Wali Dakhni Ghazal Shayari / वली दक्कनी की ग़ज़ल शायरी

वली दक्कनी की ग़ज़ल /शायरी

याद करना हर घडी़ उस यार का वली दक्कनी ग़ज़ल शायरी


याद करना हर घड़ी उस यार का

है वज़ीफ़ा मुझ दिल-ए-बीमार का


आरज़ू-ए-चश्मा-ए-कौसर नहीं

तिश्नालब हूँ शर्बत-ए-दीदार का


आकबत क्या होवेगा मालूम नहीं

दिल हुआ है मुब्तिला दिलदार का


क्या कहे तारीफ़ दिल है बेनज़ीर

हर्फ़ हर्फ़ उस मख़्ज़न-ए-इसरार का


गर हुआ है तालिब-ए-आज़ादगी

बन्द मत हो सुब्बा-ओ-ज़ुन्नार का


मस्नद-ए-गुल मन्ज़िल-ए-शबनम हुई

देख रुत्बा दीदा-ए-बेदार का


ऐ "वली" हो ना स्रिजन पर निसार

मुद्द'आ है चश्म-ए-गौहर बार का





दिल को लगती है वली दक्कनी ग़ज़ल शायरी


दिल को लगती है दिलरुबा की अदा

जी में बसती है खुश-अदा की अदा


गर्चे सब ख़ूबरू हैं ख़ूब वले

क़त्ल करती है मीरज़ा की अदा


हर्फ़-ए-बेजा बजा है गर बोलूँ

दुश्मन-ए-होश है पिया की अदा


नक़्श-ए-दीवार क्यूँ न हो आशिक़

हैरत-अफ़ज़ा है बेवफ़ा की अदा


गुल हुये ग़र्क आब-ए-शबनम में

देख उस साहिब-ए-हया की अदा


ऐ "वली" दर्द-ए-सर की दारू है

मुझको उस संदली क़बा की अदा





फ़िराके-गुजरात वली दक्कनी ग़ज़ल शायरी


गुजरात के फिराके सों है खा़र-खा़र दिल।

बेताब है सूनेमन आतिलबहार दिल।।


मरहम नहीं है इसके जखम़का जहाँमने।

शम्शेरे-हिज्र सों जो हुआ है फिगा़र दिल।।


अव्वल सों था ज़ईफ़ यह पाबस्ता सोज़ में।

ज्यों बात है अग्निके उपर बेकरार दिल।।


इस सैरके नशे सों अवल तर दिमाग था।

आखिऱकुँ इस फिराक़ में खींचा खुमार दिल।।


मेरे सुनेमें आके चमन देख इश्क का।

है जोशे-खँ सों तनमें मेरे लालाजार दिल।।


हासिल किया हूँ जगमें सराया शिकस्तगो।

देखा है मुझ शकीबे हों सुब्हेबहार दिल।।


हिजरत सों दोस्ताँके हुआ जी मेरा गुजर।

इश्रत के पैरहन कुँ दिया तार-तार दिल।।


हर आशना की याद की गर्मीसों तनमने।

हरदममें बेक़रार है मिस्ले-शरार दिल।।


सब आशिक़ाँ हजूर अछे पाक सुर्खऱू।

अपना अपस लहूसों किया है फ़िगार दिल।।


हासिल हुआ है मुजकूँ समर मुज शिकस्त सों।

पाया है चाक-चाक़ हो शकले-अनार दिल।।


अफसोस है तमाम कि आखिऱकुँ दोस्ताँ।

इस मैक़दे सों उसके चला सुध बिसार दिल।।


लेकिन हजार शुक्र वली हक़के फैज़ सों।

फिर उसके देखनेका है उम्मेदवार दिल।।



शब्दार्थ

(फिराक: वियोग, खा़र-खा़र : काँटा-काँटा, बेताब: अधीर, सूनेमन: शून्य, आतिलबहार: आग बरसता)

(शम्शेरे-हिज्र: वियोग के खड्ग, फिगा़र: घायल)

(ज़ईफ़: निर्बल, पाबस्ता: पादनिगड़ित, सोज़: जलन)

(खुमार:मदालसता)

(जोशे-खँ: खून के उबाल)

(हासिल: प्राप्त, सराया: सिर से पैर तक, शिकस्तगी: परास्तता, शकीबे: सन्तोष, सुब्हेबहार: वसंत की सुबह)

(इशरत: प्रमोद, पैरहन: परिधान)

(आशना: मित्र, तनमने: शरीर में, बेक़रार: अधीर, मिस्ले-शरार: अंगारे की तरह)

(आशिक़ाँ: प्रेमी, सुर्खऱू: भाग्यशाली)

(समर: फल, मुज शिकस्त: मेरी हार, चाक-चाक़: टुकड़े-टुकड़े, शकले-अनार: अनार-जैसी)

(आखिऱकुँ: अंत में, मैक़दे: मद्यशाला)

(फ़ैज़: सत्य/भगवान की दया)

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आहिस्ता आहिस्ता वली दक्कनी ग़ज़ल शायरी


सजन तुम सुख सेती खोलो नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता।

कि ज्यों गुल से निकसता है गुलाब आहिस्ता आहिस्ता।।


हजारों लाख खू़वाँ में सजन मेरा चले यूँ कर।

सितारों में चले ज्यों माहताब आहिस्ता आहिस्ता।।


सलोने साँवरे पीतम तेरे मोती की झलकाँ ने।

किया अवदे-पुरैय्या को खऱाब आहिस्ता आहिस्ता।।


शब्दार्थ

(गुल: गुलाब का फूल, खू़वाँ: प्रेमिकाओं, माहताब: चाँद, अवदे-पुरैय्या: तारों का समूह)



Wali Dakhni Ki Ghazal aur SHayari 

रूह बख़्शी है काम तुझ लब का वली दक्कनी ग़ज़ल शायरी


रूह बख़्शी है काम तुझ लब का


दम—ए—ईसा है नाम तुझ लब का



हुस्न के ख़िज़्र ने किया लबरेज़


आब—ए—हैवाँ सूँ जाम तुझ लब का



मन्तक़—ओ—हिकमत—ओ—मआनी पर


मुश्तमल है कलाम तुझ लब का



रग़—ए—याक़ूत के क़लम से लिखें


ख़त परस्ताँ पयाम तुझ लब का



सब्ज़ा—ओ—बर्ग—ओ—लाला रखते हैं


शौक़ दिल में दवाम तुझ लब का



ग़र्क़—ए—शक्कर हुए हैं काम—ओ—ज़बान


जब लिया हूँ मैं नाम तुझ लब का



है वली की ज़बाँ को लज़्ज़त बख़्श


ज़िक्र हर सुब्ह—ओ—शाम तुझ लब का





देखना हर सुब्ह तुझ रुख़सार का वली दक्कनी ग़ज़ल शायरी


देखना हर सुब्ह तुझ रुख़सार का


है मुताला मत्ला—ए—अनवार का



बुलबुल—ओ—परवाना करना दिल के तईं


काम है तुझ चेह्रा—ए—गुलनार का



सुब्ह तेरा दरस पाया था सनम


शौक़—ए—दिल मुह्ताज है तकरार का



माह के सीने ऊपर अय शम्अ रू !


दाग़ है तुझ हुस्न की झलकार का



दिल को देता है हमारे पेच—ओ—ताब


पेच तेरे तुर्रा—ओ—तर्रार का



जो सुनिया तेरे दहन सूँ यक बचन


भेद पाया नुस्ख़ा—ए—इसरार का



चाहता है इस जहाँ में गर बहिश्त


जा तमाशा देख उस रुख़सार का



अय वली ! क्यों सुन सके नासेह की बात


जो दिवाना है परी रुख़सार का





तुझ लब की सिफ़्त लाल—ए—बदख़्शाँ सूँ कहूँगा वली दक्कनी ग़ज़ल शायरी


तुझ लब की सिफ़्त लाल—ए—बदख़्शाँ सूँ कहूँगा


जादू हैं तेरे नैन ग़ज़ालाँ सूँ कहूँगा



दी बाद शाही हक़ ने तुझे हुस्न नगर की


यूँ किश्वर—ए—ईराँ में सुलेमाँ  सूँ कहूँगा



तारीफ़ तेरे क़द की अलिफ़वार—ए—सदी जिन


जा सर्व—ओ—गुलिस्ताँ को ख़ुश इल्हाँ सूँ कहूँगा



मुझ पर न करो ज़ुल्म तुम अय लैला—ओ—ख़ूबाँ


मजनूँ हूँ तेरे ग़म को बियाबाँ सों सूँ कहूँगा



देखा हूँ तुझे ख़्वाब में अय माया—ए—ख़ूबी


इस ख़्वाब को जा यूसुफ़—ए—किन्आँ सूँ कहूँगा



जलता हूँ शब—ओ—रोज़ तेरे ग़म में अय सजन !


यह  सोज़ तेरा मश्अल—ए—सोज़ाँ सूँ कहूँगा



ज़ख़्मी किया है मुझे तेरी पलकों की अनी ने


यह ज़ख्म तेरा ख़ंजर—ए—भालाँ सूँ कहूँगा



यक नुक़्ता तेरे सफ़्हा—ए—रुख़ पर नहीं बे—जा !


इस मुख को तेरे सफ़्हा—ओ—क़ुरआँ  सूँ कहूँगा



बे—सब्र न हो अय वली ! इस दर्द सूँ हरगिज़


जलता हूँ तेरे दर्द में दरमाँ   सूँ कहूँगा





किया मुझ इश्क़ ने ज़ालिम वली दक्कनी ग़ज़ल शायरी


किया मुझ इश्क़ ने ज़ालिम कूँ आब आहिस्ता—अहिस्ता


के आतिश गुल को करती है गुलाब आहिस्ता—आहिस्ता



वफ़ादारी ने दिलबर की बुझाया आतिश—ए—गुल कूँ


के गर्मी दफ़्अ करता है गुलाब आहिस्ता—आहिस्ता



अजब कुछ लुत्फ़ रक्खा है शब—ए—ख़िल्वत में गुलरू सूँ


ख़िताब आहिस्ता—आहिस्ता जवाब आहिस्ता आहिस्ता



मेरे दिल कूँ किया बेख़ुद तेरी अखियाँ ने आख़िर कूँ


के ज्यूँ बेहोश करती है शराब आहिस्ता—आहिस्ता



हुआ तुझ इश्क़ सूँ अय आतशीं रू दिल मेरा पानी


के ज्यूँ गलता है आतिश सूँ गुलाब आहिस्ता—आहिस्ता



अदा—ए—नाज़ सूँ आता है वोह रौशन—जबीं घर सूँ


के ज्यूँ मशरिक़ से निकले आफ़ताब आहिस्ता—आहिस्ता



‘वली’ ! मुझ दिल में आता है ख़्याल—ए—यार बे—परवाह


कि ज्यूँ अँखियन में आता है ख़्वाब आहिस्ता—आहिस्ता





अयाँ है हर तरफ़ आलम में वली दक्कनी ग़ज़ल शायरी


अयाँ है हर तरफ़ आलम में हुस्न—ए—बे—हिजाब उसका


बग़ैर अज़ दीदा—ए—हैराँ नहीं जग में निक़ाब उसका



हुआ है मुझ पे शम्अ—ए—बज़्म—ए—यकरंगी सूँ यूँ रौशन


के हर ज़र्रे ऊपर ताबाँ है दायम आफ़ताब उसका



करे है उशाक़ कूँ ज्यूँ सूरत—ए—दीवार—ए—हैरत सूँ


अगर परदे सूँ वा होवे जमाल—ए—बेहिजाब उसका



सजन ने यक नज़र देखा निगाह—ए—मस्त सूँ जिसकूँ


ख़राबात—ए—दो आलम में सदा है वोह ख़राब उसका



मेरा दिल पाक है अज़ बस, ’वली’ ! जंग—ए—कदूरत सूँ


हुआ ज्यूँ जौहर—ए—आईना मख़्फ़ी पेच—ओ—ताब उसका





गफ़लत में वक़्त अपना न खो होशियार हो वली दक्कनी ग़ज़ल शायरी


गफ़लत में वक़्त अपना न खो होशियार हो, होशियार हो


कब लग रहेगा ख़्वाब में, बेदार हो, बेदार हो



गर देखना है मुद्दआ उस शाहिद—ए—मआनी का रू


ज़ाहिर परस्ताँ सूँ सदा,बेज़ार हो, बेज़ार हो



ज्यों छ्तर दाग़—ए—इश्क़ कूँ रख सर पर अपने अव्वलाँ


तब फ़ौज—ए—अहल—ए—दर्द का सरदार हो, सरदार हो



वो नौ बहार—ए—आशिक़ाँ, है ज्यूँ सहर जग में अयाँ


अय दीदा वक़्त—ए—ख़्वाब नईं बेदार हो, बेदार हो



मतला का मिसरा अय वली, विर्द—ए—ज़बाँ कर रात —दिन


गफ़लत में वक़्त अपना न खो, होशियार हो, होशियार हो





मुद्दत हुई सजन ने दिखाया नहीं जमाल वली दक्कनी ग़ज़ल शायरी


मुद्दत हुई सजन ने दिखाया नहीं जमाल


दिखला अपस के क़द कूँ किया नईं मुझे निहाल



यक बार देख मुझ तरफ़ अय ईद—ए— आशिक़ाँ


तुझ अब्रुआँ की याद सूँ लाग़िर हूँ ज्यूँ हिलाल



वोह दिल के था जो सोखता—ए—आतिश—ए—फ़िराक़


पहुँचा है जा के रुख़ कूँ सनम के बरंग—ए—ख़ाल



मुम्किन नहीं कि बदर हूँ नुक़्साँ सूँ आशना


लावे अगर ख्याल में तुझ हुस्न का कमाल



गर मुज़्तरिब है है आशिक़—ए—बेदिल अजब नहीं


वहशी हुए हैं तेरी अँखाँ देख कर ग़ज़ाल



फ़ैज़—ए—नसीम—ए—मेह्र—ओ—वफ़ा सूँ जहान में


गुलज़ार तुझ बहार का है अब तलक बहाल



खोया है गुलरुख़ाँ ने रऊनत सूँ आब—ओ—रंग


गर्दन—कशी है शम्अ की गरदन ऊपर वबाल





उसकूँ हासिल क्योंकर होए जग में वली दक्कनी ग़ज़ल शायरी


उसकूँ हासिल क्योंकर होए जग में फ़राग़—ए—ज़िन्दगी


गर्दिश—ए—अफ़लाक है जिस कूँ अयाग—ए—ज़िन्दगी



अय अज़ीज़ाँ सैर—ए—गुल्शन है गुल—ए—दाग—ए—अलम


सुहबत—ए—अहबाब है मआनी में बाग़—ए—ज़िन्दगी



लब हैं तेरे फ़िलहक़ीक़त चश्म—ए—आब—ए—हयात


ख़िज़्र—ए—ख़त ने उस सूँ पाया है सुराग़—ए—ज़िन्दगी



जब सूँ देखा नईं नज़र भर काकुल—ए—मुश्कीं—ए—यार


तबसे ज्यूँ सुम्बले—ए—परीशाँ है दिमाग़—ए—ज़िन्दगी



आसमाँ मेरी नज़र में कूबा—ए—तारीक है


गर न देखूँ तुझ कूँ अय चश्म—ए—चराग़—ए—ज़िन्दगी



लाला—ए—ख़ूनीं कफ़न के हाल से ज़ाहिर हुआ


बस्तगी है ख़ाल सूँ खूबाँ के दाग़—ए—ज़िन्दगी



क्यूँ न होवे अय ‘वली’! रौशन शब—ए—क़दर—ए—हयात


है निगाह—ए—गर्म—ए—गुलरू याँ चराग़—ए—ज़िन्दगी





जिसे इश्क़ का तीर कारी लगे वली दक्कनी ग़ज़ल शायरी


जिसे इश्क़ का  तीर कारी लगे


उसे ज़िन्दगी क्यूँ न भारी लगे



न छोड़े महब्बत दम—ए—मर्ग लग


जिसे यार—ए—जानीं सूँ यारी लगे



न होए उसे जग में हरगिज़ क़रार


जिसे इश्क़ की बेक़रारी लगे



हर इक वक़्त मुझ आशिक़—ए—पाक कूँ


पियारे तेरी बात प्यारी लगे



‘वली’ कूँ कहे तू अगर एक बचन


रक़ीबाँ के दिल में कटारी लगे





शग़्ल बेहतर है इश्क़ बाज़ी का वली दक्कनी ग़ज़ल शायरी


शग़्ल* बेहतर है इश्क़ बाज़ी का------काम

क्या हक़ीक़ी* व क्या मजाज़ी* का-----असली, नक़ली


हर ज़ुबाँ पर है मिस्ले-शाना मदाम

ज़िक्र तुझ ज़ुल्फ़ की दराज़ी का


होश के हाथ में इनाँ* न रही--------लगाम

जब सूँ देखा सवार ताज़ी* का------ अरबी


गर नहीं राज़-ए-इश्क़ से आगाह

फ़ख़्र बेजा है फ़ख़्र-ए-राज़ी का


ऎ वली सर्व क़द कूँ देखूँगा

वक़्त आया है सरफ़राज़ी*------सर ऊँचा करने का





मुफ़लिसी सब बहार खोती है वली दक्कनी ग़ज़ल शायरी


मुफ़लिसी सब बहार खोती है

मर्द का ऎतबार खोती है


क्योंके हासिल हो मुझको जमईय्यत*---------सुकून, क़रार

ज़ुल्फ़ तेरी क़रार खोती है


हर सहर* शोख़ की निगह की शराब---------सुबह, सवेरे

मुझ अंखाँ का ख़ुमार खोती है


क्योंके मिलना सनम का तर्क* करूँ---------छोड़ना

दिलबरी इख़्तियार खोती है


ऎ वली आब* उस परीरू* की---चमक, परी जैसे मुखड़े वाली

मुझ सिने का ग़ुबार खोती है





दिल कूँ तुझ बाज बे-क़रारी है वली दक्कनी ग़ज़ल शायरी


दिल कूँ तुझ बाज बे-क़रारी है

चश्म का काम अश्क-बारी है


शब-ए-फ़ुर्क़त में मोनिस ओ हम-दम

बे-क़रारों कूँ आह ओ ज़ारी है


ऐ अज़ीज़ाँ मुझे नहीं बर्दाश्त

संग-दिल का फ़िराक़ भारी है


फ़ैज़ सूँ तुझ फ़िराक़ के साजन

चश्म-ए-गिर्यां का काम जारी है


फ़ौक़ियत ले गया हूँ बुलबुल सूँ

गरचे मंसब में दो-हज़ारी है


इश्क़-बाज़ों के हक़ में क़ातिल की

हर निगह ख़ंजर ओ कटारी है


आतिश-ए-हिज्र-ए-लाला-रू सूँ 'वली'

दाग़ सीने में याद-गारी है





इश्क़ में सब्र ओ रज़ा दरकार है वली दक्कनी ग़ज़ल शायरी


इश्क़ में सब्र ओ रज़ा दरकार है

फ़िक्र-ए-असबाब-ए-वफ़ा दरकार है


चाक करने जामा-ए-सब्र-ओ-क़रार

दिल-बर-ए-रंगीं क़बा दरकार है


हर सनम तस्ख़ीर-ए-दिल क्यूँकर सके

दिल-रुबाई कूँ अदा दरकार है


ज़ुल्फ़ कूँ वा कर के शाह-ए-इश्क़ कूँ

साया-ए-बाल-ए-हुमा दरकार है


रख क़दम मुझ दीदा-ए-ख़ूँ-बार पर

गर तुझे रंग-ए-हिना दरकार है


देख उस की चश्म-ए-शहला कूँ अगर

नर्गिस-ए-बाग़-ए-हया दरकार है


अज़्म उस के वस्ल का है ऐ 'वली'

लेकिन इमदाद-ए-ख़ुदा दरकार है





जब सनम कूँ ख़याल-ए-बाग़ हुआ वली दक्कनी ग़ज़ल शायरी


जब सनम कूँ ख़याल-ए-बाग़ हुआ

तालिब-ए-नश्शा-ए-फ़राग़ हुआ


फ़ौज-ए-उश्शाक़ देख हर जानिब

नाज़नीं साहिब-ए-दिमाग़ हुआ


रश्क सूँ तुझ लबाँ की सुर्ख़ी पर

जिगर-ए-लाला दाग़-दाग़ हुआ


दिल-ए-उश्शाक़ क्यूँ न हो रौशन

जब ख़याल-ए-सनम चराग़ हुआ


ऐ 'वली' गुल-बदन कूँ बाग़ में देख

दिल-ए-सद-चाक बाग़-बाग़ हुआ





मैं आशिक़ी में तब सूँ अफ़साना हो रहा हूँ वली दक्कनी ग़ज़ल शायरी


मैं आशिक़ी में तब सूँ अफ़साना हो रहा हूँ

तेरी निगह का जब सूँ दीवाना हो रहा हूँ


ऐ आशना करम सूँ यक बार आ दरस दे

तुझ बाज सब जहाँ सूँ बे-गाना हो रहा हूँ


बाताँ लगन की मत पूछ ऐ शम्मा-ए-बज़्म-ए-ख़ूबी

मुद्दत से तुझ झलक का परवाना हो रहा हूँ


शायद वो गंज-ए-ख़ूबी आवे किसी तरफ़ सूँ

इस वास्ते सरापा वीराना हो रहा हूँ


सौदा-ए-ज़ुल्फ़-ए-ख़ूबाँ रखता हूँ दिल में दाइम

ज़ंजीर-ए-आशिक़ी का दीवाना हो रहा हूँ


बर-जा है गर सुनूँ नईं नासेह तेरी नसीहत

मैं जाम-ए-इश्क़ पी कर मस्ताना हो रहा हूँ


किस सूँ ‘वली’ आपस का अहवाल जा कहूँ मैं

सर ता क़दम मैं ग़म सूँ ग़म-ख़ाना हो रहा हूँ





सजन टुक नाज़ सूँ मुझ पास आ आहिस्ता आहिस्ता वली दक्कनी ग़ज़ल शायरी


सजन टुक नाज़ सूँ मुझ पास आ आहिस्ता आहिस्ता

छुपी बातें अपस दिल की सुना आहिस्ता आहिस्ता


ग़रज़ गोयाँ की बाताँ कूँ न ला ख़ातिर मनीं हरगिज़

सजन इस बात कूँ ख़ातिर में ला आहिस्ता आहिस्ता


हर इक की बात सुनने पर तवज्जो मत कर ऐ ज़ालिम

रक़ीबाँ इस सीं होवेंगे जुदा आहिस्ता आहिस्ता


मुबादा मोहतसिब बद-मस्त सुन कर तान में आवे

तम्बूरा आह का ऐ दिल बजा आहिस्ता आहिस्ता


‘वली’ हरगिज़ अपस के दिल कूँ सीने में न रख ग़मगीं

कि बर लावेगा मतलब कूँ ख़ुदा आहिस्ता आहिस्ता





गिर्यां हैं अब्र-ए-चश्‍म मेरी अश्‍क बार देख वली दक्कनी ग़ज़ल शायरी


गिर्यां हैं अब्र-ए-चश्‍म मेरी अश्‍क बार देख

है बर्क़ बेक़रार, मुझे बेक़रार देख


फि़रदौस देखने की अगर आबरू है तुझ

ऐ ज्‍यू पी के मुख के चमन की बहार देख


हैरत का रंग लेके लिखे शक्‍ल-ए-बेख़ुदी

तेरे अदा-ओ-नाज़ को मा'नी निगार देख


वो दिल कि तुझ दतन के ख़यालाँ सूँ चाक था

लाया हूँ तेरी नज्र बहा-ए-अनार देख


ऐ शहसवार तू जो चला है रक़ीब पास

सीने में आशिक़ाँ के उठा है ग़ुबार देख


तेरी निगाह ख़ातिर-ए-नाज़ुक पे बार है

ऐ बुलहवस न पी की तरफ़ बार-बार देख


तुझ इश्‍क़ में हुआ है जिगर ख़ून-ओ-दाग़दार

दिल में 'वली' के बैठ के ओ लाला ज़ार देख





तुझ मुख की झलक देख गई जोत चंदर सूँ वली दक्कनी ग़ज़ल शायरी


तुझ मुख की झलक देख गई जोत चँदर सूँ

तुझ मुख पे अरक़ देख गई आब गुहर सूँ


शर्मिंदा हो तुझ मुख के दिखे बाद सिकंदर

बिलफ़र्ज़ बनावे अगर आईना क़मर सूँ


तुझ ज़ुल्‍फ़ में जो दिल कि गया उसकूँ ख़लासी

नई सुब्‍ह-ए-क़यामत तलक इस शब के सफ़र सूँ


हर चंद कि वहशत है तुझ अँखियाँ सिती ज़ाहिर

सद शुक्र कि तुझ दाग़ कूँ अल्‍फ़त है जिगर सूँ


अशरफ़ का यो मिसरा 'वली' मुजको गुमाँ है

उल्‍फ़त है दिल-ओ-जाँ कूँ मिरे पेमनगर सूँ





देखे सूँ तुझ लबाँ के उपर रंग-ए-पान आज वली दक्कनी ग़ज़ल शायरी


देखे सूँ तुझ लबाँ के उपर रंग-ए-पान आज

चूना हुए हैं लाला रूख़ाँ के पिरान आज


निकला है बेहिजाब हो बाज़ार की तरफ़

हर बुलहवस की गर्म हुई है दुकान आज


तेरे नयन की तेग़ सूँ ज़ाहिर है रंग-ए-ख़ून

किस कूँ किया है क़त्‍ल ऐ बांके पठान आज


आखि़र कूँ रफ्त़ा-रफ्त़ा दिल-ए-ख़ाकसार ने

तेरी गली में जाके किया है मकान आज


कल ख़त ज़बान-ए-हाल सूँ आकर करेगा उज्र

आशिक़ सूँ क्‍या हुआ जो किया तूने मान आज


तेरी भवाँ कूँ देख के कहते हैं आशिक़ाँ

है शाह जिसके नाम चढ़ी है कमान आज


गंगा रवाँ किया हूँ अपस के नयन सिती

आ रे समन शिताब है रोज़-ए-नहान आज


क्‍यूँ दायरे सूँ ज़ुहरा जबीं के निकल सकूँ

यक तान में लिया है मिरे दिल कूँ तान आज


मेरे सुख़न कूँ गुलशन-ए-मा'नी का बोझ गुल

आशिक़ हुए हैं बुलबुल-ए-रंगी बयान आज


जोधा जगत के क्‍यूँ न डरें तुझ सूँ ऐ सनम

तर्कश में तुझ नयन के हैं अर्जुन के बान आज


जानाँ कूँ बस कि ख़ौफ़-ए-रकीबाँ है दिल मनीं

होता है जान बूझ हमन सूँ अजान आज


क्‍यूँ कर रखूँ मैं दिल कूँ 'वली' अपने खेंचकर

नईं दस्‍त-ए-अख्ति़यार में मेरे इनान आज





न समझो ख़ुद-ब-ख़ुद दिल बेख़बर है वली दक्कनी ग़ज़ल शायरी


न समझो ख़ुद-ब-ख़ुद दिल बेख़बर है

निगह में उस परी रू की असर है


अझूँ लग मुख दिखाया नहीं अपस का

सजन मुझ हाल सूँ क्‍या बेख़बर है


मुरव्‍वत तर्क मत कर ऐ परीरू

मुरव्‍वत में मुरव्‍वत मा'तबर है


तेरे क़द के तमाशे का हूँ तालिब

कि राह-ए-रास्‍त बाज़ी बेख़तर है


तिरी तारीफ़ करते हैं मलायक

सना तेरी कहाँ हद्द-ए-बशर है


बयान-ए-अहल-ए-मा'नी है मुतव्‍वल

अगरचे हस्‍बेज़ाहिर मुख़्तसर है


वली' मुझ रंग कूँ देखे नज़र भर

अगर वो दिलरुबा मुश्‍ताक़-ए-ज़र है





मूसा अगर जो देखे तुझ नूर का तमाशा वली दक्कनी ग़ज़ल शायरी


मूसा अगर जो देखे तुझ नूर का तमाशा

उसकूँ पहाड़ हूवे फिर तूर का तमाशा


ऐ रश्‍क-ए-बाग़-ए-जन्‍नत तुझ पर नज़र किए सूँ

रि़ज्‍वाँ को होवे दोज़ख़ फिर हूर का तमाशा


रोज़-ए-सियाह उसके होंटों से जल्‍वागर है

तुझ ज़ुल्‍फ़ में जो देखा दैजूर का तमाशा


कसरत के फूलबन में जाते नहीं हैं आरिफ़

बस है मोहद्दाँ को मंसूर का तमाशा


है जिस सूँ यादगारी वो जल्‍वागर है दायम

तू चीं में देख जाकर फ़ग़फ़ूर का तमाशा


वो सर बुलंद आलम अज़ बस है मुझ नज़र में

ज्‍यूँ आसमां अयां है मुझ दूर का तमाशा


तुझ इश्‍क़ में वली के अंझो उबल चले हैं

ऐ बहर-ए-हुस्‍न आ देख उस पूर का तमाशा





जो कुई हर रंग में अपने कूँ वली दक्कनी ग़ज़ल शायरी


जो कुई हर रंग में अपने कूँ शामिल कर नहीं गिनते

हमन सब आक़िलाँ में उस कूँ आक़िल कर नहीं गिनते


मुदर्रिस मदरिसे में गर न बोले दर्स दर्शन का

तो उसकूँ आशिक़ाँ उस्‍ताद-ए-कामिल कर नहीं गिनते


ख़याल-ए-ख़ाम को जो कुई कि धोवे सफ़्ह-ए-दिल सूँ

तसव्‍वुफ़ के मतालिब कूँ वो मुश्किल कर नहीं गिनते


जो बिस्मिल नईं हुआ तेरी नयन की तेग़ सूँ बिस्मिल

शहीदाँ जग के उस बिस्मिल को बिस्मिल कर नहीं गिनते


पिरत के पंथ में जो कुई सफ़र करते हैं रात-ओ- दिन

वो दुनिया कूँ बग़ैर अज़ चाह-ए-बावल कर नहीं गिनते


नहीं जिस दिल में पी की याद की गर्मी की बेताबी

तो वैसे दिल कूँ सादे दिलबराँ दिल कर नहीं गिनते


रहे महरूम तेरी ज़ुल्फ़ के मुहरे सूँ वो दाइम

जो कुई तेरी नयन कूँ ज़हर-ए-क़ातिल कर नहीं गिनते


न पावे वो दुनिया में लज़्ज़त-ए-दीवानगी हरगि़ज

जो तुझ ज़ुल्‍फ़ाँ के हल्‍क़े कूँ सलासिल कर नहीं गिनते


बग़ैर अज़ मारिफ़त सब बात में गर कुई अछे कामिल

वली' सब अहल-इरफ़ाँ उसकूँ कामिल कर नहीं गिनते





ये मेरा रोना कि तेरी हँसी वली दक्कनी ग़ज़ल शायरी


ये मेरा रोना कि तेरी हँसी

आप बस नईं परबसी परबसी


है कुल आलम में करम मेरे उपर

जुज़ रसी है जुज़ रसी है जुज़ रसी


रात दिन जग में रफ़ीक-ए-बेकसाँ

बेकसी है बेकसी है बेकसी


सुस्‍त होना इश्‍क़ में तेरे सनम!

नाकसी है नाकसी है नाकसी


बाइस-ए-रुस्वाई-ए-आलम 'वली'

मुफ़लिसी है मुफ़लिसी है मुफ़लिसी





ज़बान-ए-यार है अज़ बस कि वली दक्कनी ग़ज़ल शायरी


ज़बान-ए-यार है अज़ बस कि यार-ए-ख़ामोशी

बहार-ए-ख़त में है बर जा बहार-ए-ख़ामोशी


स्‍याही ख़त-ए-शब रंग सूँ मुसव्‍वर-ए-नाज़

लिखा निगार के लब पर निगार-ए-ख़ामोशी


उठा है लश्‍कर-ए-अहल-ए-सुख़न में हैरत सूँ

ग़ुबार-ए-ख़त सूँ सनम के ग़ुबार-ए-ख़ामोशी


ज़हूर-ए-ख़त में किया है हया ने बस कि ज़हूर

यो दिल शिकार हुआ है शिकार-ए-ख़ामोशी


हमेशा लश्‍कर-ए-आफ़ात सूँ रहे महफ़ूज़

नसीब जिसको हुआ है हिसार-ए-ख़ामोशी


ग़ुरूर-ए-ज़र सूँ बजा है सुकूत-ए-बेमा'नी

कि बेसदा है सदा कोहिसार-ए-ख़ामोशी


वली' निगाह कर उस ख़त-ए-सब्‍ज़ रंग कूँ आज

कि तौर-ए-नूर में है सब्‍ज़ा ज़ार-ए-ख़ामोशी





मुश्ताक़ है उश्शाक़ तेरी बाँकी अदा के वली दक्कनी ग़ज़ल शायरी


मुश्‍ताक़ है उश्‍शाक़ तेरी बाँकी अदा के

ज़ख़्मी है महबाँ तेरी शमशीर-ए-जफ़ा के


हर पेच में चीरे के तिरे लिपटे हैं आशिक़

आलम के दिलाँ बंद हैं तुझ बंद-ए-क़बा के


लरज़ाँ हैं तिरे दस्‍त अगे पंजा-ए-ख़ुर्शीद

तुझ हुस्‍न अगे मात मलायक हैं समा के


तुझ ज़ुल्‍फ़ के हल्‍के में है दिल बंद 'वली' का

टुक मेहर करो हाल उपर बे सर-ओ-पा के


तनहा न 'वली' जग मिनीं लिखता है तिरे वस्‍फ़

दफ़्तर लिखा आलम ने तिरी मदह-ओ-सना के





जिसको लज़्ज़त है सुख़न के दीद की वली दक्कनी ग़ज़ल शायरी


जिसको लज़्ज़त है सुख़न के दीद की

उसको ख़ुशवक़्ती है रोज़-ए-ईद की


दिल मिरा मोती हो, तुझ बाली में जा

कान में कहता है बाताँ भेद की


ज़ुल्‍फ़ नईं तुझ मुख पे ऐ दरिया-ए-हुस्‍न

मौज है ये चश्‍म-ए-ख़ुर्शीद की


उसके ख़त-ओ-ख़ाल सूँ पूछो ख़बर

बूझता हिंदू है बाताँ बेद की


तुझ दहन कूँ देख कर बोला 'वली'

ये कली है गुलशन-ए-उम्‍मीद की

 


 

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