Shakeel Azmi Ghazal / शकील आज़मी की ग़ज़लें

शकील आज़मी की ग़ज़लें 

बात से बात की गहराई चली जाती है / शकील आज़मी ग़ज़ल

बात से बात की गहराई चली जाती है
झूठ आ जाए तो सच्चाई चली जाती है

रात भर जागते रहने का अमल ठीक नहीं
चाँद के इश्क़ में बीनाई चली जाती है

मैं ने इस शहर को देखा भी नहीं जी भर के
और तबीअत है कि घबराई चली जाती है

कुछ दिनों के लिए मंज़र से अगर हट जाओ
ज़िंदगी भर की शनासाई चली जाती है

प्यार के गीत हवाओं में सुने जाते हैं
दफ़ बजाती हुई रूस्वाई चली जाती है

छप से गिरती है कोई चीज़ रूके पानी में
दूर तक फटती हुई काई चली जाती है

मस्त करती है मुझे अपने लहू की ख़ुशबू
ज़ख़्म सब खोल के पुरवाई चली जाती है

दर ओ दीवार पे चेहरे से उभर आते हैं
जिस्म बनती हुई तन्हाई चली जाती है

चाँद में ढलने सितारों में निकलने के लिए / शकील आज़मी ग़ज़ल

चाँद में ढलने सितारों में निकलने के लिए
मैं तो सूरज हूँ बुझूँगा भी तो जलने के लिए

मंज़िलों तुम ही कुछ आगे की तरफ़ बढ़ जाओ
रास्ता कम है मिरे पाँव को चलने के लिए

ज़िंदगी अपने सवारों को गिराती जब है
एक मौक़ा भी नहीं देती सँभलने के लिए

मैं वो मौसम जो अभी ठीक से छाया भी नहीं
साज़िशें होने लगीं मुझ को बदलने के लिए

वो तिरी याद के शोले हों कि एहसास मिरे
कुछ न कुछ आग ज़रूरी है पिघलने के लिए

ये बहाना तिरे दीदार की ख़्वाहिश का है
हम जो आते हैं इधर रोज़ टहलने के लिए

आँख बेचैन तिरी एक झलक की ख़ातिर
दिल हुआ जाता है बेताब मचलने के लिए

 Ghazals of Shakeel Azmi

धुआँ धुआँ है फ़ज़ा रौशनी बहुत कम है / शकील आज़मी ग़ज़ल

धुआँ धुआँ है फ़ज़ा रौशनी बहुत कम है
सभी से प्यार करो ज़िंदगी बहुत कम है

मक़ाम जिस का फ़रिश्तों से भी ज़ियादा था
हमारी ज़ात में वो आदमी बहुत कम है

हमारे गाँव में पत्थर भी रोया करते थे
यहाँ तो फूल में भी ताज़गी बहुत कम है

जहाँ है प्यार वहाँ सब गिलास ख़ाली हैं
जहाँ नदी है वहाँ तिश्नगी बहुत कम है

तुम आसमान पे जाना तो चाँद से कहना
जहाँ पे हम हैं वहाँ चांदनी बहुत कम है

बरत रहा हूँ मैं लफ़्ज़ों को इख़्तिसार के साथ
ज़ियादा लिखना है और डाइरी बहुत कम है

एक सूराख़ सा कश्ती में हुआ चाहता है / शकील आज़मी ग़ज़ल

एक सूराख़ सा कश्ती में हुआ चाहता है
सब असासा मिरा पानी में बहा चाहता है

मुझ को बिखराया गया और समेटा भी गया
जाने अब क्या मिरी मिट्टी से ख़ुदा चाहता है

टहनियाँ ख़ुश्क हुईं झड़ गए पŸो सारे
फिर भी सूरज मिरे पौदे का भला चाहता है

टूट जाता हूँ मैं हर रोज़ मरम्मत कर के
और घर है कि मिरे सर पर गिरा चाहता है

सिर्फ़ मैं ही नहीं सब डरते हैं तन्हाई से
तीरगी रौशनी वीराना सदा चाहता है

दिन सफ़र कर चुका अब रात की बारी है ‘शकील’
नींद आने को है दरवाज़ा लगा चाहता है

धूप से बर-सर-ए-पैकार किया है मैं ने / शकील आज़मी ग़ज़ल

धूप से बर-सर-ए-पैकार किया है मैं ने
अपने ही जिस्म को दीवार किया है मैं ने

जब भी सैलाब मिरे सर की तरफ़ आया है
अपने हाथों को ही पतवार किया है मैं ने

जो परिंदे मिरी आँखों से निकल भागे थे
उन को लफ़्ज़ों में गिरफ़्तार किया है मैं ने

पहले इक शहर तिरी याद से आबाद किया
फिर उसी शहर को मिस्मार किया है मैं ने

बारहा गुल से जलाया है गुलिस्तानों को
बारहा आग़ को गुलज़ार किया है मैं ने

जानता हूँ मुझे मस्लूब किया जाएगा
ख़ुद को सच कह के गुनहगार किया है मैं ने

क़दम उठे हैं तो धूल आसमान तक जाए / शकील आज़मी ग़ज़ल

क़दम उठे हैं तो धूल आसमान तक जाए
चले चलो कि जहाँ तक भी ये सड़क जाए

नज़र उठाओ कि अब तीरगी के चेहरे पर
अजब नहीं कि कोई रौशनी लपक जाए

गुदाज़ जिस्म से फूलों पे उँगलियाँ रख दूँ
ये शाख़ और ज़रा सा अगर लचक जाए

कभी कभार तिरे जिस्म का अकेला-पन
मिरे ख़याल की उर्यानियत को ढक जाए

तिरे ख़याल की तम्सील यूँ समझा जानाँ
दिल हो दिमाग़ में बिजली सी इक चमक जाए

तिरे विसाल की उम्मीद यूँ भी टूटी है
कि आँख भर भी नहीं पाए और छलक जाए

कभी कभार भरोसे का क़त्ल यूँ भी हो
कि जैसे पाँव तले से ज़मीं सरक जाए

ज़िंदा रहना है तो साँसों का ज़ियाँ और सही / शकील आज़मी ग़ज़ल

ज़िंदा रहना है तो साँसों का ज़ियाँ और सही
रौशनी के लिए थोड़ा सा धुआँ और सही

सुब्ह की शर्त पे मंज़ूर हैं रातें हम को
फूल खिलते हों तो कुछ रोज़ ख़ज़ाँ और सही

ख़्वाब ताबीर का हिस्सा है तो सो कर देखें
सच के इदराक में इक शहर-ए-गुमाँ और सही

वो ब्रश और मैं रोता हूँ क़लम से अपने
दर्द तो एक हैं दोनों के ज़बाँ और सही

कट गए अपनी ही मिट्टी से तो जल्दी क्या है
अब ज़मीं और सही और मकाँ और सही

फूल का शाख़ पे आना भी बुरा लगता है / शकील आज़मी ग़ज़ल

फूल का शाख़ पे आना भी बुरा लगता है
तू नहीं है तो ज़माना भी बुरा लगता है

ऊब जाता हूँ ख़ामोशी से भी कुछ देर के बाद
देर तक शोर मचाना भी बुरा लगता है

इतना खोया हुआ रहता हूँ ख़यालो में तिरे
पास मेरे तिरा आना भी बुरा लगता है

ज़ाइक़ा जिस्म का आँखों में सिमट आया है
अब तुझे हाथ लगाना भी बुरा लगता है

मैं ने रोते हुए देखा है अलीबाबा को
बाज़ औक़ात ख़ज़ाना भी बुरा लगता है

अब बिछड़ जा कि बहुत देर से हम साथ में हैं
पेट भर जाए तो खाना भी बुरा लगता है

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