अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा की ग़ज़लें / Aziz Bano Darab Wafa Ghazals
कभी गोकुल कभी राधा कभी मोहन बन के/ अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा
कभी गोकुल कभी राधा कभी मोहन बन के
मैं ख़यालों में भटकती रही जोगन बन के
हर जनम में मुझे यादों के खिलौने दे के
वो बिछड़ता रहा मुझ से मिरा बचपन बन के
मेरे अंदर कोई तकता रहा रस्ता उस का
मैं हमेशा के लिए रह गई चिलमन बन के
ज़िंदगी भर मैं खुली छत पे खड़ी भीगा की
सिर्फ़ इक लम्हा बरसता रहा सावन बन के
मेरी उम्मीदों से लिपटे रहे अंदेशों के साँप
उम्र हर दौर में कटती रही चंदन बन के
इस तरह मेरी कहानी से धुआँ उठता है
जैसे सुलगे कोई हर लफ़्ज़ में ईंधन बन के
अपनी बीती हुई रंगीन जवानी देगा / अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा
अपनी बीती हुई रंगीन जवानी देगा
मुझ को तस्वीर भी देगा तो पुरानी देगा
छोड़ जाएगा मिरे जिस्म में बिखरा के मुझे
वक़्त-ए-रुख़्सत भी वो इक शाम सुहानी देगा
उम्र भर मैं कोई जादू की छड़ी ढूँडूँगी
मेरी हर रात को परियों की कहानी देगा
हम-सफ़र मील का पत्थर नज़र आएगा कोई
फ़ासला फिर मुझे उस शख़्स का सानी देगा
मेरे माथे की लकीरों में इज़ाफ़ा कर के
वो भी माज़ी की तरह अपनी निशानी देगा
मैं ने ये सोच के बोए नहीं ख़्वाबों के दरख़्त
कौन जंगल में लगे पेड़ को पानी देगा
हम कोई नादान नहीं कि बच्चों की सी बात करें / अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा
हम कोई नादान नहीं कि बच्चों की सी बात करें
जीना कोई खेल नहीं है बैठो तुक की बात करें
शिव तो नहीं हम फिर भी हम ने दुनिया भर के ज़हर पिए
इतनी कड़वाहट है मुँह में कैसे मीठी बात करें
हम ने सब को मुफ़्लिस पा के तोड़ दिया दिल का कश्कोल
हम को कोई क्या दे देगा क्यूँ मुँह-देखी बात करें
हम ने कब ये गुर सीखा हम ठहरे सीधे-सादे लोग
जिस की जैसी फ़ितरत देखें उस से वैसी बात करें
ज़िंदगी के सारे मौसम आ के रुख़्सत हो गए / अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा
ज़िंदगी के सारे मौसम आ के रुख़्सत हो गए
मेरी आँखों में कहीं बरसात बाक़ी रह गई
आस का सूरज तो सारी ज़िंदगी निकला मगर
दिन के अंदर जाने कैसे रात बाक़ी रह गई
आईना-ख़ाना बना के जिस ने तोड़ा था मुझे
मेरी किरचों में उसी की ज़ात बाक़ी रह गई
मेरा इक इक लफ़्ज़ मुझ से छीन कर वो ले गया
जिस के कारन आज तक वो बात बाक़ी रह गई
थकन से चूर हूँ लेकिन रवाँ-दवाँ हूँ मैं / अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा
थकन से चूर हूँ लेकिन रवाँ-दवाँ हूँ मैं
नई सहर के चराग़ों का कारवाँ हूँ मैं
हवाएँ मेरे वरक़ लौट लौट देती हैं
न जाने कितने ज़मानों की दास्ताँ हूँ मैं
हर एक शहर-ए-निगाराँ समझ रहा है मुझे
ज़रा क़रीब से देखो धुआँ धुआँ हूँ मैं
किसी से भीड़ में चेहरा बदल गया है मिरा
तो सारे आइना-ख़ानों से बद-गुमाँ हूँ मैं
मैं अपनी गूँज में खोई हूँ एक मुद्दत से
मुझे ख़बर नहीं कुछ कौन हूँ कहाँ हूँ मैं
ख़ुद अपनी दीद से महरूम है नज़र मेरी
अज़ल से सूरत-ए-नज़्ज़ारा दरमियाँ हूँ मैं
मिरा वजूद-ओ-अदम राज़ है हमेशा से
वहाँ वहाँ भी नहीं हूँ जहाँ जहाँ हूँ मैं
ज़रा मुश्किल से समझेंगे हमारे तर्जुमाँ हम को / अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा
ज़रा मुश्किल से समझेंगे हमारे तर्जुमाँ हम को
अभी दोहरा रही है ख़ुद हमारी दास्ताँ हम को
किसी को क्या ख़बर पत्थर के पैरों पर खड़े हैं हम
सदाओं पर सदाएँ दे रहे हैं कारवाँ हम को
हम ऐसे सूरमा हैं लड़ के जब हालात से पलटे
तो बढ़ के ज़िंदगी ने पेश कीं बैसाखियाँ हम को
सँभाला होश जब हम ने तो कुछ मुख़्लिस अज़ीज़ों ने
कई चेहरे दिए और एक पत्थर की ज़बाँ हम को
उठा है शोर ख़ुद अपने ही अंदर से मगर अक्सर
दहल के बंद कर लेना पड़ी हैं खिड़कियाँ हम को
हम अपने जिस्म में बिखरे हुए हैं रेत की सूरत
समेटेंगी कहाँ तक ज़िंदगी की मुट्ठियाँ हम को
बिछड़ के भीड़ में ख़ुद से हवासों का वो आलम था
कि मुँह खोले हुए तकती रहीं परछाइयाँ हम को
मुझे कहाँ मिरे अंदर से वो निकालेगा / अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा
मुझे कहाँ मिरे अंदर से वो निकालेगा
पराई आग में कोई न हाथ डालेगा
वो आदमी भी किसी रोज़ अपनी ख़ल्वत में
मुझे न पा के कोई आईना निकालेगा
वो सब्ज़ डाल का पंछी मैं एक ख़ुश्क दरख़्त
ज़रा सी देर में वो अपना रास्ता लेगा
मैं वो चराग़ हूँ जिस की ज़िया न फैलेगी
मिरे मिज़ाज का सूरज मुझे छुपा लेगा
कुरेदता है बहुत राख मेरे माज़ी की
मैं चूक जाऊँ तो वो उँगलियाँ जला लेगा
वो इक थका हुआ राही मैं एक बंद सराए
पहुँच भी जाएगा मुझ तक तो मुझ से क्या लेगा
फूँक देंगे मिरे अंदर के उजाले मुझ को / अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा
फूँक देंगे मिरे अंदर के उजाले मुझ को
काश दुश्मन मिरा क़िंदील बना ले मुझ को
एक साया हूँ मैं हालात की दीवार में क़ैद
कोई सूरज की किरन आ के निकाले मुझ को
अपनी हस्ती का कुछ एहसास तो हो जाए मुझे
और नहीं कुछ तो कोई मार ही डाले मुझ को
मैं समुंदर हूँ कहीं डूब न जाऊँ ख़ुद में
अब कोई मौज किनारे पे उछाले मुझ को
तिश्नगी मेरी मुसल्लम है मगर जाने क्यूँ
लोग दे देते हैं टूटे हुए प्याले मुझ को
रूठ जाएगा तो मुझ से और क्या ले जाएगा / अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा
रूठ जाएगा तो मुझ से और क्या ले जाएगा
बस यही होगा कि जीने का मज़ा ले जाएगा
सर्दियों की दोपहर से धूप ले जाएगा वो
गर्मियों की शाम से ठंडी हवा ले जाएगा
सब्ज़ मौसम की तनाबें खींच लेगा जिस्म से
और बालों से मिरे काली घटा ले जाएगा
अपने अंदर ज़र्द पत्तों की तरह बिखरूँ गी में
मेरे अंदर से मुझे पतझड़ उड़ा ले जाएगा
अलावा इक चुभन के क्या है ख़ुद से राब्ता मेरा / अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा
अलावा इक चुभन के क्या है ख़ुद से राब्ता मेरा
बिखर जाता है मुझ में टूट के हर आईना मेरा
उलझ के मुझ में अपने-आप को सुलझा रहा है जो
न जाने ख़त्म कर बैठे कहाँ पर सिलसिला मेरा
मुझे चखते ही खो बैठा वो जन्नत अपने ख़्वाबों की
बहुत मिलता हुआ था ज़िंदगी से ज़ाइक़ा मेरा
मैं कल और आज में हाएल कोई नादीदा वक़्फ़ा हूँ
मिरे ख़्वाबों से नापा जा रहा है फ़ासला मेरा
वो कैसा शहर था मानूस भी था अजनबी भी था
कि जिस की इक गली में खो गया मुझ से पता मेरा
पलट आता है हर दिन घर की जानिब शाम ढलते ही
किसी बे-नाम बस्ती से गुज़र के रास्ता मेरा
ये मैं हूँ या मिरा साया मिरा साया है या मैं हूँ
अजब सी धुँद में लिपटा हुआ है हाफ़िज़ा मेरा
हँसी आई थी अपनी बेबसी पर एक दिन मुझ को
अभी तक गूँजता है मेरे अंदर क़हक़हा मेरा
वो ये कह कह के जलाता था हमेशा मुझ को / अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा
वो ये कह कह के जलाता था हमेशा मुझ को
और ढूँडेगा कहीं मेरे अलावा मुझ को
किस क़दर उस को सराबों ने सताया होगा
दूर ही से जो समझता रहा चश्मा मुझ को
मेरी उम्मीद के सूरज को डुबो के हर शाम
वो दिखाता रहा दरिया का तमाशा मुझ को
जब किसी रात कभी बैठ के मय-ख़ाने में
ख़ुद को बाँटेगा तो देगा मिरा हिस्सा मुझ को
फिर सजा देगा वो यादों के अजाइब-घर में
सोच कर अहद-ए-जुनूँ का कोई सिक्का मुझ को
मेरे एहसास के दोज़ख़ में सुलगने के लिए
छोड़ देगा मिरे ख़्वाबों का फ़रिश्ता मुझ को
फिर ये होगा कि किसी दिन कहीं खो जाएगा
इक दोराहे पे बिठा के मिरा रस्ता मुझ को
लोग कहते हैं कि जादू की सड़क है माज़ी
मुड़ के देखूँगी तो हो जाएगा सकता मुझ को
Comments
Post a Comment