ललितकिशोरी के दोहे (कुंदनलाल) Lalitkishori ke Dohe
सुमन-बाटिका-बिपिन में, ह्वै हौं कब मैं फूल।
कोमल कर दोउ भावते, धरिहैं बीनि दुकूल॥
वह दिन कब आएगा जब मैं पुष्पवाटिकाओं अर्थात् फूलों की बग़ीची या बाग़ों में ऐसा फूल बन जाऊँगा जिसे चुन-चुनकर प्रियतम श्रीकृष्ण और राधिका अपने दुपट्टे में धर लिया करेगी।
व्याख्या
कब हौं सेवा-कुंज में, ह्वै हौं स्याम तमाल।
लतिका कर गहि बिरमिहैं, ललित लड़ैतीलाल॥
मैं वृंदावन के सेवा-कुंज में कब ऐसा श्याम तमाल वृक्ष बन जाऊँगा जिसकी लताओं या शाखाओं को पकड़ कर प्रियतम श्रीकृष्ण विश्राम किया करेंगे।
व्याख्या
मिलिहैं कब अँग छार ह्वै, श्रीबन बीथिन धूरि।
परिहैं पद-पंकज जुगुल, मेरी जीवन-मूरि॥
मैं राख या धूल बनकर कब ब्रज के जीवन के मार्गों या पगडंडियों में जाऊँगा ताकि मेरे जीवनाधार श्री राधा-कृष्ण के चरण-कमल मुझ पर पड़ते रहें।
व्याख्या
कब कालीदह-कूल की, ह्वै हौं त्रिबिधि समीर।
जुगुल अँग-अँग लागिहौं, उड़िहै नूतन चीर॥
यमुना के कालीदह नामक घाट के किनारे की शीतल, मंद, सुगंधित तीन प्रकार की वायु कब बन जाऊँगा। और वायु बनकर राधाकृष्ण के अंगों का इस प्रकार से कब स्पर्श करूँगा जिससे कि उनके नए वस्त्र उड़ने या लहराने लगें।
व्याख्या
कदम-कुंज ह्वै हौं कबै, श्रीवृंदाबन माहिं।
ललितकिशोरी, लाड़िले, बिहरैंगे तिहिं छाहिं॥
ललितकिशोरी जी कहते हैं कि कब मैं श्री वृंदावन के कदंब कुंज में जाऊँगा जिनकी छाया में लाड़ले लाल श्रीकृष्ण विहार किया करते हैं।
व्याख्या
कदम-कुंज है हौं कबै, श्रीवृंदावन माहिं।
'ललितकिसोरी' लाड़िले, बिहरैंगे तिहिं छाहिं॥
कब गहवर की गलिन में, फिरिहौं होइ चकोर।
जुगुलचंद-मुख निरखिहौं, नागरि-नवलकिसोर॥
कब कालिंदी-कूल की, हुवै हौं तरुवर डारि।
'ललितकिसोरी' लाड़िले, झूलै झूला डारि॥
ललित बेलि, कलिका, सुमन, तिनहीं ललित सुवास।
पिक, कोकिल, शुक, ललित सुर, गावन जुगुल-बिलास॥
ललित हरित अवनी सुखद, ललित लता नवकुंज।
ललित विहंगम बोलहीं, ललित मधुर अलिगुंज॥
ललित मृदुल बहु पुलिन-रज, ललित निकुंज-कुटीर।
लजित हिलोरनि रवि-सुता, ललित सुत्रिविध समीर॥
स्यामा पद दृढ़ गढ़ सखी, मिलिहैं निहचै स्याम।
ना मानै दृग देखिलै, स्यामा पद बिच स्याम॥
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