Akhilesh Tiwari Ghazal / अखिलेश तिवारी की ग़ज़लें


अखिलेश तिवारी की ग़ज़लें


कहाँ तलक यूँ तमन्ना को दर-ब-दर देखूँ अखिलेश तिवारी ग़ज़ल 

कहाँ तलक यूँ तमन्ना को दर-ब-दर देखूँ
सफ़र तमाम करूँ मैं भी अपना घर देखूँ
सुना है मीर से दुनिया है आइनाख़ाना
तो क्यों न फिर इस दुनिया को बन-सँवर देखूँ
छिड़ी है जंग मुझे ले के ख़ुद मेरे भीतर
फलक की बात रखूँ या शकिस्ताँ पर देखूँ
हरेक शय है नज़र में अभी बहुत धुँधली
पहाड़ियों से ज़मीं पर ज़रा उतर देखूँ
तलाश में है उसी दिन से मंज़िल मेरी
मैं ख़ुद में ठहरा हुआ जबसे इक सफ़र देखूँ
मेरे सुकून का कब पास अक्ल ने रक्खा
सहर के साथ ही मैं तपती दोपहर देखूँ

ग़मों के नूर में लफ़्जों को ढालने निकले अखिलेश तिवारी ग़ज़ल 

ग़मों के नूर में लफ़्जों को ढालने निकले
गुहरशनास समंदर खंगालने निकले
खुली फ़िज़ाओं के आदी हैं ख़्वाब के पंछी
इन्हें क़फ़स में कहाँ आप पालने निकले
सफ़र है दूर का और बेचराग़ दीवाने
तेरे ही ज़िक्र से रातें उजालने निकले
शराबखानो कभी महफ़िलों की जानिब हम
ख़ुद अपने आप से टकराव टालने निकले
सियाह शब ने नई साज़िशें रची शायद
हवा के हाथ कहाँ ख़ाक डालने निकले

मुलाहिज़ा हो मेरी भी उड़ान, पिंजरे में अखिलेश तिवारी ग़ज़ल 

मुलाहिज़ा हो मेरी भी उड़ान, पिंजरे में
अता हुए हैं मुझे दो जहान‍, पिंजरे में
है सैरगाह भी और इसमें आबोदाना भी
रखा गया है मेरा कितना ध्यान पिंजरे में
यहीं हलाक‍ हुआ है परिन्दा ख़्वाहिश का
तभी तो हैं ये लहू के निशान पिंजरे में
फलक पे जब भी परिन्दों की सफ़ नज़र आई
हुई हैं कितनी ही यादें जवान पिंजरे में
तरह तरह के सबक़ इसलिए रटाए गए
मैं भूल जाऊँ खुला आसमान पिंजरे में

Ghazals of Akhilesh Tiwari

वक़्त कर दे न पाएमाल मुझे अखिलेश तिवारी ग़ज़ल 

वक़्त कर दे न पाएमाल मुझे
अब किसी शक्ल में तो ढाल मुझे
अक़्लवालों में है गुज़र मेरा
मेरी दीवानगी संभाल मुझे
मैं ज़मीं भूलता नहीं हरगिज़
तू बड़े शौक से उछाल मुझे
तजर्बे थे जुदा-जुदा अपने
तुमको दाना दिखा था, जाल मुझे
और कब तक रहूँ मुअत्तल-सा
कर दे माज़ी मेरे बहाल मुझे

उदास कितने थे--गजल अखिलेश तिवारी ग़ज़ल 

हम उन सवालों को लेकर उदास कितने थे
जवाब जिनके यहीं आसपास कितने थे
मिली तो आज किसी अजनबी सी पेश आई
इसी हयात को लेकर कयास कितने थे
हंसी, मज़ाक, अदब, महफिलें, सुखनगोई
उदासियों के बदन पर लिबास कितने थे
पड़े थे धूल में अहसास के नगीने सब
तमाम शहर में गौहरशनाश कितने थे
हमें ही फ़िक्र थी अपनी शिनाख्त की 'अखिलेश'
नहीं तो चहरे जमाने के पास कितने थे

रोज़ बढती जा रही इन खाइयों का क्या करें अखिलेश तिवारी ग़ज़ल 

रोज़ बढती जा रही इन खाइयों का क्या करें
भीड़ में उगती हुई तन्हाइयों का क्या करें
हुक्मरानी हर तरफ बौनों की, उनका ही हजूम
हम ये अपने कद की इन ऊचाइयों का क्या करें
नाज़ तैराकी पे अपनी कम न था हमको मगर
नरगिसी आँखों की उन गहराइयों का क्या करें

था रवानी से ही कायम उसकी हस्ती का सुबूत अखिलेश तिवारी ग़ज़ल 

था रवानी से ही कायम उसकी हस्ती का सुबूत
गर ठहर जाता तो फिर दरिया कहाँ होने को था
खुद को जो सूरज बताता फिर रहा था रात को
दिन में उस जुगनू का अब चेहरा धुआं होने को था
जाने क्यूँ पिंजरे की छत को आसमां कहने लगा
वो परिंदा जिसका सारा आसमां होने को था

इस ब्लॉग पर अन्य शायर / ग़ज़लकार /ग़ज़लें 



नदी के ख़्वाब दिखायेगा तश्नगी देगा अखिलेश तिवारी ग़ज़ल 

नदी के ख़्वाब दिखायेगा तश्नगी देगा
खबर न थी वो हमें ऐसी बेबसी देगा
नसीब से मिला है इसे हर रखना
कि तीरगी में यही ज़ख्म रौशनी देगा
तुम अपने हाथ में पत्थर उठाये फिरते रहो
मैं वो शजर हूँ जो बदले में छाँव ही देगा

ख्वाबों की बात हो न ख्यालों की बात हो अखिलेश तिवारी ग़ज़ल 

ख्वाबों की बात हो न ख्यालों की बात हो
मुफलिस की भूख उसके निवालों की बात हो
अब ख़त्म भी हो गुज़रे जमाने का तज़्किरा
इस तीरगी में कुछ तो उजालों की बात हो
जिनको मिले फरेब ही मंजिल के नाम पर
कुछ देर उनके पाँव के छालों की बात हो

पानी में जो आया है तो गहरे भी उतर जा अखिलेश तिवारी ग़ज़ल 

पानी में जो आया है तो गहरे भी उतर जा
दरिया को खंगाले बिना गौहर न मिलेगा
दर-दर यूँ भटकता है अबस जिसके लिए तू
घर में ही उसे ढूंढ वो बाहर न मिलेगा
ऐसे ही जो हुक्काम के सजदों में बिछेंगे
काँधे पे किसी के भी कोई सर न मिलेगा
महफूज़ तभी तक है रहे छाँव में जब तक
जो धूप पड़ी मोम का पैकर न मिलेगा

हम उन सवालों को लेकर उदास कितने थे अखिलेश तिवारी ग़ज़ल 

हम उन सवालों को लेकर उदास कितने थे
जवाब जिनके यहीं आसपास कितने थे
हंसी, मज़ाक, अदब, महफ़िलें, सुख़नगोई
उदासियों के बदन पर लिबास कितने थे
पड़े थे धूप में एहसास के नगीने सब
तमाम शहर में गोहरशनाश कितने थे

तू इश्क में मिटा न कभी दार पर गया अखिलेश तिवारी ग़ज़ल 

तू इश्क में मिटा न कभी दार पर गया
नायब ज़िन्दगी को भी बेकार कर गया
मिटटी का घर बिखरना था आखिर बिखर गया
अच्छा हुआ कि ज़ेहन से आंधी का डर गया
बेहतर था कैद से ये बिखर जाना इसलिए
ख़ुश्बू की तरह से मैं फिजा में बिखर गया
अखिलेश' शायरी में जिसे ढूंढते हो तुम
जाने वो धूप छाँव का पैकर किधर गया.

Comments

Popular Posts

Ahmed Faraz Ghazal / अहमद फ़राज़ ग़ज़लें

अल्लामा इक़बाल ग़ज़ल /Allama Iqbal Ghazal

Ameer Minai Ghazal / अमीर मीनाई ग़ज़लें

मंगलेश डबराल की लोकप्रिय कविताएं Popular Poems of Manglesh Dabral

Ye Naina Ye Kajal / ये नैना, ये काजल, ये ज़ुल्फ़ें, ये आँचल

Akbar Allahabadi Ghazal / अकबर इलाहाबादी ग़ज़लें

Sant Surdas ji Bhajan lyrics संत श्री सूरदास जी के भजन लिरिक्स

Adil Mansuri Ghazal / आदिल मंसूरी ग़ज़लें

बुन्देली गारी गीत लोकगीत लिरिक्स Bundeli Gali Geet Lokgeet Lyrics

Mira Bai Ke Pad Arth Vyakhya मीराबाई के पद अर्थ सहित