Ana Qasmi Ghazal / अना क़ासमी की ग़ज़लें
कैसा रिश्ता है इस मकान के साथ / 'अना' क़ासमी गजल / गजलें
कैसा रिश्ता है इस मकान के साथ
बात करता हूँ बेज़बान के साथ
आप तन्हा जनाब कुछ भी नहीं
तीर जचता है बस कमान के साथ
हर बुरे वक़्त पर नज़र उट्ठी
क्या तअल्लुक है आसमान के साथ
दुश्मनी थी तो कुछ तो हासिल था
छिन गया सारा कुछ अमान के साथ
थे ज़मीं पर तो ठीक-ठाक था सब
पर बिखरने लगे उड़ान के साथ
एक इंसाँ ही सो रहा है फ़क़त
कुल जहाँ उठ गया अजान के साथ
ना सही मानी हर्फ़ ही से सही
एक निस्बत तो है कुरान के साथ
कुछ चलेगा जनाब, कुछ भी नहीं / 'अना' क़ासमी गजल / गजलें
कुछ चलेगा जनाब, कुछ भी नहीं
चाय, कॉफी, शराब, कुछ भी नहीं
चुप रहें तो कली लगें वो होंट
हँस पड़ें तो गुलाब कुछ भी नहीं
जो ज़मीं पर है सब हमारा है
सब है अच्छा, ख़राब कुछ भी नहीं
इन अमीरों की सोच तो ये है
हम ग़रीबों के ख़्वाब कुछ भी नहीं
मन की दुनिया में सब ही उरियाँ हैं
दिल के आगे हिजाब कुछ भी नहीं
मीरे-ख़स्ता के शेर के आगे
हम से ख़ानाख़राब कुछ भी नहीं
उम्र अब अपनी अस्ल शक्ल में आ
क्रीम, पोडर, खि़ज़ाब कुछ भी नहीं
ज़िन्दगी भर का लेन देन ‘अना’
और हिसाबो-किताब कुछ भी नहीं
छू जाए दिल को ऐसा कोई फ़न अभी कहाँ / 'अना' क़ासमी गजल / गजलें
छू जाए दिल को ऐसा कोई फ़न अभी कहाँ
कोशिश है शायरी की ये सब शायरी कहाँ
यूँ भी हुआ कि रेत को सागर बना दिया
ऐसा नहीं तो जाओ अभी तिशनगी कहाँ
ये और बात दर्द ने शक्लें तराश लीं
जो नक्श बोलते हैं वो सूरत बनी कहाँ
माना हमारे जैसे हज़ारों हैं शहर में
तुम जैसी कोई चीज़ मगर दूसरी कहाँ
ये जो बरहना संत है पहचानिए हुज़ूर
ये गुल खिला गई है तिरी दिल्लगी कहाँ
अब आपको तो उसके सिवा सूझता नहीं
किस शख़्स की ये बात है और आप भी कहाँ
ये क्या छुपा रहा है वो टोपी में देखिए
इस मयकदे के सामने ये मौलवी कहाँ
आँखें हैं या के तश्त में जलते हुए चराग़
करने चले हैं आप ये अब आरती कहाँ
उससे कहना कि कमाई के न चक्कर में रहे / 'अना' क़ासमी गजल / गजलें
उससे कहना कि कमाई के न चक्कर में रहे
दौर अच्छा नहीं बेहतर है कि वो घर में रहे
जब तराशे गए तब उनकी हक़ीक़त उभरी
वरना कुछ रूप तो सदियों किसी पत्थर में रहे
दूरियाँ ऐसी कि दुनिया ने न देखीं न सुनीं
वो भी उससे जो मिरे घर के बराबर में रहे
वो ग़ज़ल है तो उसे छूने की ह़ाजत भी नहीं
इतना काफ़ी है मिरे शेर के पैकर में रहे
तेरे लिक्खे हुए ख़त भेज रहा हूँ तुझको
यूँ ही बेकार में क्यों दर्द तिरे सर में रहे
ज़िन्दगी इतना अगर दे तो ये काफ़ी है ’अना’
सर से चादर न हटे पाँव भी चादर में रहे
बहुत वीरान लगता है, तिरी चिलमन का सन्नाटा / 'अना' क़ासमी गजल / गजलें
बहुत वीरान लगता है, तिरी चिलमन का सन्नाटा,
नया हंगामा माँगे है, ये शहरे-फ़न का सन्नाटा ।
कोई पूछे तो इस सूखे हुए तुलसी के पौधे से,
कि उस पर किस तरह बीता खुले आँगन का सन्नाटा ।
तिरी महफ़िल की रूदादें बहुत सी सुन रखीं हैं पर,
तिरी आँखों में देखा है, अधूरेपन का सन्नाटा ।
सयानी मुफ़लिसी फुटपाथ पर बेख़ौफ़ बिखरी है,
कि दस तालों में रहता है बिचारे धन का सन्नाटा ।
ख़ुदाया इस ज़मीं पर तो तिरे बंदों का क़ब्ज़ा है,
तू इन तारों से पुर कर दे मिरे दामन का सन्नाटा ।
मिरी उससे कई दिन से लडा़ई भी नहीं फिर भी,
अ़जब ख़ुशबू बिखेरे है, ये अपनेपन का सन्नाटा ।
तुम्हें ये नींद कुछ यूँ ही नहीं आती 'अना ' साहिब,
दिलों को लोरियाँ देता है हर धड़कन का सन्नाटा ।
वो अभी पूरा नहीं था हाँ मगर अच्छा लगा / 'अना' क़ासमी गजल / गजलें
वो अभी पूरा नहीं था हां मगर अच्छा लगा
जंगले से झांकता आधा क़मर अच्छा लगा
इन महल वालों को कमरों में सजाने के लिए
इक पहाड़ी पर बना छोटा सा घर अच्छा लगा
इस बहाने कुछ परिंदे इस तरफ़ आते तो हैं
इस शहर के बीच ये बूढ़ा शजर अच्छा लगा
एक पागल मौज उसके पांव छूकर मर गयी
रेत पर बैठा हुआ वो बेख़बर अच्छा लगा
एक मीठी सी चुभन दिल पर ग़ज़ल लिखती रही
रात भर तड़पा किये और रात भर अच्छा लगा
जिससे नफ़रत हो गयी समझो के फिर बस हो गयी
और जो अच्छा लगा तो उम्र भर अच्छा लगा
ये ज़मीं सारी खुदा ने पागलों के हक़ में दी
उस तरफ़ ही चल पड़े इनको जिधर अच्छा लगा
बोलना तो खैर अच्छा जानते ही है हुजूर
बात कह जाना मगर ना बोल कर अच्छा लगा
तेरी इन आंखों के इशारे पागल हैं / 'अना' क़ासमी गजल / गजलें
तेरी इन आंखों के इशारे पागल हैं
इन झीलों की मौजें,धारे पागल है
चाँद तो कुहनी मार के अक्सर गुज़रा है
अपनी ही क़िस्मत के सितारे पागल हैं
कमरों से तितली का गुज़र कब होता है
गमलों के ये फूल बेचारे पागल हैं
अक्लो खि़रद का काम नहीं है साहिल पर
नज़रें घायल और नज़ारे पागल हैं
शेरो सुखन की बात इन्हीं के बस की है
‘अना’ वना जो दर्द के मारे पागल हैं
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