ये इनायतें ग़ज़ब की ये बला की मेहरबानी / नज़ीर बनारसी
ये इनायतें ग़ज़ब की ये बला की मेहरबानी
मेरी ख़ैरियत भी पूछी किसी और की ज़बानी
नहीं मुझ से जब तअल्लुक़ तो ख़फ़ा ख़फ़ा से क्यूँ हैं
नहीं जब मिरी मोहब्बत तो ये कैसी बद-गुमानी
मिरा ग़म रुला चुका है तुझे बिखरी ज़ुल्फ़ वाले
ये घटा बता रही है कि बरस चुका है पानी
तिरा हुस्न सो रहा था मिरी छेड़ ने जगाया
वो निगाह मैं ने डाली कि सँवर गई जवानी
मिरी बे-ज़बान आँखों से गिरे हैं चंद क़तरे
वो समझ सकें तो आँसू न समझ सकें तो पानी
है अगर हसीं बनाना तुझे अपनी ज़िंदगी को
तो 'नज़ीर' इस जहाँ को न समझ जहान-ए-फ़ानी
हम उन के दर पे न जाते तो और क्या करते / नज़ीर बनारसी
हम उन के दर पे न जाते तो और क्या करते
उन्हें ख़ुदा न बनाते तो और क्या करते
बग़ैर इश्क़ अँधेरे में थी तिरी दुनिया
चराग़-ए-दिल न जलाते तो और क्या करते
हमें तो उस लब-ए-नाज़ुक को देनी थी ज़हमत
अगर न बात बढ़ाते तो और क्या करते
ख़ता कोई नहीं पीछा किए हुए दुनिया
जो मय-कदे में न जाते तो और क्या करते
अंधेरा माँगने आया था रौशनी की भीक
हम अपना घर न जलाते तो और क्या करते
किसी से बात जो की है तो वो ख़फ़ा हैं 'नज़ीर'
किसी को दोस्त बनाते तो और क्या करते
ये करें और वो करें ऐसा करें वैसा करें / नज़ीर बनारसी
ये करें और वो करें ऐसा करें वैसा करें
ज़िंदगी दो दिन की है दो दिन में हम क्या क्या करें
दूसरों से कब तलक हम प्यास का शिकवा करें
लाओ तेशा एक दरिया दूसरा पैदा करें
हुस्न ख़ुद आए तवाफ़-ए-इश्क़ करने के लिए
इश्क़ वाले ज़िंदगी में हुस्न तो पैदा करें
चढ़ के सूली पर ख़रीदेंगे ख़रीदार आप को
आप अपने हुस्न का बाज़ार तो ऊँचा करें
जी में आता है कि दें पर्दे से पर्दे का जवाब
हम से वो पर्दा करें दुनिया से हम पर्दा करें
सुन रहा हूँ कुछ लुटेरे आ गए हैं शहर में
आप जल्दी बंद अपने घर का दरवाज़ा करें
कीजिएगा रहज़नी कब तक ब-नाम-ए-रहबरी
अब से बेहतर आप कोई दूसरा धंदा करें
इस पुरानी बेवफ़ा दुनिया का रोना कब तलक
आइए मिल-जुल के इक दुनिया नई पैदा करें
दिल हमें तड़पाए तो कैसे न हम तड़पें 'नज़ीर'
दूसरे के बस में रह कर अपनी वाली क्या करें
हुए मुझ से जिस घड़ी तुम जुदा तुम्हें याद हो कि न याद हो / नज़ीर बनारसी
हुए मुझ से जिस घड़ी तुम जुदा तुम्हें याद हो कि न याद हो
मिरी हर नज़र थी इक इल्तिजा तुम्हें याद हो कि न याद हो
वो तुम्हारा कहना कि जाएँगे अगर आ सके तो फिर आएँगे
उसे इक ज़माना गुज़र गया तुम्हें याद हो कि न याद हो
मिरी बे-क़रारियाँ देख कर मुझे तुम ने दी थीं तसल्लियाँ
मिरा चेहरा फिर भी उदास था तुम्हें याद हो कि न याद हो
मिरी बेबसी ने ज़बान तक जिसे ला के तुम को रुला दिया
मिरे टूटे साज़ की वो सदा तुम्हें याद हो कि न याद हो
तुम्हें चंद क़तरा-ए-अश्क भी किए पेश जिस के जवाब में
वो सलाम नीची निगाह का तुम्हें याद हो कि न याद हो
मिरे शाने पर यही ज़ुल्फ़ थी जो है आज मुझ से खिंची खिंची
मिरे हाथ में यही हाथ था तुम्हें याद हो कि न याद हो
कभी हाथ में जो शराब ली वहीं तुम ने छीन के फेंक दी
मुझे याद है मिरे पारसा तुम्हें याद हो कि न याद हो
कहीं तुम को जाना हुआ अगर न गए बग़ैर 'नज़ीर' के
वो ज़माना अपने 'नज़ीर' का तुम्हें याद हो कि न याद हो
बद-गुमानी को बढ़ा कर तुम ने ये क्या कर दिया / नज़ीर बनारसी
बद-गुमानी को बढ़ा कर तुम ने ये क्या कर दिया
ख़ुद भी तन्हा हो गए मुझ को भी तन्हा कर दिया
ज़िंदा रखने के लिए रक्खा है अच्छा सिलसिला
इक मिटाया दूसरा अरमान पैदा कर दिया
आप समझाने भी आए क़िबला-ओ-काबा तो कब
इश्क़ ने जब बे-नियाज़-ए-दीन-ओ-दुनिया कर दिया
बंदगान-ए-दौर-ए-हाज़िर की ख़ुदाई देखिए
जिस जगह जिस वक़्त चाहा हश्र बरपा कर दिया
कल की कल है कल जब आएगा तो समझा जाएगा
आज तो साक़ी ने दिल का बोझ हल्का कर दिया
मोहतरम पी लीजिए मौसम ने मौक़ा दे दिया
देखिए काली घटा ने उठ के पर्दा कर दिया
वो घर आए थे 'नज़ीर' ऐसे में कुछ कहना न था
शुक्र का मौक़ा था प्यारे तू ने शिकवा कर दिया
सुना है कि उन से मुलाक़ात होगी / नज़ीर बनारसी
सुना है कि उन से मुलाक़ात होगी
अगर हो गई तो बड़ी बात होगी
निगाहों से शरह-ए-हिकायात होगी
ज़बाँ चुप रहेगी मगर बात होगी
मिरे अश्क जिस शब के दामन में होंगे
यक़ीनन वो तारों भरी रात होगी
समझती है शाम ओ सहर जिस को दुनिया
तिरे ज़ुल्फ़ ओ आरिज़ की ख़ैरात होगी
न सावन ही बरसा न भादों ही बरसा
बहुत शोर सुनते थे बरसात होगी
मोहब्बत बहुत बे-मज़ा होगी जिस दिन
ज़बाँ बे-नियाज़-ए-शिकायात होगी
वहाँ क़ल्ब की रौशनी साथ देगी
जहाँ दिन न होगा फ़क़त रात होगी
'नज़ीर' आओ रो लें गले मिल के हम तुम
ख़ुदा जाने फिर कब मुलाक़ात होगी
एक दीवाने को आज आए हैं समझाने कई / नज़ीर बनारसी
एक दीवाने को आज आए हैं समझाने कई
पहले मैं दीवाना था और अब हैं दीवाने कई
अक़्ल बढ़ कर बन गई थी दर्द-ए-सर जाते कहाँ
आ गए दीवानगी की हद में फ़रज़ाने कई
सारी दुनिया आ रही है देखने के वास्ते
सर-फिरों ने एक कर डाले हैं वीराने कई
क्या हमारे दौर के कुछ पीने वाले उठ गए
आज ख़ाली क्यों नज़र आते हैं पैमाने कई
मुझ को चुप रहना पड़ा सिर्फ़ आप का मुँह देख कर
वर्ना महफ़िल में थे मेरे जाने पहचाने कई
किस तरह वो दिन भुलाऊँ जिस बुरे दिन का शरीक
एक भी अपना नहीं था और बेगाने कई
मैं वो काशी का मुसलमाँ हूँ कि जिस को ऐ 'नज़ीर'
अपने घेरे में लिए रहते हैं बुत-ख़ाने कई
हैं यूँ मस्त आँखों में डोरे गुलाबी / नज़ीर बनारसी
हैं यूँ मस्त आँखों में डोरे गुलाबी
शराबी के पहलू में जैसे शराबी
वो आँखें गुलाबी और ऐसी गुलाबी
कि जिस रुत को देखें बना दें शराबी
बदलता है हर दौर के साथ साक़ी
ये दुनिया है कितनी बड़ी इंक़िलाबी
जवानी में इस तरह मिलती हैं नज़रें
शराबी से मिलता है जैसे शराबी
निचोड़ो कोई बढ़ के दामन शफ़क़ का
फ़लक पर ये किस ने गिरा दी गुलाबी
घनी मस्त पलकों के साए में नज़रें
बहकते हुए मय-कदों में शराबी
ज़रा मुझ से बचते रहो पारसाओ
कहीं तुम को छू ले न मेरी ख़राबी
'नज़ीर' अपनी दुनिया तो अब तक यही है
शराब आफ़्ताबी फ़ज़ा माहताबी
इक रात में सौ बार जला और बुझा हूँ / नज़ीर बनारसी
इक रात में सौ बार जला और बुझा हूँ
मुफ़्लिस का दिया हूँ मगर आँधी से लड़ा हूँ
जो कहना हो कहिए कि अभी जाग रहा हूँ
सोऊँगा तो सो जाऊँगा दिन भर का थका हूँ
क़िंदील समझ कर कोई सर काट न ले आए
ताजिर हूँ उजाले का अँधेरे में खड़ा हूँ
सब एक नज़र फेंक के बढ़ जाते हैं आगे
मैं वक़्त के शो-केस में चुप-चाप खड़ा हूँ
वो आइना हूँ जो कभी कमरे में सजा था
अब गिर के जो टूटा हूँ तो रस्ते में पड़ा हूँ
दुनिया का कोई हादसा ख़ाली नहीं मुझ से
मैं ख़ाक हूँ मैं आग हूँ पानी हूँ हवा हूँ
मिल जाऊँगा दरिया में तो हो जाऊँगा दरिया
सिर्फ़ इस लिए क़तरा हूँ कि दरिया से जुदा हूँ
हर दौर ने बख़्शी मुझे मेराज-ए-मोहब्बत
नेज़े पे चढ़ा हूँ कभी सूली पे चढ़ा हूँ
दुनिया से निराली है 'नज़ीर' अपनी कहानी
अँगारों से बच निकला हूँ फूलों से जला हूँ
एक झोंका इस तरह ज़ंजीर-ए-दर खड़का गया / नज़ीर बनारसी
एक झोंका इस तरह ज़ंजीर-ए-दर खड़का गया
मैं ये समझा भूलने वाले को मैं याद आ गया
उम्र भर की बात बिगड़ी इक ज़रा सी बात में
एक लम्हा ज़िंदगी भर की कमाई खा गया
ऐ ज़मीं तुझ को मोहब्बत से बसाने के लिए
आसमानों की बुलंदी से मुझे फेंका गया
इंक़िलाब-ए-दहर बर-हक़ लेकिन ऐसा इंक़लाब
वो कहीं पाए गए और मैं कहीं पाया गया
आईना दिखलाने आए थे परेशानी के दिन
था मिरा चेहरा मगर मुझ से न पहचाना गया
आप ने अपनी ज़बाँ से जिस को अपना कह दिया
वो दिवाना हर जगह खोया हुआ पाया गया
ख़ैरियत क्या पूछते हो गेसू-ए-हालात की
वक़्त ही उलझा गया था वक़्त ही सुलझा गया
उस तरफ़ जाते हुए अब दिल दहलता है 'नज़ीर'
ज़िंदगी में जिस तरफ़ से बार-हा आया गया |
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