इक आग का दरिया है... / रमाशंकर यादव विद्रोही
विरह मिलन है,
मिलन विरह है,
मिलन विरह का,
विरह मिलन का ही जीवन है।
मैं कवि हूँ
और तीन-तीन बहनों का भाई हूँ,
हल्दी, दूब और गले की हँसुली से चूम-चूम कर
बहिनों ने मुझे प्यार करना सिखाया है।
मैंने कभी नहीं सोचा था
कि मेरे प्यार का सोता सूख जाएगा,
कि मेरे प्रेम का दूर्वांकुर मुरझा जाएगा।
लेकिन पूँजीवादी समाज की चौपालों
और सामंतवादी समाज के दलालों!
औरत का तन और मुर्दे का कफ़न
बिकता हुआ देखकर
मेरे प्यार का सोता सूख गया,
मेरे प्रेम का दुर्वांकुर मुरझा गया।
मैंने समझा प्यार व्याभिचार है,
शादी बर्बाद है,
लेकिन जब प्रथमदृष्टया मैंने तुमको देखा,
तो मुझे लगा कि
प्यार मर नहीं सकता
वह मृत्यु से भी बलवान होता है।
मैं तुम्हें इसलिए प्यार नहीं करता
कि तुम बहुत सुंदर हो,
और मुझे बहुत अच्छी लगती हो।
मैं तुम्हें इसलिए प्यार करता हूँ
कि जब मैं तुम्हें देखता हूँ,
तो मुझे लगता है कि क्रांति होगी।
तुम्हारा सौंदर्य मुझे बिस्तर से समर की ओर ढकेलता है।
और मेरे संघर्ष की भावना
सैकड़ों तो क्या,
सहस्त्रों गुना बढ़ जाती है।
मैं सोचता हूँ
कि तुम कहो तो मैं तलवार उठा लूँ,
तुम कहो तो मैं दुनिया को पलट दूँ,
तुम कहो तो मैं तुम्हारे क़दमों में जान दे दूँ,
ताकि मेरा नाम इस दुनिया में रह जाए।
मैं सोचता हूँ,
तुम्हारे हाथों में बंदूक़ बहुत सुंदर लगेगी,
और उसकी एक भी गोली
बर्बाद नहीं जाएगी।
वह वहीं लगेगी,
जहाँ तुम मारोगी।
लेकिन मेरे पास तुम्हारे लिए
इससे भी सुंदर परिकल्पना है प्रिये!
जब तुम्हें गोली लगेगी,
और तुम्हारा ख़ून धरती पर बहेगा,
तो क्रांति पागल की तरह उन्मत्त हो जाएगी,
लाल झंडा लहराकर भहरा पड़ेगा
दुश्मन के वक्षस्थल पर,
और
तब मैं तुम्हारा अकिंचन
प्रेमी कवि—
अपनी क़मीज़ फाड़कर
तुम्हारे घावों पर महरमपट्टी करने के अलावा
और क्या कर सकता हूँ।
औरतें
रमाशंकर यादव विद्रोही
कुछ औरतों ने
अपनी इच्छा से
कुएँ में कूदकर जान दी थी,
ऐसा पुलिस के रिकार्डों में दर्ज है।
और कुछ औरतें
चिता में जलकर मरी थीं,
ऐसा धर्म की किताबों में लिखा है।
मैं कवि हूँ,
कर्ता हूँ,
क्या जल्दी है,
मैं एक दिन पुलिस और पुरोहित,
दोनों को एक ही साथ
औरतों की अदालत में तलब कर दूँगा,
और बीच की सारी अदालतों को
मंसूख कर दूँगा।
मैं उन दावों को भी मंसूख कर दूँगा,
जिन्हें श्रीमानों ने
औरतों और बच्चों के ख़िलाफ़ पेश किया है।
मैं उन डिक्रियों को निरस्त कर दूँगा,
जिन्हें लेकर फ़ौजें और तुलबा चलते हैं।
मैं उन वसीयतों को ख़ारिज कर दूँगा,
जिन्हें दुर्बल ने भुजबल के नाम की होंगी।
मैं उन औरतों को
जो कुएँ में कूदकर या चिता में जलकर मरी हैं,
फिर से ज़िंदा करूँगा,
और उनके बयानात को
दुबारा क़लमबंद करूँगा,
कि कहीं कुछ छूट तो नहीं गया!
कि कहीं कुछ बाक़ी तो नहीं रह गया!
कि कहीं कोई भूल तो नहीं हुई!
क्योंकि मैं उन औरतों के बारे में जानता हूँ
जो अपने एक बित्ते के आँगन में
अपनी सात बित्ते की देह को
ता-ज़िंदगी समोए रही और
कभी भूलकर बाहर की तरफ़ झाँका भी नहीं।
और जब वह बाहर निकली तो
औरत नहीं, उसकी लाश निकली।
जो खुले में पसर गई है,
माँ मेदिनी की तरह।
एक औरत की लाश धरती माता
की तरह होती है दोस्तो!
जो खुले में फैल जाती है,
थानों से लेकर अदालतों तक।
मैं देख रहा हूँ कि
जुल्म के सारे सबूतों को मिटाया जा रहा है।
चंदन चर्चित मस्तक को उठाए हुए पुरोहित,
और तमग़ों से लैस सीनों को फुलाए हुए सैनिक,
महाराज की जय बोल रहे हैं।
वे महाराज जो मर चुके हैं,
और महारानियाँ सती होने की तैयारियाँ कर रही हैं।
और जब महारानियाँ नहीं रहेंगी,
तो नौकरानियाँ क्या करेंगी?
इसलिए वे भी तैयारियाँ कर रही हैं।
मुझे महारानियों से ज़्यादा चिंता
नौकरानियों की होती है,
जिनके पति ज़िंदा हैं और
बेचारे रो रहे हैं।
कितना ख़राब लगता है एक औरत को
अपने रोते हुए पति को छोड़कर मरना,
जबकि मर्दों को
रोती हुई औरतों को मारना भी
ख़राब नहीं लगता।
औरतें रोती जाती हैं,
मरद मारते जाते हैं।
औरतें और ज़ोर से रोती हैं,
मरद और ज़ोर से मारते हैं।
औरतें ख़ूब ज़ोर से रोती हैं,
मरद इतने ज़ोर से मारते हैं कि
वे मर जती हैं।
इतिहास में वह पहली औरत कौन थी,
जिसे सबसे पहले जलाया गया,
मैं नहीं जानता,
लेकिन जो भी रही होगी,
मेरी माँ रही होगी।
लेकिन मेरी चिंता यह है कि
भविष्य में वह आख़िरी औरत कौन होगी,
जिसे सबसे अंत में जलाया जाएगा,
मैं नहीं जानता,
लेकिन जो भी होगी
मेरी बेटी होगी,
और मैं ये नहीं होने दूँगा।
नई खेती / रमाशंकर यादव विद्रोही
मैं किसान हूँ
आसमान में धान बो रहा हूँ।
कुछ लोग कह रहे हैं,
कि पगले आसमान में धान नहीं जमता,
मैं कहता हूँ कि
गेगले-घोघले
अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है,
तो आसमान में धान भी जम सकता है।
और अब तो
दोनों में एक होकर रहेगा—
या तो ज़मीन से भगवान उखड़ेगा
या आसमान में धान जमेगा।
ग़ुलामी की अंतिम हदों तक लड़ेंगे / रमाशंकर यादव विद्रोही
इस ज़माने में जिनका ज़माना है भाई
उन्हीं के ज़माने में रहते हैं हम
उन्हीं की हैं सहते, उन्हीं की हैं कहते
उन्हीं की ख़ातिर दिन-रात बहते हैं हम
ये उन्हीं का हुकुम है जो मैं कह रहा हूँ
उनके सम्मान में मैं क़लम तोड़ दूँ
ये उन्हीं का हुकुम है
सबके लिए और मेरे लिए
कि मैं हक़ छोड़ दूँ
लोग हक़ छोड़ दें पर मैं क्यों छोड़ दूँ
मैं तो हक़ की लड़ाई का हमवार हूँ
मैं बताऊँ कि मेरी कमर तोड़ दो मेरा सिर फोड़ दो
किंतु ये न कहो कि हम छोड़ दो
आपसे कह रहा हूँ अपनी तरह
अपनी दिक़्क़त को सबसे ज़िरह कर रहा हूँ
मुझको लगता है कि मैं गुनहगार हूँ
क्योंकि रहता हूँ मैं क़ैदियों की तरह
मुझको लगता है कि मेरा वतन जेल है
ये वतन छोड़कर अब कहाँ जाऊँगा
अब कहाँ जाऊँगा जब वतन जेल है
जब सभी क़ैद हैं तब कहाँ जाऊँगा
मैं तो सब क़ैदियों से यही कह रहा
आओ उनके हुकुम की उदूली करें
पर सब पूछते हैं कि वो कौन है
और कहाँ रहता है
मैं बताऊँ कि वो जल्लाद है
वो वही है जो कहता है हक़ छोड़ दो
तुम यहाँ से वहाँ तक कहीं देख लो
गाँव को देख लो और शहर देख लो
अपना घर देख लो
अपने को देख लो
कि इस हक़ की लड़ाई में तुम किस तरफ़ हो
आपसे कह रहा हूँ अब अपनी तरह
कि मैं सताए हुओं की तरफ़ हूँ
और जो भी सताए हुओं की तरफ़ है
उसको समझता हूँ कि अपनी तरफ़ है
पर उनकी तरफ़ इसके उलटी तरफ़ है
उधर उस तरफ़ आप मत जाइए
जाइए पर अकेले में मत जाइए
ऐसे जाएँगे तो आप फँस जाएँगे
आइए अब हमारी तरफ़ आइए।
आइए इस तरफ़ की सही राह है
और सही चाह है
हम कौन हैं क्या ये भी नहीं ज्ञात है
हम कमेरों की भी क्या कोई जात है
हम कमाने के खाने का परचार ले
अपना परचम लिए अपना मेला लिए
आख़िरी फ़ैसले के लिए जाएँगे
अपनी महफ़िल लिए अपना डेरा लिए
उधर उस तरफ़
ज़ालिमों की तरफ़
उनसे कहने की गर्दन झुकाओ चलो
अब गुनाहों को अपने क़बूलों चलो
दोस्तों उस घड़ी के लिए अब चलो
और अभी से चलो उस ख़ुशी के लिए
जिसके ख़ातिर लड़ाई ये छेड़ी गई
जो शुरू से अभी तक चली आ रही
और चली जाएगी अंत से अंत तक
हम ग़ुलामी की अंतिम हदों तक लड़ेंगे...
कथा देश की / रमाशंकर यादव विद्रोही
ढंगों और दंगों के इस महादेश में
ढंग के नाम पर दंगे ही रह गए हैं।
और दंगों के नाम पर लाल ख़ून,
जो जमने पर काला पड़ जाता है।
यह हादसा है,
यहाँ से वहाँ तक दंगे,
जातीय दंगे,
सांप्रदायिक दंगे,
क्षेत्रीय दंगे,
भाषाई दंगे,
यहाँ तक कि क़बीलाई दंगे,
आदिवासियों और वनवासियों के बीच दंगे
यहाँ राजधानी दिल्ली तक होते हैं।
और जो दंगों के व्यापारी हैं,
वे भी नहीं सोचते कि इस तरह तो
यह जो जंबूद्वीप है,
शाल्मल द्वीप में बदल जाएगा,
और यह जो भरत खंड है, अखंड नहीं रहेगा,
खंड-खंड हो जाएगा।
उत्तराखंड हो जाएगा, झारखंड बन जाएगा,
छत्तीस नहीं, बहत्तर खंड हो जाएगा।
बल्कि कहना तो यह चाहिए कि
नौ का पहाड़ा ही पलट जाएगा।
न नौ खंड, न छत्तीस, न बहत्तर,
हज़ार खंड हो जाएगा,
लाख खंड हो जाएगा।
अतल वितल तलातल के दलदल
में धँस जाएगा,
लेकिन कोई बात नहीं!
धँसने दो इस अभागे देश को यहाँ-वहाँ,
जहाँ-जहाँ यह धँस सकता है,
दंगे के व्यापारियों की बला से
जब यह देश नहीं रहेगा,
कितनी ख़राब लगेगी दुनिया जब
उसमें भारत खंड नहीं रहेगा,
जंबूद्वीप नहीं रहेगा,
हे भगवान!
जे.एन.यू. में जामुन बहुत होते हैं
और हम लोग तो बिना जामुन के
न जे.एन.यू. में रह सकते हैं
और न दुनिया में ही रहना पसंद करेंगे।
लेकिन दंगों के व्यापारी
जंबूद्वीप नहीं रहेगा तो
करील कुंज में डेरा डाल लेंगे,
देश नहीं रहा तो क्या हुआ,
विदेश चले जाएँगे।
कुछ लोग अपने घाट जाएँगे,
कुछ लोग मर जाएँगे,
लेकिन हम कहाँ जाएँगे?
हम जो न मर रहे हैं और न जी रहे हैं,
सिर्फ़ कविता कर रहे हैं।
यह कविता करने का वक़्त नहीं है दोस्तो!
मार करने का वक़्त है।
ये बदमाश लोग कुछ मान ही नहीं रहे हैं—
न सामाजिक न्याय मान रहे हैं,
न सामाजिक जनवाद की बात मान रहे हैं,
एक मध्ययुगीन सांस्कृतिक तनाव के
चलते
तनाव पैदा कर रहे हैं,
टेंशन पैदा कर रहे हैं,
जो अमरीकी संस्कृति की विरासत है।
ऐसा हमने पढ़ा है,
ये सब बातें मैंने मनगढ़ंत नहीं गढ़ी हैं।
पढ़ा है,
और अब लिख रहा हूँ
कि दंगों के व्यापारी,
मुल्ला के अधिकार की बात उठा रहे हैं,
साहुकारों, सेठों, रजवाड़ों के अधिकार की बात
उठा रहे हैं।
इतिहास को उलट देने का अधिकार
चाहते हैं दंगों के व्यापारी।
लेकिन आज के ज़माने में
इतिहास को उलटना संभव नहीं है,
इतिहास भूगोल में समष्टि पा गया है।
लड़ाइयाँ बहुत हैं—
जातीय, क्षेत्रीय, धार्मिक इत्यादि
लेकिन जो साम्राज्यवाद विरोधी लड़ाई
दुनिया भर में चल रही है,
उसका खगोलीकरण हो चुका है।
वह उसके अपने घर में चल रही है,
अमरीका में चल रही है,
क्योंकि अमरीका अब
फ़ादर अब्राहिम लिंकन की लोकतंत्र
की परिभाषा से बहुत दूर चला
गया है।
और इधर साधुर बनिया का जहाज़
लतापत्र हो चुका है,
कन्या कलावती हठधर्मिता कर रही है,
सत्यनारायण व्रत कथा ज़ारी है।
कन्या कलावती आँख मूँद कर पारायण कर रही है
यह हठधर्मिता है लोगों!
मुझे डर है कि
जामाता सहित साधुर बनिया
जलमग्न हो सकते हैं,
तब विलपती कन्या कलावती के उठने का
कोई संदर्भ नहीं रह जाएगा,
न ही इंडिया कोलंबिया हो पाएगा।
सपना चकनाचूर हो जाएगा
स्वप्न वासवदत्ता का!
कभी अमेरीका में नॉवेल पायनियर हेमिंग्वे
ने आत्महत्या की थी,
क्योंकि थी हेमिंग्वे ने आत्महत्या?
कुछ पता नहीं चला।
अमरीका में सिर्फ़ बाहरी बातों का ही पता चलता है।
अंदर तो स्कूलों में बच्चे मार दिए जाते हैं,
पता नहीं चलता।
हाँ, इतना पता है
कि हेमिंग्वे बीस वर्ष तक
फिदेल कास्त्रो के प्रशंसक बने रहे।
अब ऐसा आदमी अमरीका में तनावमुक्त नहीं रह सकता।
और टेंशन तो टेंशन,
ऊपर से अमरीका टेंशन!
तो क्या हेमिंग्वे व्हाइट हाउस का बुर्ज गिरा देते?
हेमिंग्वे ने इंडिसन कैंप नामक गल्प लिखा।
मैं अर्जुन कैंप का वासी हूँ,
अर्जुन का एक नाम भारत है,
और भारत का एक नाम है इंडिया।
अर्जुन कैंप से इंडियन कैंप तक,
इंडिया से कोलंबिया तक,
वही आत्महत्या की संस्कृति।
मेरा तो जाना हुआ है दोस्तों,
गोरख पांडेय से हेमिंग्वे तक
सब के पीछे वही आतंक राज,
सब के पीछे वही राजकीय आतंक।
दंगों के व्यापारी
न कोई ईसा मसीह मानते हैं,
और न कोर्ट अबू बेन अधम।
उनके लिए जैसे चिली, वैसे वेनेजुएला,
जैसे अलेंदे, वैसे ह्यूगो शावेज,
वे मुशर्रफ़ और मनमोहन की बातचीत भी करवा सकते हैं,
और होती बात को बीच से दो-फाड़ भी कर सकते हैं।
दंगों के व्यापारी कोई फ़ादर-वादर नहीं मानते,
कोई बापू-साधु नहीं मानते,
इन्हीं लोगों ने अब्राहम लिंकन को भी मारा,
और इन्हीं लोगों ने महात्मा गाँधी को भी।
और सद्दाम हुसैन को किसने मारा?
हमारे देश के लंपट राजनीतिक
जनता को झाँसा दे रहे हैं कि बग़ावत मत करो!
हिंदुस्तान सुरक्षा परिषद् का सदस्य बनने वाला है।
जनता कहती है—
भाड़ में जाए सुरक्षा परिषद!
हम अपनी सुरक्षा ख़ुद कर लेंगे।
दंगों के व्यापारी कह रहे हैं,
हम परिषद से सेना बुलाकर तुम्हें कुचल देंगे।
जैसे हमारी सेनाएँ नेपाल रौंद रही हैं,
वैसे उनकी सेनाएँ तुम्हें कुचल देंगी।
नहीं तो हमें सुरक्षा परिषद का सदस्य बनने दो और चुप रहो।
यही एक बात की ग़नीमत है
कि हिंदुस्तान चुप नहीं रह सकता,
कोई न कोई बोल देता है,
मैं तो कहता हूँ कि हिंदुस्तान वसंत का दूत बन कर बोलेगा,
बम की भाषा बोलेगा हिंदुस्तान!
अभी मार्क्सवाद ज़िंदा है,
अभी बम का दर्शन ज़िंदा है,
अभी भगत सिंह ज़िंदा है।
मरने का चे ग्वेरा भी मर गए,
और चंद्रशेखर भी,
लेकिन वास्तव में कोई नहीं मरा है।
सब ज़िंदा हैं,
जब मैं ज़िंदा हूँ,
इस अकाल में।
मुझे क्या कम मारा गया है
इस कलिकाल में।
अनेकों बार मुझे मारा गया है
इस कलिकाल में।
अनेकों बार घोषित किया गया है,
राष्ट्रीय अख़बारों में, पत्रिकाओं में,
कथाओं में, कहानियों में
कि विद्रोही मर गया।
तो क्या सचमुच मर गया!
नहीं, मैं ज़िंदा हूँ,
और गा रहा हूँ,
कि
कहाँ चला गा उ सादुर च बनिया,
कहाँ चली गई कन्या कलावती,
संपूर्ण भारत भा लता-पात्रम्।
पर वाह रे अटल चाचा! वाह रे सोनिया चाची!!
शब्द बिखर रहे हैं,
कविताएँ बिखर रही हैं,
क्योंकि विचार बिफर रहे हैं।
हाँ, यह विचारों का बिफरना ही तो है,
कि जब मैं अपनी प्रकृति की बात सोचता हूँ
तो मेरे सामने मेरा इतिहास घूमने लगता है।
मैं फंटास्टिक होने लगता हूँ
और सारा भूगोल,
उस भूगोल का
ग्लोब, मेरी हथेलियों पर
नाचने लगता है।
और मैं महसूसने लगता हूँ
कि मैं ख़ुद में एक प्रोफ़ाउंड
उत्तर आधुनिक पुरुष पुरातन हूँ।
मैं कृष्ण भगवान हूँ।
अंतर सिर्फ़ यह है कि
मेरे हाथों में चक्र की जगह
भूगोल है, उसका ग्लोब है।
मेरे विचार सचमुच में उत्तर आधुनिक हैं।
मैं सोचता हूँ कि इतिहास को
भूगोल के माध्यम से एक क़दम आगे
ले जाऊँ
कि भूगोल की जगह
खगोल लिख दूँ।
लेकिन मेरी दिक़्क़त है कि
जैसे भूगोल को खगोल में बदला जा सकता है,
वैसे ही इंडिया को कोलंबिया
नहीं शिफ़्ट किया जा सकता।
कोलंबिया—जो खगोल की धुरी है
और सारा भूगोल उसकी परिधि है
जिसमें हमारा महान देश भी आता है।
महान इसलिए कह रहा हूँ
क्योंकि महान में महानता है।
जैसे खगोल की धुरी कोलंबिया है,
वैसे इस देश के महान विद्वान लोग
महानता की धुरी इंडिया को मानते हैं।
अब यह विचार मेरे मन-मयूर को
चक्रवात की तरह चला रहा है कि
भगवान, देवताओं!
इंडिया को कोलंबिया शिफ़्ट करना ठीक रहेगा,
कि स्वयमेव कोलंबिया को ही
इंडिया में उतार दिया जाए।
यह विचार है
जो बिफर रहा है।
इसमें इतिहास भी है,
और दर्शन भी,
कि आप जब हमारे देश आएँगे
तो हम क्या देंगे,
क्योंकि हमारे पास बिछाने के लिए बोरियाँ भी नहीं हैं
मेरे महबूब अमरीका!
और जब हम आपके यहाँ आएँगे,
तो क्या लेकर आएँगे,
क्योंकि मुझ सुदामा के पास
तंडुल रत्न भी नहीं है कॉमरेड कृष्ण!
इसलिए विचार बिफर रहे हैं
कि जब हमारा महान देश
सुरक्षा परिषद का स्थाई सदस्य
बनेगा, जब उसे वीटो पॉवर
मिलेगी,
तब तक पिट चुका होगा,
लुट चुका होगा,
बिक चुका होगा।
जयचंद और मीर जाफर
जब इतिहास नहीं
वर्तमान के ख़तरे बन चुके हैं।
इससे भविष्य अँधकारमय दिखाई पड़ रहा है।
कालांतर में इस देश को
ख़रीद सकता है अमरीका,
नहीं, इटली का एक लंगड़ा व्यापारी
त्रिपोली।
तोपों के दलाल
साम्राज्यवाद के भी दलाल हैं।
वे काल हैं और कुंडली मारकर
शेषनाग की तरह संसद को
अपने फन के साए में लिए बैठे हैं।
मुझे यह अभागा देश
कालिंदी की तरह लगता है
और ये सरकारें,
कालिया नाग की तरह।
विचार बिफर रहे हैं कि
हे फंटास्टिक कृष्ण!
भगवान विद्रोही!
तुम विद्रोही हो,
कोई नहीं तो तुम क्यों नहीं
कूद सकते आँख मूँद कर
कालिया नाग के मुँह में।
नूर मियाँ / रमाशंकर यादव विद्रोही
आज तो चाहे कोई विक्टोरिया छाप काजल लगाए,
चाहें साध्वी ऋतंभरा छाप अंजन,
लेकिन असली घी का सूरमा,
तो नूर मियाँ ही बनाते थे ना!
कम से कम मेरी दादी का मानना तो यही था।
नूर मियाँ जब भी आते थे,
मरी दादी सुरमा ज़रूर ख़रीदती थी।
एक सींक सुरमा आँखों में डालो,
आँखें बादल की तरह भर्रा जाएँ,
गंगा जमुना की तरह लहरा जाएँ,
सागर हो जाएँ बुढ़िया की आँखें।
जिसमें कि हम बच्चे झाँके तो
पूरा का पूरा दिखें।
बड़ी दुआएँ देती थी मेरी दादी,
नूर मियाँ और उनके सुरमे को।
कहती थी—
कि नूर मियाँ के सुरमे की वजह से तो ही
बुढ़ापे में बिटिहिनी बनी घूम रही हूँ
सुई में डोरा डाल लेती हूँ।
और मेरा जी करे कहूँ,
कि ओ रे बुढ़िया!
तू तो है सुकन्या,
और तेरा नूर मियाँ है च्यवन ऋषि।
नूर मियाँ का सुरमा तेरी आँखों का च्यवनप्राश है।
तेरी आँखें, आँखें नहीं दीदा हैं,
नूर मियाँ का सुरमा सिन्नी है, मलीदा है!
और
वही नूर मियाँ पाकिस्तान चले गए!
क्यों चले गए पाकिस्तान, नूर मियाँ?
कहते हैं कि नूर मियाँ के कोई था नहीं,
तब क्या हम कोई नहीं होते थे नूर मियाँ के?
नूर मियाँ क्यों चले गए पाकिस्तान?
बिना हमको बताए?
बिना हमारी दादी को बताए हुए,
नूर मियाँ क्यों चले गए पाकिस्तान?
और अब न वे सुरमे रहे और न वो आँखें,
मेरी दादी जिस घाट से आई थीं,
उसी घाट गईं।
नदी पार से ब्याह कर आई थीं मेरी दादी,
और नदी पार ही जाकर जलीं।
और मैं जब उनकी राख को
नदी में फेंक रहा था तो
मुझे लगा ये नदी, नदी नहीं,
मेरी दादी की आँखें हैं,
और ये राख, राख नहीं,
नूर मियाँ का सुरमा है,
जो मेरी दादी की आँखों में पड़ रहा है।
इस तरह मैंने अंतिम बार
अपनी दादी की आँखों में
नूर मियाँ का सुरमा लगाया।
हक़ीक़त / रमाशंकर यादव विद्रोही
हक़ीक़त कोई नंगई तो नहीं है,
हक़ीक़त किसी की फ़ज़ीहत नहीं है,
हक़ीक़त वही है जो ख़ुद रास आए,
हक़ीक़त किसी की नसीहत नहीं है।
हक़ीक़त की वारिस है ख़ुद की हक़ीक़त,
हक़ीक़त किसी की वसीयत नहीं है,
हक़ीक़त वही है जो मैं कह रहा हूँ,
जो मैं कह रहा हूँ, यहीं कह रहा हूँ।
अभी दाब दूँ तो ज़मीं चीख़ देगी,
और अभी तान दूँ तो गगन फाट जाए,
मगर आदमी का फ़र्ज़ ये तो नहीं है,
फ़र्ज़ है कि छप्पर गिरे तो उठाए।
जन-प्रतिरोध / रमाशंकर यादव विद्रोही
जब भी किसी
ग़रीब आदमी का अपमान करती है
ये तुम्हारी दुनिया,
तो मेरा जी करता है
कि मैं इस दुनिया को
उठाकर पटक दूँ!
इसका गूदा-गूदा छींट जाए।
मज़ाक़ बना रखा है तुमने
आदमी की आबरू का।
हम एक बित्ता कफ़न के लिए
तुम्हारे थानों के थान फूँक देंगे
और जिस दिन बाँहों से बाँहों को जोड़कर
हूमेगी ये जनता,
तो तुम नाक से ख़ून ढकेल दोगे मेरे दोस्त!
बड़ा भयंकर बदला चुकाती है ये जनता,
ये जनता तुम वहशियों की तरह
बेतहाशा नहीं पीटती,
सुस्ता-सुस्ता कर मारती है ये जनता,
सोच-सोच कर मारती है ये जनता,
जनता समझ-समझ कर मारती है, पिछली बातों को।
जनता मारती जाती है और
रोती जाती है,
और जब मारती जाती है तो
किसी की सुनती नहीं,
क्योंकि सुनने के लिए उसके पास
अपने ही बड़े दु:ख होते हैं।
जन-गण-मन / रमाशंकर यादव विद्रोही
एक
मुझे माफ़ करना मेरे दोस्तों
मैं एक पराजित योद्धा हूँ और
मेरे पास तुम्हें देने के लिए
कोई उपदेश नहीं है
इसलिए नहीं कि मुझे बिठा दिया गया है
प्यास के पहाड़ों पर
कि मेरी आँखों में टाँग दिया गया है
भूख का भूगोल
कि मेरी अंतड़ियों को मरोड़कर भींच दिया गया है
मुट्ठियों के बीच
कि मेरी आत्मा पर पतन का अंतिम प्रहार
कर दिया गया है
वरन् इसलिए कि
न तो मौत आती है
और न मैं ये बात भूल पाता हूँ
कि मैं एक योद्धा हूँ
और पराजित हो गया हूँ
दो
मैं एक पराजित योद्धा हूँ
और पड़ गया हूँ मौत का बिस्तर बिछाकर
जलते हुए समंदर की बड़वाग्नि में
मैं सोचता हूँ कि मैं बुरा फँसा
मौत सोचती है कि मैं बुरे फँसी
समंदर सोचता है कि मैं बुरे फँसा
और अग्नि समझती है कि मैं बुरे फँसी
मैं सोचता हूँ कि ये मौत बिना मारे मुझे छोड़ेगी नहीं
और मौत सोचती है कि ये आदमी तो मरेगा नहीं
और समंदर सोचता है कि इस झगड़े का तो कोई
अंत ही नहीं है
और अग्नि सोचती है कि जब तक अंत नहीं होगा,
तब तक जलना पड़ेगा
फ़िलहाल मैं एक पराजित योद्धा हूँ
और पड़ गया हूँ मौत का बिस्तर बिछाकर
जलते हुए समंदर की बड़वाग्नि में
तीन
मैं भी मरूँगा
और भारत भाग्य विधाता भी मरेगा
मरना तो जन-गण-मन अधिनायक को भी पड़ेगा
लेकिन मैं चाहता हूँ
कि पहले जन-गण-मन अधिनायक मरे
फिर भारत-भाग्य विधाता मरे
फिर साधु के काका मरें
यानी सारे बड़े-बड़े लोग पहले मर लें
फिर मैं मरूँ—आराम से, उधर चलकर बसंत ऋतु में
जब दोनों में दूध और आमों में बौर आ जाता है
या फिर तब जब महुवा चूने लगाता है
या फिर तब जब वनबेला फूलती है
नदी किनारे मेरी चिता दहक कर महके
और मित्र सब करें दिल्लगी
कि ये विद्रोही भी क्या तगड़ा कवि था
कि सारे बड़े-बड़े लोगों को मारकर तब मरा।
धरम / रमाशंकर यादव विद्रोही
मेरे गाँव में लोहा लगते ही
टनटना उठता है सदियों पुराने पीतल का घंट,
चुप हो जाते हैं जातों के गीत,
ख़ामोश हो जाती हैं आँगन बुहारती चूड़ियाँ,
अभी नहीं बना होता है धान, चावल,
हाथों से फिसल जाते हैं मूसल
और बेटे से छिपाया घी,
उधार का गुड़,
मेहमानों का अरवा,
चढ़ जाता है शंकर जी के लिंग पर।
एक शंख बजता है और
औढरदानी का बूढ़ा गण
एक डिबिया सिंदूर में
बना देता है
विधवाओं से लेकर कुँवारियों तक को सुहागन।
नहीं ख़त्म होता लुटिया भर गंगाजल,
बेबाक़ हो जाते हैं फटे हुए आँचल,
और कई गाँठों में कसी हुई चवन्नियाँ।
मैं उनकी बात नहीं करता जो
पीपलों पर घड़ियाल बजाते हैं
या बन जाते हैं नींव का पत्थर,
जिनकी हथेलियों पर टिका हुआ है
सदियों से ये लिंग,
ऐसे लिंग थापकों की माएँ
खीर खाके बच्चे जनती हैं
और खड़ी कर देती हैं नरपुंगवों की पूरी ज़मात
मर्यादा पुरुषोत्तमों के वंशज
उजाड़ कर फेंक देते हैं शंबूकों का गाँव
और जब नहीं चलता इससे भी काम
तो धर्म के मुताबिक़
काट लेते हैं एकलव्यों का अँगूठा
और बना देते हैं उनके ही ख़िलाफ़
तमाम झूठी दस्तख़तें।
धर्म आख़िर धर्म होता है
जो सूअरों को भगवान बना देता है,
चढ़ा देता है नागों के फन पर
गायों का थन,
धर्म की आज्ञा है कि लोग दबा रखें नाक
और महसूस करें कि भगवान गंदे में भी
गमकता है।
जिसने भी किया है संदेह
लग जाता है उसेक पीछे जयंत वाला बाण,
और एक समझौते के तहत
हर अदालत बंद कर लेती है दरवाज़ा।
अदालतों के फ़ैसले आदमी नहीं
पुरानी पोथियाँ करती हैं,
जिनमें दर्ज है पहले से ही
लंबे कुर्ते और छोटी-छोटी क़मीज़ों
की दंड व्यवस्था।
तमाम छोटी-छीटी
थैलियों को उलटकर,
मेरे गाँव में हर नवरात को
होता है महायज्ञ,
सुलग उठते हैं गोरु के गोबर से
निकाले दानों के साथ
तमाम हाथ,
नीम पर टाँग दिया जाता है
लाल हिंडोल।
लेकिन भगवती को तो पसंद होती है
ख़ाली तसलों की खनक,
बुझे हुए चूल्हे में ओढ़कर
फूटा हुआ तवा
मज़े से सो रहती है,
ख़ाली पतीलियों में डाल कर पाँव,
आँगन में सिसकती रहती हैं
टूटी चारपाइयाँ,
चौरे पे फूल आती हैं
लाल-लाल सोहारियाँ,
माया की माया,
दिखा देती है भरवाकर
बिना डोर के छलनी में पानी।
जिन्हें लाल सोहारियाँ नसीब हों
वे देवता होते हैं
और देवियाँ उनके घरों में पानी भरती हैं।
लग्न की रातों में
कुँआरियों के कंठ पर
चढ़ जाता है एक लाल पाँव वाला
स्वर्णिम खड़ाऊँ,
और एक मरा हुआ राजकुमार
बन जाता है सारे देश का दामाद
जिसको कानून के मुताबिक़
दे दिया जाता है सीताओं की ख़रीद-फरोख़्त
का लाइसेंस।
सीताएँ सफ़ेद दाढ़ियों में बाँध दी जाती हैं
और धरम कि किताबों में
घासें गर्भवती हो जाती हैं।
धरम देश से बड़ा है।
उससे भी बड़ा है धरम का निर्माता
जिसके कमज़ोर बाजुओं की रक्षा में
तराशकर गिरा देते हैं
पुरानी पोथियों में लिखे हुए हथियार
तमाम चट्टान तोड़ती छोटी-छोटी बाँहें,
क्योंकि बाम्हन का बेटा
बूढ़े चमार के बलिदान पर जीता है।
भूसुरों के गाँव में सारे बाशिंदे
किराएदार होते हैं
ऊसरों की तोड़ती आत्माएँ
नरक में ढकेल दी जाती हैं
टूटती ज़मीनें गदरा कर दक्षिणा बन जाती हैं,
क्योंकि
जिनकी माताओं ने कभी पिसुआ ही नहीं पिया
उनके नाम भूपति, महीपत, श्रीपत नहीं हो सकते,
उनके नाम
सिर्फ़ बीपत हो सकते हैं।
धरम के मुताबिक़ उनको मिल सकता है
वैतरणी का रिज़र्वेशन,
बशर्ते कि संकल्प दें अपनी बूढ़ी गाय
और खोज लाएँ सवा रुपया क़र्ज़,
ताकि गाय को घोड़ी बनाया जा सके।
किसान की गाय
पुरोहित की घोड़ी होती है।
और सबेरे ही सबेरे
जब ग्वालिनों की माल पर
बोलियाँ लगती हैं,
तमाम काले-काले पत्थर
दूध की बाल्टियों में छपकोरियाँ मारते हैं,
और तब तक रात को ही भींगी
जाँघिए की उमस से
आँखें को तरोताज़ा करते हुए चरवाहे
खोल देते हैं ढोरों की मुद्धियाँ।
एक बाणी गाय का एक लोंदा गोबर
गाँव को हल्दीघाटी बना देता है,
जिस पर टूट जाती हैं जाने
कितनी टोकरियाँ,
कच्ची रह जाती हैं ढेर सारी रोटियाँ,
जाने कब से चला आ रहा है
रोज़ का ये नया महाभारत
असल में हर महाभारत एक
नए महाभारत की गुजांइश पे रुकता है,
जहाँ पर अँधों की जगह अवैधों की
जय बोल दी जाती है।
फाड़कर फेंक दी जाती हैं उन सबकी
अर्ज़ियाँ
जो विधाता की मेड़ तोड़ते हैं।
सुनता हूँ एक आदमी का कान फाँदकर
निकला था,
जिसके एवज़ में इसके बाप ने इसको कुछ हथियार दिए थे,
ये आदमी जेल की कोठरी के साथ
तैर गया था दरिया,
घोड़ों की पूँछे झाड़ते-झाड़ते
तराशकर गिरा दिया था राजवंशों का गौरव।
धर्म की भीख, ईमान की गरदन होती है मेरे दोस्त!
जिसको काट कर पोख़्ता किए गए थे
सिंहासनों के पाए,
सदियाँ बीत जाती हैं,
सिंहासन टूट जाते हैं,
लेकिन बाक़ी रह जाती है ख़ून की शिनाख़्त,
गवाहियाँ बेमानी बन जाती हैं
और मेरा गाँव सदियों की जोत से वंचित हो जाता है
क्योंकि काग़ज़ात बताते हैं कि
विवादित भूमि राम-जानकी की थी।
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