मारे जाएँगे / राजेश जोशी
जो इस पागलपन में शामिल नहीं होंगे
मारे जाएँगे
कटघरे में खड़े कर दिए जाएँगे, जो विरोध में बोलेंगे
जो सच-सच बोलेंगे, मारे जाएँगे
बर्दाश्त नहीं किया जाएगा कि किसी की क़मीज़ हो
‘उनकी’ क़मीज़ से ज़्यादा सफ़ेद
क़मीज़ पर जिनके दाग़ नहीं होंगे, मारे जाएँगे
धकेल दिए जाएँगे कला की दुनिया से बाहर, जो चारण नहीं
जो गुन नहीं गाएँगे, मारे जाएँगे
धर्म की ध्वजा उठाए जो नहीं जाएँगे जुलूस में
गोलियाँ भून डालेंगी उन्हें, काफ़िर क़रार दिए जाएँगे
सबसे बड़ा अपराध है इस समय
निहत्थे और निरपराध होना
जो अपराधी नहीं होंगे
मारे जाएँगे।
बच्चे काम पर जा रहे हैं / राजेश जोशी
कुहरे से ढँकी सड़क पर बच्चे काम पर जा रहे हैं
सुबह-सुबह
बच्चे काम पर जा रहे हैं
हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह
भयानक है इसे विवरण की तरह लिखा जाना
लिखा जाना चाहिए इसे सवाल की तरह
काम पर क्यों जा रहे हैं बच्चे?
क्या अंतरिक्ष में गिर गई हैं सारी गेंदें
क्या दीमकों ने खा लिया है
सारी रंग-बिरंगी किताबों को
क्या काले पहाड़ के नीचे दब गए हैं सारे खिलौने
क्या किसी भूकंप में ढह गई हैं
सारे मदरसों की इमारतें
क्या सारे मैदान, सारे बग़ीचे और घरों के आँगन
ख़त्म हो गए हैं एकाएक
तो फिर बचा ही क्या है इस दुनिया में?
कितना भयानक होता अगर ऐसा होता
भयानक है लेकिन इससे भी ज़्यादा यह
कि हैं सारी चीज़ें हस्बमामूल
पर दुनिया की हज़ारों सड़कों से गुज़रते हुए
बच्चे, बहुत छोटे छोटे बच्चे
काम पर जा रहे हैं।
गिरे ताल में चंदा मामा / राजेश जोशी
गिरे ताल में चंदा मामा,
सबने देखा सबने देखा,
फँसे जाल में चंदा मामा,
सबने देखा सबने देखा।
सबने देखा एक अचंभा, मछुआरे ने जाल समेटा,
कहीं नहीं थे चंदा मामा,
कहाँ गए जी चंदा मामा।
मैं झुकता हूँ / राजेश जोशी
दरवाज़े से बाहर जाने से पहले
अपने जूतों के तस्मे बाँधने के लिए मैं झुकता हूँ
रोटी का कौर तोड़ने और खाने के लिए
झुकता हूँ अपनी थाली पर
जेब से अचानक गिर गई क़लम या सिक्के को उठाने को
झुकता हूँ
झुकता हूँ लेकिन उस तरह नहीं
जैसे एक चापलूस की आत्मा झुकती है
किसी शक्तिशाली के सामने
जैसे लज्जित या अपमानित होकर झुकती हैं आँखें
झुकता हूँ
जैसे शब्दों को पढ़ने के लिए आँखें झुकती हैं
ताक़त और अधीनता की भाषा से बाहर भी होते हैं
शब्दों और क्रियाओं के कई अर्थ
झुकता हूँ
जैसे घुटना हमेशा पेट की तरफ़ ही मुड़ता है
यह कथन सिर्फ़ शरीर के नैसर्गिक गुणों
या अवगुणों को ही व्यक्त नहीं करता
कहावतें अर्थ से ज़्यादा अभिप्राय में निवास करती हैं।
दो पंक्तियों के बीच / राजेश जोशी
कविता की दो पंक्तियों के बीच मैं वह जगह हूँ
जो सूनी-सूनी-सी दिखती है हमेशा
यहीं कवि को अदृश्य परछाईं घूमती रहती है अक्सर
मैं कवि के ब्रह्मांड की एक गुप्त आकाशगंगा हूँ
शब्द यहाँ आने से अक्सर आँख चुराते हैं
हड़बड़ी में छूट गई कोई सहायक क्रिया या कोई शब्द
कभी-कभार उठंगा-सा आकर बैठ जाता है किसी किनारे पर
अनुस्वार और कुछ मात्राएँ झाँकती रहती हैं मेरी परिधियों से
शब्दों से छन-छनकर गिरती रहती हैं यहाँ कई ध्वनियाँ
कभी-कभी तो शब्दों के कुछ ऐसे अर्थ भटकते हुए
चले आते हैं यहाँ
बिगड़ैल बच्चों की तरह जो भाग गए थे बहुत पहले
अपना घर छोड़कर
जैसी दिखती हूँ
उतनी अकंपित उतनी निर्विकार-सी जगह नहीं हूँ
एक चुप हूँ जो आ जाती है बातचीत के बीच अचानक
तैरते रहते हैं जिसमें बातों के छूटे हुए टुकड़े
कई चोर गलियाँ निकलती हैं मेरी गलियों से
जो ले जा सकती हैं
सबसे छिपाकर रखी कवि की एक अज्ञात दुनिया तक
बेहद के इस अरण्य में कुलाँचें मारती रहती हैं
कितनी ही अनजान-सी छवियाँ
शब्दों की ऊँची आड़ के बीच मैं एक खुला आसमान हूँ
कवि के मंसूबों के उक़ाब जहाँ भरते हैं लंबी उड़ान
अदृश्य की आड़ के पीछे छिपी है यहाँ कुछ ऐसी सुरंगें
जो अपने गुप्त रास्तों से
शब्दों की जन्म-कथा तक ले जाती हैं
यहाँ आने से पहले अपने जूते बाहर उतार कर आना
कि तुम्हारे पैरों की कोई आवाज़ न हो
एक ज़रा-सी बाहरी आवाज़ नष्ट कर देगी
मेरे पूरे जादुई तिलिस्म को!
जब तक मैं एक अपील लिखता हूँ / राजेश जोशी
जब तक मैं एक अपील लिखता हूँ
आग लग चुकी होती है सारे शहर में
हिज्जे ठीक करता हूँ जब तक अपील के
कर्फ़्यू का ऐलान करती घूमने लगती है गाड़ी
अपील छपने जाती है जब तक प्रेस में
दुकानें जल चुकी होती हैं
मारे जा चुके होते हैं लोग
छपकर जब तक आती है अपील
अपील की ज़रूरत ख़त्म हो चुकी होती है!
दो नन्हे मोज़े / राजेश जोशी
पुराने कपड़ों के बक्से से सामान निकालते हुए प्रकट हुए अचानक
ऊन के वो दो नन्हे मोज़े
याद आए वो दिन जब दुपहर की गुनगुनी धूप में बैठी
बीच-बीच में देखती हुई अपना पेट
मन ही मन मुस्कुराती पत्नी
बुनती रहती थी इन्हें
यह उन दिनों की बात है जब पैदा होने वाली थी
हमारी पहली बेटी
इतने बरस बाद निकल आए हैं ये मोज़े अचानक
अचानक जैसे याद आ जाती है बचपन की कोई बात
इतने छोटे हैं ये मोज़े कि आश्चर्य में डूबा है मेरी बेटी का चेहरा
कि कभी इतने छोटे भी थे उसके पाँव
बहुत छोटी और साधारण चीज़ों में ही बचा है शायद
इतना अपनापन और इतनी गुदगुदी...
वो दो छोटे-छोटे मोज़े हैं या भूत के पाँव
जो तेरह बरस पहले की दुपहर में ले आए हैं मुझे
कितनी आसानी से पार कर जाती है इतनी लंबी दूरी
दो छोटे-छोटे मोज़ों में बसी
दो नन्हे पाँवों की गंध!
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