Akbar Hyderabadi Ghazal / अकबर हैदराबादी की ग़ज़लें
ग़ज़लें अकबर हैदराबादी की
आँख में आँसू का अकबर हैदराबादी ग़ज़ल
आँख में आँसू का और दिल में लहू का काल है
है तमन्ना का वही जो ज़िंदगी का हाल है
यूँ धुआँ देने लगा है जिस्म ओ जाँ का अलाओ
जैसे रग रग में रवाँ इक आतिश-ए-सय्याल है
फैलते जाते हैं दाम-ए-नारसी के दाएरे
तेरे मेरे दरमियाँ किन हादसों का जाल है
घिर गई है दो ज़मानों की कशाकश में हयात
इक तरफ ज़ंजीर-ए-माज़ी एक जानिब हाल है
हिज्र की राहों से 'अकबर' मंज़िल-ए-दीदार तक
यूँ है जैसे दरमियाँ इक रौशनी का साल है.
बदन से रिश्ता-ए-जाँ अकबर हैदराबादी ग़ज़ल
बदन से रिश्ता-ए-जाँ मोतबर न था मेरा
मैं जिस में रहता था शायद वो घर न था मेरा
क़रीब ही से वो गुज़रा मगर ख़बर न हुई
दिल इस तरह तो कभी बे-ख़बर न था मेरा
मैं मिस्ल-ए-सब्ज़ा-ए-बेगाना जिस चमन में रहा
वहाँ के गुल न थे मेरे समर न था मेरा
न रौशनी न हरारत ही दे सका मुझ को
पराई आग में कोई शरर न था मेरा
ज़मीन को रू-कश-ए-अफ़लाक कर दिया जिस ने
हुनर था किस का अगर वो हुनर न था मेरा
कुछ और था मेरी तश्कील ओ इर्तिक़ा का सबब
मदार सिर्फ़ हवाओं पे गर न था मेरा
जो धूप दे गया मुझ को वो मेरा सूरज था
जो छाँव दे न सका वो शजर न था मेरा
नहीं के मुझ से मेरे दिल ने बे-वफ़ाई की
लहू से रब्त ही कुछ मोतबर न था मेरा
पहुँच के जो सर-ए-मंज़िल बिछड़ गया मुझ से
वो हम-सफ़र था मगर हम-नज़र न था मेरा
इक आने वाले का मैं मुंतज़िर तो था 'अकबर'
हर आने वाला मगर मुंतज़िर न था मेरा.
Ghazals of Akbar Hyderabadi
बस इक तसलसुल अकबर हैदराबादी ग़ज़ल
बस इक तसलसुल-ए-तकरार-ए-क़ुर्ब-ओ-दूरी था
विसाल ओ हिज्र का हर मरहला उबूरी था
मेरी शिकस्त भी थी मेरी ज़ात से मंसूब
के मेरी फ़िक्र का हर फ़ैसला शुऊरी था
थी जीती जागती दुनिया मेरी मोहब्बत की
न ख़्वाब का सा वो आलम के ला-शुऊरी था
तअल्लुक़ात में ऐसा भी एक मोड़ आया
के क़ुर्बतों पे भी दिल को गुमान-ए-दूरी था
रिवायतों से किनारा-कशी भी लाज़िम थी
और एहतिराम-ए-रिवायात भी ज़रूरी था
मशीनी दौर के आज़ार से हुआ साबित
के आदमी का मलाल आदमी से दूरी था
खुला है कब कोई जौहर हिजाब में 'अकबर'
गुहर के बाब में तर्क-ए-सदफ़ ज़रूरी था.
दिल दबा जाता है कितना अकबर हैदराबादी ग़ज़ल
दिल दबा जाता है कितना आज ग़म के बार से
कैसी तंहाई टपकती है दर ओ दीवार से
मंज़िल-ए-इक़रार अपनी आख़िरी मंज़िल है अब
हम के आए हैं गुज़र कर जादा-ए-इंकार से
तर्जुमाँ था अक्स अपने चेहरा-ए-गुम-गश्ता का
इक सदा आती रही आईना-ए-असरार से
माँद पड़ते जा रहे थे ख़्वाब-तस्वीरों के रंग
रात उतरती जा रही थी दर्द की दीवार से
मैं भी 'अकबर' कर्ब-आगीं जानता हूँ ज़ीस्त को
मुंसलिक है फ़िक्र मेरी फ़िक्र-ए-शोपनहॉर से.
दूर तक बस इक धुंदलका अकबर हैदराबादी ग़ज़ल
दूर तक बस इक धुंदलका गर्द-ए-तंहाई का था
रास्तों को रंज मेरी आबला-पाई का था
फ़स्ल-ए-गुल रुख़्सत हुई तो वहशतें भी मिट गईं
हट गया साया जो इक आसेब-ए-सहराई का था
तोड़ ही डाला समंदर ने तिलिस्म-ए-ख़ुद-सरी
ज़ोम क्या क्या साहिलों को अपनी पहनाई का था
और मुबहम हो गया पैहम मुलाक़ातों के साथ
वो जो इक मौहूम सा रिश्ता शनासाई का था
ख़ाक बन कर पत्तियाँ मौज-ए-हवा से जा मिलीं
देर से 'अकबर' गुलों पर क़र्ज़ पुरवाई का था.
फ़ित्ने अजब तरह के अकबर हैदराबादी ग़ज़ल
फ़ित्ने अजब तरह के समन-ज़ार से उठे
सारे परिंद शाख़-ए-समर-दार से उठे
दीवार ने क़ुबूल किया सैल-ए-नूर को
साए तमाम-तर पस-ए-दीवार से उठे
जिन की नुमू में थी न मुआविन हवा कोई
ऐसे भी गुल ज़मीन-ए-ख़ास-ओ-ख़ार से उठे
तस्लीम की सरिश्त बस ईजाब ओ क़ुबूल
सारे सवाल जुरअत-ए-इंकार से उठे
शहर-ए-तअल्लुक़ात में उडती है जिन से ख़ाक
फित्ने वो सब रऊनत-ए-पिंदार से उठे
आँखों को देखने का सलीक़ा जब आ गया
कितने नक़ाब चेहरा-ए-असरार से उठे
तस्वीर-ए-गर्द बन गया 'अकबर' चमन तमाम
कैसे ग़ुबार वादी-ए-कोहसार से उठे.
घुटन अज़ाब-ए-बदन की अकबर हैदराबादी ग़ज़ल
घुटन अज़ाब-ए-बदन की न मेरी जान में ला
बदल के घर मेरा मुझ को मेरे मकान में ला
मेरी इकाई को इज़हार का वसीला दे
मेरी नज़र को मेरे दिल को इम्तिहान में ला
सख़ी है वो तो सख़ावत की लाज रख लेगा
सवाल अर्ज़-ए-तलब का न दरमियान में ला
दिल-ए-वजूद को जो चीर कर गुज़र जाए
इक ऐसा तीर तू अपनी कड़ी कमान में ला
है वो तो हद्द-ए-गिरफ़्त-ए-ख़याल से भी परे
ये सोच कर ही ख़याल उस का अपने ध्यान में ला
बदन तमाम उसी की सदा से गूँज उठे
तलातुम ऐसा कोई आज मेरी जान में ला
चराग़-ए-राह-गुज़र लाख ताब-नाक सही
जला के अपना दिया रौशनी मकान में ला
ब-रंग-ए-ख़्वाब सही सारी काइनात 'अकबर'
वजूद-ए-कुल को न अंदेशा-ए-गुमान में ला.
हाँ यही शहर मेरे ख़्वाबों अकबर हैदराबादी ग़ज़ल
हाँ यही शहर मेरे ख़्वाबों का गहवारा था
इन्ही गलियों में कहीं मेरा सनम-ख़ाना था
इसी धरती पे थे आबाद समन-ज़ार मेरे
इसी बस्ती में मेरी रूह का सरमाया था
थी यही आब ओ हवा नश-ओ-नुमा की ज़ामिन
इसी मिट्टी से मेरे फ़न का ख़मीर उट्ठा था
अब न दीवारों से निस्बत है न बाम ओ दर से
क्या इसी घर से कभी मेरा कोई रिश्ता था
ज़ख़्म यादों के सुलगते हैं मेरी आँखों में
ख़्वाब इन आँखों ने क्या जानिए क्या देखा था
मेहर-बाँ रात के साए थे मुनव्वर ऐसे
अश्क आँखों में लिए दिल ये सरासीमा था
अजनबी लगते थे सब कूचा ओ बाज़ार 'अकबर'
ग़ौर से देखा तो वो शहर मेरा अपना था.
जब सुब्ह की दहलीज़ पे अकबर हैदराबादी ग़ज़ल
जब सुब्ह की दहलीज़ पे बाज़ार लगेगा
हर मंज़र-ए-शब ख़्वाब की दीवार लगेगा
पल भर में बिखर जाएँगे यादों के ज़ख़ीरे
जब ज़ेहन पे इक संग-ए-गिराँ-बार लगेगा
गूँधे हैं नई शब ने सितारों के नए हार
कब घर मेरा आईना-ए-अनवार लगेगा
गर सैल-ए-ख़ुराफ़ात में बह जाएँ ये आँखें
हर हर्फ़-ए-यक़ीं कलमा-ए-इंकार लगेगा
हालात न बदले तो तमन्ना की ज़मीं पर
टूटी हुई उम्मीदों का अंबार लगेगा
खिलते रहे गर फूल लहू में यूँही 'अकबर'
हर फ़स्ल में दिल अपना समन-ज़ार लगेगा.
जिन पे अजल तारी थी अकबर हैदराबादी ग़ज़ल
जिन पे अजल तारी थी उन को ज़िंदा करता है
सूरज जल कर कितने दिलों को ठंडा करता है
कितने शहर उजड़ जाते हैं कितने जल जाते हैं
और चुप-चाप ज़माना सब कुछ देखा करता है
मजबूरों की बात अलग है उन पर क्या इल्ज़ाम
जिस को नहीं कोई मजबूरी वो क्या करता है
हिम्मत वाले पल में बदल देते हैं दुनिया को
सोचने वाला दिल तो बैठा सोचा करता है
जिस बस्ती में नफ़सा-नफ़सी का क़ानून चले
उस बस्ती में कौन किसी की परवा करता है
प्यार भारी आवाज़ की लय में मद्धम लहजे में
तंहाई में कोई मुझ से बोला करता है
उस इक शम्मा-ए-फ़रोज़ाँ के हैं और भी परवाने
चाँद अकेला कब सूरज का हल्क़ा करता है
रूह बरहना नफ़्स बरहना ज़ात बरहना जिस की
जिस्म पे वो क्या क्या पोशाकें पहना करता है
अश्कों के सैलाब-ए-रवाँ को 'अकबर' मत रोको
बह जाए तो बूझ ये दिल का हल्का करता है.
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