धर्म करो मन क्यों परो, कहो कुमति के धंध।
का करिहौ चलिहौ जबै, मूढ़! चारि के कंध॥
विषै भोग की आस में, सब दिन दियो बिताय।
रे मन, करिहै काह अब, पीरी पहुँची आय॥
सुबह साँझ के फेर में, गुजरी उमर तमाम।
द्विविधिा मँह खोये दोऊ, माया मिली न राम॥
लह्यो न सुख जग ब्रह्म को, धर्यो न हिय में ध्यान।
घर को भयो न घाट को, जिमि धोबी को स्वान॥
रे मन, नित रहिहै नहीं, तरुनापन अभिलाख।
चार दिना की चाँदनी, फिर अँधियारा पाख॥
चतुरानन की चूक सब, कहलों कहिये गाय।
सतुआ मिलै न संत को, गनिका लुचुई खाय॥
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