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Showing posts from May, 2020

नज़र-नवाज़ नज़ारों से बात करता हूँ / 'क़ैसर' निज़ामी

नज़र-नवाज़ नज़ारों से बात करता हूँ सुकूँ नसीब सहारों से बात करता हूँ उलझ रहा है जो ख़ारों में फिर से ये दामन ख़िज़ाँ ब-दोश बहारों से बात करता हूँ तुम्हारें इश्क में तुम से जुदा जुदा रह कर ग़म-ए-फिराक के मारों से बात करता हूँ तेरे बग़ैर ये आलम अरे मआज़-अल्लाह फलक के चाँद सितारों से बात करता हूँ उफूर-ए-अश्क से ये हाल हो गया ‘कैसर’ यम-ए-अलम के किनारों से बात करता हूँ श्रेणी: ग़ज़ल

मोहब्बत बाइस-ए-दीवानगी है और बस मैं हूँ / 'क़ैसर' निज़ामी

मोहब्बत बाइस-ए-दीवानगी है और बस मैं हूँ के अब पैहम इनायत आप की है और बस मैं हूँ सुकूँ हासिल है दिन में और न शब को चैन मिलता है के अब तो कशमकश में ज़िंदगी है और बस मैं हूँ न जाने माजरा क्या है नज़र कुछ भी नहीं आता के अब हद्द-ए-नज़र तक तीरगी है और बस मैं हूँ नहीं है आज मुझ को ख़दशा-ए-जुल्मत ज़माने में रूख़-ए-ताबाँ की उन की रौशनी है और बस मैं हूँ कदम क्या डगमगाएँगें रह-ए-उल्फत में ऐ साकी बहुत ही मुख़्तसर सी बे-खुदी है और बस मैं हूँ तेरे नक्श-ए-कदम पर सर झुकाना काम है अपना ख़ुदा शाहिद ये मेरी बंदगी है और बस मैं हूँ उन्हें रूदाद-ए-ग़म अपनी सुनाऊँ किस तरह ‘कैसर’ वही उन की अदा-ए-बरहमी है और बस मैं हूँ श्रेणी: ग़ज़ल

मिटा न इन को सितम-केश तू ख़ुदा के लिए / 'क़ैसर' निज़ामी

मिटा न इन को सितम-केश तू ख़ुदा के लिए के अहल-ए-दिल नहीं मिलते कहीं दवा के लिए ये शर्त रास नहीं आप के तलव्वुन को कसम न खाइए पाबंदी-ए-वफा के लिए गुलों की हुस्न-ए-तबस्सुम में झोलियाँ भर दो तरस रहे हैं वो रानाई-ए-अदा के लिए अब उस पे क्यूँ नहीं मश्क-ए-सितम रवा आख़िर वो दिल जो वक्फ हुआ जौर-ए-ना-रवा के लिए अभी नहीं मयस्सर वो लुत्फ-ए-मय-नोशी के मुंतज़िर हूँ मैं तौबा-शिकन घटा के लिए मुझी पे मश्क-ए-सितम आप ने रवा रक्खी मुझी को छाँट लिया जौर-ए-ना-रवा के लिए मता-ए-दिल हो के सरमाया जिगर ऐ दोस्त तेरे सितम के लिए है जेरी जफा के लिए मरीज़-ए-इश्क को पल भर में होश आ जाए नसीब हो तेरा दामन अगर हवा के लिए वा रोब-ए-हुस्न मुसल्लत है मुझ पर ऐ ‘कैसर’ तरस रही है ज़बाँ अर्ज़-ए-मुद्दा के लिए श्रेणी: ग़ज़ल

ख़ैर से उन का तसव्वुर हम-सफर होने तो दो / 'क़ैसर' निज़ामी

ख़ैर से उन का तसव्वुर हम-सफर होने तो दो ये चराग-ए-राह-ए-मंजिल जल्वा-गर होने तो दो जुरअत-ए-परवाज़ पर क्यूँ हैं अभी से तब्सिरे ना-तवाँ ताएर में बाल ओ पर होने तो दो उन के जल्वों पर निगाहों का भरम खुल जाएगा इम्तिहान-ए-वुसअत-ए-जर्फ-ए-नज़र होने तो दो काएनात-ए-इश्क की हर शाम होगी जल्वा जा हुस्न के जल्वों को हम-रंग-ए-सहर होने तो दो जुस्तजू-ए-राहत-ए-दिल है अभी तो बे-महल साअत-ए-रंज ओ आलम इशरत असर होने तो दो हो अभी से अहल-ए-दिल बे-ताब-ए-जल्वा किस लिए तुम अभी जौक-ए-नजारा मोतबर होने तो दो दास्तान-ए-तूर-ओ-ऐमन ताज़ा-तर हो जाएगी शाहिद-ए-यकता को ‘कैसर’ जल्वा-गर होने तो दो श्रेणी: ग़ज़ल

कह रही है सारी दुनिया तेरा दीवाना मुझे / 'क़ैसर' निज़ामी

कह रही है सारी दुनिया तेरा दीवाना मुझे तेरी नज़रों ने बना डाला है अफ्साना मुझे इश्क में अब मिल गई है मुझ को मेराज-ए-जुनूँ अब तो वो भी कह रहे हैं अपना दीवाना मुझे दर्स-ए-इबरत है तुम्हारे वास्ते मेरा मआल गुँचा ओ गुल को सुनाता है ये अफ्साना मेरा इक निगाह-ए-नाज़ ने साकी की ये क्या कर दिया रफ्ता-रफ्ता कह उठे सब पीर-ए-मय-खाना मुझे तू सरापा नूर है मैं तेरा अक्स-ए-ख़ास हूँ कह रहे हैं यूँ तेरा सब आईना-खाना मुझे सुन रही थी शौक से दुनिया जिसे ऐ हम-नफस याद है हाँ याद है वो मेरा अफ्साना मुझे नूर से भरपूर हो जाती है बज़्म-ए-आरजू जब कभी वो देखते हैं बे-हिजाबाना मुझे अल-मदद ऐ ज़ोहद बढ़ कर रोक ले मेरे कदम तिश्नगी फिर ले चली है सू-ए-मय-खाना मुझे हम-नफस मेरी तो फितरत ही सना-ए-हुस्न है इश्क के बंदे कहा करते हैं दीवाना मुझे मुझ को ‘कैसर’ मय-कदे से निकले इक मुद्दत हुई याद करते हैं अभी तक जाम ओ पैमाना मुझे श्रेणी: ग़ज़ल

जाम-ए-नज़रो से पिलाया है तुम्हें याद नहीं / 'क़ैसर' निज़ामी

जाम-ए-नज़रो से पिलाया है तुम्हें याद नहीं मुझ को दीवाना बनाया है तुम्हें याद नहीं गुल खिलाए मेरे सीने में ख़लिश ने क्या क्या तुम ने जो तीर चलाया है तुम्हें याद नहीं याद है मुझ को वो शोखी वो अदा वो गम्जा तुम ने जी भर के सताया है तुम्हें याद नहीं दिल ने लूट हैं मज़े जिस की ख़लिश के पैहम तीर वो दिल पे चलाया है तुम्हें याद नहीं बार-ए-गम जिस को फरिश्ते भी उठा सकते न थे वो मेरे दिल ने उठाया है तुम्हें याद नहीं आतिश-ए-इश्क बुझे देर हुई ऐ ‘कैसर’ दाग ने दिल को जलाया है तुम्हें याद नहीं श्रेणी: ग़ज़ल

कोई नग़मा है न ख़ुश-बू है न रानाई है / 'उनवान' चिश्ती

कोई नग़मा है न ख़ुष-बू है न रानाई है जिंदगी है के जनाज़ों की बरात आई है आह ये जब्र के महरूम-ए-बहाराँ भी रहूँ और ईमान भी लाऊँ के बहार आई है गो तेरे सामने बैठा हूँ तेरी महफ़िल में दिल-ए-मायूस को फिर भी ग़म-ए-तन्हाई है सोचता हूँ उसे लब्बैक कहूँ या न कहूँ प-ए-तजदीद-ए-मोहब्बत तेरी याद आई है आँख मिलने भी पाई थी के महसूस हुआ जैसे पहले से मेरी उन की शनासाई है श्रेणी: ग़ज़ल

मिरे शानों पे उन की ज़ुल्फ़ लहराई तो क्या होगा / 'उनवान' चिश्ती

मिरे शानों पे उन की ज़ुल्फ़ लहराई तो क्या होगा मोहब्बत को ख़ुनुक साए में नींद आई तो क्या होगा परेशाँ हो के दिल तर्क-ए-तअल्लुक पर है आमादा मोहब्बत में ये सूरत भी न रास आई तो क्या होगा सर-ए-महफ़िल वो मुझ से बे-सबब आँखें चुराते हैं कोई ऐसे में तोहमत उन के सर आई तो क्या होगा मुझे पैहम मोहब्बत की नज़र से देखने वाले मिरे दिल पर तिरी तस्वीर उतर आई तो क्या होगा बहुत मसरूर हैं वो छीन कर दिल का सुकूँ ‘उनवाँ’ हुजूम-ए-ग़म में भी मुझ को हँसी आई तो क्या होगा श्रेणी: ग़ज़ल

नज़र की चोट अब दिल पर अयाँ मालूम होती है / 'उनवान' चिश्ती

नज़र की चोट अब दिल पर अयाँ मालूम होती है कहाँ चमकी थी ये बिजली कहाँ मालूम होती है कभी ख़ानदाँ कभी गिर्या-कुनाँ मालूम होती है मोहब्बत इम्तिहाँ दर इम्तिहाँ मालूम होती है बईं गुलशन-परस्ती उस का हक़ है मौसम-ए-गुल पर जिसे बिजली चराग़-ए-आशियाँ मालूम होती है मोहब्बत को तअय्युन की हदों में ढूँढने वालो मोहब्बत माँ-वारा-ए-दो-जहाँ मालूम होती है यहाँ अब तक ग़म-ए-दिल की नज़ाकत आ गई ‘उनवाँ’ निगाह-ए-लुत्फ़ भी दिल पर गिराँ मालूम होती है श्रेणी: ग़ज़ल

बनाई है तेरी तस्वीर मैं ने डरते हुए / 'आसिम' वास्ती

बनाई है तेरी तस्वीर मैं ने डरते हुए लरज़ रहा था मेरा हाथ रंग भरते हुए मैं इंहिमाक में ये किस मक़ाम तक पहुँचा तुझे ही भूल गया तुझ को याद करते हुए निज़ाम-ए-कुन के सबब इंतिशार है मरबूत ये काएनात सिमटती भी है बिखरते हुए कहीं कहीं तो ज़मीं आसमाँ से ऊँची है ये राज़ मुझ पे खुला सीढ़ियाँ उतरते हुए हमें ये वक़्त डराता कुछ इस तरह भी है ठहर न जाए कहीं हादसा गुज़रते हुए कुछ ऐतबार नहीं अगली नस्ल पर इन को वसीयतें नहीं करते ये लोग मरते हुए हर एक ज़र्ब तो होती नहीं अयाँ आसिम हज़ार नक़्श हुए मुंदमिल उभरते हुए श्रेणी: ग़ज़ल

अजब रंग आँखों में आने लगे / 'आशुफ़्ता' चंगेज़ी

अजब रंग आँखों में आने लगे हमें रास्ते फिर बुलाने लगे इक अफ़वाह गर्दिश में है इन दिनों के दरिया किनारों को खाने लगे ये क्या यक-ब-यक हो गया क़िस्सा-गो हमें आप-बीती सुनाने लगे शगुन देखें अब के निकलता है क्या वो फिर ख़्वाब में बड़बड़ाने लगे हर इक शख़्स रोने लगा फूट के के 'अशुफ़्ता' जी भी ठिकाने लगे. श्रेणी: ग़ज़ल

धूप के रथ पर हफ़्त अफ़लाक / 'आशुफ़्ता' चंगेज़ी

धूप के रथ पर हफ़्त अफ़लाक चौबारों के सर पर ख़ाक शहर-ए-मलामत आ पहुँचा सारे मनाज़िर इबरत-नाक दरियाओं की नज़र हुए धीरे धीरे सब तैराक तेरी नज़र से बच पाएँ ऐसे कहाँ के हम चालाक दामन बचना मुश्किल है रस्ते जुनूँ के आतिश-नाक और कहाँ तक सब्र करें करना पड़ेगा सीना चाक श्रेणी: ग़ज़ल

घरोंदे ख़्वाबों के सूरज के साथ रख लेते / 'आशुफ़्ता' चंगेज़ी

घरोंदे ख़्वाबों के सूरज के साथ रख लेते परों में धूप के इक काली रात रख लेते हमें ख़बर थी ज़बाँ खोलते ही क्या होगा कहाँ कहाँ मगर आँखों पे हाथ रख लेते तमाम जंगों का अंजाम मेरे नाम हुआ तुम अपने हिस्से में कोई तो मात रख लेते कहा था तुम से के ये रास्ता भी ठीक नहीं कभी तो क़ाफ़िले वालों की बात रख लेते ये क्या किया के सभी कुछ गँवा के बैठ गए भरम तो बंदा-ए-मौला-सिफ़ात रख लेते मैं बे-वफ़ा हूँ चलो ये भी मान लेता हूँ भले बुरे ही सही तजरबात रख लेते श्रेणी: ग़ज़ल

जिस्म पर बाक़ी ये सर है क्या करूँ / 'कैफ़' भोपाली

जिस्म पर बाक़ी ये सर है क्या करूँ दस्त-ए-क़ातिल बे-हुनर है क्या करूँ चाहता हूँ फूँक दूँ इस शहर को शहर में इन का भी घर है क्या करूँ वो तो सौ सौ मर्तबा चाहें मुझे मेरी चाहत में कसर है क्या करूँ पाँव में ज़ंजीर काँटे आबले और फिर हुक्म-ए-सफ़र है क्या करूँ ‘कैफ़’ का दिल ‘कैफ़’ का दिल है मगर वो नज़र फिर वो नज़र है क्या करूँ ‘कैफ़’ में हूँ एक नूरानी किताब पढ़ने वाला कम-नज़र है क्या करूँ श्रेणी: ग़ज़ल

ऐ मेहर-बाँ है गर यही सूरत निबाह की / 'ज़हीर' देहलवी

ऐ मेहर-बाँ है गर यही सूरत निबाह की बाज़ आए दिल लगाने से तौबा गुनाह की उल्टे गिले वो करते हैं क्यूँ तुम ने चाह की क्या ख़ूब दाद दी है दिल-ए-दाद-ख़्वाह की क़ातिल की शक्ल देख के हँगाम-ए-बाज़-पुर्स नियत बदल गई मेरे इक इक गवाह की मेरी तुम्हारी शक्ल ही कह देगी रोज़-ए-हश्र कुछ काम गुफ़्तुगू का न हाजत गवाह की ऐ शैख़ अपने अपने अक़ीदे का फ़र्क़ है हुरमत जो दैर की है वही ख़ानक़ाह की श्रेणी: ग़ज़ल

बज़्म-ए-दुश्मन में जा के देख लिया / 'ज़हीर' देहलवी

बज़्म-ए-दुश्मन में जा के देख लिया ले तुझे आज़मा के देख लिया तुम ने मुझ को सता के देख लिया हर तरह आज़मा के देख लिया उन के दिल की कुदूरतें न मिटीं अपनी हस्ती मिटा के देख लिया कुछ नहीं कुछ नहीं मोहब्बत में ख़ूब जी को जला के देख लिया कुछ नहीं जुज़ ग़ुबार-ए-कीन-ओ-इनाद हम ने दिल में समा के देख लिया न मिले वो किसी तरह न मिले ग़ैर को भी मिला के देख लिया क्या मिला नाला ओ फ़ुग़ाँ से 'ज़हीर' हश्र सर पर उठा के देख लिया श्रेणी: ग़ज़ल

दिल गया दिल का निशाँ बाक़ी रहा / 'ज़हीर' देहलवी

दिल गया दिल का निशाँ बाक़ी रहा दिल की जा दर्द-ए-निहाँ बाक़ी रहा कौन ज़ेरे-ए-आसमाँ बाक़ी रहा नेक-नामों का निशाँ बाक़ी रहा हो लिए दुनिया के पूरे कारोबार और इक ख़्वाब-ए-गिराँ बाक़ी रहा रफ़्ता रफ़्ता चल बसे दिल के मकीं अब फ़क़त ख़ाली मकाँ बाक़ी रहा चल दिए सब छोड़ कर अहल-ए-जहाँ और रहने को जहाँ बाक़ी रहा कारवाँ मंज़िल पे पहुँचा उम्र का अब ग़ुबार-ए-कारवाँ बाक़ी रहा मिल गए मिट्टी में क्या क्या मह-जबीं सब को खा कर आसमाँ बाक़ी रहा मिट गए बन बन के क्या क़स्र ओ महल नाम को इक ला-मकाँ बाक़ी रहा आरज़ू ही आरज़ू में मिट गए और शौक़-ए-आस्ताँ बाक़ी रहा ऐश ओ इशरत चल बसे दिल से 'ज़हीर' दर्द ओ ग़म बहर-ए-निशाँ बाक़ी रहा श्रेणी: ग़ज़ल

दिल को आज़ार लगा वो के छुपा भी न सकूँ / 'ज़हीर' देहलवी

दिल को आज़ार लगा वो के छुपा भी न सकूँ पर्दा वो आ के पड़ा है के उठा भी न सकूँ मुद्दआ सामने उन के नहीं आता लब तक बात भी क्या ग़म-ए-दिल है कि सुना भी न सकूँ बे-जगह आँख लड़ी देखिए क्या होता है आप जा भी न सकूँ उन को बुला भी न सकूँ वो दम-ए-नज़ा मेरे बहर-ए-अयादत आए हाल कब पूछते हैं जब कि सुना भी न सकूँ ज़िंदगी भी शब-ए-हिज्राँ है के कटती ही नहीं मौत है क्या तेरा आना के बुला भी न सकूँ दम है आँखों में उसे जान में लाऊँ क्यूँकर कब वो आए के उन्हें हाथ लगा भी न सकूँ शर्म-ए-इस्याँ ने झुकाया मेरी गर्दन को 'ज़हीर' बोझ वो आ के पड़ा है कि उठा भी न सकूँ श्रेणी: ग़ज़ल

जहाँ में कौन कह सकता है तुम को बे-वफ़ा तुम हो / 'ज़हीर' देहलवी

जहाँ में कौन कह सकता है तुम को बे-वफ़ा तुम हो ये थोड़ी वज़ा-दारी है कि दुश्मन-आश्ना तुम हो तबाही सामने मौजूद है गर आशना तुम हो ख़ुदा हाफ़िज़ है उस कश्ती का जिस के ना-ख़ुदा तुम हो जफ़ा-जू बे-मुरव्वत बे-वफ़ा ना-आश्ना तुम हो मगर इतनी बुराई पर भी कितने ख़ुश-नुमा तुम हो भरोसा ग़ैर को होगा तुम्हारी आश्नाई का तुम अपनी ज़िद पे आ जाओ तो किस के आशना तुम हो कोई दिल-शाद होता है कोई ना-शाद होता है किसी के मुद्दई तुम हो किसी का मुद्दआ तुम हो 'ज़हीर' उस का नहीं शिकवा न की गर क़द्र गरदूँ ने ज़माना जानता है तुम को जैसे ख़ुशनवा तुम हो श्रेणी: ग़ज़ल

कुछ न कुछ रंज वो दे जाते हैं आते जाते / 'ज़हीर' देहलवी

कुछ न कुछ रंज वो दे जाते हैं आते जाते छोड़ जाते हैं शिगूफ़े कोई जाते जाते शौक़ बन बन के मेरे दिल में हैं आते जाते दर्द बन बन के हैं पहलू में समाते जाते ख़ैर से ग़ैर के घर रोज़ हैं आते जाते और क़समें भी मेरे सर की हैं खाते जाते हाए मिलने से है उन के मुझे जितना एराज़ वो उसी दर्जा नज़र में हैं समाते जाते नहीं मालूम वहाँ दिल में इरादा क्या है वो जो इस दर्जा हैं इख़्लास बढ़ाते जाते लो मेरे सामने ग़ैरों के गिले होते हैं लुत्फ़ में भी तो मुझी को हैं सताते जाते आज रुकती है मरीज़-ए-ग़म-ए-उल्फ़त को शिफ़ा चारा-गर दर्द भी जाएगा तो जाते जाते यही हम-दम मुझे पैग़ाम-ए-क़ज़ा देते हैं ये जो सीने में दम-ए-चंद हैं आते जाते यूँ ही आख़िर तो हुआ नाम अज़ा का बद-नाम आए थे आ के जनाज़ा भी उठाते जाते श्रेणी: ग़ज़ल

फटा पड़ता है जौबन और जोश-ए-नौ-जवानी है / 'ज़हीर' देहलवी

फटा पड़ता है जौबन और जोश-ए-नौ-जवानी है वो अब तो ख़ुद-ब-ख़ुद जामे से बाहर होते जाते हैं नज़र होती है जितनी उन को अपने हुस्न-ए-सूरत पर सितम-गर बे-मुरव्वत कीना-परवर होते जाते हैं भला इस हुस्न-ए-ज़ेबाई का उन के क्या ठिकाना है के जितने ऐब हैं दुनिया में ज़ेवर होते जाते हैं अभी है ताज़ा ताज़ा शौक़-ए-ख़ुद-बीनी अभी क्या है अभी वो ख़ैर से निख़वत के ख़ू-गर होते जाते हैं वो यूँ भी माह-ए-तलअत हैं मगर शोख़ी क़यामत है के जितने बद-मज़ा होते हैं ख़ुश-तर होते जाते हैं श्रेणी: ग़ज़ल

रंग जमने न दिया बात को चलने न दिया / 'ज़हीर' देहलवी

रंग जमने न दिया बात को चलने न दिया कोई पहलू मेरे मतलब का निकलने न दिया कुछ सहारा भी हमें रोज़-ए-अज़ल ने न दिया दिल बदलने न दिया बख़्त बदलने न दिया कोई अरमाँ तेरे जलवों ने निकलने न दिया होश आने न दिया ग़श से सँभलने न दिया चाहते थे के पयामी को पता दें तेरा रश्क ने नाम तेरा मुँह से निकलने न दिया शम्मा-रू मैं ने कहा था मेरी ज़िद से उस ने शम्मा को बज़्म में अपने कभी जलने न दिया श्रेणी: ग़ज़ल

बढ़े कुछ और किसी इल्तिजा से कम न हुए / 'ज़फ़र' मुरादाबादी

बढ़े कुछ और किसी इल्तिजा से कम न हुए मेरी हरीफ़ तुम्हारी दुआ से कम न हुए सियाह रात में दिल के मुहीब सन्नाटे ख़रोश-ए-नग़मा-ए-शोला-नवा से कम न हुए वतन को छोड़ के हिजरत भी किस को रास आई मसाएल उन के वहाँ भी ज़रा से कम न हुए फ़राज़-ए-ख़ल्क से अपना लहू भी बरसाया ग़ुबार फिर भी दिलों की फ़ज़ा से कम न हुए बुलंद और लवें हो गईं उम्मीदों की दिए वफ़ा के तुम्हारी जफ़ा से कम न हुए भँवर में डूब के तारीख़ बन गए गोया सफ़ीने इश्‍क़ के सैल-ए-बला से कम न हुए हमारे ज़ेहन भटकते रहे ख़लाओं में सफ़र नसीब के ज़ंजीर-ए-पा से कम न हुए सदाबहार ख़याबान-ए-आरज़ू था ‘जफ़र’ लहू के फूल हमारी क़बा से कम न हुए श्रेणी: ग़ज़ल

बे-क़नाअत काफ़िले हिर्स ओ हवा ओढ़े हुए / 'ज़फ़र' मुरादाबादी

बे-क़नाअत काफ़िले हिर्स ओ हवा ओढ़े हुए मंज़िलें भी क्यूँ न हों फिर फ़ासला ओढ़े हुए इस क़दर ख़िल्क़त मगर है मौत को फ़ुर्सत बहुत हर बशर है आज ख़ु अपनी क़जा़ ओढ़े हुए उन के बातिन में मिला शैतान ही मसनद-नर्शी जो ब-ज़ाहिर थे बहुत नाम-ए-ख़ुदा ओढ़े हुए क्या करे कोई किसी से पुर्सिश-ए-अहवाल भी आज सब हैं अपनी अपनी कर्बला ओढ़े हुए क्या ख़बर किस मोड़ पर बिखरे मता-ए-एहतियात पत्थरों के शहर में हूँ आईना ओढ़े हुए सब दिलासे उस के झूठे उस के सब वादे फरेब कब तक आख़िर हम रहें सब ओ रजा ओढ़े हुए क्यूँ तज़बज़ुब में न हों इस दौर के अहल-ए-नज़र गुम-रही है आगही का फ़लसला ओढ़े हुए उँगलियाँ मजरूह हो जाएँगी रहना दूर दूर ख़ार भी हैं इन दिनों गुल की रिदा ओढ़े हुए बख़्षिशों से जिस की ख़ास ओ आम थे फै़ज़-याब हम भी थे उस बज़्म में लेकिन अना ओढ़े हुए फ़स्ल-ए-गुल आई तो वीराने भी महके हर तरफ आज ख़ुद ख़ुश-बू को थी बाद-ए-सबा ओढ़े हुए इक ज़मीं ही तंग क्या थी उस से जब बिछड़े ‘जफर’ आसमाँ भी था ग़ज़ब-परवर घटा ओढ़े हुए श्रेणी: ग़ज़ल

कभी दुआ तो कभी बद्-दुआ से लड़ते हुए / 'ज़फ़र' मुरादाबादी

कभी दुआ तो कभी बद्-दुआ से लड़ते हुए तमाम उम्र गुज़ारी हवा से लड़ते हुए हुए न ज़ेर किसी इंतिहा से लड़ते हुए महाज़ हार गए हम क़ज़ा से लड़ते हुए बिखर रहा हूँ फ़िज़ा में गुबार की सूरत खिलाफ-ए-मस्लहत अपनी अना से लड़ते हुए फ़िज़ा बदलते ही जाग उट्ठी फ़ितरत-ए-मै-कश शिकस्त खा गई तौबा घटा से लड़ते हुए क़लम की नोक से बहता रहा लहू मेरा हिसार-ए-खिल्क़त-ए-फिक्र-ए-रसा से लड़ते हुए जुनूँ नवर्द को मंज़र न कोई रास आया मरा तो शोख़ी-ए-आब-ओ-हवा से लड़ते हुए पहुँच सके न किसी ख़ुश-गवार मंज़िल तक तुम्हारी याद की ज़ंजीर-ए-पा से लड़ते हुए उन्हीं पे बंद हुआ इर्तिका का दरवाज़ा फ़ना हुए हैं जो अपनी बक़ा से लड़ते हुए ‘जफर’ घिरे तो उसी रज़्म-ए-गाह-ए-हस्ती में हुए शहीद सफ़-ए-कर्बला से लड़ते हुए श्रेणी: ग़ज़ल

दिल सोज़-ए-आह-ए-गम से पिघलता चला गया / 'क़ैसर' निज़ामी

दिल सोज़-ए-आह-ए-गम से पिघलता चला गया मैं ज़ब्त की हदों से निकलता चला गया जो तेरी याद में कभी आया था आँख तक वो अश्क बन के चश्मा उबलता चला गया रोका हज़ार बार मगर तेरी याद में तूफान-ए-इजि़्तराब मचलता चला गया पुर-कैफ हो गई मेरी दुनिया-ए-जिंदगी पी कर शराब-ए-इश्क सँभलता चला गया रोका किया जहाँ नए इंकिलाब को करवट मगर ज़माना बदलता चला गया ‘कैसर’ न काम आईं यहाँ पासबानियाँ दौर-ए-ख़िजाँ गुलों को मसलता चला गया श्रेणी: ग़ज़ल

आतिश-ए-सोज़-ए-मोहब्बत को बुझा सकता हूँ मैं / 'क़ैसर' निज़ामी

आतिश-ए-सोज़-ए-मोहब्बत को बुझा सकता हूँ मैं दीदा-ए-पुर-नम से इक दरिया बहा सकता हूँ मैं हुस्न-ए-बे-परवा तेरा बस इक इशारा चाहिए मेरी हस्ती क्या है हस्ती को मिटा सकता हूँ मैं ये तो फरमा दीजिए तकमील-ए-उल्फत की कसम आप को क्या वाकई अपना बना सकता हूँ मैं इश्क में रोज़-ए-अज़ल से दिल है पाबंद-ए-वफा भूलने वाले तुझे क्यूँकर भुला सकता हूँ मैं हम-नफस मुतलक भी तूफान-ए-आलम का गम नहीं बहर की हर मौज को साहिल बना सकता हूँ मैं बख़्श दी हैं इश्क ने इस दर्जा मुझ को हिम्मतें जख़्म खा कर दिल पै ‘कैसर’ मुस्कुरा सकता हूँ मैं श्रेणी: ग़ज़ल

तलब की आग किसी शोला-रू से रौशन है / 'क़ाबिल' अजमेरी

तलब की आग किसी शोला-रू से रौशन है खयाल हो के नज़र आरजू से रौशन है जनम-जनम के अँधेरों को दे रहा है शिकस्त वो इक चराग के अपने लहू से रौशन है कहीं हुजूम-ए-हवादिस में खो के रह जाता जमाल-ए-यार मेरी जुस्तुजू से रौशन है ये ताबिश-ए-लब-ए-लालीं ये शोला-ए-आवाज़ तमाम बज़्म तेरी गुफ्तुगू से रौशन है विसाल-ए-यार तो मुमकीन नहीं मगर नासेह रूख-ए-हयात इसी आरजू से रौशन है श्रेणी: ग़ज़ल

सुराही का भरम खुलता न मेरी तिश्नगी होती / 'क़ाबिल' अजमेरी

सुराही का भरम खुलता न मेरी तिश्नगी होती जरा तुम ने निगाह-ए-नाज़ को तकलीफ दी होती मकाम-ए-आशिकी दुनिया ने समझा ही नहीं वरना जहाँ तक तेरा गम होता वहीं तक जिंदगी होती तुम्हारी आरजू क्यूँ दिल के वीराने में आ पहुँची बहारों में पली होती सितारों में रही होती ज़माने की शिकायत क्या ज़माना किस की सुनता है मगर तुम ने तो आवाज़-ए-जुनूँ पहचान ली होती ये सब रंगीनियाँ खून-ए-तमन्ना से इबारत है शिकस्त-ए-दिल न होती तो शिकस्त-ए-ज़िंदगी होती रज़ा-दोस्त ‘काबिल’ मेरा मेयार-ए-मोहब्बत है उन्हें भी भूल सकता था अगर उन की खुशी होती श्रेणी: ग़ज़ल

हैरतों के सिलसिले सोज़-ए-निहाँ तक आ गए / 'क़ाबिल' अजमेरी

हैरतों के सिलसिले सोज़-ए-निहाँ तक आ गए हम नज़र तक चाहते थे तुम तो जाँ तक आ गए ना-मुरादी अपनी किस्मत गुमरही अपना नसीब कारवाँ की खैर हो हम कारवाँ तक आ गए उन की पलकों पर सितारे अपने होंटों पे हँसी किस्सा-ए-गम कहते कहते हम कहाँ तक आ गए रफ्ता-रफ्ता रंग लाया जज्बा-ए-खामोश-ए-इश्क वो तगाफुल करते करते इम्तिहाँ तक आ गए खुद तुम्हें चाक-ए-गिरेबाँ का शुऊर आ जाएगा तुम वहाँ तक आ तो जाओ हम जहाँ तक आ गए आज ‘काबिल’ मय-कदे में इंकिलाब आने को है अहल-ए-दिल अंदेशा-ए-सूद-ओ-जियाँ तक आ गए श्रेणी: ग़ज़ल

दिल-ए-दीवाना अर्ज़-ए-हाल पर माइल तो क्या होगा / 'क़ाबिल' अजमेरी

दिल-ए-दीवाना अर्ज़-ए-हाल पर माइल तो क्या होगा मगर वो पूछे बैठे खुद ही हाल-ए-दिल क्या होगा हमारा क्या हमें तो डूबना है डूब जाएँगे मगर तूफान जा पहुँचा लब-ए-साहिल तो क्या होगा शराब-ए-नाब ही से होश उड़ जाते है इन्सां के तेरा कैफ-ए-नजर भी हो गया शामिल तो क्या होगा खिरद की रह-बरी ने तो हमें ये दिन दिखाए है जुनूँ हो जाएगा जब रह-बर-ए-मंजिल तो क्या होगा कोई पूछे तो साहिल पर भरोसा करने वालों से अगर तूफाँ की ज़द में आ गया साहिल तो क्या होगा खुद उस की जिंदगी अब उस से बरहम होती जाती है उन्हें होगा भी पास-ए-खातिर-ए-‘काबिल’ तो क्या होगा श्रेणी: ग़ज़ल

होटों पे हँसी आँख में तारों की लड़ी है / 'क़ाबिल' अजमेरी

होटों पे हँसी आँख में तारों की लड़ी है वहशत बड़े दिलचस्प दो-राहे पे खड़ी है दिल रस्म-ओ-रह-ए-शौक से मानूस तो हो ले तकमील-ए-तमन्ना के लिए उम्र पड़ी है चाहा भी अगर हम ने तेरी बज्म से उठना महसूस हुआ पाँव में जंजीर पड़ी है आवारा ओ रूसवा ही सही हम मंजिल-ए-शब में इक सुब्ह-ए-बहाराँ से मगर आँख लड़ी है क्या नक्श अभी देखिए होते हैं नुमायाँ हालात के चेहरे से जरा गर्द झड़ी है कुछ देर किसी जुल्फ के साए में ठहर जाएँ ‘काबिल’ गम-ए-दौराँ की अभी धूप कड़ी है श्रेणी: ग़ज़ल

दिल का हर ज़ख़्म मोहब्बत का निशाँ हो जैसे / 'उनवान' चिश्ती

दिल का हर ज़ख़्म मोहब्बत का निशाँ हो जैसे देखने वालों को फूलों का गुमाँ हो जैसे तेरे क़ुर्बां ये तेरे इश्‍क़ में क्या आलम है हर नज़र मेरी तरफ़ ही निगराँ हो जैसे यूँ तेरे क़ुर्ब की फिर आँच सी महसूस हुई आज फिर शोला-ए-एहसास जवाँ हो जैसे तीर पर तीर बरसते हैं मगर ना-मालूम ख़म-ए-अबरू कोई जादू की कमाँ हो जैसे उन के कूचे पे ये होता है गुमाँ ए ‘उनवाँ’ ये मेरे शौक़ के ख़्वाबों का जहाँ हो जैसे श्रेणी: ग़ज़ल

थोड़ा सा अक्स चाँद के पैकर में डाल दे / 'कैफ़' भोपाली

थोड़ा सा अक्स चाँद के पैकर में डाल दे तू आ के जान रात के मंज़र में डाल दे जिस दिन मेरी जबीं किसी दहलीज़ पर झुके उस दिन खुदा शगाफ मेरे सर में डाल दे अल्लाह तेरे साथ मल्लाह को न देख ये टूटी फूटी नाव समंदर में डा ल दे ओ तेरे माल ओ ज़र को मैं तक्दीस बख्श दूँ ला अपना माल ओ ज़र मेरी ठोकर में डाल दे भाग ऐसे रह-नुमा से जो लगता है ख़िज्र सा जाने ये किस जगह तुझे चक्कर में डाल दे इस से तेरे मकान का मंज़र है बद-नुमा चिंगारी मेरे फूस के छप्पर में डाल दे मैं ने पनाह दी तुझे बारिश की रात में तू जाते जाते आग मेरे घर में डाल दे ऐ ‘कैफ’ जागते तुझे पिछला पहर हुआ अब लाश जैसे जिस्म को बिस्तर में डाल दे श्रेणी: ग़ज़ल

तुम से न मिल के खुश हैं वो दावा किधर गया / 'कैफ़' भोपाली

तुम से न मिल के खुश हैं वो दावा किधर गया दो रोज़ में गुलाब सा चेहरा उतर गया जान-ए-बहार तुम ने वो काँटे चुभोए हैं मैं हर गुल-ए-शगुफ्ता को छूने से डर गया इस दिल के टूटने का मुझे कोई गम नहीं अच्छा हुआ के पाप कटा दर्द-ए-सर गया मैं भी समझ रहा हूँ के तुम तुम नहीं रहे तुम भी ये सोच लो के मेरा ‘कैफ’ मर गया श्रेणी: ग़ज़ल

ये दाढ़ियाँ ये तिलक धारियाँ नहीं चलती / 'कैफ़' भोपाली

ये दाढ़ियाँ ये तिलक धारियाँ नहीं चलती हमारे अहद में मक्कारियाँ नहीं चलती कबीले वालों के दिल जोड़िए मेरे सरदार सरों को काट के सरदारियाँ नहीं चलतीं बुरा न मान अगर यार कुछ बुरा कह दे दिलों के खेल में खुद्दारियाँ नहीं चलती छलक छलक पड़ी आँखों की गागरें अक्सर सँभल सँभल के ये पनहारियाँ नहीं चलती जनाब-ए-‘कैफ’ ये दिल्ली है ‘मीर’ ओ ‘गालिब’ की यहाँ किसी की तरफ-दारियाँ नहीं चलती श्रेणी: ग़ज़ल

क्यों फिर रहे हो कैफ़ ये ख़तरे का घर लिए / 'कैफ़' भोपाली

क्यों फिर रहे हो कैफ़ ये ख़तरे का घर लिए ये कांच का शरीर ये काग़ज़ का सर लिए शोले निकल रहे हैं गुलाबों के जिस्म से तितली न जा क़रीब ये रेशम के पर लिए जाने बहार नाम है लेकिन ये काम है कलियां तराश लीं तो कभी गुल क़तर लिए रांझा बने हैं, कैस बने, कोहकन बने हमने किसी के वास्ते सब रूप धर लिए ना मेहरबाने शहर ने ठुकरा दिया मुझे मैं फिर रहा हूं अपना मकां दर-ब-दर लिए श्रेणी: ग़ज़ल

जिस पे तेरी शमशीर नहीं है / 'कैफ़' भोपाली

जिस पे तेरी शमशीर नहीं है उस की कोई तौक़ीर नहीं है उस ने ये कह कर फेर दिया ख़त ख़ून से क्यूँ तहरीर नहीं है ज़ख्म-ए-ज़िगर में झाँक के देखो क्या ये तुम्हारा तीर नहीं है ज़ख़्म लगे हैं खुलने गुल-चीं ये तो तेरी जागीर नहीं है शहर में यौम-ए-अमन है वाइज़ आज तेरी तक़रीर नहीं है ऊदी घटा तो वापस हो जा आज कोई तदबीर नहीं है शहर-ए-मोहब्बत का यूँ उजड़ा दूर तलक तामीर नहीं है इतनी हया क्यूँ आईने से ये तो मेरी तस्वीर नहीं है श्रेणी: ग़ज़ल

खुश-गमाँ हर आसरा बे-आसरा साबित हुआ / 'ज़फ़र' मुरादाबादी

ख़ुश-गमाँ हर आसरा बे-आसरा साबित हुआ ज़िंदगी तुझ से तअल्लुक खोखला साबित हुआ जब शिकायत की कबीदा-ख़ातिरी हासिल हुई सब्र-ए-महरूमी मेरा हर्फ-ए-दुआ साबित हुआ बे-तलब मिलती रहें यूँ तो हज़ारों नेमतें थे तलब की आस में बरहम तो क्या साबित हुआ रू-ब-रू होते हुए भी हम रहे मंज़िल से दूर इक अना का मसअला ज़ंजीर-ए-पा साबित हुआ आह भर कर चल दिए सब ही तमाशा देख कर वक़्त पर जो डट गया वो देवता साबित हुआ टूट कर बिखरा मेरे दिल से यक़ीं का आईना मैं उसे समझा था क्या लेकिन वो क्या साबित हुआ साँस जो आया बदन में था वफ़ा से हम-किनार और जब वापस हुआ तो बे-वफ़ा साबित हुआ सर के शैदाई बहुत मायूस महफ़िल से उठे जब ‘ज़फ़र’ जैसा सुख़न-वर बे-नवा साबित हुआ श्रेणी: ग़ज़ल

नक़ाब उस ने रूख़-ए-हुस्न-ए-ज़र पे डाल दिया / 'ज़फ़र' मुरादाबादी

नक़ाब उस ने रूख़-ए-हुस्न-ए-ज़र पे डाल दिया के जैसे शब का अँधेरा सहर पे डाल दिया समाअतें हुईं पुर-शौक हादसों के लिए ज़रा सा रंग-ए-बयाँ जब ख़बर पे डाल दिया तमाम उस ने महासिन में ऐब ढूँड लिए जो बार-ए-नक़्द-ओ-नज़र दीदा-वर पे डाल दिया अब इस को नफ़ा कहीं या ख़सारा-ए-उल्फ़त जो दाग़ उस ने दिल-ए-मोतबर पे डाल दिया क़रीब ओ दूर यहाँ हम-सफ़र नहीं कोई तेरी तलब ने ये किस रह-गुज़र पे डाल दिया हुसूल-ए-मंज़िल-ए-जानाँ से हाथ धो लेंगे कुछ और बोझ जो पा-ए-सफ़र पे डाल दिया जो हम अज़ाब था उस की ही छाँव में आ कर ख़ुद अपनी धूप का लश्‍कर शजर पे डाल दिया भटक रहा था जो असरार-ए-फ़न की वादी में उरूज दे के फराज़-ए-हुनर पे डाल दिया बे-एतदाल थे ख़ुद उन के खत्त-ओ-खाल ‘ज़फ़र’ हर इत्तिहाम मगर शीशा-गर पे डाल दिया श्रेणी: ग़ज़ल

निगाह-ए-हुस्न-ए-मुजस्सम अदा हो छूते ही / 'ज़फ़र' मुरादाबादी

निगाह-ए-हुस्न-ए-मुजस्सम अदा हो छूते ही गँवाए होश भी उस दिल-रूबा को छूते ही तमाम फूल महकने लगे हैं खिल-खिल कर चमन में शोख़ी-ए-बाद-सबा को छूते ही मशाम-ए-जाँ में अजब है सुरूर का आलम तसव्वुरात में ज़ुल्फ़-ए-दोता को छूते ही निगाह-ए-शौक़ की सब उँगलियाँ सुलग उट्ठीं गुलाब जिस्म की रंगीन क़बा को छूते ही नज़र को हेच नज़र आए सब हसीं मंज़र बस एक शुआ-ए-रूख-ए-जाँ-फ़जा को छूते ही जो आँसुओं से हुई बा-वज़ू अकेले में दर-ए-क़ुबूल खुला उस दुआ को छूते ही नहाईं शिद्दत-ए-अहसास के उजाले में समाअतें मेरे सोज़-ए-नवा हो छूते ही हिसार-ए-ज़ब्त जो टूटा तो आँख भर आई दयार-ए-ग़ैर में इक आश्‍ना को छूते ही लहू में डूब के काँटे बन चराग़ ‘ज़फर’ रह-ए-वफ़ा में म आशुफ़्ता-पा को छूते ही श्रेणी: ग़ज़ल

रात भर सूरज के बन कर हम-सफ़र वापस हुए / 'ज़फ़र' मुरादाबादी

रात भर सूरज के बन कर हम-सफ़र वापस हुए शाम को बिछड़े हम तो हँगाम-ए-सफर वापस हुए जल्वागाह-ए-ज़ात से कब ख़ुद-निगर वापस हुए और अगर वापस हुए तो बे-बसर वापस हुए थी हमें मल्हूज-ए-ख़ातिर नेक-नामी इस क़दर चूम कर नज़रों से उन के बाम ओ दर वापस हुए मुज़्दा परवाज़-ए-अदम का है के राहत की नवेद दम लबों पर है तो अपने बाल ओ पर वापस हुए शौक़-ए-मंज़िल था कहाँ मुझ सा किसी का मोतबर दो क़दम भी चल न पाए हम-सफ़र वापस हुए कारवाँ से जो भी बिछड़ा गर्द-ए-सहरा हो गया टूट कर पत्ते कब अपनी शाख़ पर वापस हुए सुब्ह दम ले कर चली घर से तलाश-ए-रोज़-गार शाम हम रूख़ पर लिए गर्द-ए-सफर वापस हुए ज़िंदगी में आईं सुब्हें और शामें भी बहुत अहद-ए-रफ़्ता के कहाँ शाम ओ सहर वापस हुए आख़िरश बुझ ही गया है ख़ुश-गुमानी का चराग़ तुम बिछड़ कर फिर कहाँ इम्कान भर वापस हुए ख़ुश-गुमानी का भरम रक्खा नई पहचान ने फिर मेरे नग़मों में ढल कर सीम-बर वापस हुए होश से आरी रही दीवानगी अपनी ‘ज़फर’ बा-ख़बर महफ़िल में रह कर बे-ख़बर वापस हुए श्रेणी: ग़ज़ल

तमाम रंग जहाँ इल्तिजा के रक्खे थे / 'ज़फ़र' मुरादाबादी

तमाम रंग जहाँ इल्तिजा के रक्खे थे लहू लहू वहीं मंज़र अना के रक्खे थे करम के साथ सितम भी बला के रक्खे थे हर एक फूल ने काँटे छुपा के रक्खे थे सुकूल चेहरे पे हर ख़ुश अदा के रक्खे थे समंदरों ने भी तेवर छुपा के रक्खे थे मेरी उम्मीद का सूरज के तेरी आस का चाँद दिए तमाम ही रूख़ पर हवा के रक्खे थे वो जिस की पाक उड़ानों के मोतरिफ थे सब जले हुए वही शहपर हया के रक्खे थे बना यज़ीद ज़माना जो मैं हुसैन बना के ज़ुल्म बाक़ी अभी कर्बला के रक्थे थे उन्हीं को तोड़ गया है ख़ुलूस का चेहरा जो चंद आइने हम ने बचा के रक्खे थे यूँही किसी की कोई बंदगी नहीं करता बुतों के चेहरों पे तेवर ख़ुदा के रक्खे थे गए हैं बाब-ए-रसा तक वो दस्तकें बन कर ‘जफ़र’ जो हाथ पे आँसू दुआ के रक्खे थे श्रेणी: ग़ज़ल

अभी आखें खुली हैं और क्या क्या / 'ज़फ़र' इक़बाल

अभी आखें खुली हैं और क्या क्या देखने को मुझे पागल किया उस ने तमाशा देखने को वो सूरत देख ली हम ने तो फिर कुछ भी न देखा अभी वर्ना पड़ी थी एक दुनिया देखने को तमन्ना की किसे परवा के सोने जागने में मुयस्सर हैं बहुत ख़्वाब-ए-तमन्ना देखने को ब-ज़ाहिर मुतमइन मैं भी रहा इस अंजुमन में सभी मौजूद थे और वो भी ख़ुश था देखने को अब उस को देख कर दिल हो गया है और बोझल तरसता था यही देखो तो कितना देखने को अब इतना हुस्न आँखों में समाए भी तो क्यूँकर वगरना आज उसे हम ने भी देखा देखने को छुपाया हाथ से चेहरा भी उस ना-मेहरबाँ ने हम आए थे 'ज़फ़र' जिस का सरापा देखने को. श्रेणी: ग़ज़ल

मक़बूल-ए-अवाम हो गया मैं / 'ज़फ़र' इक़बाल

मक़बूल-ए-अवाम हो गया मैं गोया के तमाम हो गया मैं एहसास की आग से गुज़र कर कुछ और भी ख़ाम हो गया मैं दीवार-ए-हवा पे लिख गया वो यूँ नक़्श-ए-दवाम हो गया मैं पत्थर के पाँव धो रहा था पानी का पयाम हो गया मैं उड़ता हुआ अक्स देखते ही फैला हुआ दाम हो गया मैं श्रेणी: ग़ज़ल

आँख में अश्क लिए ख़ाक लिए दामन में / 'गुलनार' आफ़रीन

आँख में अश्क लिए ख़ाक लिए दामन में एक दीवाना नज़र आता है कब से बन में मेरे घर के भी दर ओ बाम कभी जागेंगे धूप निकलेगी कभी तो मेरे भी आँगन में कहिए आईना-ए-सद-फ़स्ल-ए-बहाराँ तुझ को कितने फूलों की महक है तेरे पैराहन में शब-ए-तारीक मेरा रास्ता क्या रोकेगी मेरे आँचल में सितारे हैं सहर दामन में किन शहीदों के लहू के ये फ़रोज़ाँ हैं चराग़ रौशनी सी जो है ज़िंदाँ के हर इक रोज़न में अहद-ए-रफ़्ता की तमन्ना की फ़ुसूँ ज़िंदाँ है दिल-ए-ना-काम अभी तक मेरी हर धड़कन में हमें मंज़ूर नहीं अगली रवायात-ए-जुनूँ आ-ख़िरद हो गई ‘गुलनार’ दीवान-पन में श्रेणी: ग़ज़ल

आँसू भी वही कर्ब के साए भी वही हैं / 'गुलनार' आफ़रीन

आँसू भी वही कर्ब के साए भी वही हैं हम गर्दिश-ए-दौराँ के सताए भी वही हैं क्या बात है क्यूँ शहर में अब जी नहीं लगता हालांकि यहाँ अपने पराए भी वही हैं औराक़-ए-दिल-ओ-जाँ पे जिन्हें तुम ने लिखा है नग़मात-ए-आलम हम ने सुनाए भी वही है ऐ जोश-ए-जुनूँ दर्द का आलम भी वही है ऐ वहशत-ए-जाँ दर्द के साए भी वही हैं देखा है जिन्हें आह-ब-लब चाक-गिरेबाँ हर दाग़-ए-आलम दिल में छुपाए भी वही हैं सौ रंग बिखेरेंगे मोहब्बत के शगूफ़े ‘गुलनार’ चमन में हमंे लाए भी वही हैं श्रेणी: ग़ज़ल

दिल ने इक आह भरी आँख में आँसू आए / 'गुलनार' आफ़रीन

दिल ने इक आह भरी आँख में आँसू आए याद ग़म के हमें कुछ और भी पहलू आए ज़ुल्मत-ए-शब में है रू-पोश निशान-ए-मंज़िल अब मुझे राह दिखाने कोई जुगनू आए दिल का ही ज़ख़्म तेरी याद का इक फूल बने मेरे पैहरान-ए-जाँ से तेरी ख़ुश-बू आए तिश्ना-कामों की कहीं प्यास बुझा करती है दश्त को छोड़ के अब कौन लब-ए-जू आए एक परछाईं तसव्वुर की मेरे साथ रहे मैं तुझे भूलूँ मगर याद मुझे तू आए मैं यही आस लिए ग़म की कड़ी धूप में हूँ दिल के सहरा में तेरे प्यार का आहू आए दिल परेशान है ‘गुलनार’ तो माहौल उदास अब जरूरत है कोई मुतरिब-ए-ख़ुश-ख़ू आए श्रेणी: ग़ज़ल

हमारा नाम पुकारे हमारे घर आए / 'गुलनार' आफ़रीन

हमारा नाम पुकारे हमारे घर आए ये दिल तलाश में जिस की है वो नज़र आए न जाने शहर-ए-निगाराँ पे क्या गुज़रती है फ़जा-ए-दश्त-आलम कोई तो ख़बर आए निशान भूल गई हूँ मैं राह-ए-मंज़िल का ख़ुदा करे के मुझे याद-ए-रह-गुज़र आए मैं आँधियों में भी फूलों के रंज पढ़ लूँगी तेरे बदन की महक लौट कर अगर आए ग़ुबार ग़म का दयार-ए-वफ़ा में उड़ता है मगर ये अश्क बहुत काम चश्म-ए-तर आए सफ़र का रंज हसीं क़ुर्बतों का हामिल हो बहार बन के कोई अब तो हम-सफ़र आए नई सहर का मैं ‘गुलनार’ इस्तिआरा हूँ फ़जा-ए-तीरा-शबी ख़त्म हो सहर आए श्रेणी: ग़ज़ल

न पूछ ऐ मेरे ग़म-ख़्वार क्या तमन्ना थी / 'गुलनार' आफ़रीन

न पूछ ऐ मेरे ग़म-ख़्वार क्या तमन्ना थी दिल-ए-हज़ीं में भी आबाद एक दुनिया थी हर इक नज़र थी हमारे ही चाक-दामाँ पर हर एक साअत-ए-ग़म जैसे इक तमाशा थी हमें भी अब दर ओ दीवार घर के याद आए जो घर में थे तो हमें आरज़ू-ए-सहरा थी कोई बचाता हमें फिर भी डूब ही जाते हमारे वास्ते ज़ंजीर मौज-ए-दरिया थी बग़ैर सम्त के चलना भी काम आ ही गया फ़सील-ए-शहर के बाहर भी एक दुनिया थी तिलिस्म-ए-होश-रूबा थे वो मंज़र-ए-हस्ती फ़जा-ए-दीदा-ओ-दिल जैसे ख़्वाब आसा थी कोई रफ़ीक़-ए-सफ़र था न राह-बर केाई जुनूँ की राह में ‘गुलनार’ जादा-पैमा थी श्रेणी: ग़ज़ल

दिल पा के उस की जुल्फ में आराम रह गया / 'क़ाएम' चाँदपुरी

दिल पा के उस की जुल्फ में आराम रह गया दरवेश जिस जगह कि हुई शाम रह गया सय्याद तू तो जा है पर उस की भी कुछ ख़बर जो मुर्ग-ए-ना-तवाँ कि तह-ए-दाम रह गया किस्मत तो देख टूटी है जा कर कहाँ कमंद कुछ दूर अपने हाथ से जब बाम रह गया नै तुझ पे वो बहार रही और न याँ वो दिल कहने को नेक ओ बद के इक इल्ज़ाम रह गया मौकूफ कुछ कमाल पे याँ काम-ए-दिल नहीं मुझ को ही देख लेना के ना-काम रह गया ‘काएम’ गए सब की ज़बाँ से जो थे रफीक इक बे-हया मैं खाने को दुश्नाम रह गया श्रेणी: ग़ज़ल

हुस्न से आँख लड़ी हो जैसे / 'उनवान' चिश्ती

हुस्न से आँख लड़ी हो जैसे जिंदगी चौंक पड़ी हो जैसे हाए ये लम्हा तेरी याद के साथ कोई रहमत की घड़ी हो जैसे राह रोके हुए इक मुद्दत से कोई दोशीज़ा खड़ी हो जैसे उफ़ ये ताबानी-ए-माह-ओ-अंजुम रात सेहरे की लड़ी हो जैसे उन को देखा तो हुआ ये महसूस जान में जान पड़ी हो जैसे मुझ से खुलते हुए शर्माते हैं इक गिरह दिल में पड़ी हो जैसे उफ़ ये अंदाज़-ए-शिकस्त-ए-अरमाँ शाख़-ए-गुल टूट पड़ी हो जैसे उफ़ ये अश्‍कों का तसलसुल ‘उनवाँ’ कोई सावन की झड़ी हो जैसे श्रेणी: ग़ज़ल

इश्‍क़ फिर इश्‍क़ है आशुफ़्ता-सरी माँगे हैं / 'उनवान' चिश्ती

इश्‍क़ फिर इश्‍क़ है आशुफ़्ता-सरी माँगे हैं होश के दौर में भी जामा-दरी माँगे हैं हाए आग़ाज-ए-मोहब्बत में वो ख़्वाबों के तिलिस्म जिंदगी फिर वही आईना-गरी माँगे हैं दिल जलाने पे बहुत तंज न कर ऐ नादाँ शब-ए-गेसू भी जमाल-ए-सहरी माँगे हैं मैं वो आसूदा-ए-जल्वा हूँ कि तेरी ख़ातिर हर कोई मुझ से मिरी ख़ुश-नज़री माँगे हैं तेरी महकी हुई ज़ुल्फ़ों से ब-अंदाज़-ए-हसीं जाने क्या चीज़ नसीम-ए-सहरी माँगे हैं आप चाहें तो तसव्वुर भी मुजस्सम हो जाए ज़ौक़-ए-आज़र तो नई जल्वागरी माँगे हैं हुस्न ही तो नहीं बेताब-ए-नुमाइश ‘उनवाँ’ इश्‍क़ भी आज नई जल्वागरी माँगे हैं श्रेणी: ग़ज़ल

दिल मेरा देख देख जलता है / 'क़ाएम' चाँदपुरी

दिल मेरा देख देख जलता है शम्मा का किस पे दिल पिघलता है हम-नशीं ज़िक्र-ए-यार कर के कुछ आज इस हिकायत से जी बहलता है दिल मिज़ा तक पहुँच चुका जूँ अश्क अब सँभाले से कब सँभलता है साकिया दौर क्या करे है तमाम आप ही अब ये दौर चलता है अपने आशिक की सोख़्त पर प्यारे कभू कुछ दिल तेरा भी जलता है देख कैसा पतंग की ख़ातिर शोला-ए-शम्मा हाथ मलता है आज ‘काएम’ के शेर हम ने सुने हाँ इक अंदाज़ तो निकलता है श्रेणी: ग़ज़ल

देखा कभू न उस दिल-ए-नाशाद की तरफ / 'क़ाएम' चाँदपुरी

देखा कभू न उस दिल-ए-नाशाद की तरफ करता रहा तू अपनी ही बे-दाद की तरफ जिस गुल ने सुन के नाला-ए-बुलबुल उड़ा दिया रखता है गोश कब मेरी फरियाद की तरफ मूँद ऐ पर-ए-शिकस्ता न चाक-ए-कफस के हम टुक याँ को देख लेते हैं सय्याद की तरफ कहते हैं गिर्या ख़ाना-ए-दिल कर चुका ख़राब आता है चश्म अब तेरी बुनियाद की तरफ लीजो ख़बर मेरे भी दिल-ए-ज़ार की नसीम जावे अगर तू इस सितम-आबाद की तरफ ‘काएम’ तू इस गज़ल को यूँ ही सरसरी ही कह होना पड़ेगा हज़रत-ए-उस्ताद की तरफ श्रेणी: ग़ज़ल

दर्द-ए-दिल कुछ कहा नहीं जाता / 'क़ाएम' चाँदपुरी

दर्द-ए-दिल कुछ कहा नहीं जाता आह चुप भी रहा नहीं जाता रू-ब-रू मेरे गैर से तू मिले ये सितम तो सहा नहीं जाता शिद्दत-ए-गिर्या से मैं ख़ून में कब सर से पा तक नहा नहीं जाता हर दम आने से मैं भी हूँ नादिम क्या करूँ पर रहा नहीं जाता माना-ए-गिर्या किस की ख़ू है के आज आँसूओं से बहा नहीं जाता गरचे ‘काएम’ असीर-ए-दाम हूँ लेक मुझ से ये चहचहा नहीं जाता श्रेणी: ग़ज़ल

दर्द पी लेते हैं और दाग़ पचा जाते हैं / 'क़ाएम' चाँदपुरी

दर्द पी लेते हैं और दाग़ पचा जाते हैं याँ बला-नोश हैं जो आए चढ़ा जाते हैं देख कर तुम को कहीं दूर गए हम लेकिन टुक ठहर जाओ तो फिर आप में आ जाते हैं जब तलक पाँव में चलने की है ताकत बाकी हाल-ए-दिल आ के कभू तुझ को दिखा जाते हैं कौन हो गुँचा-सिफत अपने सबा को मरहून जैसे तंग आए थे वैसे ही खफा जाते हैं रहियो हुश्यार तू लप-झप से बुताँ की ‘काएम’ बात की बात में वाँ दिल को उड़ा जाते है श्रेणी: ग़ज़ल

नज़र है जलवा-ए-जानाँ है देखिए क्या हो / 'क़मर' मुरादाबादी

नज़र है जलवा-ए-जानाँ है देखिए क्या हो शिकस्त-ए-इश्क का इम्कान है देखिए क्या हो अभी बहार-ए-गुज़िश्ता का गम मिटा भी नहीं फिर एहतमाम बहाराँ है देखिए क्या हो कदम उठे भी नहीं बज्म-ए-नाज की जानिब खयाल अभी से परेशाँ है देखिए क्या हो किसी की राह में काँटे किसी की राह में फूल हमारी राह में तूफाँ है देखिए क्या हो खिरद का जोर है आराइश-ए-गुलिस्ताँ पर जुनूँ हरीफ-ए-बहाराँ है देखिए क्या हो जिस एक शाख पे बुनियाद है नशेमन की वो एक शाख भी लर्जां है देखिए क्या हो है आज बज्म में फिर इज़्न-ए-आम साकी का ‘कमर’ हनोज मुसलमाँ है देखिए क्या हो श्रेणी: ग़ज़ल

मोहब्बत का जहाँ है और मैं हूँ / 'क़मर' मुरादाबादी

मोहब्बत का जहाँ है और मैं हूँ मेरा दारूल-अमाँ है और मैं हूँ हयात-ए-गम निशाँ है और मैं हूँ मुसलसल इम्तिहाँ है और मैं हूँ निगाह-ए-शौक है और उन के जलवे शिकस्त-ए-नागहाँ है और मै हूँ उसी का नाम हो शायद मोहब्बत कोई बार-ए-गिराँ है और मैं हूँ मोहब्बत बे-सहारा तो नहीं है मेरा दर्द-ए-निहाँ है और मैं हूँ मोहब्बत के फसाने अल्लाह अल्लाह ज़माने की जबाँ है और मैं हूँ ‘कमर’ तकलीद का काइल नहीं मैं मेरा तर्ज़-ए-बयाँ है और मैं हूँ श्रेणी: ग़ज़ल

मंज़िलों के निशाँ नहीं मिलते / 'क़मर' मुरादाबादी

मंज़िलों के निशाँ नहीं मिलते तुम अगर नागहाँ नहीं मिलते आशियाने का रंज कौन करे चार तिनके कहाँ नहीं मिलते दास्तानें हज़ार मिलती हैं साहिब-ए-दास्ताँ नहीं मिलते यूँ न मिलने के सौ बहाने हैं मिलने वाले कहाँ नहीं मिलते इंकिलाब-ए-जहाँ अरे तौबा हम जहाँ थे वहाँ नहीं मिलते दोस्तों की कमी नहीं हम-दम ऐसे दुश्मन कहाँ नहीं मिलते जिन को मंजिल सलाम करती थी आज वो कारवाँ नहीं मिलते शाख-ए-गुल पर जो झूमते थे ‘कमर’ आज वो आशियाँ नहीं मिलते श्रेणी: ग़ज़ल

लज्ज़त-ए-दर्द-जिगर याद आई / 'क़मर' मुरादाबादी

लज्ज़त-ए-दर्द-जिगर याद आई फिर तेरी पहली नज़र याद आई दर्द ने जब कोई करवट बदली जिंदगी बार-ए-दिगर याद आई पड़ गई जब तेरे दामन पर नज़र अज़मत-ए-दीद-ए-तर याद आई अपना खोया हुआ दिल याद आया उन की मख़्मूर नज़र याद आई दैर ओ काबा से जो हो कर गुज़रे दोस्त की राह-गुज़र याद आई देख कर उस रूख-ए-जे़बा पे नकाब अपनी गुस्ताख नज़र याद आई जब भी तामीर-ए-नशेमन की ‘कमर’ यूरिश-ए-बर्क-ओ शरर याद आई श्रेणी: ग़ज़ल

वो एक ख़ेमा-ए-शब जिस का नाम दुनिया था / 'क़ैसर'-उल जाफ़री

वो एक ख़ेमा-ए-शब जिस का नाम दुनिया था कभी धुँआ तो कभी चाँदनी सा लगता था हमारी आग भी तापी हमें बुझा भी दिया जहां पड़ाव किया था अजीब सहरा था हवा में मेरी आना भीगती रही वर्ना मैं आशियाने में बरसात काट सकता था जो आसमान भी टूटा गिरा मिरी छत पर मिरे मकाँ से किसी बद दुआ का रिश्ता था तुम आ गए हो ख़ुदा का सुबूत है ये भी क़सम ख़ुदा की अभी मैंने तुम को सोचा था ज़मीं पे टूट के कैसे गिरा गुरूर उस सा अभी अभी तो उसे आसमाँ पे देखा था भँवर लपेट के नीचे उतर गया शायद अभी अभी वो शाम से पहले नदी पे बैठा था मैं शाख़-ए-ज़र्द के मातम में रह गया 'क़ैसर' खिजाँ का ज़हर शजर की जड़ों में फैला था श्रेणी: ग़ज़ल

दरवाज़ा तेरे शहर का वा चाहिए / 'अर्श' सिद्दीक़ी

दरवाज़ा तेरे शहर का वा चाहिए मुझ को  जीना है मुझे ताज़ा हवा चाहिए मुझ को  आज़ार भी थे सब से ज़्यादा मेरी जाँ पर  अल्ताफ़ भी औरों से सिवा चाहिए मुझ को  वो गर्म हवाएँ हैं के खुलती नहीं आँखें  सहरा मैं हूँ बादल की रिदा चाहिए मुझ को  लब सी के मेरे तू ने दिए फ़ैसले सारे  इक बार तो बे-दर्द सुना चाहिए मुझ को  सब ख़त्म हुए चाह के और ख़ब्त के क़िस्से  अब पूछने आए हो के क्या चाहिए मुझ को  हाँ छूटा मेरे हाथ से इक़रार का दामन  हाँ जुर्म-ए-ज़ईफ़ी की सज़ा चाहिए मुझ को  महबूस है गुम्बद में कबूतर मेरी जाँ का  उड़ने को फ़लक-बोस फ़ज़ा चाहिए मुझ को  सम्तों के तिलिस्मात में गुम है मेरी ताईद  क़िबला तो है इक क़िबला-नुमा चाहिए मुझ को  मैं पैरवी-ए-अहल-ए-सियासत नहीं करता  इक रास्ता इन सब से जुदा चाहिए मुझ को  वो शोर था महफ़िल में के चिल्ला उठा 'वाइज़'  इक जाम-ए-मय-ए-होश-रुबा चाहिए मुझ को  तक़सीर नहीं 'अर्श' कोई सामने फिर भी  जीता हूँ तो जीने की सज़ा चाहिए मुझ को श्रेणी: ग़ज़ल

ग़म की गर्मी से दिल पिघलते रहे / 'अर्श' सिद्दीक़ी

ग़म की गर्मी से दिल पिघलते रहे  तजर्बे आँसुओं में ढलते रहे  एक लम्हे को तुम मिले थे मगर  उम्र भर दिल को हम मसलते रहे  सुब्ह के डर से आँख लग न सकी  रात भर करवटें बदलते रहे  ज़हर था ज़िंदगी के कूज़े में  जानते थे मगर निगलते रहे  दिल रहा सर-ख़ुशी से बे-गाना  गरचे अरमाँ बहुत निकलते रहे  अपना अज़्म-ए-सफ़र न था अपना  हुक्म मिलता रहा तो चलते रहे  ज़िंदगी सर-ख़ुशी जुनूँ वहशत  मौत के नाम क्यूँ बदलते रहे  हो गए जिन पे कारवाँ पामाल  सब उन्ही रास्तों पे चलते रहे  दिल ही गर बाइस-ए-हलाकत था  रुख़ हवाओं के क्यूँ बदलते रहे  हो गए ख़ामोशी से हम रुख़्सत  सारे अहबाब हाथ मलते रहे  हर ख़ुशी 'अर्श' वजह-ए-दर्द बनी  फ़र्श-ए-शबनम पे पाँव जलते रहे श्रेणी: ग़ज़ल

हम हद-ए-इंदिमाल से भी गए / 'अर्श' सिद्दीक़ी

हम हद-ए-इंदिमाल से भी गए  अब फ़रेब-ए-ख़याल से भी गए  दिल पे ताला ज़ुबान पर पहरा  यानी अब अर्ज़-ए-हाल से भी गए  जाम-ए-जम की तलाश ले डूबी  अपने जाम-ए-सिफ़ाल से भी गए  ख़ौफ़-ए-कम-माएगी बुरा हो तेरा  आरज़ू-ए-विसाल से भी गए  शोरिश-ए-ज़िंदगी तमाम हुई  गर्दिश-ए-माह-ओ-साल से भी गए  यूँ मिटे हम के अब ज़वाल नहीं  शौक़-ए-औज-ए-कमाल से भी गए  हम ने चाहा था तेरी चाल चलें  हाए हम अपनी चाल से भी गए  हुस्न-ए-फ़र्दा ख़याल ओ ख़्वाब रहा  और माज़ी ओ हाल से भी गए  हम तही-दस्त वक़्फ़-ए-ग़म हैं वही  तंग-ना-ए-सवाल से भी गए  सज्दा भी 'अर्श' उन को कर देखा  इस रह-ए-पाएमाल से भी गए श्रेणी: ग़ज़ल

फिर हुनर-मंदों के घर से बे-बुनर / 'अर्श' सिद्दीक़ी

फिर हुनर-मंदों के घर से बे-बुनर जाता हूँ मैं  तुम ख़बर बे-ज़ार हो अहल-ए-नज़र जाता हूँ मैं  जेब में रख ली हैं क्यूँ तुम ने ज़ुबानें काट कर  किस से अब ये अजनबी पूछे किधर जाता हूँ मैं  हाँ मैं साया हूँ किसी शय का मगर ये भी तो देख  गर तआक़ुब में न हो सूरज तो मर जाता हूँ मैं  हाथ आँखों से उठा कर देख मुझ से कुछ न पूछ  क्यूँ उफ़ुक पर फैलती सुब्हों से डर जाता हूँ मैं  बस यूँही तनहा रहूँगा इस सफ़र में उम्र भर  जिस तरफ़ कोई नहीं जाता उधर जाता हूँ मैं  ख़ौफ़ की ये इंतिहा सदियों से आँखें बंद हैं  शौक़ की ये अब्लही बे-बाल-ओ-पर जाता हूँ मैं  'अर्श' रस्मों की पनह-गाहें भी अब सर पर नहीं  और वहशी रास्तों पर बे-सिपर जाता हूँ मैं श्रेणी: ग़ज़ल

संग-ए-दर उस का हर इक दर पे / 'अर्श' सिद्दीक़ी

संग-ए-दर उस का हर इक दर पे लगा मिलता है  दिल को आवारा-मिज़ाजी का मज़ा मिलता है  जो भी गुल है वो किसी पैरहन-ए-गुल पर है  जो भी काँटा है किसी दिल में चुभा मिलता है  शौक़ वो दाम के जो रुख़्सत-ए-परवाज़ न दे  दिल वो ताएर के उसे यूँ भी मज़ा मिलता है  वो जो बैठे हैं बने नासेह-ए-मुश्फ़िक़ सर पर  कोई पूछे तो भला आप को क्या मिलता है  हम के मायूस नहीं हैं उन्हें पा ही लेंगे  लोग कहते हैं के ढूँडे से ख़ुदा मिलता है  दाम-ए-तज़वीर न हो शौक़ गुलू-गीर न हो  मय-कदा 'अर्श' हमें आज खुला मिलता है श्रेणी: ग़ज़ल

वक़्त का झोंका जो सब पत्ते उड़ा / 'अर्श' सिद्दीक़ी

वक़्त का झोंका जो सब पत्ते उड़ा कर ले गया  क्यूँ न मुझ को भी तेरे दर से उठा कर ले गया  रात अपने चाहने वालों पे था वो मेहर-बाँ  मैं न जाता था मगर वो मुझ को आ कर ले गया  एक सैल-ए-बे-अमाँ जो आसियों को था सज़ा  नेक लोगों के घरों को भी बहा कर ले गया  मैं ने दरवाज़ा न रक्खा था के डरता था मगर  घर का सरमाया वो दीवारें गिरा कर ले गया  वो अयादत को तो आया था मगर जाते हुए  अपनी तस्वीरें भी कमरे से उठा कर ले गया  मैं जिसे बरसों की चाहत से न हासिल कर सका  एक हम-साया उसे कल वर्ग़ला कर ले गया  सज रही थी जिंस जो बाज़ार में इक उम्र से  कल उसे इक शख़्स पर्दों में छुपा कर ले गया  मैं खड़ा फ़ुट-पाठ पर करता रहा रिक्शा तलाश  मेरा दुश्मन उस को मोटर में बिठा कर ले गया  सो रहा हूँ में लिए ख़ाली लिफ़ाफ़ा हाथ में  उस में जो मज़मूँ था वो क़ासिद चुरा कर ले गया  रक़्स के वक़्फ़े में जब करने को था मैं अर्ज़-ए-शौक़  कोई उस को मेरे पहलू से उठा कर ले गया  ऐ अज़ाब-ए-दोस्ती मुझ को बता मेरे सिवा  कौन था जो तुझ को सीने से लगा कर ले गया  मेहर-बाँ कैसे कहूँ मैं 'अर्श' उस बे-दर्द को  नूर आँखों का जो इक जलवा दिखा कर ले ...

किस किस अदा से तूने जलवा दिखा के मारा / अकबर इलाहाबादी

किस-किस अदा से तूने जलवा दिखा के मारा आज़ाद हो चुके थे, बन्दा बना के मारा अव्वल[1] बना के पुतला, पुतले में जान डाली फिर उसको ख़ुद क़ज़ा[2] की सूरत में आके मारा आँखों में तेरी ज़ालिम छुरियाँ छुपी हुई हैं देखा जिधर को तूने पलकें उठाके मारा ग़ुंचों में आके महका, बुलबुल में जाके चहका इसको हँसा के मारा, उसको रुला के मारा सोसन[3] की तरह 'अकबर', ख़ामोश हैं यहाँ पर नरगिस में इसने छिप कर आँखें लड़ा के मारा शब्दार्थ 1. ↑ पहले 2. ↑ मौत 3. ↑ एक कश्मीरी पौधा श्रेणी: ग़ज़ल

कट गई झगड़े में सारी रात वस्ल-ए-यार की / अकबर इलाहाबादी

कट गई झगड़े में सारी रात वस्ल-ए-यार की शाम को बोसा लिया था, सुबह तक तक़रार की ज़िन्दगी मुमकिन नहीं अब आशिक़-ए-बीमार की छिद गई हैं बरछियाँ दिल में निगाह-ए-यार की हम जो कहते थे न जाना बज़्म में अग़यार[1] की देख लो नीची निगाहें हो गईं सरकार की ज़हर देता है तो दे, ज़ालिम मगर तसकीन[2] को इसमें कुछ तो चाशनी हो शरब-ए-दीदार की बाद मरने के मिली जन्नत ख़ुदा का शुक्र है मुझको दफ़नाया रफ़ीक़ों[3] ने गली में यार की लूटते हैं देखने वाले निगाहों से मज़े आपका जोबन मिठाई बन गया बाज़ार की थूक दो ग़ुस्सा, फिर ऐसा वक़्त आए या न आए आओ मिल बैठो के दो-दो बात कर लें प्यार की हाल-ए-'अकबर' देख कर बोले बुरी है दोस्ती ऐसे रुसवाई, ऐसे रिन्द, ऐसे ख़ुदाई ख़्वार की शब्दार्थ 1 ग़ैर 2 तसल्ली 3 दोस्तों श्रेणी: ग़ज़ल

शक्ल जब बस गई आँखों में तो छुपना कैसा / अकबर इलाहाबादी

शक्ल जब बस गई आँखों में तो छुपना कैसा दिल में घर करके मेरी जान ये परदा कैसा आप मौजूद हैं हाज़िर है ये सामान-ए-निशात उज़्र सब तै हैं बस अब वादा-ए-फ़रदा कैसा तेरी आँखों की जो तारीफ़ सुनी है मुझसे घूरती है मुझे ये नर्गिस-ए-शेहला कैसा ऐ मसीहा यूँ ही करते हैं मरीज़ों का इलाज कुछ न पूछा कि है बीमार हमारा कैसा क्या कहा तुमने, कि हम जाते हैं, दिल अपना संभाल ये तड़प कर निकल आएगा संभलना कैसा श्रेणी: ग़ज़ल

दम लबों पर था दिलेज़ार के घबराने से / अकबर इलाहाबादी

दम लबों पर था दिलेज़ार के घबराने से आ गई है जाँ में जाँ आपके आ जाने से तेरा कूचा न छूटेगा तेरे दीवाने से उस को काबे से न मतलब है न बुतख़ाने से शेख़ नाफ़ह्म[1] हैं करते जो नहीं क़द्र[2] उसकी दिल फ़रिश्तों के मिले हैं तेरे दीवानों से मैं जो कहता हूँ कि मरता हूँ तो फ़रमाते हैं कारे-दुनिया न रुकेगा तेरे मर जाने से कौन हमदर्द किसी का है जहाँ में 'अक़बर' इक उभरता है यहाँ एक के मिट जाने से शब्दार्थ 1 नासमझ 2 इज़्ज़त श्रेणी: ग़ज़ल

ज़ंजीर से उठती है सदा सहमी हुई सी / 'अर्श' सिद्दीक़ी

ज़ंजीर से उठती है सदा सहमी हुई सी  जारी है अभी गर्दिश-ए-पा सहमी हुई सी  दिल टूट तो जाता है पे गिर्या नहीं करता  क्या डर है के रहती है वफ़ा सहमी हुई सी  उठ जाए नज़र भूल के गर जानिब-ए-अफ़्लाक  होंटों से निकलती है दुआ सहमी हुई सी  हाँ हँस लो रफ़ीक़ो कभी देखी नहीं तुम ने  नम-नाक निगाहों में हया सहमी हुई सी  तक़सीर कोई हो तो सज़ा उम्र का रोना  मिट जाएँ वफ़ा में तो जज़ा सहमी हुई सी  हाँ हम ने भी पाया है सिला अपने हुनर का  लफ़्ज़ों के लिफ़ाफ़ों में बक़ा सहमी हुई सी  हर लुक़मे पे खटका है कहीं ये भी न छिन जाए  मेदे में उतरती है ग़िज़ा सहमी हुई सी  उठती तो है सौ बार पे मुझ तक नहीं आती  इस शहर में चलती है हवा सहमी हुई सी  है 'अर्श' वहाँ आज मुहीत एक ख़ामोशी  जिस राह से गुज़री थी क़ज़ा सहमी हुई सी श्रेणी: ग़ज़ल

रुकते हुए क़दमों का चलन मेरे लिए है / 'अरशद' अब्दुल हमीद

रुकते हुए क़दमों का चलन मेरे लिए है सय्यारा-ए-हैरत की थकन मेरे लिए है मेरा कोई आहू मुझे ला कर नहीं देता कहते तो सभी हैं कि ख़ुतन मेरे लिए है तप-सी मुझे आ जाती है आगोश में उसकी वो बर्फ़ के गाले-सा बदन मेरे लिए है है जू-ए-तब-ओ-ताब पे अनवार के प्यासे और शाम का ये साँवलापन मेरे लिए है क़ंधार न काबुल न यमन मेरे लिए है मिट्टी के उजड़ने की चुभन मेरे लिए है बारूत में भुनते हुए अल्फ़ाज़ ओ मफ़ाहिम अब तो यही तस्वीए-ए-सुख़न मेरे लिए है दुनिया ही नहीं ख़ुद से ख़फ़ा रहता हूँ ’अरशद’ जीने का ये अंदाज़ ही फ़न मेरे लिए है श्रेणी: ग़ज़ल

आग़ोश में जो जलवा-गर इक / 'अमानत' लखनवी

आग़ोश में जो जलवा-गर इक नाज़नीं हुआ अंगुश्तरी बना मेरा तन वो नगीं हुआ रौनक़-फ़ज़ा लहद पे जो वो मह-जबीं हुआ गुम्बद हमारी क़ब्र का चर्ख़-ए-बरीं हुआ कंदा जहाँ में कोई न ऐसा नगीं हुआ जैसा के तेरा नाम मेरे दिल-नशीं हुआ रौशन हुआ ये मुझ पे के फ़ानूस में है शमा हाथ उस का जलवा-गर जो तह-ए-आस्तीं हुआ रखता है ख़ाक पर वो क़दम जब के नाज़ से कहता है आसमाँ न क्यूँ मैं ज़मीं हुआ रौशन शबाब में जो हुई शम्मा-ए-रु-ए-यार दूद-ए-चराग़ हुस्न-ए-ख़त-ए-अम्बरीं हुआ या रब गिरा उदू पे अमानत के तू वो बर्क़ दो टुकड़े जिस से शहपर-ए-रूहुल-अमीं हुआ श्रेणी: ग़ज़ल
कुछ फ़ासला नहीं है अदू और शिकस्त में लेकिन कोई सुराग़ नहीं है गिरफ़्त में कुछ दख़्ल इख़्तियार को हो बूद-ओ-हस्त में सर कर लूँ ये जहान-ए-आलम एक जस्त में अब वादी-ए-बदन में कोई बोलता नहीं सुनता हूँ आप अपनी सदा बाज़-गश्त में रूख़ है मिरे सफ़र का अलग तेरी सम्त और इक सू-ए-मुर्ग़-ज़ार चले एक दश्त में किस शाह का गुज़र है कि मफ़्लूज जिस्म-ओ-जाँ जी जान से जुटे हुए हैं बंद-ओ-बस्त में ये पूछ आ के कौन नसीबों जिया है दिल मत देख ये कि कौन सितारा है बख़्त में किस सोज़ की कसक है निगाहों के आस-पास किस ख़्वाब की शिकस्त उमड आई है तश्त में श्रेणी: ग़ज़ल

हैरत से देखता हुआ चेहरा किया मुझे / अकरम नक़्क़ाश

हैरत से देखता हुआ चेहरा किया मुझे सहरा किया कभी कभी दरिया किया मुझे कुछ तो इनायतें हैं मिरे कारसाज़ की और कुछ मिरे मिज़ाज ने तन्हा किया मुझे पथरा गई है आँख बदन बोलता नहीं जाने किस इंतिज़ार ने ऐसा किया मुझे तू तो सज़ा के ख़ौफ़ से आज़ाद था मगर मेरी निगाह से कोई देखा किया मुझे आँखों में रेत फैल गई देखता भी क्या सोचों के इख़्तियार ने क्या क्या किया मुझे श्रेणी: ग़ज़ल

ब-रंग-ए-ख़्वाब मैं बिखरा रहूँगा / अकरम नक़्क़ाश

ब-रंग-ए-ख़्वाब मैं बिखरा रहूँगा तिरे इंकार जब चुनता रहूँगा कभी सोचा नहीं था मैं तिरे बिन यूँ ज़ेर-ए-आसमाँ तन्हा रहूँगा तु कोई अक्स मुझ में ढूँढना मत मैं शीशा हूँ फ़क़त शीशा रहूँगा ताअफ़्फ़ुन-ज़ार होती महफ़िलों में ख़याल-ए-यार से महका रहूँगा जियूँगा मैं तिरी साँसों में जब तक ख़ुद अपनी साँस में ज़िंदा रहूँगा गली बाज़ार बढ़ती वहशतों को मैं तेरे नाम ही लिखता रहूँगा श्रेणी: ग़ज़ल

कोई हँस रहा है कोई रो रहा है / अकबर इलाहाबादी

कोई हँस रहा है कोई रो रहा है कोई पा रहा है कोई खो रहा है कोई ताक में है किसी को है गफ़लत कोई जागता है कोई सो रहा है कहीँ नाउम्मीदी ने बिजली गिराई कोई बीज उम्मीद के बो रहा है इसी सोच में मैं तो रहता हूँ 'अकबर' यह क्या हो रहा है यह क्यों हो रहा है श्रेणी: ग़ज़ल

बहसें फ़ुजूल थीं यह खुला हाल देर से / अकबर इलाहाबादी

बहसें फिजूल थीं यह खुला हाल देर में अफ्सोस उम्र कट गई लफ़्ज़ों के फेर में है मुल्क इधर तो कहत जहद, उस तरफ यह वाज़ कुश्ते वह खा के पेट भरे पांच सेर मे हैं गश में शेख देख के हुस्ने-मिस-फिरंग बच भी गये तो होश उन्हें आएगा देर में छूटा अगर मैं गर्दिशे तस्बीह से तो क्या अब पड़ गया हूँ आपकी बातों के फेर में श्रेणी: ग़ज़ल

दिल मेरा जिस से बहलता / अकबर इलाहाबादी

दिल मेरा जिस से बहलता कोई ऐसा न मिला बुत के बंदे तो मिले अल्लाह का बंदा न मिला बज़्म-ए-याराँ से फिरी बाद-ए-बहारी मायूस एक सर भी उसे आमादा-ए-सौदा न मिला बज़्म-ए-याराँ=मित्रसभा; बाद-ए-बहारी=वासन्ती हवा; मायूस=निराश; आमादा-ए-सौदा=पागल होने को तैयार गुल के ख्व़ाहाँ तो नज़र आए बहुत इत्रफ़रोश तालिब-ए-ज़मज़म-ए-बुलबुल-ए-शैदा न मिला ख्व़ाहाँ=चाहने वाले; इत्रफ़रोश=इत्र बेचने वाले; तालिब-ए-ज़मज़म-ए-बुलबुल-ए-शैदा=फूलों पर न्योछावर होने वाली बुलबुल के नग्मों का इच्छुक वाह क्या राह दिखाई हमें मुर्शिद ने कर दिया काबे को गुम और कलीसा न मिला मुर्शिद=गु्रू; कलीसा=चर्च,गिरजाघर सय्यद उठे तो गज़ट ले के तो लाखों लाए शेख़ क़ुरान दिखाता फिरा पैसा न मिला गज़ट=समाचार पत्र श्रेणी: ग़ज़ल

समझे वही इसको जो हो दीवाना किसी का / अकबर इलाहाबादी

समझे वही इसको जो हो दीवाना किसी का 'अकबर' ये ग़ज़ल मेरी है अफ़साना किसी का गर शैख़-ओ-बहरमन[1] सुनें अफ़साना किसी का माबद[2] न रहे काबा-ओ-बुतख़ाना[3] किसी का अल्लाह ने दी है जो तुम्हे चाँद-सी सूरत रौशन भी करो जाके सियहख़ाना[4] किसी का अश्क आँखों में आ जाएँ एवज़[5] नींद के साहब ऐसा भी किसी शब सुनो अफ़साना किसी का इशरत[6] जो नहीं आती मेरे दिल में, न आए हसरत ही से आबाद है वीराना किसी का करने जो नहीं देते बयां हालत-ए-दिल को सुनिएगा लब-ए-ग़ौर[7] से अफ़साना किसी का कोई न हुआ रूह का साथी दम-ए-आख़िर काम आया न इस वक़्त में याराना किसी का हम जान से बेज़ार[8] रहा करते हैं 'अकबर' जब से दिल-ए-बेताब है दीवाना किसी का शब्दार्थ 1. ↑ धर्मोपदेशक 2. ↑ पूजा का स्थान 3. ↑ काबा और मंदिर 4. ↑ अँधेरे भरा कमरा 5. ↑ बदले में 6. ↑ धूमधाम 7. ↑ ध्यान से 8. ↑ ना-खुश श्रेणियाँ: प्रसिद्ध रचना ग़ज़ल

आँखें मुझे तल्वों से वो मलने नहीं देते / अकबर इलाहाबादी

आँखें मुझे तल्वों से वो मलने नहीं देते अरमान मेरे दिल का निकलने नहीं देते ख़ातिर से तेरी याद को टलने नहीं देते सच है कि हमीं दिल को संभलने नहीं देते किस नाज़ से कहते हैं वो झुंझला के शब-ए-वस्ल तुम तो हमें करवट भी बदलने नहीं देते परवानों ने फ़ानूस को देखा तो ये बोले क्यों हम को जलाते हो कि जलने नहीं देते हैरान हूँ किस तरह करूँ अर्ज़-ए-तमन्ना दुश्मन को तो पहलू से वो टलने नहीं देते दिल वो है कि फ़रियाद से लबरेज़ है हर वक़्त हम वो हैं कि कुछ मुँह से निकलने नहीं देते गर्मी-ए-मोहब्बत में वो है आह से माने पंखा नफ़स-ए-सर्द का झलने नहीं देते श्रेणी: ग़ज़ल

पिंजरे में मुनिया / अकबर इलाहाबादी

मुंशी कि क्लर्क या ज़मींदार लाज़िम है कलेक्टरी का दीदार हंगामा ये वोट का फ़क़त है मतलूब हरेक से दस्तख़त है हर सिम्त मची हुई है हलचल हर दर पे शोर है कि चल-चल टमटम हों कि गाड़ियां कि मोटर जिस पर देको, लदे हैं वोटर शाही वो है या पयंबरी है आखिर क्या शै ये मेंबरी है नेटिव है नमूद ही का मुहताज कौंसिल तो उनकी हि जिनका है राज कहते जाते हैं, या इलाही सोशल हालत की है तबाही हम लोग जो इसमें फंस रहे हैं अगियार भी दिल में हंस रहे हैं दरअसल न दीन है न दुनिया पिंजरे में फुदक रही है मुनिया स्कीम का झूलना वो झूलें लेकिन ये क्यों अपनी राह भूलें क़ौम के दिल में खोट है पैदा अच्छे अच्छे हैं वोट के शैदा क्यो नहीं पड़ता अक्ल का साया इसको समझें फ़र्जे-किफ़ाया भाई-भाई में हाथापाई सेल्फ़ गवर्नमेंट आगे आई पाँव का होश अब फ़िक्र न सर की वोट की धुन में बन गए फिरकी श्रेणी: ग़ज़ल

उन्हें शौक़-ए-इबादत भी है / अकबर इलाहाबादी

उन्हें शौक़-ए-इबादत भी है और गाने की आदत भी निकलती हैं दुआऐं उनके मुंह से ठुमरियाँ होकर तअल्लुक़ आशिक़-ओ-माशूक़ का तो लुत्फ़ रखता था मज़े अब वो कहाँ बाक़ी रहे बीबी मियाँ होकर न थी मुतलक़ तव्क़्क़ो बिल बनाकर पेश कर दोगे मेरी जाँ लुट गया मैं तो तुम्हारा मेहमाँ होकर हक़ीक़त में मैं एक बुलबुल हूँ मगर चारे की ख़्वाहिश में बना हूँ मिमबर-ए-कोंसिल यहाँ मिट्ठू मियाँ होकर निकाला करती है घर से ये कहकर तू तो मजनूं है सता रक्खा है मुझको सास ने लैला की माँ होकर श्रेणी: ग़ज़ल

जान ही लेने की हिकमत में तरक़्क़ी देखी / अकबर इलाहाबादी

जान ही लेने की हिकमत[1] में तरक़्क़ी देखी मौत का रोकने वाला कोई पैदा न हुआ उसकी बेटी ने उठा रक्खी है दुनिया सर पर ख़ैरियत गुज़री कि अंगूर के बेटा न हुआ ज़ब्त से काम लिया दिल ने तो क्या फ़ख़्र करूँ इसमें क्या इश्क की इज़्ज़त थी कि रुसवा न हुआ मुझको हैरत है यह किस पेच में आया ज़ाहिद दामे-हस्ती[2] में फँसा, जुल्फ़ का सौदा[3] न हुआ शब्दार्थ 1 विधि 2 जीवन रूपी जाल 3 आशिक श्रेणी: ग़ज़ल

आपसे बेहद मुहब्बत है मुझे / अकबर इलाहाबादी

आपसे बेहद मुहब्बत है मुझे आप क्यों चुप हैं ये हैरत है मुझे शायरी मेरे लिए आसाँ नहीं झूठ से वल्लाह नफ़रत है मुझे रोज़े-रिन्दी[1] है नसीबे-दीगराँ[2] शायरी की सिर्फ़ क़ूवत[3] है मुझे नग़मये-योरप से मैं वाक़िफ़ नहीं देस ही की याद है बस गत मुझे दे दिया मैंने बिलाशर्त उन को दिल मिल रहेगी कुछ न कुछ क़ीमत मुझे शब्दार्थ 1 शराब पीने का दिन 2 दूसरों की क़िस्मत में 3 ताक़त श्रेणी: ग़ज़ल

हिन्द में तो मज़हबी हालत है अब नागुफ़्ता बेह / अकबर इलाहाबादी

हिन्द में तो मज़हबी हालत है अब नागुफ़्ता बेह मौलवी की मौलवी से रूबकारी हो गई एक डिनर में खा गया इतना कि तन से निकली जान ख़िदमते-क़ौमी में बारे जाँनिसारी हो गई अपने सैलाने-तबीयत पर जो की मैंने नज़र आप ही अपनी मुझे बेएतबारी हो गई नज्द में भी मग़रिबी तालीम जारी हो गई लैला-ओ-मजनूँ में आख़िर फ़ौजदारी हो गई शब्दार्थ : नागुफ़्ता बेह= जिसका ना कहना ही बेहतर हो; रूबकारी=जान-पहचान जाँनिसारी= जान क़ुर्बान करना सैलाने-तबीयत= तबीयत की आवारागर्दी नज्द= अरब के एक जंगल का नाम जहाँ मजनू मारा-मारा फिरता था। श्रेणी: ग़ज़ल

अच्छे मौसम में तग ओ ताज़ भी कर लेता हूँ / अंजुम सलीमी

अच्छे मौसम में तग ओ ताज़ भी कर लेता हूँ पर निकल आते हैं परवाज़ भी कर लेता हूँ तुझ से ये कैसा तअल्लुक़ है जिसे जब चाहूँ ख़त्म कर देता हूँ आग़ाज़ भी कर लेता हूँ गुम्बद-ए-ज़ात में जब गूँजने लगता हूँ बहुत ख़ामोशी तोड़ के आवाज़ भी कर लेता हूँ यूँ तो इस हब्स से मानूस हैं साँसें मेरी वैसे दीवार में दर बाज़ भी कर लेता हूँ सब के सब ख़्वाब में तक़्सीम नहीं कर देता एक दो ख़्वाब पस-अंदाज़ भी कर लेता हूँ श्रेणी: ग़ज़ल

बुझने दे सब दिए मुझे तनहाई चाहिए / अंजुम सलीमी

बुझने दे सब दिए मुझे तनहाई चाहिए कुछ देर के लिए मुझे तनहाई चाहिए कुछ ग़म कशीद करने हैं अपने वजूद से जा ग़म के साथिए मुझे तनहाई चाहिए उकता गया हूँ ख़ुद से अगर मैं तो क्या हुआ ये भी तो देखिए मुझे तनहाई चाहिए इक रोज़ ख़ुद से मिलना है अपने ख़ुमार में इक शाम बिन पिए मुझे तनहाई चाहिए तकरार इस में क्या है अगर के रहा हूँ मैं तनहाई चाहिए मुझे तनहाई चाहिए दुनिया से कुछ नहीं है सर-ओ-कार अब मुझे बे-शक मेरे लिए मुझे तनहाई चाहिए श्रेणी: ग़ज़ल

कभी याद आओ तो इस तरह / मोहसिन नक़वी

कभी याद आओ तो इस तरह कि लहू की सारी तमाज़तें तुम्हे धूप धूप समेट लें तुम्हे रंग रंग निखार दें तुम्हे हर्फ़ हर्फ में सोच लें तुम्हे देखने का जो शौक हो तू दयार -ए -हिज्र की तीरगी कोह मिचगां से नोच लें! कभी याद आओ तो इस तरह कि दिल -ओ -नज़र में उतर सको कभी हद से हब्स -ए -जुनू बढ़े तो हवास बन के बिखर सको कभी खुल सको शब -ए -वस्ल में कभी खून -ए -दिल में सँवर सको सर -ए -रहगुज़र जो मिलो कभी न ठहर सको न गुज़र सको! मेरा दर्द फिर से ग़ज़ल बुने कभी गुनगुनाओ तो इस तरह मेरे जख्म फिर से गुलाब हों कभी मुस्कुराओ तो इस तरह मेरी धड़कनें भी लरज़ उठें कभी चोट खाओ तो इस तरह जो नहीं तू फिर बड़े शौक से सभी राब्ते सभी जाब्ते कभी धूप छांव में तोड़ दो न शिकस्त -ए -दिल का सितम सहो न सुनो किसी का अज़ाब -ए -जाँ न किसी से अपनी ख़लिश कहो यूंही खुश फिरो यूंही खुश रहो' न ऊजड़ सकें न सँवर सकें कभी दिल दुखाओ तो इस तरह न सिमट सकें न बिखर सकें कभी भूल जाओ तो इस तरह किसी तौर जाँ से गुज़र सकें कभी याद आओ तो इस तरह श्रेणी: नज़्म

कराची का क़ब्रिस्तान / दिलावर 'फ़िगार'

ऐ कराची मुल्क-ए-पाकिस्तान के शहर-ए-हसीं मरने वालों को जहाँ मिलती नहीं दो गज़ ज़मीं क़ब्र का मिलना ही है अव्वल तो इक टेढ़ा सवाल और अगर मिल जाए इस पर दख़्ल मिलना है मुहाल है यही सूरत तो इक ऐसा भी दिन आ जाएगा आने वाला दौर मुर्दों पर मुसीबत ढाएगा मर्द माँ बिसयार होंगे और जा-ए-क़ब्र तंग क़ब्र की तक़्सीम पर मुर्दों में छिड़ जाएगी जंग सीट क़ब्रिस्तान में पहले वो मुर्दे पाएँगे जो किसी मुर्दा मिनिस्टर की सिफ़ारिश लाएँगे कारपोरेशन करेगा इक रेसोलुशन ये पास के० डी० ऐ० अब मरने वालों से करे ये इल्तिमास आप को मरना है तो पहले से नोटिस दीजिए यानी जुर्म-ए-इंतिक़ाल-ए-ना-गहाँ मत कीजिए कुछ महीने के लिए हो जाएगी तुर्बत अलॉट इस के ब'अद आएगा नोटिस छोड़ दीजे ये प्लाट तुर्बत-ए-शौहर में उस की अहलिया सो जाएगी महव-ए-हैरत हूँ कि तुर्बत क्या से क्या हो जाएगी एक ही ताबूत होगा और मुर्दे आठ दस आप इसे ताबूत कहिए या प्राईवेट बस एक ही तुर्बत में सो जाएँगे महमूद ओ अयाज़ दूर हो जाएगा फ़र्क़-ए-बन्दा-ओ-बन्दा-नवाज़ शायर-ए-मरहूम जब ज़ेर-ए-मज़ार आ जाएगा दूसरे मुर्दों को हैबत से बुख़ार आ जाएगा उस से ये कह कर करेंगे और मुर्दे ...

अपना दीवाना बना कर ले जाए / 'आफ़ताब' हुसैन

अपना दीवाना बना कर ले जाए कभी वो आए और आ कर ले जाए रोज़ बुनियाद उठाता हूँ नयी रोज़ सैलाब बहा कर ले जाए हुस्न वालों में कोई ऐसा हो जो मुझे मुझ से चुरा कर ले जाए रंग-ए-रुख़्सार पे इतराओ नहीं जाने कब वक़्त उड़ा कर ले जाए किसे मालूम कहाँ कौन किसे अपने रास्ते पे लगा कर ले जाए 'आफ़ताब' एक तो ऐसा हो कहीं जो हमें अपना बना कर ले जाए श्रेणी: ग़ज़ल

अस्ल हालत का बयान ज़ाहिर के साँचों में नहीं / 'आफ़ताब' हुसैन

अस्ल हालत का बयान ज़ाहिर के साँचों में नहीं बात जो दिल में है मेरे मेरे लफ़्ज़ों में नहीं इक ज़माना था के इक दुनिया मेरे हम-राह थी और अब देखूँ तो रास्ता भी निगाहों में नहीं कोई आसेब-ए-बला है शहर पर छाया हुआ बु-ए-आदम-ज़ाद तक ख़ाली मकानों में नहीं रफ़्ता रफ़्ता सब हमारी राह पर आते गए बात है जो हम बुरों में अच्छे अच्छों में नहीं अपने ही दम से चराग़ाँ है वगरना 'आफ़ताब' इक सितारा भी मेरी वीरान शामों में नहीं श्रेणी: ग़ज़ल

दो-जहाँ से मावरा हो जाएगा / 'असअद' भोपाली

दो-जहाँ से मावरा हो जाएगा जो तेरे ग़म में फ़ना हो जाएगा दर्द जब दिल से जुदा हो जाएगा साज़-ए-हस्ती बे-सदा हो जाएगा देखिए अहद-ए-वफ़ा अच्छा नहीं मरना जीना साथ का हो जाएगा बे-नतीजा है ख़याल-ए-तर्क-ए-राह फिर किसी दिन सामना हो जाएगा अब ठहर जा याद-ए-जानाँ रो तो लूँ फ़र्ज़-ए-तन्हाई अदा हो जाएगा लहज़ा लहज़ा रख ख़याल-ए-हुस्न-ए-दोस्त लम्हा लम्हा काम का हो जाएगा ज़ौक़-ए-अज़्म-ए-बा-अमल दरकार है आग में भी रास्ता हो जाएगा अपनी जानिब जब नज़र उठ जाएगी ज़र्रा ज़र्रा आईना हो जाएगा श्रेणी: ग़ज़ल

ग़म-ए-हयात से जब वास्ता पड़ा होगा / 'असअद' भोपाली

ग़म-ए-हयात से जब वास्ता पड़ा होगा मुझे भी आप ने दिल से भुला दिया होगा सुना है आज वो ग़म-गीन थे मलूल से थे कोई ख़राब-ए-वफ़ा याद आ गया होगा नवाज़िशें हों बहुत एहतियात से वरना मेरी तबाही से तुम पर भी तबसरा होगा किसी का आज सहारा लिया तो है दिल ने मगर वो दर्द बहुत सब्र-आज़मा होगा जुदाई इश्क़ की तक़दीर ही सही ग़म-ख़्वार मगर न जाने वहाँ उन का हाल क्या होगा बस आ भी जाओ बदल दें हयात की तक़दीर हमारे साथ ज़माने का फ़ैसला होगा ख़याल-ए-क़ुर्बत-ए-महबूब छोड़ दामन छोड़ के मेरा फ़र्ज़ मेरी राह देखता होगा बस एक नारा-ए-रिंदाना एक ज़ुरा-ए-तल्ख़ फिर उस के बाद जो आलम भी हो नया होगा मुझी से शिकवा-ए-गुस्ताख़ी-ए-नज़र क्यूँ है तुम्हें तो सारा ज़माना ही देखता होगा 'असद' को तुम नहीं पहचानते तअज्जुब है उसे तो शहर का हर शख़्स जानता होगा श्रेणी: ग़ज़ल

गिराँ गुज़रने लगा दौर-ए-इंतिज़ार मुझे / 'असअद' भोपाली

गिराँ गुज़रने लगा दौर-ए-इंतिज़ार मुझे ज़रा थपक के सुला दे ख़याल-ए-यार मुझे न आया ग़म भी मोहब्बत में साज़-गार मुझे वो ख़ुद तड़प गए देखा जो बे-क़रार मुझे निगाह-ए-शर्मगीं चुपके से ले उड़ी मुझ को पुकारता ही रहा कोई बार बार मुझे निगाह-ए-मस्त ये मेयार-ए-बे-ख़ुदी क्या है ज़माने वाले समझते हैं होशियार मुझे बजा है तर्क-ए-तअल्लुक़ का मशवरा लेकिन न इख़्तियार उन्हें है न इख़्तियार मुझे बहार और ब-क़ैद-ए-ख़िज़ाँ है नंग मुझे अगर मिले तो मिले मुस्तक़िल बहार मुझे श्रेणी: ग़ज़ल

इश्क़ को जब हुस्न से नज़रें मिलाना आ गया / 'असअद' भोपाली

इश्क़ को जब हुस्न से नज़रें मिलाना आ गया ख़ुद-ब-ख़ुद घबरा के क़दमों में ज़माना आ गया जब ख़याल-ए-यार दिल में वालेहाना आ गया लौट कर गुज़रा हुआ काफ़िर ज़माना आ गया ख़ुश्क आँखें फीकी फीकी सी हँसी नज़रों में यास कोई देखे अब मुझे आँसू बहाना आ गया ग़ुँचा ओ गुल माह ओ अंजुम सब के सब बेकार थे आप क्या आए के फिर मौसम सुहाना आ गया मैं भी देखूँ अब तेरा ज़ौक़-ए-जुनून-ए-बंदगी ले जबीन-ए-शौक़ उन का आस्ताना आ गया हुस्न-ए-काफ़िर हो गया आमादा-ए-तर्क-ए-जफ़ा फिर 'असद' मेरी तबाही का ज़माना आ गया श्रेणी: ग़ज़ल

जब अपने पैरहन से ख़ुशबू तुम्हारी आई / 'असअद' भोपाली

जब अपने पैरहन से ख़ुशबू तुम्हारी आई घबरा के भूल बैठे हम शिकवा-ए-जुदाई फ़ितरत को ज़िद है शायद दुनिया-ए-रंग-ओ-बू से काँटों की उम्र आख़िर कलियों ने क्यूँ न पार्इ अल्लाह क्या हुआ है ज़ोम-ए-ख़ुद-एतमादी कुछ लोग दे रहे हैं हालात की दुहाई ग़ुँचों के दिल बजाए खिलने के शिक़ हुए हैं अब के बरस न जाने कैसी बहार आई इस ज़िंदगी का अब तुम जो चाहो नाम रख दो जो ज़िंदगी तुम्हारे जाने के बाद आई श्रेणी: ग़ज़ल

जब ज़रा रात हुई और मह ओ अंजुम आए / 'असअद' भोपाली

जब ज़रा रात हुई और मह ओ अंजुम आए बारहा दिल ने ये महसूस किया तुम आए ऐसे इक़रार में इंकार के सौ पहलू हैं वो तो कहिए के लबों पे न तबस्सुम आए न वो आवाज़ में रस है न वो लहजे में खनक कैसे कलियों को तेरा तर्ज़-ए-तकल्लुम आए बारहा ये भी हुआ अंजुमन-ए-नाज़ से हम सूरत-ए-मौज उठे मिस्ल-ए-तलातुम आए ऐ मेरे वादा-शिकन एक न आने से तेरे दिल को बहकाने कई तल्ख़ तवह्हुम आए श्रेणी: ग़ज़ल

अरमान मेरे दिल का निकलने नहीं देते / अकबर इलाहाबादी

ख़ातिर से तेरी याद को टलने नहीं देते सच है कि हम ही दिल को संभलने नहीं देते आँखें मुझे तलवों से वो मलने नहीं देते अरमान मेरे दिल का निकलने नहीं देते किस नाज़ से कहते हैं वो झुंझला के शब-ए-वस्ल[1] तुम तो हमें करवट भी बदलने नहीं देते परवानों ने फ़ानूस को देखा तो ये बोले क्यों हम को जलाते हो कि जलने नहीं देते हैरान हूँ किस तरह करूँ अर्ज़-ए-तमन्ना दुश्मन को तो पहलू से वो टलने नहीं देते दिल वो है कि फ़रियाद से लबरेज़[2] है हर वक़्त हम वो हैं कि कुछ मुँह से निकलने नहीं देते गर्मी-ए-मोहब्बत में वो है आह से माअ़ने पंखा नफ़स-ए-सर्द[3] का झलने नहीं देते शब्दार्थ 1. ↑ मिलन की रात 2. ↑ भरा हुआ 3. ↑ ठंडी सांस श्रेणी: ग़ज़ल

चला हवस के जहानों की सैर करता हुआ / अंजुम सलीमी

चला हवस के जहानों की सैर करता हुआ मैं ख़ाली हाथ ख़ज़ानों की सैर करता हुआ पुकारता है कोई डूबता हुआ साया लरज़ते आईना-ख़ानों की सैर करता हुआ बहुत उदास लगा आज ज़र्द-रू महताब गली के बंद मकानों की सैर करता हुआ मैं ख़ुद को अपनी हथेली पे ले के फिरता रहा ख़तर के सुर्ख़ निशानों की सैर करता हुआ कलाम कैसा चका-चौंद हो गया मैं तो क़दीम लहजों ज़बानों की सैर करता हुआ ज़्यादा दूर नहीं हूँ तेरे ज़माने से मैं आ मिलूँगा ज़मानों की सैर करता हुआ श्रेणी: ग़ज़ल

दर्द-ए-विरासत पा लेने से नाम नहीं चल सकता / अंजुम सलीमी

दर्द-ए-विरासत पा लेने से नाम नहीं चल सकता इश्क़ में बाबा एक जनम से काम नहीं चल सकता बहुत दिनों से मुझ से है कैफ़ियत रोज़े वाली दर्द-ए-फ़रावाँ सीने में कोहराम नहीं चल सकता तोहमत-ए-इश्क़ मुनासिब है और हम पर जचती है हम ऐसों पर और कोई इल्ज़ाम नहीं चल सकता चम चम करते हुस्न की तुम जो अशरफ़ियाँ लाए हो इस मीज़ान में ये दुनियावी दाम नहीं चल सकता आँख झपकने की मोहलत भी कम मिलती है 'अंजुम' फ़क़्र में कोई तन-आसाँ दो-गाम नहीं चल सकता श्रेणी: ग़ज़ल

दीवार पे रक्खा तो सितारे से उठाया / अंजुम सलीमी

दीवार पे रक्खा तो सितारे से उठाया दिल बुझने लगा था सो नज़ारे से उठाया बे-जान पड़ा देखता रहता था मैं उस को इक रोज़ मुझे उस ने इशारे से उठाया इक लहर मुझे खींच के ले आई भँवर में वो लहर जिसे मैं ने किनारे से उठाया घर में कहीं गुंजाइश-ए-दर ही नहीं रक्खी बुनियाद को किस शक के सहारे से उठाया इक मैं ही था ऐ जिंस-ए-मोहब्बत तुझे अर्ज़ां और मैं ने भी अब हाथ ख़सारे से उठाया श्रेणी: ग़ज़ल

दिन ले के जाऊँ साथ उसे शाम कर के आऊँ / अंजुम सलीमी

दिन ले के जाऊँ साथ उसे शाम कर के आऊँ बे-कार कर सफ़र में कोई काम कर के आऊँ बे-मोल कर गईं मुझे घर की ज़रूरतें अब अपने आप को कहाँ नीलाम कर के आऊँ मैं अपने शोर ओ शर से किसी रोज़ भाग कर इक और जिस्म में कहीं आराम कर के आऊँ कुछ रोज़ मेरे नाम का हिस्सा रहा है वो अच्छा नहीं के अब उसे बद-नाम कर के आऊँ 'अंजुम' मैं बद-दुआ भी नहीं दे सका उसे जी चाहता तो था वहाँ कोहराम कर के आऊँ श्रेणी: ग़ज़ल

इन दिनों ख़ुद से फ़राग़त ही फ़राग़त है मुझे / अंजुम सलीमी

इन दिनों ख़ुद से फ़राग़त ही फ़राग़त है मुझे इश्क़ भी जैसे कोई ज़ेहनी सहूलत है मुझे मैं ने तुझ पर तेरे हिज्राँ को मुक़द्दम जाना तेरी जानिब से किसी रंज की हसरत है मुझे ख़ुद को समझाऊँ के दुनिया की ख़बर-गीरी करूँ इस मोहब्बत में कोई एक मुसीबत है मुझे दिल नहीं रखता किसी और तमन्ना की हवस ऐसा हो पाए तो क्या इस में क़बाहत है मुझे एक बे-नाम उदासी से भरा बैठा हूँ आज जी खोल के रो लेने की हाजत है मुझे श्रेणी: ग़ज़ल

इस से आगे तो बस ला-मकाँ रह गया / अंजुम सलीमी

इस से आगे तो बस ला-मकाँ रह गया ये सफ़र भी मेरा राएगाँ रह गया हो गए अपने जिस्मों से भी बे-नियाज़ और फिर भी कोई दरमियाँ रह गया राख पोरों से झड़ती गई उम्र की साँस की नालियों में धुआँ रह गया अब तो रस्ता बताने पे मामूर हूँ बे-हदफ़ तीर था बे-कमाँ रह गया जब पलट ही चले हो ऐ दीदा-ए-वरो मुझ को भी देखना मैं कहाँ रह गया मिट गया हूँ किसी और की क़ब्र में मेरा कतबा कहीं बे-निशाँ रह गया श्रेणी: ग़ज़ल

जस्त भरता हुआ दुनिया के दहाने की तरफ़ / अंजुम सलीमी

जस्त भरता हुआ दुनिया के दहाने की तरफ़ जा निकलता हूँ किसी और ज़माने की तरफ़ आँख बे-दार हुई कैसी ये पेशानी पर कैसा दरवाज़ा खुला आईना-ख़ाने की तरफ़ ख़ुद ही अंजाम निकल आएगा इस वाक़िए से एक किरदार रवाना है फ़साने की तरफ़ हल निकलता है यही रिश्तों की मिस्मारी का लोग आ जाते हैं दीवार उठाने की तरफ़ दरमियाँ तेज़ हवा भी है ज़माना भी है तीर तो छोड़ दिया मैं ने निशाने की तरफ़ एक बिछड़ी हुई आवाज़ बुलाती है मुझे वक़्त के पार से गुम-गश्ता ठिकाने की तरफ़ श्रेणी: ग़ज़ल

कागज़ था मैं दिए पे मुझे रख दिया गया / अंजुम सलीमी

कागज़ था मैं दिए पे मुझे रख दिया गया इक और मर्तबे पे मुझे रख दिया गया इक बे-बदन का अक्स बनाया गया हूँ मैं बे-आब आईने पे मुझे रख दिया गया कुछ तो खिंची खिंची सी थी साअत विसाल की कुछ यूँ भी फ़ासले पे मुझे रख दिया गया मुँह-माँगे दाम दे के ख़रीदा और उस के बाद इक ख़ास ज़ाविए पे मुझे रख दिया गया कल रात मुझ को चोरी किया जा रहा था यार और मेरे जागने पे मुझे रख दिया गया अच्छा भला पड़ा था मैं अपने वजूद में दुनिया के रास्ते पे मुझे रख दिया गया पहले तो मेरी मिट्टी से मुझ को किया चराग़ फिरे मेरे मक़बरे पे मुझे रख दिया गया 'अंजुम' हवा के ज़ोर पे जाना है उस तरफ़ पानी के बुलबुले पे मुझे रख दिया गया श्रेणी: ग़ज़ल

कल तो तेरे ख़्वाबों ने मुझ पर यूँ अर्ज़ानी की / अंजुम सलीमी

कल तो तेरे ख़्वाबों ने मुझ पर यूँ अर्ज़ानी की सारी हसरत निकल गई मेरी तन-आसानी की पड़ा हुआ हूँ शाम से मैं उसी बाग़-ए-ताज़ा में मुझ में शाख निकल आई है रात की रानी की इस चौपाल के पास इक बूढ़ा बरगद होता था एक अलामत गुम है यहाँ से मेरी कहानी की तुम ने कुछ पढ़ कर फूँका मिट्टी के प्याले में या मिट्टी में गुँधी हुई तासीर है पानी की क्या बतलाऊँ तुम को तुम तक अर्ज़ गुज़ारने में दिल ने अपने आप से कितनी खींचा-तानी की श्रेणी: ग़ज़ल

ख़ाक छानी न किसी दश्त में वहशत की है / अंजुम सलीमी

ख़ाक छानी न किसी दश्त में वहशत की है मैं ने इक शख़्स से उज्रत पे मोहब्बत की है ख़ुद को धुत्कार दिया मैं ने तो इस दुनिया ने मेरी औक़ात से बढ़ कर मेरी इज़्ज़त की है जी में आता है मेरी मुझ से मुलाक़ात न हो बात मिलने की नहीं बात तबीअत की है अब भी थोड़ी सी मेरे दिल में पड़ी है शायद ज़र्द सी धूप जो दीवार से रुख़्सत की है आज जी भर के तुझे देखा तो महसूस हुआ आँख ने सूरा-ए-यूसुफ़ की तिलावत की है हाल पूछा है मेरा पोंछे हैं आँसू मेरे शुक्रिया तुम ने मेरे दर्द में शिरकत की है श्रेणी: ग़ज़ल

Ye Naina Ye Kajal / ये नैना, ये काजल, ये ज़ुल्फ़ें, ये आँचल

ये नैना, ये काजल, ये ज़ुल्फ़ें, ये आँचल खूबसुरत सी हो तुम ग़ज़ल कभी दिल हो कभी धड़कन कभी शोला, कभी शबनम तुम ही तो तुम मेरी हमदम ज़िन्दगी तुम मेरी, मेरी तुम ज़िन्दगी मेरी आँखों से देखो, मेरी नज़रों से जानो तुम माला हम मोती, हम दीपक तुम ज्योती सपनोंका पनघट हो, आशा का झुरमट हो तुम नदिया हम धारा, तुम चन्दा हम तारा मेरी साँसों से पूछो, मेरी आहों को समझो तुम पूजा हम पुजारी, तुम क़िस्मत हम जुआरी #VishalAnand Ye Naina Ye Kajal Lyrics Ye naina, ye kaajal, ye julfen, ye anchal Khubasurat si ho tum gjl Kabhi dil ho kabhi dhadkan Kabhi shola, kabhi shabanam Tum hi to tum meri hamadam Jindagi tum meri, meri tum jindagi Meri ankhon se dekho, meri najron se jaano Tum maala ham moti, ham dipak tum jyoti Sapanonka panaghat ho, asha ka jhuramat ho Tum nadiya ham dhaara, tum chanda ham taara Meri saanson se puchho, meri ahon ko samajho Tum puja ham pujaari, tum kismat ham juari Additional Information गीतकार : अमित खन्ना, गायक : किशोर कुमार, संगीतकार : बप्पी लाहिरी, चित्रपट : दिल से मिले दिल (१९७८) / Ly...

ख़बर तो दूर अमीन-ए-ख़बर नहीं आए / 'आशुफ़्ता' चंगेज़ी

ख़बर तो दूर अमीन-ए-ख़बर नहीं आए बहुत दिनों से वो लश्कर इधर नहीं आए ये बात याद रखेंगे तलाशने वाले जो उस सफ़र पे गए लौट कर नहीं आए तिलिस्म ऊँघती रातों का तोड़ने वाले वो मुख़बिरान-ए-सहर फिर नज़र नहीं आए ज़रूर तुझ से भी इक रोज़ ऊब जाएँगे ख़ुदा करे के तेरी रह-गुज़र नहीं आए सवाल करती कई आँखें मुंतज़िर हैं यहाँ जवाब आज भी हम सोच कर नहीं आए उदास सूनी सी छत और दो बुझी आँखें कई दिनों से फिर 'अशुफ़्ता' घर नहीं आए श्रेणी: ग़ज़ल

पता कहीं से तेरा अब के फिर लगा लाए / 'आशुफ़्ता' चंगेज़ी

पता कहीं से तेरा अब के फिर लगा लाए सुहाने ख़्वाब नया मशग़ला उठा लाए लगी थी आग तो ये भी तो उस की ज़द में थे अजीब लोग हैं दामन मगर बचा लाए चलो तो राह में कितने ही दरिया आते हैं मगर ये क्या के उन्हें अपने घर बहा लाए तुझे भुलाने की कोशिश में फिर रहे थे के हम कुछ और साथ में परछाइयाँ लगा लाए सुना है चेहरों पे बिख़री पड़ी हैं तहरीरें उड़ा के कितने वरक़ देखें अब हवा लाए न इब्तिदा की ख़बर और न इंतिहा मालूम इधर उधर से सुना और बस उड़ा लाए श्रेणी: ग़ज़ल

सभी को अपना समझता हूँ क्या हुआ है मुझे / 'आशुफ़्ता' चंगेज़ी

सभी को अपना समझता हूँ क्या हुआ है मुझे बिछड़ के तुझ से अजब रोग लग गया है मुझे जो मुड़ के देखा तो हो जाएगा बदन पत्थर कहानियों में सुना था सो भोगना है मुझे मैं तुझ को भूल न पाया यही ग़नीमत है यहाँ तो इस का भी इम्कान लग रहा है मुझे मैं सर्द जंग की आदत न डाल पाऊँगा कोई महाज़ पे वापस बुला रहा है मुझे सड़क पे चलते हुए आँखें बंद रखता हूँ तेरे जमाल का ऐसा मज़ा पड़ा है मुझे अभी तलक तो कोई वापसी की राह न थी कल एक राह-गुज़र का पता लगा है मुझे श्रेणी: ग़ज़ल

आगाज़-ए-इश्क़ उम्र का अंजाम हो गया / 'इस्माइल' मेरठी

आगाज़-ए-इश्क़ उम्र का अंजाम हो गया नाकामियों के ग़म में मिरा काम हो गया। मेरा निशाँ मिटा तो मिटा पर ये रश्क है विर्द-ए-ज़बान-ख़ल्क़ तिरा नाम हो गया। दिल चाक चाक नग़्मा-ए-नाक़ूस ने किया सब पारा पारा जामा-ए-एहराम हो गया। अब और ढूँडिए कोई जौलाँ-गह-ए-जुनूँ सहरा ब-क़द्र-वुसअत-यक-गाम हो गया। अब हर्फ़-ए-ना-सज़ा में भी उन को दरेग़ है क्यों मुझको जौक़-ए-लज्ज़त-दुश्राम हो गया। श्रेणी: ग़ज़ल

आशिक़ों को ऐ फ़लक देवेगा तू / 'ऐश' देलहवी

आशिक़ों को ऐ फ़लक देवेगा तू आज़ार क्या दुश्मन-ए-जाँ उन का थोड़ा है दिल-ए-बीमार क्या रश्क आवे क्यूँ न मुझ को देखना उस की तरफ़ टकटकी बाँधे हुए है रोज़न-ए-दीवार क्या आह ने तो ख़ीमा-ए-गर्दूं को फूँका देखें अब रंग लाते हैं हमारे दीदा-ए-ख़ूँ-बार क्या मुर्ग़-ए-दिल के वास्ते ऐ हम-सफ़ीरो कम है क्यूँ कुछ क़ज़ा के तीर से तीर-ए-निगाह-ए-यार क्या चल के मय-ख़ाने ही में अब दिल को बहलाओ ज़रा 'ऐश' याँ बैठे हुए करते हो तुम बेगार क्या श्रेणी: ग़ज़ल

जब ज़िंदगी सुकून से महरूम हो गई / 'असअद' भोपाली

जब ज़िंदगी सुकून से महरूम हो गई उन की निगाह और भी मासूम हो गई हालात ने किसी से जुदा कर दिया मुझे अब ज़िंदगी से ज़िंदगी महरूम हो गई क़ल्ब ओ ज़मीर बे-हिस ओ बे-जान हो गए दुनिया ख़ुलूस ओ दर्द से महरूम हो गई उन की नज़र के कोई इशारे न पा सका मेरे जुनूँ की चारों तरफ़ धूम हो गई कुछ इस तरह से वक़्त ने लीं करवटें 'असद' हँसती हुई निगाह भी मग़मूम हो गई श्रेणी: ग़ज़ल

कुछ भी हो वो अब दिल से जुदा हो नहीं सकते / 'असअद' भोपाली

कुछ भी हो वो अब दिल से जुदा हो नहीं सकते हम मुजरिम-ए-तौहीन-ए-वफ़ा हो नहीं सकते ऐ मौज-ए-हवादिस तुझे मालूम नहीं क्या हम अहल-ए-मोहब्बत हैं फ़ना हो नहीं सकते इतना तो बता जाओ ख़फ़ा होने से पहले वो क्या करें जो तुम से ख़फ़ा हो नहीं सकते इक आप का दर है मेरी दुनिया-ए-अक़ीदत ये सजदे कहीं और अदा हो नहीं सकते अहबाब पे दीवाने 'असद' कैसा भरोसा ये ज़हर भरे घूँट रवा हो नहीं सकते श्रेणी: ग़ज़ल

लब ओ रुख़्सार की क़िस्मत से दूरी / 'असअद' भोपाली

लब ओ रुख़्सार की क़िस्मत से दूरी रहेगी ज़िंदगी कब तक अधूरी बहुत तड़पा रहे हैं दो दिलों को कई नाज़ुक तक़ाज़े ला-शुऊरी कई रातों से है आग़ोश सूना कई रातों की नींदें हैं अधूरी ख़ुदा समझे जुनून-ए-जुस्तुजू को सर-ए-मंज़िल भी है मंज़िल से दूरी अजब अंदाज़ के शाम ओ सहर हैं कोई तस्वीर हो जैसे अधूरी ख़ुदा को भूल ही जाए ज़माना हर इक जो आरज़ू हो जाए पूरी श्रेणी: ग़ज़ल

जो यूं ही लहज़ा लहज़ा दाग़-ए-हसरत की तरक़्क़ी है / अकबर इलाहाबादी

जो यूं ही लहज़ा-लहज़ा दाग़-ए-हसरत की तरक़्क़ी है अजब क्या, रफ्ता-रफ्ता मैं सरापा सूरत-ए-दिल हूँ मदद-ऐ-रहनुमा-ए-गुमरहां इस दश्त-ए-गु़र्बत में मुसाफ़िर हूँ, परीशाँ हाल हूँ, गु़मकर्दा मंज़िल हूँ ये मेरे सामने शेख-ओ-बरहमन क्या झगड़ते हैं अगर मुझ से कोई पूछे, कहूँ दोनों का क़ायल हूँ अगर दावा-ए-यक रंगीं करूं, नाख़ुश न हो जाना मैं इस आईनाखा़ने में तेरा अक्स-ए-मुक़ाबिल हूँ श्रेणी: ग़ज़ल

फिर गई आप की दो दिन में तबीयत कैसी / अकबर इलाहाबादी

फिर गई आप की दो दिन में तबीयत कैसी ये वफ़ा कैसी थी साहब ! ये मुरव्वत कैसी दोस्त अहबाब से हंस बोल के कट जायेगी रात रिंद-ए-आज़ाद हैं, हमको शब-ए-फुरक़त कैसी जिस हसीं से हुई उल्फ़त वही माशूक़ अपना इश्क़ किस चीज़ को कहते हैं, तबीयत कैसी है जो किस्मत में वही होगा न कुछ कम, न सिवा आरज़ू कहते हैं किस चीज़ को, हसरत कैसी हाल खुलता नहीं कुछ दिल के धड़कने का मुझे आज रह रह के भर आती है तबीयत कैसी कूचा-ए-यार में जाता तो नज़ारा करता क़ैस आवारा है जंगल में, ये वहशत कैसी श्रेणी: ग़ज़ल

कहाँ ले जाऊँ दिल दोनों जहाँ में इसकी मुश्किल है / अकबर इलाहाबादी

कहाँ ले जाऊँ दिल दोनों जहाँ में इसकी मुश्क़िल है । यहाँ परियों का मजमा है, वहाँ हूरों की महफ़िल है । इलाही कैसी-कैसी सूरतें तूने बनाई हैं, हर सूरत कलेजे से लगा लेने के क़ाबिल है। ये दिल लेते ही शीशे की तरह पत्थर पे दे मारा, मैं कहता रह गया ज़ालिम मेरा दिल है, मेरा दिल है । जो देखा अक्स आईने में अपना बोले झुँझलाकर, अरे तू कौन है, हट सामने से क्यों मुक़ाबिल है । हज़ारों दिल मसल कर पाँवों से झुँझला के फ़रमाया, लो पहचानो तुम्हारा इन दिलों में कौन सा दिल है । श्रेणी: ग़ज़ल

मुझे भी सहनी पड़ेगी मुख़ालिफ़त अपनी / अंजुम सलीमी

मुझे भी सहनी पड़ेगी मुख़ालिफ़त अपनी जो खुल गई कभी मुझ पर मुनफ़िक़त अपनी मैं ख़ुद से मिल के कभी साफ़ साफ़ कह दूँगा मुझे पसंद नहीं है मुदाख़ेलत अपनी मैं शर्म-सार हुआ अपने आप से फिर भी क़ुबूल की ही नहीं मैं ने माज़रत अपनी ज़माने से तो मेरा कुछ गिला नहीं बनता के मुझ से मेरा तअल्लुक़ था मारेफ़त अपनी ख़बर नहीं अभी दुनिया को मेरे सानेहे की सो अपने आप से करता हूँ ताज़ियत अपनी श्रेणी: ग़ज़ल

ज़ुहूर-ए-कश्फ़-ओ-करामात में पड़ा हुआ हूँ / अंजुम सलीमी

ज़ुहूर-ए-कश्फ़-ओ-करामात में पड़ा हुआ हूँ अभी मैं अपने हिजाबात में पड़ा हुआ हूँ मुझे यक़ीं ही नहीं आ रहा के ये मैं हूँ अजब तवहहुम ओ शुबहात में पड़ा हुआ हूँ गुज़र रही है मुझे रौंदती हुई दुनिया क़दीम ओ कोहना रवायात में पड़ा हुआ हूँ बचाव का कोई रस्ता नहीं बचा मुझ में मैं अपने ख़ाना-ए-शह-मात में पड़ा हुआ हूँ मैं अपने दिल पे बहुत ज़ुल्म करने वाला था सो अब जहान-ए-मकाफ़ात में पड़ा हुआ हूँ श्रेणी: ग़ज़ल

नहीं नाम ओ निशाँ साए का लेकिन यार बैठे हैं / अंजुम रूमानी

नहीं नाम ओ निशाँ साए का लेकिन यार बैठे हैं उगे शायद ज़मीं से ख़ुद-ब-ख़ुद दीवार बैठे हैं सवार-ए-कश्ती-ए-अमवाज-ए-दिल हैं और ग़ाफ़िल हैं समझते हैं की हम दरिया-ए-ग़म के पार बैठे हैं उजाड़ ऐसी न थी दुनिया अभी कल तक ये आलम था यहाँ दो चार बैठे हैं वहाँ दो चार बैठे हैं फिर आती है इसी सहरा से आवाज़-ए-जरस मुझ को जहाँ मजनूँ से दीवाने भी हिम्मत हार बैठे हैं समझते हो जिन्हें तुम संग-ए-मील ऐ क़ाफ़िले वालो सर-ए-रह-ए-ख़स्तगान-ए-हसरत रफ़्तार बैठे हैं ये जितने मशग़ले हैं सब फ़राग़त के न तुम बे-कार बैठे हो न हम बे-कार बैठे हैं तुम्हें ‘अंजुम’ कोई उस से तवक़्क़ो हो तो हो वरना यहाँ तो आदमी की शक्ल से बे-ज़ार बैठे हैं श्रेणी: ग़ज़ल

जहाँ तक गया कारवान-ए-ख़याल / अंजुम रूमानी

जहाँ तक गया कारवान-ए-ख़याल न था कुछ ब-जुज़ हसरत-ए-पाएमाल मुझे तेरा तुझ को है मेरा ख़याल मगर ज़िंदगी फिर भी हैं ख़स्ता-हाल जहाँ तक है दैर ओ हरम का सवाल रहें चुप तो मुश्किल कहें तो मुहाल तेरी काएनात एक हैरत-कदा शनासा मगर अजनबी ख़द-ओ-ख़ाल मेरी काएनात एक ज़ख़्म-ए-कोहन मुक़द्दर में जिस के नहीं इंदिमाल नई ज़िंदगी के नए मकर ओ फ़न नए आदमी की नई चाल-ढाल हुए रूख़्सत अंजुम सहर के क़रीब न देखा गया शायद अपना मआल श्रेणी: ग़ज़ल

हर चंद उन्हें अहद फ़रामोश न होगा / अंजुम रूमानी

हर चंद उन्हें अहद फ़रामोश न होगा लेकिन हमें इस वक़्त कोई होश न होगा देखोगे तो आएगी तुम्हें अपनी जफ़ा याद ख़ामोश जिसे पाओगे ख़ामोश न होगा गुज़रे हैं वो लम्हे सदा याद रहेंगे देखा है वो आलम कि फ़रामोश न होगा हम अपनी शिकस्तों से हैं जिस तरह बग़ल-गीर यूँ क़ब्र से भी कोई हम-आग़ोश न होगा पी जाते हैं ज़हर-ए-गम-ए-हस्ती हो कि मय हो हम सा भी ज़माने में बला-नोश न होगा होने को तो दुनिया में कई पर्दा-नशीं हैं लेकिन तेरी सूरत कोई रू-पोश न होगा पाओगे न आज़ाद-ए-ग़म-अंजुम किसी दिल को होगा ग़म-ए-फ़र्दा जो ग़म-ए-दोश न होगा श्रेणी: ग़ज़ल

हम से भी गाहे गाहे मुलाक़ात चाहिए / अंजुम रूमानी

हम से भी गाहे गाहे मुलाक़ात चाहिए इंसान हैं सभी तो मसावात चाहिए अच्छा चलो ख़ुदा न सही उन को क्या हुआ आख़िर कोई तो क़ाज़ी-ए-हाजात चाहिए है आक़बत ख़राब तो दुनिया ही ठीक हो कोई तो सूरत-ए-गुज़र-औक़ात चाहिए जाने पलक झपकने में क्या गुल खिलाए वक़्त हर दम नज़र ब-सूरत-ए-हालात चाहिए आएगी हम को रास न यक-रंगी-ए-ख़ला अहल-ए-ज़मीं हैं हम हमें दिन रात चाहिए वा कर दिए हैं इल्म ने दरिया-ए-मारिफ़त अँधों को अब भी कश्फ़ ओ करामात चाहिए जब क़ैस की कहानी अब अंजुम की दास्ताँ दुनिया को दिल लगी के लिए बात चाहिए श्रेणी: ग़ज़ल

दुखी दिलों की लिए ताज़याना रखता है / अंजुम रूमानी

दुखी दिलों की लिए ताज़याना रखता है हर एक शख़्स यहाँ इक फ़साना रखता है किसी भी हाल में राज़ी नहीं है दिल हम से हर इक तरह का ये काफ़िर बहाना रखता है अज़ल से ढंग हैं दिल के अजीब से शायद किसी से रस्म-ओ-रह-ए-ग़ाएबाना रखता है कोई तो फ़ैज़ है कोई तो बात है इस में किसी को दोस्त यूँही कब ज़माना रखता है फ़कीह-ए-शहर की बातों से दर-गुज़र बेहतर बशर है और ग़म-ए-आब-ओ-दाना रखता है मुआमलात-ए-जहाँ की ख़बर ही क्या उस को मुआमला ही किसी से रखा न रखता है हमीं ने आज तक अपनी तरह नहीं देखा तवक़्क़ुआत बहुत कुछ ज़माना रखता है क़लंदरी है की रखता है दिल ग़नी ‘अंजुम’ कोई दुकाँ न कोई कार-ख़ाना रखता है श्रेणी: ग़ज़ल

हज़ार शम्अ फ़रोज़ाँ हो रौशनी के लिए नुशूर वाहिदी

हज़ार शम्अ फ़रोज़ाँ हो रौशनी के लिए नज़र नहीं तो अंधेरा है आदमी के लिए तअल्लुक़ात की दुनिया भी आदमी के लिए इक अजनबी सा तसव्वुर है अजनबी के लिए चमन चमन है मोहब्बत जहाँ जहाँ से जमाल ये एहतिमाम है इक दिल की ज़िंदगी के लिए शब-ए-नशात मुबारक तुझे ये माह-ओ-नुजूम सहर बहुत है मिरी कम-सितारगी के लिए निगाह-ए-दोस्त सलामत कि फ़ैज़-ए-गिर्या से बहुत गुहर हैं मिरे दामन-ए-तही के लिए निगाह-ए-मस्त की सहबा टपक रही है 'नुशूर' ग़ज़ल कही है तबीअत की सरख़ुशी के लिए

Sanam Tu Bewafa Ke Naam Se / सनम तू बेवफा के नाम से मशहूर हो जाए

अगर दिलबर की रुसवाई हमें मंजूर हो जाए सनम तू बेवफ़ा के नाम से मशहूर हो जाए हमें फ़ुर्सत नहीं मिलती कभी आँसू बहाने से कईं गम पास आ बैठे तेरे एक दूर जाने से अगर तू पास आ जाए तो हर ग़म दूर हो जाए वफ़ा का वास्ता देकर मोहब्बत आज रोती है न ऐसे खेल इस दिल से, ये नाज़ुक चीज़ होती है ज़रा सी ठेस लग जाए तो शीशा चूर हो जाए तेरे रंगीन होठों को कंवल कहने से डरते है तेरी इस बेरूख़ी पे हम ग़ज़ल कहने से डरते है कहीं ऐसा ना हो तू और भी मगरूर हो जाए #Mumtaz #ShatrughanSInha Sanam Tu Bewafa Ke Naam Se Lyrics Agar dilabar ki rusawaai hamen mnjur ho jaae Sanam tu bewafa ke naam se mashahur ho jaae Hamen fursat nahin milati kabhi ansu bahaane se Kin gam paas a baithhe tere ek dur jaane se Agar tu paas a jaae to har gam dur ho jaae Wafa ka waasta dekar mohabbat aj roti hai N aise khel is dil se, ye naazuk chij hoti hai Jra si thhes lag jaae to shisha chur ho jaae Tere rngin hothhon ko knwal kahane se darate hai Teri is berukhi pe ham gjl kahane se darate hai Kahin aisa na ho tu aur bhi magarur ho jaae Additiona...

जुरअत ऐ दिल मय ओ मीना है / 'ऐश' देलहवी

जुरअत ऐ दिल मय ओ मीना है वो ख़ुद काम भी है बज़्म अग़्यार से ख़ाली भी है और शाम भी है ज़ुल्फ़ के नीचे ख़त-ए-सब्ज़ तो देखा ही न था ऐ लो एक और नया दाम तह-ए-दाम भी है चारा-गर जाने दे तकलीफ़-ए-मदवा है अबस मर्ज़-ए-इश्क़ से होता कहीं आराम भी है हो गया आज शब-ए-हिज्र में ये क़ौल ग़लत था जो मशहूर के आग़ाज़ को अंजाम भी है काम-ए-जानाँ मेरा लब-ए-यार के बोसे से सिवा ख़ूगर-ए-चाशनी-ए-लज़्ज़त-ए-दुश्नाम भी है शैख़ जी आप ही इंसाफ़ से फ़रमाएँ भला और आलम में कोई ऐसा भी बद-नाम भी है ज़ुल्फ़ ओ रुख़ दैर ओ हरम शाम ओ सहर 'ऐश' इन में ज़ुल्मत-ए-कुफ़्र भी है जलवा-ए-इस्लाम भी है श्रेणी: ग़ज़ल

कुछ कम नहीं है शम्मा से दिल की / 'ऐश' देलहवी

कुछ कम नहीं है शम्मा से दिल की लगन में हम फ़ानूस में वो जलती है याँ पैरहन में हम हैं तुफ़्ता-जाँ मुफ़ारक़त-ए-गुल-बदन में हम ऐसा न हो के आग लगा दें चमन में हम गुम होंगे बू-ए-ज़ुल्फ़-ए-शिकन-दर-शिकन में हम क़ब्ज़ा करेंगे चीन को ले कर ख़तन में हम गर ये ही छेड़ दस्त-ए-जुनूँ की रही तो बस मर कर भी सीना चाक करेंगे कफ़न में हम महव-ए-ख़याल-ए-ज़ुल्फ़-ए-बुताँ उम्र भर रहे मशहूर क्यूँ न हों कहो दीवाना-पन में हम होंगे अज़ीज़ ख़ल्क़ की नज़रों में देखना गिर कर भी अपने यार के चाह-ए-ज़क़न में हम छक्के ही छूट जाएँगे ग़ैरों के देखना आ निकले हाँ कभी जो तेरी अंजुमन में हम ऐ अंदलीब दावा-ए-बे-हूदा पर कहीं एक आध गुल का मुँह न मसल दें चमन में हम आशिक़ हुए हैं पर्दा-नशीं पर बस इस लिए रखते हैं सोज़-ए-इश्क़ निहाँ जाँ ओ तन में हम ज़ालिम की सच मसल है के रस्सी दराज़ है मिसदाक़ उस का पाते हैं चर्ख़-ए-कोहन में हम उन्क़ा का 'ऐश' नाम तो है गो निशाँ नहीं याँ वो भी खो चुके हैं तलाश-ए-दहन में हम श्रेणी: ग़ज़ल

मैं बुरा ही सही भला न सही / 'ऐश' देलहवी

मैं बुरा ही सही भला न सही पर तेरी कौन सी जफ़ा न सही दर्द-ए-दिल हम तो उन से कह गुज़रे गर उन्हों ने नहीं सुना न सही शब-ए-ग़म में बला से शुग़ल तो है नाला-ए-दिल मेरा रसा न सही दिल भी अपना नहीं रहा न रहे ये भी ऐ चर्ख़-ए-फ़ित्ना-ज़ा न सही देख तो लेंगे वो अगर आए ताक़त-ए-अर्ज़-ए-मुद्दआ न सही कुछ तो आशिक़ से छेड़-छाड़ रही कज-अदाई सही अदा न सही क्यूँ बुरा मानते हो शिकवा मेरा चलो बे-जा सही ब-जा न सही उक़दा-ए-दिल हमारा या क़िस्मत न खुला तुझ से ऐ सबा न सही वाइज़ो बंद-ए-ख़ुदा तो है 'ऐश' हम ने माना वो पारसा न सही श्रेणी: ग़ज़ल

क्या हुए आशिक़ उस शकर-लब के / 'ऐश' देलहवी

क्या हुए आशिक़ उस शकर-लब के ताने सहने पड़े हमें सब के भूलना मत बुतों की यारी पर हैं ये बद-केश अपने मतलब के क़ैस ओ फ़रहाद चल बसे अफ़सोस थे वो कम-बख़्त अपने मशरब के शैख़ियाँ शैख़ जी की देंगे दिखा मिल गए वो अगर कहीं अब के याद रखना कभी न बचिएगा मिल गए आप वक़्त गर शब के उस में ख़ुश होवें आप या ना-ख़ुश यार तो हैं सुना उसी ढब के यार बिन 'ऐश' मय-कशी तौबा है ये अपने ख़िलाफ़ मज़हब के श्रेणी: ग़ज़ल

ऐ दिल न सुन अफ़साना किसी शोख़ हसीं का / 'अहसन' मारहरवी

ऐ दिल न सुन अफ़साना किसी शोख़ हसीं का ना-आक़ेबत-अँदेश रहेगा न कहीं का दुनिया का रहा है दिल-ए-नाकाम न दीं का इस इश्क़-ए-बद-अंजाम ने रक्खा न कहीं का हैं ताक में इक शोख़ की दुज़-दीदा निगाहें अल्लाह निगह-बान है अब जान-ए-हज़ीं का हालत दिल-ए-बे-ताब की देखी नहीं जाती बेहतर है के हो जाए ये पैवंद ज़मीं का गो क़द्र वहाँ ख़ाक भी होती नहीं मेरी हर वक़्त तसव्वुर है मगर दिल में वहीं का हर आशिक़-ए-जाँ-बाज़ को डर ऐ सितम-आरा तलवार से बढ़ कर है तेरी चीन-ए-जबीं का कुछ सख़्ती-ए-दुनिया का मुझे ग़म नहीं ‘अहसन’ खटका है मगर दिल को दम-ए-बाज़-पसीं का श्रेणी: ग़ज़ल

जब तक अपने दिल में उन का ग़म रहा / 'अहसन' मारहरवी

जब तक अपने दिल में उन का ग़म रहा हसरतों का रात दिन मातम रहा हिज्र में दिल का न था साथी कोई दर्द उठ उठ कर शरीक-ए-ग़म रहा कर के दफ़्न अपने पराए चल दिए बेकसी का क़ब्र पर मातम रहा सैकड़ों सर तन से कर डाले जुदा उन के ख़ंजर का वही दम ख़म रहा आज इक शोर-ए-क़यामत था बपा तेरे कुश्तो का अजब आलम रहा हसरतें मिल मिल के रोतीं यास से यूँ दिल-ए-मरहूम का मातम रहा ले गया ता कू-ए-यार ‘अहसन’ वही मुद्दई कब दोस्तों से कम रहा श्रेणी: ग़ज़ल

मुतमइन अपने यक़ीन पर अगर इंसाँ हो जाए / 'अहसन' मारहरवी

मुतमइन अपने यक़ीन पर अगर इंसाँ हो जाए सौ हिजाबों में जो पिंहाँ है नुमायाँ हो जाए इस तरह क़ुर्ब तेरा और भी आसाँ हो जाए मेरा एक एक नफ़स काश रग-ए-जाँ हो जाए वो कभी सहन-ए-चमन में जो ख़िरामाँ हो जाए ग़ुँचा बालीदा हो इतना के गुलिस्ताँ हो जाए इश्क़ का कोई नतीजा तो हो अच्छा के बुरा ज़ीस्त मुश्किल है तो मरना मेरा आसाँ हो जाए जान ले नाज़ अगर मर्तबा-ए-इज्ज़-ओ-नियाज़ हुस्न सौ जान से ख़ुद इश्क़ का ख़्वाहाँ हो जाए मेरी ही दम से है आबाद जुनूँ-ख़ाना-ए-इश्क़ मैं न हूँ क़ैद तो बर्बादी-ए-ज़िंदाँ हो जाए है तेरे हुस्न का नज़्ज़ारा वो हैरत-अफ़ज़ा देख ले चश्म-ए-तसव्वुर भी तो हैराँ हो जाए दीद हो बात न हो आँख मिले दिल न मिले एक दिन कोई तो पूरा मेरा अरमाँ हो जाए मैं अगर अश्क-ए-नदामत के जवाहिर भर लूँ तोश-ए-हश्र मेरा गोशा-ए-दामाँ हो जाए ले के दिल तर्क-ए-जफ़ा पर नहीं राज़ी तो मुझे है ये मंज़ूर के वो जान का ख़्वाहाँ हो जाए अपनी महफ़िल में बिठा लो न सुनो कुछ न कहो कम से कम एक दिन ‘अहसन’ पे ये अहसाँ हो जाए. श्रेणी: ग़ज़ल

ना-काम हैं असर से दुआएँ दुआ से हम / 'अहसन' मारहरवी

ना-काम हैं असर से दुआएँ दुआ से हम मजबूर हैं के लड़ नहीं सकते ख़ुदा से हम होंगे न मुनहरिफ़ कभी अहद-ए-वफ़ा से हम चाहेंगे हश्र में भी बुतों को ख़ुदा से हम चाहोगे तुम न हम को न छूटोगे हम से तुम मजबूर तुम जफ़ा से हुए हो वफ़ा से हम आता नहीं नज़र कोई पहलू बचाव का क्यूँकर बचाएँ दिल तेरे तीर-ए-अदा से हम तुम से बिगाड़ इश्क़ में होना अजब नहीं अंजाम जानते थे यही इब्तिदा से हम इल्ज़ाम उन के इश्क़ का ‘अहसन’ ग़लत नहीं नादिम तमाम उम्र रहे इस ख़ता से हम श्रेणी: ग़ज़ल

नज़्ज़ारा जो होता है लब-ए-बाम तुम्हारा / 'अहसन' मारहरवी

नज़्ज़ारा जो होता है लब-ए-बाम तुम्हारा दुनिया में उछलता है बहुत नाम तुम्हारा दरबाँ है न है ग़ैर बाद-अंजाम तुम्हारा काम आएगा आख़िर यही ना-काम तुम्हारा दुश्नाम सुनो दे के दिल ऐ हुस्न-परस्तों ये काम तुम्हारा है वो इनाम तुम्हारा आग़ाज़-ए-मुहब्बत है हो ख़ुश हज़रत-ए-दिल क्या अच्छा नज़र आता नहीं अंजाम तुम्हारा ‘अहसन’ की तबीअत से अभी तुम नहीं वाक़िफ़ है दिल से दुआ-गो सहर ओ शाम तुम्हारा श्रेणी: ग़ज़ल

तुम्हारी लन-तरानी के करिश्मे देखे भाले हैं / 'अहसन' मारहरवी

तुम्हारी लन-तरानी के करिश्मे देखे भाले हैं चलो अब सामने आ जाओ हम भी आँख वाले हैं न क्यूँकर रश्क-ए-दुश्मन से ख़लिश हो ख़ार-ए-हसरत की ये वो काँटा है जिस से पाँव में क्या दिल में छाले हैं ये सदमा जीते जी दिल से हमारे जा नहीं सकता उन्हें वो भूले बैठे हैं जो उन पर मरने वाले हैं हमारी ज़िंदगी से तंग होता है अबस कोई ग़म-ए-उल्फ़त सलामत है तो कै दिन जीने वाले हैं ‘अमीर’ ओ ‘दाग़’ तक ये इम्तियाज़ ओ फ़र्क़ था ‘अहसन’ कहाँ अब लखनऊ वाले कहाँ अब दिल्ली वाले हैं श्रेणी: ग़ज़ल

न साथी है न मंज़िल का पता है / 'असअद' भोपाली

न साथी है न मंज़िल का पता है मोहब्बत रास्ता ही रास्ता है वफ़ा के नाम पर बर्बाद हो कर वफ़ा के नाम से दिल काँपता है मैं अब तेरे सिवा किस को पुकारूँ मुक़द्दर सो गया ग़म जागता है वो सब कुछ जान कर अनजान क्यूँ हैं सुना है दिल को दिल पहचानता है ये आँसू ढूँडता है तेरा दामन मुसाफ़िर अपनी मंज़िल जानता है श्रेणी: ग़ज़ल

तुम दूर हो तो प्यार का मौसम न आएगा / 'असअद' भोपाली

तुम दूर हो तो प्यार का मौसम न आएगा अब के बरस बहार का मौसम न आएगा चूमूँगा किस की ज़ुल्फ़ घटाओं को देख कर इक जुर्म-ए-ख़ुश-गवार का मौसम न आएगा छलके शराब बर्क़ गिरे या जलें चराग़ ज़िक्र-ए-निगाह-ए-यार का मौसम न आएगा वादा-ख़िलाफ़ियों को तरस जाएगा यक़ीं रातों को इंतिज़ार का मौसम न आएगा तुझ से बिछड़ के ज़िंदगी हो जाएगी तवील एहसास के निखार का मौसम न आएगा श्रेणी: ग़ज़ल

ज़िंदगी का हर नफ़स मम्नून है तदबीर का / 'असअद' भोपाली

ज़िंदगी का हर नफ़स मम्नून है तदबीर का वाइज़ो धोका न दो इंसान को तक़दीर का अपनी सन्नाई की तुझ को लाज भी है या नहीं ऐ मुसव्विर देख रंग उड़ने लगा तस्वीर का आप क्यूँ घबरा गए ये आप को क्या हो गया मेरी आहों से कोई रिश्ता नहीं तासीर का दिल से नाज़ुक शय से कब तक ये हरीफ़ाना सुलूक देख शीशा टूटा जाता है तेरी तस्वीर का हर नफ़स की आमद ओ शुद पर ये होती है ख़ुशी एक हल्क़ा और भी कम हो गया ज़ंजीर का फ़र्क़ इतना है के तू पर्दे में और मैं बे-हिजाब वरना मैं अक्स-ए-मुकम्मल हूँ तेरी तस्वीर का श्रेणी: ग़ज़ल

आँखें खुली हुई है तो मंज़र भी / 'अमीर' क़ज़लबाश

आँखें खुली हुई है तो मंज़र भी आएगा काँधों पे तेरे सर है तो पत्थर भी आएगा हर शाम एक मसअला घर भर के वास्ते बच्चा बज़िद है चाँद को छू कर भी आएगा इक दिन सुनूँगा अपनी समाअत पे आहटें चुपके से मेरे दिल में कोई डर भी आएगा तहरीर कर रहा है अभी हाल-ए-तिश्नगाँ फिर इस के बाद वो सर-ए-मिंबर भी आएगा हाथों में मेरे परचम-ए-आग़ाज़-ए-कार-ए-ख़ैर मेरी हथेलियों पे मेरा सर भी आएगा मैं कब से मुंतज़िर हूँ सर-ए-रहगुज़ार-ए-शब जैसे के कोई नूर का पैकर भी आएगा श्रेणी: ग़ज़ल

मोहब्बत करने वालों के बहार-अफ़रोज़ सीनों में / अख़्तर अंसारी

मोहब्बत करने वालों के बहार-अफ़रोज़ सीनों में रहा करती है शादाबी ख़ज़ाँ के भी महीनों में ज़िया-ए-महर आँखों में है तौबा मह-जबीनों में के फ़ितरत ने भरा है हुस्न ख़ुद अपना हसीनों में हवा-ए-तुंद है गर्दाब है पुर-शोर धारा है लिए जाते हैं ज़ौक-ए-आफ़ियत सी शय सफीनों में मैं हँसता हूँ मगर ऐ दोस्त अक्सर हँसते हुए भी छुपाए होते हैं दाग़ और नासूर अपने सीनों में मैं उन में हूँ जो हो कर आस्ताँ-ए-दोस्त से महरूम लिए फिरते हैं सजदों की तड़प अपनी जबीनों में मेरी ग़ज़लें पढ़ें सब अहल-ए-दिल और मस्त हो जाएँ मय-ए-जज़्बात लाया हूँ मैं लफ़्ज़ी आब-गीनों में श्रेणी: गज़ल

टूटी हुई शबीह की तस्ख़ीर क्या करें / अकरम नक़्क़ाश

टूटी हुई शबीह की तस्ख़ीर क्या करें बुझते हुए ख़याल को ज़ंजीर क्या करें अंधा सफ़र है ज़ीस्त किस छोड़ दें कहाँ उलझा हुआ सा ख़्वाब है ताबीर क्या करें सीने में जज़्ब कितने समुंदर हुए मगर आँखों पे इख़्तिसार की तदबीर क्या करें बस ये हुआ कि रास्ता चुप-चाप कट गया इतनी सी वारदात की तश्हीर क्या करें साअत कोई गुज़ार भी लें जी तो लें कभी कुछ ओर अपने बाब में तहरीर क्या करें श्रेणी: ग़ज़ल

जगजीत: एक बौछार था वो... / गुलज़ार

एक बौछार था वो शख्स, बिना बरसे किसी अब्र की सहमी सी नमी से जो भिगो देता था... एक बोछार ही था वो, जो कभी धूप की अफशां भर के दूर तक, सुनते हुए चेहरों पे छिड़क देता था नीम तारीक से हॉल में आंखें चमक उठती थीं सर हिलाता था कभी झूम के टहनी की तरह, लगता था झोंका हवा का था कोई छेड़ गया है गुनगुनाता था तो खुलते हुए बादल की तरह मुस्कराहट में कई तरबों की झनकार छुपी थी गली क़ासिम से चली एक ग़ज़ल की झनकार था वो एक आवाज़ की बौछार था वो!! श्रेणी: नज़्म

चल मेरे साथ ही चल / हसरत जयपुरी

चल मेरे साथ ही चल ऐ मेरी जान-ए-ग़ज़ल इन समाजों के बनाये हुये बंधन से निकल, चल हम वहाँ जाये जहाँ प्यार पे पहरे न लगें दिल की दौलत पे जहाँ कोई लुटेरे न लगें कब है बदला ये ज़माना, तू ज़माने को बदल, चल प्यार सच्चा हो तो राहें भी निकल आती हैं बिजलियाँ अर्श से ख़ुद रास्ता दिखलाती हैं तू भी बिजली की तरह ग़म के अँधेरों से निकल, चल अपने मिलने पे जहाँ कोई भी उँगली न उठे अपनी चाहत पे जहाँ कोई दुश्मन न हँसे छेड़ दे प्यार से तू साज़-ए-मोहब्बत-ए-ग़ज़ल, चल पीछे मत देख न शामिल हो गुनाहगारों में सामने देख कि मंज़िल है तेरी तारों में बात बनती है अगर दिल में इरादे हों अटल, चल श्रेणी: नज़्म