शारिक़ कैफ़ी की ग़ज़लें / Shariq Kaifi Ghazals
इक दिन ख़ुद को अपने पास बिठाया हम ने / शारिक़ कैफ़ी
इक दिन ख़ुद को अपने पास बिठाया हम ने
पहले यार बनाया फिर समझाया हम ने
ख़ुद भी आख़िर-कार उन्ही वा'दों से बहले
जिन से सारी दुनिया को बहलाया हम ने
भीड़ ने यूँही रहबर मान लिया है वर्ना
अपने अलावा किस को घर पहुँचाया हम ने
मौत ने सारी रात हमारी नब्ज़ टटोली
ऐसा मरने का माहौल बनाया हम ने
घर से निकले चौक गए फिर पार्क में बैठे
तन्हाई को जगह जगह बिखराया हम ने
इन लम्हों में किस कि शिरकत कैसी शिरकत
उसे बुला कर अपना काम बढ़ाया हम ने
दुनिया के कच्चे रंगों का रोना रोया
फिर दुनिया पर अपना रंग जमाया हम ने
जब 'शारिक़' पहचान गए मंज़िल की हक़ीक़त
फिर रस्ते को रस्ते भर उलझाया हम ने
आइने का साथ प्यारा था कभी / शारिक़ कैफ़ी
आइने का साथ प्यारा था कभी
एक चेहरे पर गुज़ारा था कभी
आज सब कहते हैं जिस को नाख़ुदा
हम ने उस को पार उतारा था कभी
ये मिरे घर की फ़ज़ा को क्या हुआ
कब यहाँ मेरा तुम्हारा था कभी
था मगर सब कुछ न था दरिया के पार
इस किनारे भी किनारा था कभी
कैसे टुकड़ों में उसे कर लूँ क़ुबूल
जो मिरा सारे का सारा था कभी
आज कितने ग़म हैं रोने के लिए
इक तिरे दुख का सहारा था कभी
जुस्तुजू इतनी भी बे-मा'नी न थी
मंज़िलों ने भी पुकारा था कभी
ये नए गुमराह क्या जानें मुझे
मैं सफ़र का इस्तिआ'रा था कभी
इश्क़ के क़िस्से न छेड़ो दोस्तो
मैं इसी मैदाँ में हारा था कभी
हमीं तक रह गया क़िस्सा हमारा / शारिक़ कैफ़ी
हमीं तक रह गया क़िस्सा हमारा
किसी ने ख़त नहीं खोला हमारा
पढ़ाई चल रही है ज़िंदगी की
अभी उतरा नहीं बस्ता हमारा
मुआ'फ़ी और इतनी सी ख़ता पर
सज़ा से काम चल जाता हमारा
किसी को फिर भी महँगे लग रहे थे
फ़क़त साँसों का ख़र्चा था हमारा
यहीं तक इस शिकायत को न समझो
ख़ुदा तक जाएगा झगड़ा हमारा
तरफ़-दारी नहीं कर पाए दिल की
अकेला पड़ गया बंदा हमारा
तआ'रुफ़ क्या करा आए किसी से
उसी के साथ है साया हमारा
नहीं थे जश्न-ए-याद-ए-यार में हम
सो घर पर आ गया हिस्सा हमारा
हमें भी चाहिए तन्हाई 'शारिक़'
समझता ही नहीं साया हमारा
झूट पर उस के भरोसा कर लिया / शारिक़ कैफ़ी
झूट पर उस के भरोसा कर लिया
धूप इतनी थी कि साया कर लिया
अब हमारी मुश्किलें कुछ कम हुईं
दुश्मनों ने एक चेहरा कर लिया
हाथ क्या आया सजा कर महफ़िलें
और भी ख़ुद को अकेला कर लिया
हारने का हौसला तो था नहीं
जीत में दुश्मन की हिस्सा कर लिया
मंज़िलों पर हम मिलें ये तय हुआ
वापसी में साथ पक्का कर लिया
सारी दुनिया से लड़े जिस के लिए
एक दिन उस से भी झगड़ा कर लिया
क़ुर्ब का उस के उठा कर फ़ाएदा
हिज्र का सामाँ इकट्ठा कर लिया
गुफ़्तुगू से हल तो कुछ निकला नहीं
रंजिशों को और ताज़ा कर लिया
मोल था हर चीज़ का बाज़ार में
हम ने तन्हाई का सौदा कर लिया
कहीं न था वो दरिया जिस का साहिल था मैं / शारिक़ कैफ़ी
कहीं न था वो दरिया जिस का साहिल था मैं
आँख खुली तो इक सहरा के मुक़ाबिल था मैं
हासिल कर के तुझ को अब शर्मिंदा सा हूँ
था इक वक़्त कि सच-मुच तेरे क़ाबिल था मैं
किस एहसास-ए-जुर्म की सब करते हैं तवक़्क़ो'
इक किरदार किया था जिस में क़ातिल था मैं
कौन था वो जिस ने ये हाल किया है मेरा
किस को इतनी आसानी से हासिल था मैं
सारी तवज्जोह दुश्मन पर मरकूज़ थी मेरी
अपनी तरफ़ से तो बिल्कुल ही ग़ाफ़िल था मैं
जिन पर मैं थोड़ा सा भी आसान हुआ हूँ
वही बता सकते हैं कितना मुश्किल था मैं
नींद नहीं आती थी साज़िश के धड़के में
फ़ातेह हो कर भी किस दर्जा बुज़दिल था मैं
घर में ख़ुद को क़ैद तो मैं ने आज किया है
तब भी तन्हा था जब महफ़िल महफ़िल था मैं
अच्छा तो तुम ऐसे थे / शारिक़ कैफ़ी
अच्छा तो तुम ऐसे थे
दूर से कैसे लगते थे
हाथ तुम्हारे शाल में भी
कितने ठंडे रहते थे
सामने सब के उस से हम
खिंचे खिंचे से रहते थे
आँख कहीं पर होती थी
बात किसी से करते थे
क़ुर्बत के उन लम्हों में
हम कुछ और ही होते थे
साथ में रह कर भी उस से
चलते वक़्त ही मिलते थे
इतने बड़े हो के भी हम
बच्चों जैसा रोते थे
जल्द ही उस को भूल गए
और भी धोके खाने थे
ये चुपके चुपके न थमने वाली हँसी तो देखो / शारिक़ कैफ़ी
ये चुपके चुपके न थमने वाली हँसी तो देखो
वो साथ है तो ज़रा हमारी ख़ुशी तो देखो
बहुत हसीं रात है मगर तुम तो सो रहे हो
निकल के कमरे से इक नज़र चाँदनी तो देखो
जगह जगह सील के ये धब्बे ये सर्द बिस्तर
हमारे कमरे से धूप की बे-रुख़ी तो देखो
दमक रहा हूँ अभी तलक उस के ध्यान से मैं
बुझे हुए इक ख़याल की रौशनी तो देखो
ये आख़िरी वक़्त और ये बे-हिसी जहाँ की
अरे मिरा सर्द हाथ छू कर कोई तो देखो
अभी बहुत रंग हैं जो तुम ने नहीं छुए हैं
कभी यहाँ आ के गाँव की ज़िंदगी तो देखो
ये कुछ बदलाव सा अच्छा लगा है / शारिक़ कैफ़ी
ये कुछ बदलाव सा अच्छा लगा है
हमें इक दूसरा अच्छा लगा है
समझना है उसे नज़दीक जा कर
जिसे मुझ सा बुरा अच्छा लगा है
ये क्या हर वक़्त जीने की दुआएँ
यहाँ ऐसा भी क्या अच्छा लगा है
सफ़र तो ज़िंदगी भर का है लेकिन
ये वक़्फ़ा सा ज़रा अच्छा लगा है
मिरी नज़रें भी हैं अब आसमाँ पर
कोई महव-ए-दुआ अच्छा लगा है
हुए बरबाद जिस के इश्क़ में हम
वो अब जा कर ज़रा अच्छा लगा है
वो सूरज जो मिरा दुश्मन था दिन भर
मुझे ढलता हुआ अच्छा लगा है
कोई पूछे तो क्या बतलाएँगे हम
कि इस मंज़र में क्या अच्छा लगा है
इंतिहा तक बात ले जाता हूँ मैं / शारिक़ कैफ़ी
इंतिहा तक बात ले जाता हूँ मैं
अब उसे ऐसे ही समझाता हूँ मैं
कुछ हवा कुछ दिल धड़कने की सदा
शोर में कुछ सुन नहीं पाता हूँ मैं
बिन कहे आऊँगा जब भी आऊँगा
मुंतज़िर आँखों से घबराता हूँ मैं
याद आती है तिरी संजीदगी
और फिर हँसता चला जाता हूँ मैं
फ़ासला रख के भी क्या हासिल हुआ
आज भी उस का ही कहलाता हूँ मैं
छुप रहा हूँ आइने की आँख से
थोड़ा थोड़ा रोज़ धुँदलाता हूँ मैं
अपनी सारी शान खो देता है ज़ख़्म
जब दवा करता नज़र आता हूँ मैं
सच तो ये है मुस्तरद कर के उसे
इक तरह से ख़ुद को झुटलाता हूँ मैं
आज उस पर भी भटकना पड़ गया
रोज़ जिस रस्ते से घर आता हूँ मैं
वो दिन भी थे कि इन आँखों में इतनी हैरत थी / शारिक़ कैफ़ी
वो दिन भी थे कि इन आँखों में इतनी हैरत थी
तमाम बाज़ीगरों को मिरी ज़रूरत थी
वो बात सोच के मैं जिस को मुद्दतों जीता
बिछड़ते वक़्त बताने की क्या ज़रूरत थी
पता नहीं ये तमन्ना-ए-क़ुर्ब कब जागी
मुझे तो सिर्फ़ उसे सोचने की आदत थी
ख़मोशियों ने परेशाँ किया तो होगा मगर
पुकारने की यही सिर्फ़ एक सूरत थी
गए भी जान से और कोई मुतमइन न हुआ
कि फिर दिफ़ाअ' न करने की हम पे तोहमत थी
कहीं पे चूक रहे हैं ये आइने शायद
नहीं तो अक्स में अब तक मिरी शबाहत थी
सियाने थे मगर इतने नहीं हम / शारिक़ कैफ़ी
सियाने थे मगर इतने नहीं हम
ख़मोशी की ज़बाँ समझे नहीं हम
अना की बात अब सुनना पड़ेगी
वो क्या सोचेगा जो रूठे नहीं हम
अधूरी लग रही है जीत उस को
उसे हारे हुए लगते नहीं हम
हमें तो रोक लो उठने से पहले
पलट कर देखने वाले नहीं हम
बिछड़ने का तिरे सदमा तो होगा
मगर इस ख़ौफ़ को जीते नहीं हम
तिरे रहते तो क्या होते किसी के
तुझे खो कर भी दुनिया के नहीं हम
ये मंज़िल ख़्वाब ही रहती हमेशा
अगर घर लौट कर आते नहीं हम
कभी सोचे तो इस पहलू से कोई
किसी की बात क्यूँ सुनते नहीं हम
अभी तक मश्वरों पर जी रहे हैं
किसी सूरत बड़े होते नहीं हम
जो कहता है कि दरिया देख आया / शारिक़ कैफ़ी
जो कहता है कि दरिया देख आया
ग़लत मौसम में सहरा देख आया
डगर और मंज़िलें तो एक सी थीं
वो फिर मुझ से जुदा क्या देख आया
हर इक मंज़र के पस-मंज़र थे इतने
बहुत कुछ बे-इरादा देख आया
किसी को ख़ाक दे कर आ रहा हूँ
ज़मीं का अस्ल चेहरा देख आया
रुका महफ़िल में इतनी देर तक मैं
उजालों का बुढ़ापा देख आया
तसल्ली अब हुई कुछ दिल को मेरे
तिरी गलियों को सूना देख आया
तमाशाई में जाँ अटकी हुई थी
पलट कर फिर किनारा देख आया
बहुत गदला था पानी इस नदी का
मगर मैं अपना चेहरा देख आया
मैं इस हैरत में शामिल हूँ तो कैसे
न जाने वो कहाँ क्या देख आया
वो मंज़र दाइमी इतना हसीं था
कि मैं ही कुछ ज़ियादा देख आया
एक मुद्दत हुई घर से निकले हुए / शारिक़ कैफ़ी
एक मुद्दत हुई घर से निकले हुए
अपने माहौल में ख़ुद को देखे हुए
एक दिन हम अचानक बड़े हो गए
खेल में दौड़ कर उस को छूते हुए
सब गुज़रते रहे सफ़-ब-सफ़ पास से
मेरे सीने पे इक फूल रखते हुए
जैसे ये मेज़ मिट्टी का हाथी ये फूल
एक कोने में हम भी हैं रक्खे हुए
शर्म तो आई लेकिन ख़ुशी भी हुई
अपना दुख उस के चेहरे पे पढ़ते हुए
बस बहुत हो चुका आइने से गिला
देख लेगा कोई ख़ुद से मिलते हुए
ज़िंदगी भर रहे हैं अँधेरे में हम
रौशनी से परेशान होते हुए
ख़मोशी बस ख़मोशी थी इजाज़त अब हुई है / शारिक़ कैफ़ी
ख़मोशी बस ख़मोशी थी इजाज़त अब हुई है
इशारों को तिरे पढ़ने की जुरअत अब हुई है
अजब लहजे में करते थे दर-ओ-दीवार बातें
मिरे घर को भी शायद मेरी आदत अब हुई है
गुमाँ हूँ या हक़ीक़त सोचने का वक़्त कब तक
ये हो कर भी न होने की मुसीबत अब हुई है
अचानक हड़बड़ा कर नींद से मैं जाग उठा हूँ
पुराना वाक़िआ' है जिस पे हैरत अब हुई है
यही कमरा था जिस में चैन से हम जी रहे थे
ये तन्हाई तो इतनी बे-मुरव्वत अब हुई है
बिछड़ना है हमें इक दिन ये दोनों जानते थे
फ़क़त हम को जुदा होने की फ़ुर्सत अब हुई है
अजब था मसअला अपना अजब शर्मिंदगी थी
ख़फ़ा जिस रात पर थे वो शरारत अब हुई है
मोहब्बत को तिरी कब से लिए बैठे थे दिल में
मगर इस बात को कहने की हिम्मत अब हुई है
ख़्वाब वैसे तो इक इनायत है / शारिक़ कैफ़ी
ख़्वाब वैसे तो इक इनायत है
आँख खुल जाए तो मुसीबत है
जिस्म आया किसी के हिस्से में
दिल किसी और की अमानत है
जान देने का वक़्त आ ही गया
इस तमाशे के बा'द फ़ुर्सत है
उम्र भर जिस के मश्वरों पे चले
वो परेशान है तो हैरत है
अब सँवरने का वक़्त उस को नहीं
जब हमें देखने की फ़ुर्सत है
उस पे उतने ही रंग खुलते हैं
जिस की आँखों में जितनी हैरत है
रोना हो आसान हमारा / शारिक़ कैफ़ी
रोना हो आसान हमारा
इतना कर नुक़्सान हमारा
बात नहीं करनी तो मत कर
चेहरा तो पहचान हमारा
ख़ुश-फ़हमी हो जाएगी हम को
मत रख इतना ध्यान हमारा
पहली चोट में जान गए हम
'इश्क़ नहीं मैदान हमारा
मौत ने आ कर बाँध लिया था
पहले ही सामान हमारा
जीत गया तेरा भोला-पन
हार गया शैतान हमारा
लोग सह लेते थे हँस कर कभी बे-ज़ारी भी / शारिक़ कैफ़ी
लोग सह लेते थे हँस कर कभी बे-ज़ारी भी
वार कुछ ख़ाली गए मेरे तो फिर आ ही गई
अपने दुश्मन को दुआ देने की हुश्यारी भी
उम्र भर किस ने भला ग़ौर से देखा था मुझे
वक़्त कम हो तो सजा देती है बीमारी भी
किस तरह आए हैं इस पहली मुलाक़ात तलक
और मुकम्मल है जुदा होने की तय्यारी भी
ऊब जाता हूँ ज़ेहानत की नुमाइश से तो फिर
लुत्फ़ देता है ये लहजा मुझे बाज़ारी भी
उम्र बढ़ती है मगर हम वहीं ठहरे हुए हैं
ठोकरें खाईं तो कुछ आए समझदारी भी
अब जो किरदार मुझे करना है मुश्किल है बहुत
मस्त होने का दिखावा भी है सर भारी भी
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