असरार-उल-हक़ मजाज़ ग़ज़ल
आसमाँ तक जो नाला पहुँचा है असरार-उल-हक़ मजाज़ ग़ज़ल / Asrar Ul Haq Majaz Ghazal
आसमाँ तक जो नाला पहुँचा है
दिल की गहराइयों से निकला है
मेरी नज़रों में हश्र भी क्या है
मैं ने उन का जलाल देखा है
जल्वा-ए-तूर ख़्वाब-ए-मूसा है
किस ने देखा है किस को देखा है
हाए अंजाम इस सफ़ीने का
नाख़ुदा ने जिसे डुबोया है
आह क्या दिल में अब लहू भी नहीं
आज अश्कों का रंग फीका है
जब भी आँखें मिलीं उन आँखों से
दिल ने दिल का मिज़ाज पूछा है
वो जवानी कि थी हरीफ़-ए-तरब
आज बर्बाद-ए-जाम-ओ-सहबा है
कौन उठ कर चला मुक़ाबिल से
जिस तरफ़ देखिए अंधेरा है
फिर मिरी आँख हो गई नमनाक
फिर किसी ने मिज़ाज पूछा है
सच तो ये है 'मजाज़' की दुनिया
हुस्न और इश्क़ के सिवा क्या है
Asrar Ul Haq Majaz Ghazal
आशिक़ी जाँ-फ़ज़ा भी होती है असरार-उल-हक़ मजाज़ ग़ज़ल / Asrar Ul Haq Majaz Ghazal
आशिक़ी जाँ-फ़ज़ा भी होती है
और सब्र-आज़मा भी होती है
रूह होती है कैफ़-परवर भी
और दर्द-आश्ना भी होती है
हुस्न को कर न दे ये शर्मिंदा
इश्क़ से ये ख़ता भी होती है
बन गई रस्म बादा-ख़्वारी भी
ये नमाज़ अब क़ज़ा भी होती है
जिस को कहते हैं नाला-ए-बरहम
साज़ में वो सदा भी होती है
क्या बता दो 'मजाज़' की दुनिया
कुछ हक़ीक़त-नुमा भी होती है
आओ अब मिल के गुलिस्ताँ को गुल्सिताँ कर दें असरार-उल-हक़ मजाज़ ग़ज़ल / Asrar Ul Haq Majaz Ghazal
आओ अब मिल के गुलिस्ताँ को गुल्सिताँ कर दें
हर गुल-ओ-लाला को रक़्साँ ओ ग़ज़ल-ख़्वाँ कर दें
अक़्ल है फ़ित्ना-ए-बेदार सुला दें इस को
इश्क़ की जिंस-ए-गिराँ-माया को अर्ज़ां कर दें
दस्त-ए-वहशत में ये अपना ही गरेबाँ कब तक
ख़त्म अब सिलसिला-ए-चाक-ए-गरेबाँ कर दें
ख़ून-ए-आदम पे कोई हर्फ़ न आने पाए
जिन्हें इंसाँ नहीं कहते उन्हें इंसाँ कर दें
दामन-ए-ख़ाक पे ये ख़ून के छींटे कब तक
इन्हीं छींटों को बहिश्त-ए-गुल-ओ-रैहाँ कर दें
माह ओ अंजुम भी हों शर्मिंदा-ए-तनवीर 'मजाज़'
दश्त-ए-ज़ुल्मात में इक ऐसा चराग़ाँ कर दें
अक़्ल की सतह से कुछ और उभर जाना था असरार-उल-हक़ मजाज़ ग़ज़ल / Asrar Ul Haq Majaz Ghazal
अक़्ल की सतह से कुछ और उभर जाना था
इश्क़ को मंज़िल-ए-पस्ती से गुज़र जाना था
जल्वे थे हल्क़ा-ए-सर दाम-ए-नज़र से बाहर
मैं ने हर जल्वे को पाबंद-ए-नज़र जाना था
हुस्न का ग़म भी हसीं फ़िक्र हसीं दर्द हसीं
उन को हर रंग में हर तौर सँवर जाना था
हुस्न ने शौक़ के हंगामे तो देखे थे बहुत
इश्क़ के दावा-ए-तक़दीस से डर जाना था
ये तो क्या कहिए चला था मैं कहाँ से हमदम
मुझ को ये भी न था मालूम किधर जाना था
हुस्न और इश्क़ को दे ताना-ए-बेदाद 'मजाज़'
तुम को तो सिर्फ़ इसी बात पर मर जाना था
इज़्न-ए-ख़िराम लेते हुए आसमाँ से हम असरार-उल-हक़ मजाज़ ग़ज़ल / Asrar Ul Haq Majaz Ghazal
इज़्न-ए-ख़िराम लेते हुए आसमाँ से हम
हट कर चले हैं रहगुज़र-ए-कारवाँ से हम
क्या पूछते हो झूमते आए कहाँ से हम
पी कर उठे हैं ख़ुम-कदा-ए-आसमाँ से हम
क्यूँकर हुआ है फ़ाश ज़माने पे क्या कहें
वो राज़-ए-दिल जो कह न सके राज़-दाँ से हम
हमदम यही है रहगुज़र-ए-यार-ए-ख़ुश-ख़िराम
गुज़रे हैं लाख बार इसी कहकशाँ से हम
क्या क्या हुआ है हम से जुनूँ में न पूछिए
उलझे कभी ज़मीं से कभी आसमाँ से हम
हर नर्गिस-ए-जमील ने मख़मूर कर दिया
पी कर उठे शराब हर इक बोस्ताँ से हम
ठुकरा दिए हैं अक़्ल ओ ख़िरद के सनम-कदे
घबरा चुके थे कशमकश-ए-इम्तिहाँ से हम
देखेंगे हम भी कौन है सज्दा तराज़-ए-शौक़
ले सर उठा रहे हैं तिरे आस्ताँ से हम
बख़्शी हैं हम को इश्क़ ने वो जुरअतें 'मजाज़'
डरते नहीं सियासत-ए-अहल-ए-जहाँ से हम
ऐश से बे-नियाज़ हैं हम लोग असरार-उल-हक़ मजाज़ ग़ज़ल / Asrar Ul Haq Majaz Ghazal
ऐश से बे-नियाज़ हैं हम लोग
बे-ख़ुद-ए-सोज़-ओ-साज़ हैं हम लोग
जिस तरह चाहे छेड़ दे हम को
तेरे हाथों में साज़ हैं हम लोग
बे-सबब इल्तिफ़ात क्या मअ'नी
कुछ तो ऐ चश्म-ए-नाज़ हैं हम लोग
महफ़िल-ए-सोज़ ओ साज़ है दुनिया
हासिल-ए-सोज़ ओ साज़ हैं हम लोग
कोई इस राज़ से नहीं वाक़िफ़
क्यूँ सरापा नियाज़ हैं हम लोग
हम को रुस्वा न कर ज़माने में
बस-कि तेरा ही राज़ हैं हम लोग
सब इसी इश्क़ के करिश्मे हैं
वर्ना क्या ऐ 'मजाज़' हैं हम लोग
कमाल-ए-इश्क़ है दीवाना हो गया हूँ मैं असरार-उल-हक़ मजाज़ ग़ज़ल / Asrar Ul Haq Majaz Ghazal
कमाल-ए-इश्क़ है दीवाना हो गया हूँ मैं
ये किस के हाथ से दामन छुड़ा रहा हूँ मैं
तुम्हीं तो हो जिसे कहती है नाख़ुदा दुनिया
बचा सको तो बचा लो कि डूबता हूँ मैं
ये मेरे इश्क़ की मजबूरियाँ मआज़-अल्लाह
तुम्हारा राज़ तुम्हीं से छुपा रहा हूँ मैं
इस इक हिजाब पे सौ बे-हिजाबियाँ सदक़े
जहाँ से चाहता हूँ तुम को देखता हूँ मैं
बताने वाले वहीं पर बताते हैं मंज़िल
हज़ार बार जहाँ से गुज़र चुका हूँ मैं
कभी ये ज़ोम कि तू मुझ से छुप नहीं सकता
कभी ये वहम कि ख़ुद भी छुपा हुआ हूँ मैं
मुझे सुने न कोई मस्त-ए-बादा-ए-इशरत
'मजाज़' टूटे हुए दिल की इक सदा हूँ मैं
करिश्मा-साजी-ए-दिल देखता हूँ असरार-उल-हक़ मजाज़ ग़ज़ल / Asrar Ul Haq Majaz Ghazal
करिश्मा-साजी-ए-दिल देखता हूँ
तुम्हें अपने मुक़ाबिल देखता हूँ
जहाँ मंज़िल का इम्काँ ही नहीं है
वहाँ आसार-ए-मंज़िल देखता हूँ
सदा दी तू ने क्या जाने कहाँ से
मगर मैं जानिब-ए-दिल देखता हूँ
कहाँ का रहनुमा और कैसी राहें
जिधर बढ़ता हूँ मंज़िल देखता हूँ
इशारा है तिरा तूफ़ाँ की जानिब
मगर मैं हूँ कि साहिल देखता हूँ
मोहब्बत ही मोहब्बत है जहाँ पर
मोहब्बत की वो मंज़िल देखता हूँ
मिरे हाथों में भी है साज़ लेकिन
अभी मैं रंग-ए-महफ़िल देखता हूँ
तिरे हाथों से जो टूटा था इक दिन
वही टूटा हुआ दिल देखता हूँ
कभी तूफ़ाँ ही तूफ़ाँ है नज़र में
कभी साहिल ही साहिल देखता हूँ
ग़ुरूर-ए-हुस्न-ए-बातिल पर नज़र है
नियाज़-ए-इश्क़-ए-कामिल देखता हूँ
'मजाज़' और हुस्न के क़दमों पे सज्दे
मआल-ए-ज़ोम-ए-बातिल देखता हूँ
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ख़ामुशी का तो नाम होता है असरार-उल-हक़ मजाज़ ग़ज़ल / Asrar Ul Haq Majaz Ghazal
ख़ामुशी का तो नाम होता है
वर्ना यूँ भी कलाम होता है
इश्क़ को पूछता नहीं कोई
हुस्न का एहतिराम होता है
आँख से आँख जब नहीं मिलती
दिल से दिल हम-कलाम होता है
हुस्न को शर्मसार करना ही
इश्क़ का इंतिक़ाम होता है
अल्लाह अल्लाह ये नाज़-ए-हुस्न 'मजाज़'
इंतिज़ार-ए-सलाम होता है
ख़ुद दिल में रह के आँख से पर्दा करे कोई असरार-उल-हक़ मजाज़ ग़ज़ल / Asrar Ul Haq Majaz Ghazal
ख़ुद दिल में रह के आँख से पर्दा करे कोई
हाँ लुत्फ़ जब है पा के भी ढूँडा करे कोई
तुम ने तो हुक्म-ए-तर्क-ए-तमन्ना सुना दिया
किस दिल से आह तर्क-ए-तमन्ना करे कोई
दुनिया लरज़ गई दिल-ए-हिरमाँ-नसीब की
इस तरह साज़-ए-ऐश न छेड़ा करे कोई
मुझ को ये आरज़ू वो उठाएँ नक़ाब ख़ुद
उन को ये इंतिज़ार तक़ाज़ा करे कोई
रंगीनी-ए-नक़ाब में गुम हो गई नज़र
क्या बे-हिजाबियों का तक़ाज़ा करे कोई
या तो किसी को जुरअत-ए-दीदार ही न हो
या फिर मिरी निगाह से देखा करे कोई
होती है इस में हुस्न की तौहीन ऐ 'मजाज़'
इतना न अहल-ए-इश्क़ को रुस्वा करे कोई
जिगर और दिल को बचाना भी है असरार-उल-हक़ मजाज़ ग़ज़ल / Asrar Ul Haq Majaz Ghazal
जिगर और दिल को बचाना भी है
नज़र आप ही से मिलाना भी है
मोहब्बत का हर भेद पाना भी है
मगर अपना दामन बचाना भी है
जो दिल तेरे ग़म का निशाना भी है
क़तील-ए-जफ़ा-ए-ज़माना भी है
ये बिजली चमकती है क्यूँ दम-ब-दम
चमन में कोई आशियाना भी है
ख़िरद की इताअत ज़रूरी सही
यही तो जुनूँ का ज़माना भी है
न दुनिया न उक़्बा कहाँ जाइए
कहीं अहल-ए-दिल का ठिकाना भी है
मुझे आज साहिल पे रोने भी दो
कि तूफ़ान में मुस्कुराना भी है
ज़माने से आगे तो बढ़िए 'मजाज़'
ज़माने को आगे बढ़ाना भी है
धुआँ सा इक सम्त उठ रहा है शरारे उड़ उड़ के आ रहे हैं असरार-उल-हक़ मजाज़ ग़ज़ल / Asrar Ul Haq Majaz Ghazal
धुआँ सा इक सम्त उठ रहा है शरारे उड़ उड़ के आ रहे हैं
ये किस की आहें ये किस के नाले तमाम आलम पे छा रहे हैं
नक़ाब रुख़ से उठा चुके हैं खड़े हुए मुस्कुरा रहे हैं
मैं हैरती-ए-अज़ल हूँ अब भी वो ख़ाक हैराँ बना रहे हैं
हवाएँ बे-ख़ुद फ़ज़ाएँ बे-ख़ुद ये अम्बर-अफ़्शाँ घटाएँ बे-ख़ुद
मिज़ा ने छेड़ा है साज़ दिल का वो ज़ेर-ए-लब गुनगुना रहे हैं
ये शौक़ की वारदात-ए-पैहम ये वादा-ए-इल्तिफ़ात-ए-पैहम
कहाँ कहाँ आज़मा चुके हैं कहाँ कहाँ आज़मा रहे हैं
सुराहियाँ नौ-ब-नौ हैं अब भी जमाहियाँ नौ-ब-नौ हैं अब भी
मगर वो पहलू-तही की सौगंद अब भी नज़दीक आ रहे हैं
वो इश्क़ की वहशतों की ज़द में वो ताज की रिफ़अतों के आगे
मगर अभी आज़मा रहे हैं मगर अभी आज़मा रहे हैं
अता किया है 'मजाज़' फ़ितरत ने वो मज़ाक़-ए-लतीफ़ हम को
कि आलम-ए-आब-ओ-गिल से हट कर इक और आलम बना रहे हैं
नहीं ये फ़िक्र कोई रहबर-ए-कामिल नहीं मिलता असरार-उल-हक़ मजाज़ ग़ज़ल / Asrar Ul Haq Majaz Ghazal
नहीं ये फ़िक्र कोई रहबर-ए-कामिल नहीं मिलता
कोई दुनिया में मानूस-ए-मिज़ाज-ए-दिल नहीं मिलता
कभी साहिल पे रह कर शौक़ तूफ़ानों से टकराएँ
कभी तूफ़ाँ में रह कर फ़िक्र है साहिल नहीं मिलता
ये आना कोई आना है कि बस रस्मन चले आए
ये मिलना ख़ाक मिलना है कि दिल से दिल नहीं मिलता
शिकस्ता-पा को मुज़्दा ख़स्तगान-ए-राह को मुज़्दा
कि रहबर को सुराग़-ए-जादा-ए-मंज़िल नहीं मिलता
वहाँ कितनों को तख़्त ओ ताज का अरमाँ है क्या कहिए
जहाँ साइल को अक्सर कासा-ए-साइल नहीं मिलता
ये क़त्ल-ए-आम और बे-इज़्न क़त्ल-ए-आम क्या कहिए
ये बिस्मिल कैसे बिस्मिल हैं जिन्हें क़ातिल नहीं मिलता
बर्बाद-ए-तमन्ना पे इताब और ज़ियादा असरार-उल-हक़ मजाज़ ग़ज़ल / Asrar Ul Haq Majaz Ghazal
बर्बाद-ए-तमन्ना पे इताब और ज़ियादा
हाँ मेरी मोहब्बत का जवाब और ज़ियादा
रोएँ न अभी अहल-ए-नज़र हाल पे मेरे
होना है अभी मुझ को ख़राब और ज़ियादा
आवारा ओ मजनूँ ही पे मौक़ूफ़ नहीं कुछ
मिलने हैं अभी मुझ को ख़िताब और ज़ियादा
उट्ठेंगे अभी और भी तूफ़ाँ मिरे दिल से
देखूँगा अभी इश्क़ के ख़्वाब और ज़ियादा
टपकेगा लहू और मिरे दीदा-ए-तर से
धड़केगा दिल-ए-ख़ाना-ख़राब और ज़ियादा
होगी मिरी बातों से उन्हें और भी हैरत
आएगा उन्हें मुझ से हिजाब और ज़ियादा
उसे मुतरिब-ए-बेबाक कोई और भी नग़्मा
ऐ साक़ी-ए-फ़य्याज़ शराब और ज़ियादा
यूँही बैठे रहो बस दर्द-ए-दिल से बे-ख़बर हो कर असरार-उल-हक़ मजाज़ ग़ज़ल / Asrar Ul Haq Majaz Ghazal
यूँही बैठे रहो बस दर्द-ए-दिल से बे-ख़बर हो कर
बनो क्यूँ चारागर तुम क्या करोगे चारागर हो कर
दिखा दे एक दिन ऐ हुस्न-ए-रंगीं जल्वा-गर हो कर
वो नज़्ज़ारा जो इन आँखों में रह जाए नज़र हो कर
दिल-ए-सोज़-आशना के जल्वे थे जो मुंतशिर हो कर
फ़ज़ा-ए-दहर में चमका किए बर्क़ ओ शरर हो कर
वही जल्वे जो इक दिन दामन-ए-दिल से गुरेज़ाँ थे
नज़र में रह गए गुल-हा-ए-दामान-ए-नज़र हो कर
फ़लक की सम्त किस हसरत से तकते हैं मआज़-अल्लाह
ये नाले ना-रसा हो कर ये आहें बे-असर हो कर
ये किस के हुस्न के रंगीन जल्वे छाए जाते हैं
शफ़क़ की सुर्ख़ियाँ बन कर तजल्ली की सहर हो कर
ये मेरी दुनिया ये मेरी हस्ती असरार-उल-हक़ मजाज़ ग़ज़ल / Asrar Ul Haq Majaz Ghazal
ये मेरी दुनिया ये मेरी हस्ती
नग़्मा-तराज़ी सहबा-परस्ती
शाइर की दुनिया शाइर की हस्ती
या नाला-ए-ग़म या शोर-ए-मस्ती
सब से गुरेज़ाँ सब पर बरसती
आँखों की मस्ती महँगी न सस्ती
या ख़ुल्द ओ साक़ी ऐ जज़्ब-ए-मस्ती
या टुकड़े टुकड़े दामान-ए-हस्ती
महव-ए-सफ़र हूँ गर्म-ए-सफ़र हूँ
मेरी नज़र में रिफ़अत न पस्ती
इन अँखड़ियों का आलम न पूछो
सहबा ही सहबा मस्ती ही मस्ती
वो आ भी जाते वो हो भी जाते
चश्म-ए-तमन्ना फिर भी तरसती
उन का करम है उन की मोहब्बत
क्या मेरे नग़्मे क्या मेरी हस्ती
रह-ए-शौक़ से अब हटा चाहता हूँ असरार-उल-हक़ मजाज़ ग़ज़ल / Asrar Ul Haq Majaz Ghazal
रह-ए-शौक़ से अब हटा चाहता हूँ
कशिश हुस्न की देखना चाहता हूँ
कोई दिल सा दर्द-आश्ना चाहता हूँ
रह-ए-इश्क़ में रहनुमा चाहता हूँ
तुझी से तुझे छीनना चाहता हूँ
ये क्या चाहता हूँ ये क्या चाहता हूँ
ख़ताओं पे जो मुझ को माइल करे फिर
सज़ा और ऐसी सज़ा चाहता हूँ
वो मख़मूर नज़रें वो मदहोश आँखें
ख़राब-ए-मोहब्बत हुआ चाहता हूँ
वो आँखें झुकीं वो कोई मुस्कुराया
पयाम-ए-मोहब्बत सुना चाहता हूँ
तुझे ढूँढता हूँ तिरी जुस्तुजू है
मज़ा है कि ख़ुद गुम हुआ चाहता हूँ
ये मौजों की बे-ताबियाँ कौन देखे
मैं साहिल से अब लौटना चाहता हूँ
कहाँ का करम और कैसी इनायत
'मजाज़' अब जफ़ा ही जफ़ा चाहता हूँ
वो नक़ाब आप से उठ जाए तो कुछ दूर नहीं असरार-उल-हक़ मजाज़ ग़ज़ल / Asrar Ul Haq Majaz Ghazal
वो नक़ाब आप से उठ जाए तो कुछ दूर नहीं
वर्ना मेरी निगह-ए-शौक़ भी मजबूर नहीं
ख़ातिर-ए-अहल-ए-नज़र हुस्न को मंज़ूर नहीं
इस में कुछ तेरी ख़ता दीदा-ए-महजूर नहीं
लाख छुपते हो मगर छुप के भी मस्तूर नहीं
तुम अजब चीज़ हो नज़दीक नहीं दूर नहीं
जुरअत-ए-अर्ज़ पे वो कुछ नहीं कहते लेकिन
हर अदा से ये टपकता है कि मंज़ूर नहीं
दिल धड़क उठता है ख़ुद अपनी ही हर आहट पर
अब क़दम मंज़िल-ए-जानाँ से बहुत दूर नहीं
हाए वो वक़्त कि जब बे-पिए मद-होशी थी
हाए ये वक़्त कि अब पी के भी मख़्मूर नहीं
हुस्न ही हुस्न है जिस सम्त उठाता हूँ नज़र
अब यहाँ तूर नहीं बर्क़-ए-सर-ए-तूर नहीं
देख सकता हूँ जो आँखों से वो काफ़ी है 'मजाज़'
अहल-ए-इरफ़ाँ की नवाज़िश मुझे मंज़ूर नहीं
साज़गार है हमदम इन दिनों जहाँ अपना असरार-उल-हक़ मजाज़ ग़ज़ल / Asrar Ul Haq Majaz Ghazal
साज़गार है हमदम इन दिनों जहाँ अपना
इश्क़ शादमाँ अपना शौक़ कामराँ अपना
आह बे-असर किस की नाला ना-रसा किस का
काम बार-हा आया जज़्बा-ए-निहाँ अपना
कब किया था इस दिल पर हुस्न ने करम इतना
मेहरबाँ और इस दर्जा कब था आसमाँ अपना
उलझनों से घबराए मय-कदे में दर आए
किस क़दर तन-आसाँ है ज़ौक़-ए-राएगाँ अपना
कुछ न पूछ ऐ हमदम इन दिनों मिरा आलम
मुतरिब-ए-हसीं अपना साक़ी-ए-जवाँ अपना
इश्क़ और रुस्वाई कौन सी नई शय है
इश्क़ तो अज़ल से था रुस्वा-ए-जहाँ अपना
तुम 'मजाज़' दीवाने मस्लहत से बेगाने
वर्ना हम बना लेते तुम को राज़-दाँ अपना
सीने में उन के जल्वे छुपाए हुए तो हैं असरार-उल-हक़ मजाज़ ग़ज़ल / Asrar Ul Haq Majaz Ghazal
सीने में उन के जल्वे छुपाए हुए तो हैं
हम अपने दिल को तूर बनाए हुए तो हैं
तासीर-ए-जज़्ब-ए-शौक़ दिखाए हुए तो हैं
हम तेरा हर हिजाब उठाए हुए तो हैं
हाँ क्या हुआ वो हौसला-ए-दीद-ए-अहल-ए-दिल
देखो ना वो नक़ाब उठाए हुए तो हैं
तेरे गुनाहगार गुनाहगार ही सही
तेरे करम की आस लगाए हुए तो हैं
अल्लाह-री कामयाबी-ए-आवारगान-ए-इश्क़
ख़ुद गुम हुए तो क्या उसे पाए हुए हैं
यूँ तुझ को इख़्तियार है तासीर दे न दे
दस्त-ए-दुआ हम आज उठाए हुए तो हैं
ज़िक्र उन का गर ज़बाँ पे नहीं है तो क्या हुआ
अब तक नफ़स नफ़स में समाए हुए तो हैं
मिटते हुओं को देख के क्यूँ रो न दें 'मजाज़'
आख़िर किसी के हम भी मिटाए हुए तो हैं
हुस्न फिर फ़ित्नागर है क्या कहिए असरार-उल-हक़ मजाज़ ग़ज़ल / Asrar Ul Haq Majaz Ghazal
हुस्न फिर फ़ित्नागर है क्या कहिए
दिल की जानिब नज़र है क्या कहिए
फिर वही रहगुज़र है क्या कहिए
ज़िंदगी राह पर है क्या कहिए
हुस्न ख़ुद पर्दा-वर है क्या कहिए
ये हमारी नज़र है क्या कहिए
आह तो बे-असर थी बरसों से
नग़्मा भी बे-असर है क्या कहिए
हुस्न है अब न हुस्न के जल्वे
अब नज़र ही नज़र है क्या कहिए
आज भी है 'मजाज़' ख़ाक-नशीं
और नज़र अर्श पर है क्या कहिए
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