साक़ी फ़ारुक़ी की ग़ज़लें / Saqi Faruqi Ghazals

 वो लोग जो ज़िंदा हैं वो मर जाएँगे इक दिन / साक़ी फ़ारुक़ी

वो लोग जो ज़िंदा हैं वो मर जाएँगे इक दिन

इक रात के राही हैं गुज़र जाएँगे इक दिन

यूँ दिल में उठी लहर यूँ आँखों में भरे रंग

जैसे मिरे हालात सँवर जाएँगे इक दिन

दिल आज भी जलता है उसी तेज़ हवा में

ऐ तेज़ हवा देख बिखर जाएँगे इक दिन

यूँ है कि तआक़ुब में है आसाइश-ए-दुनिया

यूँ है कि मोहब्बत से मुकर जाएँगे इक दिन

यूँ होगा कि इन आँखों से आँसू न बहेंगे

ये चाँद सितारे भी ठहर जाएँगे इक दिन

अब घर भी नहीं घर की तमन्ना भी नहीं है

मुद्दत हुई सोचा था कि घर जाएँगे इक दिन

दामन में आँसुओं का ज़ख़ीरा न कर अभी / साक़ी फ़ारुक़ी

दामन में आँसुओं का ज़ख़ीरा न कर अभी

ये सब्र का मक़ाम है गिर्या न कर अभी

जिस की सख़ावतों की ज़माने में धूम है

वो हाथ सो गया है तक़ाज़ा न कर अभी

नज़रें जला के देख मनाज़िर की आग में

असरार-ए-काएनात से पर्दा न कर अभी

ये ख़ामुशी का ज़हर नसों में उतर न जाए

आवाज़ की शिकस्त गवारा न कर अभी

दुनिया पे अपने इल्म की परछाइयाँ न डाल

ऐ रौशनी-फ़रोश अंधेरा न कर अभी

मैं खिल नहीं सका कि मुझे नम नहीं मिला / साक़ी फ़ारुक़ी

मैं खिल नहीं सका कि मुझे नम नहीं मिला

साक़ी मिरे मिज़ाज का मौसम नहीं मिला

मुझ में बसी हुई थी किसी और की महक

दिल बुझ गया कि रात वो बरहम नहीं मिला

बस अपने सामने ज़रा आँखें झुकी रहीं

वर्ना मिरी अना में कहीं ख़म नहीं मिला

उस से तरह तरह की शिकायत रही मगर

मेरी तरफ़ से रंज उसे कम नहीं मिला

एक एक कर के लोग बिछड़ते चले गए

ये क्या हुआ कि वक़्फ़ा-ए-मातम नहीं मिला

मिरा अकेला ख़ुदा याद आ रहा है मुझे / साक़ी फ़ारुक़ी

मिरा अकेला ख़ुदा याद आ रहा है मुझे

ये सोचता हुआ गिरजा बुला रहा है मुझे

मुझे ख़बर है कि इक मुश्त-ए-ख़ाक हूँ फिर भी

तू क्या समझ के हवा में उड़ा रहा है मुझे

ये क्या तिलिस्म है क्यूँ रात भर सिसकता हूँ

वो कौन है जो दियों में जला रहा है मुझे

उसी का ध्यान है और प्यास बढ़ती जाती है

वो इक सराब कि सहरा बना रहा है मुझे

मैं आँसुओं में नहाया हुआ खड़ा हूँ अभी

जनम जनम का अंधेरा बुला रहा है मुझे

ये कौन आया शबिस्ताँ के ख़्वाब पहने हुए / साक़ी फ़ारुक़ी

ये कौन आया शबिस्ताँ के ख़्वाब पहने हुए

सितारे ओढ़े हुए माहताब पहने हुए

तमाम जिस्म की उर्यानियाँ थीं आँखों में

वो मेरी रूह में उतरा हिजाब पहने हुए

मुझे कहीं कोई चश्मा नज़र नहीं आया

हज़ार दश्त पड़े थे सराब पहने हुए

क़दम क़दम पे थकन साज़-बाज़ करती है

सिसक रहा हूँ सफ़र का अज़ाब पहने हुए

मगर सबात नहीं बे-सबील रस्तों में

कि पाँव सो गए 'साक़ी' रिकाब पहने हुए

बदन चुराते हुए रूह में समाया कर / साक़ी फ़ारुक़ी

बदन चुराते हुए रूह में समाया कर

मैं अपनी धूप में सोया हुआ हूँ साया कर

ये और बात कि दिल में घना अंधेरा है

मगर ज़बान से तो चाँदनी लुटाया कर

छुपा हुआ है तिरी आजिज़ी के तरकश में

अना के तीर इसी ज़हर में बुझाया कर

कोई सबील कि प्यासे पनाह माँगते हैं

सफ़र की राह में परछाइयाँ बिछाया कर

ख़ुदा के वास्ते मौक़ा' न दे शिकायत का

कि दोस्ती की तरह दुश्मनी निभाया कर

अजब हुआ कि गिरह पड़ गई मोहब्बत में

जो हो सके तो जुदाई में रास आया कर

नए चराग़ जला याद के ख़राबे में

वतन में रात सही रौशनी मनाया कर

हैं सेहर-ए-मुसव्विर में क़यामत नहीं करते / साक़ी फ़ारुक़ी

हैं सेहर-ए-मुसव्विर में क़यामत नहीं करते

रंगों से निकलने की जसारत नहीं करते

अफ़्सोस के जंगल में भटकते हैं ख़यालात

रम भूल गए ख़ौफ़ से वहशत नहीं करते

तुम और किसी के हो तो हम और किसी के

और दोनों ही क़िस्मत की शिकायत नहीं करते

मुद्दत हुई इक शख़्स ने दिल तोड़ दिया था

इस वास्ते अपनों से मोहब्बत नहीं करते

ये कह के हमें छोड़ गई रौशनी इक रात

तुम अपने चराग़ों की हिफ़ाज़त नहीं करते

सोच में डूबा हुआ हूँ अक्स अपना देख कर / साक़ी फ़ारुक़ी

सोच में डूबा हुआ हूँ अक्स अपना देख कर

जी लरज़ उट्ठा तिरी आँखों में सहरा देख कर

प्यास बढ़ती जा रही है बहता दरिया देख कर

भागती जाती हैं लहरें ये तमाशा देख कर

एक दिन आँखों में बढ़ जाएगी वीरानी बहुत

एक दिन रातें डराएँगी अकेला देख कर

एक दुनिया एक साए पर तरस खाती हुई

लौट कर आया हूँ मैं अपना तमाशा देख कर

उम्र भर काँटों में दामन कौन उलझाता फिरे

अपने वीराने में आ बैठा हूँ दुनिया देख कर

मुझे ख़बर थी मिरा इंतिज़ार घर में रहा / साक़ी फ़ारुक़ी

मुझे ख़बर थी मिरा इंतिज़ार घर में रहा

ये हादिसा था कि मैं उम्र भर सफ़र में रहा

मैं रक़्स करता रहा सारी उम्र वहशत में

हज़ार हल्क़ा-ए-ज़ंजीर बाम-ओ-दर में रहा

तिरे फ़िराक़ की क़ीमत हमारे पास न थी

तिरे विसाल का सौदा हमारे सर में रहा

ये आग साथ न होती तो राख हो जाते

अजीब रंग तिरे नाम से हुनर में रहा

अब एक वादी-ए-निस्याँ में छुपता जाता है

वो एक साया कि यादों की रहगुज़र में रहा

सफ़र की धूप में चेहरे सुनहरे कर लिए हम ने / साक़ी फ़ारुक़ी

सफ़र की धूप में चेहरे सुनहरे कर लिए हम ने

वो अंदेशे थे रंग आँखों के गहरे कर लिए हम ने

ख़ुदा की तरह शायद क़ैद हैं अपनी सदाक़त में

अब अपने गिर्द अफ़्सानों के पहरे कर लिए हम ने

ज़माना पेच-अंदर-पेच था हम लोग वहशी थे

ख़याल आज़ार थे लहजे इकहरे कर लिए हम ने

मगर उन सीपियों में पानियों का शोर कैसा था

समुंदर सुनते सुनते कान बहरे कर लिए हम ने

वही जीने की आज़ादी वही मरने की जल्दी है

दिवाली देख ली हम ने दसहरे कर लिए हम ने

आग हो दिल में तो आँखों में धनक पैदा हो / साक़ी फ़ारुक़ी

आग हो दिल में तो आँखों में धनक पैदा हो

रूह में रौशनी लहजे में चमक पैदा हो

एक शोला मेरी आवाज़ में लहराता है

ख़ून में लहर ख़यालों में ललक पैदा हो

क़त्ल करने का इरादा है मगर सोचता हूँ

तू अगर आए तो हाथों में झिजक पैदा हो

इस तरह अपनी ही सच्चाई पर इसरार न कर

ये न हो और तिरी बात में शक पैदा हो

मुझ से बहते हुए आँसू नहीं लिक्खे जाते

काश इक दिन मेरे लफ़्ज़ों में लचक पैदा हो

जान प्यारी थी मगर जान से बे-ज़ारी थी / साक़ी फ़ारुक़ी

जान प्यारी थी मगर जान से बे-ज़ारी थी

जान का काम फ़क़त जान-फ़रोशी निकला

ख़ाक मैं उस की जुदाई में परेशान फिरूँ

जब कि ये मिलना बिछड़ना मिरी मर्ज़ी निकला

सिर्फ़ रोना है कि जीना पड़ा हल्का बन के

वो तो एहसास की मीज़ान पे भारी निकला

इक नए नाम से फिर अपने सितारे उलझे

ये नया खेल नए ख़्वाब का बानी निकला

वो मिरी रूह की उलझन का सबब जानता है

जिस्म की प्यास बुझाने पे भी राज़ी निकला

मेरी बुझती हुई आँखों से किरन चुनता है

मेरी आँखों का खंडर शहर-ए-मआनी निकला

मेरी अय्यार निगाहों से वफ़ा माँगता है

वो भी मोहताज मिला वो भी सवाली निकला

मैं उसे ढूँढ रहा था कि तलाश अपनी थी

इक चमकता हुआ जज़्बा था कि जाली निकला

मैं ने चाहा था कि अश्कों का तमाशा देखूँ

और आँखों का ख़ज़ाना था कि ख़ाली निकला

इक नई धूप में फिर अपना सफ़र जारी है

वो घना साया फ़क़त तिफ़्ल-ए-तसल्ली निकला

मैं बहुत तेज़ चला अपनी तबाही की तरफ़

उस के छुटने का सबब नर्म-ख़िरामी निकला

रूह का दश्त वही जिस्म का वीराना है

हर नया राज़ पुराना लगा बासी निकला

सिर्फ़ हशमत की तलब जाह की ख़्वाहिश पाई

दिल को बे-दाग़ समझता था जज़ामी निकला

इक बला आती है और लोग चले जाते हैं

इक सदा कहती है हर आदमी फ़ानी निकला

मैं वो मुर्दा हूँ कि आँखें मिरी ज़िंदों जैसी

बैन करता हूँ कि मैं अपना ही सानी निकला

इक याद की मौजूदगी सह भी नहीं सकते / साक़ी फ़ारुक़ी

इक याद की मौजूदगी सह भी नहीं सकते

ये बात किसी और से कह भी नहीं सकते

तू अपने गहन में है तो मैं अपने गहन में

दो चाँद हैं इक अब्र में गह भी नहीं सकते

हम-जिस्म हैं और दोनों की बुनियादें अमर हैं

अब कैसे बिछड़ जाएँ कि ढह भी नहीं सकते

दरिया हूँ किसी रोज़ मुआविन की तरह मिल

ये क्या कि हम इक लहर में बह भी नहीं सकते

ख़्वाब आएँ कहाँ से अगर आँखें हों पुरानी

और सुब्ह तक इस ख़ौफ़ में रह भी नहीं सकते

वही आँखों में और आँखों से पोशीदा भी रहता है / साक़ी फ़ारुक़ी

वही आँखों में और आँखों से पोशीदा भी रहता है

मिरी यादों में इक भूला हुआ चेहरा भी रहता है

जब उस की सर्द-मेहरी देखता हूँ बुझने लगता हूँ

मुझे अपनी अदाकारी का अंदाज़ा भी रहता है

मैं उन से भी मिला करता हूँ जिन से दिल नहीं मिलता

मगर ख़ुद से बिछड़ जाने का अंदेशा भी रहता है

जो मुमकिन हो तो पुर-असरार दुनियाओं में दाख़िल हो

कि हर दीवार में इक चोर दरवाज़ा भी रहता है

बस अपनी बेबसी की सातवीं मंज़िल में ज़िंदा हूँ

यहाँ पर आग भी रहती है और नौहा भी रहता है

मुझ को मिरी शिकस्त की दोहरी सज़ा मिली / साक़ी फ़ारुक़ी

मुझ को मिरी शिकस्त की दोहरी सज़ा मिली

तुझ से बिछड़ के ज़िंदगी दुनिया से जा मिली

इक क़ुल्ज़ुम-ए-हयात की जानिब चली थी उम्र

इक दिन ये जू-ए-तिश्नगी सहरा से आ मिली

ये कैसी बे-हिसी है कि पत्थर हुई है आँख

वैसे तो आँसुओं की कुमक बार-हा मिली

मैं काँप उठा था ख़ुद को वफ़ादार देख कर

मौज-ए-वफ़ा के पास ही मौज-ए-फ़ना मिली

दीवार-ए-हिज्र पर थे बहुत साहिबों के नाम

ये बस्ती-ए-फ़िराक़ भी शोहरत-सरा मिली

फिर रूद-ए-बेवफ़ाई मैं बहता रहा ये जिस्म

ये रंज है कि तेरी तरफ़ से दुआ मिली

वो कौन ख़ुश-नसीब थे जो मुतमइन फिरे

मुझ को तो उस निगाह से उसरत सिवा मिली

ये उम्र उम्र कोई तआक़ुब में क्यूँ रहे

यादों में गूँजती हुई किस की सदा मिली

जिस की हवस के वास्ते दुनिया हुई अज़ीज़

वापस हुए तो उस की मोहब्बत ख़फ़ा मिली

पाँव मारा था पहाड़ों पे तो पानी निकला / साक़ी फ़ारुक़ी

पाँव मारा था पहाड़ों पे तो पानी निकला

ये वही जिस्म का आहन है कि मिट्टी निकला

मेरे हम-राह वही तोहमत-ए-आज़ादी है

मेरा हर अहद वही अहद-ए-असीरी निकला

एक चेहरा था कि अब याद नहीं आता है

एक लम्हा था वही जान का बैरी निकला

एक मात ऐसी है जो साथ चली आती है

वर्ना हर चाल से जीते हुए बाज़ी निकला

मौज की तरह बहा दर्द के दरियाओं में

इस तरह ज़िंदा बचा कौन मगर जी निकला

मैं अजब देखने वाला हूँ कि अंधा कहलाऊँ

वो अजब ख़ाक का पुतला था कि नूरी निकला

जान प्यारी थी मगर जान से बे-ज़ारी थी

जान का काम फ़क़त जान-फ़रोशी निकला

ख़ाक मैं उस की जुदाई में परेशान फिरूँ

जब कि ये मिलना बिछड़ना मिरी मर्ज़ी निकला

सिर्फ़ रोना है कि जीना पड़ा हल्का बन के

वो तो एहसास की मीज़ान पे भारी निकला

इक नए नाम से फिर अपने सितारे उलझे

ये नया खेल नए ख़्वाब का बानी निकला

वो मिरी रूह की उलझन का सबब जानता है

जिस्म की प्यास बुझाने पे भी राज़ी निकला

मेरी बुझती हुई आँखों से किरन चुनता है

मेरी आँखों का खंडर शहर-ए-मआनी निकला

मेरी अय्यार निगाहों से वफ़ा माँगता है

वो भी मोहताज मिला वो भी सवाली निकला

मैं उसे ढूँड रहा था कि तलाश अपनी थी

इक चमकता हुआ जज़्बा था कि जाली निकला

मैं ने चाहा था कि अश्कों का तमाशा देखूँ

और आँखों का ख़ज़ाना था कि ख़ाली निकला

इक नई धूप में फिर अपना सफ़र जारी है

वो घना साया फ़क़त तिफ़्ल-ए-तसल्ली निकला

मैं बहुत तेज़ चला अपनी तबाही की तरफ़

उस के छुटने का सबब नर्म-ख़िरामी निकला

रूह का दश्त वही जिस्म का वीराना है

हर नया राज़ पुराना लगा बासी निकला

सिर्फ़ हशमत की तलब जाह की ख़्वाहिश पाई

दिल को बे-दाग़ समझता था जज़ामी निकला

इक बला आती है और लोग चले जाते हैं

इक सदा कहती है हर आदमी फ़ानी निकला

मैं वो मुर्दा हूँ कि आँखें मिरी ज़िंदों जैसी

बैन करता हूँ कि मैं अपना ही सानी निकला

मैं फिर से हो जाऊँगा तन्हा इक दिन / साक़ी फ़ारुक़ी

मैं फिर से हो जाऊँगा तन्हा इक दिन

बैन करेगा रूह का सन्नाटा इक दिन

जिन में अभी इक वहशी आग के साए हैं

वो आँखें हो जाएँगी सहरा इक दिन

बीत चुका होगा ये ख़्वाबों का मौसम

बंद मिलेगा नींद का दरवाज़ा इक दिन

मिट जाएगा सेहर तुम्हारी आँखों का

अपने पास बुला लेगी दुनिया इक दिन

डूब रहा हूँ झूट और खोट के दरिया में

जाने कहाँ ले जाए ये दरिया इक दिन

मैं भी लूट आऊँगा अपने तआ'क़ुब से

तुम भी मुझ को ढूँढ के थक जाना इक दिन


 अन्य ग़ज़लकारों शायरों की ग़ज़लें / रचनाएं  

यगाना चंगेज़ी की ग़ज़लें / Yagana Changezi Ghazals

राजेन्द्र मनचंदा बानी की ग़ज़लें / Rajinder Manchanda Bani Ghazals

शारिक़ कैफ़ी की ग़ज़लें / Shariq Kaifi Ghazals


Comments