सोज़िश-ए-ग़म के सिवा काहिश-ए-फ़ुर्क़त के सिवा
अज़ीज़ वारसी
सोज़िश-ए-ग़म के सिवा काहिश-ए-फ़ुर्क़त के सिवा
इश्क़ में कुछ भी नहीं दर्द की लज़्ज़त के सिवा
दिल में अब कुछ भी नहीं उन की मोहब्बत के सिवा
सब फ़साने हैं हक़ीक़त में हक़ीक़त के सिवा
कौन कह सकता है ये अहल-ए-तरीक़त के सिवा
सारे झगड़े हैं जहाँ में तिरी निस्बत के सिवा
कितने चेहरों ने मुझे दावत-ए-जल्वा बख़्शी
कोई सूरत न मिली आप की सूरत के सिवा
ग़म-ए-उक़्बा ग़म-ए-दौराँ ग़म-ए-हस्ती की क़सम
और भी ग़म हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
बज़्म-ए-जानाँ में अरे ज़ौक़-ए-फ़रावाँ अब तक
कुछ भी हासिल न हुआ दीदा-ए-हैरत के सिवा
वो शब-ए-हिज्र वो तारीक फ़ज़ा वो वहशत
कोई ग़म-ख़्वार न था दर्द की शिद्दत के सिवा
मोहतसिब आओ चलें आज तो मय-ख़ाने में
एक जन्नत है वहाँ आप की जन्नत के सिवा
जो तही-दस्त भी है और तही-दामन भी
वो कहाँ जाएगा तेरे दर-ए-दौलत के सिवा
जिस ने क़ुदरत के हर इक़दाम से टक्कर ली है
वो पशीमाँ न हुआ जब्र-ए-मशिय्यत के सिवा
मुझ से ये पूछ रहे हैं मिरे अहबाब 'अज़ीज़'
क्या मिला शहर-ए-सुख़न में तुम्हें शोहरत के सिवा
न लतीफ़ शाम की जुस्तुजू न हसीं सहर की तलाश है / अज़ीज़ वारसी
न लतीफ़ शाम की जुस्तुजू न हसीं सहर की तलाश है
जो नज़र नज़र को नवाज़ दे मुझे उस नज़र की तलाश है
मिरे हम-सफ़र तुझे क्या ख़बर ये नज़र नज़र की तलाश है
मिरी राहबर को है जुस्तुजू तुझे राहबर की तलाश है
जो अजल को जाने हयात-ए-नौ जो हयात-ए-नौ को अजल कहे
मुझे रह-गुज़ार-ए-हयात में उसी हम-सफ़र की तलाश है
न हो फ़र्क़ दैर-ओ-हरम जहाँ न हो अपना अपना सनम जहाँ
उसी रहगुज़र की तलाश थी उसी रहगुज़र की तलाश है
जो बस एक पहली निगाह में मिरे दिल का राज़ समझ सके
मुझे इब्तदा-ए-हयात से इसी दीदा-वर की तलाश है
मिरे ज़ौक़-ए-दर्द का हौसला सर-ए-बज़्म कहता है बरमला
वो 'अज़ीज़' कैफ़ से दूर है जिसे चारागर की तलाश है
तिरी तलाश में निकले हैं तेरे दीवाने / अज़ीज़ वारसी
तिरी तलाश में निकले हैं तेरे दीवाने
कहाँ सहर हो कहाँ शाम हो ख़ुदा जाने
हरम हमीं से हमीं से हैं आज बुत-ख़ाने
ये और बात है दुनिया हमें न पहचाने
हरम की राह में हाइल नहीं हैं बुत-ख़ाने
हरम से अहल-ए-हरम हो गए हैं बेगाने
ये ग़ौर तू ने किया भी कि हश्र क्या होगा
तड़प उट्ठे जो क़यामत में तेरे दीवाने
'अज़ीज़' अपना इरादा कभी बदल न सका
हरम की राह में आए हज़ार बुत-ख़ाने
इतने नज़दीक से आईने को देखा न करो / अज़ीज़ वारसी
इतने नज़दीक से आईने को देखा न करो
रुख़-ए-ज़ेबा की लताफ़त को बढ़ाया न करो
दर्द ओ आज़ार का तुम मेरे मुदावा न करो
रहने दो अपनी मसीहाई का दावा न करो
हुस्न के सामने इज़हार-ए-तमन्ना न करो
इश्क़ इक राज़ है इस राज़ को इफ़्शा न करो
अपनी महफ़िल में मुझे ग़ौर से देखा न करो
मैं तमाशा हूँ मगर तुम तो तमाशा न करो
सारी दुनिया तुम्हें कह देगी तुम्हीं हो क़ातिल
देखो मुझ को ग़लत अंदाज़ से देखा न करो
कैसे मुमकिन है कि हम दोनों बिछड़ जाएँगे
इतनी गहराई से हर बात को सोचा न करो
तुम पे इल्ज़ाम न आ जाए सफ़र में कोई
रास्ता कितना ही दुश्वार हो ठहरा न करो
वो कोई शाख़ हो मिज़राब हो या दिल हो 'अज़ीज़'
टूटने वाली किसी शय का भरोसा न करो
उस ने मिरे मरने के लिए आज दुआ की / अज़ीज़ वारसी
उस ने मिरे मरने के लिए आज दुआ की
या रब कहीं निय्यत न बदल जाए क़ज़ा की
आँखों में है जादू तिरी ज़ुल्फ़ों में है ख़ुश्बू
अब मुझ को ज़रूरत न दवा की न दुआ की
इक मुर्शिद-ए-बर-हक़ से है देरीना तअ'ल्लुक़
परवाह नहीं मुझ को सज़ा की न जज़ा की
दोनों ही बराबर हैं रह-ए-इश्क़-ओ-वफ़ा में
जब तुम ने वफ़ा की है तो हम ने भी वफ़ा की
ग़ैरों को ये शिकवा है कि पीता है शब-ओ-रोज़
मय-ख़ाने का मुख़्तार तो अब तक नहीं शाकी
ये भी है यक़ीं मुझ को सज़ा वो नहीं देंगे
ये और भी है तस्लीम कि हाँ मैं ने ख़ता की
इस दौर के इंसाँ को ख़ुदा भूल गया है
तुम पर तो 'अज़ीज़' आज भी रहमत है ख़ुदा की
जहाँ में हम जिसे भी प्यार के क़ाबिल समझते हैं / अज़ीज़ वारसी
जहाँ में हम जिसे भी प्यार के क़ाबिल समझते हैं
हक़ीक़त में उसी को ज़ीस्त का हासिल समझते हैं
मिला करता है दस्त-ए-ग़ैब से मख़्सूस बंदों को
किसी के दर्द को हम काएनात-ए-दिल समझते हैं
जिन्हें शौक़-ए-तलब ने क़ुव्वत-ए-बाज़ू अता की है
तलातुम-ख़ेज़ तुग़्यानी को वो साहिल समझते हैं
सितम ऐसे किए तमसील जिन की मिल नहीं सकती
मगर वो इस जफ़ा को अव्वलीं मंज़िल समझते हैं
मोहब्बत लफ़्ज़ तो सादा सा है लेकिन 'अज़ीज़' इस को
मता-ए-दिल समझते थे मता-ए-दिल समझते हैं
शीशा लब से जुदा नहीं होता / अज़ीज़ वारसी
शीशा लब से जुदा नहीं होता
नश्शा फिर भी सिवा नहीं होता
दर्द-ए-दिल जब सिवा नहीं होता
इश्क़ में कुछ मज़ा नहीं होता
हर नज़र सुर्मगीं तो होती है
हर हसीं दिलरुबा नहीं होता
हाँ ये दुनिया बुरा बनाती है
वर्ना इंसाँ बुरा नहीं होता
अस्र-ए-हाज़िर है जब क़यामत-ख़ेज़
हश्र फिर क्यूँ बपा नहीं होता
पारसा रिंद हो तो सकता है
रिंद क्यूँ पारसा नहीं होता
शेर के फ़न में और बयाँ में 'अज़ीज़'
'मोमिन' अब दूसरा नहीं होता
तिरी महफ़िल में फ़र्क़-ए-कुफ़्र-ओ-ईमाँ कौन देखेगा / अज़ीज़ वारसी
तिरी महफ़िल में फ़र्क़-ए-कुफ़्र-ओ-ईमाँ कौन देखेगा
फ़साना ही नहीं कोई तो उनवाँ कौन देखेगा
यहाँ तो एक लैला के न जाने कितने मजनूँ हैं
यहाँ अपना गरेबाँ अपना दामाँ कौन देखेगा
बहुत निकले हैं लेकिन फिर भी कुछ अरमान हैं दिल में
ब-जुज़ तेरे मिरा ये सोज़-ए-पिन्हाँ कौन देखेगा
अगर पर्दे की जुम्बिश से लरज़ता है तो फिर ऐ दिल
तजल्ली-ए-जमाल-ए-रू-ए-जानाँ कौन देखेगा
अगर हम से ख़फ़ा होना है तो हो जाइए हज़रत
हमारे बा'द फिर अंदाज़-ए-यज़्दाँ कौन देखेगा
मुझे पी कर बहकने में बहुत ही लुत्फ़ आता है
न तुम देखोगे तो फिर मुझ को फ़रहाँ कौन देखेगा
जिसे कहता है इक आलम 'अज़ीज़'-ए-वारिस-ए-आलम
उसे आलम में हैरान-ओ-परेशाँ कौन देखेगा
यहाँ से अब कहीं ले चल ख़याल-ए-यार मुझे / अज़ीज़ वारसी
यहाँ से अब कहीं ले चल ख़याल-ए-यार मुझे
चमन में रास न आएगी ये बहार मुझे
तिरी लतीफ़ निगाहों की ख़ास जुम्बिश ने
बना दिया तिरी फ़ितरत का राज़दार मुझे
मिरी हयात का अंजाम और कुछ होता
जो आप कहते कभी अपना जाँ-निसार मुझे
बदल दिया है निगाहों से रुख़ ज़माने का
कभी रहा है ज़माने पे इख़्तियार मुझे
मैं जब चला हूँ ब-ईं ज़ौक़-ए-बंदगी ऐ दोस्त
क़दम क़दम पे मिले आस्ताँ हज़ार मुझे
ये हादसात जो हैं इज़्तिराब का पैग़ाम
ये हादसात ही आएँगे साज़गार मुझे
'अज़ीज़' अहल-ए-चमन की शिकायतें बे-सूद
फ़रेब दे गई रंगीनी-ए-बहार मुझे |
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