Insha Allah Khan Insha Ghazal / इंशा अल्ला खाँ 'इंशा' की ग़ज़लें

  कमर बाँधे हुए चलने को इंशा अल्ला खाँ इंशा की ग़ज़ल

कमर बाँधे हुए चलने को याँ सब यार बैठे हैं 

बहुत आगे गए बाक़ी जो हैं तय्यार बैठे हैं 


न छेड़ ऐ निकहत-ए-बाद-ए-बहारी राह लग अपनी 

तुझे अटखेलियाँ सूझी हैं हम बे-ज़ार बैठे हैं 


ख़याल उन का परे है अर्श-ए-आज़म से कहीं साक़ी 

ग़रज़ कुछ और धुन में इस घड़ी मय-ख़्वार बैठे हैं 


बसान-ए-नक़्श-ए-पा-ए-रह-रवाँ कू-ए-तमन्ना में 

नहीं उठने की ताक़त क्या करें लाचार बैठे हैं 


ये अपनी चाल है उफ़्तादगी से इन दिनों पहरों 

नज़र आया जहाँ पर साया-ए-दीवार बैठे हैं 


कहें हैं सब्र किस को आह नंग ओ नाम है क्या शय 

ग़रज़ रो पीट कर उन सब को हम यक बार बैठे हैं 


कहीं बोसे की मत जुरअत दिला कर बैठियो उन से 

अभी इस हद को वो कैफ़ी नहीं हुश्यार बैठे हैं 


नजीबों का अजब कुछ हाल है इस दौर में यारो 

जिसे पूछो यही कहते हैं हम बेकार बैठे हैं 


नई ये वज़्अ शरमाने की सीखी आज है तुम ने 

हमारे पास साहब वर्ना यूँ सौ बार बैठे हैं 


कहाँ गर्दिश फ़लक की चैन देती है सुना 'इंशा' 

ग़नीमत है कि हम सूरत यहाँ दो-चार बैठे हैं 

 है तिरा गाल माल बोसे का

है तिरा गाल माल बोसे का 

क्यूँ न कीजे सवाल बोसे का 


मुँह लगाते ही होंठ पर तेरे 

पड़ गया नक़्श लाल बोसे का 


ज़ुल्फ़ कहती है उस के मुखड़े पर 

हम ने मारा है जाल बोसे का 


सुब्ह रुख़्सार उस के नीले थे 

शब जो गुज़रा ख़याल बोसे का 


अँखड़ियाँ सुर्ख़ हो गईं चट से 

देख लीजे कमाल बोसे का 


जान निकले है और मियाँ दे डाल 

आज वा'दा न टाल बोसे का 


गालियाँ आप शौक़ से दीजे 

रफ़अ' कीजे मलाल बोसे का 


है ये ताज़ा शगूफ़ा और सुनो 

फूल लाया निहाल बोसे का 


अक्स से आइने में कहता है 

खींच कर इंफ़िआल बोसे का 


बर्ग-ए-गुल से जो चीज़ नाज़ुक है 

वाँ कहाँ एहतिमाल बोसे का 


देख 'इंशा' ने क्या किया है क़हर 

मुतहम्मिल ये गाल बोसे का 

 अच्छा जो ख़फ़ा हम से हो तुम इंशा अल्ला खाँ इंशा की ग़ज़ल

अच्छा जो ख़फ़ा हम से हो तुम ऐ सनम अच्छा 

लो हम भी न बोलेंगे ख़ुदा की क़सम अच्छा 


मशग़ूल किया चाहिए इस दिल को किसी तौर 

ले लेवेंगे ढूँड और कोई यार हम अच्छा 


गर्मी ने कुछ आग और भी सीने में लगाई 

हर तौर ग़रज़ आप से मिलना ही कम अच्छा 


अग़्यार से करते हो मिरे सामने बातें 

मुझ पर ये लगे करने नया तुम सितम अच्छा 


हम मोतकिफ़-ए-ख़ल्वत-ए-बुत-ख़ाना हैं ऐ शैख़ 

जाता है तो जा तू पए-तौफ़-ए-हरम अच्छा 


जो शख़्स मुक़ीम-ए-रह-ए-दिलदार हैं ज़ाहिद 

फ़िरदौस लगे उन को न बाग़-ए-इरम अच्छा 


कह कर गए आता हूँ कोई दम को अभी मैं 

फिर दे चले कल की सी तरह मुझ को दम अच्छा 


इस हस्ती-ए-मौहूम से मैं तंग हूँ 'इंशा' 

वल्लाह कि इस से ब-मरातब अदम अच्छा 

 मिल मुझ से ऐ परी तुझे  इंशा अल्ला खाँ इंशा की ग़ज़ल

मिल मुझ से ऐ परी तुझे क़ुरआन की क़सम 

देता हूँ तुझ को तख़्त-ए-सुलैमान की क़सम 


कर्र-ओ-बयों की तुझ को क़सम और अर्श की 

जिबरील की क़सम तुझे रिज़वान की क़सम 


तूबा की सलसबील की कौसर के जाम की 

हूर-ओ-क़ुसूर-ओ-जन्नत-ओ-ग़िलमान की क़सम 


रूहुल-क़ुदुस की तुझ को क़सम और मसीह की 

मरियम के तुझ को इफ़्फ़त-ए-दामान की क़सम 


तौरेत की क़सम क़सम इंजील की तुझे 

तुझ को क़सम ज़बूर की फुर्क़ान की क़सम 


तुझ को मोहम्मद-ए-अरबी की क़सम है और 

मौला-अली की शाह-ए-ख़ुरासान की क़सम 


मिल्लत में जिस की तू हुई उस की क़सम तुझे 

और अपने दीन मज़हब-ओ-ईमान की क़सम 


दामाँ को मेरी हाथ से उस रात मत झटक 

तुझ को सहर के चाक-ए-गरेबाँ की क़सम 


मुद्दत से तेरी चाह-ए-ज़क़न में ग़रीक़ हूँ 

बिल्लाह मुझ को यूसुफ़-ए-कनआ'न की क़सम 


क़ैदी हूँ मैं तिरा ब-ख़ुदा-वंदी-ए-ख़ुदा 

और उस अज़ीज़-ए-मिस्र के ज़िंदान की क़सम 


मूसा की है क़सम तुझे और कोह-ए-तूर की 

नूर-ओ-फ़रोग़-ए-जल्वा-ए-लमआ'न की क़सम 


नर्गिस की आँख की क़सम और गुल के कान की 

तुझ को सर-ए-अज़ीज़-ए-गुलिस्तान की क़सम 


तुझ को क़सम है ग़ुंचा-ए-ज़म्बक़ के नाक की 

और शोर-ए-अंदलीब-ए-ग़ज़ल-ख़्वान की क़सम 


सोने की गाए की क़सम और रूद-ए-नील की 

फ़िरऔन की क़सम तुझे हामान की क़सम 


बिस्तर मिरा है ख़ार-ए-मुग़ीलाँ बसान-ए-क़ैस 

लैला की है तुझे सफ़-ए-मिज़्गान की क़सम 


ऐसी बड़ी क़सम भी न माने तो है तुझे 

तुझ को उसी के शौकत-ए-ज़ीशान की क़सम 


देव-ए-सफ़ेद की क़सम और कोह-ए-क़ाफ़ की 

बाग़-ए-इरम की और परिस्तान की क़सम 


लोना-चमारी की क़सम और कल्लू-अबीर की 

काली-बला की ग़ूल-ए-बयाबान की क़सम 


क़स्में तो सारी हो चुकीं बाक़ी रही है अब 

पीपल तले के भुतने की शैतान की क़सम 


हाँ फिर तू कहियो हाए वो किस तरह होए ग़ज़ब 

'इंशा' न छेड़ मुझ को मिरी जान की क़सम

 नींद मस्तों को कहाँ इंशा अल्ला खाँ इंशा की ग़ज़ल

नींद मस्तों को कहाँ और किधर का तकिया 

ख़िश्त-ए-ख़ुम-ख़ाना है याँ अपने तो सर का तकिया 


लख़्त-ए-दिल आ के मुसाफ़िर से ठहरते हैं यहाँ 

चश्म है हम से गदाओं की गुज़र का तकिया 


जिस तरफ़ आँख उठा देखिए हो जाए असर 

हम तो रखते हैं फ़क़त अपनी नज़र का तकिया 


चैन हरगिज़ नहीं मख़मल के उसे तकिए पर 

उस परी के लिए हो हूर के पर का तकिया 


हाथ अपने के सिवा और तो क्या हो हैहात 

वालिह ओ दर-ब-दर ओ ख़ाक-बसर का तकिया 


सर तो चाहे है मिरा होवे मयस्सर तेरे 

हाथ का बाज़ू का ज़ानू का कमर का तकिया 


ये तो हासिल है कहाँ भेज दे लेकिन मुझ को 

जिस में बालों की हो बू तेरे हो सर का तकिया 


तीखे-पन के तिरे क़ुर्बान अकड़ के सदक़े 

क्या ही बैठा है लगा कर के सिपर का तकिया 


गरचे हम सख़्त गुनहगार हैं लेकिन वल्लाह 

दिल में जो डर है हमें है उसी डर का तकिया 


गिर्या ओ आह-ओ-फ़ुग़ाँ नाला ओ या रब फ़रियाद 

सब को है हर शब-ओ-रोज़ अपने असर का तकिया 


रिंद ओ आज़ाद हुए छोड़ इलाक़ा सब का 

ढूँढते कब हैं पिदर और पिसर का तकिया 


गर भरोसा है हमें अब तो भरोसा तेरा 

और तकिया है अगर तेरे ही दर का तकिया 


शौक़ से सोइए सर रख के मिरे ज़ानू पर 

उस को मत समझिए कुछ ख़ौफ़-ओ-ख़तर का तकिया 


जब तलक आप न जागेंगे रहेगा यूँ ही 

सरकेगा तब ही कि जब कहियेगा सरका तकिया 


लुत्फ़-ए-इज़दी ही से उम्मीद है इंशा-अल्लाह 

कुछ नहीं रखते हैं हम फ़ज़्ल ओ हुनर का तकिया

 गाली सही अदा सही इंशा अल्ला खाँ इंशा की ग़ज़ल

गाली सही अदा सही चीन-ए-जबीं सही 

ये सब सही पर एक नहीं की नहीं सही 


मरना मिरा जो चाहे तो लग जा गले से टुक 

अटका है दम मिरा ये दम-ए-वापसीं सही 


गर नाज़नीं के कहने से माना बुरा हो कुछ 

मेरी तरफ़ को देखिए मैं नाज़नीं सही 


कुछ पड़ गया है आँख में रोना कहे है तू 

क्यूँ मैं अबस को बहसूँ यही दिल-नशीं सही 


आगे बढ़े जो जाते हो क्यूँ कौन है यहाँ 

जो बात हम को कहनी है तुम से यहीं सही 


मंज़ूर दोस्ती जो तुम्हें है हर एक से 

अच्छा तो क्या मुज़ाएक़ा 'इंशा' से कीं सही 

 तब से आशिक़ हैं हम इंशा अल्ला खाँ इंशा की ग़ज़ल

तब से आशिक़ हैं हम ऐ तिफ़्ल-ए-परी-वश तेरे 

जब से मकतब में तू कहता था अलिफ़ बे ते से 


याद आता है वो हर्फ़ों का उठाना अब तक 

जीम के पेट में एक नुक्ता है और ख़ाली हे 


हे की पर शक्ल हवासिल की सी आती है नज़र 

नुक़्ता इस पर जो लगा ख़े हुआ ये वाह बे ख़े 


दाल भी छोटी बहन उस की है जूँ आतूजे 

एक परकाला सा बेटा भी है घर में उन के 


रे भी ख़ाली है और ज़े पे है वो नुक्ता एक 

कि मुशाबह है जो तिल से मिरी रुख़्सारे के 


सीन ख़ाली है बड़ी शीन पे हैं नुक़्ता तीन 

साद और ज़ाद में बस फ़र्क़ है इक नुक़्ते से 


तोय बिन तुर्रा है और ज़ोय पर इक नुक़्ता फिर 

ऐन बे-ऐब है और काने मियाँ ग़ेन हुए 


फ़े पे इक नुक़्ता है और क़ाफ़ पे हैं नुक़्ता दो 

काफ़ भी ख़ाली है और लाम भी ख़ाली, ये ले 


मीम भी यूँ ही है और नून के अंदर नुक़्ता 

मुफ़लिसा बेग है ये वाव भी और छोटी हे 


क्या ख़लीफ़ा जी ये है है है नहीं से निकले 

आगे छुट्टी दो ऐ लो लाम अलिफ़ हमज़ा ये 


गालियाँ तेरी ही सुनता है अब 'इंशा' वर्ना 

किस की ताक़त है अलिफ़ से जो कहे उस को बे

 मुझे क्यूँ न आवे साक़ी नज़र इंशा अल्ला खाँ इंशा की ग़ज़ल

मुझे क्यूँ न आवे साक़ी नज़र आफ़्ताब उल्टा 

कि पड़ा है आज ख़ुम में क़दह-ए-शराब उल्टा 


अजब उल्टे मुल्क के हैं अजी आप भी कि तुम से 

कभी बात की जो सीधी तो मिला जवाब उल्टा 


चले थे हरम को रह में हुए इक सनम के आशिक़ 

न हुआ सवाब हासिल ये मिला अज़ाब उल्टा 


ये शब-ए-गुज़िश्ता देखा वो ख़फ़ा से कुछ हैं गोया 

कहें हक़ करे कि होवे ये हमारा ख़्वाब उल्टा 


अभी झड़ लगा दे बारिश कोई मस्त बढ़ के ना'रा 

जो ज़मीन पे फेंक मारे क़दह-ए-शराब उल्टा 


ये अजीब माजरा है कि ब-रोज़-ए-ईद-ए-क़ुर्बां 

वही ज़ब्ह भी करे है वही ले सवाब उल्टा 


यूँही वा'दा पर जो झूटे तो नहीं मिलाते तेवर 

ऐ लो और भी तमाशा ये सुनो जवाब उल्टा 


खड़े चुप हो देखते क्या मिरे दिल उजड़ गए को 

वो गुनह तो कह दो जिस से ये दह-ए-ख़राब उल्टा 


ग़ज़ल और क़ाफ़ियों में न कही सो क्यूँकि 'इंशा' 

कि हवा ने ख़ुद-बख़ुद आ वरक़-ए-किताब उल्टा

 चाहता हूँ तुझे नबी की क़सम इंशा अल्ला खाँ इंशा की ग़ज़ल

चाहता हूँ तुझे नबी की क़सम 

हज़रत-ए-मुर्तज़ा-अली की क़सम 


मुझे ग़मगीं न छोड़ रोता आज 

तुझे अपनी हँसी-ख़ुशी की क़सम 


साफ़ कह बैठिए न जी में जो हो 

आप को अपनी सादगी की क़सम 


मैं दिलाई क़सम तो कहने लगे 

हम नहीं मानते किसी की क़सम 


सदक़ा होता हूँ जिस घड़ी मुझ को 

याद आती है उस परी की क़सम 


हाए कहना वो उस का चुपके से 

तुझे 'इंशा' हमारी जी की क़सम 

 है मुझ को रब्त बस-कि इंशा अल्ला खाँ इंशा की ग़ज़ल

है मुझ को रब्त बस-कि ग़ज़ालान-ए-रम के साथ 

चौकूँ हूँ देख साए को अपने क़दम के साथ 


है ज़ात-ए-हक़ जवाहिर ओ अग़राज़ से बरी 

तश्बीह क्या है उस को वजूद ओ अदम के साथ 


क्या ऐन ओ मुल्क ओ वज़्अ ओ इज़ाफ़त का दख़्ल वाँ 

है इंफ़िआल ओ फ़ेल मता कैफ़-ओ-कम के साथ 


देखा मैं साथ ढोल के सूली पर उन का सर 

फ़ख़्रिय्या वो जो फिरते थे तब्ल-ओ-अलम के साथ 


देखी ये चाह उन की अंधेरे कुएँ के बीच 

फेंका लपेट कुश्ते को अपने गुलम के साथ 


कू-ए-बुताँ से तौफ़-ए-हरम को चले तो हम 

लेकिन कमाल-ए-हसरत ओ हिरमान ओ ग़म के साथ 


थीं अपनी आँखें हल्क़ा-ए-ज़ंजीर की नमत 

पैवस्ता हिल रही दर-ए-बैतुस-सनम के साथ 


कहते हो वूँ से होके इधर आओ वूँ चलें 

क्या ख़ूब क्यूँ न दौड़ पड़ूँ ऐसे दम के साथ 


तुम और बात मानो अजी सब नज़र में है 

दाँतों तले ज़बान दबानी क़सम के साथ 


अब छेड़ छाड़ की ग़ज़ल 'इंशा' इक और लिख 

हैं लाख शोख़ियाँ तिरी नोक-ए-क़लम के साथ

 ज़मीं से उट्ठी है या चर्ख़ पर इंशा अल्ला खाँ इंशा की ग़ज़ल

ज़मीं से उट्ठी है या चर्ख़ पर से उतरी है 

ये आग इश्क़ की यारब किधर से उतरी है 


उतरती नज्द में कब थी सवारी-ए-लैला 

टुक आह क़ैस के जज़्ब-ए-असर से उतरी है 


नहीं नसीम-ए-बहारी ये है परी कोई 

उड़न-खटोले को ठहरा जो फ़र से उतरी है 


न जान इस को शब-ए-मह ये चाँदनी-ख़ानम 

कमंद-ए-नूर पे औज-ए-क़मर से उतरी है 


चलो न देखें तो कहते हैं दश्त-ए-वहशत में 

जुनूँ की फ़ौज बड़े कर्र-ओ-फ़र्र से उतरी है 


नहीं ये इश्क़ तजल्ली है हक़-तआला की 

जो राह ज़ीना-ए-बाम-ए-नज़र से उतरी है 


लिबास-ए-आह में लिखने के वास्ते 'इंशा' 

क़लम दवात तुझे अर्श पर से उतरी है

 दिल-ए-सितम-ज़दा बेताबियों ने इंशा अल्ला खाँ इंशा की ग़ज़ल

दिल-ए-सितम-ज़दा बेताबियों ने लूट लिया 

हमारे क़िबले को वहहाबियों ने लूट लिया 


कहानी एक सुनाई जो हीर-राँझा की 

तो अहल-ए-दर्द को पंजाबियों ने लूट लिया 


ये मौज-ए-लाला-ए-ख़ुद-रौ नसीम से बोले 

कि कोह-ओ-दश्त को सैराबियों ने लूट लिया 


सबा क़बीला-ए-लैला में उड़ गई ये ख़बर 

कि नाक़ा नज्द के आराबियों ने लूट लिया 


किसी तरह से नहीं नींद आती 'इंशा' को 

इसी ख़याल में बे-ख़्वाबियों ने लूट लिया

 लग जा तू मिरे सीना से

लग जा तू मिरे सीना से दरवाज़ा को कर बंद 

दे खोल क़बा अपनी की बे-ख़ौफ़-ओ-ख़तर बंद 


अफ़्सून-ए-निगह से तिरी ऐ साक़ी-ए-बद-मस्त 

शीशे में हुई मिस्ल-ए-परी अपनी नज़र-बंद 


मकड़ाते हुए फिरते हैं हम कूचे में उस के 

क्या कीजिए दरवाज़ा इधर बंद उधर बंद 


या शाह-ए-नजफ़ नाम इशारे में तिरा लूँ 

हो जाए दम-ए-नज़अ ज़बाँ मेरे अगर बंद 


आवे वो अगर यार-ए-सफ़र-कर्दा तो 'इंशा' 

मैं दौड़ के किस लुत्फ़ से खुलवाऊँ क़मर-बंद

 या वस्ल में रखिए मुझे इंशा अल्ला खाँ इंशा की ग़ज़ल

या वस्ल में रखिए मुझे या अपनी हवस में 

जो चाहिए सो कीजिए हूँ आप के बस में 


ये जा-ए-तरह्हुम है अगर समझे तू सय्याद 

मैं और फँसूँ इस तरह इस कुंज-ए-क़फ़स में 


आती है नज़र उस की तजल्ली हमें ज़ाहिद 

हर चीज़ में हर संग में हर ख़ार में ख़स में 


हर रात मचाते फिरें हैं शौक़ से धूमें 

ये मस्त-ए-मय-ए-इश्क़ हैं कब ख़ौफ़-ए-असस में 


क्या पूछते हो उम्र कटी किस तरह अपनी 

जुज़ दर्द न देखा कभू इस तीस बरस में 


हर बात में ये जल्दी है हर नुक्ते में इसरार 

दुनिया से निराली हैं ग़रज़ तेरी तो रस्में 


दुश्मन को तिरे गाड़ूँ मैं ऐ जान-ए-जहाँ बस 

तू मुझ को दिलाया न कर इस तौर की क़स्में 


'इंशा' तिरे गर गोश असम हों न तो आवे 

आवाज़ तिरे यार की हर बाँग-ए-जरस में

 अमरद हुए हैं तेरे ख़रीदार चार पाँच

अमरद हुए हैं तेरे ख़रीदार चार पाँच 

दे ऐसे और हक़ मुझे अग़्यार चार पाँच 


जब गुदगुदाते हैं तुझे हम और ढब से तब 

सहते हैं गालियाँ तिरी ना-चार चार पाँच 


कल यूँ कहा कि टुक तू ठहर ले तो बोले आप 

हैं मुंतज़िर मिरे सर-ए-बाज़ार चार पाँच 


ओ जाने वाले शख़्स टुक इक मुड़ के देख ले 

याँ भी तड़प रहे हैं गुनाहगार चार पाँच 


सय्याद ले ख़बर कि दिया चाहते हैं जान 

कुंज-ए-क़फ़स में ताज़ा गिरफ़्तार चार पाँच 


म्याँ हम भी कोई क़हर हैं जब देखो तब लिए 

बैठे हैं अपने पास तरहदार चार पाँच 


चुपके से तुम जो कहते हो हैं अपने आश्ना 

शोला भभूके और धुआँ-धार चार पाँच 


हर एक उन से शोख़ है क्या ख़ूब बात हो 

लग जाएँ तेरे हाथ जो यक-बार चार पाँच 


तू उन को चाह छोड़ मुझे वाछड़े चे-ख़ुश 

रक्खे हैं मेरे वास्ते दिलदार चार पाँच 


है काम एक ही से वो चूल्हे में सब पड़ें 

सदक़े किए थे ऐसे वो फ़िन्नार चार पाँच 


साहिब तुम्हीं तुम्हीं नहीं हरगिज़ नहीं नहीं 

मुझ को नहीं नहीं नहीं दरकार चार पाँच 


'मीर' ओ 'क़तील' ओ 'मुसहफ़ी' ओ 'जुरअत' ओ 'मकीं' 

हैं शायरों में ये जो नुमूदार चार पाँच 


सो ख़ूब जानते हैं कि हर एक रंग के 

'इंशा' की हर ग़ज़ल में हैं अशआर चार पाँच 

 क्या मिला हम को तेरी यारी में इंशा अल्ला खाँ इंशा की ग़ज़ल

क्या मिला हम को तेरी यारी में 

रहे अब तक उमीद-वारी में 


हाथ गहरा लगा कू-ए-क़ातिल 

ज़ोर-ए-लज़्ज़त है ज़ख़्म-ए-कारी में 


दिल जो बे-ख़ुद हुआ सबा लाई 

किस की बू निगहत-ए-बहारी में 


टुक उधर देख तू भला ऐ चश्म 

फ़ाएदा ऐसी अश्क-बारी में 


चट लगा देते हैं मिरे आँसू 

सिल्क-ए-गौहर के आब-दारी में 


रूठ कर उस से मैं जो कल भागा 

ना-गहाँ दिल की बे-क़रारी में 


आ लिया उस ने दौड़ कर मुझ को 

ताक के ओछल एक क्यारी में 


यूँ लगा कहने बस दिवाना न बन 

पावँ रख अपना होशियारी में 


कब तलक मैं भला रहूँ शब-ओ-रोज़ 

तेरी ऐसी मज़ाज-दारी में 


है समाया हुआ जो लड़का-पन 

आप की वज़्अ' प्यारी प्यारी में 


अपनी बकरी का मुँह चिड़ाते वक़्त 

क्या ख़ुश आती है ये तुम्हारी ''में'' 


बंदा-ए-बू-तुराब है 'इंशा' 

शक नहीं उस की ख़ाकसारी में 

 मियाँ चश्म-ए-जादू पे इतना घमंड इंशा अल्ला खाँ इंशा की ग़ज़ल

मियाँ चश्म-ए-जादू पे इतना घमंड 

ख़त-ओ-ख़ाल ओ गेसू पे इतना घमंड 


अजी सर उठा कर इधर देखना 

इसी चश्म ओ अबरू पे इतना घमंड 


नसीम-ए-गुल इस ज़ुल्फ़ में हो तो आ 

न कर अपनी ख़ुशबू पे इतना घमंड 


शब-ए-मह में कहता है वो माह से 

रकाबी से इस रू पे इतना घमंड 


बस ऐ शम्अ कर फ़िक्र अपनी ज़रा 

इन्ही चार आँसू पे इतना घमंड 


अकड़ता है क्या देख देख आइना 

हसीं गरचे है तू प इतना घमंड 


वो कर पंजा 'इंशा' से बोले कि वाह 

इसी ज़ोर-ए-बाज़ू पे इतना घमंड

 भले आदमी कहीं बाज़ आ अरे इंशा अल्ला खाँ इंशा की ग़ज़ल

भले आदमी कहीं बाज़ आ अरे उस परी के सुहाग से 

कि बना हुआ हो जो ख़ाक से उसे क्या मुनासिबत आग से 


बहुत अपनी ताक बुलंद थी कोई बीस गज़ की कमंद थी 

पर उछाल फाँदा वो बंद थी तिरे चौकी-दारों की जाग से 


बहुत आए मोहरे कड़े कड़े वो जो मुंड-जी थे बड़े बड़े 

वले ऐसे तो न नज़र पड़े कि जो साफ़ पाक हों लाग से 


वो सियाह-बख़्त जो रात को तिरे दाम-ए-ज़ुल्फ़ में फँस गया 

उसे आ के वहम-ओ-ख़याल के लगे डसने सैकड़ों नाग से 


भरा मैं ने बिंदराबन में जो अरे किश्न होप का नारा तो 

महाराज नाचते कूदते चले आए लट-पटी पाग से 


लगे कहने खेम-कुसल उसे जो 'अली' के ध्यान के बीच है 

तोरे दुख-दलिद्दर जित्ते थे गए भाग आप के भाग से 


होए आशिक़ उन के हैं मर्द ओ ज़न ये अनोखी उन की भी कुछ नहीं 

कोई ताज़ा आए हैं बरहमन ये जो काशी और पराग से 


तुझे चाहते नहीं हम हैं बस उन्हों को भी तो तिरी हवस 

वो जो भकड़े बेर से सौ बरस के पुराने बूढ़े हैं दाग से 


ऐ लो आए आए सिवाए कुछ नहीं बात ध्यान में चढ़ती कुछ 

कुछ इक इन फ़क़ीरों की मजलिसें भी तो मिलती-जुलती हैं भाग से 


मुझे काम उन के जमाल से न तो टप्पे से न ख़याल से 

न तो वज्द से न तो हाल से न तो नाच से न तो राग से 


ये सआदत उस को 'अली' ने दी जो वज़ीर-ए-आज़म-ए-हिन्द है 

कि बदौलत उस की जहान में नहीं ख़ौफ़ बकरी को बाग से 


मुझे रहम आता है ऐसों पर बसर अपने करते हैं वक़्त जो 

किसी फल से या किसी फूल से किसी पात से किसी साग से 


गुथी इन सुरों ही में आ गई मुझे इक उरूस के बास से 

अभी 'इंशा' अपना हो बस अगर तो लिपट ही जाऊँ बहाग से 

 आने अटक अटक के लगी साँस रात से इंशा अल्ला खाँ इंशा की ग़ज़ल

आने अटक अटक के लगी साँस रात से 

अब है उमीद सिर्फ़ ख़ुदा ही की ज़ात से 


साक़ी हवा-ए-सर्द को तू सरसरी न जान 

कैफ़िय्यत उस की पूछ नबात-ए-नबात से 


अपना सनम वो क़हर है ऐ बरहमन कि गर 

देखे मनात को तो गिरा देवे लात से 


कल से तो इख़्तिलात में ताज़ा है इख़तिराअ' 

रुकने लगी हैं आप मिरी बात बात से 


पेश आइए ब-शफ़क़त-ओ-लुत्फ़ उस से शैख़ जी 

बिंत-उल-अनब को जानिए अपने नबात से 


हासिल किया जो हम ने क़दम-बोस-ए-पीर-ए-दैर 

आई सदा-ए-इश्क़ दर-ए-सोमनात से 


हैं वाजिब-उल-वजूद के अनवार इश्क़ में 

उस की सिफ़ात-ए-ज़ात नहीं मुम्किनात से 


अशआ'र-ए-तब्अ'-ज़ाद मिरी सुन के शोख़ वो 

कहने लगा कि फ़ाएदा इस मोहमलात से 


मुतलक़ मिला के आँख इधर देखते नहीं 

आते नज़र हो आज भी कम इल्तिफ़ात से 


'इंशा' ने आ लगा ही लिया तुम को बात में 

ज़ालिम वो चूकता है कोई अपनी घात से 

 टुक आँख मिलाते ही किया काम हमारा इंशा अल्ला खाँ इंशा की ग़ज़ल

टुक आँख मिलाते ही किया काम हमारा 

तिस पर ये ग़ज़ब पूछते हो नाम हमारा 


तुम ने तो नहीं ख़ैर ये फ़रमाइए बारे 

फिर किन ने लिया राहत-ओ-आराम हमारा 


मैं ने जो कहा आइए मुझ पास तो बोले 

क्यूँ किस लिए किस वास्ते क्या काम हमारा 


रखते हैं कहीं पाँव तो पड़ते हैं कहीं और 

साक़ी तू ज़रा हाथ तो ले थाम हमारा 


टुक देख इधर ग़ौर कर इंसाफ़ ये है वाह 

हो जुर्म ओ गुनह ग़ैर से और नाम हमारा 


ऐ बाद-ए-सबा महफ़िल-ए-अहबाब में कहियो 

देखा है जो कुछ हाल तह-ए-दाम हमारा 


गर वक़्त-ए-सहर जाइए होता है ये इरशाद 

है वक़्त-ए-मुलाक़ात सर-ए-शाम हमारा 


फिर शाम को आए तो कहा सुब्ह को यूँही 

रहता है सदा आप पर इल्ज़ाम हमारा 


सर-गश्तगी-ए-मरहला-ए-शौक़ में ऐ इश्क़ 

पड़ता है नई वज़्अ से हर गाम हमारा 


ऐ बरहमन-ए-दैर मोहब्बत में सनम की 

अल्लाह ही बाक़ी रखे इस्लाम हमारा 


हम कूचा-ए-दिलदार के होते हैं तसद्दुक़ 

ऐ शेख़-ए-हरम है यही एहराम हमारा 


बेताबी-ए-दिल के सबब उस शोख़ तक 'इंशा' 

पहुँचे है बिला वास्ता पैग़ाम हमारा 

 देखना जब मुझे कर शान ये गाली देना इंशा अल्ला खाँ इंशा की ग़ज़ल

देखना जब मुझे कर शान ये गाली देना 

किस से तुम सीखे हो हर आन ये गाली देना 


इख़्तिलात आप से और मुझ से कहाँ का ऐसा 

वाह जी जान न पहचान ये गाली देना 


अब तो नादाँ हो सुना चाहो सो प्यारे कह लो 

पर तुम्हें होवेगा नुक़सान ये गाली देना 


आख़िरश होगी जो उन पर तो किसे भावेगा 

चंद रोज़ और ही मेहमान ये गाली देना 


तोहमत-ए-बोसा अबस देती हो मंज़ूर जो हो 

कर के बे-फ़ाएदा बोहतान ये गाली देना 


दीजिए दीजिए है ऐन सआ'दत अपनी 

आशिक़ों पर तो है एहसान ये गाली देना 


तेरे ग़ुस्सा से जो 'इंशा' हो ख़फ़ा नाहक़ है 

हाँ तुझे चाहिए नादान ये गाली देना

 बस्ती तुझ बिन उजाड़ सी है इंशा अल्ला खाँ इंशा की ग़ज़ल

बस्ती तुझ बिन उजाड़ सी है 

कम-बख़्त ये शब पहाड़ सी है 


शायद कि हुई सरायत-ए-इश्क़ 

कुछ सीने में चीर-फाड़ सी है 


हर-चंद कि बोलते नहीं वो 

बाहम पर छेड़-छाड़ सी है 


सो रहते हैं एक साथ लेकिन 

तलवार के बीच आड़ सी है 


इंशा-अल्लाह शायद आया 

इस कूचे में भीड़-भाड़ सी है

 तुम्हारे हाथों की उँगलियों की ये देखो पोरें इंशा अल्ला खाँ इंशा की ग़ज़ल

तुम्हारे हाथों की उँगलियों की ये देखो पोरें ग़ुलाम तीसों 

ग़रज़ कि ग़श है अगर न मानो तो झट उठा ले कलाम तीसों 


इमाम बारा बुरूज बारा अनासिर-ओ-जिस्म-ओ-रूह ऐ दिल 

यही तो सरकार-ए-हक़-तआला की हैं मुदारुलमहाम तीसों 


नहीं अजाइब कुछ आँख ही में रूतूबतें तीन सात पर्दे 

ओक़ूल दस मुद्रिकात दस हैं सो करते रहते हैं काम तीसों 


उलूम चौदह मक़ूला दस और जिहात सित्ता बनाए उस ने 

उमूर-ए-दुनिया को ताकि पहुंचाएँ ख़ूब सा इंसिराम तीसों 


बलाएँ काली हैं उस परी बिन ये तीसों रातें कुछ ऐसी 'इंशा' 

कि हर महीने के दिन भी जिन को करे हैं झुक कर सलाम तीसों

 बंदगी हम ने तो जी से अपनी ठानी इंशा अल्ला खाँ इंशा की ग़ज़ल

बंदगी हम ने तो जी से अपनी ठानी आप की 

बंदा-पर्वर ख़ैर आगे क़द्र-दानी आप की 


थी जो वो लाही की टोपी ज़ाफ़रानी आप की 

सो हमारे पास है अब तक निशानी आप की 


दम-ब-दम कह बैठना बस जाओ अपनी उन के पास 

क्यूँ नहीं जाती वो अब तक बद-गुमानी आप की 


क्या कहूँ मारे ख़ुशी के हाल मेरा क्या हुआ 

आमद आमद जो हुई कल ना-गहानी आप की 


है किसी से आज वा'दा कुछ अजी ख़ाली नहीं 

ये धड़े मिस्सी की होंटों पर जमानी आप की 


हम ने सौ रातें जगाईं तब हुआ ये इत्तिफ़ाक़ 

सो उसी दिन को धरी थी नींद आनी आप की 


मेरे हक़ में अब जो ये इरशाद फ़रमाया कि है 

ख़ूब याँ मनक़ूश-ख़ातिर जाँ-फ़िशानी आप की 


लेक मैं ओढूँ बिछाऊँ या लपेटूँ क्या करूँ 

रूखी फीकी ऐसी सूखी मेहरबानी आप की 


क्यूँ न इश्क़-अल्लाह बोलूँ हज़रत-ए-दिल आप को 

पेशवाओं ने भी अपनी आन मानी आप की 


दीद कर डाला बस उन से आलम-ए-लाहूत सब्त 

जिस ने लगदी बंक की साफ़ी में छानी आप की 


अपनी आँखों में पड़ी फिरती है अब तक रोज़-ओ-शब 

अर्श पर दाता वही सूरत दिखानी आप की 


ऐ जुनूँ उस्ताद बस ख़म ठोंक कर आ जाइए 

हाँ ख़लीफ़ा हम भी देखें पहलवानी आप की 


सदक़ा सदक़ा क्यूँ न हो जाऊँ भला ग़श खा के मैं 

देख गदराई हुई उठती जवानी आप की 


सब्ज़ा-आग़ाज़ी सो ये कुछ तिसपे आफ़त सादगी 

क़हर फिर उस बात पर गर्दन हिलानी आप की 


अपनी आँखों में तरावट आ गई यक-बारगी 

देख कर ये लहलहे पोशाक धानी आप की 


क्यूँ न लड़की सब कहें हव्वा तुम्हें ऐ शैख़ जियू 

है जमूख़ी की सी सूरत ये डरानी आप की 


गोल पगड़ी नीली लुंगी मूंछ मुंडी तकिया रीश 

फिर वो रूमाल और वो अख़-थू नासदानी आप की 


दो गुलाबी ला के साक़ी ने कहा 'इंशा' को रात 

ज़ाफ़रानी मेरा हिस्सा अर्ग़वानी आप की

 लब पे आई हुई ये जान फिरे इंशा अल्ला खाँ इंशा की ग़ज़ल

लब पे आई हुई ये जान फिरे 

यार गर इस तरफ़ को आन फिरे 


चैन क्या हो हमें जब आठ पहर 

अपने आँखों में वो जवान फिरे 


ख़ून-ए-आशिक़ छुटा कि है लाज़िम 

तेरे तलवार पर ये सान फिरे 


साक़िया आज जाम-ए-सहबा पर 

क्यूँ न लहराती अपनी जान फिरे 


हिचकियाँ ली है इस तरह बत-ए-मय 

जिस तरह गटकरी में तान फिरे 


या तो वो अहद थे कि हम हरगिज़ 

न फिरेंगे अगर जहान फिरे 


आए अब रोके हो मआ'ज़-अल्लाह 

आप से शख़्स की ज़बान फिरे 


रूठ कर उठ चले थे 'इंशा' से 

बारे फिर हो के मेहरबान फिरे

 धूम इतनी तिरे दीवाने मचा सकते हैं इंशा अल्ला खाँ इंशा की ग़ज़ल

धूम इतनी तिरे दीवाने मचा सकते हैं 

कि अभी अर्श को चाहें तो हिला सकते हैं 


मुझ से अग़्यार कोई आँख मिला सकते हैं 

मुँह तो देखो वो मिरे सामने आ सकते हैं 


याँ वो आतिश-ए-नफ़साँ हैं कि भरें आह तो झट 

आग दामान-ए-शफ़क़ को भी लगा सकते हैं 


सोचिए तो सही हट-धर्मी न कीजे साहब 

चुटकियों में मुझे कब आप उड़ा सकते हैं 


हज़रत-ए-दिल तो बिगाड़ आए हैं इस से लेकिन 

अब भी हम चाहें तो फिर बात बना सकते हैं 


शैख़ी इतनी न कर ऐ शैख़ कि रिंदान-ए-जहाँ 

उँगलियों पर तुझे चाहें तो नचा सकते हैं 


तू गिरोह-ए-फ़ुक़रा को न समझ बे-जबरूत 

ज़ात-ए-मौला में यही लोग समा सकते हैं 


दम ज़रा साध के लेते हैं फरेरी तो अभी 

सून खींची हुई लाहूत को जा सकते हैं 


गरचे हैं मूनिस-ओ-ग़म-ख़्वार तग-ओ-दौ में सही 

पर तिरी तब्अ को कब राह पे ला सकते हैं 


चारासाज़ अपने तो मसरूफ़-ए-बदल हैं लेकिन 

कोई तक़दीर के लिक्खे को मिटा सकते हैं 


है मोहब्बत जो तिरे दिल में वो इक तौर पे है 

हम घटा सकते हैं इस को न बढ़ा सकते हैं 


कर के झूटा न दिया जाम अगर तू ने तो चल 

मारे ग़ैरत के हम अफ़यून तो खा सकते हैं 


हम-नशीं तू जो ये कहता है कि क़दग़न है बहुत 

अब वो आवाज़ भी कब तुझ को सुना सकते हैं 


ऐ न आवाज़ सुनावें मुझे दर तक आ कर 

अपने पाँव के कड़ों को तो बजा सकते हैं 


हम तो हँसते नहीं पर आप के हँसने के लिए 

और अगर साँग नहीं कोई बना सकते हैं 


काली काग़ज़ की अभी एक कतर कर बेचा 

ज़ाहिद-ए-बज़्म के मुँह पर तो लगा सकते हैं 


घर से बाहर तुम्हें आना है अगर मनअ तो आप 

अपने कोठे पे कबूतर तो उड़ा सकते हैं 


झूलते हैं ये जो झोली में सो कहते हैं मुझे 

एक व'अदे पे तुझे बरसों झुला सकते हैं 


एक ढब के जो क़्वाफ़ी हैं हम उन में 'इंशा' 

इक ग़ज़ल और भी चाहें तो सुना सकते हैं

 जाड़े में क्या मज़ा हो इंशा अल्ला खाँ इंशा की ग़ज़ल

जाड़े में क्या मज़ा हो वो तो सिमट रहे हों 

और खोल कर रज़ाई हम भी लिपट रहे हों 


अब आप की दमों में हम आ चुके हटो भी 

ख़ुश आवे प्यारे किस को जब दिल ही कट रहे हों 


क्यूँकर ज़बाँ से उन की अपना बचाव होवे 

ज़ात-ओ-सिफ़ात सब के जब वो उकट रहे हों 


आते थे साथ मेरे देखो तो क्या हुए वो 

ऐसा न हो कि पीछे रिश्ते में कट रहे हों 


तब सैर देखे कोई बाहम लड़ाईयों के 

खींचे हों वो तो तेग़ा और हम भी डट रहे हों 


क्या कर सकें दिवाने हाल-ए-दिल-ए-परेशाँ 

ज़ुल्फ़ों के बाल उन के जब आप लट रहे हों 


आपस में रूठने का अंदाज़ हो तो ये हो 

वो हम से फट रहे हों हम उन से फट रहे हों 


जी चाहता है ऐ दिल इक ऐसी रात आवे 

मतला हो साफ़ शहरा बादल भी फट रहे हों 


सोते हों चाँदनी में वो मुँह लपेटे और हम 

शबनम का वो दुपट्टा पट्ठे उलट रहे हों 


पंजम ग़ज़ल अब 'इंशा' अंदाज़ की सुना दी 

आग़ोश में मआ'नी जिस के लिपट रहे हों 

 मुझे छेड़ने को साक़ी ने दिया इंशा अल्ला खाँ इंशा की ग़ज़ल

मुझे छेड़ने को साक़ी ने दिया जो जाम उल्टा 

तो किया बहक के मैं ने उसे इक सलाम उल्टा 


सहर एक माश फेंका मुझे जो दिखा के उन ने 

तो इशारा मैं ने ताड़ा कि है लफ़्ज़-ए-शाम उल्टा 


ये बला धुआँ नशा है मुझे इस घड़ी तो साक़ी 

कि नज़र पड़े है सारा दर-ओ-सहन-ओ-बाम उल्टा 


बढ़ूँ उस गली से क्यूँकर कि वहाँ तो मेरे दिल को 

कोई खींचता है ऐसा कि पड़े है गाम उल्टा 


दर-ए-मय-कदा से आई महक ऐसी ही मज़े की 

कि पिछाड़ खा गिरा वाँ दिल-ए-तिश्ना-काम उल्टा 


नहीं अब जो देते बोसा तो सलाम क्यूँ लिया था 

मुझे आप फेर दीजे वो मिरा सलाम उल्टा 


लगे कहने आब माया तुझे हम कहा करेंगे 

कहीं उन के घर से बढ़ कर जो फिरा ग़ुलाम उल्टा 


मुझे क्यूँ न मार डाले तिरी ज़ुल्फ़ उलट के काफ़िर 

कि सिखा रखा है तू ने उसे लफ़्ज़-ए-राम उल्टा 


निरे सीधे-सादे हम तो भले आदमी हैं यारो 

हमें कज जो समझे सो ख़ुद वलद-उल-हराम उल्टा 


तू जो बातों में रुकेगा तो ये जानूँगा कि समझा 

मिरे जान-ओ-दिल के मालिक ने मिरा कलाम उल्टा 


फ़क़त इस लिफ़ाफ़े पर है कि ख़त आश्ना को पहुँचे 

तो लिखा है उस ने 'इंशा' ये तिरा ही नाम उल्टा

 गाहे गाहे जो इधर आप करम करते हैं

गाहे गाहे जो इधर आप करम करते हैं 

वो हैं उठ जाते हैं ये और सितम करते हैं 


जी न लग जाए कहीं तुझ से इसी वास्ते बस 

रफ़्ता रफ़्ता तिरे हम मिलने को कम करते हैं 


वाक़ई यूँ तो ज़रा देखियो सुब्हान-अल्लाह 

तेरे दिखलाने को हम चश्म ये नम करते हैं 


इश्क़ में शर्म कहाँ नासेह-ए-मुशफ़िक़ ये बजा 

आप को क्या है जो इस बात का ग़म करते हैं 


गालियाँ खाने को उस शोख़ से मिलते हैं हाँ 

कोई करता नहीं जो काम सो हम करते हैं 


हैं तलबगार मोहब्बत के मियाँ जो अश्ख़ास 

वो भला कब तलब-ए-दाम-ओ-दिरम करते हैं 


ऐन मस्ती में हमें दीद-ए-फ़ना है 'इंशा' 

आँख जब मूँदते हैं सैर-ए-अदम करते हैं 



ब्लॉग पर अन्य शायर / ग़ज़लकार / ग़ज़लें 





 वो जो शख़्स अपने ही ताड़ में सो छुपा है इंशा अल्ला खाँ इंशा की ग़ज़ल

वो जो शख़्स अपने ही ताड़ में सो छुपा है दिल ही की आड़ में 

न वो बस्ती में न उजाड़ में न वो झाड़ में न पहाड़ में 


मुझे काम तुझ से है ऐ जुनूँ न कहूँ किसी से न कुछ सुनूँ 

न किसी की रद्द-ओ-क़दह में हूँ न उखाड़ में न पछाड़ में 


ये सबा ने क़ैस से आ कहा कि सुना कुछ और भी माजरा 

तिरे पास से जो चला गया तो खड़ा है नाक़ा उजाड़ में 


अरे आह तू ने ग़ज़ब किया मिरे दिल को मुझ से तुड़ा लिया 

मिरी जी को ले के जला दिया पड़ी इख़्तिलात ये पहाड़ में 


ख़फ़गी भी तुर्फ़ा है एक शय पड़े क़िस्से होते हैं लाखों तय 

वो कहाँ मिलाप में लुत्फ़ है जो मज़ा है उन की बिगाड़ में 


मिज़ा पर है पारा-ए-दिल थंबा वो मसल हुई है अब ऐ ख़ुदा 

कि दरख़्त से जो कभी गिरा तो वो अटका उन के ही झाड़ में 


कहीं खिड़कियों की तरफ़ बंधी मिरी टिकटिकी तो ऐ लो अभी 

गुल-ए-नर्गिस आ के लगा गई वो परी हर एक दराड़ में 


मिरी दिल में नश्शे का है मकाँ मुझे सूझती हैं वो मस्तियाँ 

कि खजूरी चोटियों वालियाँ पड़ी फिरती हैं मिरे ताड़ में 


बड़ी दाढ़ियों पे न जा दिला ये सब आहूओं की हैं मुब्तला 

ये शिकार कैसे हैं बरमला इन्हीं टट्टियों की तो आड़ में 


खड़ी झाँकती है वही परी नहीं शुबह इस में तो वाक़ई 

वो जो इत्र-ए-फ़ित्ना की बास थी सो रची हुई है किवाड़ में 


न कर अपनी जान को मुज़्महिल अरे 'इंशा' उन से लगा न दिल 

तू दिगर न होवेगा मुन्फ़इल कहीं आ गया जो लताड़ में

 मिल गए पर हिजाब बाक़ी है इंशा अल्ला खाँ इंशा की ग़ज़ल

मिल गए पर हिजाब बाक़ी है 

फ़िक्र-ए-नाज़-ओ-इताब बाक़ी है 


बात सब ठीक-ठाक है प अभी 

कुछ सवाल-ओ-जवाब बाक़ी है 


गरचे माजून खा चुके लेकिन 

दौर-ए-जाम-ए-शराब बाक़ी है 


झूटे वादे से उन के याँ अब तक 

शिकवा-ए-बे-हिसाब बाक़ी है 


गाह कहते हैं शाम हूई अभी 

ज़र्रा-ए-आफ़्ताब बाक़ी है 


फिर कभी ये कि अब्र में कुछ-कुछ 

परतव-ए-माहताब बाक़ी है 


है कभी ये कि तुझ पे छिड़केंगे 

जो लगन में शहाब बाक़ी है 


और भड़के है इश्तियाक़ की आग 

अब किसे सब्र-ओ-ताब बाक़ी है 


उड़ गई नींद आँख से किस की 

लज़्ज़त-ए-ख़ुर्द-ओ-ख़्वाब बाक़ी है 


है ख़ुशी सब तरह की, नाहक़ का 

ख़तरा-ए-इंक़लाब बाक़ी है 


है वो दिल की धड़क सो जूँ की तूँ 

जी पर उस का अज़ाब बाक़ी है 


जो भरा शीशा था हुआ ख़ाली 

पर वो बू-ए-गुलाब बाक़ी है 


अपनी उम्मीद थी सो बर आई 

यास शक्ल-ए-सराब बाक़ी है 


है यही डोल जब तक आँखों में 

दम बसान-ए-हबाब बाक़ी है 


मिस्ल-ए-फ़र्मूदा-ए-हुज़ूर 'इंशा' 

फिर वही इज़्तिराब बाक़ी है 

 ज़ुल्फ़ को था ख़याल बोसे का इंशा अल्ला खाँ इंशा की ग़ज़ल

ज़ुल्फ़ को था ख़याल बोसे का 

ख़त ने लिक्खा सवाल बोसे का 


दोहरे पत्तों के ज़ेर-ए-साया हुआ 

सब क़लम-बंद हाल बोसे का 


चश्मक-ए-ख़ाल-ए-रुख़ ने साफ़ कहा 

है तबस्सुम मआल बोसे का 


सब्ज़ा-ए-नौ-दमीदा ने मारा 

गिर्द-ए-रुख़्सार जाल बोसे का 


रह गया तेरे मुखड़े पर बाक़ी 

अब मकाँ ख़ाल ख़ाल बोसे का 


हो ग़ज़ब अपने बाल नोच लिए 

है ये सारा वबाल बोसे का 


तेरे ग़ुस्से से अब कोई 'इंशा' 

छोड़ता है ख़याल बोसे का 

 दीवार फाँदने में देखोगे काम मेरा इंशा अल्ला खाँ इंशा की ग़ज़ल

दीवार फाँदने में देखोगे काम मेरा 

जब धम से आ कहूँगा साहब सलाम मेरा 


हम-साए आप के मैं लेता हूँ इक हवेली 

इस शहर में हुआ जो चंदे क़याम मेरा 


जो कुछ कि अर्ज़ की है सो कर दिखाऊँगा मैं 

वाही न बात समझो यूँही कलाम मेरा 


अच्छा मुझे सताओ जितना कि चाहो मैं भी 

समझूँगा गर है इंशा-अल्लाह नाम मेरा 


मैं ग़श हुआ कहा जूँ साक़ी ने मुझ से हँस कर 

ये सब्ज़ जाम तेरा और सुर्ख़ जाम मेरा 


पूछा किसी ने मुझ को उन से कि कौन है ये 

तो बोले हँस के ये भी है इक ग़ुलाम मेरा 


महशर की तिश्नगी से क्या ख़ौफ़ सय्यद 'इंशा' 

कौसर का जाम देगा मुझ को इमाम मेरा 

 जब तक कि ख़ूब वाक़िफ़-ए-राज़-ए-निहाँ न हूँ इंशा अल्ला खाँ इंशा की ग़ज़ल

जब तक कि ख़ूब वाक़िफ़-ए-राज़-ए-निहाँ न हूँ 

मैं तो सुख़न में इश्क़ के बोलूँ न हाँ न हूँ 


ख़ल्वत में तेरी बार न जल्वत में मुझ को हाए 

बातें जो दिल में भर रही हैं सो कहाँ कहूँ 


गाहे जो उस की याद से ग़ाफ़िल हो एक दम 

मुझ को दहन में अपने लगी है ज़बाँ ज़ुबूँ 


शत्त-ए-अमीक़-ए-इश्क़ को ये चाहता हूँ मैं 

अब्र-ए-मिज़ा से रो के उसे बे-कराँ करूँ 


तूफ़ान-ए-नूह आँख न हम से मिला सके 

आती नज़र हैं चश्म से हर पल अयाँ उयूँ 


नासेह ख़याल-ए-ख़ाम से क्या इस से फ़ाएदा 

कब मेरे दिल से हो हवस-ए-दिल-बराँ बरूँ 


ये इख़्तिलात कीजिए मौक़ूफ़ नासेहा 

माक़ूल यानी दिल उसे ऐ क़द्र-दाँ न दूँ 


'इंशा' करूँ जो पैरवी-ए-शैख़-ओ-बरहमन 

मैं भी उन्हों की तरह से जूँ गुमरहाँ रहूँ 


ख़ल्वत-सरा-ए-दिल में है हो कर के मोतकिफ़ 

बैठा हूँ क्या ग़रज़ कहीं ऐ जाहिलाँ हिलूँ

 जो बात तुझ से चाही है इंशा अल्ला खाँ इंशा की ग़ज़ल

जो बात तुझ से चाही है अपना मिज़ाज आज 

क़ुर्बान तेरी कल पे न टाल आज आज आज 


दहकी है आग दिल में पड़े इश्तियाक़ की 

तेरे सिवाए किस से हो इस का इलाज आज 


है फ़ौज फ़ौज-ए-ग़म्ज़ा-ओ-अंदाज़ तेरे साथ 

अक़्लीम-ए-नाज़ का है तुझे तख़्त-ओ-ताज आज 


तेरा वो हुस्न है कि जो होता तो भेजता 

यूसुफ़ ज़मीन-ए-मिस्र से तुझ को ख़िराज आज 


ख़ूबान-ए-रोज़गार मुक़ल्लिद तिरे हैं सब 

जो चीज़ तू करे सो वो पावे रिवाज आज 


आब-ए-ज़ुलाल-ए-वस्ल से अंदोह-ए-दर्द-ओ-हिज्र 

नापैद घुल के होता है क्या मिस्ल-ए-ज़ाज आज 


'इंशा' से अपने और ये इंकार हैफ़ है 

लाया है वो कभी न कभी एहतियाज आज   



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