अज़ीज़ लखनवी शेर और ग़ज़लें Aziz Lakhnavi Sher Shayari Ghazal
Aziz Lakhnavi |
शेर-1 / अज़ीज़ लखनवी Aziz Lakhnavi Sher Shayari
(1)
हिफाजत करने वाले खिरमनों1 के मुतमईन2 बैठें,
तजल्ली3 बर्क4 की महदूद5 मेरे आशियाँ तक है।
(2)
सुरूरे-शब6 की नहीं सुबह का खुमार7 हूँ मैं,
निकल चुकी है जो गुलशन से वह बहार हूँ मैं।
(3)
सितम है लाश पर उस बेवफा का यह कहना,
कि आने का भी न किसी ने इन्तिजार किया।
(4)
भला जब्त की भी कोई इन्तिहा है,
कहाँ तक तबिअत को अपनी संभाले।
(5)
विसाले-दायमी8 क्या है, शबे-फुर्कत9 में मर जाना,
कजा10 क्या है, दिली जज्बात11 का हद से गुजर जाना।
1.खिरमन - खलियान, भूसा निकाला हुआ या भूसा मिला हुआ अन्न का ढेर जो खलियान में रखा होता है 2. मुतमईन - (i) बेफिक्र, निश्चिन्त (ii) संतुष्ट, (iii) आनन्दपूर्वक, खुशहाल 3. तजल्ली - (i) रौशनी, प्रकाश, नूर (ii) तेज, प्रताप, जलाल 4. बर्क - (i) बिजली, चपला, तड़ित (ii) विद्युत, प्रयोग में आने वाली बिजली,
5. महदूद - सीमित 6.सुरूरे-शब- रात का चढ़ता हुआ नशा
7. खुमार - सुबह का उतरता हुआ नशा। 8.विसाले-दायमी - न खत्म होने वाला मिलन 9.शबे-फुर्कत - विरह की रात 10.कजा - मौत 11.जज्बात - भावना
शेर-2 / अज़ीज़ लखनवी Aziz Lakhnavi Sher Shayari
(1)
इतना तो सोच जालिम जौरो-जफा1 से पहले,
यह रस्म दोस्ती की दुनिया से उठ जायेगी।
(2)
उनको सोते हुए देखा था दमे-सुबह2 कभी,
क्या बताऊं जो इन आंखों ने समां देखा था।
(3)
एक मजबूर की तमन्ना क्या,
रोज जीती है, रोज मरती है।
(4)
कफन बांधे हुए सर से आये हैं वर्ना,
हम और आप से इस तरह गुफ्तगू करते।
(5)
जवाब हजरते3-नासेह4 को हम भी कुछ देते
जो गुफ्तगू के तरीके से गुफ्तगू करते।
1.जौरो-जफा - अत्याचार, अन्याय, जुल्मो-सितम 2. दमे-सुबह - सुबह के वक्त 3. हजरत - किसी बड़े व्यक्ति के नाम से पहले सम्मानार्थ लगाया जाने वाला शब्द 4. नासेह - नसीहत करने वाला, सदुपदेशक
शेर-3 / अज़ीज़ लखनवी Aziz Lakhnavi Sher Shayari
(1)
कफस1 में जी नहीं लगता है, आह फिर भी मेरा,
यह जानता हूँ कि तिनका भी आशियाँ में नहीं।
(2)
खुदा का काम है यूँ तो मरीजों को शिफा2 देना,
मुनासिब हो तो इक दिन हाथों से अपने दवा देना।
(3)
झूठे वादों पर थी अपनी जिन्दगी,
अब तो यह भी आसरा जाता रहा।
(4)
जवाब हजरते-3नासेह को हम भी कुछ देते
जो गुफ्तगू के तरीके से गुफ्तगू करते।
1.कफस - पिंजरा, कारागार। 2.शिफा - रोगमुक्ति 3. हजरत - किसी बड़े व्यक्ति के नाम से पहले सम्मानार्थ लगाया जाने वाला शब्द
जल्वा दिखलाए जो वो अपनी ख़ुद-आराई का
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी ग़ज़ल Aziz Lakhnavi Ghazal
जल्वा दिखलाए जो वो अपनी ख़ुद-आराई का
नूर जल जाए अभी चश्म-ए-तमाशाई का
रंग हर फूल में है हुस्न-ए-ख़ुद-आराई का
चमन-ए-दहर है महज़र तिरी यकताई का
अपने मरकज़ की तरफ़ माइल-ए-परवाज़ था हुस्न
भूलता ही नहीं आलम तिरी अंगड़ाई का
उफ़ तिरे हुस्न-ए-जहाँ-सोज़ की पुर-ज़ोर कशिश
नूर सब खेंच लिया चश्म-ए-तमाशाई का
देख कर नज़म-ए-दो-आलम हमें कहना ही पड़ा
ये सलीक़ा है कसे अंजुमन-आराई का
कल जो गुलज़ार में हैं गोश-बर-आवाज़ 'अज़ीज़'
मुझ से बुलबुल ने लिया तर्ज़ ये शेवाई का
हिज्र की रात याद आती है
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी ग़ज़ल Aziz Lakhnavi Ghazal
हिज्र की रात याद आती है
फिर वही बात याद आती है
तुम ने छेड़ा तो कुछ खुले हम भी
बात पर बात याद आती है
तुम थे और हम थे चाँद निकला था
हाए वो रात याद आती है
सुब्ह के वक़्त ज़र्रे ज़र्रे की
वो मुनाजात याद आती है
हाए क्या चीज़ थी जवानी भी
अब तो दिन-रात याद आती है
मय से तौबा तो की 'अज़ीज़' मगर
अक्सर औक़ात याद आती है
बेकार ये ग़ुस्सा है क्यूँ उस की तरफ़ देखो
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी ग़ज़ल Aziz Lakhnavi Ghazal
बेकार ये ग़ुस्सा है क्यूँ उस की तरफ़ देखो
आईने की हस्ती क्या तुम अपनी तरफ़ देखो
महदूद है नज़्ज़ारा जब हैं यही दो-आलम
या अपनी तरफ़ देखो या मेरी तरफ़ देखो
मिलने से निगाहों के क्या फ़ाएदा होता है
ये बात मैं समझा दूँ तुम मेरी तरफ़ देखो
मुँह फेर लिया सब ने बीमार को जब देखा
देखा नहीं जाता वो तुम जिस की तरफ़ देखो
मंज़ूर 'अज़ीज़' उस का इरफ़ान जो है तुम को
देखो न किसी जानिब अपनी ही तरफ़ देखो
इस वहम की इंतिहा नहीं है
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी ग़ज़ल Aziz Lakhnavi Ghazal
इस वहम की इंतिहा नहीं है
सब कुछ है मगर ख़ुदा नहीं है
क्या इस का सुराग़ कोई पाए
जिस चीज़ की इब्तिदा नहीं है
खुलता ही नहीं फ़रेब-ए-हस्ती
कुछ भी नहीं और क्या नहीं है
इस तरह सितम वो कर रहे हैं
जैसे मेरा ख़ुदा नहीं है
तुम ख़ुश हो तो है मुझे नदामत
हर-चंद मिरी ख़ता नहीं है
देखो तो निगाह-ए-वापसीं को
इस एक नज़र में क्या नहीं है
दुनिया का भरम न खोल ऐ आह
ये राज़ अभी खुला नहीं है
हर ज़र्रा है शाहिद-ए-तजल्ली
इस हुस्न की इंतिहा नहीं है
सरगर्म-ए-तलाश रहने वाले
तेरा भी कहीं पता नहीं है
उमडा है जो दिल 'अज़ीज़' रो लो
आँसू कोई रोकता नहीं है
जाम ख़ाली जहाँ नज़र आया
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी ग़ज़ल Aziz Lakhnavi Ghazal
जाम ख़ाली जहाँ नज़र आया
मेरी आँखों में ख़ूँ उतर आया
वो बहुत कम किसी ने देखा है
मुझ को जो कुछ यहाँ नज़र आया
झुक गए आसमान सज्दे में
कौन ये अपने बाम पर आया
काँप उठा चर्ख़ हिल गई दुनिया
वो जहाँ अपनी बात पर आया
उस ने पूछा मिज़ाज कैसा है
दिल जो उमडा हुआ था भर आया
जब कभी उस ने की नज़र मुझ पर
एक छाला नया उभर आया
तेरी जानिब से होशियार गया
अपनी जानिब से बे-ख़बर आया
जब किया क़स्द-ए-ज़ब्त-ए-आह 'अज़ीज़'
दिल में छाला सा इक उभर आया
काश सुनते वो पुर-असर बातें
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी ग़ज़ल Aziz Lakhnavi Ghazal
काश सुनते वो पुर-असर बातें
दिल से जो की थीं उम्र-भर बातें
बे-सबब तेरे लब नहीं ख़ामोश
कर रही है तिरी नज़र बातें
कोई समझाए आ के नासेह को
सुन सके कौन इस क़दर बातें
उस के अफ़्साने बन गए लाखों
मैं ने जो की थीं उम्र-भर बातें
दम उलट जाएगा 'अज़ीज़' 'अज़ीज़'
रह न ख़ामोश कुछ तो कर बातें
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