मुझे किस के बनाने को मिटा बैठा है
मैं कोई ग़म तो नहीं था जिसे खा बैठा है
बात कुछ ख़ाक नहीं थी जो उड़ाई तू ने
तीर कुछ ऐब नहीं था जो लगा बैठा है
मेल कुछ खेल नहीं था जो बिगाड़ा तू ने
रब्त कुछ रस्म नहीं था जो घटा बैठा है
आँख कुछ बात नहीं थी जो झुकाई तू ने
रुख़ कोई राज़ नहीं था जो छुपा बैठा है
नाम अरमान नहीं था जो निकाला तू ने
इश्क़ अफ़्वाह नहीं था जो उड़ा बैठा है
लाग कुछ आग नहीं थी जो लगा दी तू ने
दिल कोई घर तो नहीं था जो जला बैठा है
रस्म काविश तो नहीं थी जो मिटा दी तू ने
हाथ पर्दा तो नहीं था जो उठा बैठा है
उन्हीं लोगों की बदौलत ये हसीं अच्छे हैं
मुज़्तर ख़ैराबादी ग़ज़ल
उन्हीं लोगों की बदौलत ये हसीं अच्छे हैं
चाहने वाले इन अच्छों से कहीं अच्छे हैं
कूचा-ए-यार से यारब न उठाना हम को
इस बुरे हाल में भी हम तो यहीं अच्छे हैं
न कोई दाग़ न धब्बा न हरारत न तपिश
चाँद-सूरज से भी ये माह-जबीं अच्छे हैं
कोई अच्छा नज़र आ जाए तो इक बात भी है
यूँ तो पर्दे में सभी पर्दा-नशीं अच्छे हैं
तेरे घर आएँ तो ईमान को किस पर छोड़ें
हम तो का'बे ही में ऐ दुश्मन-ए-दीं अच्छे हैं
हैं मज़े हुस्न-ओ-मोहब्बत के इन्हीं को हासिल
आसमाँ वालों से ये अहल-ए-ज़मीं अच्छे हैं
एक हम हैं कि जहाँ जाएँ बुरे कहलाएँ
एक वो वो हैं कि जहाँ जाएँ वहीं अच्छे हैं
कूचा-ए-यार से महशर में बुलाता है ख़ुदा
कह दो 'मुज़्तर' कि न आएँगे यहीं अच्छे हैं
आप क्यूँ बैठे हैं ग़ुस्से में मिरी जान भरे
मुज़्तर ख़ैराबादी ग़ज़ल
आप क्यूँ बैठे हैं ग़ुस्से में मिरी जान भरे
ये तो फ़रमाइए क्या ज़ुल्फ़ ने कुछ कान भरे
जान से जाए अगर आप को चाहे कोई
दम निकल जाए जो दम आप का इंसान भरे
लिए फिरते हैं हम अपने जिगर-ओ-दिल दोनों
एक में दर्द भरे एक में अरमान भरे
दामन-ए-दश्त ने आँसू भी न पूछे अफ़्सोस
मैं ने रो रो के लहू सैकड़ों मैदान भरे
तेग़-ए-क़ातिल को गले से जो लगाया 'मुज़्तर'
खिंच के बोली कि बड़े आए तुम अरमान भरे
वफ़ा क्या कर नहीं सकते हैं वो लेकिन नहीं करते
मुज़्तर ख़ैराबादी ग़ज़ल
वफ़ा क्या कर नहीं सकते हैं वो लेकिन नहीं करते
कहा क्या कर नहीं सकते हैं वो लेकिन नहीं करते
मसीहाई का दावा और बीमारों से ये ग़फ़लत
दवा क्या कर नहीं सकते हैं वो लेकिन नहीं करते
रक़ीबों पर अदू पर ग़ैर पर चर्ख़-ए-सितमगर पर
जफ़ा क्या कर नहीं सकते हैं वो लेकिन नहीं करते
कभी दाद-ए-मोहब्बत दे के हक़ मेरी वफ़ाओं का
अदा क्या कर नहीं सकते हैं वो लेकिन नहीं करते
ज़कात-ए-हुस्न दे कर अपने कूचे के गदाओं का
भला क्या कर नहीं सकते हैं वो लेकिन नहीं करते
दिल-ए-'मुज़्तर' को क़ैद-ए-दाम-ए-गेसू-ए-परेशाँ से
रिहा क्या कर नहीं सकते हैं वो लेकिन नहीं करते
इस बात का मलाल नहीं है कि दिल गया
मुज़्तर ख़ैराबादी ग़ज़ल
इस बात का मलाल नहीं है कि दिल गया
मैं उस को देखता हूँ जो बदले में मिल गया
जो हुस्न तू ने शक्ल को बख़्शा वो बोल उठा
जो रंग तू ने फूल में डाला वो खिल गया
नाकामी-ए-वफ़ा का नमूना है ज़िंदगी
कूचे में तेरे जो कोई आया ख़जिल गया
क़िस्मत के फोड़ने को कोई और दर न था
क़ासिद मकान-ए-ग़ैर के क्यूँ मुत्तसिल गया
मुझ को मिटा के कौन सा अरमाँ तिरा मिटा
मुझ को मिला के ख़ाक में क्या ख़ाक मिल गया
'मुज़्तर' मैं उन के इश्क़ में बे-मौत मर गया
अब क्या बताऊँ जान गई है कि दिल गया
पूछा कि वज्ह-ए-ज़िंदगी बोले कि दिलदारी मिरी
मुज़्तर ख़ैराबादी ग़ज़ल
पूछा कि वज्ह-ए-ज़िंदगी बोले कि दिलदारी मिरी
पूछा कि मरने का सबब बोले जफ़ा-कारी मिरी
पूछा कि दिल को क्या कहूँ बोले कि दीवाना मिरा
पूछा कि उस को क्या हुआ बोले कि बीमारी मिरी
पूछा सता के रंज क्यूँ बोले कि पछताना पड़ा
पूछा कि रुस्वा कौन है बोले दिल-आज़ारी मिरी
पूछा कि दोज़ख़ की जलन बोले कि सोज़-ए-दिल तिरा
पूछा कि जन्नत की फबन बोले तरह-दारी मिरी
पूछा कि 'मुज़्तर' क्यूँ किया बोले कि दिल चाहा मिरा
पूछा तसल्ली कौन दे बोले कि ग़म-ख़्वारी मिरी
किसी बुत की अदा ने मार डाला
मुज़्तर ख़ैराबादी ग़ज़ल
किसी बुत की अदा ने मार डाला
बहाने से ख़ुदा ने मार डाला
जफ़ा की जान को सब रो रहे हैं
मुझे उन की वफ़ा ने मार डाला
जुदाई में न आना था न आई
मुझे ज़ालिम क़ज़ा ने मार डाला
मुसीबत और लम्बी ज़िंदगानी
बुज़ुर्गों की दुआ ने मार डाला
उन्हीं आँखों से जीना चाहता हूँ
जिन आँखों की हया ने मार डाला
हमारा इम्तिहाँ और कू-ए-दुश्मन
किसी ने बे-ठिकाने मार डाला
पड़ा हूँ इस तरह उस दर पे 'मुज़्तर'
कोई देखे तो जाने मार डाला
असीर-ए-पंजा-ए-अहद-ए-शबाब कर के मुझे
मुज़्तर ख़ैराबादी ग़ज़ल
असीर-ए-पंजा-ए-अहद-ए-शबाब कर के मुझे
कहाँ गया मिरा बचपन ख़राब कर के मुझे
किसी के दर्द-ए-मोहब्बत ने उम्र-भर के लिए
ख़ुदा से माँग लिया इंतिख़ाब कर के मुझे
ये उन के हुस्न को है सूरत-आफ़रीं से गिला
ग़ज़ब में डाल दिया ला-जवाब कर के मुझे
वो पास आने न पाए कि आई मौत की नींद
नसीब सो गए मसरूफ़-ए-ख़्वाब कर के मुझे
मिरे गुनाह ज़ियादा हैं या तिरी रहमत
करीम तू ही बता दे हिसाब कर के मुझे
मैं उन के पर्दा-ए-बेजा से मर गया 'मुज़्तर'
उन्हों ने मार ही डाला हिजाब कर के मुझे
उस से कह दो कि वो जफ़ा न करे
मुज़्तर ख़ैराबादी ग़ज़ल
उस से कह दो कि वो जफ़ा न करे
कहीं मुझ सा उसे ख़ुदा न करे
आइना देख कर ग़ुरूर फ़ुज़ूल
बात वो कर जो दूसरा न करे
मैं मसीहा उसे समझता हूँ
जो मिरे दर्द की दवा न करे
'मुज़्तर' उस ने सवाल-ए-उल्फ़त पर
किस अदा से कहा ख़ुदा न करे
सहें कब तक जफ़ाएँ बेवफ़ाई देखने वाले
मुज़्तर ख़ैराबादी ग़ज़ल
सहें कब तक जफ़ाएँ बेवफ़ाई देखने वाले
कहाँ तक जान पर खेलें जुदाई देखने वाले
तिरे बीमार-ए-ग़म की अब तो नब्ज़ें भी नहीं मिलतीं
कफ़-ए-अफ़सोस मलते हैं कलाई देखने वाले
ख़ुदा से क्यूँ न माँगें क्यूँ करें मिन्नत अमीरों की
ये क्या देंगे किसी को आना-पाई देखने वाले
बुतों की चाह बनती है सबब इश्क़-ए-इलाही का
ख़ुदा को देख लेते हैं ख़ुदाई देखने वाले
महीनों भाई-बंदों ने मिरा मातम किया 'मुज़्तर'
महीनों रोए ख़ाली चारपाई देखने वाले
जब कहा मैं ने कि मर मर के बचे हिज्र में हम
मुज़्तर ख़ैराबादी ग़ज़ल
जब कहा मैं ने कि मर मर के बचे हिज्र में हम
हँस के बोले तुम्हें जीना था तो मर क्यूँ न गए
हम तो अल्लाह के घर जा के बहुत पछताए
जान देनी थी तो काफ़िर तिरे घर क्यूँ न गए
सू-ए-दोज़ख़ बुत-ए-काफ़िर को जो जाते देखा
हम ने जन्नत से कहा हाए उधर क्यूँ न गए
पहले उस सोच में मरते थे कि जीते क्यूँ हैं
अब हम इस फ़िक्र में जीते हैं कि मर क्यूँ न गए
ज़ाहिदो क्या सू-ए-मशरिक़ नहीं अल्लाह का घर
का'बे जाना था तो तुम लोग उधर क्यूँ न गए
तू ने आँखें तो मुझे देख के नीची कर लीं
मेरे दुश्मन तिरी नज़रों से उतर क्यूँ न गए
सुन के बोले वो मिरा हाल-ए-जुदाई 'मुज़्तर'
जब ये हालत थी तो फिर जी से गुज़र क्यूँ न गए
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