विक्रम के दोहे (रीतिकालीन कवि) Vikram ke Dohe
राते पट बिच कुच-कलस, लसत मनोहर आब।
भरे गुलाब सराब सौं, मनौ मनोज नबाब॥
नील वसन दरसत दुरत, गोरी गोरे गात।
मनौ घटा छन रुचि छटा, घन उघरत छपि जात॥
कहँ मिसरी कहँ ऊख रस, नहीं पियूष समान।
कलाकंद-कतरा कहा, तुव अधरा-रस-पान॥
तरल तरौना पर लसत, बिथुरे सुथरे केस।
मनौ सघन तमतौम नै, लीनो दाब दिनेस॥
सेत कंचुकी कुचन पै, लसत मिही चित चोर।
सोहत सुरसरि धार जनु, गिरि सुमेर जुग और॥
मोरि-मोरि मुख लेत है, नहिं हेरत इहि ओर।
कुच कठोर उर पर बसत, तातै हियो कठोर॥
मोर-मोर मुख लेत है, ज़ोर-ज़ोर दृग देत।
तोर-तोर तर लाज कौ, चोर-चोर चित लेत॥
नई तरुनई नित नई, चिलक चिकनई चोप।
नज़र नई नैनन नई, नई-नई अंग ओप॥
सोहत गोल कपोल पर, हृद रद-छद-छबि वेस।
जनु कंचन के नगन में, मानिक जढ़े सुदेस॥
कूल कलिंदी नीप तर, सोहत अति अभिराम।
यह छबि मेरे मन बसो, निसि दिन स्यामा स्याम॥
हरि राधा राधा भई हरि, निसि दिन के ध्यान।
राधा मुख राधा लगी, रट कान्हर मुख कान॥
गसे परसपर कुच घने, लसे वसे हिय माहिं।
कसे कंचुकी मैं फँसे, मुनि मन निकसे नाहिं॥
मो दृग बांधे तुव दृगनि, बिना दाम बे-दाम।
मन महीप के हुकुम तैं, फौजदार कौ काम॥
धनुष वेद के भेद बहु, मनौ पढ़ाए मैन।
चुकत न चोट अचूक ये, मृगनैनी के नैन॥
लगन लगी सो हिय लगी, पगी प्रेम रस रंग।
लाज खागी मोहन ठगी, देखि जगमगी अंग॥
पिय प्रानन की प्रान तूं, तुव प्रिय प्रानन-प्रान।
जान परत गुनखानि अब, चित हित के अनुमान॥
बिधु सम सोभा सार लै, रच्यौ बाल मुख इंदु।
दियौ इंदु मैं अंक मिस, राहु हेत मसि बिंदु॥
मेरी दीरघ दीनता, दयासिंधु दिल देव।
प्रभु गुन-आला जानि कै, बालापन तैं सेव॥
तन तैं निकसि गई नई, सिसुता सिसिर समाज।
अंग-अंग प्रति जगमग्यौ, नव जोबन रितुराज॥
दंपति रति विपरित में, करत किंकिनी सोर।
मनौ मदन महिपाल की, नौबत होत टंकोर॥
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