राजेन्द्र मनचंदा बानी की ग़ज़लें / Rajinder Manchanda Bani Ghazals

 ज़माँ मकाँ थे मिरे सामने बिखरते हुए / राजेन्द्र मनचंदा बानी

ज़माँ मकाँ थे मिरे सामने बिखरते हुए

मैं ढेर हो गया तूल-ए-सफ़र से डरते हुए

दिखा के लम्हा-ए-ख़ाली का अक्स-ए-ला-तफ़सीर

ये मुझ में कौन है मुझ से फ़रार करते हुए

बस एक ज़ख़्म था दिल में जगह बनाता हुआ

हज़ार ग़म थे मगर भूलते-बिसरते हुए

वो टूटते हुए रिश्तों का हुस्न-ए-आख़िर था

कि चुप सी लग गई दोनों को बात करते हुए

अजब नज़ारा था बस्ती का उस किनारे पर

सभी बिछड़ गए दरिया से पार उतरते हुए

मैं एक हादसा बन कर खड़ा था रस्ते में

अजब ज़माने मिरे सर से थे गुज़रते हुए

वही हुआ कि तकल्लुफ़ का हुस्न बीच में था

बदन थे क़ुर्ब-ए-तही-लम्स से बिखरते हुए

जाने वो कौन था और किस को सदा देता था / राजेन्द्र मनचंदा बानी

जाने वो कौन था और किस को सदा देता था

उस से बिछड़ा है कोई इतना पता देता था

कोई कुछ पूछे तो कहता कि हवा से बचना

ख़ुद भी डरता था बहुत सब को डरा देता था

उस की आवाज़ कि बे-दाग़ सा आईना थी

तल्ख़ जुमला भी वो कहता तो मज़ा देता था

दिन-भर एक एक से वो लड़ता-झगड़ता भी बहुत

रात के पिछले-पहर सब को दुआ देता था

वो किसी का भी कोई नश्शा न बुझने देता

देख लेता कहीं इम्काँ तो हवा देता था

इक हुनर था कि जिसे पा के वो फिर खो न सका

एक इक बात का एहसास नया देता था

जाने बस्ती का वो इक मोड़ था क्या उस के लिए

शाम ढलते ही वहाँ शम्अ' जला देता था

एक भी शख़्स बहुत था कि ख़बर रखता था

एक तारा भी बहुत था कि सदा देता था

रुख़ हवा का कोई जब पूछता उस से 'बानी'

मुट्ठी-भर ख़ाक ख़ला में वो उड़ा देता था

मुझे पता था कि ये हादसा भी होना था / राजेन्द्र मनचंदा बानी

मुझे पता था कि ये हादसा भी होना था

मैं उस से मिल के न था ख़ुश जुदा भी होना था

चलो कि जज़्बा-ए-इज़हार चीख़ में तो ढला

किसी तरह इसे आख़िर अदा भी होना था

बना रही थी अजब चित्र डूबती हुई शाम

लहू कहीं कहीं शामिल मिरा भी होना था

अजब सफ़र था कि हम रास्तों से कटते गए

फिर इस के बा'द हमें लापता भी होना था

मैं तेरे पास चला आया ले के शिकवे-गिले

कहाँ ख़बर थी कोई फ़ैसला भी होना था

ग़ुबार बन के उड़े तेज़-रौ कि उन के लिए

तो क्या ज़रूर कोई रास्ता भी होना था

सराए पर था धुआँ जम' सारी बस्ती का

कुछ इस तरह कि कोई सानिहा भी होना था

मुझे ज़रा सा गुमाँ भी न था अकेला हूँ

कि दुश्मनों का कहीं सामना भी होना था

तमाम रास्ता फूलों भरा है मेरे लिए / राजेन्द्र मनचंदा बानी

तमाम रास्ता फूलों भरा है मेरे लिए

कहीं तो कोई दुआ माँगता है मेरे लिए

तमाम शहर है दुश्मन तो क्या है मेरे लिए

मैं जानता हूँ तिरा दर खुला है मेरे लिए

मुझे बिछड़ने का ग़म तो रहेगा हम-सफ़रो

मगर सफ़र का तक़ाज़ा जुदा है मेरे लिए

वो एक अक्स कि पल भर नज़र में ठहरा था

तमाम उम्र का अब सिलसिला है मेरे लिए

अजीब दरगुज़री का शिकार हूँ अब तक

कोई करम है न कोई सज़ा है मेरे लिए

गुज़र सकूँगा न इस ख़्वाब ख़्वाब बस्ती से

यहाँ की मिट्टी भी ज़ंजीर-ए-पा है मेरे लिए

अब आप जाऊँ तो जा कर उसे समेटूँ मैं

तमाम सिलसिला बिखरा पड़ा है मेरे लिए

ये हुस्न-ए-ख़त्म-ए-सफ़र ये तिलिस्म-ख़ाना-ए-रंग

कि आँख झपकूँ तो मंज़र नया है मेरे लिए

ये कैसे कोह के अंदर मैं दफ़्न था 'बानी'

वो अब्र बन के बरसता रहा है मेरे लिए

ऐ दोस्त मैं ख़ामोश किसी डर से नहीं था / राजेन्द्र मनचंदा बानी

ऐ दोस्त मैं ख़ामोश किसी डर से नहीं था

क़ाइल ही तिरी बात का अंदर से नहीं था

हर आँख कहीं दौर के मंज़र पे लगी थी

बेदार कोई अपने बराबर से नहीं था

क्यूँ हाथ हैं ख़ाली कि हमारा कोई रिश्ता

जंगल से नहीं था कि समुंदर से नहीं था

अब उस के लिए इस क़दर आसान था सब कुछ

वाक़िफ़ वो मगर सई मुकर्रर से नहीं था

मौसम को बदलती हुई इक मौज-ए-हवा थी

मायूस मैं 'बानी' अभी मंज़र से नहीं था

दिन को दफ़्तर में अकेला शब भरे घर में अकेला / राजेन्द्र मनचंदा बानी

दिन को दफ़्तर में अकेला शब भरे घर में अकेला

मैं कि अक्स-ए-मुंतशिर एक एक मंज़र में अकेला

उड़ चला वो इक जुदा ख़ाका लिए सर में अकेला

सुब्ह का पहला परिंदा आसमाँ भर में अकेला

कौन दे आवाज़ ख़ाली रात के अंधे कुएँ में

कौन उतरे ख़्वाब से महरूम बिस्तर में अकेला

उस को तन्हा कर गई करवट कोई पिछले पहर की

फिर उड़ा भागा वो सारा दिन नगर भर में अकेला

एक मद्धम आँच सी आवाज़ सरगम से अलग कुछ

रंग इक दबता हुआ सा पूरे मंज़र में अकेला

बोलती तस्वीर में इक नक़्श लेकिन कुछ हटा सा

एक हर्फ़-ए-मो'तबर लफ़्ज़ों के लश्कर में अकेला

जाओ मौजो मेरी मंज़िल का पता क्या पूछती हो

इक जज़ीरा दूर उफ़्तादा समुंदर में अकेला

जाने किस एहसास ने आगे नहीं बढ़ने दिया था

अब पड़ा हूँ क़ैद मैं रस्ते के पत्थर में अकेला

हू-ब-हू मेरी तरह चुप-चाप मुझ को देखता है

इक लरज़ता ख़ूब-सूरत अक्स साग़र में अकेला

वो बात बात पे जी भर के बोलने वाला / राजेन्द्र मनचंदा बानी

वो बात बात पे जी भर के बोलने वाला

उलझ के रह गया डोरी को खोलने वाला

लो सारे शहर के पत्थर समेट लाए हैं हम

कहाँ है हम को शब ओ रोज़ तौलने वाला

हमारा दिल कि समुंदर था उस ने देख लिया

बहुत उदास हुआ ज़हर घोलने वाला

किसी की मौज-ए-फ़रावाँ से खा गया क्या मात

वो इक नज़र में दिलों को टटोलने वाला

वो आज फिर यही दोहरा के चल दिया 'बानी'

मैं भूल के नहीं अब तुझ से बोलने वाला

न मंज़िलें थीं न कुछ दिल में था न सर में था / राजेन्द्र मनचंदा बानी

न मंज़िलें थीं न कुछ दिल में था न सर में था

अजब नज़ारा-ए-ला-सम्तियत नज़र में था

इताब था किसी लम्हे का इक ज़माने पर

किसी को चैन न बाहर था और न घर में था

छुपा के ले गया दुनिया से अपने दिल के घाव

कि एक शख़्स बहुत ताक़ इस हुनर में था

किसी के लौटने की जब सदा सुनी तो खुला

कि मेरे साथ कोई और भी सफ़र में था

कभी मैं आब के तामीर-कर्दा क़स्र में हूँ

कभी हवा में बनाए हुए से घर में था

झिजक रहा था वो कहने से कोई बात ऐसी

मैं चुप खड़ा था कि सब कुछ मिरी नज़र में था

यही समझ के उसे ख़ुद सदा न दी मैं ने

वो तेज़-गाम किसी दूर के सफ़र में था

कभी हूँ तेरी ख़मोशी के कटते साहिल पर

कभी मैं लौटती आवाज़ के भँवर में था

हमारी आँख में आ कर बना इक अश्क वो रंग

जो बर्ग-ए-सब्ज़ के अंदर न शाख़-ए-तर में था

कोई भी घर में समझता न था मिरे दुख सुख

एक अजनबी की तरह मैं ख़ुद अपने घर में था

अभी न बरसे थे 'बानी' घिरे हुए बादल

मैं उड़ती ख़ाक की मानिंद रहगुज़र में था

ख़त कोई प्यार भरा लिख देना / राजेन्द्र मनचंदा बानी

ख़त कोई प्यार भरा लिख देना

मशवरा लिखना दुआ लिख देना

कोई दीवार-ए-शिकस्ता ही सही

उस पे तुम नाम मिरा लिख देना

कितना सादा था वो इम्काँ का नशा

एक झोंके को हवा लिख देना

कुछ तो आकाश में तस्वीर सा है

मुस्कुरा दे तो ख़ुदा लिख देना

बर्ग-ए-आख़िर ने कहा लहरा के

मुझे मौसम की अना लिख देना

हाथ लहराना हवा में उस का

और पैग़ाम-ए-हिना लिख देना

सब्ज़ को सब्ज़ न लिखना 'बानी'

फ़स्ल लिख देना फ़ज़ा लिख देना

आज इक लहर भी पानी में न थी / राजेन्द्र मनचंदा बानी

आज इक लहर भी पानी में न थी

कोई तस्वीर रवानी में न थी

वलवला मिस्रा-ए-अव्वल में न था

हरकत मिस्रा-ए-सानी में न थी

कोई आहंग न अल्फ़ाज़ में था

कैफ़ियत कोई मआनी में न थी

ख़ूँ का नम सादा-नवाई में न था

ख़ूँ की बू शोख़-बयानी में न थी

कोई मफ़्हूम तसव्वुर में न था

कोई भी बात कहानी में न थी

रंग अब कोई ख़लाओं में न था

कोई पहचान निशानी में न थी

ख़ुश-यक़ीनी में न था अब कोई नूर

ज़ौ कोई ख़ंदा-गुमानी में न थी

जी सुलगने का धुआँ ख़त में न था

रौशनी हर्फ़-ए-ज़बानी में न थी

रंज भूले हुए वादे का न था

लज़्ज़त अब याद-दहानी में न थी

लो कि जामिद सी ग़ज़ल भी लिख दी

आज कुछ ज़िंदगी 'बानी' में न थी

सद-सौग़ात सकूँ फ़िरदौस सितंबर आ / राजेन्द्र मनचंदा बानी

सद-सौग़ात सकूँ फ़िरदौस सितंबर आ

ऐ रंगों के मौसम मंज़र मंज़र आ

आधे-अधूरे लम्स न मेरे हाथ पे रख

कभी सुपुर्द-ए-बदन सा मुझे मयस्सर आ

कब तलक फैलाएगा धुँद मिरे ख़ूँ में

झूटी सच्ची नवा में ढल कर लब पर आ

मुझे पता था इक दिन लौट के आएगा तू

रुका हुआ दहलीज़ पे क्यूँ है अंदर आ

ऐ पैहम-पर्वाज़ परिंदे दम ले ले

नहीं उतरता आँगन में तो छत पर आ

उस ने अजब कुछ प्यार से अब के लिक्खा 'बानी'

बहुत दिनों फिर घूम लिया वापस घर आ

इधर की आएगी इक रौ उधर की आएगी / राजेन्द्र मनचंदा बानी

इधर की आएगी इक रौ उधर की आएगी

कि मेरे साथ तो मिट्टी सफ़र की आएगी

ढलेगी शाम जहाँ कुछ नज़र न आएगा

फिर इस के ब'अद बहुत याद घर की आएगी

न कोई जा के उसे दुख मिरे सुनाएगा

न काम दोस्ती अब शहर भर की आएगी

अभी बुलंद रखो यारो आख़िरी मशअल

इधर तो पहली किरन क्या सहर की आएगी

कुछ और मोड़ गुज़रने की देर है बानी

सदा न गर्द किसी हम-सफ़र की आएगी

मैं चुप खड़ा था तअल्लुक़ में इख़्तिसार जो था / राजेन्द्र मनचंदा बानी

मैं चुप खड़ा था तअल्लुक़ में इख़्तिसार जो था

उसी ने बात बनाई वो होशियार जो था

पटख़ दिया किसी झोंके ने ला के मंज़िल पर

हवा के सर पे कोई देर से सवार जो था

मोहब्बतें न रहीं उस के दिल में मेरे लिए

मगर वो मिलता था हँस कर कि वज़्अ-दार जो था

अजब ग़ुरूर में आ कर बरस पड़ा बादल

कि फैलता हुआ चारों तरफ़ ग़ुबार जो था

क़दम क़दम रम-ए-पामाल से मैं तंग आ कर

तिरे ही सामने आया तिरा शिकार जो था

मोड़ था कैसा तुझे था खोने वाला मैं / राजेन्द्र मनचंदा बानी

मोड़ था कैसा तुझे था खोने वाला मैं

रो ही पड़ा हूँ कभी न रोने वाला मैं

क्या झोंका था चमक गया तन मन सारा

पता न था फिर राख था होने वाला मैं

लहर थी कैसी मुझे भँवर में ले आई

नदी किनारे हाथ भिगोने वाला मैं

रंग कहाँ था फूल की पत्ती पत्ती में

किरन किरन सी धूप पिरोने वाला मैं

क्या दिन बीता सब कुछ आँख में फिरता है

जाग रहा हूँ मज़े में सोने वाला मैं

शहर-ए-ख़िज़ाँ है ज़र्दी ओढ़े खड़े हैं पेड़

मंज़र मंज़र नज़र चुभोने वाला मैं

जो कुछ है इस पार वही उस पार भी है

नाव अब अपनी आप डुबोने वाला मैं

देखता था मैं पलट कर हर आन / राजेन्द्र मनचंदा बानी

देखता था मैं पलट कर हर आन

किस सदा का था न जाने इम्कान

उस की इक बात को तन्हा मत कर

वो कि है रब्त-ए-नवा में गुंजान

टूटी बिखरी कोई शय थी ऐसी

जिस ने क़ाएम की हमारी पहचान

लोग मंज़िल पे थे हम से पहले

था कोई रास्ता शायद आसान

सब से कमज़ोर अकेले हम थे

हम पे थे शहर के सारे बोहतान

ओस से प्यास कहाँ बुझती है

मूसला-धार बरस मेरी जान

क्या अजब शहर-ए-ग़ज़ल है 'बानी'

लफ़्ज़ शैतान सुख़न बे-ईमान

अजीब तजरबा था भीड़ से गुज़रने का / राजेन्द्र मनचंदा बानी

अजीब तजरबा था भीड़ से गुज़रने का

उसे बहाना मिला मुझ से बात करने का

फिर एक मौज-ए-तह-ए-आब उस को खींच गई

तमाशा ख़त्म हुआ डूबने उभरने का

मुझे ख़बर है कि रस्ता मज़ार चाहता है

मैं ख़स्ता-पा सही लेकिन नहीं ठहरने का

थमा के एक बिखरता गुलाब मेरे हाथ

तमाशा देख रहा है वो मेरे डरने का

ये आसमाँ में सियाही बिखेर दी किस ने

हमें था शौक़ बहुत उस में रंग भरने का

खड़े हों दोस्त कि दुश्मन सफ़ें सब एक सी हैं

वो जानता है इधर से नहीं गुज़रने का

निगाह हम-सफ़रों पर रखूँ सर-ए-मंज़िल

कि मरहला है ये इक दूसरे से डरने का

लपक लपक के वहीं ढेर हो गए आख़िर

जतन किया तो बहुत सतह से उभरने का

कराँ कराँ न सज़ा कोई सैर करने की

सफ़र सफ़र न कोई हादसा गुज़रने का

किसी मक़ाम से कोई ख़बर न आने की

कोई जहाज़ ज़मीं पर न अब उतरने का

कोई सदा न समाअत पे नक़्श होने की

न कोई अक्स मिरी आँख में ठहरने का

न अब हवा मरे सीने में संसनाने की

न कोई ज़हर मिरी रूह में उतरने का

कोई भी बात न मुझ को उदास करने की

कोई सुलूक न मुझ पे गिराँ गुज़रने का

बस एक चीख़ गिरी थी पहाड़ से यक-लख़्त

अजब नज़ारा था फिर धुँद के बिखरने का

आज तो रोने को जी हो जैसे / राजेन्द्र मनचंदा बानी

आज तो रोने को जी हो जैसे

फिर कोई आस बंधी हो जैसे

शहर में फिरता हूँ तन्हा तन्हा

आश्ना एक वही हो जैसे

हर ज़माने की सदा-ए-मातूब

मेरे सीने से उठी हो जैसे

ख़ुश हुए तर्क-ए-वफ़ा कर के हम

अब मुक़द्दर भी यही हो जैसे

इस तरह शब गए टूटी है उमीद

कोई दीवार गिरी हो जैसे

यास-आलूद है एक एक घड़ी

ज़र्द फूलों की लड़ी हो जैसे

मैं हूँ और वादा-ए-फ़र्दा तेरा

और इक उम्र पड़ी हो जैसे

बे-कशिश है वो निगाह-सद-लुत्फ़

इक मोहब्बत की कमी हो जैसे

क्या अजब लम्हा-ए-ग़म गुज़रा है

उम्र इक बीत गई हो जैसे

छुपी है तुझ में कोई शय उसे न ग़ारत कर / राजेन्द्र मनचंदा बानी

छुपी है तुझ में कोई शय उसे न ग़ारत कर

जो हो सके तो कहीं दिल लगा मोहब्बत कर

अदा ये किस कटे पत्ते से तू ने सीखी है

सितम हवा का हो और शाख़ से शिकायत कर

न हो मुख़िल मिरे अंदर की एक दुनिया में

बड़ी ख़ुशी से बर-ओ-बहर पर हुकूमत कर

वो अपने आप न समझेगा तेरे दिल में है क्या

ख़लिश को हर्फ़ बना हर्फ़ को हिकायत कर

मिरे बनाए हुए बुत में रूह फूँक दे अब

न एक उम्र की मेहनत मिरी अकारत कर

कहाँ से आ गया तू बज़्म-ए-कम-यक़ीनाँ में

यहाँ न होगा कोई ख़ुश हज़ार ख़िदमत कर

कुछ और चीज़ें हैं दुनिया को जो बदलती हैं

कि अपने दर्द को अपने लिए इबारत कर

नहीं अजब इसी पल का हो मुंतज़िर वो भी

कि छू ले उस के बदन को ज़रा सी हिम्मत कर

ख़ुलूस तेरा भी अब ज़द में आ गया 'बानी'

यहाँ ये रोज़ के क़िस्से हैं जी बुरा मत कर

हरी सुनहरी ख़ाक उड़ाने वाला मैं / राजेन्द्र मनचंदा बानी

हरी सुनहरी ख़ाक उड़ाने वाला मैं

शफ़क़ शजर तस्वीर बनाने वाला मैं

ख़ला के सारे रंग समेटने वाली शाम

शब की मिज़ा पर ख़्वाब सजाने वाला मैं

फ़ज़ा का पहला फूल खिलाने वाली सुब्ह

हवा के सुर में गीत मिलाने वाला मैं

बाहर भीतर फ़स्ल उगाने वाला तू

तिरे ख़ज़ाने सदा लुटाने वाला मैं

छतों पे बारिश दूर पहाड़ी हल्की धूप

भीगने वाला पँख सुखाने वाला मैं

चार दिशाएँ जब आपस में घुल मिल जाएँ

सन्नाटे को दुआ बनाने वाला मैं

घने बनों में शंख बजाने वाला तू

तिरी तरफ़ घर छोड़ के आने वाला मैं

पैहम मौज-ए-इमकानी में / राजेन्द्र मनचंदा बानी

पैहम मौज-ए-इमकानी में

अगला पाँव नए पानी में

सफ़-ए-शफ़क़ से मिरे बिस्तर तक

सातों रंग फ़रावानी में

बदन विसाल-आहंग हवा सा

क़बा अजीब परेशानी में

क्या सालिम पहचान है उस की

वो कि नहीं अपने सानी में

टोक के जाने क्या कहता वो

उस ने सुना सब बे-ध्यानी में

याद तिरी जैसे कि सर-ए-शाम

धुँद उतर जाए पानी में

ख़ुद से कभी मिल लेता हूँ मैं

सन्नाटे में वीरानी में

आख़िर सोचा देख ही लीजे

क्या करता है वो मन-मानी में

एक दिया आकाश में 'बानी'

एक चराग़ सा पेशानी में

हमें लपकती हवा पर सवार ले आई / राजेन्द्र मनचंदा बानी

हमें लपकती हवा पर सवार ले आई

कोई तो मौज थी दरिया के पार ले आई

वो लोग जो कभी बाहर न घर से झाँकते थे

ये शब उन्हें भी सर-ए-रहगुज़ार ले आई

उफ़ुक़ से ता-ब-उफ़ुक़ फैलती बिखरती घटा

गई रुतों का चमकता ग़ुबार ले आई

मता-ए-वादा सँभाले रहो कि आज भी शाम

वहाँ से एक नया इंतिज़ार ले आई

उदास शाम की यादों भरी सुलगती हवा

हमें फिर आज पुराने दयार ले आई

न शब से देखी गई बर्ग-ए-आख़िरी की थकन

कि बूँद ओस से उस को उतार ले आई

मैं देखता था शफ़क़ की तरफ़ मगर तितली

परों पे रख के अजब रंग-ज़ार ले आई

बहुत दिनों से न सोए थे हम और आज हवा

कहीं से नींद की ख़ुश्बू उधार ले आई

वो इक अदा कि न पहचान पाए हम 'बानी'

ज़रा सी बात थी आफ़त हज़ार ले आई

चली डगर पर कभी न चलने वाला मैं / राजेन्द्र मनचंदा बानी

चली डगर पर कभी न चलने वाला मैं

नए अनोखे मोड़ बदलने वाला मैं

तुम क्या समझो अजब अजब इन बातों को

आग कहीं हो यहाँ हूँ जलने वाला मैं

बहुत ज़रा सी ओस भिगोने को मेरे

बहुत ज़रा सी आँच, पिघलने वाला मैं

बहुत ज़रा सी ठेस तड़पने को मेरे

बहुत ज़रा सी मौज, उछलने वाला मैं

बहुत ज़रा सा सफ़र भटकने को मेरे

बहुत ज़रा सा हाथ, सँभलने वाला मैं

बहुत ज़रा सी सुब्ह बिकसने को मेरे

बहुत ज़रा सा चाँद, मचलने वाला मैं

बहुत ज़रा सी राह निकलने को मेरे

बहुत ज़रा सी आस, बहलने वाला मैं

शोला इधर उधर कभी साया यहीं कहीं / राजेन्द्र मनचंदा बानी

शोला इधर उधर कभी साया यहीं कहीं

होगा वो बर्क़-जिस्म सुबुक-पा यहीं कहीं

किन पानियों का ज़ोर उसे काट ले गया

देखा था हम ने एक जज़ीरा यहीं कहीं

मंसूब जिस से हो न सका कोई हादसा

गुम हो के रह गया है वो लम्हा यहीं कहीं

आवारगी का डर न कोई डूबने का ख़ौफ़

सहरा ही आस-पास न दरिया यहीं कहीं

वो चाहता ये होगा कि मैं ही उसे बुलाऊँ

मेरी तरह वो फिरता है तन्हा यहीं कहीं

'बानी' ज़रा सँभल के मोहब्बत का मोड़ काट

इक हादसा भी ताक में होगा यहीं कहीं

बजाए हम-सफ़री इतना राब्ता है बहुत / राजेन्द्र मनचंदा बानी

बजाए हम-सफ़री इतना राब्ता है बहुत

कि मेरे हक़ में तिरी बे-ज़रर दुआ है बहुत

थी पाँव में कोई ज़ंजीर बच गए वर्ना

रम-ए-हवा का तमाशा यहाँ रहा है बहुत

ये मोड़ काट के मंज़िल का अक्स देखोगे

इसी जगह मगर इम्कान-ए-हादसा है बहुत

बस एक चीख़ ही यूँ तो हमें अदा कर दे

मुआमला हुनर-ए-हर्फ़ का जुदा है बहुत

मिरी ख़ुशी का वो क्या क्या ख़याल रखता है

कि जैसे मेरी तबीअत से आश्ना है बहुत

तमाम उम्र जिन्हें हम ने टूट कर चाहा

हमारे हाथों उन्हीं पर सितम हुआ है बहुत

ज़रा छुआ था कि बस पेड़ आ गिरा मुझ पर

कहाँ ख़बर थी कि अंदर से खोखला है बहुत

कोई खड़ा है मिरी तरह भीड़ में तन्हा

नज़र बचा के मिरी सम्त देखता है बहुत

ये एहतियात-कदा है कड़े उसूलों का

ज़रा से नक़्स पे 'बानी' यहाँ सज़ा है बहुत

देखिए क्या क्या सितम मौसम की मन-मानी के हैं / राजेन्द्र मनचंदा बानी

देखिए क्या क्या सितम मौसम की मन-मानी के हैं

कैसे कैसे ख़ुश्क ख़ित्ते मुंतज़िर पानी के हैं

क्या तमाशा है कि हम से इक क़दम उठता नहीं

और जितने मरहले बाक़ी हैं आसानी के हैं

वो बहुत सफ़्फ़ाक सी धूमें मचा कर चल दिया

इक अदम-तासीर लहजा है मिरी हर बात का

और जाने कितने पहलू मेरी वीरानी के हैं

उस की आदत है घिरे रहना धुएँ के जाल में

उस के सारे रोग इक अंधी परेशानी के हैं


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