हिंदी का अर्थ / रामकुमार वर्मा
एक
मेरी हिंदी का अर्थ यही—
वाणी! तुम रहना निर्विकार!
जैसे इतना है महाकाश, जिसमें नक्षत्रों का निनाद,
अविरत गति से होता रहता, उठता न कहीं कोई विवाद।
लघु लघु तारों को भी समेट, बनती ध्वनियों की धवल धार,
उस ज्योति पर्व में किरण किरण का, कितना है कोमल प्रसार!
गति द्रुत हो, या कि विलंबित हो,
गूँजे वीणा का तार-तार!
मेरी हिंदी का अर्थ यही,
वाणी! तुम रहना निर्विकार!
जैसे इतना व्यापक समीर, जिसमें न रहा है दिशा-भेद,
निर्गंध पुष्प को भी छूकर, जिसको न कभी कुछ हुआ खेद,
जो विषम प्रभंजन रूप तोड़ता, हठवादी सब शैल-शृंग,
पर नव प्रभात के द्वार द्वार पर सींच रहा छवि की उमंग!
ऐसा समीर जो साँस-रूप से
जीवन की करता पुकार!
मेरी हिंदी का अर्थ यही,
वाणी! तुम रहना निर्विकार!
जैसे जलती है महा अग्नि, ढलता जिसमें भीषण प्रकाश,
अज्ञान-रूढ़ियों के शव पर, हँसता है क्षण-क्षण महानाश।
रख छद्मवेश घन अंधकार जो छिपा रहा है क्षितिज-रेख,
उसके विघटन के लिए शक्ति बन हिंदी लिख दे भाग्य लेख।
निष्कलुष बने संपूर्ण विश्व,
मिट जाए भेद-गत अहंकार,
मेरी हिंदी का अर्थ यही,
वाणी, तुम रहना निर्विकार!
जैसी बहती है सहज धार, जिसमें जीवन का है प्रवाह,
प्रतिपल आगे बढ़ने का ही, जिसमें व्रत है अनुपम अथाह,
जिसकी बूँदों के कण-कण में है नवल सृष्टि का तरल रूप,
जिसकी लहरों का सहज गीत तट की वीणा पर है अनूप।
दो
लघु बुद्बुद् ने भी मिट मिट कर
मानी जीवन में नहीं हार,
मेरी हिंदी का अर्थ यही,
वाणी! तुम रहना निर्विकार!
जैसे सजती है सृष्टि पुनः ले सुरभित तन्वंगी तरंग,
वैसी शोभा से सजे राग-रंजित हिंदी के सहज अंग।
संस्कृति के सुरभित सुमन सजें, भूषित हो सरस प्रयोग-वृंत,
बहुरंगी विहँगों के कलरव में स्वयं चला आए वसंत,
तब जन-मन के ही सुमन सजें,
बन सरस्वती के कंठ-हार,
मेरी हिंदी का अर्थ यही,
वाणी! तुम रहना निर्विकार!
याचना / रामकुमार वर्मा
उज्ज्वल तारक-माला मेरी!
दे दो मुझे प्रकाश दिव्य
ओ उज्ज्वल तारक-माला मेरी!
ऊँचे-नीचे उड़-उड़ कर है
खद्योतों का विकल उजाला,
अपनी छवि से पथ बतला दो
दिशा-भ्रांतियाँ हैं बहु-तेरी।
उज्ज्वल तारक-माला मेरी!
दो हाथों से रुक न सकेंगी
जग-सागर की विषम हिलोरें,
निर्बल तन है और बढ़ी है
चिंता की भय पूर्ण अँधेरी।
उज्ज्वल तारक-माला मेरी!
अंधकार की घोर गुफा में
जग-शिशु नहीं दृष्टि आता है,
मैं भी खो जाऊँगा उसमें
यदि तुमने की कुछ भी देरी।
उज्ज्वल तारक-माला मेरी!
एकांत-गान / रामकुमार वर्मा
अरे निर्जन वन के निर्मल निर्झर!
इस एकांत प्रांत-प्रांगण में
किसे सुनाते सुमधुर स्वर?
अरे निर्जन वन के निर्मल निर्झर!
अपना ऊँचा स्थान त्याग कर,
क्यों करते हो अधःपतन?
कौन तुम्हारा वह प्रेमी है,
जिसे खोजते हो बन-बन?
विरह-व्यथा में अश्रु बहा कर,
जल-मय कर डाला सब तन।
क्या धोने को चले स्वयं,
अविदित प्रेमी के पद-रज-कन?
लघु पाषाणों के टुकड़े भी,
तुमको देते हैं ठोकर।
क्षण भर ही अविचल होकर,
कंपित होते हो गति खोकर।
लघु लहरों के कंपित कर से,
करते उत्सुक आलिंगन।
कौन तुम्हें पथ बतलाता है,
मौन खड़े हैं सब तरुगन?
अविचल चल, जल का छल छल,
गिरिपर गिरि गिरि कर कल कल स्वर।
पल पल में प्रेमी के मन में,
गूँजे, ओ विरही निर्झर!
जीवन / रामकुमार वर्मा
मौन झींगुर उस अँधेरी रात का हैं गान करते;
और तारे क्या परस्पर देख कर पहचान करते?
सुमन अपने रूप का, अपनी सुरभि का दान करते;
और अनिल तरंग अविदित रूप से मधु-पान करते।
मैं उठा हूँ जाग, यह जग
मृतक-सा क्यों रह गया है?
एक ही जीवन अनेकों
मृत्यु पर ज्यों बह गया है!
यह निशा काली-पवन ने साँस ली मानी ठहर कर;
पंख की ध्वनि-पक्षि-शावक का ध्वनि टूटा हुआ स्वर।
और पत्ते का पतन! जो अचर से कुछ हो गया चर;
देखकर मैंने कहा—अः यह निशा का मौन अंबर
शांत है, जैसे बना है साधु—
संत निरीह निश्छल;
किंतु कितने भाग्य इसने
कर दिए हैं नष्ट, निर्बल।
यह जगत है! शांति में गोपित किए हैं पाप प्रतिक्षण;
मृत्यु की छाया निशा-सी छू रही अविराम कण-कण।
हाथ को निर्बल बनाने के लिए है स्वर्ण-कंकण;
दे चुका तम-मृत्यु को नभ-तारिका-जीवन-समर्पण।
च्युत हुए पत्ते-सदृश पल में
कभी तुम टूट जाओ;
यदि सहो, तो शांति, या फिर
नित्य निखिल अशांति पाओ।
वर्षा-नृत्य / रामकुमार वर्मा
यह वर्षा झूम उठी है।
जीवन की नव हरियाली आँखों को चूम उठी है।
आँखों में जो थी छाई, वह नभ में फैल गई है;
वह घटा बिखर कर जैसे आई नित निखर नई है,
वह खोज-खोज कर मेरी आँखों की मादक पलकें,
भूली-सी नभ-आँगन में
फिर-फिर से घूम उठी है।
यह वर्षा झूम उठी है।
यह पूर्व दिशा अप्सरि-सी दे दृग में अंजन-रेखा;
लज्जित-सी नत-लोचन है, यों मैंने उसको देखा,
जैसे ही मैंने अपनी उस पर से दृष्टि उठाई,
वह साथ घटा के उमँगी
छम छम छम छम उठी है।
यह वर्षा झूम उठी है।
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